Friday 26 June 2020

गजल/कविता

अदम गोंडवी


हम में कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए


ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले

ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेड़िए



हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ

मिट गए सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िए



छेड़िए इक जंग, मिल-जुल कर ग़रीबी के ख़िलाफ़

दोस्त, मेरे मज़हबी नग्मात को मत छेड़िए

Thursday 25 June 2020

गजल/कविता

तुफान कभी मात नहीं खाते
   ( अवतार सिंह 'पाश' )

हवा का रूख बदलने से
बहुत उछले, बहुत कूदे
वे जिनके शामियाने डोल चुके थे
उन्होंने ऐलान कर दिया
अब वृक्ष शांत हो गए हैं
अब तूफान का दम टूट गया है -

जैसे कि जानते ही न हों
ऐलानो का तूफानों पर
कोई असर नहीं होता
जैसे कि जानते ही न हों
वह उमस बहुत गहरी थी
जहाँ से तूफान ने जन्म लिया 
जैसे कि जानते ही न हों
तूफानों की वजह
वृक्ष ही नहीं होते
वरन् वह घुटन होती है
धरती का मुखड़ा जो
धूल में मिलाती है
ओ भ्रमपुत्रो, सुनो
हवा ने दिशा बदली है
हवा बंद नहीं हो सकती

जब तक कि धरती का मुखड़ा
टहक गुलजार नहीं बनता
तुम्हारे शामियाने आज गिरे
कल गिरे
तूफान कभी मात नहीं खाते ।

Tuesday 23 June 2020

गजल/कविता

कचोटती स्वतन्त्रता 
( नाज़िम हिक़मत )

तुम खर्च करते हो अपनी आँखों का शऊर,
अपने हाथों की जगमगाती मेहनत,
और गूँधते हो आटा दर्जनों रोटियों के लिए काफ़ी
मगर ख़ुद एक भी कौर नहीं चख पाते,
तुम स्वतन्त्र हो दूसरों के वास्ते खटने के लिए
अमीरों को और अमीर बनाने के लिए
तुम स्वतन्त्र हो ।

जन्म लेते ही तुम्हारे चारों ओर
वे गाड़ देते हैं झूठ कातने वाली तकलियाँ
जो जीवनभर के लिए लपेट देती हैं
तुम्हें झूठ के जाल में ।
अपनी महान स्वतन्त्रता के साथ
सिर पर हाथ धरे सोचते हो तुम
ज़मीर की आज़ादी के लिए तुम स्वतन्त्र हो ।

तुम्हारा सिर झुका हुआ मानो आधा कटा हो
गर्दन से,
लुंज-पुंज लटकती हैं बाँहें,
यहाँ-वहाँ भटकते हो तुम
अपनी महान स्वतन्त्रता में,
बेरोज़गार रहने की आज़ादी के साथ
तुम स्वतन्त्र हो ।

तुम प्यार करते हो देश को
सबसे क़रीबी, सबसे क़ीमती चीज़ के समान ।
लेकिन एक दिन, वे उसे बेच देंगे,
उदाहरण के लिए अमेरिका को
साथ में तुम्हें भी, तुम्हारी महान आज़ादी समेत
सैनिक अड्डा बन जाने के लिए तुम स्वतन्त्र हो ।
तुम दावा कर सकते हो कि तुम नहीं हो
महज़ एक औज़ार, एक संख्या या एक कड़ी
बल्कि एक जीता-जागते इन्सान
वे फौरन हथकड़ियाँ जड़ देंगे
तुम्हारी कलाइयों पर ।
गिरफ़्तार होने, जेल जाने
या फिर फाँसी चढ़ जाने के लिए
तुम स्वतन्त्र हो ।

नहीं है तुम्हारे जीवन में लोहे, काठ
या टाट का भी परदा,
स्वतन्त्रता का वरण करने की कोई ज़रूरत नहीं :
तुम तो हो ही स्वतन्त्र ।
मगर तारों की छाँह के नीचे
इस क़िस्म की स्वतन्त्रता कचोटती है ।

Sunday 21 June 2020

कहानियां

युद्ध

( लुइगी पिरांडेलो )


रातवाली एक्सप्रेस ट्रेन से जो यात्री रोम के लिए चले थे उन्हें सुबह तक फैब्रियानो नामक एक छोटे-से स्टेशन पर रुकना था। वहाँ से उन्हें मुख्य लाइन से सुमोना को जोड़नेवाली एक छोटी, पुराने फैशन की लोकल ट्रेन से आगे के लिए अपनी यात्रा करनी थी।

उमस और धुएँ से भरे सेकंड क्लास डिब्बे में पाँच लोगों ने रात काटी थी। सुबह मातमी कपड़ों में लिपटी एक भारी-भरकम औरत तकरीबन एक बेडौल गट्ठर की तरह उसमें लादी गई। उसके पीछे हाँफता-कराहता उसका पति आया - एक छोटा, दुबला-पतला और कमजोर आदमी। उसका चेहरा मौत की तरह सफेद था। आँखें छोटी और चमकती हुई। देखने में शर्मीला और बेचैन।

एक सीट पर बैठने के बाद उसने उन यात्रियों को नम्रता के साथ धन्यवाद दिया जिन्होंने उसकी पत्नी के लिए जगह बनाई थी और उसकी सहायता की थी। तब वह औरत की ओर पलटा और उसके कोट की कॉलर को नीचा करते हुए जानना चाहा :'तुम ठीक तो हो न, डियर?'

पत्नी ने उत्तर देने के स्थान पर अपना चेहरा ढँका रखने के लिए कोट का कॉलर पुन: अपनी आँख तक खींच लिया।

'बेरहम दुनिया,' पति मुस्कुराहट के साथ बुदबुदाया। उसे यह अपना कर्तव्य लगा कि वह अपने सहयात्रियों को बताए कि बेचारी औरत दया की पात्र थी। युद्ध उसके इकलौते बेटे को उससे दूर ले जा रहा था। बीस साल का लड़का जिसके लिए उन दोनों ने अपनी पूरी जिंदगी दे डाली थी। यहाँ तक कि उन्होंने अपना सुलमौवा का घर भी छोड़ दिया था ताकि वे बेटे के साथ रोम जा सकें। जहाँ एक छात्र के रूप में वह गया था। और तब उसे इस आश्वस्ति के साथ युद्ध में स्वयंसेवक बनने की अनुमति दी गई थी कि कम-से-कम छह महीने तक उसे सीमा पर नहीं भेजा जाएगा। और अब अचानक तार आया है कि वे आ कर उसे विदा करें। उसे तीन दिन के भीतर सीमा पर जाना है।

लंबे कोट के भीतर से औरत कसमसा रही थी। कभी-कभी जंगली पशु की तरह गुर्रा रही थी। इस पक्के विश्वास के साथ कि ये सारी व्याख्याएँ इन लोगों में सहानुभूति की छाया भी नहीं जगाएँगी - पक्के तौर पर वे भी उसी नरक में हैं जिसमें वह है। उनमें से एक व्यक्ति, जो खास ध्यान से सुन रहा था, बोला : 'तुम्हें खुदा का शुक्रगुजार होना चाहिए कि तुम्हारा बेटा अब सीमा के लिए विदा हो रहा है। मेरा तो युद्ध के पहले ही दिन वहाँ भेज दिया गया था। वह दो बार जख्मी हो कर लौट आया। ठीक होने पर फिर से उसे सीमा पर भेज दिया गया है।'

'मेरा क्या? मेरे दो बेटे और तीन भतीजे सीमा पर हैं,' एक दूसरे आदमी ने कहा।

'हो सकता है, पर हमारी स्थिति भिन्न है। हमारा केवल एक बेटा है,' पति ने जोड़ा।

'इससे क्या फर्क पड़ता है? भले ही तुम अपने इकलौते बेटे को ज्यादा लाड़-प्यार से बिगाड़ो पर तुम उसे अपने बाकी बेटों (अगर हों) से ज्यादा प्यार तो करोगे नहीं? भला प्यार कोई रोटी नहीं जिसको टुकड़ों में तोड़ा जाए और सबके बीच बराबर-बराबर बाँट दिया जाए। एक पिता अपना समस्त प्यार अपने प्रत्येक बच्चे को देता है। बिना भेदभाव के। चाहे एक हो या दस। और आज मैं अपने दोनों बेटों के लिए दु:खी हूँ। उनमें से हरेक के लिए आधा दु:खी नहीं हूँ। बल्कि दुगुना...'

'सच है...सच है' पति ने लज्जित हो कर उसाँस भरी। लेकिन मानिए (हालाँकि हम प्रार्थना करते हैं कि यह तुम्हारे साथ कभी न हो) एक पिता के दो बेटे सीमा पर हैं और उनमें से एक मरता है। तब भी एक बच जाता है। उसे दिलासा देने को। लेकिन जो बेटा बच गया है, उसके लिए उसे अवश्य जीना चाहिए। जबकि एकलौते बेटे की स्थिति में अगर बेटा मरता है तो पिता भी मर सकता है। अपनी दारुण व्यथा को समाप्त कर सकता है। दोनों में से कौन-सी स्थिति बदतर है?'

'तुम्हें नहीं दीखता मेरी स्थिति तुमसे बदतर है?'

'बकवास,' एक दूसरे यात्री ने दखल दिया। एक मोटे लाल मुँहवाले आदमी ने जिसकी पीली-भूरी आँखें खून की तरह लाल थीं।

वह हाँफ रहा था। उसकी आँखें उबली पड़तीं थीं, अंदर के घुमड़ते भयंकर तूफान को वेग से बाहर निकालने को बेचैन लग रही थीं, जिसे उसका कमजोर शरीर मुश्किल से साध सकता था।

'बकवास,' उसने दोहराया। अपने मुँह को हाथ से ढँकते हुए ताकि अपने सामने के खोए हुए दाँतों को छिपा सके।

'बकवास। क्या हम अपने बच्चों को अपने लाभ के लिए जीवन देते हैं?'

दूसरे यात्रियों ने उसकी ओर कष्ट से देखा। जिसका बेटा पहले दिन से युद्ध में था, उसने लंबी साँस ली, 'तुम ठीक कहते हो। हमारे बच्चे हमारे नहीं हैं; वे देश के हैं...।'

'बकवास,' मोटे यात्री ने प्रत्युत्तर में कहा।

'क्या हम देश के विषय में सोचते हैं जब हम बच्चों को जीवन देते हैं? हमारे बेटे पैदा होते हैं... क्योंकि...क्योंकि...खैर। वे जरूर पैदा होने चाहिए। जब वे दुनिया में आते हैं हमारी जिंदगी भी उन्हीं की हो जाती है। यही सत्य है। हम उनके हैं पर वे कभी हमारे नहीं हैं। और जब वे बीस के होते हैं तब वे ठीक वैसे ही होते हैं जैसे हम उस उम्र में थे। हमारे पिता भी थे और माँ थी। लेकिन उसके साथ ही बहुत-सी दूसरी चीजें भी थीं जैसे - लड़कियाँ, सिगरेट, भ्रम, नए रिश्ते...और हाँ, देश। जिसकी पुकार का हमने उत्तर दिया होता - जब हम बीस के थे - यदि माता-पिता ने मना किया होता तब भी। अब हमारी उम्र में, हालाँकि देश प्रेम अभी भी बड़ा है, लेकिन उससे भी ज्यादा तगड़ा है हमारा अपने बच्चों से प्यार। क्या यहाँ कोई ऐसा है जो सीमा पर खुशी से अपने बेटे की जगह नहीं लेना चाहेगा?'

