Friday 27 November 2020

कविता

 1. ऐलान 


हुआ है ऐलान
किसान देश की राजधानी दिल्ली नहीं आयेंगे !
उन्हें रोकने के लिए
लगाये हैं संगीनों के पहरे !
उन्हीं के बेटों-भतीजों-भाइयों को खड़ा कर दिया है
बंदूकें लेकर उनके ही सामने !




ये कौन हैं
जिसने किसानों को दिल्ली आने से रोकने का हुकुम सुनाया है ?
ये भारत माता की संतान तो नहीं हो सकते
ये भारत के लोग नहीं हो सकते
इनकी जड़ें भारत में होती तो ये जानते
भारत आदिकाल से किसानों का देश है
किसान ही इस देश की संस्कृति और सभ्यता हैं
किसान ही इसके व्रतों, त्योहारों और उत्सवों की परंपरा में हैं!

ये देश किसानों का है
लेकिन किसान मर रहे हैं
अभावों और कर्जों के बोझ तले
ये क़र्ज़ माफी का ढोंग कर
एक और बोझ डाल देते हैं किसानों पर
अहसान का !
शहरीकरण और उद्योग धंधों के नाम पर
इनकी ज़मीनें छीनी जा रही हैं जबरन
क़ानून के नाम पर
बेड़ियाँ और फंदे डाले जा रहे हैं
किसानों के पांवों और गले में
कि ये अपना प्रतिरोध भी दर्ज न कर सकें
इतिहास के पन्नों में!

लेकिन यह बात अच्छी तरह जान लो
अमीरों और बनियों के दलालों
किसान कमज़ोर नहीं होते
साहसी होते हैं
ये प्रकृति से भी नहीं डरते
जंगलों जानवरों से भिड़ना जानते हैं
पर्वतों का सीना चीर फसल उगाना आता है इन्हें
टेढ़े मेढ़े, उबड़ खाबड़, पथरीली, कंटीली ज़मीनों समतल बनाना जानते हैं ये.
जब तुम खून जमाती ठण्ड में रजाई ओढ़कर नींदें काट रहे होते हो
ये हंसिया से फसलें काट रहे होते हैं
कुदालों से खेतों में उगे घास निकाल रहे होते हैं
जब तुम जेठ की दुपहरी में
एसी में बैठकर जीवन के मज़े ले रहे होते हो
बिसलेरी पीते हुए जनता के लिए मीटिंगे करने का ढोंग कर रहे होते हो
किसान पाइन- नहर में ठहरे पानी पीकर
फसलों को खलिहान में ला रहे होते हैं.

किसानों ने तुम्हें जीने का आधार दिया था
अनाज दिया था टैक्स के रूप में
कि तुम उनकी रक्षा कर सको लुटेरों से
लेकिन 70 साल आते आते तुम खुद लुटेरे बन गए
तुम सेवक से सरकार
और किसान मालिक से प्रजा बन गए!
तुमने संविधान बनाते वक़्त भी किसानों के साथ धोखा किया
यह देश किसानों का है
कहते रहे सिर्फ़ ज़ुबानी
कागजों-दस्तावेजों में देश बनियों के नाम करते रहे
लुटेरों और डकैतों को भी
‘भारत के लोग’ कहकर बराबरी का हक दे दिया!
मिट्टी खोदकर अनाज उगाने वाले
और एसी में बैठकर तीन पांच करने वाले बराबर कैसे हो सकते हैं?
अनाज ज़रूरी है हर किसी के लिए
तो किसान का होना भी ज़रूरी होना चाहिए था हर जगह के लिए !

क़ानून बनाते हो तो पहले उद्योगपतियों से मीटिंगे करते हो
खी खी कर उनका मूत पीते हो 
सत्ता में बने रहने के लिए
और किसानों के साथ विकास और क़ानून के नाम पर छल करते हो
गोलियां चलवाते हो....!

