Wednesday 30 December 2020

ऐ! नए साल




ऐ! नए साल

(संदीप कुमार) 




ऐ! नए साल

पिछले साल का हमने स्वागत किया था

शाहिन बाग आंदोलन में उठते नारों से
इस बार हम फिर से स्वागत कर रहे हैं
किसानों की बुलंद आवाज के साथ।

ऐ! नए साल
हमने, बीते साल खोए हैं अपने
चालीस से ज्यादा किसान साथी
जिनकी कुर्बानी व्यर्थ नहीं जाएगी
उनके लहू का रंग
हम सफेद नहीं होने देंगे।

ऐ! नए साल
हम लड़ेंगे तब तक
जब तक लहू का आखिरी कतरा
हमारी रगो में दौड़ता रहेगा
हम इसलिये भी लड़ेंगे
कि आने वाली पीढियां
गर्व से कह सकें
"हमारे पूर्वजों ने 
तानाशाह की आंखों में आंखें डालकर
सीधे-सीधे अपनी बातें कही
और तानाशाह के हर आदेश को
मानने से इनकार कर दिया।"

ऐ! नए साल
हम तो शांति से जीना चाहते हैं
हम बस यही चाहते हैं कि
कोई हमारे श्रम को न चुराए
हम चाहते हैं हमारे चेहरे देखकर
बच्चे चिंता की जगह, सिर्फ मुस्कुराएं
और जबतक हमारी मेहनत का पाई पाई
हमें नहीं लौटाया जाएगा
तबतक ये जंग जारी रहेगी।

ऐ! नए साल
आगाह करो तानाशाह को
ये शांति प्रिय जंग
कब अपने बचाव में हथियार उठा लेगी
कहा नहीं जा सकता
यह भी तय नहीं है कि कब ये जंग
खेत खलिहानों से होते हुए
जहर उगलती फैक्ट्रियों तक पहुंच जाएगी
और ये भी अंधेरे में है
कब ये नेतृत्व किसान-मजदूरों का 
सांझा नेतृत्व हो जाएगा।





किसान आंदोलन-3

 सही दुश्मन की पहचान कर ली है  किसान आंदोलन ने

(संजय कुमार)


(पंजाब में इस आंदोलन ने एक अलग ही शक्ल अख्तियार की है। पंजाब में जगह-जगह जिओ के टावरों को तोड़ा जा रहा है, उनकी लाइनें उखाड़ी जा रही हैं। अब तक पंजाब में 1500 से अधिक जिओ के टावर ध्वस्त किए जा चुके हैं। लाखों लोग जिओ से अन्य कम्पनियों में अपना सिम पोर्ट करा चुके हैं। अपने नुक्सान से घबराकर जिओ को ट्राई में शिकायत करनी पड़ी कि एयरटेल व वोडाफोन उसके खिलाफ दुष्प्रचार कर रही हैं। अम्बानी अडानी व रामदेव की कम्पनियों के खिलाफ लोगों में बेहद गुस्सा है।)




देश भर में किसानों का आक्रोश अपने शिखर पर है। किसानों ने दिल्ली की सीमाओं पर आकर घेरा डाला हुआ है जिसमें सभी राज्यों के किसान शामिल हो रहे हैं। इसकी शुरुआत पंजाब-हरियाणा के किसानों ने की। उसी पंजाब-हरियाणा की धरती के बाशिंदों ने जो हर विदेशी हमलावरों को दिल्ली पर हमला करने से पहले ललकारते रहे हैं। पंजाब में तो यह एक सामाजिक-सांस्कृतिक जनांदोलन बन चुका है और हर धर्म, हर जाति, हर तबके के लोग इसका हिस्सा बन चुके हैं। पंजाब के हर घर से कोई न कोई दिल्ली मोर्चे पर डटा है और रोजाना सैंकड़ों, हजारों ट्रैक्टर-ट्रालियां दिल्ली कूच कर रही हैं। 
पंजाब में इस आंदोलन ने एक अलग ही शक्ल अख्तियार की है। पंजाब में जगह-जगह जिओ के टावरों को तोड़ा जा रहा है, उनकी लाइनें उखाड़ी जा रही हैं। अब तक पंजाब में 1500 से अधिक जिओ के टावर ध्वस्त किए जा चुके हैं। लाखों लोग जिओ से अन्य कम्पनियों में अपना सिम पोर्ट करा चुके हैं। अपने नुक्सान से घबराकर जिओ को ट्राई में शिकायत करनी पड़ी कि एयरटेल व वोडाफोन उसके खिलाफ दुष्प्रचार कर रही हैं। अम्बानी अडानी व रामदेव की कम्पनियों के खिलाफ लोगों में बेहद गुस्सा है।
दरअसल किसानों को यह समझ आ गया है कि सरकार अम्बानी-अडानी जैसे चंद बड़े पूंजीपतियों के हितों के लिए यह कृषि कानून लेकर आयी है और उन्हीं के दबाव में इतनी हठधर्मिता दिखा रही है। सरकार जब एक देश, एक मार्किट की बात करती है तो यह सब पूंजीपतियों को ही फायदा पहुंचाता है क्योंकि अलग कानून और अलग बाजार व्यवस्था व टैक्स सिस्टम बड़े पूंजीपतियों के लिए सिरदर्दी का काम है और छोटे स्थानीय व्यापारी के फायदे में हैं। अगर बड़े पूंजीपति को देश के पूरे बाज़ार पर कब्जा करना है तो उसे पूरे देश में एक जैसा ढांचा चाहिए। कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर के शब्दों में मनमोहन सरकार भी ऐसा करना चाहती थी लेकिन वह यह दबाव नहीं झेल पाई। लेकिन मोदी सरकार आर्थिक सुधारीकरण की दिशा में हर जनदबाव को दरकिनार करते हुए तेजी से आगे बढ़ रही है यही कारण है कि हर सार्वजनिक विभाग का तेजी से निजीकरण किया जा रहा है। रेलवे को भी निजी हाथों में दे दिया गया तो एयरपोर्ट भी अम्बानी-अडानी को दे दिए गए। अब देश के सबसे बड़े कृषि सेक्टर पर बड़े पूंजीपतियों की गिद्ध दृष्टि जमी हुई है और पूंजीपतियों को इसमें अपार संभावनाएं दिखाई दे रही हैं। यही कारण है कि अडानी ने बड़ी रेल लाइनों के किनारे अरबों रुपये का निवेश कर बड़े भंडारगृहों का निर्माण किया है। सरकारी सहयोग और सरकार द्वारा कौड़ियों के भाव सरकारी उपक्रम दिए जाने से जहाँ लॉकडाउन के बावजूद इनकी सम्पत्ति में भारी उछाल हुआ वहीं कुछ दिनों के बहिष्कार से ही अम्बानी बड़े दस धनकुबेरों की लिस्ट से बाहर हो गया।
लेकिन उनकी इस योजना को किसानों ने पलीता लगा दिया है। पंजाब में दशहरे पर नरेंद्र मोदी और अम्बानी अडानी के पुतले फूंकने से शुरू हुआ यह आंदोलन रिलायंस के पेट्रोल पम्पों और उनके स्टोर के विरोध से अब उनके सिम पोर्ट करने से उनके टॉवर उखाड़ने तक पहुंच गया है तो समझना होगा कि अब यह आंदोलन कार्पोरेटपरस्त इस सरकार और उनके पूंजीपति आकाओं के तंबू उखाड़कर ही दम लेगा।