चारों ओर सन्नाटा छा गया। सबने सहमति में सिर हिलाया।

'क्यों...' मोटे आदमी ने कहना जारी रखा। 'क्यों हम अपने बच्चों की भावनाओं को ध्यान में नहीं रखें जब वे बीस साल के हैं? क्या यह प्राकृतिक नहीं है कि वे सदा देश के लिए ज्यादा प्रेम रखें, अपने लिए प्रेम से ज्यादा (हालाँकि, मैं कुलीन लड़कों की बात कर रहा हूँ)? क्या यह स्वाभाविक नहीं कि ऐसा ही हो? क्या उन्हें हमें बूढ़ों के रूप में देखना चाहिए जो अब चल-फिर नहीं सकते और घर पर रहना चाहिए? अगर देश, अगर देश एक प्राकृतिक आवश्यकता है, जैसे रोटी, जिसे हम सबको भूख से नहीं मरने के लिए अवश्य खाना है, तो किसी को देश की सुरक्षा अवश्य करनी चाहिए। और हमारे बेटे जाते हैं जब वे बीस बरस के हैं। और वे आँसू नहीं चाहते हैं। क्योंकि अगर वे मर गए तो वे गर्वित और प्रसन्न मरें (मैं कुलीन लड़कों की बात कर रहा हूँ)। अब अगर कोई जवान और प्रसन्न मरता है, बिना जिंदगी के कुरूप पहलू को देखे। ऊब, क्षुद्रता और विभ्रम की कड़वाहट के बिना...इससे ज्यादा हम उनके लिए क्या कामना कर सकते हैं? सबको रोना बंद करना चाहिए। सबको हँसना चाहिए, जैसा कि मैं करता हूँ...या कम-से-कम खुदा का शुक्रिया अदा करना चाहिए...जैसा कि मैं करता हूँ, - क्योंकि मेरा बेटा, मरने के पहले उसने मुझे संदेश भेजा था कि सर्वोत्तम तरीके से उसके जीवन का अंत हो रहा है। उसने संदेश भेजा था कि इससे अच्छी मौत उसे नहीं मिल सकती। इसीलिए तुम देखो, मैं मातमी कपड़े भी नहीं पहनता हूँ...'

उसने भूरे कोट को दिखाने के लिए झाड़ा। उसके टूटे दाँतों के ऊपर उसका नीला होंठ काँप रहा था। उसकी आँखें पनीली और निश्चल थीं। उसने एक तीखी हँसी से समाप्त किया जो एक सिसकी भी हो सकती थी।

'ऐसा ही है... ऐसा ही है...' दूसरे उससे सहमत हुए।

औरत जो कोने में अपने कोट के नीचे गठरी बनी हुई-सी बैठी थी, सुन रही थी - पिछले तीन महीनों से - अपने पति और दोस्तों के शब्दों से अपने गहन दु:ख के लिए सहानुभूति खोज रही थी। कुछ जो उसे दिखाए कि एक माँ कैसे ढाढ़स रखे जो अपने बेटे को मौत के लिए नहीं, एक खतरनाक जिंदगी के लिए भेज रही है। बहुत-से शब्द जो उससे कहे गए उनमें से उसे एक भी शब्द ऐसा नहीं मिला था... और उसका कष्ट बढ़ गया था। यह देख कर कि कोई - जैसा कि वह सोचती थी - उसका दु:ख बाँट नहीं सकता है।

लेकिन अब इस यात्री के शब्दों ने उसे चकित कर दिया था। उसे अचानक पता चला कि दूसरे गलत नहीं थे और ऐसा नहीं था कि उसे नहीं समझ सके थे। बल्कि वह खुद ही नहीं समझ सकी थी। उन माता-पिता को जो बिना रोए न केवल अपने बेटों को विदा करते हैं वरन उनकी मृत्यु को भी बिना रोए सहन करते हैं।

उसने अपना सिर ऊपर उठाया। वह थोड़ा आगे झुक गई ताकि मोटे यात्री की बातों को ध्यान से सुन सके। जो अपने राजा और अपने देश के लिए खुशी से अपने बेटे के, बिना पछतावे के वीर गति पाने का अपने साथियों से विस्तार से वर्णन कर रहा था। उसे ऐसा लग रहा था मानो वह एक ऐसी दुनिया में पहुँच गई है जिसका उसने स्वप्न भी नहीं देखा था - उसके लिए एक अनजान दुनिया और वह यह सुन कर खुश थी कि उस बहादुर पिता को सब लोग बधाई दे रहे थे। वह इतने उदासीन संयम से अपने बच्चे की मौत के बारे में विरक्ति के साथ बता रहा था।

और तब अचानक मानो जो कहा गया था उसका एक शब्द भी उसने न सुना हो। मानो वह एक स्वप्न से जगी हो। वह बूढ़े आदमी की ओर मुड़ी और उसने पूछा, 'तब...तुम्हारा बेटा सच में मर गया है?'

सबने उसे घूरा। बूढ़ा भी घूम कर अपनी बाहर को निकली पड़ती, भयंकर पनीली, हलकी-भूरी आँखों को उसके चेहरे पर जमाते हुए उसे देखने लगा। थोड़ी देर उसने उत्तर देने की कोशिश की। लेकिन शब्दों ने उसका साथ न दिया। वह उसे देखता गया। देखता गया। जैसे केवल अभी - उस बेवकूफ, बेतुके प्रश्न से - उसे अचानक भान हुआ कि उसका बेटा सच में मर चुका है - हमेशा के लिए जा चुका है - हमेशा के लिए उसका चेहरा सिकुड़ गया। बुरी तरह से बेढंगा हो गया। तब उसने तेजी से अपनी जेब से रूमाल निकाला और सबके अचरज के लिए हृदय दहलानेवाली चीत्कार के साथ हिलक-हिलक कर बेरोकटोक सिसकियों में फूट पड़ा।

Friday 19 June 2020

गजल/कविता


युद्ध के मालिक
( बॉब डिलन )


आओ युद्ध के मालिकों
तुमने ही बनाईं सारी बंदूकें
तुमने ही बनाए मौत के सारे हवाई जहाज
तुमने बम बनाए
तुम जो दीवारों के पीछे छिपते हो
छिपते फिरते हो तुम तिपाई के पीछे
मैं चाहता हूँ कि तुम जान लो
कि मैं तुम्हारे मुखौटे से देख सकता हूँ

तुमने कभी कुछ नहीं किया
लेकिन जो भी बनाया वह विनाश के लिए
तुम मेरी दुनिया से करते हो खिलवाड़
जैसे यह तुम्हारा छोटा सा गुड्डा हो
मेरे हाथों में बंदूक थमा कर
मेरी आँख से ओझल हो गए तुम
तुमने पीठ दिखाकर सरपट दौड़ लगा दी
जैसे बंदूक की गोली

किस्सों वाले जुडास की तरह
तुम झूठ बोलते और देते हो धोखा
विश्वयुद्ध फतह किया जा सकता है
ऐसा तुम भरोसा दिलाते हो मुझे
लेकिन मैं तुम्हारी आँखों से देखता हूँ
और मैं तुम्हारे दिमाग से देखता हूँ
जैसे मैं पानी के भीतर देखता हूँ
पानी जो मेरे घर की नाली में बहता है

तुमने ट्रिगर कर दिए हैं तेज
लोग और तेजी से करें फायर
फिर तुम आराम से बैठकर मजा लेते हो
काफी हो जाती हैं मौतें जब
तुम अपनी हवेली में दुबक जाते हो
नौजवानों के शरीर से बहता लहू
उन्हें उस लाल कीचड़ में दफनाता है

तुमने सबसे भयानक डर फैलाए हैं
नहीं मिलेगी मुक्ति जिनसे कभी
कि दुनिया में बच्चे न आएँ
मेरा अजन्मा अनाम शिशु न आए इस दुनिया में
तुम उस खून के काबिल भी नहीं
जो बहता है तुम्हारी नसों में

मैं जानता हूँ जितना
बढ़-चढ़ बहस करना
कह सकते हो तुम कि मैं हूँ जवानी के जोश में
नादान हूँ मैं
भले ही तुमसे मैं छोटा हूँ
लेकिन एक चीज मैं जानता हूँ
तुम्हें ईसा भी नहीं करेंगे माफ
तुम्हारी कारगुजारियों के लिए

तुमसे एक सवाल है
क्या तुम्हारी दौलत
तुम्हें माफी दिला सकेगी?
ऐसा कर सकेगी?
ऐसा लगता है मुझे
जब तुम्हारी मौत आएगी
जितना पैसा तुमने बनाया है
उससे तुम अपनी आत्मा वापस नहीं पाओगे

मुझे लगता है कि तुम मरोगे
बहुत जल्द तुम्हारी मौत आएगी
मैं तुम्हारे ताबूत के साथ चलूँगा
उस मरियल दुपहरी में
मैं देखूँगा कि जब तुम
कब्र में उतारे जाओगे
मैं तुम्हारी कब्र पर तब तक रहूँगा खड़ा
कि मुझे यकीन हो जाए कि तुम मर गए हो

('मास्टर्स आफ वार' का हिंदी अनुवाद)



Thursday 18 June 2020

कहानियां


( 18 जून, 1936 को महान रूसी साहित्यकार मैक्सिम गोर्की इस दुनिया से विदा कर गए ।  गोर्की ने मां जैसा कालजयी उपन्यास लिखा जिसे पढ़कर दुनिया भर के क्रांतिकारियों ने ऊर्जा प्राप्त की और अपने संघर्ष को जारी रखा । गोर्की ने उपन्यासों के साथ-साथ मजदूरों की जिंदगी से जुड़ी कहानियां भी लिखी । उन्हीं कहानियों में से एक कहानी है कोलूशा जो इस व्यवस्था की क्रूरता को दर्शाती है । )



