Monday 31 August 2020

आदिविद्रोही भाग - 1

 आदिविद्रोही - स्पार्टकस




संक्षिप्त रूपांतरण : डॉ० सुरेन्द्र 'भारती'



(यह उन बहादुर मर्दों और औरतों की कहानी है जो आजादी को, मनुष्य के स्वाभिमान को, दुनिया की सब चीजों से ज्यादा प्यार करते थे और उन्होंने अपनी जिन्दगी को हिम्मत और आन-बान के साथ जीया। मैंने यह सच्ची कहानी इसलिए लिखी कि जो भी लोग इसें पढ़ें, हमारे उद्विग्न भविष्य के लिए इससे ताकत पाएँ तथा अन्याय और अत्याचार के खिलाफ लड़ें, ताकि स्पार्टकस का सपना हमारे समय में सच हो सके।         - हावर्ड फास्ट)


कहानी 71 ईसा पूर्व में शुरू होती है-
[1]


एकाएक वहाँ पहुँचते ही हवा रुक जाती है, गर्मी की भयानक लहरें आकर तुम्हारी पीठ से टकराती हैं, समय अनन्त हो जाता है और स्थान दु:स्वप्र की एक विभीषिका, परन्तु  तुम हो कि इस जन-वन विहीन रेगिस्तान में से रास्ता बनाते हुए चलते जाते हो, चलते जाते हो। अब तो चलने में, साँस लेने में, देखने में और सोचने में, हर बात में डर मालूम होता है। धरती के इस नरक का नाम है -- नूबिया का रेगिस्तान -- जो कि मिस्र में है।
इसी भयानक रेगिस्तान में एक लम्बी जंजीर से बँधे एक सौ बाईस गुलाम आगे बढ़ रहे हैं। इन लोगों को यहाँ सोने की खानों में काम करने के लिए लाया जा रहा है। इनमें बारहवाँ आदमी थ्रेस का स्पार्टकस है। कैसा है यह आदमी? वैसे वह तेईस वर्ष का है, परन्तु उसके चेहरे पर इसकी कोई निशानी नहीं है। वह धूल से ढका हुआ है, काफी सख्त जान लगता है। और हो भी क्यों न, कोरू जो ठहरा। कोरू -- यानि कि गुलाम की औलाद की औलाद, जिसका जन्म और पालन-पोषण एक ऐसी प्रणाली में हुआ था जिसमें केवल वही बच पाते थे जो मजबूत और सख्त जान होते थे। उसके गले में पड़े काँसे के पट्टे से बने घावों के नासूर बन गए हैं। उसका चेहरा चौड़ा है, नाक टूटी हुई है और आँखें एक-दूसरे से काफी दूर होने के कारण उनमें भेड़ जैसा भोलापन दिखाई देता है।
हाँ, तो यह स्पार्टकस है। उसे अपने भविष्य के बारे में कुछ पता नहीं है और अतीत में उसके पास याद करने को कुछ नहीं है सिवाय कड़ी मेहनत और पीड़ाओं के। कभी भी उसके मन में यह विचार नहीं आया कि वे लोग -- जो कड़ी मेहनत करते हैं कभी और कुछ भी करेंगे, और न ही उसके मन में यह आया कि कभी ऐसा समय भी आएगा जब मेहनत से चूर आदमी की पीठ पर कोड़े नहीं पड़ेंगे। जब गले में जंजीर पड़ी हो तो सोचने को कुछ खास रहता भी नहीं है, सिवाए इसके कि अब मैं फिर कब खाऊँगा, कब पीऊँगा, कब सोऊँगा? इन्सानों को जब तुमने जानवर ही बना दिया हो, फिर वे फरिश्तों की बातें नहीं सोच सकते।
दिन खत्म होने को है, जंजीर में बँधे लोग एक चट्टानी दीवार के पास पहुँच जाते हैैं, तभी वे देखते हैं कि कुछ चीजेें चट्टानों में से रेंगती हुई बाहर आ रही हैं। स्पार्टकस सोचता है कि यह सब क्या है? हे भगवान ! मेरी मदद कर! परन्तु यहाँ भगवान नहीं है, उसका यहाँ क्या काम? और नजदीक पहुँचने पर उसकी समझ में आता है कि वे चीजें और कुछ नहीं, बल्कि उसके जैसे ही लोग हैं, जो पेट के बल घिसटकर चट्टानों  में से बाहर आ रहे हैं, जब से वे लोग यहाँ आये हैं, नहाए नहीं हैं, और न अब कभी नहाएंगे। वे या तो बच्चे हैं या बूढ़े, क्योंकि जवानी यहाँ ज्यादा देर नहीं ठहरती। वे नंगे हैं, बिल्कुल नंगे। मकडिय़ों की तरह दुबले-पतले बच्चों के चेहरे चलते समय दर्द से फड़कते हैं। ये बच्चे कभी बड़े नहीं होते और यहाँ आने के बाद ज्यादा-से-ज्यादा दो साल तक जीवित रह पाते हैं।  यह सब देखकर उसका पत्थर हो चुका हृदय भय और पीड़ा से कराह उठता है।
स्पार्टकस वाली टोली को भी उसी बैरक में धकेल दिया जाता है जिसमें बाकी गुलाम रहते हैं। उसमें रोशनी के लिए केवल दो दरवाजे हैं। उसे कभी साफ नहीं किया गया, दसियों सालों से गन्दगी उसके फर्श पर सड़कर कड़ी पड़ती गई है। दरोगा लोग कभी उसके अन्दर नहीं जाते। जब कोई मर जाता है तो गुलाम उसके शरीर को बाहर ले आते हैं और कभी-कभी जब कोई नन्हा बच्चा मर जाता है और किसी का ध्यान उस पर नहीं जाता तो उसके शरीर के सडऩे से आने वाली बदबू से ही पता चल पाता है कि वह बच्चा अब नहीं है -- ऐसी जगह है यह बैरक।
स्पार्टकस भी अपना खाना-पानी लेकर बैरक में घुस जाता है, सडाँध के बफारे उसे झंझोड़ डालते हैं। मगर कहीं कोई बदबू से भी मरता है? वह कै करके अपने पेट का खाना खराब नहीं करेगा। वह खाने का एक-एक दाना चट कर जाता है। खाने का संबंध भूख से नहीं है, खाना प्राणरक्षा का उपाय है। फिर वह सोने के लिए लेट जाता है और बचपन की स्मृतियों में डूब जाता है -- वह चीड़ के पेड़ों के नीचे बैठा है और एक बहुत ही बूढ़ा आदमी उसे पढऩा-लिखना सिखा रहा है। वह कहता है -- ''पढ़ो, सीखो मेरे बच्चे! ज्ञान ही हम लोगों का हथियार है।" और तभी उसकी आँखें नींद में डूब जाती हैं।
सुबह नगाड़े पर चोट पड़ते ही उसकी आँख खुल जाती है, अभी काफी ठण्ड है परन्तु गुलामों के शरीर पर एक चिन्दी भी नहीं है, वे ठण्ड से काँप रहे हैं। स्पार्टकस को क्रोध कम ही आता है, क्योंकि वह जानता है कि इससे कोई हल निकलने वाला नहीं है, मगर फिर भी वह सोचता है कि हम सब कुछ सह सकते हैं परन्तु यह असहनीय है कि हमें तन ढकने को एक कपड़ा भी न मिले।
सूरज निकल रहा है, उन्हें जंजीरों से बाँध दिया जाता है। ठण्डक खत्म हो चुकी है, उन्हें चट्टान की वह जगह दिखा दी जाती है जहाँ खुदाई करनी है, सोना निकालना है।
सूरज अब आसमान पर चढ़ आया है। हर घण्टा बीतने पर ऐसा महसूस होता है जैसे हथौड़े का वजन एक सेर बढ़ गया हो। और यहाँ, जहाँ पानी इतना अनमोल है स्पार्टकस को पसीना आने लगता है। वह अपनी पूरी इच्छाशक्ति से चाहता है कि पसीना रुक जाए। प्यास एक हिंसक वन्य पशु के समान आगे बढ़ रही है, ये नूबिया की सोने की खानें हैं......। दोपहर होने तक गुलामों की काम करने की शक्ति चूकने लगती है, तब दरोगा के हाथ का कोड़ा अपना कमाल दिखाता है। उसमें ऐसी खूबी है कि वह आदमी के शरीर में से तानें निकाल सकता है। और ऐसा एक दिन अनन्त होता है, तथापि प्रकृति के नियमानुसार इसका भी अन्त होता है।
स्पार्टकस हथौड़ा रखकर अपने लहूलुहान हाथों को देखता है, तभी अठारह साल का एक लड़का लडख़ड़ाकर गिर जाता है, वह उसके पास जाता है और उसका माथा चूम लेता है परन्तु उसे मरता देखकर भी रो नहीं पाता। यह है वह नरक -- जहाँ स्पार्टकस जिन्दा रहने के लिए संघर्ष कर रहा है। इस जगह की एक और खूबी भी है -- यह देखते-देखते गुलाम के हृदय से इस लालसा को निकाल फेंकती है कि वह फिर से मनुष्यों की दुनिया में प्रवेश कर सकेगा। अपनी इस निराशा में वे कुछ भी कर सकते हैं। यही निराशा है जो उन्हें जान पर खेल जाने को प्रेरित करती हैै। ऐसे में जब स्पार्टकस जैसा कोई विचारशील आदमी भी गुलामों के बीच में हो तो खतरा और भी बढ़ जाता है। इसलिए ऐसे खतरनाक लोगों को फौरन खत्म कर देना जरूरी हो जाता है। इसका एक आसान-सा तरीका है उन्हें किसी लानिस्ता को बेच देना। और स्पार्टकस को भी बाटियाटस नाम के लानिस्ता को बेच दिया जाता है।

[2]