Friday 25 December 2020

किसान आंदोलन-2

 वर्तमान किसान आंदोलन की उपलब्धियां

 (संजय कुमार)




(इस आंदोलन ने लोगों में एक नई ऊर्जा और उत्साह का संचार किया है। अब तक जो मोदी सरकार अपराजेय नजर आ रही थी, अब लोगों में एक नई आशा की किरण जगी है कि इस सरकार को भी झुकाया जा सकता है, इसे भी हराया जा सकता है। तमाम आंदोलनकारी संगठन, ताकतें, कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी एक मंच पर आकर हुंकार भर रहे हैं। इसी आंदोलन के दौरान बिहार के विधानसभा चुनाव हुए, हैदराबाद नगर निकाय, राजस्थान में पंचायतों व जम्मू कश्मीर में जिला विकास निगम के भी चुनाव हुए जिनमें बीजेपी ने बाजी मारी और उसने यह कहना शुरू कर दिया कि लोगों ने इन बिलों के पक्ष में भाजपा को जिताया है जिस कारण इस आंदोलन ने यह भी साबित किया है कि फासीवाद और उसकी वाहक भाजपा व संघ परिवार को संसदीय राजनीति के जरिये नहीं हराया जा सकता बल्कि जनसंघर्षों के माध्यम से ही फासीवाद पर मरणांतक चोट की जा सकती है।)


देश भर में मोदी सरकार द्वारा कोरोना काल में जबरदस्ती थोपे गए तीनों कृषि कानूनों के खिलाफ जबरदस्त रोष है। इन कानूनों के वापस लिए जाने की मांग को लेकर पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान के किसान दिल्ली आने वाले सभी राजमार्गों को एक महीने से घेरकर बैठे हैं। इनके अलावा उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र व अन्य राज्यों के किसान भी दिल्ली आकर धरने पर बैठे हैं व देश के अनेक हिस्सों में किसान जिला व ब्लॉक स्तर पर मोर्चा लगाए बैठे हैं। 
जहाँ सरकार कारपोरेट घरानों के दबाव में किसानों की मांगें मानने को बिल्कुल तैयार नहीं दिखती वहीं किसान भी पूरी तैयारी के साथ दिल्ली आए हैं और अपनी बातें मजबूत तर्कों के साथ रख रहे हैं, यह आंदोलन स्थल पर बखूबी देखा जा सकता है। चाहे वह दिन रात चलने वाले लंगर हों, सर्दी और ओस से बचाव करने वाले टैंट हों, कपड़े धोने की मशीनें, पानी गर्म करने की मशीनें हों या खाना बनाने वाली मशीनें, डॉक्टरी सुविधाएं सबकुछ बहुत ही मैनेजमेंट के साथ चल रहा है। बल्कि अब तो धरनास्थल पर ही स्कूल, लाइब्रेरी भी खुल गए हैं। किसानों का कहना है कि वे अपने साथ कम से कम 6 महीने का राशन लेकर आये हैं और उन्हें अब तक अपना राशन खोलने की जरूरत नहीं पड़ी क्योंकि नजदीकी गांवों से ही इफरात में दूध, लस्सी व अन्य खाद्य सामग्री सहयोग के तौर पर पहुंचाई जा रही है।
इसका अर्थ यह है कि किसान भी सरकार से आर पार की लड़ाई के मूड में हैं। इस आंदोलन का परिणाम चाहे जो भी हो लेकिन इस आंदोलन ने देश-विदेश की राजनीति और जनता में बड़ी हलचल मचा दी है। कनाडा के प्रधानमंत्री तक को किसान आंदोलन के पक्ष में बयान देना पड़ा। मोदी सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद अपनी सम्पत्ति में अकूत उछाल देखने वाले कारपोरेट घराने अडानी को फुल पेज के विज्ञापन जारी कर सफाई देनी पड़ी है। आंदोलनकारी किसानों को खालिस्तानी, माओवादी, अतिवादी, चीनी साजिश का शिकार, कांग्रेसी, विपक्षी दलों के बहकाये गए बताने के सभी हथकंडे बेकार गए हैं। प्रायोजित किसान सम्मेलनों व किसानों द्वारा सरकार के पक्ष में ज्ञापन दिलवाकर आंदोलन में फूट डालने की कोशिशें भी काम नहीं कर पाई हैं।
हरियाणा, उत्तरप्रदेश की भाजपा सरकारों द्वारा पुलिस के इस्तेमाल, बैरिकेड, वाटर कैनन, आंसू गैस के गोले भी किसानों को दिल्ली की तरफ बढ़ने से नहीं रोक पाए। झक मारकर सरकार को किसानों को बातचीत की मेज पर बुलाना ही पड़ा।
पहली बार सरकार कुछ-कुछ झुकती दिखाई दे रही है। अब तक CAA, NRC के मुद्दे पर शाहीन बाग, रोहित वेमुला की आत्महत्या के मुद्दे पर, स्टूडेंट्स मुद्दों पर अनेकों देशव्यापी आंदोलन हुए लेकिन सरकार ने उन्हें मुस्लिमों का या टुकड़े टुकड़े गैंग के विरोध बताकर खारिज कर दिया। हालांकि सरकार द्वारा पहले इस आंदोलन को भी ऐसे ही खारिज करने की कोशिशें की गई लेकिन उन्हें मजबूरन किसान संगठनों को वार्ता की मेज पर बुलाना ही पड़ा और गृह मंत्री अमित शाह को बातचीत की कमान संभालनी पड़ी। 