कोलूशा

मैक्सिम गोर्की

कब्रिस्तान के मुफलिसों के घेरे में पत्तियों से ढकी और बारिश तथा हवा में ढेर बनी समाधियों के बीच एक सूती पोशाक पहने और सिर पर काला दुशाला डाले, दो सूखे बुर्ज वृक्षों की छाया में एक स्त्री बैठी है। उसके सिर के सफेद बालों की एक लट उसके कुम्हलाये गाल पर पड़ी है। उसके मजबूती से बंद होठों के सिरे कुछ फूले हुए-से हैं, जिससे मुहं के दोनों ओर शोक-सूचक रेखाएं उभर आई है। आंखों की उसकी पलके सूजी हुई हैं, जैसे वह खूब रोई हो और कई लम्बी रातें उसकी जागते बीती हों।
मैं उससे कुछ ही फासले पर खड़ा देख रहा था । पर वह गुमसुम बैठी रही और जब मैं उसके नजदीक पहुंच गया तब भी उसमें कोई हलचल पैदा नहीं हुईं। महज अपनी बुझी हुई आंखों को उठाकर उसने मेरी ओर देखा और मेरे पास पहुंच जाने से जिस उत्सुकता, झिझक अथवा भावावेग की आशा की जाती थीं, उसे तनिक भी दिखाये बिना वह नीचे की ओर ताकती रही।
मैंने उसे नमस्कार किया। पूछा, “क्यों बहन, यह कब्र किसकी है?”
“मेरे लड़के की।” उसने बहुत ही बेरुखी से जवाब दिया।
“क्या वह बहुत बड़ा था?”
“नहीं, बारह साल का था।”
“उसकी मौत कब हुई?”
“चार साल पहले।”
स्त्री ने दीर्घ निश्वास छोड़ी और अपने बालों की लट को दुशाले के नीचे कर लिया। उस दिन बड़ी गर्मी थी। मुर्दो की उस नगरी पर सूरज बड़ी बेरहमी से चमक रहा था। कब्रो पर जो थोड़ी बहुत घास उग आई थी। वह मारे गर्मी और धूल के पीली पड़ गई थी और सलीबों के बीच यत्र-तत्र धूल से भरे पेड़ ऐसे चुपचाप खड़े थे, मानों मौत ने उन्हें भी अपने साये में ले लिया हो।
लड़के की कब्र की ओर सिर से इशारा करते हुए मैने पूछा, “उसकी मौत कैसे हुई?”
“घोड़ो की टापों से कुचलने से।” उसने गिने-चुने शब्दों में उत्तर दिया और कब्र को जैसे सहलाने के लिए झुर्रियों से भरा अपना हाथ उस ओर बढ़ा दिया।
“ऐसा कैसे हुआ?”
जानता था कि मैं अभद्रता दिखा रहा था । लेकिन उस स्त्री को इतना गुमसुम देखकर मेरा मन कुछ उत्तेजित और कुछ खीज से भर उठा । मेरे अन्दर सनक पैदा हुई कि उसकी आंखों में आंसू देखूं। उसकी उदासीनता में अस्वाभाविकता थी पर मुझे लगा कि वह उस ओर से बेसुध थी।
मेरे सवाल पर उसने अपनी आंखें ऊपर उठाई और मेरी ओर देखा। फिर सिर से पैर तक मुझ पर निगाह डालकर उसने धीरे-से आह भरी और बड़े मंद स्वर में अपनी कहानी कहनी शुरू की -
“घटना इस तरह घटी। इसके पिता गबन के मामले में डेढ़ साल के लिए जेल चले गये थे। हमारे पास जो जमा पूंजी थीं वह इस बीच खर्च हो गई । बचत की कमाई ज्यादा तो थी नहीं । जिस समय तक मेरा आदमी जेल से छूटा हम लोग घास जलाकर खाना पकाते थे । एक माली गाड़ी भर वह बेकार घास मुझे दे गया था । उसे मैंने सुखा लिया था और जलाते समय उसमें थोड़ा बुरादा मिला लेती थी । उसमें बड़ा ही बुरा धुआं निकलता था और खाने के स्वाद को खराब कर देता था । कोलूशा स्कूल चला जाता था । वह बड़ा तेज लड़का था और बहुत ही किफायतशार था । स्कूल से घर लौटते समय रास्ते में जो भी लट्ठे- लकड़ी मिल जाते थे, ले आता था । वंसत के दिन थे । बर्फ पिघल रही थी । और कोलूशा के पास पहनने को सिर्फ किरमिच के जूते थे । जब वह उन्हें उतारता था तो उसके पैर मारे सर्दी के लाल-सुर्ख हो जाते थे ।
उन्हीं दिनों उन लोगों ने लड़के के पिता को जेल से रिहा कर दिया और गाड़ी में घर लाये । जेल में उसे दिल का दौरा पड़ गया था । वह बिस्तर पर पड़ा मेरी ओर ताक रहा था । उसके चेहरे पर कुटिल मुस्कराहट थी । मैंने उस पर निगाह डाली और मन-ही मन सोचा, ‘तुमने मेरी यह हालत कर दी है! और अब मैं तुम्हारा पेट कैसे भरूंगी ? तुम्हें
कीचड़ में पटक दूं । हां, मैं ऐसा ही करना चाहूंगी ।
लेकिन कोलूशा ने उसे देखा तो बिलख उठा । उसका चेहरा जर्द हो गया और बड़े बड़े आंसू उसके गालों पर बहने लगे । मां, इनकी ऐसी हालत क्यों है ? उसने पूछा । मैंने कहा, यह अपना जीना जी चुके हैं ।
उस दिन के बाद से हमारी हालत बदतर होती चली गई । मैं रात दिन मेहनत करती, लेकिन अपना खून सुखा करके भी बीस कापेक से ज्यादा न जुट पाती और वह भी रोज नहीं, खुशकिस्मत दिनों में । यह हालत मौत से भी गई-बीती थी और मैं अक्सर अपनी जिन्दगी का खात्मा कर देना चाहती थी ।
कोलूशा यह देखता और बहुत परेशान होकर इधर-से-उधर भटकता । एक बार जब मुझे लगा कि यह सब मेरी बर्दाश्त से बाहर है तो मैंने कहा, ‘आग लगे मेरी इस जिंदगी को! मैं मर क्यों नहीं जाती! तुम लोगों में से भी किसी की जान क्यों नहीं निकल जाती?’ मेरा इशारा कोलूशा और और उसके पिता की ओर था ।
उसके पिता ने सिर हिलाकर बस इतना कहा, मैं जल्दी ही चला जाऊंगा । मुझे जली कटी मत कहो । थोड़ा धीरज रक्खो ।
लेकिन कोलूशा देर तक मेरी ओर ताकता रहा, फिर मुड़ा और घर से बाहर चला गया ।
वह जैसे ही बाहर गया, मुझे अपने शब्दों पर अफसोस होने लगा, पर अब हो क्या सकता था! तीर छूट चुका था ।
एक घंटा भी नहीं बीता होगा कि घोड़े पर सवार एक सिपाही आया । क्या आप गौसपोजा शिशीनीना हैं ? उसने पूछा । मेरा दिल बैठने लगा । उसने आगे कहा, ‘तुम्हें अस्पताल में बुलाया है। सौदागर एनोखिन के घोड़ों ने तुम्हारे बेटे को कुचल डाला है ।’
मैं फौरन गाड़ी में अस्पताल के लिए रवाना हो गई । मुझे लग रहा था, मानो किसी ने गाड़ी की सीट पर जलते कोयले बिछा दिये हैं । मैं अपने को कोस रही थी—अरी कम्बख्त, तुने यह क्या कर डाला!’
आखिर हम अस्पताल पहुंचे। कोलूशा बिस्तर पर पड़ा था। उसके सारे बदन पर पट्टियां बंधी थीं। वह मेरी तरफ देखकर मुस्कराया! उसके गालों पर आंसू बहने लगे! धीमी आवाज में उसने कहा, ‘मां, मुझे माफ करो । पुलिस के आदमी पैसे ले लिये हैं ।’
“तुम किन पैसों की बात कर रहे हो, कोलूशा ?” मैंने पूछा ।
“वह बोला, अरे, वो पैसे, जो लोगों ने और एनोखिन ने मुझे दिये थे ।’
“मैने पूछा, ‘उन्होंने तुम्हें पैसे क्यों दिये ?’
“उसने कहा, ‘इसलिए…’
“उसने धीरे से आह भरी । उसकी आंखें तश्तरी जैसी बड़ी हो रही थीं ।
‘कोलूशा!’ मैंने कहा, ‘यह क्या हुआ कि तुमने घोड़े आते हुए नहीं देखे !’
“उसने साफ आवाज में कहा, ‘मां मैंने घोड़े आते देखे थे, लेकिन मेरे ऊपर से निकल जायंगे तो लोग मुझे जयादा पैसे देंगे, और उन्होंने दिये भी ।’
“ये उसके शब्द थे । मैं सबकुछ समझ गई, सबकुछ समझ गई कि उस फरिश्ते लाल ने ऐसा क्यों किया; लेकिन अब तो कुछ भी नहीं किया जा सकता था ।
“अगले दिन सबेरे ही वह मर गया । आखिरी सांस लेने तक उसकी चेतना बनी रही और वह बार-बार कहता रहा ‘डैडी के लिए यह लेना, वह लेना और मां अपने लिए भी, जैसेकि उसके सामने पैसा-ही पैसा हो । वास्तव में सौंतालिस रूबल थे ।"
“मैं एनोखिन के पास गई; लेकिन मुझे कुल जमा पांच रूबल दिये और वे भी गड़बड़ा कर उसने कहा, ‘लड़के ने अपने को घोड़े के बीच झोंक दिया। बहुत-से लोगों ने देखा। इसलिए तुम किस बात की भीख मांगने आई हो ? मैं फिर कभी घर वापस नहीं गई । भैया, यह है सारी दास्तान!’
कब्रिस्तान में खामोशी और सन्नटा छाया था। सलीब, रोगी-जैसे पेड़, मिट्टी के ढेर और कब्र पर इतने दुखी भाव से गुमसुम बैठी वह स्त्री—इस सबसे मैं मृत्यु और इन्सानी दुख के बारे में सोचने लगा ।
लेकिन आसमान साफ था और धरती पर ढलती गर्मी वर्षा कर रहा था ।
मैंने अपनी जेब से कुछ सिक्के निकाले और उस स्त्री की ओर बढ़ा दिये, जिसे तकदीर ने मार डाला था, फिर भी वह जिये जा रही थी ।
उसने सिर हिलाया और बहुत ही रुकते-रुकते कहा, “भाई, तुम अपने को क्यों हैरान करते हो! आज के लिए मेरे पास बहुत हैं । अब मुझे ज्यादा की जरूरत भी नहीं है । मैं अकेली हूं, दुनिया में बिलकुल अकेली ।”
उसने एक लम्बी सांस ली और फिर मुंह पर वेदना से उभरी रेखाओं के बीच अपने पतले होंठ बन्द कर लिये ।

Tuesday 16 June 2020

राजनीति


साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज

( शहीदे आजम भगतसिंह )


(अखबारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की सांझी राष्ट्रीयता बनाना था, लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की सांझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’)


भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है। यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें। किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिन्दुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है। यह मार-काट इसलिए नहीं की गयी कि फलाँ आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलाँ आदमी हिन्दू है या सिख है या मुसलमान है। बस किसी व्यक्ति का सिख या हिन्दू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था। जब स्थिति ऐसी हो तो हिन्दुस्तान का ईश्वर ही मालिक है।
ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नजर आता है। इन ‘धर्मों’ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है। और हमने देखा है कि इस अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं। कोई बिरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठण्डा रखता है, बाकी सब के सब धर्म के यह नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डण्डे लाठियाँ, तलवारें-छुरें हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर-फोड़-फोड़कर मर जाते हैं। बाकी कुछ तो फाँसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिये जाते हैं। इतना रक्तपात होने पर इन ‘धर्मजनों’ पर अंग्रेजी सरकार का डण्डा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने आ जाता है।
यहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है। इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली। वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्रा कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज्य-स्वराज्य’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बहाव में बह चले हैं। सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक आन्दोलन में जा मिले हैं, जमीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं। जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं। और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है।
दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था। आज बहुत ही गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक बहुत कम है जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो।
अखबारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की सांझी राष्ट्रीयता बनाना था, लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की सांझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’
जो लोग असहयोग के दिनों के जोश व उभार को जानते हैं, उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है। कहाँ थे वे दिन कि स्वतन्त्राता की झलक सामने दिखाई देती थी और कहाँ आज यह दिन कि स्वराज्य एक सपना मात्रा बन गया है। बस यही तीसरा लाभ है, जो इन दंगों से अत्याचारियों को मिला है। जिसके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था, कि आज गयी, कल गयी वही नौकरशाही आज अपनी जड़ें इतनी मजबूत कर चुकी हैं कि उसे हिलाना कोई मामूली काम नहीं है।
यदि इन साम्प्रदायिक दंगों की जड़ खोजें तो हमें इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है। असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्राकारों ने ढेरों कुर्बानियाँ दीं। उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गयी थी। असहयोग आन्दोलन के धीमा पड़ने पर नेताओं पर अविश्वास-सा हो गया जिससे आजकल के बहुत से साम्प्रदायिक नेताओं के धन्धे चौपट हो गये। विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है। कार्ल मार्क्स के तीन बड़े सिद्धान्तों में से यह एक मुख्य सिद्धान्त है। इसी सिद्धान्त के कारण ही तबलीग, तनकीम, शुद्धि आदि संगठन शुरू हुए और इसी कारण से आज हमारी ऐसी दुर्दशा हुई, जो अवर्णनीय है।
बस, सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है दरअसल भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है। भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है। सच है, मरता क्या न करता। लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होेना अत्यन्त कठिन है क्योंकि सरकार विदेशी है और लोगों की स्थिति को सुधरने नहीं देती। इसीलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिये और जब तक सरकार बदल न जाये, चैन की सांस न लेना चाहिए।
लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है। गरीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं। इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथों मंे लेने का प्रयत्न करो। इन यत्नों से तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्राता मिलेगी।
जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं, उन्हें मालूम है कि जार के समय वहाँ भी ऐसी ही स्थितियाँ थीं वहाँ भी कितने ही समुदाय थे जो परस्पर जूत-पतांग करते रहते थे। लेकिन जिस दिन से वहाँ श्रमिक-शासन हुआ है, वहाँ नक्शा ही बदल गया है। अब वहाँ कभी दंगे नहीं हुए। अब वहाँ सभी को ‘इन्सान’ समझा जाता है, ‘धर्मजन’ नहीं। जार के समय लोगों की आर्थिक दशा बहुत ही खराब थी। इसलिए सब दंगे-फसाद होते थे। लेकिन अब रूसियों की आर्थिक दशा सुधर गयी है और उनमें वर्ग-चेतना आ गयी है इसलिए अब वहाँ से कभी किसी दंगे की खबर नहीं आयी।
इन दंगों में वैसे तो बड़े निराशाजनक समाचार सुनने में आते हैं, लेकिन कलकत्ते के दंगों मंे एक बात बहुत खुशी की सुनने में आयी। वह यह कि वहाँ दंगों में ट्रेड यूनियन के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था ही हुए, वरन् सभी हिन्दू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के भी यत्न करते रहे। यह इसलिए कि उनमें वर्ग-चेतना थी और वे अपने वर्गहित को अच्छी तरह पहचानते थे। वर्गचेतना का यही सुन्दर रास्ता है, जो साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है।
यह खुशी का समाचार हमारे कानों को मिला है कि भारत के नवयुवक अब वैसे धर्मों से जो परस्पर लड़ाना व घृणा करना सिखाते हैं, तंग आकर हाथ धो रहे हैं। उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगों को धर्म की नजर से-हिन्दू, मुसलमान या सिख रूप में नहीं, वरन् सभी को पहले इन्सान समझते हैं, फिर भारतवासी। भारत के युवकों में इन विचारों के पैदा होने से पता चलता है कि भारत का भविष्य सुनहला है। भारतवासियों को इन दंगों आदि को देखकर घबराना नहीं चाहिए। उन्हें यत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने, और दंगे हों ही नहीं।
1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए क्योंकि यह सबको मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता। इसलिए गदर पार्टी जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फाँसियों पर चढ़े और हिन्दू मुसलमान भी पीछे नहीं रहे।
इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं। झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुन्दर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं।
यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते है। धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें।
हमारा ख्याल है कि भारत के सच्चे हमदर्द हमारे बताये इलाज पर जरूर विचार करेंगे और भारत का इस समय जो आत्मघात हो रहा है, उससे हमे बचा लेंगे।