पिछले कुछ सालों से गुलामों के प्रति लोगों का दृष्टिकोण बिल्कुल बदल गया था। बहुतों ने उन्हें मानवता के अधिकांश तत्वों से वंचित कर दिया था। उनको और जानवरों को एक ही समझा जाने लगा था, कई मायनों में तो जानवर भी उनसे बेहतर थे। मनोरंजन के लिए गुलामों को लड़वाना एक फैशन-सा बन गया था।
इसी तरह एक दिन दो नौजवान उस अखाड़े में आते हैं जहाँ स्पार्टकस भी एक ग्लैडिएटर है,  वे दो जोड़ों की लड़ाई का प्रस्ताव रखते हैं, इस शर्त के साथ कि लड़ाई का खात्मा एक की मौत के साथ ही होगा। इसके लिए ड्राबा नामक एक हब्शी को, डेविड नामक यहूदी तथा स्पार्टकस व पोलेमस नाम एक अन्य थ्रेसियन को चुना जाता है।
लड़ाई शुरू होने वाली थी, ग्लैडिएटर एक जगह बैठे इंतजार कर रहे थे। उन्हें कोई खुशी न थी। हब्शी अपनी पुरानी यादों में खोया हुआ अपने घर, पत्नी तथा बच्चों को याद कर रहा था तथा उस जिल्लत भरी, जानवरों से भी बदतर जिन्दगी के बारे में भी सोच रहा था, जिसे जीने के लिए उसे अपने ही साथियों को मारना पड़ता था और अब स्पार्टकस को मारना पड़ेगा, उस स्पार्टकस को -- जिसकी वह सबसे ज्यादा कद्र करता है। इसीलिए तो कहा गया है कि 'ग्लैडिएटर कभी दूसरे ग्लैडिएटर से दोस्ती न करे।' अब तक सभी गुलाम जान चुके थे कि कैसे जोड़ बने हैं, उन्हें परिणाम भी मालूम था कि पोलेमस मारा जाएगा तथा स्पार्टकस मारा जाएगा।
हब्शी ने धीरे से स्पार्टकस से कहा, ''साथी, मैं बहुत अकेला हूँ, अपने घर से बहुत दूर हूँ, मुझ में अब जीने की इच्छा नहीं है,  मैं तुम्हें नहीं मारूँगा।"
स्पार्टकस जवाब देता है, ''गुलाम की जिन्दगी की अकेली खासियत यही होती है कि वह जिन्दा रहे।"
नगाड़ा बजने लगा, पोलेमस और यहूदी दोनों ने अपने-अपने लबादे गिरा दिये। दोनों नंगे बदन अगल-बगल मैदान में निकल आए।
हब्शी को कोई दिलचस्पी न थी, वह मौत को वर चुका था, वह अपनी स्मृतियों में खोया हुआ बैंच पर झुका बैठा था और उसका सिर उसके हाथों पर टिका था। वह धागा टूट चुका था जो उसे जिन्दगी से बाँधे था। परन्तु स्पार्टकस का सत्त जिन्दगी थी। उसने देखने के लिए उठकर दरार में अपनी आँख लगा दी।
पहले दोनों लड़ने वालों पर उसकी आँखें टिकी रहीं, परन्तु ज्यों-ज्यों वे आगे बढ़ते गए उनका आकार छोटा होता गया और वे शानदार खेमे के नीचे बैठे उन शक्तिशाली लोगों के सामने जाकर खड़े हो गए, जिन्होंने उनकी जिन्दगी और मौत खरीदी थी। इसी समय स्पार्टकस के मन में इस अमानवीय कृत्य के खिलाफ वे सभी विचार आए जो कभी न कभी एक आदमी की जिंदगी में जरूर आते हैं।
यहूदी और थ्रेसियन के हाथों में छुरे पकड़ा दिए गए। अब वे इन्सान नहीं बल्कि एक दूसरे के खून के प्यासे जानवर बन चुके थे। वे एक दूसरे पर भयंकर हमले कर रहे थे। अचानक जैसे ही थ्रेसियन ने पूरा जोर लगाकर वार किया, यहूदी ने वार बचाते हुए उसे ऊपर उछाल दिया और इससे पहले कि थ्रेसियन जमीन पर गिरे, मौत उसके सिर पर आ चुकी थी और ताबड़-तोड़ वार कर रही थी। इतने पर भी वह नौजवान अपनी जान बचाने के लिए पागलों की तरह लड़ रहा था। आखिरकार थ्रेसियन उठकर खड़ा हो गया तथा लडख़ड़ाते हुए यहूदी को अपने से दूर रखने के लिए हवा में छुरा चलाने लगा। परन्तु यहूदी उससे दूर खड़ा रहा और उसने पास पहुँचने की कोई कोशिश नहीं की। इसकी जरूरत भी न थी क्योंकि थ्रेसियन मौत के बाण से बिंध चुका था और तेजी से मर रहा था।
आखिर रोमन तंद्रा से जागकर चीखे, ''मारो, मारो !" परन्तु यहूदी अपनी जगह से नहीं हिला, उसने अपना छुरा रेत पर फेंक दिया था और सिर झुकाए खड़ा था। रोमन चीख रहे थे। यह देखकर अखाड़े का उस्ताद कोड़ा लेकर यहूदी पर टूट पड़ा। इसी बीच दर्द से चीखता थ्रेसियन मुंह के बल गिर पड़ा। उस्ताद ने कोड़े बरसाने बन्द कर दिए। उधर हब्शी भी दरवाजे के पास आकर खड़ा हो गया था।
सिपाही थ्रेसियन के पास पहुँचे। एक ने अपने भारी हथौड़े से उसकी कनपटी पर कस कर चोट की जिससे उसकी खोपड़ी चूर-चूर हो गई तथा फिर भेजे से सने हथौड़े से दर्शकों को सलाम कर चला गया।
आदमी की जिन्दगी के प्रति यह कठोरतम उपेक्षा देखकर हब्शी बोला, ''स्पार्टकस, मैं तुमसे नहीं लडूँगा।"
''अगर हम नहीं लड़ते तो दोनों मारे जाएंगे।" स्पार्टकस ने कहा।
''तो तुम मुझे मार डालो, मेरे दोस्त! पर मैं तुमसे नहीं लडूँगा। मेरा दिल उन लोगों के लिए तड़फ रहा है जो मुझ से प्यार करते थे।"
इतने में दोबारा नगाड़ा बजने लगा, हब्शी और स्पार्टकस जाकर अखाड़े में खड़े हो गए। दोनों को उनके हथियार पकड़ा दिए गए। और तब अपना त्रिशूलनुमा हथियार हाथ में आते ही हब्शी जैसे पागल हो गया तथा बड़े ही हिंसक तरीके से खेमे की तरफ बढ़ा। उस्ताद ने उसका रास्ता रोकने की कोशिश की तो उसने उसे त्रिशूल की नोंक पर उठा लिया और अखाड़े की मजबूत बाड़ को कागज की तरह नोंचकर फेंक दिया, यह देखकर सिपाहियों ने उसे भालों से बींध दिया, पर वह अपनी आखिरी साँस तक खेमे की तरफ बढ़ता रहा और जब वह गिरा, उसका त्रिशूल उस मंच को छू रहा था, जहाँ रोमन दहशत के मारे सिमटे बैठे थे।
इस पूरी घटना के दौरान स्पार्टकस हिला तक नहीं, उसने अपना छुरा जमीन पर फेंक दिया था और बिना हिले-डुले खड़ा रहा।


(कल अगला भाग पढ़ना न भूलें। साथियों, यह एक लंबी कहानी है जिसे हम पाठकों की सुविधा के लिए तीन भागों में दे रहे हैं। तीन दिन, तीन भाग।)

Thursday 27 August 2020

कहानी



जमीन
(अल्लम राज्जया) 
अनुवाद: सा. मोहनराव 

(यदि मुझे जेल ले जायेंगे तो मेरी बहु जमीन जोतेगी। बूढ़ा हरामी बड़ा ही ढीठ है! मैंने सोचा। तुम्हारी बहु और उसके बच्चों को भी यदि जेल भेज दें तो?
तो फिर मेरी बूढ़ी हल पकड़ेगी।
यदि तुम्हारी बूढ़ी को भी ले जायें तो?
मेरे और लोग जोतेंगे!
यदि उन्हें भी सलाखों के पीछे ठेल दें तो!
तो फिर भैंसे ही हल जोतेंगे!
यदि उन्हें भी पशुबाड़े में बंद कर दिया जाए तो?
हल अपने आप ही खेत जोतेगा।
हलों के लिए भी यदि नये जेल बना दिए जाएं तो?
तब जमीन खुद चर्र... चर्र... की आवाज के साथ फट जाएगी! सुन रहे हो! और तब तक हम हाथ पर हाथ रखे बैठे नहीं रहेंगे।)



दिसंबर का पहला सप्ताह। मकई तैयार हो गई है, भिगोई न गई तो डंठल टूट जायेंगे। एक ओर धान काटने का मौसम। मिर्चे भी जम गये हैं, यदि दवाई न छिड़की तो मुंह में मिट्टी! जिधर देखो, काम ही काम! ठीक इसी मुहूर्त में बिजली जैसी खबर पहुंची- मेरे साले को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया!
जो भी कारण हो, एक बार देखने जाने के लिए गौरम्मा पागल-सी हो गयी थी। मुझसे पहले ही वह तैयार हो गई थी। दोनों के जाने से धान कटाई और बाकी काम कैसे होंगे? बाद में रोने से क्या फायदा! किसी तरह उसे समझाकर मैं चला।
ससुराल मेरे गाँव से 30 मील दूर है। पहले हम पैदल ही जाते थे। आर्थिक स्थिति थोड़ी सुधरी तो बैलगाड़ी पर जाने लगे। पर बैलगाड़ी में हड्डी-पसली एक होने के साथ-साथ पूरा दिन लग जाता था। इधर बसें आ गयी हैं। बैलगाड़ी से पिंड छूटने पर भी, बस की अपनी दिक्कतें हैं। पहले पाँच मील पैदल चल कर बसस्टाॅप पहुंचना, फिर बस की प्रतीक्षा! भगवान जाने कब दर्शन दे! इंतजार के बाद आती भी है तो इतनी भीड़ कि उसमें मकई के डंठल जैसा घुसने का काम बड़े जोखिम का है। उतरने के बाद फिर पैदल चलना पड़ेगा! यह सब सोचते हुए, ‘कब तक पहुंचेंगे’ की चिंता में खोये मैं गाँव के रास्ते पर चलने लगा।
हवा के झोंकों से रास्ते के दोनों ओर धान की बालियाँ झूमते हुए एक कर्णप्रिय संगीत का सृजन कर रही थीं। दूर दोरा (जमींदार) के खेत में मजदूर धान ढो रहे थे। कटे हुए धान के खेतों में मवेशी धान के बचे मुट्ठे खा रहे थे। उनकी रखवाली करने वाला बहरा पोरडू कोई गीत गुनगुना रहा था। मेरे ऊपर एक तीतर आवाज करते हुए कलाबाजियां खा रहा था।

महाजन के खेत में बोब्बिली के वीर ताण्ड्र पापाराव की वीरगाथा, जिसे तीन लोग मिलकर गाते हैं, गायी जा रही थी।

महाजन के दोनों ओर दो स्त्रियाँ, जो उसकी पत्नियाँ थीं, बुर्रलू (एक प्रकार का वाद्य यंत्र) बजाये जा रही थीं और उनसे एक लयात्मक आवाज निकल रही थी। दूर जमींदार के धन के अम्बार के बीच एक बछडा रम्भा रहा था।
एक खेत में लंगोट पहने एक व्यक्ति चूहे के बिल खोद रहा था। साथ ही एक गीत हल्के सुर में गुनगुना रहा था।

खेतों को साफ कर
ईंट-पत्थर चुनकर
बंजर को जोतकर
मकई का खेत कर
फसल को पैदा किया तो
वह कौन है, वह कौन है?
हमारा है कहने वाला?
वह कौन है, वह कौन है?
हमारी जमीं कहने वाला?