बहुत हो गया
बहुत हो गया
किसानों के साथ जुर्म
किसानों ! अब जाग जाओ !
ये लोग तुम्हारी सरकार नहीं है
सेवक हैं,
जो बने बैठे हैं लुटेरे, शोषक और जोंक
ये जो घूम रहे हैं बेलगाम
इन्हें काबू में लाकर
मवेशियों की तरह बाड़े में बांधना ज़रूरी है.
नहीं तो याद रखो
ये एक दिन फसलों के साथ साथ खेत भी चर जायेंगे
फिर तुम्हारे
और तुम्हारे बच्चों के लिए
खेत की मिट्टी भी नही बचेगी!

- धनंजय कुमार
27/11/20

2. मैं भी रूबरू होना चाहती

मैं भी रूबरू होना चाहती 
उस पुलिस से 
जो रोटी नहीं 
हड्डियां चबाती हैं 

जो अपनी बेटी को सुला 
ज़ामिया पर हमले 
करने आती हैं 

जिसके बाप ने खेत 
गिरवी रख करवाई 
थी पुलिस की नौकरी 
आज वही किसान 
पर लाठिया बरसाती 
हैं 

मुझे रूबरू होना हैं उससे 
जो रात के अंधरे में 
बेटियो को जला देती हैं 
जो कानुन घूसेड़ देने 
की बात करती हैं 

मैं उन प्यादो 
के रूबरू होना चाहती 
हूँ जो मशगूल हैं 
हाकिम की 
जी हुजूरी में

- नंदिता मऊ

3. किसानों की पुकार

नए नियम से नए रूप से
नए रंग से नए ढंग से
खेती होगी
खेत का खलयान का रोना

बीज, खाद, पानी का रोना
गाय की हाय, बैल का रोना
घास, खली, भूसे का रोना
जमींदार की मार का रोना

गाली और फटकार का रोना
धर-पकड़ और बेगार का रोना
करज़े और ब्याज का रोना
बनिये और बजाज का रोना

इज़्ज़त और लाज का रोना
पटवारी की चाल का रोना
दंड राज परताल का रोना
साथी लाल बाल का रोना

आये दिन के काल का रोना
हर चीज़ और हर बात का रोना
जुग जुग से दिन रात का रोना
नहीं रहेगा, नहीं रहेगा।

दिन बदलेगा पाप कटेगा
साथी सब संताप कटेगा
अन्न खलयान से घर में आए
इसकी नौबत कब आती है

अब तक छाती फाड़ परिश्रम
करके जो कुछ फ़स्ल उगाई
वो गाढ़ी भरपूर कमाई
दो दिन अपने काम न आई

ऊपर ऊपर उड़ जाती थी
रह जाते भूके के भूके
रह जाते नंगे के नंगे
रह जाते करज़े में डूबे

जीवन कटता ब्याज चुकाते
जीवन अब कुछ होने को है
खेती, बाड़ी, बाग़ और जंगल
दूध, दही, घी नाज और फल

गाँव में जो दौलत उपजेगी
वो सबकी सब अपनी होगी
अब ये दुर्व्यवहार मिटेगा
अब ये अत्याचार मिटेगा

चालाकी में धौंस- धाँस में
दल्लालों की फोड़ -फाँस में
फुसलाने में बहकाने में
डरवाने में धमकाने में

लुट्टस- पिट्टट्स की हलचल में
धन्ना सेठ के छल बल कल में
चतुर किसान नहीं आएगा
वो अपना हिस्सा, अपना हक़

लेके रहेगा, लेके रहेगा
जीके रहेगा, मरके रहेगा
लेकिन अब कुछ करके रहेगा

हर बीघा में हर एकड़ में
पैदावार आठ गुनी होगी
भूक मिटेगी और घर-घर में
अन्नपूर्णा बास करेगी।

- फ़िराक़ गोरखपुरी


4. नयी खेती




मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा।

- रमाशंकर "विद्रोही"