इस आंदोलन ने काफी उपलब्धियां भी प्राप्त की हैं और बहुत कुछ सीखाया है जिसे याद रखना बहुत जरुरी है।

1. फासीवाद पर चोट -: पहली बार फासीवाद के खिलाफ एक बड़ा सयुंक्त मोर्चा कायम होता दिखाई दे रहा है। इस आंदोलन में सभी वर्गों, जातियों और धर्मों के लोगों ने जो एकजुटता दिखाई है, जिससे संघ परिवार को अपनी नींव हिलती दिखाई देने लगी है। उत्तर भारत में फासीवाद का मजबूत आधार बड़ा किसान, आढ़ती व व्यापारी भी आज उसके खिलाफ मजबूती से खड़ा है। इतने सालों बाद पहली बार स्वतस्फूर्त रूप से देशव्यापी बंद हुआ है।
2. हरियाणा पंजाब भाईचारा -: जहां इस आंदोलन की शुरुआत पंजाब के किसानों द्वारा हुई वहीं हरियाणा के किसान भी बड़ी संख्या में इस जत्थेबंदी में जुड़े और जगह-जगह पंजाब-हरियाणा भाईचारे के बैनर लहराए जा रहे हैं। 1966 में पंजाब से अलग होकर हरियाणा के बनने के समय से ही राजधानी पंजाब और सतलुज के पानी के बंटवारे को लेकर व अन्य कुछ मुद्दों पर पंजाब-हरियाणा में विवाद रहा है, लेकिन इस आंदोलन में दोनों प्रदेशों की जनता सभी मतभेद बुलाकर कंधे से कंधा मिलाकर साथ खड़ी है। जहाँ मोर्चे पर पंजाब के सिक्ख किसान ज्यादा है, वहीं हरियाणा के सभी गांवों से उनके लिए भोजन और अन्य सहयोग आ रहा है। सरकार ने इस भाईचारे को तोड़ने के लिए SYL का मुद्दा उछालने की भी कोशिश की लेकिन भाजपा सरकार अपने इस मनसूबे में नाकामयाब रही बल्कि किसनों ने इसे फ्लॉप कर दिया। 
3. असली दुश्मन कारपोरेट पर चोट -: इस आंदोलन ने जनता के असली दुश्मन और मोदी के सरपरस्त कारपोरेट जगत को जनता के सामने नंगा कर दिया। लोग अम्बानी, अडानी के विरोध में खुलकर आये और उनके बहिष्कार की मुहिम देशव्यापी मुहिम बन गई। यहाँ तक कि अडानी को अखबारों व मीडिया में फुल पेज के विज्ञापन देकर सफाई देनी पड़ी। अम्बानी ने भी अपने कस्टमर कम होने के लिए वोडाफोन और एयरटेल पर आरोप लगाए। अडानी के गुंडों ने करनाल के पत्रकार आकर्षण उप्पल पर हमला करवाया जिससे वह और ज्यादा बेनकाब हुआ। पहली बार किसानों ने टोल फ्री करवाकर कारपोरेट पर चोट की।
4. महिलाओं की भागीदारी -: दूरी होने के बावजूद आंदोलन में बड़ी संख्या में महिलाओं की भागीदारी है। 70 साल की बुजुर्ग औरतें भी पंजाब से जीप चलाकर दिल्ली पहुंची हैं। महिलाओं की जरूरतों का इस आंदोलन में पूरा ध्यान रखा जा रहा है। उनके लिए अलग बाथरूम से लेकर शौचालय व सेनेटरी पैड तक का बंदोबस्त किया गया है। पुरुषों द्वारा गोल रोटी बनाना व खाना बनाना सीखना एक सुखद बयार की तरह है, जिससे उन्हें घर के काम का महत्व पता चलेगा। इस तरह यह आंदोलन महिला-पुरुष समानता की दिशा में भी एक कदम है। महिला किसानों का कांसेप्ट, उनकी समस्याएं भी यह आंदोलन उठा रहा है।
5. नौजवानों की चेतना -: पंजाब का नौजवान हमेशा ही सामाजिक चेतना और क्रांतिकारी चेतना का वाहक रहा है। मुगल शासन के अत्याचारों के खिलाफ गुरु तेग बहादुर और उनके साहबजादों ने अपनी शहादत दी, आजादी की लड़ाई में करतार सिंह सराबा हो या शहीदे आजम भगत सिंह, नक्सलबाड़ी आंदोलन में भी पंजाब के नौजवानों ने बढ़ चढ़कर कुर्बानियां दी हैं, खालिस्तान के धार्मिक उन्माद के खिलाफ भी अवतार सिंह पाश सरीखे कवि ने अपनी शहादत दी। लेकिन पिछले कुछ समय से पंजाब की युवा पीढ़ी नशे और साम्राज्यवादी पॉप कल्चर की गिरफ्त में थी लेकिन इस आंदोलन ने उसे एक गहरी नींद से जगाने का काम किया है। आज वे आंदोलन में एक जुझारु भूमिका निभा रहे हैं वहीं करपोरेटवाद, साम्राज्यवाद व सरकारी जुल्म के खिलाफ गीतों, नारों व नाटकों के माध्यम से एक नई संस्कृति का भी निर्माण कर रहे हैं।
6. गजब का प्रबन्धन -: अलग अलग किसान यूनियनों के किसान और लाखों की भीड़ होने के बावजूद आन्दोलनस्थल पर गजब का अनुशासन और प्रबन्धन देखने को मिल रहा है। एक महीना से ज्यादा होने और दिल्ली की हाड़ कंपा देने वाली ठंड के बावजूद किसी तरह की कोई हड़बड़ी और अव्यवस्था नहीं है। हर व्यक्ति की जरूरतों का पूरा ध्यान रखा जा रहा है। इतने लोगों के होने के बावजूद साफ सफाई का पूरा ध्यान है। अलग अलग विचारों की मतभिन्नता के बावजूद किसान जत्थेबंदियों में आंदोलन को लेकर एकता है और सभी को उचित स्पेस मिल रहा है तभी सरकार आंदोलन में कोई फूट नहीं डाल पाई है हालांकि सरकार ने अलग अलग यूनियनों को बुलाकर ऐसा करने की भरपूर कोशिश की।
7. किसानों की राजनैतिक चेतना -: इस आंदोलन ने किसानों की राजनैतिक चेतना को प्रमुखता से बढाने का काम किया है। जहाँ किसान नेता तीनों कानूनों के हर क्लाज को इतने अच्छे से सरकार के सामने रख रहे हैं कि सरकार को इतने संसोधन लेकर सामने आना पड़ा कि किसानों ने तीनों कानूनों को रद्द कर ही वार्ता आगे बढाने की मांग कर दी है। वहीं आंदोलन में शामिल किसी भी किसान से बात कर लो वही हर कानून की धज्जियां उड़ाकर रख देता है। मीडिया वाले जानबूझकर ऐसे किसानों से बातचीत करने की कोशिश करते हैं जिसे उनकी समझ से कुछ न पता हो ताकि वे यह दिखा सके कि ये किसान बहकाकर लाये गए हैं लेकिन उन्हें निराश ही होना पड़ता है।