मेरा मन उचट गया। ये गाने ही तो जनता को भरमा रहे हैं। नहीं तो जानते-बूझते ये गड्ढ़े में क्यों गिरते हैं? जब पूरी तरह फंस जाते हैं तो बड़े लोगों की याद आती है? हवा से भी ज्यादा तेजी से ये गाने फैल रहे हैं। सिर झुकाकर काम करने वाला मजदूर सिर उठाने लगा है। ये संघ-वंघ गाँवों में कुकुरमुत्तों की तरह बढ़ने लगे हैं। कई सदियों से जो परिपाटी चली आ रही है, उसे एक चोट में बदलने की बात कहना! किसके बाप की हिम्मत? अरे बेवकूफो! थोड़ी-सी पढाई-लिखाई की गंध लग गयी तो तुम पंडित थोड़े ही हो गये। तुम गंगाजल छू लिए हो तो खुद गंगा थोड़े ही बन गये हो!
तुम पढ़े-लिखे हो, बुद्धिमता से सोच सकते हो, पर हमेशा हमें उस हरामी के पैरों तले रौंदे जाते रहने के लिए कह रहे हो? बस! अब बंद करो ये! आजकल गाँव के हरिजनों के मुंह से निकलने लगा है। ‘जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा’ सोचकर मैं अपने कामों में मशगूल हो गया था। लेकिन उनका कहना है कि ‘ये वर्ग क्यों? जमीन जो जोतता है, उसी की होनी चाहिए।’ मजदूरी बढ़ाने की बात भी उठा रहे हैं वे! यदि इनकी सब मांगों को पूरा किया जाये तो जमींदार के पास क्या बचेगा? यदि वह देगा नहीं तो सभी काम बंद! यदि मुकरा और झगड़ा किया तो जमींदार के घर पर हमले! अब तो पंचायत के नाम पर लगाये गये एवं जमींदार द्वारा वसूले दंड के पैसे, वसूले गये भेड़ के बच्चे भी वापिस मांगे जा रहे हैं।
अपनी आन-बान-शान, धन और अधिकार के मद में लीन ये जमींदार भला क्या पागल हैं कि ये जो चाहेंगे, दे देंगे?
मेरा साला इन्हीं संघों में भर्ती हुआ। अब ये जमींदार क्या भला हाथ पर हाथ रखे बैठे रहेंगे? उन्हें जो करना था, उन्होंने किया। अदालत क्या कोई छोटी चीज है? अदालत में पड़ना, आधी जिंदगी खत्म होना। मामला समाप्त होने तक घर तक बिक जाएगा। यह बात जब मैंने अपनी पत्नी गौरम्मा से कही, वह ताड़ के पेड़ जैसी तन उठी। उसे क्या पता इन बातों के बारे में, चावल सूप पर हिलाने जैसा काम तो है नहीं ये बातें, जो उसकी समझ में आ जाएँ!
पिछली बार जब वह मायके से लौटी तो उससे बात तक करना मुश्किल हो गया था। हर बात के पीछे कारण दिखा रही थी। बाल की खाल खींच रही थी। वह भी धीरे-धीरे वह सब गुनगुनाने लगी थी। अच्छा ही हुआ कि वह जल्दी आ गयी, एक-आध महीना और वहां रहती तो वह भी अपने भाई के संघ में भर्ती हो जाती। एक गन्दी मछली पूरे तालाब को गन्दा करने वाली बात है यह! साला यदि अपनी हद में रहता तो आज यह नौबत नहीं आती! यही बात मैंने कही थी। रह न पाया था।
इतना सुनते ही गौरम्मा उछलकर खड़ी हो गयी, तुम बड़े ज्ञानी हो जी, हमें मालूम है कि तुम्हारे पास दो एकड़ तर जमीन और तीन एकड़ ऊँची जमीन है। इसीलिए तुम्हें कुछ पता नहीं चल रहा। ...... जिसका पेट जल रहा है, उसे मालूम है, भूख क्या चीज होती है? ....... पढ़े-लिखे हो, इसलिए पुराण बाँचते हो! मैं जो कह रही हूँ, वह अब की सच्चाई है, पुराण नहीं है। पुरानी बातों से कुछ होने का नहीं है।यदि मेरे पास जमीन है तो क्या यह मेरी गलती है? मैंने क्या किसी से छीनी है? जब कुछ ‘अच्छी’ बातें मैं सुनाता तो वह मुस्कुराते हुए मेरे गालों पर चपत लगाती, ‘कौवे को क्या मालूम, बैल के घाव का दर्द? वह तो चोंच मारेगा ही!’ इस बार वह मुस्कुराने की बजाय मेरी ओर टकटकी लगाये देख रही थी।
हमने किसी की जमीन हजम नहीं की है। मेरे पिताजी का परिश्रम क्या तुमने कभी देखा है? मैंने......
हाँ-हाँ! बहुत ज्यादा परिश्रम किये हो तुम और तुम्हारे पिताजी! हमारे घरवाले यदि मदद न करते उस समय! और कितने दिन......, कुछ दिन बाद हमारे बच्चों का भी बुरा हाल होगा। बुरे दिन किस तरह मंडरा रहे हैं, तुम्हें अंदाजा नहीं है। वह हाथों को नचाते-घुमाते हुए बोली। उससे बहस करके कोई लाभ नही है। मैं यदि कुछ बोलना चाहूँ तो वह पूरा बड़ा भाषण झाड़ देती है।
पटेल, कौन गाँव के हो? मैं अपने विचारों में खोया था कि ये शब्द सुनकर चौंक गया।
मेरे बगल में एक कमर से झुका बूढ़ा हाथ में एक पगहा के साथ दिखाई पड़ा, जिसके दूसरे छोर एक भैंसा था। बूढ़े के चमड़े की झुर्रियां काफी बढ़ गयी थीं। घनी मूंछें, माथे पर पुरानी पगड़ी, हाथों की उभरी हुई नसें रस्सियों जैसी लग रही थीं। तन पर एक मैला-कुचैला, जगह-2 से फटा कपड़ा लपेटे था। पतले सींखचों जैसे पैर कपडे़ से बाहर झाँक रहे थे। पीठ पीछे एक पोटली बंधी थी। शायद उसमें रोटियां थीं। पोपला मुंह, मुंह में दो-तीन दाँत..., जो काफी गंदे थे। बहुत दिनों से गरीबी और गर्दिश से लड़ने के लक्षण साफ झलक रहे थे। रोगी भी रहा होगा.....। लेकिन भीतर धंसी उन आँखों में पहाड़-सी आशा विद्यमान थी....! मैंने उसके पैरों की ओर नजर दौड़ाई। तलुवे घिसे चमड़े के चप्पल थे पैरों में। उन पर स्ट्राइप्स कपड़े से अस्थाई रूप से बंधे थे। पैरों पर इंचों जमी धूल का मतलब था कि वह बहुत दूर से चला आ रहा था।
हम दोनों अगल-बगल चल रहे थे। सिर पर धूप तन को जला रही थी। हवा बह रही थी लेकिन हलकी सी। बूढ़ा बाएं पैर से थोडा लंगड़ा रहा था। मेरे साथ ठीक से कदम नहीं मिला पा रहा था। अकेले यात्रा करने के बदले किसी के साथ चलना अच्छा है, यह सोच मैंने अपनी चाल धीमी कर दी।
हमारा कौन गाँव है पटेल? लगता है बूढ़ा मेरे सफेद कपड़े, बालों के तेल और अच्छे से कंघी किये बालों को देखकर मेरे प्रति उत्सुक हो गया था। असल में मैं न तो पटेल था, न पटवारी! केवल एक साधरण-सा किसान था।
बूढ़े ने फिर गाँव का नाम पूछा। इस बार मैंने बताया।
आपका नाम क्या है?य बूढ़ा।
आशन्ना!
आशन्ना ऊशन्ना भी तो दोनों भाई थे-
आशन्ना, अरे ऊशन्ना!
धान कूटने में तुम्हें लगाया बेटा
आशन्ना, अरे ऊशन्ना ......! बूढ़े ने अपनी भारी आवाज में गाना शुरू कर दिया।
यह व्यक्ति अब तक कैसे गा सकता है? मैंने सोचा। जो भी हो, बूढ़ा बड़ा मिलनसार आदमी लगा।
अपना कौन सा गाँव है दादा? मैंने बिना सोचे ही पूछ डाला।
बूढ़े ने गाना रोका, मुझे ऊपर से नीचे तक गौर से देखा और फिर गाँव का नाम बताया। अब चौंकने की बारी मेरी थी। साले साहब की घटना को एक ओर रख भी दें तो इधर उसके गाँव में जो घटनाएं घटी थीं, उनके बारे में जो भी जानता हो, वह सच में बिना चौंके नहीं रह सकता था।
तुम्हारा नाम क्या है?य मैं।
गंगन्ना!
हम दोनों कुछ दूर और साथ चले। धूप से परेशान भैंसा मुख से झाग उगल रहा था। उसकी चाल में भी शिथिलता आ गयी थी। दोनों के बीच दो-तीन इधर-उधर की बातें हुईं। गंगन्ना ने मुझे ‘आप’ व ‘पटेल’ कहना छोड़ दिया था। मैं पटेल नहीं हूँ, यह उसकी समझ में आ गया था। वह खुश भी था।
गंगन्ना दादा! इस तरह जमींदार के घर पर सबका मिलकर जाना गलत नहीं है क्या? गलत सही पर सोचना तो चाहिए? पहले ये संघ नहीं थे। तब क्या हम जी नहीं रहे थे?
गंगन्ना का चेहरा लाल हो गया। होंठ हल्के-हल्के कांपने लगे। उत्तेजित अवस्था में वह कुछ बोल नहीं पा रहा था।
उसके पास बंदूक है, जमींदार बंदूक क्यों खरीदते हैं? ऐसे समय की सोचकर ही तो! मैं तुमसे पूछता हूँ, वह आग है, यह जानकर भी उसे छूना क्यों? छूने से तो जलेंगे ही?
बकवास बंद करो! बूढ़ा चीखा। आवाज से भैंसा भी डर गया। अरे ज्ञानी आदमी! ऊपर-नीचे, हर जगह गरीब की ही गलती मानी जाती है। वे रात के अंधेरे में हमारे गाँवों को जला देते हैं! बिना कोई प्रतिवाद किये गरीब मरते हैं! पिण्ड छूटा...! गरीब यदि जिंदा रहे तो उसका एक पेट भी होता है! पेट है तो भूख है....! भूख है तो प्रतिवाद होगा ही! हमने क्या किया? किसके घर में घुसे? तालुका में हमारे संघ ने सभा बुलाई। हम सभा में गये थे। संघ हमने इसलिए बनाया, ताकि सुख-दुख की दो बातें कर सकें! संघ की बात करें तो क्या जमींदारों के संघ नहीं हैं? मैं बताता हूँ, गिनो! आबकारों का संघ, थोकदारों का संघ, छोटी-मोटी कंपनियों का संघ, मोटरों का संघ, वतनदारों का संघ, स्पांज संघ और शहर में तो ‘शेर के मुंह का संघ’! हमने भी गरीबों का संघ ‘किसान-मजदूर संघ’ बनाया। अब इन पैसे के रखवालों का पेट फूलने लगा। धोतियां ढीली होने लगीं। जमींदार और महाजन, सबने मिलकर षड्यंत्र शुरू कर दिया। अब क्या कहे भैया! हमारे गाँव में घर-घर में घुसकर बच्चे-बूढ़े, जवान, मवेशी, औरतों को बिना भेदभाव के, पागलों की तरह ऐसे मारा कि शरीरों पर सुई की नोंक रखने की भी जगह नहीं बची। फिर हमारे चार आदमियों को बाँधकर, जमींदार की गद्दी पर ले गये। वहां जमींदार ने फिर उनकी पिटाई की! अब तुम ही बताओ, हमारी क्या गलती थी?
लेकिन अखबारों में तो वैसा नहीं लिखा है? मैं।
क्या लिखा है? लिखने वाले कौन हैं?
अखबारों में जो खबरें छपी थी, मैंने जो पढ़ा था, जहाँ तक याद था, उसे सुनाया। वृद्ध ने दाँत पीसना शुरू किया।
उन हरामियों को किसने कहा यह लिखने के लिए? वे किसी के कहने से क्यों लिखेंगे? यदि वे किसी के कहने पर भी लिखें तो हमारा सिर नहीं कटेगा! अखबार वाले भी जमींदार के चमचे हो सकते हैं।
तुमने बताया कि जमींदार की गद्दी पर तुम्हारे लोगों को बाँधकर मारा गया था। फर क्या हुआ?