5. देशद्रोही

पहले पहल आदिवासी 
अपनी जमीन की सुरक्षा में खड़े हुए
बिकाऊ मीडिया ने
उन्हें देशद्रोही का तमगा दिया
और आदिवासियों के खिलाफ
तनी बंदूक को जायज ठहरा दिया।

अब किसान उठ खड़े हुए हैं
और मीडिया भी उठ खड़ी हुई है
देशद्रोही ठहराने के लिए
किसानों के खिलाफ
खड़ी कर दी है पुलिस-फौज
बंदूक गोलों के साथ

इन्हें भ्रम है 
अपने गोले बारूद पर
लेकिन इतिहास गवाह है
जनता जब जब उठ खड़ी हुई है
तानाशाहों को कुर्सियां छोड़नी पड़ी हैं।

- संदीप कुमार

6. 

मरता है किसान तो मरने दो,
कोई सुशांत थोड़ी है, 
उजड़ता है खेत खलियान उजड़ने दो, 
कोई कंगना का मकान थोड़ी है। 


- जयंत प्रकाश

Friday 20 November 2020

सुनो मेरी कहानी-मेरी जुबानी

 यह पुस्तक एक बहादुर बोलीवियाई मजदूर औरत डोमितिला बारिओस डि चुन्गारा के जीवन संघर्ष की कहानी है। एक साधारण महिला की असाधारण कहानी। इस पुस्तक का अनुवाद अमिता शीरिन ने किया है जो बहुत ही आसान शब्दों में है और पाठक को बांधकर रखता है।






https://drive.google.com/file/d/19FRYwTxSJnhc_XPO43gJfj89pIXLU84h/view?usp=drivesdk

Thursday 12 November 2020

कविता

 अभय वसीयत..!


(अभय सिन्हा, सबौर, भागलपुर)

मैं अपने देश का एक अनाम नागरिक..!
अपनी अंतरात्मा को साक्षी मानकर..!
पूरे होशो-हवास में अपनी वसीयत, 
लिख रहा हूँ ताकि सनद रहे..! 
मेरे पास किसी को देने के लिए,
खुद के अलावा और है क्या..?
(सम्पत्ति किसकी रही है, किसकी रहेगी..?) 

मैं मरणोपरांत अपनी आंखें,
दे देना चाहता हूँ कानून को..!
ताकि कल कोई ये न कहे,
कि कानून अंधा होता है..!
मैं खोल देना चाहता हूँ..!
न्याय की देवी की आंखों पर बंधी पट्टियाँ..!
ताकि वह खुद देख सके..!
रोटी चुराने वाले के भूख का दर्द..!
और पूरे समाज का हिस्सा, 
चुराने वाले की हवस में क्या फर्क है..? 
फैसले बहुत हो चुके..!
अब इंसाफ करने का वक्त है..! 




मैं अपने कान दे देना चाहता हूँ दीवारों को,
ताकि यह बात सिर्फ़ कहावत तक न रहे..!
दीवारें सुन सकें बंद कमरे में होने वाली,
देश को बेच डालने वाली दुरभिसंधियां..!
या किसी मजलूम के 
खिलाफ होने वाली सरगोशियाँ..!
किसी बेबस की चीख सुनकर,
मन तड़प जाये तो सुन आये..! 
जाकर उखड़ी किवाड़ के पीछे,
आदम और हव्वा की खुसुर-पुसुर..!

मैं अपनी नाक दे देना चाहता हूँ..!
उस अभागे पिता को,
जिसकी नाक कट चुकी है..!
उसे देखकर, पड़ोसी अनदेखा कर जाते हैं..!
उसकी पत्नी और छोटी बेटी को,
लोग देखते हैं अश्लील नजरों से..!
क्योंकि उसकी युवा बेटी ने
इंकार कर दिया है दमघोंटू विषैले धुएं से..!
अपना आशियाना बना लिया है उसने,
इन्द्रधनुष के पार अपने प्रेमी के साथ..!