( प्रस्तुत लेख जून, 1928 के ‘किरती’ में छपा । )

Monday 15 June 2020

गजल/कविता



(तेलगु कवि प्रो. वरवर राव की तीन कविताएं)

 1. कवि

जब प्रतिगामी युग धर्म
घोंटता है वक़्त के उमड़ते बादलों का गला
तब न ख़ून बहता है, न आँसू।


वज्र बन कर गिरती है बिजली
उठता है वर्षा की बूंदों से तूफ़ान…
पोंछती है माँ धरती अपने आँसू
जेल की सलाखों से बाहर आता है
कवि का सन्देश गीत बनकर।


कब डरता है दुश्मन कवि से?
जब कवि के गीत अस्त्र बन जाते हैं
वह कै़द कर लेता है कवि को
फाँसी पर चढ़ाता है
फाँसी के तख़्ते के एक ओर होती है सरकार
दूसरी ओर अमरता
कवि जीता है अपने गीतों में
और गीत जीता है जनता के हृदयों में।


      2. मूल्‍य

हमारी आकांक्षाएँ ही नहीं
कभी-कभार हमारे भय भी वक़्त होते हैं
द्वेष अंधेरा नहीं है
तारों भरी रात में
इच्छित स्थान पर
वह प्रेम भाव से पिघल कर
फिर से जम कर
हमारा पाठ हमें ही बता सकते हैं
कर सकते हैं आकाश को विभाजित।


विजय के लिए यज्ञ करने से
मानव-मूल्यों के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाई
ही कसौटी है मनुष्य के लिए
युद्ध जय-पराजय में समाप्त हो जाता है
जब तक हृदय स्पंदित रहता है
लड़ाइयाँ तब तक जारी रहती हैं।


आपसी विरोध के संघर्ष में
मूल्यों का क्षय होता है
पुन: पैदा होते हैं नए मूल्य…
पत्थरों से घिरे हुए प्रदेश में
नदियों के समान होते हैं मूल्य।

आन्दोलन के जलप्रपात की भांति
काया प्रवेश नहीं करते
विद्युत के तेज़ की तरह
अंधेरों में तुम्हारी दृष्टि से
उद्भासित होकर
चेतना के तेल में सुलगने वाले
रास्तों की तरह होते हैं मूल्य।


बातों की ओट में
छिपे होते हैं मन की तरह
कार्य में परिणित होने वाले
सृजन जैसे मूल्य।

प्रभाव मात्र कसौटी के पत्थरों के अलावा
विजय के उत्साह में आयोजित
जश्न में नहीं होता
निरन्तर संघर्ष के सिवा
मूल्य संघर्ष के सिवा
मूल्य समाप्ति में नहीं होता है
जीवन-सत्य।


  3. स्‍टील प्‍लान्‍ट

हमें पता है
कोई भी घास वटवृक्ष के नीचे बच नहीं सकता
सुगंधित केवड़े की झाड़ियाँ
कटहल के गर्भ के तार
काजू बादाम नारियल ताड़
धान के खेतों, नहरों के पानी
रूसी कुल्पा नदी की मछलियाँ
और समुद्रों में मछुआरों के मछली मार अभियान को
तबाह करते हुए
एक इस्पाती वृक्ष स्टील प्लांट आ रहा है।

उस प्लांट की छाया में आदमी भी बच नहीं पाएंगे
झुर्रियाँ झुलाए बग़ैर
शाखाएँ-पत्तियाँ निकाले बग़ैर ही
वह घातक वृक्ष हज़ारों एकड़ में फैल जाएगा।


गरुड़ की तरह डैनों वाले
तिमिगल की तरह बुलडोजर
उस प्लांट के लिए
मकानों को ढहाने और गाँवों को खाली कराने के लिए
आगे बढ़ रहे हैं।

खै़र, तुम्हारे सामने वाली झील के पत्थर पर
सफ़ेद चूने पर लौह-लाल अक्षरों में लिखा है
“यह गाँव हमारा है, यह धरती हमारी है–
यह जगह छोड़ने की बजाय
हम यहाँ मरना पसन्द करेंगे”।


Saturday 13 June 2020

कहानियां


ग्लेडियेटर्स
(अलेक्स ला गुमा)

( आज पूरे अमेरिका के साथ साथ दुनिया के लगभग सभी देशों में काले लोगों पर हो रहे नस्लीय हमलों के खिलाफ जबरदस्त प्रतिरोध किया जा रहा है । इन नस्लीय हमलों के इतिहास को समझने के लिए हमें दक्षिण अफ्रीकी लेखक अलेक्स ला गुमा की कहानी ग्लेडियेटर जरूर पढ़नी चाहिए । और हम उम्मीद करते हैं कि कहानी पढ़ने के बाद पाठकगण अपनी प्रतिक्रियाएं जरूर देंगे कि आखिर नस्लीय हमलों के पिछे सिर्फ चमड़ी का काला रंग है या फिर इन हमलों के कुछ सांस्कृतिक कारण हैं । - संपादक मंडल अभियान )