किसान आंदोलन की कमजोरियां -:

हर आंदोलन की कुछ न कुछ कमजोरियां भी जरूर होती हैं, वही इस आंदोलन के भी साथ है।
 
1. सामंती धनी किसानों के हाथ में नेतृत्व -:
यह आंदोलन की सबसे बड़ी कमजोरी है कि इसका नेतृत्व किसी क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के हाथ में न होकर सामंती धनी किसानों के हाथ में है व इसे आढ़तियों व जमींदारों का समर्थन प्राप्त है क्योंकि उनके हित इससे पूरी तरह गुंथे हुए हैं। लेकिन यह इस आंदोलन की कमजोरी न होकर कम्युनिस्ट पार्टी की कमजोरी है कि वह अपनी कमजोर ताकत के चलते इसकी अगुआ नहीं बन पाई। देश में कम्युनिस्ट आंदोलन बिखराव व विभ्रम का शिकार है, इसलिए आगे बढ़कर इस ऊर्जावान आंदोलन को नेतृत्व नहीं दे पा रहा है। हालांकि कई सारे कम्युनिस्ट जन संगठन व कार्यकर्ता इस आंदोलन में पूरी शिद्दत से लगे हुए हैं।
2. मजदूरों की भागीदारी -: इन कानूनों में जमाखोरी से सम्बंधित तीसरे कानून का सबसे घातक असर मजदूर और आम आदमी पर पड़ने वाला है क्योंकि आलू-प्याज की एकदम से बढ़ी हुई कीमतों के रूप में हम यह देख चुके हैं। लेकिन अभी यह आंदोलन किसानों तक ही सीमित है और बड़े पैमाने पर मजदूरों को नहीं जोड़ पाया है। बेशक मारुति वर्कर्स यूनियन और सोनीपत के मजदूर अधिकार संगठन के बैनर तले मजदूरों ने आंदोलन में भाग लिया है, लेकिन व्यापक स्तर पर मजदूरों की भागीदारी और उनके नेतृत्व में ही यह आंदोलन कामयाब हो सकता है। इसलिए मजदूर संगठनों और उनकी पार्टियों की यह महती जिम्मेवारी बनती है कि वे इन कानूनों के दुष्प्रभावों को मजदूरों के बीच लेकर जाएं और इस आंदोलन में बड़ी संख्या में शिरकत सुनिश्चित करें।
इस आंदोलन ने लोगों में एक नई ऊर्जा और उत्साह का संचार किया है। अब तक जो मोदी सरकार अपराजेय नजर आ रही थी, अब लोगों में एक नई आशा की किरण जगी है कि इस सरकार को भी झुकाया जा सकता है, इसे भी हराया जा सकता है। तमाम आंदोलनकारी संगठन, ताकतें, कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी एक मंच पर आकर हुंकार भर रहे हैं। इसी आंदोलन के दौरान बिहार के विधानसभा चुनाव हुए, हैदराबाद नगर निकाय, राजस्थान में पंचायतों व जम्मू कश्मीर में जिला विकास निगम के भी चुनाव हुए जिनमें बीजेपी ने बाजी मारी और उसने यह कहना शुरू कर दिया कि लोगों ने इन बिलों के पक्ष में भाजपा को जिताया है जिस कारण इस आंदोलन ने यह भी साबित किया है कि फासीवाद और उसकी वाहक भाजपा व संघ परिवार को संसदीय राजनीति के जरिये नहीं हराया जा सकता बल्कि जनसंघर्षों के माध्यम से ही फासीवाद पर मरणांतक चोट की जा सकती है।