जो होना था, वही हुआ? यह जो भैंसा देख रहे हो, ऐसे मवेशियों को अपने मवेशीखाने में बंधवा लिया जमींदार ने। तब गाँव के सभी आदमी मिलकर इस अन्याय के बारे में पूछने के लिए जमींदार की गद्दी की ओर बढ़े। अब ‘चोर की दाढ़ी में तिनका’! उसने सोचा कि हम गद्दी पर हमला करने आ रहे हैं। अब यदि हम ऐसा ही सोच लें तो क्या वह बचा रह सकता है? पर मैं तुमसे पूछता हूँ कि जब तक उसके पाप का घड़ा नहीं भरता, तब तक खम्बे से नरसिंह का जन्म नहीं होगा और उसकी हिरन्यकश्यप जैसी अंतडियाँ उसके गले का हार नहीं बनेंगीं। हम जैसे ही उसकी गद्दी के पास पहुंचे, उसकी बंदूक गरज उठी! अब क्या बताऊं बेटा! गरम-गरम खून जमीन पर गिरने लगा। हम अनाथ पक्षियों की तरह इधर-उधर भागे। क्या बताएं......, बंदूक की गोली से बचने के लिए हमारे तनों पर एक धागा सूत तक नहीं था। बंगले के ऊपर से एक नहीं, बल्कि दो-दो नालियां आग बरसा रही थीं। जो जिधर राह पाया, दौड़ा! भगदड़ मच गई! खून से लथपथ शरीर...., रोने-कराहने की आवाजों का मिलाजुला सुर....! खून देखकर आँखों में खून उतरने लगा। तब तक पुलिस की गाड़ियां......!
नहीं तो कापफी लोग मरते! मैंने बीच में ही कहा।
हमने भी यही सोचा था कि पुलिस न्याय करेगी! आँखों के सामने जब इतना बड़ा अन्याय हो रहा हो तो उनके हाथों की बंदूकें जरूर जवाबी फायर करेंगी! ऐसा हमने सोचा था। पर आशन्ना बेटा! बन्दूकों की एक ही जात होती है! मुझे तो लगता है कि बंदूक का जन्म ही हमारे जैसे गरीबों को गोली मारने के लिए हुआ है। गधे जैसा मुटाया उनका मुखिया गाड़ी में बैठा ही फोन पर बातचीत में मशगूल था। उसके पेट में तो चूहे तो कभी कूदे नहीं, उसे भूख ने कभी सताया नहीं न! वह माइक लगाकर कहने लगा, ‘गांव वालो! शान्ति रखो!’
अरे बदमाश! ‘चोर-चोर मौसेरे भाई’ अब जनता को सचमुच गुस्सा आने लगा। तब एक हरिजन महिला सम्मक्का उसकी मोटर के सामने कूद पड़ी!’
‘अरे साहब! तुम्हें सलाम! बंगले का साहब ही बन्दूक से गरीबों पर गोली चला रहा है। हम तो अब तक शान्ति से ही थे। उसे समझाओ! ओ पुलिस के कप्तान जी!’
एक तरफ गोलियां चल रही थीं, दूसरी ओर वह शान्ति का राग अलाप रहा था, जैसे कि उसके कान भी जमींदार के पास बंधक रखें हों! सम्मक्का उसकी बगल में कूदकर पहुंची! ‘क्या साहब! आप हाथ में बंदूक लेकर भी चुप हैं...’ जमींदार बंदूकें चला रहा था। क्या बताऊं तुम्हें आशन्ना! सम्मक्का पर जैसे कोई देवी सवार हो गयी हो! उसकी आँखें बड़ी-बड़ी हो गयी! बाल बिखर गये! दाँत पीसने की आवाज पट-पट सुनाई पड़ने लगी!
‘मैं औरत हूँ, मेरी आँखों में भी खून उतर आया है..... तू .... तुम तो मरद होके जन्म लिए हो, यदि कुछ नहीं कर सकते तो यह बंदूक ही मुझे दे दो! मैं देखती हूँ क्या करना है?’
पर वह क्यों देने लगा! वह किसका दलाल है? यदि उसमें इतनी ही हिम्मत होती तो जमींदार अब तक गोलियाँ चलाना जारी रखता क्या?
मेरा मन जैसे जड़ हो गया। यह घटना हो गयी। इसके बाद सफेद लिबास वाले गाड़ियों में आने लगे। चमचागिरी की बातें! दुःख प्रकट किया। दर्द जाहिर किया, ‘अरे! ये क्या हो गया!’ कलम से कागज पर पुताइयां होने लगीं। पर हमें बातों से काम नहीं! गाँव में जितनी भी जमीन है, जमींदार ने छीनकर अपने नाम कर ली है। हमारे लिए दिशा मैदान के लिए भी जगह नहीं बची। हमें खेतिहर मजदूर बनाया, हमारा खून चूसना शुरू किया। वो हमारी जमीनों पर कब्जा कर बड़ा बन गया है, मान-सम्मान पा रहा है, हमें कुछ नहीं है! क्यों? क्या हम परिश्रम नहीं करते? मालूम हुआ आने वाले हितैषी, जो बड़े आदमी थे, किसी ने जमीन की बात को उठाया ही नहीं। लेने-देने की बातें ही करते रहे। पर कुछ मिला भी नहीं! तीसरे दिन पुलिस फिर पहुंची! क्यों? जानते हो! हम जमींदार की गद्दी पर उसे मारने गये थे! इस मामले के साथ! उसने हमारे लोगों को मारा, भून दिया गोलियों से! यह बात तो गंगा में मिल गयी! फिर सभी नौजवानों को मारते-पीटते....., जिन्हें जमींदार ने उंगली उठाकर दिखाया, उठाकर ले गये! वे फिर गाँव का मुंह ही न देख सकें, इसलिए उन्हें जेलों में ठूंस दिया गया। बदमाश! जब चुनाव होते हैं तो पागल कुत्तों-से घूम-घूमकर वोट डलवाकर अब वे हमारे आका हो गये हैं। हमारे वोट ही हमारे खिलाफ काम कर रहे हैं। कचहरियाँ, अदालतें सब उनके हैं। गंगन्ना दादा अब काँप रहा था। उसकी धमनियों में बचा खून लावे जैसा खौल रहा था।
यह तो अन्याय है?य
अन्याय है, यह तो सभी कहते हैं, बेटा! पर इससे हमारी दुख-तकलीफें तो नहीं मिटती। हाँ, बाद में पूरा गाँव ही एक तरह से उजड़ गया। शमशान सी शांति! कोई भी बात नहीं करता। सभी हंसना भूल गये। बूढ़ा-बूढ़ी जो बचे हैं, वे क्या काम करेंगे! फसलें जल गयीं! पर मजदूरी के लिए मरने के शर्त पर भी जमींदार के यहां काम करने को हम तैयार नहीं हुए! उसके मवेशी फार्म में गोबर उठाने वाला भी नहीं रहा। उसकी फसल काटने वाले भी नहीं थे! भाई, उस शमशान जैसे गाँव में अब और क्या बचा है कि सरकार ने पुलिस भेजकर एक पुलिस कैंप डलवा दिया! जमींदार के गोदामघरों में मुकाम डाला। अब उनके अत्याचारों के बारे में क्या वर्णन करूं! गंगन्ना के चेहरे की पीड़ा अवर्णनीय थी।
अच्छा दादा! तुम्हारे घर से भी कोई पकड़ा गया था क्या?
धीरे क्यों बोल रहे हो? मेरे लड़के और दामाद को उठा ले गये।
तुम्हारे कितने लड़के हैं?
और कितने? केवल एक! एक ही लड़की थी, जिसका अपने गाँव में ही विवाह किया था।
एक मील और चलने पर मेरा बसस्टाॅप आ जाएगा। गंगन्ना ने जो बातें बताईं, उनमें कहीं कोई गलती नजर नहीं आ रही थी। फिर भी मैं लोगों के इन कार्यों का समर्थन नहीं कर पा रहा था। लगता है गंगन्ना को जेल में पड़े अपने बेटे और दामाद की याद सताने लगी थी। वह कुछ न कहकर चल रहा था। उसके पैर जमीन पर गुस्से के साथ पड़ रहे थे।
कुछ देर हम दोनों चुपचाप चलते रहे। भैंसा धूप से काफी परेशान था। अब यदि वह पानी के पोखर में नहीं नहायेगा तो अगले चंद मिनटों में चलने की स्थिति में नहीं रहा जाएगा। उसके मुंह से फेनिल झाग निकल रहा था।
दादा इसे थोड़ा पानी पिलाओ! बेचारा धूप से काफी परेशान है, थका-मांदा है।
चार आमडा (एक आमडा = साढ़े सात मील) की दूरी तय करनी है, एक बार यह पानी में घुस गया तो फिर इसे जल्दी से निकालना हमारे वश की बात नहीं रह जाएगी।
करीब तीस मील, यानि कि 45 किलोमीटर की दूरी होती है चार आमडा। यानि कि वृद्ध को अभी 45 किलोमीटर और चलना है! बड़ा कठोर जीव है!
हम दोनों ने मिलकर रास्ते के एक पोखर में भैंसे को पानी पिलाया। गंगन्ना ने पानी में उतरकर उसके सारे बदन को पानी से भिगोना शुरू किया। फिर हम चलने लगे।
गंगन्ना दादा, गाँव में तो पुलिस है, जैसा कि तुमने बताया, फसल नष्ट होने की बात भी तुमने बताई! तुम कह रहे हो कि सभी काम बंद पड़े हैं, फिर इस भैंसे का क्या करोगे?
तुम सोच रहे हो कि क्या हमेशा ऐसा रहेगा?
यदि वे सोचें तो हो सकता है!
पर हम ऐसा नहीं सोचेंगे! हमें जीना है तो हमें मुंह में भात की जरूरत है। भात के लिए हल जोतना ही पड़ेगा!
किसकी जमीन जोतोगे?
जमीन किसी की भी हो? किसी का नाम लिखा है क्या? सब जमीनों को मिलाकर प्रथम बारिश के बाद जोतेंगे।
अरे बाप रे! यह बूढ़ा कम नहीं है! इतना होने के बाद भी फिर से जमीन जोतने की बात कर रहा है! गंगन्ना के इस जिद्दीपन पर मुझे जलन हुई।
तुम बड़े जोतने चले, तुम्हें जोतने कौन देगा?
क्या करेंगे? गंगन्ना के चेहरे पर जुनून..., बातों में ढिठाई थी!
क्या करेंगे? यह तो मैं क्या बता पाऊंगा! तुम तो खुद ही जानते हो! तुम्हारे लोगों का क्या हाल हुआ?
जेल भेज देंगे, यही न? कहकर गंगन्ना सोच में पड़ गया। सिर के कपड़े को झटककर कंधें पर डाल लिया। सिर को खुजलाया।
मैंने इत्मीनान की साँस ली और सोचा कि अब वृद्ध को नकेल पहना सका हूँ।
अरे आशन्ना! आदमियों के लिए तो जेल है पर जानवरों के लिए भी क्या जेलें हैं?
मेरी जानकारी में पशुओं के लिए ऐसे जेलें नहीं हैं, फिर अचानक याद आया, पशुबाड़े तो हैं! पशुबाड़े हैं?
धत्त तेरे की! वृद्ध ने कंधें पर के कपड़े को जोर से झाड़ा। ठीक है जानवरों के लिए बाड़े हैं, पर हलों के लिए कोई जेल मौजूद है क्या?
गंगन्ना की बातें और उसका मतलब मेरी समझ में नहीं आ रहा था। अरे गंगन्ना दादा! ऐसी बात नहीं है। यह ठीक है कि तुम भैंसा खरीदकर ले जा रहे हो। इसे हल में भी जोतोगे। यह भी सही है। क्या भाग्य है? इतने कष्टों के बावजूद जब तुम जोतने जाओगे तो वे तुम्हें जेल में ठूंस देंगे! मेरा सुर मुझे तल्खी का अहसास दे रहा था।
यदि मुझे जेल ले जायेंगे तो मेरी बहु जमीन जोतेगी। बूढ़ा हरामी बड़ा ही ढीठ है! मैंने सोचा। तुम्हारी बहु और उसके बच्चों को भी यदि जेल भेज दें तो?
तो फिर मेरी बूढ़ी हल पकड़ेगी।
यदि तुम्हारी बूढ़ी को भी ले जायें तो?
मेरे और लोग जोतेंगे!
यदि उन्हें भी सलाखों के पीछे ठेल दें तो!
तो फिर भैंसे ही हल जोतेंगे!
यदि उन्हें भी पशुबाड़े में बंद कर दिया जाए तो?
हल अपने आप ही खेत जोतेगा।
हलों के लिए भी यदि नये जेल बना दिए जाएं तो?
तब जमीन खुद चर्र... चर्र... की आवाज के साथ फट जाएगी! सुन रहे हो! और तब तक हम हाथ पर हाथ रखे बैठे नहीं रहेंगे।
मैंने बूढ़े के चेहरे की ओर देखा। उसकी आँखें आवेश से बाहर आने को थीं। माथे पर परेशानी की नसें रस्सियों की तरह उभर गयी थीं। आँखों में आग..., मुझे लगा उस स्थिति में वृद्ध गंगन्ना को जीतना किसी के वश में नहीं।
मेरा बसस्टाॅप आ चुका था। मैं रुक गया।
गंगन्ना दादा! तुम पर विजय पाना किसी के लिए साध्य नहीं! यह वाक्य मेरे अन्तरंग में प्रतिध्वनित होने लगा।
गंगन्ना जा रहा था। पीछे-पीछे भैंसा...! कई सौ लड़ाइयां लड़ चुके हमारे पुराण पुरुष गंगन्ना के नाखून के भी बराबर नहीं हो सकते! ऐसा सोचने पर मैं मजबूर हो गया था।
बसस्टाॅप पर बस के लिए मेरे जैसे ही अनेक पैसेंजर खड़े बस की राह देख रहे थे। लेकिन गंगन्ना किसी के लिए इंतजार नहीं करेगा!
हम भी यदि गंगन्ना की राह पर चलें तो??