आप यह अच्छी तरह जानते होंगे कि जब आपका बेटा रिंग के अंदर जाने के लिए तैयार हो और आपको पता न हो कि वह किस हालत में बाहर निकलेगा तो कैसा महसूस होता है । उस रात हमें भी ऐसा ही महसूस हो रहा था । हमारे बदन पर पट्टियां बंधी थी और हम पहला राउंड खत्म होने का इंतजार कर रहे थे । डरते हुए सिगरेट पी रहे थे और केन्नी की तरफ देख रहे थे । टांगे नीचे लटकाए वह एक मेज पर बैठा था । हमारी तरह वह भी इंतजार कर रहा था, पर हमारी तरह डरा हुआ नहीं था, बस डींग हांकता जा रहा था । वह अच्छा जूबा जरूर था । आपने कभी भालू को देखा है ? उसके शरीर का गठन भालू जैसा था, विशाल छाती, झुके कंधे और सांगवान की चिकनी लकड़ी जैसी बाहें और टांगे । हां, बिल्कुल सांगवान की तरह नहीं कह सकते क्योंकि उसका रंग हल्का है । जरा और हल्का होता तो गोरा लगता, इसलिए इतराता बहुत है । वह गोरा नहीं था इसका उसे दुख था और काला ने होने की खुशी भी थी । उसका चेहरा भी सुंदर था, बस नाक जरा चपटी थी क्योंकि उस पर कई बार चोटें लगी थी । नाक तो लगभग काले लड़के के जैसी ही लगती थी । जो भी हो वह लड़का तो है । गॉग्स और मैं परेशान थे कि जब वह अंदर जाएगा और काले लड़के के साथ भिड़ेगा तो जरूर कमीनी हरकत करेगा और ऐसी कोई मूर्खता करेगा तो कहीं हार ही न जाये ?
हम ड्रेसिंग रूम में थे जो शौचालय के ठीक बगल में है और वहां से पेशाब और तंबाकू की बू भी आ रही थी । बाहर हॉल पूरी तरह भर चुका था और हमें भीड़ की आवाजें सुनाई दे रही थी । लोगों की निराशा भरी आवाज से पता चल रहा था कि उन्हें अपने पैसे की कीमत वसूल नहीं हो रही थी ।
"कैसा महसूस हो रहा है केन्नी ?" गॉग्स ने उससे पूछा । उसे गॉग्स इसलिए कहते हैं क्योंकि वह हमेशा बड़ा सा चश्मा पहनता है ।
"मजे में हूं । उस काले हरामखोर को धूल चटा दूंगा," कहकर केन्नी दांत निपोरता है ।
मैं कहता हूं, "देख केन्नी, तू ऐसा कुछ नहीं कर सकता । हम सब काले ही तो हैं यार । चाहे भूरे हों या कॉफी के रंग के! काला बनकर खेलना यार!"
धत्त तेरे की! खेल, ठीक है यह खेल है । पर मुझे हमेशा कालों से ही क्यों लड़ना पड़ता है ?" केन्नी ने कहा ।
"तू गोरे से भिड़ना चाहता है तो तुझे इंग्लैंड जाना पड़ेगा" , गॉग्स स्पॉट उत्तर देता है ।
"या लोरन्तो मार्कस से लड़ो । तू जानता है ना यहां गोरे से लड़ना मुमकिन नहीं है ? इसलिए बस अच्छे खिलाड़ी की तरह खेल पर ध्यान दे, ठीक है ?"
केन्नी हमें देखकर हंसते हुए कहता है, "अरे, मैं इंग्लैंड जाकर लडूंगा तुम देखना ।"
"देखो तुम अंदर जाकर कुछ गड़बड़ मत कर देना, हां ? जो करना है, जैसा करना है वैसा करके आना, समझे ? गॉग्स ने कहा ।
"ठीक है यार, अब रहने भी दे ।"
"ठीक है अब संभल जाओ । अपने जैसों से लड़-लड़कर ऊब चुके हो, इसलिए वहां कुछ ऐसा वैसा मत कर बैठना ।"
केन्नी ने फिर हमसे कहा, "सुनो, अपने जैसा मत कहना, वह लड़का हमारे जैसा नहीं है ।"
"ठीक है, पर हम सबको पिछवाड़े लात खानी ही पड़ती है ना ?" मैंने कहा ।
"भगवान के लिए चुप रहो, यह काली बकवास बहुत हो गई, अब काली लडाई के बारे में सोचते हैं," गॉग्स ने चिढ़ते हुए कहा ।
"तुम जूबा लोग देखते रहना, मैं जीत कर आऊंगा," केन्नी ने कहा ।
लोग बातें कर रहे थे और उठ कर इधर-उधर घूम रहे थे तो लगा पहला दौर खत्म हो गया । हम लगातार बोल रहे थे ना, इसलिए आखरी घंटी नहीं सुनाई दी । पर दरवाजा खुला और इस तमाशा का आयोजक नूर अब्बास अंदर आया । उसने काला सूट पहन रखा था और सिगार फूंकता हुआ बिल्कुल बैरों का मुखिया लग रहा था ।
"ठीक है, अब तुम्हारी बारी है, जाकर धूम मचा देना ।"
वह फिर बाहर की ओर चला और फार्नी उसे धकेलता अंदर आया और बोला, "ठीक है, चलो ।"
केन्नी मेज से नीचे उतरा और हमने उसे ड्रेसिंग गाउन पहना दिया । वह गाउन नारंगी रंग का था और उसके पीछे गहरे भूरे अक्षरों में किड केन्नी लिखा था । मुझे वह गाउन बड़ा जोरदार लगा ।
"तू ठीक है ना ?" हम बाहर निकलने लगे तो फार्नी ने उसे उससे पूछा ।
"मैं उसे मार डालूंगा,"  केन्नी ने कहा ।
"तू खुद को क्या समझता है ? कर्क डगलस ?" गॉग्स ने हंसते हुए कहा ।
"वह अपने को कोई समझता है, बस यह लूई काला है । उसे काले लड़के पसंद नहीं हैं । शायद अपने आप को पोट्टी समझता है!" मैंने कहा ।
"उसे चूरा बना डालूंगा....... गंवार कहीं का!" केन्नी ने कहा ।
"ठीक है...... मार्सियानो," मैंने कहा ।
"अरे चुप करो अहमकों," फार्नी बोला ।
सीटों के बीच बने संकरे गलियारे से हम निकलते हैं । नीचे से ऊपर तक सीटें बनी हैं जो नलदार तख्तो पर टिकी हैं । हमने देखा कि तभी काला लड़का रिंग के अंदर चढ़ने लगा । उसके लिए ज्यादा तालियां नहीं बजी । वह लड़का देखने में सुंदर था, उसका बदन चमकीला था और छाती मोटी थी । वह रिंग के अंदर उछला जिसे देखकर भीड़ हंस पड़ी । मैंने सोचा, यह कैसा देश है! काले लड़के ने सफेद कपड़े पहन रखे थे और पीछे की तरफ काले रंग में बाघ की धारियां बनी थी । पोस्टर में उसका नाम काला तेंदुआ लिखा था । पर उसका असली नाम मुझे अब याद नहीं आ रहा है ।
और जब हम गलियारे के अगले भाग में पहुंच गये तो भीड़ केन्नी को देखकर चिल्लाने और तालियां बजाने लगती है और केन्नी दांत निपोर कर हंसता है, जैसे बहुत बड़ा खिलाड़ी हो । हम जाकर रिंग के पास वाली कुर्सियों को पार करके रिंग के पास जाते हैं । भीड़ में ज्यादा मर्द है और कुछ औरतें भी हैं । केन्नी के समर्थन में वे गला फाड़कर चिल्लाते हैं और वह रस्सियों के नीचे से ऊपर चढ़ता है, उनकी ओर देखकर हाथ हिलाता है ।
मैं गॉग्स से कहता हूं, "यह हरामजादा खुद को काला साहब जिम कॉरबेट समझता है! ऐसे तेवर हैं इसके जैसे दुनिया के सबसे हैवी वेट का सामना करने जा रहा हो ।"
"अरे यार, वह ठीक है । जरा सा घमंडी है और बढ़ चढ़कर बोलता है, बस । गॉग्स ने कहा ।
केन्नी ने अपने दोनों हाथों को पकड़कर सिर के ऊपर उठाया और भीड़ की ओर देखकर ऐसे हिलाया मानो वह कोई चैंपियन हो । इसी को हम सिनेमा कहते हैं । भीड़ ने फिर तालियां बजायी । फिर वह बैठ गया और तेंदुआ लड़के ने उसके पास आकर हैलो कहा और टेप को जांचा । फिर हमने केन्नी के हाथों पर दस्ताने पहनाये और डोरियां कसकर बांध दी ।
"अब तू ऐसा वैसा कुछ मत कर बैठना केन्नी," गॉग्स ने कहा ।
"आह, जू जुबा लोग!" कहकर उसने मुट्ठीयां हमारी तरफ उठाकर हिलायी ।
मैंने तेंदुए की ओर देखा, वह लंबा तगड़ा, छ: फुट से ज्यादा लंबा और लगभग 140 किलो वजन वाला काले रंग का जवान था ।
रेफरी ने दोनों को बीच में आने के लिए कहा और उन्हें खेल के नियम बताये । केन्नी अपनी जगह पर वापस आ कर कहने लगा, "त्सोत्से, त्सोत्से (काला कलूटा)!"
उसके साथ जरा संभल कर खेलना, लगता है उसकी पहुंच बहुत लंबी है ।"
"तुम लोग देखना, उसे कुचल कर रख दूंगा.... काला कहीं का!" केन्नी ने कहा ।
मैं उसका ड्रेसिंग गाउन उतार देता हूं और वह चारों ओर देखकर मुस्कुराता है । भीड़ में से कोई चिल्लाता है, "पीसकर चटनी बना देना साले को!" मैं देखना चाहता था कि यह आवाज कहां से आयी । पर पांच हजार लोगों की भीड़ में उस आवाज को पहचानना मुश्किल था । सब इसी इंतजार में थी कि वे दोनों एक-दूसरे को कब मारना शुरू करेंगे और पीसकर चटनी बना देंगे । आगे बैठे कुछ गोरे हंसते हुए बातें कर रहे थे । पूरे हॉल में नीले रंग का धुआं फैला था ।
हॉल की बत्तियां बुझा दी जाती हैं और सिर्फ रिंग की बतियां जलती रहती हैं ताकि आप दोनों योद्धाओं को और रेफरी को देख सकें । भीड़ खून देखने के इंतजार में चुप्पी साध लेती है । हरामखोर, दो काले लड़कों को लड़ मरते देखने के लिए पैसे देकर आये हैं । फिर मैं इस मामले में क्यों पड़ा हूं ? पता नहीं, शायद यह देखने की मेरे लड़के को ज्यादा चोटें न पहुंचे ।
घंटी बजती है और हम जल्दी से वहां से हट जाते हैं । गॉग्स तिपाई उठाता है और हम नीचे जाकर अपने लौंडे को रिंग में जाते देखते हैं ।
उस बड़े से रिंग में बत्तियां इतनी तेज रोशनी डालती हैं कि केन्नी लगभग गोरा सा दिखता है । केन्नी और वह लंबा काला लड़का एक दूसरे के पास सावधानी से जाते हैं और दस्तानों को छुआते हैं । और जैसे ही तेंदुआ हाथ नीचे करता है, केन्नी उसके मुंह पर दो बार बाएं हाथ से मुक्का मार कर पीछे हटता है । केन्नी का वार अच्छा था पर तेंदुआ नाचने में माहिर था, नीचे घूटनों के बल बैठता और उछलता नाच रहा था ।
तीन चार बार केन्नी ने अपना बायां हाथ फेंका पर तेंदुए ने उस वार को कंधे या बांह पर लिया । उसे उस बायें हाथ का डर बिल्कुल नहीं था । बस झुकता, उछलता अपना चेहरा बचा रहा था । थोड़ी देर बाद भीड़ उसे जाकर भिड़ने के लिए चिल्लाने लगी ।
और केन्नी अपने दावों से पॉइंट बटोर रहा था और पहले तीन राउंड उसी के पक्ष में रहे । फिर कोने में आकर बैठता है और हम उसके हाथ पांव दबाने लगते हैं तो हमें देख कर मुस्कुरा कर कहता है, "मैं उस काले-कलूटे को जमीन पर पटक दूंगा, देखना!"
चौथा राउंड लड़ने के लिए वह इस तरह जाने लगा जैसे वह उस लड़ाई को उस राउंड में खत्म करके ही रहेगा । तेंदुआ उसे आगे आने देता है और उछलते हुए अपने दस्ताने चेहरे के पास ले जाता है । उनके बीच में से उसकी आंखों का सफेद हिस्सा और उसका चमकता काला चेहरा नजर आने लगता है । भीड़ पैर पटकते हुए चिल्ला-चिल्लाकर केन्नी को प्रोत्साहन दे रही है कि अब यह लड़ाई खत्म करो तो हम घर वापस जायें । उन्हें पक्का मालूम था कि काला लड़का हार जाएगा ।
तो तेंदुए ने केन्नी को इतना आगे बढ़ने दिया कि वह बचाओ की बात भूल गया । केन्नी का बायां हाथ फिर चोट करता है पर तेंदुआ उसी पल अपना सिर एक तरफ कर लेता है । वह खाली जाता है । फिर वह केन्नी को इतनी जोर से मारता है कि आवाज बाहर तक जाती है ।
इससे केन्नी चकित हो जाता है और वह उसके चेहरे पर साफ दिखता है । तेंदुआ फिर मुक्का जमाता है और इस बार रेलवे स्टेशन तक आवाज पहुंचती है । तेंदुआ फिर उछलकर दूर जाता है और केन्नी के वार के इंतजार में रहता है । केन्नी पागलों की तरह उस पर टूट पड़ता है पर तेंदुआ एक, दो और तीन बार वार करता है । केन्नी के शरीर के दोनों और पसलियों के नीचे बड़े से लाल धब्बे उभरते हैं । वह बहुत घबराया सा दिखाई देता है । केन्नी फिर तेंदुए पर हमला करता है और बाएं हाथ से वार करता है, तेंदुआ उसे अपने कंधे पर लेता है और अपने दाएं हाथ से दो बार केन्नी की पसलियों पर मुक्का मारता है । अब भीड़ काले लड़के के पक्ष में हो जाती है और केन्नी को हराने के लिए चिल्लाने लगती है ।
पांचवें राउंड के बाद फार्नी चिंतित हो जाता है और केन्नी से कहता है, "सुन केन्नी जल्दबाजी मत करना । वह जूबा लड़ाकू है और तू उसे थकाने की कोशिश कर । इस तरह तू उसे गिरा नहीं सकेगा । आराम से लड़ना यार!"
"वह काला कमीना....... वह क्या कर लेगा ?" केन्नी कहता है ।
फार्नी सिर हिलाते हुए हमारी ओर ऐसे देखता है मानो कह रहा हो, मैं इसे समझाने से रहा । यह ऐसे ही बड़ी-बड़ी बातें करेगा तो मैं इसका साथ नहीं दे सकूंगा । मरने दो साले को!
आगे छठे राउंड में दोनों ऐसे उलझ जाते हैं कि अलग होना मुश्किल हो जाता है । केन्नी छुड़ाने की बहुत कोशिश करता है पर तेंदुआ ऊपर से उसकी नाक पर वार करता है । केन्नी की नाक से खून बहने लगता है तो वह तेंदुए पर झुकने की कोशिश करता है, पर तेंदुआ उसे परे हटा कर उसी जगह फिर मुक्का मारता है । केन्नी सिर झटका कर पीछे हटता है जैसे उसे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा हो । तेंदुआ उछलता नाचता उसका पीछा करता है और बार-बार उस पर मुक्के बरसाता है । केन्नी का चेहरा खून से लथपथ हो जाता है और वह दस्ताने से उसे पोंछता है । काला लड़का फिर भी उस पर हमला करना नहीं छोड़ता, लेकिन इतने में घंटी बजती है और हम केन्नी को कोने में ले जाते हैं ।
उसकी नाक टूट गई फिर भी जब हम उसे साफ करते हैं तो वह हमें मना कर देता है । वह बड़ा पक्का खिलाड़ी है, यह तो मानना ही पड़ेगा ।
"वह हरामजादा मेरे साथ ऐसा नहीं कर सकता," केन्नी ने कहा ।
"तुम कैसा महसूस कर रहे हो ?" गॉग्स ने पूछा ।
"अगर आगे भी ऐसा ही हुआ तो मैं इस लड़ाई को रोक दूंगा," फार्नी ने कहा ।
"तू जा भाड़ में, मैं उस लड़के को घुटने टेकने के लिए मजबूर करुंगा," केन्नी बोला ।
घंटी फिर बजती है और भीड़ इतनी जोर से चिल्लाती है कि किसी को कुछ सुनाई नहीं देता । केन्नी अंदर जाता है और पर उसे देखकर लगता है कि वह अब सावधान हो गया है । दोनों एक दूसरे को ध्यान से देखते हैं । तेंदुआ अब भी उछल रहा है और उसका चमकता काला बदन पसीने से तर है । भीड़ फिर चुप हो जाती है । सब देखना चाहते हैं कि अब क्या होने वाला है । केन्नी और काला लड़का दोनों गोल गोल घूमने लगते हैं और मौके का इंतजार करते हैं ।
केन्नी की नाक उसे बहुत परेशान कर रही है । वह बार-बार उसे दस्ताने से पोंछने लगता है । वह मौके का इंतजार करता रहता है । तेंदुआ दाहिने हाथ से मुक्का मारने का अभिनय करता है और केन्नी उसके धोखे में आ जाता है । और दस्ताना हाथ से निकल जाता है और अगले पल तेंदुआ उसके गले के नीचे सौर चक्कर पर मारता है । वह वार इतना जोरदार था कि मुझे लगा केन्नी की आंखें उसके सिर से बाहर निकल आएंगी । वह इस स्थिति में अपने आप को संभालने लगा तभी तेंदुए ने उसकी नाक पर मुक्का मारा फिर दो बार मुंह पर मारा तो खून से लथपथ केन्नी लड़खड़ाता रह गया । फिर भी तेंदुए ने उसे नहीं छोड़ा । जैसे अभ्यास करते वक्त पंचिंग बैग पर लगातार मुक्के मारते हैं, वैसे ही वह एक-दो करके दोनों हाथों से केन्नी पर वार करता रहा ।
अब भीड़ ने चिल्लाना बंद कर दिया । बस पूरी भीड़ में से एक ही आवाज इकट्ठी सुनाई देने लगी । सब उठ खड़े हुए और चीखने लगे क्योंकि उनको खून देखने को मिल गया । एक आदमी को पिटते, खून बहाते देखकर सब पागल हो रहे थे । अब केन्नी की उन्हें कोई फिक्र नहीं । बस उसका खून देखने के सिवा उन्हें कुछ नहीं चाहिए ।
और फार्नी अब तौलिया लेकर तैयार खड़ा है, पर तय नहीं कर पा रहा है कि उसे नीचे फेंकना है या घंटी बजने का इंतजार करना है ताकि केन्नी इस यातना से बच जाए । पर तेंदुआ नहीं रुकना चाहता था । वह फिर केन्नी पर हमला करके ताबड़तोड़ मुक्के जमाने लगा । उसके बाद केन्नी घुटनों के बल बैठ गया और हाथ उठाकर धीरे-धीरे हिलाने लगा जैसे किसी चीज को पकड़ना चाहता हो । फिर वह पूरी तरह चित लेट गया और रेफरी ने गिनना शुरू किया ।
बस, काला लड़का जीत जाता है और जब तक हम केन्नी के पास जाकर उसे उठाते, भीड़ बाहर निकलने लगती है और रिंग के पास से जाते हुए हमें देखती है । केन्नी होश में आ जाता है । उसके दोनों होंठ सूजकर लाल मांस जैसे लग रहे हैं । हम सब मिलकर उसे उठाते हैं । फार्नी तेंदुए की टीम से बात कर रहा है । हम केन्नी को रिंग से नीचे उतारते हैं और बाहर ड्रेसिंग रूम की तरफ चल पड़ते हैं । उसे दोनों तरफ से पकड़कर मूंगफली के छिलकों और फुंके सिगरेट के टुकड़ों पर चलते हुए बाहर ड्रेसिंग रूम की तरफ जाते हैं ।