Wednesday 16 December 2020

किसान आंदोलन कविताएं-2

 1. किसान 

(गौहर रजा)




तुम किसानों को सड़कों पे ले आए हो 
अब ये सैलाब हैं 
और सैलाब तिनकों से रुकते नहीं 

ये जो सड़कों पे हैं 
ख़ुदकशी का चलन छोड़ कर आए हैं 
बेड़ियां पाओं की तोड़ कर आए हैं 
सोंधी ख़ुशबू की सब ने क़सम खाई है 
और खेतों से वादा किया है के अब 
जीत होगी तभी लौट कर आएंगे 

अब जो आ ही गए हैं तो यह भी सुनो 
झूठे वादों से ये टलने वाले नहीं 

तुम से पहले भी जाबिर कई आए थे 
तुम से पहले भी शातिर कई आए थे 
तुम से पहले भी ताजिर कई आए थे 
तुम से पहले भी रहज़न कई आए थे 
जिन की कोशिश रही 
सारे खेतों का कुंदन, बिना दाम के 
अपने आकाओं के नाम गिरवी रखें 

उन की क़िस्मत में भी हार ही हार थी 
और तुम्हारा मुक़द्दर भी बस हार है 

तुम जो गद्दी पे बैठे, ख़ुदा बन गए 
तुम ने सोचा के तुम आज भगवान हो 
तुम को किस ने दिया था ये हक़, 
ख़ून से सब की क़िस्मत लिखो, और लिखते रहो 

गर ज़मीं पर ख़ुदा है, कहीं भी कोई 
तो वो दहक़ान है,
है वही देवता, वो ही भगवान है 

और वही देवता,
अपने खेतों के मंदिर की दहलीज़ को छोड़ कर 
आज सड़कों पे है 
सर-ब-कफ़, अपने हाथों में परचम लिए
सारी तहज़ीब-ए-इंसान का वारिस है जो 
आज सड़कों पे है 

हाकिमों जान लो। तानाशाहों सुनो 
अपनी क़िस्मत लिखेगा वो सड़कों पे अब 

काले क़ानून का जो कफ़न लाए हो 
धज्जियाँ उस की बिखरी हैं चारों तरफ़ 
इन्हीं टुकड़ों को रंग कर धनक रंग में 
आने वाले ज़माने का इतिहास भी 
शाहराहों पे ही अब लिखा जाएगा।

तुम किसानों को सड़कों पे ले आए हो 
अब ये सैलाब हैं 
और सैलाब तिनकों से रुकते नहीं 

2. मैं उनकी कविता होना चाहती हूँ

(रंजीत वर्मा)


वह आज फिर सिंघु बॉर्डर जाने की 
ज़िद पर अड़ी थी
कल जब वह लौटी थी
तो पाँव में पुराना दर्द लेकर लौटी थी
बावजूद इसके वह आज फिर
सिंघु बॉर्डर जाने को खड़ी थी
वह अंतिम छोर तक जाना चाहती थी
जहाँ घंटों चलने के बाद भी वह
कल नहीं पहुंच पाई थी
जब लौटी थी तो बेहाल हो चुकी थी
तभी उसने ठान लिया था कि 
कल वह फिर जाएगी
और इस बार चाहे जो हो
अंतिम छोर तक जाएगी

उसे नहीं मालूम था
कि कल वह जिस अंतिम छोर तक नहीं जा सकी थी
वह अंतिम छोर आज
आठ किलोमीटर और दूर चला गया है
और आज जब वह वहाँ पहुंचने को चलेगी 
तब तक वह अंतिम छोर 
हो सकता है कि
भगत सिंह के फांसी के फंदे को चूमता
उसके आगे निकल जाए
बॉर्डर की उस रेखा के पार निकल जाए
जो हिंदू को मुस्लिम को सिख को ईसाई को
एक-दूसरे से अलग करती है

पति ने समझाया कि अब असंभव है तुम्हारे लिए
अंतिम छोर देख पाना
उसका अंत अब कहीं नहीं है

उसने कहा जहाँ थक जाऊंगी
वहाँ मुझे बैठा देना
जहाँ आसपास कविताएं पढ़ी जा रही हो
गीत गाए जा रहे हों
जहाँ लोग अनशन में बैठे हों
वहीं मुझे भी बैठा देना
मैं उनके बीच उनकी कविता होना चाहती हूँ
उनका झूमता नाचता गीत होना चाहती हूँ
मैं उनकी भूख की आग होना चाहती हूँ
तुम अंतिम छोर देखकर आना
और मुझे पूरा हाल ठीक-ठीक बताना
मैं वहाँ सबसे पीछे खड़ी होकर उन्हें देखना चाहती हूँ