Thursday 20 August 2020

हरियाणा में कला साहित्य

 हरियाणवी एवं हरियाणा में कला साहित्य और जनवादी लेखन के समक्ष चुनौतियाँ 

- एडवोकेट राजेश कापड़ो


(प्रस्तुत शोध-पत्र एडवोकेट राजेश कापड़ो ने अभियान पत्रिका द्वारा 16-17 मार्च, 2002 में आयोजित गोष्ठी में पेश किया था। जिसकी प्रासंगिकता इतने सालों बाद भी बनी हुयी है। इस शोध को अभियान पत्रिका पुनः इस उम्मीद के साथ अपने ब्लॉग पर तमाम जागरूक नागरिकों के साथ सांझा कर रही है कि कला पर पुनः एक बहस शुरू हो। जिसमें कला के सामाजिक सरोकार और मां बोली को किस तरह से भाषाओं के रूप में विकसित किया जा सकता है इस पर सभी साथियों की प्रतिक्रियाएं आमंत्रित हैं। धन्यवाद। - संंपादक मंडल अभियान)



हरियाणा में कला-साहित्य और हरियाणवी में कला साहित्य, दो अलग-अलग विषय हैं। हरियाणा में कला-साहित्य की रचना हिन्दी में हो सकती है, उर्दू या पंजाबी में हो सकती है; अंग्रेजी या कोई और भारतीय भाषा, इस प्रकार के कला-साहित्य का माध्यम हो सकती है। लेकिन जब हम हरियाणवी में कला-साहित्य की बात करते हैं तो इसका संबंध सिर्फ हरियाणवी भाषा में रचित कला-साहित्य से है। मैं इन दोनों विषयों पर बातचीत करने का इच्छुक हूँ। क्योंकि हरियाणा में बहुसंख्यक लोग हरियाणवी समझते एवं व्यवहार में लाते हैं इसलिए पहले हरियाणवी में कला-साहित्य पर ही ध्यान केन्द्रित किया जाए तो अच्छा रहेगा। यहाँ आए तमाम कवि, लेखक एवं कलाकारों के समक्ष कुछ प्रश्न उठाना चाहूँगा जो पिछले काफी दिनों से व्यक्तिगत रूप से मुझे परेशान कर रहे हैं, ताकि हम आपसी विचार-विमर्श द्वारा हरियाणवी कला-साहित्य के विकास एवं जनवादी लेखन के समक्ष आ रही चुनौतियों का सामना कर सकें।
किसी भी भाषा का लोक साहित्य ही है, जो मनुष्य के प्रकृति के साथ संघर्ष, उसके उत्पादन के लिए संघर्ष और सदियों के वर्ग-संघर्ष से पैदा हुआ है, उसके आधुनिक स्वरूप का जनक है। किसी भी वर्ग-समाज में कला-साहित्य वर्गों से परे नहीं हो सकता। शासक-वर्ग शोषित-वर्ग के कला साहित्य को दबाकर रखता है या मिटाना चाहता है। शोषित, शासक वर्ग के कला-साहित्य को आत्मसात कर लेता है, लेकिन साथ-साथ उसका अपना कला-साहित्य भी, जिसमें उसकी अपनी सामुहिक अभिव्यक्ति, हर्ष-विषाद एवं संघर्ष रहता है, विकसित होता रहता है, जो लोक कला-साहित्य के रूप में जाना जाता है। इस प्रकार के लोक कला-साहित्य के बारे में महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने कहा है कि, वह उतना ही स्वाभाविक होता है, जितना कि जंगल में खिलने वाला फूल, उतना ही स्वच्छंद होता है, जितना आकाश में उड़ने वाली चिड़िया, उतना ही सरल तथा पवित्र होता है जितनी गंगा की निर्मल धरा। लोक कला-साहित्य की अभिव्यक्ति सामूहिक तथा लय सहज रूप में होती है।
हरियाणा में लोक कला-साहित्य की समृद्ध विरासत रही है। एक ऐसा कला-साहित्य जो मेहनतकश जनता ने सदियों से मेहनत करते-करते विकसित किया है। मुख्य रूप से महिलाओं द्वारा गाए जाने वाले गीतों में इसके साक्षात दर्शन किए जा सकते हैं। इन लोकगीतों में महिला की सामाजिक स्थिति व उसके प्रति विद्रोह का स्वर साफ-साफ दिखाई देता है। महिलाओं द्वारा विभिन्न अवसरों पर गाए जाने वाले गीतों में समाज की तस्वीर भी स्वाभाविक रूप से नजर आती है। अभिप्राय यह कि लोग जिस प्रकार के सामाजिक एवं आर्थिक परिवेश में रहेंगे उसी परिवेश से अपने लिए कला-साहित्य भी रचेंगे। अपने गीतों में महिला विभिन्न प्रकार के क्रिया-कलापों में दिखाई देती है, तथा उसका सुख-दुख उसकी मनोभावना लोकगीतों में झलकती है। पुरुषों का भी ऐसा ही लोक-साहित्य होना चाहिए जो आपके सामने शोध का विषय है।
लोक-साहित्य के मौलिक धरातल पर खड़े होकर ही आधुनिक कला-साहित्य की रचना की गई है। इसमें साँग एवं रागणी साहित्य को लिया जा सकता है, क्योंकि साँग और रागणी व्यापक स्तर पर प्रचलित हैं, इसलिए इनके विकास के इतिहास को जानना आवश्यक है। मामूली जानकारी के आधर पर ही बात करना चाहूँगा हालांकि ठोस अध्ययन की जरूरत है। सन् 1730 के आसपास साँग का आर्विभाव माना जाता है। किशन लाल भाट द्वारा रचित साँगों के कथानक वीरगाथा (जैसे -- आल्हा ऊदल), नीति-प्रधान एवं प्रेम-प्रधान थे। जिनकी रचना ‘चमौला’ एवं ‘काफिया’ आदि कला विधाओं में की जाती थी। 1854 से 1889 के बीच दक्षिण हरियाणा के साँगी अली बख्श ने भी ‘चमौला’, ‘बहर-तबिल’, ‘गजल’, ‘भजन’ एवं ‘जिकारी’ आदि कला विधाओं के माध्यम से साँगों की रचना की, जो कि स्वभाव से शास्त्राय थे। 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक इन्हीं विधाओं का प्रचलन रहा। इसी समय साँगी पं॰ दीपचंद अपने साँगों के माध्यम से पहले विश्वयुद्ध में अंग्रेजों की मदद के लिए नौजवानों को सेना में भर्ती होने की प्रेरणा दे रहे थे। दीपचंद के बाद और लखमीचंद से पहले रचनाकार हरदेवा ने हरियाणा वासियों को आधुनिक रागणी से परिचित करवाया।
इसी परम्परा को लखमीचंद, माँगेराम, बाजे भगत, जमुआ मीर के शिष्य धनपत व अन्य साँगियों ने आगे बढ़ाया। वाद्य यंत्रों के रूप में सारंगी, नगाड़ा, खड़ताल, हारमोनियम आदि प्रयोग में लाए गए। बैन्जो द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अंग्रेजों की तरफ से जर्मनों के खिलाफ लड़ते हुए बंदी बनाए गए हरियाणवी सैनिक लेकर आये जो कि साँग में नहीं बजाया जाता। इस पूरे काल में कला-साहित्य का कथानक राजभक्ति, वीरगाथा और प्रेम-प्रसंग ही रहा। और मैं महसूस करता हूँ कि यह कला-साहित्य अपने कथानक के साथ-साथ, कुछ अपवादों को छोड़कर, रूप में भी मौलिकता से बहुत दूर चला गया है।
मौलिकता से दूर जाने का जो अर्थ मैंने लिया है वह यह है कि लोक-साहित्य के धरातल से जो साहित्य विकसित किया गया है उसमें मौलिकता, यानि रूप की मौलिकता उस साहित्य में नहीं है। हम यह सब चर्चा क्यों करना चाहते हैं? क्योंकि हम जनवादी कवि-कलाकार, अपने लेखन में विभिन्न प्रकार की दिक्कतें महसूस करते हैं। मुख्य रूप से, एक तो लेखन में नीरसता, यानि एक ही प्रकार के फ्रेम में लिखते-लिखते ऊब चुके हैं। दूसरी, जो कला-साहित्य हम रचते हैं, क्या वह जनता द्वारा आत्मसात कर लिया जाता है? हम सब जनता के पक्ष के कवि-कलाकार हैं, हमारी रचना के केन्द्र में जनभावना तो होगी ही, इसलिए हमारी रचना जनता को अच्छी तो लगती है, लेकिन रचना का अच्छा लगना और आत्मसात करना, दो अलग-अलग बातें हैं। जब हम बदलाव की बात करते हैं! जनता के मुक्ति-युद्ध में कला-साहित्य को हथियार के रूप में भूमिका निभाने की बात करते हैं, तब तो उपरोक्त समस्याएँ और भी विचारणीय बन जाती हैं। इनके समुचित समाधन के बिना कला-साहित्य निश्चित रूप से उस हथियार की भूमिका नहीं निभा पाएगा। रचना और रचनाकार का व्यापक जनता के बीच जाना एक प्रकार की समस्या हो सकती है, लेकिन जितनी भी हम पहुँच बना पाए हैं, वहाँ यह आत्मसात करने वाली समस्या है। पिछले कुछ वर्षों के अनुभव के आधर पर, आंशिक रूप से समस्या की जड़ मेरी पकड़ में आती लग रही है। वह यह कि जब भी हमने लोकधुनों को आधार बनाकर रचनाएं तैयार की, उन्हें जनता के बीच लेकर गए, वे अपेक्षाकृत ज्यादा आत्मीयता से आत्मसात कर ली गई। कथानक और रूप, दोनों दृष्टिकोणों से उन रचनाओं में अपनापन नजर आया। ऐसी रचनाओं को व्यापक स्तर पर बच्चों और महिलाओं द्वारा गाया गया, लेकिन एक ढर्रे में रचित रचनाएँ सिर्फ मंच तक ही सीमित रहीं, मंच से उतरकर जनता के बीच नहीं जा पाई। कला-साहित्य में वहाँ के मानस का जो लोक-रस होता है उसे रचना के रूप एवं सार, दोनों स्तरों पर प्रयोग करके ही मौजूदा रुकावट का सामना किया जाना चाहिए। जनता से लेकर जनता को देने वेफ सिद्धांत को चेतन रूप में आत्मसात करके ही इस समस्या का समाधान ढूंढ़ा जा सकता है, क्योंकि जनता के पास एक कवि कलाकार के लिए समृद्ध कच्चे माल का अकूत भंडार मौजूद है, इसलिए जनता के लोक-कला रूपों का अध्ययन -- जिसमें उसकी भाषा, मुहावरे, कहावतें भी शामिल हैं -- करना इस समस्या के समाधान की दिशा में एक कदम होगा। उन्हें संग्रहित करके, उन्हें साफ-सुथरा करके दोबारा जनता के बीच ले जाना दूसरा कदम होगा।
हमारे लेखन में हमारा अध्ययन साफ तौर से दिखाई देता है। हमारी रचनाएँ एक सामान्य तस्वीर पेश करती हैं। पूरे जंगल का वर्णन किया जाता है लेकिन जंगल के विभिन्न पेड़ों का अध्ययन, उसके फूलों, पत्तों एवं शाखाओं के बारे में हमारा अध्ययन अभी कमजोर है जो कि जंगल की गहराइयों में जाने पर ही परिपक्व हो पायेगा। सामान्य के साथ विशेष का और मात्रा के साथ-साथ गुण का भी ध्यान रखना चाहिए। इस प्रकार लेखन की नीरसता खत्म होगी, रचनात्मकता आएगी और जनता द्वारा आत्मसात कर लिए जाने पर कला-साहित्य मुक्ति-युद्ध का हथियार भी बनेगा। अभी तक हमने सिर्फ एक कला-विधा के गीत के विषय में ही विचार किया है, क्योंकि गीत का क्षेत्र दूसरी कला-विधाओं की तुलना में कहीं ज्यादा विस्तृत है। हरियाणवी में दूसरी कला-विधाओं, कविता, कहानी, झलकी, एकांकी, नाटक, उपन्यास आदि का विकास भी उपरोक्त सिद्धांत को केन्द्र मानकर किया जाना चाहिए।
दूसरा, हरियाणा में रहकर यहाँ समझी जाने वाली किसी भी भाषा में लिखे जाने वाले, प्रगतिशील एवं जनवादी कला-साहित्य का उद्देश्य भी निश्चित रूप से वही है जो कि हरियाणवी में लिखे जाने वाले कला-साहित्य का है, लेकिन इस प्रकार के कला-साहित्य में हरियाणा के जनमानस की अभिव्यक्ति कितनी हो पाती है? बेशक हम हरियाणा में रहकर लिख रहे हैं। क्या हमारी रचना किसी भी क्षेत्र के पाठक के सामने यह उद्घघाटित करने में सफल हो पाती है कि इस रचना का सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक परिवेश हरियाणा का है। इस प्रकार के कला-साहित्य के प्रखर रचनाकारों से मैं अपील करूँगा कि वे इस बारे में भी सोचें, क्योंकि वो लोग जो जनता के बीच रहकर कला-साहित्य का सृजन कर रहे हैं, इन प्रखर विशेषज्ञों से तकनीक का ज्ञान अर्जित कर सकते हैं, और विशेषज्ञों को साहित्य रचना के लिए वो मौलिक कच्चा माल मिल सकता है जिसका उत्पादन मेहनतकश जनता द्वारा दूर-दराज के खेतों में अपने पसीने से सींचकर किया जाता है। सामाजिक परिवेश की मौलिकता और पसीने की महक यदि विशेषज्ञता के साथ एकमत कर दी जाए तो साहित्य उच्च गुणवत्ता लेकर पैदा होगा।
आज जब शासक वर्गों द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्राता पर चारों ओर से हमला हो रहा है, जनवाद की सरेआम हत्या की जा रही है, पूँजीवादी लोकतंत्र बेनकाब होकर कभी बाबरी-मस्जिद, कभी कश्मीर तो कभी गुजरात में नाच रहा है, बढ़ते आर्थिक संकट के चलते फासीवादी ताकतें पगलाए कुत्ते की तरह सड़कों पर आ चुकी हैं, तब ऐसे में कला-साहित्य के सामने आई  इन चुनौतियों का समाधन करना और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है। अन्त में केवल यही कहना चाहूँगा कि जब भी वक्त आया लेखक, कवि, कलाकार हमेशा जनता के पक्ष में खड़े हुए, शोषित के साथ खड़े हुए। फासीवाद के विरुद्ध लड़ाई में विश्वस्तर पर लेखक, कवि, कलाकार जनता के कंधे से कंधा मिलाकर लड़े और पीछे यदि इतिहास में भी देखें तो आदिकवि वाल्मीकि ने बेशक रामायण की रचना राम की विचारधारा के पक्ष में की लेकिन समय आया तो उसी वाल्मीकि ने शोषित का पक्ष भी लिया। चाहे वह क्रोंच पक्षी की हत्या का प्रसंग हो या सीता को राम द्वारा घर से निकालने पर आश्रय देना। इसलिए तमाम जनता के पक्षधर कवि-कलाकारों से अपील है कि हरियाणा में जनवादी एवं प्रगतिशील साहित्यिक एवं सांस्कृतिक आंदोलन को मजबूत करने को अपना ऐतिहासिक कर्त्तव्य समझते हुए इस चर्चा को अपने बेशकीमती विचारों के माध्यम से समृद्ध बनाएं। क्रांतिकारी अभिनन्दन के साथ ।