Thursday 11 June 2020

शहादतनामा


(महान क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल के जन्मदिन पर प्रस्तुत है उनकी जिंदगी का छोटा-सा सफरनामा । इससे हम समझ सकते हैं कि लगातार जो लोग ईमानदारी से सिद्धांत को व्यवहार से और व्यवहार को सिद्धांत से  मिलाकर आगे बढ़ते हैं वो लोग संघर्षों के नए रास्तों का निर्माण करते हैं । बिस्मिल ने जिस एच.आर.ए. की स्थापना की थी आगे चलकर वही विकसित होकर एच.एस.आर.ए. बनी ।  - संपादक मंडल अभियान )

राम प्रसाद 'बिस्मिल' भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की क्रांतिकारी धारा के एक प्रमुख सेनानी थे, जो 30 वर्ष की आयु में शहादत का जाम पी गए थे । वे मैनपुरी षड्यंत्र व काकोरी कांड जैसी कई घटनाओं में शामिल थे तथा हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य भी थे । एक कवि, शायर, अनुवादक, बहुभाषाभाषी, इतिहासकार व साहित्यकार भी थे । बिस्मिल उनका उपनाम था । बिस्मिल के अतिरिक्त वे राम और अज्ञात के नाम से भी लेख कविताएं लिखते थे । 11 वर्ष के क्रांतिकारी जीवन में उन्होंने कई पुस्तकें लिखी और स्वयं ही उन्हें प्रकाशित किया । पुस्तकों को बेचकर जो पैसा मिला, उससे हथियार खरीदे और उनका प्रयोग ब्रिटिश राज को उखाड़ फेंकने के लिए किया । उनकी 11 पुस्तकें उनके जीवन काल में प्रकाशित हुई और ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त कर ली गई । 
11 जून, 1898 को उत्तरदेश के शाहजहांपुर में पंडित मुरलीधर की पत्नी मूलमति ने एक बालक को जन्म दिया । बालक का नाम रामप्रसाद रखा गया । बाल्यकाल से ही रामप्रसाद की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा । उसका मन खेलने में अधिक, पढ़ने में कम लगता था । इसके कारण पिताजी तो उनकी खूब पिटाई करते, पर मां हमेशा प्यार से यही समझाती, "बेटा राम! यह बहुत बुरी बात है! मत किया करो!" इस प्यार भरी सिख का उसके मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा । पिता ने पहले हिंदी का अक्षर बोध कराया, किंतु उ से उल्लू न तो उन्होंने पढ़ना सीखा और ना ही लिख कर दिखाया । उन दिनों हिंदी की वर्णमाला में उ से उल्लू ही पढ़ाया जाता था । वह इस बात का विरोध करते थे और हार कर उन्हें उर्दू के स्कूल में भर्ती करा दिया गया ।
रामप्रसाद जब आठवीं कक्षा में थे, तभी संयोग से स्वामी सोमदेव का आर्य समाज भवन में आगमन हुआ । रामप्रसाद को स्वामी जी की सेवा में नियुक्त किया गया । यहीं से उनके जीवन की दशा और दिशा, दोनों में परिवर्तन हुआ । स्वामी सोमदेव के साथ राजनीतिक विषयों पर खुली चर्चा से उनके मन में देश प्रेम की भावना जागृत हुई । सन् 1916 के कांग्रेस अधिवेशन में स्वागताध्यक्ष पंडित जगत नारायण 'मुल्ला' के आदेश की धज्जियां उड़ाते हुए रामप्रसाद ने जब बाल गंगाधर तिलक की पूरे लखनऊ में शोभायात्रा निकाली तो नवयुवकों का ध्यान उनकी दृढ़ता की ओर गया । अधिवेशन के दौरान उनका परिचय सोमदेव शर्मा व मुकुंदीलाल आदि से हुआ । बाद में इन्हीं सोमदेव शर्मा ने एक पुस्तक प्रकाशित की थी, जिसका शीर्षक था -  “ अमेरिका की स्वतंत्रता का इतिहास” । रामप्रसाद ने पुस्तक अपनी मां से ₹400 लेकर छपावाई थी । पुस्तक छपते ही जब्त कर ली गई थी । बाद में जब काकोरी कांड का अभियोग चला तो साक्ष्य के रूप में यही पुस्तक प्रस्तुत की गई थी ।
सन् 1915 में भाई परमानंद की फांसी का समाचार सुनकर रामप्रसाद ने ब्रिटिश साम्राज्य को समूल नष्ट करने की कसम ली । कुछ नवयुवक उनसे पहले ही जुड़ चुके थे, और स्वामी सोमदेव का साथ भी उन्हें प्राप्त था । उन्होंने पंडित गेंदालाल के मार्गदर्शन में मातृवेदी के नाम से एक संगठन खड़ा किया । इस संगठन की ओर से भारत माता को विदेशियों के शिकंजे से मुक्त कराने के आशय से एक इश्तिहार और एक प्रतिज्ञा प्रकाशित की गई । रामप्रसाद जिनकी अब तक एक पुस्तक भी प्रकाशित हो चुकी थी, अब बिस्मिल के नाम से प्रसिद्ध हो चुके थे । सन् 1918 में रामप्रसाद के दल ने क्रांतिकारी गतिविधियों हेतु धन एकत्र करने के उद्देश्य से धन्ना सेठों के यहां तीन डकैतीयां डाली, जिससे पुलिस हाथ धोकर उनके पीछे पड़ गई ।