तुम कुछ सुन रहे हो हुक्मरान
समझ रहे हो कुछ
क्या कह रही है वह
और तुम सोचते हो कि
गोलमेज पर तुम किसान का हल निकाल लोगे
अपने कक्ष के गोलमेज पर तो तुम 
उनका हाल भी नहीं जान सकते
हल क्या निकालोगे
जाना होगा तुम्हें सिंघु बॉर्डर के अंतिम छोर पर खड़े
किसान तक
एक स्त्री की चिंता में वह कैसा दिखता है
पहले तुम्हें यह जानना होगा
फिर उसके बाद ही हल निकालने की सोचना।

3. धर्मवीर सिंह

विश्व का सबसे बड़ा साम्राज्य
विश्व के सबसे बड़े खेत से 
ज्यादा बड़ा नहीं हो सकता। 

इतिहास का कोई भी 
सम्राट 
अपने युग के किसान से 
ज्यादा जरूरी नहीं हो सकता।। 

4. देवेन्द्र सिंह

नीरो ने दीयों की आग से सब्र किया
शहर के भट्ठी हो जाने को
सुलगाया है उसने जो
चिंगारी इन्हीं दीयों के भीतर से हो
किसान से खालिस्तान
फिर हिन्दू
फिर सिख
फिर ज़ात
फिर सरहद
अनेक दरारों से होती
दहका देगी
मुल्क को
एक बार फिर
दंगो में,

चैन से फिर वो
बंसी बजाएगा या
सुनाएगा मन की बात
यह उसके
आका 
मार्केटिंग एजेंसियों से मिल
तय कर देंगे।

5. ललकार

( हरभगवान चावला )

क्या यह ज़रूरी है
कि ढोरों के बीच रह रहा आदमी
ख़ुद ढोर हो जाए?
यह भी ज़रूरी नहीं
कि मिट्टी जोतता आदमी
ख़ुद मिट्टी हो जाए
या कँटीली झाड़ियों को काटते हुए
आदमी की देह पर काँटे उग आएँ
किसान आदमी ही होता है
तुम्हारी तरह हाड़-मांस से बना
उसे भी भूख लगती है
पेट पर लात पड़ती है
तो उसे भी गुस्सा आता है
तुम कहते हो
किसान आसमानी बातें करता है
वह जानता नहीं कि
जिन्हें वह ललकार रहा है
वे बहुत ऊँचे लोग हैं
वह अच्छी तरह जानता है
शत्रु को पहचानता है
वह इन्सानियत को मानता है
पर साँपों का फन कुचलना जानता है
तुम भी यह जान लो-
इमारत कितनी भी ऊँची हो
आसमान से नीची ही रहती है।

6. तैयारी पूरी हो चुकी है
( सुशील मानव )

नहीं, उन्हें तुम नहीं 
तुम्हारे खेत चाहिए 
वो तो चाहते ही हैं 
कि छोड़ दो तुम घाटे का सौदा 
ताकि वो इसमें मुनाफा कमा सकें 
उनका लक्ष्य ही है अनब्रांड 
फल,सब्जी और अनाज से हमें मुक्त करना 
वैसे जैसे पानी की ब्रांडिंग की उन्होंने 
वैसे जैसे चाय की ब्रांडिंग की उन्होंने 
वैसे जैसे कपड़े की ब्रांडिंग की उन्होंने और गायब कर दिये 
हमारे गली मोहल्लों से टेलर 
वैसे ही अनाज की ब्रांडिंग करने के लिए 
वो गायब कर देंगे एक रोज तुम्हें भी, 
ओ किसानों!
ताकि हर थाली में परोस सकें वो 
पतंजलि, रिलायंस और अडानी 
विल्मार के दाल,चावल और रोटी 
उनकी तैयारी पूरी हो चुकी है 
तुम्हें गाँव से खींचकर शहर लाने की।

ठीक बुआई से पहले नोटबंदी ऐसी ही एक साजिश थी 
जानबूझकर रखा जाएगा न्यूनतम 
तुम्हारे फसलों का समर्थन मूल्य 
समय से नहीं किया जाएगा तुम्हें 
तुम्हारी फसलों का भुगतान 
गायब कर दिए जाएँगे बाजार से उर्वरक,कीटनाशक और बीज 
ऐन बुआई से पहले 
जीएम बीज एक ऐसी ही साजिश थी 
कि बोओगे उम्मीद और उगेगें आँसू 
जहाँ बैंक तुम्हें आसानी से दे देंगे कर्ज 
वहाँ तुम्हारे खेतों की नीलामी का जिम्मा बैंकों के हाथ होगा 
जहाँ बैंक नहीं देंगे कर्ज वहाँ अडानी,अंबानी के हाथों
तुम्हारे खेतों की नीलामी का जिम्मा 
गाँव के सेठों,साहूकारों , दबंगों का होगा 
खरीद लिए गए हैं सारे संस्थान 
खरीद ली गई हैं वोटिंग मशीनें 
अब कई वर्षों तक नहीं बदलेंगी सरकार 
सबसे बड़े हत्यारे को दे दिया गया है टेंडर 
खेत और खलिहान खाली कराने का 
जबकि एवज में खोल दी गई है लूट की कमाई 
बड़े हत्यारे के नीचे कई मझोले हत्यारे 
मझोलों के नीचे छोटे हत्यारे कर दिए गए हैं तैनात 
हत्याओं का न्यायीकरण कर दिया जाएगा 
प्रतिरोध करने वाले किसान 
असमाजिक तत्व कहकर मारा जाएगा 
ठीक वैसे ही जैसे मारा जाता है 
प्रतिरोध करने वाले आदिवासियों को नक्सली बताकर 
तुम्हारे शान्तिप्रद प्रतिरोध को 
विपक्ष की साजिश बताकर 
गुमराह कर दिया जाएगा 
बड़े जन समूहों के समाज को 
ताकि समाज में न उपजे तुम्हारे प्रति समर्थन का भावबोध 
बिल्कुल वैसे ही जैसे वामपंथियों की साजिश बताने पर नहीं उपजता है 
तुम्हारे मन में सहानुभूति 
और समर्थन का भावबोध 
शांतिप्रद आदिवासी आंदोलनों के प्रति
विपक्ष की मरम्मत के लिए ही 
खोले व बनाए गए हैं 
कई हिंदू सेना व प्रकोष्ठ 
जिसमें भर्ती किए गए हैं किराए के बाउंसर 
'विपक्ष' दरअसल कोड है उनका 
विपक्ष- मुक्त माने प्रतिरोध मुक्त 
तो कौन है उनका असली विपक्ष 
दरअसल किसान और आदिवासी ही उनका मुख्य विपक्ष है 
जिसके पास जमीन और जंगल है 
उन्हें हमारी जमीन चाहिए 
उन्हें हमारे जंगल चाहिए 
आदिवासियों ने तो कब का शुरू कर दिया है अपना संघर्ष 
अब बारी हमारी, हम किसानों की है 
संकट अब हमारे अस्तित्व का है 
उनकी तैयारी पूरी हो चुकी है
अब करो या मरो 
मरो या करो।