Tuesday 18 August 2020

अभियान, अंक-104

 अभियान, अंक-104 पढ़ें, पढ़ाएं और शेयर करें। आप इस लिंक पर जाकर अभियान पढ़ सकते हैं, डाउनलोड कर सकते हैं।

विशेष आलेख -

उदारीकरण के दौर में भारतीय कृषि एवं कृषक समाज - राजेश कापड़ो

भाजपा सरकार और रोजगार - मनाली चक्रवर्ती



https://drive.google.com/file/d/1-J9R87qAnAp92G3zH62WuDrZsFvh4QTG/view?usp=drivesdk

Friday 14 August 2020

रजिया की डायरी

 रजिया की डायरी

(बलबीर सिंह बिहरोड़)


(आज देश में जिस तरह से सांप्रदायिक ताकतें आपसी भाईचारे को खत्म करने पर तुली हैं, वह हम सभी के लिए गहन चिन्ता का विषय है। जगह-जगह धर्म-जाति के नाम पर दंगे हो रहे हैं। उन स्थानों पर भी दंगे हो रहे हैं जहां 1947 में भी लोगों ने आपसी सौहार्द को कायम रखा था। ऐसे में ‘अभियान’ जैसी हर पत्रिका का यह अहम व फौरी कर्त्तव्य बन जाता है कि वह आपसी भाईचारे की आवाज को बुलंद करे। श्री बलबीर सिंह बिरोहड़ की रचना - ‘‘रजिया की डायरी’’ भी वैसी ही एक आवाज है। रचना बहुत पहले लिखी गई थी। जिसे 1991-92 में जतन नाटक मंच ने प्रकाशित किया था। इस पर एक बड़ा नाटक भी बना जो हरियाणा में अनेक जगहों पर खेला गया। मेहनतकश जनता के भाईचारे को मजबूती प्रदान करती इस उत्कृष्ट रचना को ‘अभियान’ के माध्यम से जनता को समर्पित कर रहे हैं। -- संपादक मंडल)



रावलपिण्डी, चेक नं. 17
मकान नं. --42
तारीख 15 अगस्त, 1987
अजीज अजय,
उम्र दराज हो।

आज से ठीक 40 वर्ष बाद अपनी बचपन की साथन रजिया बहन का सलाम कबूल कीजिए।

शुरू की लाइन पढ़कर घबराना मत, ‘‘यह कौन रजिया है खत लिखने वाली?’’ खत को पढ़ते जाइये, सब राज खुल जाएगा। मैं अपने जीवन के, जो 18 वर्ष तक तुम्हारे साथ भी बीता, उससे लेकर आज तक जब मेरी उम्र 59 वर्ष हो चुकी है, सब तुम्हारे पास डायरी के रूप में भेज रही हूँ। जिन्दगी के वे अहम वाकयात जो प्यार लेकर आए, फिर बैर लेकर आए और अन्त में फिर जोड़ गए प्यार को। इसी दोबारा जुडे प्यार ने मुझे मजबूर किया जीवन की डायरी तुम्हारे पास भेजने को। मैं तुम्हें याद न करने का उल्हाणा नहीं दे सकती, क्योंकि पिछले 40 वर्षों से मैं कहां हूँ? हूँ भी या नहीं? तुम्हें क्या मालूम था?

1928 से 1934

1928 से 1931 तक का मुझे कुछ याद नहीं है। शायद तुम्हें भी ना हो? क्योंकि हम बहुत छोटे थे। 1931 से 1934, कुछ याद आता है। मेरे बाबा और तुम्हारे बाबा अमूमन उस चबूतरे पर, जो हमारे घरों की दीवार से सटा हुआ था, बैठकर बातें किया करते थे। दोनों अपना-अपना हुक्का लेकर बैठते, कभी एक चिलम से दोनों हुक्कों पर बारी-बारी बदल कर भी काम चला लेते। कुछ दूसरे लोग भी उनके पास आकर हुक्का पीने लगते, कुछ एक हुक्के पर, कुछ दूसरे पर। फिर भी हमें पता नहीं चला कि हम मुसलमान हैं और तुम हिन्दू। हम सब भी तो अपने साथ के बच्चों के साथ उसी चबूतरे के पास खेला करते थे।

1935 से 1940

तुम गांव के मदरसे में दाखिल करा दिए गए। उस मदरसे में मेरा भाई उमरउल्दीन भी तुम से दो साल पहले दाखिल हुआ था। कृष्णा, तुम्हारी बहन जो हमसे दो वर्ष छोटी थी, का साथ अब हमारे मां बाप ने मेरे साथ जोड़ दिया, भैंस चराने के लिए। उस दिन के ताई सरतो (तुम्हारी मां) के प्यार भरे शब्द मुझे अच्छी तरह याद हैं, ‘‘बेटी रजिया, हमारी भैंसों को भी ले जाया कर मेरी लाडो, कृष्णा को साथ ले जाना, यह भैंस तो क्या सम्भालेगी, लेकिन साथ रखना, तुम दोनों का जी लगा रहेगा।’’ 
‘‘हमारे भाई तो स्कूल जाते हैं, भैंसें तो हम दोनों को ही चरानी होंगीं।’’
उस समय हमें यह बात मालूम हो गई थी। तुम रात को जब उमरू भैया से सवाल पूछने आया करते थे, मेरी शरारत तुम्हें बहुत तंग करती। तुम लाड में कितनी बार कहा करते, ‘‘रज्जो मान जा, अगर ज्यादा शरारत करेगी तो तेरे लिए काणा बनड़ा टोह देंगे।’’ ‘‘क्यों रे, तुम्हारी आएं काली और काणी बहुएं,’’ मैं कह देती थी।