मैनपुरी षड्यंत्र -:
मैनपुरी षड्यंत्र में शाहजहांपुर से 6 युवक शामिल हुए थे, जिनके नेता बिस्मिल थे, किन्तु पुलिस के हाथ नहीं आए, तत्काल फरार हो गए । 1 नवंबर, 1919 को जज ने मैनपुरी षड्यंत्र का फैसला सुना दिया । बिस्मिल पूरे 2 वर्ष भूमिगत रहे । उनके दल के कुछ लोगों ने शाहजहांपुर में जाकर यह अफवाह फैला दी कि भाई राम प्रसाद तो पुलिस की गोली से मारे गए, जबकि सच्चाई यह थी कि वे पुलिस मुठभेड़ के दौरान नदी में छलांग लगाकर पानी के अंदर ही अंदर तैरते हुए बहुत दूर जाकर बाहर निकले और निर्जन बीहड़ों में चले गए । बिस्मिल किसी भी स्थान पर अधिक दिनों तक ठहरते नहीं थे । पलायनावस्था में उन्होंने अंग्रेजी पुस्तक "द ग्रैंड मदर आफ रशियन रिवॉल्यूशन" का हिंदी अनुवाद किया ।
पुन: क्रांति की ओर -:
आम माफी के सरकारी ऐलान के बाद रामप्रसाद बिस्मिल शाहजहांपुर वापिस आ गए । एक कंपनी में कुछ दिन मैनेजरी करने के बाद उन्होंने अपने एक सांझीदार बनारसी लाल के साथ साड़ियों का व्यापार शुरू कर दिया । कांग्रेस जिला समीति ने उन्हें कार्यकारी कमेटी में ले लिया । सितंबर 1920 की कलकत्ता कांग्रेस में वे शाहजहांपुर के अधिकृत प्रतिनिधि के रूप में शामिल हुए । कलकत्ता में उनकी भेंट लाला लाजपत राय से हुई । लालाजी ने जब उनकी लिखी पुस्तकें देखी तो वे काफी प्रभावित हुए । लालाजी ने उनका परिचय कोलकत्ता के कुछ प्रकाशकों से करा दिया । सन् 1921 के अहमदाबाद के कांग्रेस अधिवेशन में बिस्मिल ने पूर्ण स्वराज के प्रस्ताव पर मौलाना हसरत मोहानी का खुलकर समर्थन किया और अंत में गांधीजी से असहयोग आंदोलन शुरू करने का प्रस्ताव पारित करवाकर ही माने । इस कारण वे युवाओं में काफी लोकप्रिय हो गए । समूचे देश में असहयोग आंदोलन शुरू करने में शाहजहांपुर के स्वयंसेवकों की अहम भूमिका थी । किंतु 1922 में जब चौरी चौरा की घटना के बाद, बिना किसी से परामर्श किए गांधीजी ने आंदोलन वापिस ले लिया तो 1922 की गया कांग्रेस में बिस्मिल तथा उनके साथियों ने गांधी का इतना जोरदार विरोध किया कि कांग्रेस में फिर से दो विचारधाराएं बन गई । एक उदारवादी और दूसरी विद्रोही या रिबेलीयन । गांधी विद्रोही विचारधारा के युवकों को कांग्रेस की आम सभा में विरोध करने के कारण हमेशा हुल्लड़ बाज कहा करते थे । एक बार तो उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखकर क्रांतिकारी नवयुवकों का साथ देने पर बुरी तरह फटकार भी लगाई थी ।
एच. आर. ए. का गठन -:
जनवरी, 1923 में मोतीलाल नेहरू व देशबंधु चितरंजन दास सरीखे धनाढ्य लोगों ने मिलकर स्वराज पार्टी बना ली । नवयुवकों ने तदर्थ पार्टी के रूप में रिवॉल्यूशनरी पार्टी का ऐलान कर दिया । सितंबर, 1923 में दिल्ली में हुए कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में नव युवकों ने निर्णय लिया कि वे भी अपनी पार्टी का नाम व संविधान आदि निश्चित कर राजनीति में दखल देना शुरू करेंगे, अन्यथा देश में लोकतंत्र के नाम पर लूट तंत्र जारी रहेगा । देखा जाए तो उस समय उनकी यह सोच बड़ी दूरदर्शी सोच थी । क्रांतिकारी लाला हरदयाल जो उन दिनों विदेश में रहकर हिंदुस्तान को स्वतंत्र कराने की रणनीति बनाने में जुटे हुए थे, स्वामी सोमदेव के समय से ही बिस्मिल के संपर्क में थे । लालाजी ने ही पत्र लिखकर रामप्रसाद को शचीन्द्रनाथ सान्याल व यदुगोपाल मुखर्जी से मिलकर नई पार्टी का संविधान तैयार करने की सलाह दी थी । लाला जी की सलाह मानकर रामप्रसाद इलाहाबाद गए और सचिंद्र नाथ सान्याल के घर पर पार्टी का संविधान तैयार किया । नयी पार्टी का नाम “हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन” संक्षेप में h.r.a. रखा गया व इसका संविधान पीले रंग के पर्चे पर लिखकर सभी सदस्यों को भेजा गया । 3 अक्तूबर, 1924 को पार्टी की एक बैठक कानपुर में की गई जिसमें शचीन्द्रनाथ सान्याल, योगेश चंद्र चटर्जी व राम प्रसाद बिस्मिल आदि कई प्रमुख सदस्य शामिल हुए । बैठे में पार्टी का नेतृत्व बिस्मिल को सौंपकर सान्याल व चटर्जी बंगाल चले गए । पार्टी के लिए फंड एकत्र करने में कठिनाई को देखते हुए आयरलैंड के क्रांतिकारियों का तरीका अपनाया गया और पार्टी की और से पहली डकैती 25 दिसंबर, 1924 को बमरौली में डाली गई ।
जनवरी, 1925 में पार्टी ने देश के सभी प्रमुख स्थानों पर द रिवॉल्यूशनरी नाम से अपना घोषणा पत्र बांटा, जिसमें बिस्मिल ने विजय कुमार के नाम से दल की विचारधारा का खुलासा करते हुए साफ शब्दों में घोषित किया कि क्रांतिकारी इस देश की शासन व्यवस्था में किस प्रकार का बदलाव करना चाहते हैं और इसके लिए वे क्या-क्या कर सकते हैं ? केवल इतना ही नहीं, उन्होंने गांधीजी की नीतियों के बारे में बात करते हुए यह प्रश्न भी किया था कि वे अंग्रेजों से खुलकर बात करने में डरते क्यों हैं ? उन्होंने देश के सभी नौजवानों को ऐसे छद्मवेशी महात्मा के बहकावे में न आने की सलाह देते हुए क्रांतिकारी पार्टी में शामिल होकर अंग्रेजों से टक्कर लेने का खुला आह्वान किया ।
काकोरी कांड -:
द रिवॉल्यूशनरी नाम से प्रकाशित घोषणापत्र को देखते ही ब्रिटिश सरकार इसके लेखक को खोजने लगी । संयोग से शचींद्रनाथ सान्याल बांकुरा में उस समय गिरफ्तार कर लिए गए जब वे यह घोषणा पत्र अपने किसी साथी को पोस्ट करने जा रहे थे । इसी प्रकार योगेशचंद्र चटर्जी कानपुर से पार्टी की मीटिंग करके जैसे ही हावड़ा स्टेशन पर ट्रेन से उतरे, एच.आर.ए. के संविधान की ढेर सारी प्रतियों के साथ पकड़ लिए गए । दोनों प्रमुख नेताओं के गिरफ्तार हो जाने से बिस्मिल के कंधों पर उत्तर प्रदेश के साथ-साथ बंगाल के सदस्यों का उत्तरदायित्व भी आ गया । बिस्मिल का  स्वभाव था कि वे या तो किसी काम को हाथ में लेते ही नहीं थे और यदि एक बार काम हाथ में ले लिया तो फिर उसे पूरा किए बगैर छोड़ते न थे । क्रांतिकारी गतिविधियों हेतु धन की आवश्यकता पहले भी थी किंतु अब और अधिक बढ़ गई थी । 7 अगस्त 1925 को एक एक आपात मीटिंग हुई, जिसमें सरकारी खजाना लूटने का निर्णय लिया गया और विस्तार से योजना बनाई गई ।
9 अगस्त 1925 को शाहजहांपुर रेलवे स्टेशन से बिस्मिल के नेतृत्व में कुल 10 लोग -
अशफाक उल्ला खां, राजेंद्र लाहिड़ी, चन्द्रशेखर आजाद,  शचींद्रनाथ बक्शी, मन्मथनाथ, मुकुंदी लाल, केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम) मुरारी शर्मा (वास्तविक नाम मुरारी लाल गुप्त) तथा बनवारी लाल साहरनपुर-लखनऊ पैसेंजर रेलगाड़ी में सवार हुए । इन सबके पास पिस्तौलों के अतिरिक्त जर्मनी के बने चार माउज़र पिस्तौल भी थे । लखनऊ से पहले काकोरी रेलवे स्टेशन पर रुक कर जैसे ही गाड़ी आगे बढ़ी क्रांतिकारियों ने चेन खींचकर उसे रोक दिया और गार्ड के डिब्बे से सरकारी खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया । बक्से को खोलने की कोशिश की गई किंतु जब वह नहीं खुला तो अशफाक ने अपना माउजर एक साथी को पकड़ा दिया और हथोड़ा लेकर बक्सा तोड़ने में जुट गया । साथी से अचानक माउजर का ट्रिगर दब गया और गोली एक यात्री को लगी और उसकी मौके पर मौत पर ही मृत्यु हो गई । इस अनहोनी से सभी घबरा गए और जल्दी-जल्दी सिक्कों व नोटों से भरे थैलों को चादरों में बांधने लगे । अफरा-तफरी में एक चादर वहीं छूट गई । अगले दिन अखबारों के माध्यम से यह खबर पूरे संसार में फैल गई । ब्रिटिश सरकार, जिसके राज्य में कभी सूरज नहीं डूबता था, उसके खजाने को लूट लिया जाना कोई मामूली घटना नहीं थी । पूरा शासन-प्रशासन हिल गया ।
गिरफ्तारी और अभियोग -
पुलिस छानबीन में साफ हो गया कि काकोरी ट्रेन डकैती क्रांतिकारियों का एक सुनियोजित षड्यंत्र था । सरकार ने काकोरी कांड से संबंधित जानकारी देने व षड्यंत्र में शामिल किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करवाने के लिए इनाम की घोषणा कर दी । फलस्वरूप पुलिस को घटनास्थल पर मिली चादर में लगे धोबी के निशान से यह पता चल गया कि चद्दर शाहजहांपुर के किसी व्यक्ति की है । शाहजहांपुर के धोबियों से पूछताछ करने पर मालूम हुआ की यह चद्दर बनारसी लाल की है । बनारसी लाल से पुलिस ने सारा भेद प्राप्त कर लिया । यह भी पता चल गया कि 9 अगस्त, 1925 को शाहजहांपुर से उसकी पार्टी के कौन-कौन लोग शहर से बाहर गए थे और वे कब कब वापस आए ? जब इस बात की पुष्टि हो गई कि रामप्रसाद बिस्मिल, जो कि एचआरए के कमांडर थे, उस दिन शहर में नहीं थे, तो 26 सितंबर 1925 की रात में बिस्मिल के साथ-साथ पूरे देश से 40 से भी अधिक लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया ।
काकोरी कांड में केवल 10 लोग वास्तविक रूप से शामिल हुए थे । अतः उन सभी को नामजद किया गया । इनमें से पांच चंद्रशेखर आजाद, मुरारी शर्मा (छद्म नाम), केशव चक्रवर्ती(छद्म नाम), अशफाक उल्ला खां व शचींद्रनाथ बख्शी को छोड़कर, जो कि पुलिस के हाथ नहीं आए थे,  शेष सभी व्यक्तियों पर अभियोग चला और उन्हें 5 वर्ष की कैद से लेकर फांसी तक की सजा सुनाई गई । स्पेशल मजिस्ट्रेट ऐनुद्दीन ने क्रांतिकारियों की छवि खराब करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । सिर्फ इतना ही नहीं, केस को सेशन कोर्ट में भेजने से पहले ही इस बात के सभी साक्षी व साक्ष्य एकत्र कर लिए थे कि यदि अपील भी की जाए, तो भी एक भी क्रांतिकारी बिना सजा के छूटने न पाए । बनारसीलाल को हवालात में ही कड़ी सजा का भय दिखाकर तोड़ लिया गया था । शाहजहांपुर जिला कांग्रेस कमेटी में पार्टी फंड को लेकर इसी बनारसी का बिस्मिल से झगड़ा हो चुका था । बिस्मिल ने बनारसी लाल पर पार्टी फंड में गबन का आरोप सिद्ध करते हुए उसे पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निलंबित कर दिया था । बाद में जब गांधीजी शाहजहांपुर आए तो बनारसी ने उनसे मिलकर अपना पक्ष रखा । गांधीजी ने उस समय यह कह कर कि छोटी-मोटी हेरा फेरी को ज्यादा तूल नहीं देना चाहिए, इन दोनों में सुलह करा दी थी । परंतु बनारसी बड़ा मक्कार था । उसने पहले तो बिस्मिल से माफी मांग ली, फिर गांधी जी को अलग ले जाकर उनके कान भर दिए कि रामप्रसाद बड़ा ही अपराधी किस्म का व्यक्ति है । वे इसकी किसी भी बात का विश्वास न करें ।
आगे चलकर बनारसी ने बिस्मिल से मित्रता कर ली और मीठी मीठी बातों से उनका विश्वास अर्जित करके उनके व्यापार में साझीदार बन गया । जब बिस्मिल ने गांधी जी की आलोचना करते हुए अलग पार्टी का गठन किया, तो बनारसीलाल मौके की तलाश में चुप्पी साधे बैठा रहा ।
पुलिस ने स्थानीय लोगों से बिस्मिल व बनारसी के पिछले झगड़े की बात जानकर ही बनारसी को सरकारी गवाह बनाया था और उसे बिस्मिल के विरोध पूरे अभियोग में एक अचूक औजार की तरह इस्तेमाल किया । बनारसी साझीदार होने के कारण क्रांतिकारी पार्टी से संबंधित ऐसी ऐसी गोपनीय बातें जानता था जिनका बिस्मिल के अतिरिक्त और किसी को भी पता नहीं था ।
लखनऊ जिला जेल में सभी क्रांतिकारियों को एक साथ रखा गया और हजरतगंज चौराहे के पास रिंग थियेटर नाम की एक बिल्डिंग में अदालत का निर्माण किया गया । इस ऐतिहासिक मुकदमे में जवाहरलाल नेहरू के साले जगत नारायण को एक सोची समझी रणनीति के अंतर्गत सरकारी वकील बना गया । जगतनारायण ने अपनी ओर से कड़ी से कड़ी सजा दिलवाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी । यह वही जगत नारायण था जिसकी मर्जी के खिलाफ बिस्मिल ने लोकमान्य तिलक की शोभायात्रा पूरे लखनऊ में निकाली थी । इसी बात से चिढ़कर मैनपुरी षड्यंत्र में भी जगतनारायण ने सरकारी वकील की हैसियत से काफी जोर लगाया था, पर वे उस समय रामप्रसाद बिस्मिल का कुछ भी बिगाड़ नहीं पाए थे क्योंकि मैनपुरी षड्यंत्र में बिस्मिल फरार हो गए थे और दो साल तक पुलिस के हाथ ही नहीं आये थे ।
फांसी की सजा -:
6 अप्रैल, 1927 को सेशन जज ए हैमिल्टन ने लिखा, “यह कोई साधारण ट्रेन डकैती नहीं, अपितु ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने की एक सोची-समझी साजिश है । हालांकि इनमें से कोई भी अभियुक्त अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए इस योजना में शामिल नहीं हुआ, परंतु किसी ने भी न तो अपने किए पर कोई पछतावा किया है और न ही भविष्य में इस प्रकार की गतिविधियों से स्वयं को अलग रखने का वचन दिया है, अतः जो भी सजा दी गई है, वह सोच समझ कर दी गई है और इसमें किसी प्रकार की कोई छूट नहीं दी जा सकती । फिर भी, इनमें से कोई भी अभियुक्त है यदि लिखित में पश्चाताप प्रकट करता है और भविष्य में ऐसा न करने का वचन देता है तो उनकी अपील पर अपर कोर्ट विचार कर सकती है ।
22 अगस्त, 1927 को जो फैसला सुनाया गया उसके अनुसार रामप्रसाद बिस्मिल, राजेंद्र नाथ लाहिड़ी, अशफाक उल्ला खां एवं ठाकुर रोशन सिंह को फांसी का हुक्म हुआ । मन्मथ नाथ को 14 वर्ष के कारावास की सजा दी गई । काकोरी कांड में प्रयुक्त माउज़र पिस्तौल के कारतूस प्रेमकृष्ण खन्ना के लाइसेंस पर खरीदे गए थे, अतः प्रेम कृष्ण को 5 वर्ष के कठोर कारावास की सजा मिली ।
गोरखपुर जेल में फांसी -:
16 दिसंबर, 1927 को बिस्मिल ने आत्मकथा का आखिरी अध्याय पूर्ण किया । 18 दिसंबर को उन्होंने अपने माता-पिता से अंतिम मुलाकात की और सोमवार 19 दिसंबर 1927 को प्रातः 6:30 बजे गोरखपुर की जिला जेल में इस महामानव को फांसी दे दी गई । बिस्मिल के बलिदान का समाचार सुनकर बहुत बड़ी संख्या में जनता जेल के फाटक पर एकत्रित हो गई । यह देख प्रशासन के हाथ पांव फूल गए । जेल का मुख्य द्वार बंद रखा गया और फांसी घर के पास वाली दीवार को तोड़कर उनका पार्थिव शरीर उनके परिजनों को सौंप दिया गया । पूरी कोशिशों के बावजूद शहीद रामप्रसाद बिस्मिल के पार्थिव शरीर को डेढ़ लाख से भी अधिक लोगों ने श्रद्धांजलि दी तथा जुलूस निकालकर राप्ती नदी के किनारे राजघाट पर उनका अंतिम संस्कार किया गया ।
इस घटना से आहत हो भगत सिंह ने किरती (पंजाबी मासिक) में विद्रोही के छद्म नाम से एक लेख लिखा, जिसके कुछ अंश यहां दे रहे हैं, "फांसी के तख्ते पर खड़े होकर बिस्मिल ने कहा होगा, "I wish the downfall of British Empire!" अर्थात मैं ब्रिटिश साम्राज्य का पतन चाहता हूं! फिर यह शेर कहा होगा -
अब न अहले-वलवले हैं,
न अरमानों की भीड़,
एक मिट जाने की हसरत,
अब दिल ए बिस्मिल में है!
शहीद बिस्मिल के अंतिम पत्र का कुछ हिस्सा भी आपकी सेवा में प्रस्तुत है, “मैं खूब प्रसन्न हूँ । 19 तारीख को प्रात जो होना है, मैं उसके लिए तैयार हूं । मेरा विश्वास है कि मैं लोगों की सेवा के लिए जल्द ही इस देश में फिर जन्म लूंगा । सभी से मेरा नमस्कार कहें । दया कर इतना काम और करना कि मेरी ओर से पंडित जगतनारायण (सरकारी वकील तथा पंडित जवाहरलाल नेहरू के साले, जिन्होंने फांसी लगवाने के लिए अपना पूरा जोर लगा दिया था) को मेरा अंतिम नमस्कार कह देना । उन्हें हमारे खून से लथपथ रुपयों के बिस्तर पर चैन की नींद आये!"
फांसी से 2 दिन पहले तक सीआईडी के डिप्टी एसपी और सेशन जज हैमिल्टन बिस्मिल से बार-बार कहते रहे की यदि वे मौखिक रूप से ही सब बातें बता दें तो उन्हें पन्द्रह हजार नगद दिए जाएंगे और सरकारी खर्चे पर विलायत भेजकर बैरिस्टर की पढ़ाई करवाई जाएगी । लेकिन वे भला कब इन बातों की परवाह करते थे । आप तो हुकूमतों को ठुकराने वाले व कभी कभार जन्म लेने वालों में से थे ।
बिस्मिल व अन्य क्रांतिकारियों के बलिदान ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया । काकोरी कांड के फैसले से उत्पन्न परिस्थितियों ने, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की दशा और दिशा दोनों ही बदल दी । समूचे देश में स्थान स्थान पर चिंगारीयों के रूप में नई-नई समितियां गठित हो गई । बेतिया (बिहार) में फणींद्रनाथ का हिंदुस्तानी सेवा दल पंजाब में भगत सिंह की नौजवान सभा तथा लाहौर में सुखदेव की गुप्त समिति के नाम से कई क्रांतिकारी संस्थाएं जन्म ले चुकी थी । हिंदुस्तान के कोने-कोने में क्रांति की आग धावानल की तरह फैल चुकी थी । कानपुर से गणेश शंकर विद्यार्थी का प्रताप व गोरखपुर से दशरथ प्रसाद द्विवेदी के स्वदेश जैसे अखबार इन चिंगारीयों को हवा दे रहे थे ।
काकोरी कांड के एक प्रमुख क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद पूरे देश में भेस बदलकर घूमते रहे । उन्होंने भिन्न-भिन्न समीतियों के प्रमुख संघठनकर्ताओं से संपर्क करके सारी क्रांतिकारी गतिविधियों को एक सूत्र में पिरोने का कार्य किया । 8-9 सितंबर, 1928 को दिल्ली में एचआरए, नौजवान सभा, हिंदुस्तानी सेवा दलगुप्त समिति का विलय करके हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी- एच एस आर ए के नाम से एक नई क्रांतिकारी पार्टी का गठन हुआ । जिसे भविष्य में शहीद बिस्मिल के बताए रास्ते पर चलकर ही देश को आजाद कराने हेतु संघर्ष करना था ।
(नोट -: यह जीवनी अभियान प्रकाशन द्वारा प्रकाशित जरा याद करो कुर्बानी पुस्तक से ली गई है । इस पुस्तक में 77 शहीदों की जिंदगी का सफरनामा शामिल किया गया है ।)