Sunday 6 December 2020

किसान आंदोलन - 1

 किसान आंदोलन - एक अवलोकन

(डॉक्टर प्रदीप)



देश की राजधानी इस वक्त एक अलग किस्म की सुनामी देख रही है। यह देखना बेहद सुखद है कि जब राजसत्ता अपने सर्वाधिक निरकुंश तौर तरीकों से विरोध के प्रत्येक स्वर को दबाने पर तुली थी, विरोध की हर आवाज को देश विरोध के नाम पर बदनाम करने की कोशिश कर रही थी, जब अधिकांश मीडिया भांडगिरी का चरम प्रदर्शन कर रहा था, ठीक उसी समय लाखों-लाख किसान जनविरोधी कानूनों को रद्द करवाने के लिए दिल्ली को घेरे खड़े हैं और हजारों की संख्या में किसान प्रत्येक दिन दिल्ली की ओर कूच कर रहे हैं। 

किसान कहीं दिल्ली न पहुंच जाएं, यह डर इतना ज्यादा था कि किसानों को रोकने के लिए जो हथकंडे सरकार द्वारा अपनाये गये, वो इस प्रकार के थे मानो किसी दुश्मन सेना का रास्ता रोका जा रहा हो। सडकों पर आठ-आठ फूट गहरी खंदकें खोद दी गई। बड़े-बड़े बोल्डर(पत्थर) सडकों पर डाल दिए गए। लेकिन किसानों की सुनामी को रोका नहीं जा सका। सरकारें कुछ सालों से इस मुगालते में राज कर रही हैं कि जो वो कर रही है, जो वो कह रही हैं, जनता उस सब को आंखें बंद करके स्वीकार कर लेंगी। 

जो तीन कृषि कानून सरकार ने लागू किए हैं, इनके बारे में सरकार ने किसी की राय ली? भाजपा के बिकाऊ प्रवक्ताओं ने मीडिया के सामने ताल ठोकी कि ये कानून बहुत विचार विमर्श व जन समुदाय से राय लेकर बनाए गए हैं और जनता इसका विरोध नहीं कर रही, केवल विपक्ष इसे अपनी राजनीति के लिए मुद्दा बना रहा है। लेकिन जल्दी ही उसके पूराने सहयोगी दल शिरोमणि अकाली दल ने इस मुद्दे पर एनडीए छोड़ दी, उसके एक और पुराने मित्र चौटाला ने नुक्ताचीनी शुरू कर दी। इसलिये नहीं कि अकाली दल व जजपा किसानों की हितैषी है। जब बिल पास हो रहे थे तो इनका समर्थन बाजपा को था। लेकिन इन कानूनों के जनता द्वारा जबरदस्त विरोध को देखते हुए इन्हें समझ में आ गया कि अगर उन्होंने अपनी पॉजिशन नहीं बदली तो जनता इन्हें गटर में फैंक देगी। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इन कानूनों को बनाने से पहले आर.एस.एस. से जुड़े भारतीय किसान संघ से भी कोई राय नहीं ली गई, किसी ओर किसान संगठन से राय मशविरा करना तो बहुत दूर की बात है।

अगर अपने ही किसान संगठन से राय नहीं तो किसकी इच्छा से ये कानून बनाये गए और वे भी अध्यादेश के माध्यम से? मोदी सरकार को ऐसी क्या जल्दी पड़ी थी कि जब देश लॉकडाउन में फंसा हुआ था, सरकार ने अध्यादेश के द्वारा यह कृषि बदलाव करने का षड्यंत्र रचा? अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि ये तीनों कानून बड़ी कंपनियों की कृषि क्षेत्र में घुसपैठ और मुनाफे को सुनिश्चित करते हैं।