1941 से 1945

तुम दोनों भाई पढ़ते रहे, हम भैंसें चराती रहीं। इस दौरान, मैं और कृष्णा तुम दोनों के बारे में बातें करती रहतीं तो प्रायः चर्चा इस बात पर होती थी, ‘‘बेबे छोरे तै पढ़ण जा सैं और भैंस हमने चराणी पड़ैं।’’ एक दिन मैंने कहा, ‘‘भाण छोरियां नै पढ़ा कै के करैं? वो तो थोड़े से दिन म्हं ब्याह तै पाछै चाली जांगी दूसरां के घर। छोरे पढ़ कर नौकरी करेंगे और फेर कमाई करेंगे, कोई मास्टर बनैगा, कोई पटवारी।’’
उमरूदीन के विवाह की बात है। उस दिन जब मैं मिठाई की थाली लेकर तुम्हारे घर पहुंची, विष्णु दादा वहां बैठे थे, उन्होंने टोका, ‘‘जजमान, यह मुसलमान के घर की मिठाई खाओगे तुम?’’ तुम्हें याद है ताई सरतो ने क्या जवाब दिया? ‘‘नहीं दादसरे, हमारे घर में पशु और कुत्ते-बिल्ली भी तो हैं।’’ मैं यह सुनकर सन्न रह गई। ना वापिस मुड़ने को जी चाहा, न बैठ ही सकी। इतनी देर में तुम बाहर से आ गए थे और ताई ने थाली तुम्हारे आगे रख दी।  तब मुझे कुछ बोलने का साहस हुआ, ‘‘ताई, अजय को तुमने कुत्ते-बिल्ली की जगह लगा रखा है?’’ 
‘‘नहीं बेटी, यह तो उस निपूते के आगे कहने की बात थी, वो निगोड़ा पता नहीं कहां-2, क्या-2 कहता फिरता।’’
काश! मैं उस वक्त यह समझने योग्य होती कि तिलकधारी धर्म के नाम पर केवल पड़ोसियों और गांव-बस्ती के लोगों के प्यार में ही पाड़ नहीं लगा सकते, बल्कि बड़े-बड़े राष्ट्रों के भी टुकड़े-टुकड़े कर सकते हैं, जैसा कि इन्होंने आगे चल कर करके दिखाया भी। खैर, यह तो अब समझ में आई है जब सबकुछ खो बैठे हैं। इससे पहले और क्या-क्या न हुआ? जो हुआ, वो तुम्हारे सामने था लेकिन चर्चा सारी करूंगी, नहीं तो डायरी अधूरी रह जाएगी। दादी की मृत्यु हो गई। बाबा ने तुम्हारे बाबा के सामने एक जिक्र किया, ‘‘भाई साहब, मैं आपसी भाईचारा बढ़ाने के लिए अपनी मां का काज करना चाहता हूँ।’’ 
सुनकर ताऊ जी अचम्भे में पड़ गए, ‘‘तुम काज करोगे, मुसलमान होकर? क्या ये हिन्दू तुम्हारे काज में खा लेंगे?’’
‘‘क्या हर्ज है?’’ बाबा ने कहा, ‘‘हम सूखा सीधा दे देंगे। और ब्राह्मणों से खाना बनवा लेंगे। हिन्दुओं के घर हिन्दू ही परोसने वाले होंगे।’’ 
‘‘लेकिन काज में गऊ भी तो त्यागनी होगी, तुम मुसलमान होकर ऐसा  कर सकोगे?’’
‘‘क्यों नहीं, हम गाय का दूध पीते हैं। उसी गाय की बड़ी छैली बछिया है हमारे घर में, उसे दाग लगाकर छोड़ देंगे?’’
‘‘तो भाई फिर गांव के लोगों की सलाह ले लो, मैं तो समझता हूंँ इससे तुम्हारा मान बढ़ेगा ही।’’
अगले दिन गांव की पंचायत में सबने हां कर दी। काज पूरी तरह सफल हो गया।
उसमें 12 गांवों के सरदार, नम्बरदार, ठोलेदार और हाली-मुहाली, सबने शिरकत की और सभी ने खूब खाया-पीया।









1946

बाबा ने मेरे निकाह की बात चलानी शुरू कर दी। ताऊ से कहा, ‘‘भाई आपकी बाहर गांव में बड़ी जानकारी है, किसी शरीफ से मुस्लिम घराने में रजिया के योग्य कोई लड़का निगाह में करना।’’ तुम्हारे बाबा ने तुरन्त ही उत्तर दे डाला, ‘‘अरे निगाह में क्या करना है? मुझे याद आ गया, मेरा एक दोस्त रमजान कालूवाले में है, उसका लड़का आठवीं में पढ़ता है। लड़का बहुत सयाना है। मैं तो तुमसे कहने ही वाला था।’’
‘‘उस परिवार की चाल ढाल क्या है?’’
‘‘भाई, बहुत शरीफ खानदान है, मेरी तो गाड़ी हांकते समय उससे मुलाकात हो गई थी। बात यूं हुई कि कालूवाले में पहुँचने को थे कि गाड़ी का धुरा टूट गया। मुसलमानों का गांव है, मेरी कौन मदद करेगा? मैं बैलों को पड़ाव में बांधकर गांव में जाकर पूछने लगा कि क्या गांव में कोई हिन्दुओं का घर है? जिससे पूछा वह पहला आदमी रमजान ही था।’’ वह मेरी बोलचाल से अन्दाजा लगाकर कहने लगा, ‘‘क्यों चौधरी, क्या करोगे? यहां तो एक पंडित का घर है और चार बनिये हैं।  आपको किसलिए चाहिए हिन्दू घर?’’
‘‘भाई बात यह है कि मेरी गाड़ी का धुरा टूट गया है और ऊपर से रात आ रही है, कोई हिन्दू भाई मदद कर दे।’’ 
यह सुनकर रमजान हंसा और मुस्कुराकर बोला, ‘‘यदि कोई मुसलमान भाई मदद कर दे तो क्या नुकसान है?’’ 
मैं बहुत शर्मिन्दा हुआ, चुप खड़ा हो गया और रजमान बोला, ‘‘आओ मेरे घर चलो।’’
वह मुझे अपने घर ले गया। घर ले जाकर एक हुक्का ताजा करके चिलम उतारी और झट से भर लाया और मेरे सामने रख दिया। मैं कुछ संकुचित सा बैठा रहा। इस पर रमजान फिर बोला, ‘‘पीओ चौधरी, यह आप लोगों की बिरादरी के लिए रखा हुआ है, हमारा हुक्का तो दूसरा है।’’ यह कह कर वो मुझे दूसरी बार शर्मिन्दा कर गया। उसने अपने छोटे भाई को दीनू कह कर आवाज लगाई। अन्दर से उसका लड़का आया, उससे रमजान ने कहा, ‘‘अरे तुम्हारे चाचा दीनू को बुलाकर ला और तू भी साथ ही आना, कभी कहीं खेल शुरू कर, दे।
लड़के को भेजकर वह एक दूसरा हुक्का ले आया और मेरे वाले हुक्के से चिलम उतारकर पीने लगा।
मुझे अपनी झेंप मिटाने का सही मौका मिला और मैंने बगैर चिलम उतारे रमजान वाले हुक्के को ही गुड़गुड़ाना शुरू कर दिया। इतनी देर में लड़का दीनू को साथ लेकर आ गया। रमजान ने दीनू को कहा, ‘‘दीनू, हमीद के साथ जाकर चौधरी के बैलों को यहां ले आओ।’’ अपनी गाड़ी जोड़कर उस गाड़ी का बोझ अपनी गाड़ी में डालकर यहां ले आओ।’’ फिर मेरी तरफ मुड़कर बोला, ‘‘कल आप दिन में इस बोझ को डाल आना, हम आपकी गाड़ी को ठीक कराए मिलेंगे।’’ इसके बाद वह उठा और थोड़ी देर बाद एक थाली में आटा, कटोरी में घी और कुछ सब्जी लेकर बाहर चला। मेरे पूछने पर उसने कहा, ‘‘पंडित जी के घर यह सूखा सीधा देकर आता हूँ, तुम्हारे खाने के लिए।’’
मैंने कहा, ‘‘नहीं, मेरा खाना आपके ही घर बनेगा।’’ दीनू ने गाड़ी लाकर छोड़ दी, बैलों को नान्द पर बांध दिया और खाना खाने से लेकर सोने तक लड़का हमीद कभी रोटी, कभी पानी, कभी सब्जी, फिर खाने के बाद हुक्के की चिलम उठाए आगे-पीछे ही घूमता रहा। भाई सुलतान बेग, मैं सच कहता हूं मुझे देर रात तक नींद नहीं आई। मैं सोचता रहा कि दुनिया के लोग हिन्दू कब बने, मुसलमान कब बने और सिख व ईसाई कब? यह मानव ही क्यों न रहे? वे बदमाश कौन थे, जिन्होंने इन्हें मानव से कुछ और बना दिया? यदि रमजान उस दिन ना मिलता तो भी शायद उस गांव का कोई और किसान ही मेरी मदद करता, परन्तु उन हिन्दू सेठों और पंडितों के घर से जो यहां के किसानों को लूटकर ऊंचे-ऊंचे महल बनाए बैठे थे, उनसे तो शायद मुझे रोटी भी नहीं मिलती। मैं तुम्हें दिल की गहराइयों से बता रहा हूँ सुलतान बेग, यदि हम मुसलमान और हिन्दू न होते तो मैंने अपनी कृष्णा के लिए अवश्य उस लड़के को अपना लेना था। अब भी क्या अन्तर है, मुझे तो रजिया और कृष्णा, दोनों एक सी लगती हैं। मुझे पूरा भरोसा है कि रमजान इंकार नहीं करेगा। भैया अजय, तुम क्या जानोगे? बाबा और ताऊ की बातें मैं किस तरह चोरी छिपे सुन रही थी। क्या खुशी थी दिल में! विवाह के नाम से नहीं, बल्कि ताऊ के उन शब्दों से जो उनके दिल की गहराइयों से निकले थे, ‘‘मुझे तो कृष्णा और रजिया में कोई अन्तर नहीं दिखता’’ आखिर एक दिन बाबा और ताऊ ने यह पैगाम सुना ही दिया आकर, ‘‘रज्जो का रिश्ता कर आए हैं। मुझे याद है, तुमने मां के सामने मुझे सुनाते हुए कहा था, ‘‘चाची, वो लड़का तो बड़ा बदसूरत बताते हैं।’’
‘‘हट रे, तेरी बला से जो भी हो, तुझे क्या?’’ मैंने कहा। 
‘‘ऊहं, अब कहां गई तेरी शरारतें?’’ तुम बोले। खैर, जैसे तैसे दिन गुजरते गये। लेकिन आह! आ गया सन सैन्तालीस।