Tuesday 9 June 2020

शहादतनामा





उलगुलान अभी जारी है

बिरसा मुंडा एक प्रमुख आदिवासी जननायक थे । उनके नेतृत्व में मुंडा आदिवासियों ने 19वीं सदी के आखिरी वर्षों में मुंडा जनजाति के महान आंदोलन उलगुलान को अंजाम दिया ।
सुगना मुंडा और करमी हातू के पुत्र बिरसा का जन्म 15 नवंबर, 1875 को रांची के उलीहातू गांव में हुआ था । प्रारंभिक पढ़ाई के बाद वे चईबासा इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ने गए । वह हमेशा अपने समाज की दुर्दशा पर सोचते रहते थे । उन्होंने मुंडाओं को अंग्रेजों से मुक्ति पाने हेतु संगठित किया । 1894 में छोटा नागपुर क्षेत्र में वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल और महामारी फैली । बिरसा ने पूरे मनोयोग से लोगों की सेवा की ।

मुंडा विद्रोह 

1 अक्टूबर 1893 को बिरसा ने सभी मुंडाओं को एकत्र करके लगान माफी के लिए आंदोलन किया । 1895 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 2 साल के कारावास की सजा दी गई । तब तक उस इलाके के लोग उन्हें "धरती बाबा" के नाम से पुकारने लगे थे । उनके बढ़ते प्रभाव के साथ मुंडाओं में संगठित होने की चेतना भी जागने लगी ।
1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच कई युद्ध हुए और बिरसा और उसके लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम किए रखा । 1896 में बिरसा और उसके 400 सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूंटी थाने पर धावा बोला । 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेना से हुई, जिसमें एक बार तो अंग्रेज हार गए, पर बाद में, उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ्तारियां हुई ।
जनवरी 1900 में डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ । इसमें बहुत सी औरतें और बच्चे भी मारे गए । उस जगह बिरसा एक जनसभा को संबोधित कर रहे थे । बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ्तारियां भी हुई । अंत में बिरसा भी 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ्तार कर लिए गए ।
बिरसा ने अपनी अंतिम सांसे 9 जून, 1900 को रांची कारागार में ली । आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा को लोग अपने महान आदर्श के रूप में देखते हैं ।


(नोट -: यह जीवनी अभियान प्रकाशन द्वारा प्रकाशित जरा याद करो कुर्बानी पुस्तक से ली गई है । इस पुस्तक में 77 शहीदों की जिंदगी का सफरनामा शामिल किया गया है ।)

Monday 8 June 2020

राजनीति

पहली प्रेगनेंसी!
जीवन में सबकुछ बदल रहा होता है। देह के भीतर एक नए जीवन के धड़कने का अहसास। अपनी नैसर्गिक रचना को जन्म देने की तैयारी का अहसास। जीवन में दूर तक देखने की तैयारी। तीसरा-चौथा महीना, जब पेट पर हाथ रखो तो ऐसा लगता है कि दिल सीने से सरक कर नाभि के पास आ गया है। नाभिनाल से जुड़े नए जीवन में धड़कन शुरू हो जाती है।
इसके साथ ही कितनी भावनात्मक उथल-पुथल, हार्मोनल उलट-फेर। मुंह के सारे स्वाद बदल जाते हैं। धनिए-पुधीने की गंध से उबकाई आने लगती है। कुछ ऐसा खाने को मन करता है जो कभी न खाया हो। सबसे मनपसंद खाने की थाली को देख कर फेंक देने का मन करता है।
इस नाजुक समय में देश में एक विश्वविद्यालय में पढ़ रही छात्रा को एक महामारी और संक्रमण के काल में जेल में डाल दिया जाता है। वह सरकार जो कहती है बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ एक बेटी को उसके गर्भ में पल रही संतान के साथ जेल में डाल देती है।

ओह सफूरा! मैं तुम्हारे बारे में सोचती हूं तो सो नहीं पाती। मुझे न खाना अच्छा लगता  है न पानी। मैं इस आतताई सरकार से तुम्हें छीन कर ले आना चाहती हूं। मैं सोचती हूं उस जेलर के बारे में जो तुम्हारे लिए खाना लेकर आता होगा या आती होगी। क्या वह पूछता/पूछती होगी इस समय तुम्हें क्या खाने का मन है! तुम्हें अगर उबकाई आए खाने को देख कर तो क्या कोई ले आएगा वहां आइसक्रीम या चटपटा सा कुछ! वे सरकारी विज्ञापन जो गर्भवती मां को पौष्टिक भोजन की वकालत करते हैं, कितने झूठे हो जाते हैं उस वक्त जब तुम्हारे जैसी उम्मीदों से भरी लड़की से छीन लेना चाहते हैं सवाल उठाने का अधिकार।
 इस लोकतंत्र में जहां हर सजग व्यक्ति को यह हक है कि वह सरकार पर सवाल उठाए। इसी देश में किसी ने कहा था, ज़िंदा नस्लें पांच साल इंतजार नहीं करतीं हम एक गैर जिम्मेदार दल को फिर चुन कर सत्ता में ले आए। हम सातवें महीने में कूआं पूजने वाले लोग, ईद पर बकरे के मरने पर मातम मनाने वाले दोगले लोग एक बेटी के लिए इतनी आवाज नहीं उठा सकते कि तुम्हें अपनी संतान को कोख में पालने का सुख जीने दें। हम सब तुम्हारे गुनहगार हैं।
क्या हो कि तुम पर लगाई तोहमतें सच भी हों तो तुम्हें इस वक्त अपने बच्चे को सुरक्षित माहौल में जन्म देने का हक है। जबकि सच तो यह है कि झूठ और जुल्म की कोई सीमा नहीं रही। मैं इस वक्त सिर्फ अपनी दुआएं तुम तक भेज रही हूं और उम्मीद करती हूं कि पुलिस, अदालत और सरकार समेत इस व्यवस्था में कहीं कोई मनुष्य ज़िंदा हो, और तुम अपने घर के सुरक्षित माहौल में लौट सको।
प्यार और बहुत हिम्मत भेजती हूं तुम्हें!


Devyani Bhardwaj

( साभार - फेसबुक पोस्ट )