हर व्यक्ति जानता है कि फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य असल में अधिकतम मूल्य है जो किसानों को मिल पाता है। मात्र 6% फसल इस मूल्य पर बिक पाती है, बाकि 94% फसलें इस एमएसपी से 50% तक कम मूल्य पर बिकती हैं। जहां एमएसपी मिलता है, वो इलाके मुख्यतः पंजाब और हरियाणा में हैं जहां मंडी व्यवस्था कायम है। बाकि राज्यों में न मंडी है न एमएसपी है। इसमें कोई शक नहीं है कि मंडी व्यवस्था, कोई बेहतरीन व्यवस्था नहीं है। और यह भी सच्चाई है कि आढतियों ने किसानों को अपने कर्ज जाल में फंसा रखा है। नए कृषि कानून किसानों को आढ़तियों से भी बढ़ी जोंकों के शिकंजे में फंसाने का इंतजाम करते है। यह उम्मीद करना कि किसानों को मंडी से बाहर बेहतर रेट मिल सकते हैं, मूर्खता होगी। देश के किसी भी क्षेत्र में ऐसा नहीं हो पाया है। लेकिन इसकी इजाजत देकर कंपनियों का रास्ता जरूर साफ कर दिया है। अब अगर अंबानी व अडाणी कृषि उत्पाद खरीदने के लिए बाजार का रूख करेगा तो वह कोई 50-100 क्विंटल तो खरीदेगा नहीं। उनके पास हजारों टन की भण्डार क्षमता है। अभी तक कृषि उत्पाद आवश्यक वस्तुओं की श्रेणी में आते थे इसलिए एक मात्रा से अधिक कोई व्यक्ति/कंपनी ये खरीद नहीं सकती थी इसलिये दूसरे कृषि कानून की जरूरत पड़ी जहां जमाखोरी पर से सभी प्रतिबंध हटा लिए गए हैं। इसी से जुड़ा तीसरा कानून कांट्रेक्ट खेती से जुड़ा है। स्पष्ट है पूंजीपतियों को अपनी फैक्ट्रियों के लिए कच्चा माल चाहिए। कांट्रेक्ट खेती के द्वारा वो अपनी मर्जी का माल पैदा करने के लिए किसानों को बाध्य करेंगे। ब्रिटिश काल में नील की खेती करने वाले किसानों की दुर्दशा इतिहास के पन्नों में खूब दर्ज है। वर्तमान में भी अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय अनुभव यही बताते हैं कि कांट्रेक्ट खेती में घाटा हमेशा किसान को ही रहा है। खराब गुणवत्ता के नाम पर किसान की फसल सस्ते दाम पर खरीद ली जाती है। 

अंत: सरकार ने किसानों से राय करने के बाद नहीं बल्कि कारपोरेट जगत से बात करने के बाद ये कृषि कानून लागू किए गए। ये कानून केवल किसानों को ही प्रभावित नहीं करेंगे बल्कि देश कि 80% आबादी के लिए नुकसानदायक साबित होने वाले हैं क्योंकि आधे से ज्यादा आबादी प्रत्यक्ष तौर पर और एक चौथाई आबादी अप्रत्यक्ष तौर पर खेती से जुड़ी है। इसलिये देश के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य बनता है कि तीनों नए कृषि कानूनों को रद्द करने के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करें। यह संघर्ष देश की जनता के अधिकारों का, कारपोरेट जगत की अंधी लूट की खिलाफत का संघर्ष है। 

लेकिन इस पूरे घटनाक्रम का एक अन्य आयाम भी है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सभी किसान संगठन स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने की बात कर रहे हैं, निस्संदेह होनी भी चाहिए लेकिन स्वामीनाथन आयोग तो जमीन के वितरण की, भूमि सुधारों की भी बात करता है। इस पर किसान संगठन चुप्पी साधे हैं। इस आंदोलन में कृषि क्षेत्र से जुड़ी आधी आबादी सिरे से गायब है। खेत मजदूर, भूमिहीन किसानों के लिए इस आंदोलन में कोई जगह नहीं है। किसान आंदोलन ने उन्हें अपने से दूर कर रखा है और यह इस आंदोलन की एक बहुत बड़ी कमजोरी है। जो वर्ग किसी भी कृषि संघर्ष की मुख्य ताकत होना चाहिए, वही हाशिये पर नजर आ रहा है। दूसरी ओर यहां आढ़तिए उत्पीड़ित के रूप में और मसीहा के रूप में पेश किए जा रहे हैं। सच्चाई तो यह है कि आढतिया पूराने सूदखोर का ही नया रूप है। (आढ़तिये ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सामंती सत्ता के प्रतीक हैं) किसानों को मंडी में आढतियों की लूट से मुक्ति चाहिए थी लेकिन वर्तमान आंदोलन आढतियों के समर्थन, सहयोग से चल रहा है। ग्रामीण क्षेत्र के संकट को दूर करने के लिए जरूरत तो आमूलचूल बदलाव की है जो नए कृषि कानूनों को रद्द कर पैबंद लगाने से दुरूस्त नहीं होगी। असल में कृषि कानूनों के विरोध के नाम पर कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा आदि संसदीय पार्टियों के बीच चल रही नूरा कुश्ती को भी समझने की जरूरत है। साल 1991 से आज तक के तीस सालों के दौरान देश का प्रत्येक राजनीतिक दल कभी न कभी सत्ता में रहा है। विपक्ष में रहते हुए जो पार्टियां विदेशी कंपनियों का पुरजोर विरोध करती नजर आती हैं, वही सत्ता में आते ही चुप्पी की चादर ओढ लेती हैं। आज कांग्रेस इन कानूनों का विरोध करती नजर आ रही है लेकिन अगर कांग्रेस सत्ता में होती तो उसी ने इन कानूनों को लागू करना था क्योंकि कांग्रेस हो या भाजपा, या कोई और पार्टी आर्थिक नीतियां साम्राज्यवादियों के ही इशारे से चल रही हैं। 

सार रूप में आढ़तियों व बड़े जमींदारों व धनी किसानों के सहयोग से चल रहा यह आंदोलन वर्गीय संरचना में कोई बदलाव नहीं करेगा। भूमि सुधारों के बिना , कृषि क्रांति के बिना भूमिहीनों, गरीब किसानों, खेत मजदूरों के जीवन में कोई बदलाव नहीं आएगा। लेकिन व्यापक जनमानस में प्रचंड साम्राज्यवादी हमले का प्रतिरोध करने की चेतना अवश्य पैदा करेगा और सत्ता के घमंड में चूर दिल्ली की सल्तनत को जनता की ताकत का अहसास दिलाएगा जो लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए बेहद जरूरी है।