मैं अपने हाथ दे देना चाहता हूँ..!
ट्रैफिक सिग्नल पर बैठे, 
उस भिखारी लड़के को जो, 
अपने टुंडे हाथों से खिसकाता है, 
चिल्लर और नोटों से भरा अपना कटोरा..! 
रोज शाम को ठेकेदार उठा लेता है,
मुठ्ठी भर नोट, उसके कटोरे से..!
और वह ढंग से आंसू भी नहीं पोछ पाता..!
मगर शर्त है कि मेरे दिये हाथों से वह,
कटोरा नहीं, ठेकेदार का गिरेबान जायेगा..!
उसकी हथेलियां बंध जायेगीं..!
तनी मुट्ठियों की शक्ल में और वह,
हर एक से अपना हिसाब मांगेगा..!

अपना रक्त देना चाहता हूँ मैं..!
उन मुफलिसी को जिनके लिए,
ब्लड बैंक के दरवाजे कभी नहीं खुलते..!

और अंत में अपना दिल..!
मेरी जान तुमको दे देना चाहता हूं..!
ताकि तुम मुझसे प्यार करके भी,
हमेशा पवित्र और अनछुई बनी रह सको..!

Wednesday 11 November 2020

शर्मा जी, जाति को नहीं मानते

 *शर्मा जी,जाति को नहीं मानते*


शर्मा जी ने 90 के दशक की शुरुआत में पुलिस विभाग में नौकरी ज्वाइन की थी। तब से लेकर अब तक शर्मा जी प्रमोट होकर सब इंस्पेक्टर बन चुके हैं। शर्मा जी पिछले कुछ समय से सेक्टर में रहने लगे हैं। शर्मा जी ने जो अपने बच्चों को सिखाया उस में सबसे खास बात यह है कि उन्होंने अपने बच्चों को बताया कि जाति के आधार पर कोई भी छोटा बड़ा नहीं होता,सब बराबर होते हैं। किसी के साथ भी जाति के आधार पर भेदभाव नहीं करना है, हो सके तो किसी की जाति पूछनी भी नहीं है। आदर्श भारतीय बच्चों की तरह ऐसा ही शर्मा जी के बच्चे करते आए हैं उन्होंने कभी भी अपने दोस्तों की, ना अपने रिश्तेदारों की, ना अपने आस पड़ोस वालों की जाति पता करने की कोशिश की। शर्मा जी और शर्मा जी का परिवार अपनी जाति किसी को नहीं बताते। वह बात अलग है कि इनके नाम के पीछे शर्मा लगा हुआ है। शर्मा जी की बेटी बड़ी हो चुकी है। उसने पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ से मास्टर्स की है। बहुत होशियार है और शर्मा जी के परिवार में उनकी शादी को लेकर बातचीत चलती रहती है। शर्मा जी अपनी बेटी के लिए एक अच्छा सा लड़का ढूंढने में व्यस्त हो चुके हैं। एक बात जो शर्मा जी के सभी पड़ोसियों को परेशान किए हुए है वह यह है कि शर्मा जी अपनी जाति का लड़का नहीं ढूंढ रहे हैं शर्मा जी सिर्फ एक लड़का ढूंढ रहे हैं। कोई मायने नहीं रखता शर्मा जी के लिए कि लड़के की जाति क्या है? वह सिर्फ इतना चाहते हैं कि उनकी बेटी को एक अच्छा जीवन साथी हमसफ़र मिले जो उनकी बेटी को खूब प्यार दे, हर मुसीबत में उनकी बेटी के साथ खड़ा हो और पति न बनकर एक अच्छा दोस्त, एक अच्छा जीवन साथी उनकी बेटी का बन पाए। इसीलिए उन्होंने बहुत सारे रिश्ते देखे व बहुत सारे लड़कों के घरों पर गए shaadi.com जैसी वेबसाइट से पता करके भी लड़कों से मिलने गए अपनी बेटी को भी मिलवाने ले गए। 
उन्होंने अपनी बेटी से भी पूछा कि अगर उसको कोई लड़का पसंद हो तो वो उससे भी मिलने को तैयार है लेकिन लड़की की जिंदगी में ऐसा कोई लड़का था ही नहीं। ऐसे पिता भारत में दुर्लभ ही पाए जाते हैं जो अपनी बेटी का रिश्ता जाति से ऊपर उठकर करें और अपनी बेटी से ही पूछे हैं कि उसे कोई लड़का पसंद हो तो वह बता सकती है। 
अंत में एक लड़का शर्मा जी को पसंद आ गया। दोनों परिवारों की आपस में बातचीत हुई और दोनों परिवारों के बीच रिश्ते को लेकर भी बात बन गई। 
लेकिन एक गड़बड़ हो गई लड़के के पिता की इस बात में जिज्ञासा बढ़ गई कि शर्मा जी की असली जाति क्या है? लड़के के पिता ने खूब कोशिश की शर्मा जी से उनकी जाति पता करने की। शर्मा जी के बेटे से पूछा, बेटी से पूछा, उनकी पत्नी से पूछा लेकिन किसी ने भी जाती पर बात करने से मना कर दिया और कहा कि हम जाति को नहीं मानते हम सिर्फ इंसान हैं। जाति तो इंसान की बनाई हुई है इंसानियत सबसे ऊपर है। लेकिन भारद्वाज जी तो कसम खा चुके थे कि शर्मा जी की असली जाति पता करके रहेंगे बेशक शर्मा जी ने अपना गांव तक भारद्वाज जी को नहीं बताया था। भारद्वाज जी ने पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ में पढ़ रहे अपने भांजे से संपर्क किया। लड़की का नाम, पिता का नाम, माता का नाम, किस सत्र में मास्टर्स की थी वह सेशन, परसेंटेज सब बताया और कहा कि इस लड़की की कैटेगरी पता करो। लड़का विश्वविद्यालय में एक देशभक्त छात्र संगठन में सक्रिय था उसने अपने नेता जी से बात की और लड़की की कैटेगरी खोज निकाली। जब भारद्वाज जी को पता चला कि लड़की की कैटेगरी ओबीसी यानी कि अन्य पिछड़ा वर्ग है तो आग बबूला हो गए तुरंत शर्मा जी के पास फोन लगाया और गुस्से में शर्मा जी पर टूट पड़े,"तुम्हें हम अपने बराबर में ना बैठायें और तुम अपनी बेटी का रिश्ता मेरे बेटे के साथ करने चले आए। तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरा धर्म भ्रष्ट करने की? क्या तुम्हें नहीं पता की शादी के लिए गुणों के साथ-साथ जाति का मिलना भी बहुत जरूरी है?" भारद्वाज जी ने गालियां भी दी और भी न जाने क्या-क्या कहा और अंत में फोन काट दिया। इसके बाद भारद्वाज जी ने शर्मा जी के एक पड़ोसी को इसके बारे में बताया। बस फिर क्या था पूरे सेक्टर को शर्मा जी की जाती पता चल गई। लेकिन शर्मा जी अभी भी अपनी बेटी के लिए लड़का ढूंढ रहे हैं और बिना किसी जाति को ध्यान में रखे ढूंढ रहे हैं। अंत में बस एक छोटा सा सवाल बचा है कि शर्मा जी जाति को नहीं मानते लेकिन फिर भी उन्होंने नाम के पीछे शर्मा लगाया जबकि उनका वास्तविक गोत्र या सरनेम कुछ और है, आखिर ऐसा क्यों?

Monday 9 November 2020

अभियान अंक - 14, 15

 प्रिय पाठकों, हम अभियान के सभी अंकों को धीरे धीरे करके ब्लॉग पर डाल रहे हैं। आप यहां से ये सभी अंक डाउनलोड कर सकते हैं। और अगर कोई समस्या आती है तो आप janaabhiyan@gmail.com पर मेल के माध्यम से संपर्क कर सकते हैं। धन्यवाद।



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