1947

राजगद्दी के भूखे नेताओं की नजरें सत्ता की तरफ उठने लगीं। राज का बंटवारा कैसे हो, जब तक लोग आपस में न लडें? आवाजें उठीं, ‘‘पाकिस्तान लेकर रहेंगे !’’ दूसरी ओर से हुंकार उठी, ‘‘हिन्दुस्तान हिन्दुआें का है !’’
नवाखली में दंगे शुरू हो गये। पंजाब के मुसलमानों ने हिन्दुओं को मार डाला। आग की लपटें हमारे जिले में भी उठने लगीं। शहरों के बाद देहात में भी लोगों की जान पर आ बनी थी। मुल्लाओं और पंडितों का प्रचार नेताओं के कलेजे ठण्डे कर रहा था। तुम भी हिन्दू भाइयों के भय से दूर रहने की कोशिश करने लगे। आखिर एक दिन हमारे चार-पाँच मुस्लिम परिवारों ने रात को गांव से कूच करके थाने में शरण लेने की बात सोची। थानेदार मुसलमान था, शायद शान्ति होने तक जान बचा सके। मुसलाधार बारिश शुरू हो गई। बारिश थमने का इन्तजार भी किया, लेकिन ज्यादा देर हुई तो दिन रास्ते में निकलेगा, इस आशंका ने बरसते में ही बाध्य कर दिया। अगले गांव के खेतों को पार करने को ही थे कि पीछे से आवाजें आनी शुरू हुईं, ‘‘पकड़ लो, मार दो, बचने न पायें !’’ फिर वह सबकुछ हुआ, जिसकी मानवता कभी इजाजत नहीं देती। यह तो अपना पड़ोसी गांव था। इस गांव के लोग तो रोजाना बाबा से मिलते थे। ये तो बहुत सारे जाने-पहचाने चेहरे थे। वही तो थे सब, जिन्हें हम चाचा, ताऊ, भाई कहकर बुलाते थे। नहीं, ये नहीं मारेंगे, छोड़ देंगे जब इनको पता लगेगा कि यह सुलतान बेग का परिवार है। क्या ये नहीं जानते कि इन्होंने मेरी दादी के काज में खाया था। परन्तु सब सोचना व्यर्थ हुआ। जिस औरत की गर्दन पर पहला फरसा पड़ा, वह मेरी मां थी। उसके बाद चाचा-ताऊ के परिवारों की मेरी भाभियां और बहनें। मुझ अभागिन को न मालूम एक झाड़ की आड़ ने क्यों बचा लिया जो एक बाजरे के खेत में ऊंचा और गहरा बढ़ा हुआ था। आह! जालिम लाशों के पांव काट कर जेवर निकाल ले गए। बारिश थम गई, धूप खिलने लगी। लोग कहते हैं कि अकेले आदमी को रात के अंधेरे में डर लगता है। परन्तु सन् 47 की तो माया ही उल्टी थी। यहां तो दिन की रोशनी में डर लग रहा था। पता नहीं? अब क्यों जीना चाह रही थी, जबकि सब कुछ लुट चुका था। मैंने सोचा, ‘‘शायद, आज अंधेरा बचा ले, एक बार फिर उस घर तक पहुंचने के लिए जिसमें एक दिन ताऊ के ये वाक्य सुने थे कि रजिया और कृष्णा में क्या अन्तर है? जैसी बेटी कृष्णा, वैसी रजिया।’’ इन शब्दों ने ही मुझ में जिन्दा रहने की चाह पैदा कर दी थी। नहीं तो तुम सोचो जरा, सारे कुटुम्ब को अपनी आंखों के सामने कटा पड़ा देखकर कोई जिन्दा रहना चाहेगा क्या? आखिर रात तो होनी ही थी। मैं किसी तरह छुपते-छिपाते फिर उसी घर में आ गई जो अब सुनसान था। हिम्मत नहीं हो रही थी तुम्हारे घर की तरफ कदम बढ़ाने की, परन्तु अब मौत से डरने की बात भी क्या थी? वह जीवन भी तो मौत से कम भयंकर नहीं था। मैं तुम्हारे घर की तरफ बढ़ी और दबे पांव घर में दाखिल हो गई। कृष्णा गले लगाकर रोई, ताई ने छाती से लगा ली। जब सुबह गांव के लोगों को पता चला कि रजिया जिन्दा है तो आकर कहने लगे, ‘‘बहुत बुरा हुआ, इनको निकल कर नहीं जाना चाहिए था, यहां कौन क्या कहता था?’’
दूसरा बोला, ‘‘तुम पागल हो, निकल कर न जाते तो क्या बच जाते? तुम्हें पता है कालू वाला गांव जो पूरा मुसलमानों का था, पड़ोस के लोगों ने चढ़ कर तहस-नहस कर दिया। एक पुराना कुआं लाशों से भर गया। अचानक पुलिस आई दो ट्रक लेकर और बचे हुए आदमियों को ट्रकों में डालकर ले गई।’’ यह सुनकर ताऊ के मुंह से एक चीख सी निकली, ‘‘ओह, रमजान..........।’’ आगे न बोल सके थे।
मेरी निगाह ताऊ के चेहरे पर पड़ी, ताऊ ने अपनी पगड़ी का पल्ला आंखों पर डालकर मुंह फेर लिया। परन्तु मेरे दिल का गुब्बार जो दो दिन से दबा पड़ा था, फूट पड़ा और मैं दहाड़ मार उठी। अब ताऊ से भी न रहा गया, उन्होंने रोते हुए मुझे छाती से लगा लिया। वे रोते-रोते कह रहे थे, ‘‘अब मत रो बेटी, मेरे मरने से पहले तुझे खुद भगवान भी हाथ नहीं लगा सकता। लेकिन आह! सुलतान बेग!’’ मैं बीच में ही बोल उठी, ‘‘शायद जिन्दा हों ताऊ क्योंकि वे और उमरदीन बारिश शुरू होने से पहले ही रवाना हुए थे, थाने में अगाऊ खबर देने के लिए, ताकि यदि हम सूरज निकलने से पहले न पहुंच सकें तो रास्ते में हिफाजती दस्ता पहुंच जाए। हमें वे चाचा इमामुदीन के साथ छोड़ गए थे ताकि हम उनके साथ चल पड़ें, परन्तु बारिश उनके जाने के साथ ही शुरू हो गई थी और हम समय पर न  निकल पाए।’’ बुरी खबर फैलती बहुत जल्दी है। यह बात उसी दिन थाने तक पहुँच गई कि हमारे गांव का एक औरतों का टोल, जिसके साथ एक बूढ़ा मर्द भी था, रात को घर से चला था। वो रास्ते में सारा खत्म हो चुका है। बाबा और उमरदीन को पुलिस जिले के अफसरों की निगरानी में छोड़ आई थी, जहां और भी ऐसे लोग जो मरने से बच गए थे, इकट्ठे कर रखे थे। लेकिन मैं इस बात से बेखबर थी और बाबा के हिसाब से मैं भी लाशों में शुमार हो चुकी थी। पूरे दस दिन तक मैं तुम्हारे घर में रही। लोग तुम्हें लेकर मेरे बारे में जो चर्चायें करते थे, उन्हें मैं छाती पर पत्थर रखकर झेल रही थी और जानती थी कि तुम कितने साफ हो। परन्तु मैं वास्तव में दिल से साफ नहीं थी। तुम चाहे इसे मेरी मजबूरी ही समझो, मैं तो यही दुआ करती थी कि खुदा लोगों की चर्चा को सच कर दे, क्योंकि मुझे तो तुम्हारे घर से अलग दुनिया में कोई जगह नजर नहीं आ रही थी। परन्तु मेरी यह दुआ कैसे पूरी हो सकती थीं? कितनी रुकावटें थी मेरी राह में? पहला तुम्हारा भगवान और हमारा खुदा, दोनों आपस में टकरम-टकरा हो रहे थे, लेकिन मेरी जिन्दगी को तबाह करने में दोनों एक मत हो गए थे। दूसरे, गांव की परम्परा के अनुसार मैं गांव की बेटी थी, इसलिए यह सब न हो सकता था। तीसरे,  यह कि ताऊ व ताई ने मुझे अपने दिलों में कृष्णा के बराबर जगह दी थी। मैंने बार-बार सोचा ताऊ से ये कहने के लिए , ‘‘ताऊ आपका प्यार मेरे बाबा के साथ जितना था उनसे कहीं ज्यादा तो रमजान के साथ था, फिर जब आप मेरे लिए सुल्तान बेग बन सकते हैं तो रमजान क्यों नहीं बन सकते?’’ परन्तु हिम्मत नहीं जुटा सकी। कई बार सोचा कि ताई की मारफत कह दूं, परन्तु यह भी हिम्मत न हुई। हां, एक दिन ताई के आगे यह जरूर कहा, ‘‘ताई, अब मेरे लिए जिन्दगी भर इस घर के सिवा कोई और भी जगह है?’’ सोचा था, ताई मेरे जज्बात को समझ लेंगी, लेकिन वे इतना कहकर रह गई, ‘‘पगली, भगवान ने जिसको जन्म दिया है वह जब तक जीएगा, जमीन तो उसके पैरों तले रहेगी।’’ ताई का यह जवाब ऐसा था जिसमें एक निर्भीक दार्शनिक का दर्शन भी छुपा हुआ था और एक भले आदमी का भोलापन भी।
वैसे मेरी मुराद पूरी होने से कोई बड़ा लांछन तो नहीं लगता तुम्हारे ऊपर क्योंकि उस वक्त तो न मालूम कितने हिन्दुओं ने मुसलमानों की सुन्दर लड़कियों को जबरदस्ती अपने घरों में रख लिया था। फिर मैं तो खुशी से आत्मसमर्पण कर रही थी। खैर, इन बातों में अब क्या रखा है? अगर बात बन जाती तो मैं यह कहकर बदला लेती कि मेरा बनड़ा कितना बदसूरत है? तुम कहोगे कि बचपन की शरारतें बुढ़ापे में भी नहीं भूली। हां, नहीं भूली हूँ क्योंकि मैंने खुश रहना सीख लिया है। मेरी जिन्दगी उन सब मुसीबतों के बीच से, जो एक औरत पर ज्यादा से ज्यादा पड़ सकती हैं, गुजर कर इतनी पुख्ता हो चुकी है कि दुःखों का अहसास करना ही भूल गई। हां, यदि नहीं भूली तो केवल दो बातें नहीं भूली, एक तुम्हारी इन्सानियत और दूसरी मेरी शरारत। ओह! मैं तो डायरी लिख रही थी, कहां बुढ़ापे में जा घुसी। पहले तो बखान उन मुसीबतों का होना चाहिए था जिन्होंने मुझे बरबाद करना चाहा लेकिन मैं उनके साथ जितना संघर्ष करती गई, उतनी मजबूत होती गई। चलिए फिर पीछे आ जाइए। ग्यारहवें दिन पुलिस गाड़ी लेकर आई और कहने लगी कि सरकार का हुक्म है कि जिन मुसलमान लड़कियों को हिन्दुओं ने जबरदस्ती अपने घरों में रख लिया है उन्हें तलाश करके कैंपों में भेज दो। ‘‘लेकिन मुझे जबरदस्ती नहीं रखा गया’’ मैंने कहा, ‘‘नहीं,’’ वे बोले, ‘‘इस साल में जो भी जैसे भी रही, जबरन ही मानी जाएगी।’’ ‘‘हां, यह ठीक है,’’ मैंने ढीठ होकर कहा, ‘‘जबरदस्ती हुई है लड़कियों के साथ, परन्तु मैं तो इनके साथ जबरदस्ती कर रही हूँ। वहां पाकिस्तान में मेरा कौन है?’’ लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता  है। मुझे जबरदस्ती एक कैम्प में भेज दिया गया।
यहां तक के वाक्यात तो तुम्हारी याददाश्त में भी होंगे। इसके बाद जो कुछ हुआ, उसने मेरे जीवन को सूना कर दिया। यह सूनापन उस सूनेपन से भी बढ़कर था जो मैंने उस रात को महसूस किया था जिस रात अपने परिवार को खोकर, रात के अन्धेरे में आकर तुम्हारी शरण ली थी। यहां कैम्प में गुमसुम बैठी यही सोचा करती कि भूतकाल ने जो कूछ कर दिखाया है क्या भविष्य उससे भी क्रूर होगा? कैम्प आए सब शरणार्थी क्योंकि मुसलमान थे, उनकी जुबान पर आमतौर पर यही चर्चा होती थी, ‘‘खुदा का शुक्र है हम मर कटकर, लुट-पिट कर यहां जीवित तो पहुंच गए। वहां हिन्दुस्तान में तो हम सबको खत्म होना था। हिन्दू काफिर होते हैं। हम काफिरों के देश से बचकर आ गए हैं। अब कोई खतरा नहीं है। हमारा देश पाकिस्तान अब जन्नत होगा। यहां मुसलमानों का राज होगा। मुसलमानों का राज्य, यानि खुदा का राज्य।’’
एक सप्ताह कैम्प में बीता। एक दिन कैम्प  कमाण्डर की नजर मुझ पर पड़ गई, बड़ी सहानुभूति दिखाई मुझसे बात करने में। मैंने समझा, बड़ा नेक आदमी है, अवश्य कुछ मदद करेगा। चलते वक्त कह गया, ‘‘जो कुछ हुआ है, भूल जाओ। भविष्य की तरफ देखो, हम तुम्हारे वास्ते सब इन्तजाम कर देंगे।’’ अगले दिन अपना एक कर्मचारी भेजकर उसने मुझे बुलाया। रात के आठ बजे का समय था, मुझे जाने में संकोच हुआ। परन्तु उस कर्मचारी ने मुझे दिलासा दिया, ‘‘घबराओ मत बी रजिया, कैम्प कमाण्डर बड़े नेक आदमी हैं। वे तुमसे बात करके तुम्हारा कोई अच्छा प्रबन्ध करेंगे। घबराने की कोई बात नहीं। अब तुम उन काफिरों के देश में नहीं हो, यहां मुस्लिम ईमान (पक्के ईमान) का राज है।’’ मैं उसकी बातों में आ गई और साथ हो ली।
कमाण्डर ने जाते ही सामने पड़ी कुर्सी पर बैठने को कहा। मैं देहात की गलियों में पली हुई लड़की कुर्सी पर कमाण्डर के सामने बैठने का हौंसला भला क्या करती? ‘‘डरो मत बी रजिया,’’ उसने कहा यह कैम्प तुम लोगों के लिए खुला है, जो काफिरों की बर्बरता से बचकर सही सलामत आ गए। हम ईमान का वास्ता देकर कहते हैं, तुम्हारी पूरी मदद की जाएगी। बैठो और मुझे सारी बातें बताओ, तुम्हारे साथ क्या बीती?, तुम्हारा हिन्दुस्तान में कौन-सा जिला, तहसील व गांव थे, पूरा बताओ। परिवार के सभी सदस्यों के नाम बताओ? यदि उनमें से कुछ बच कर पाकिस्तान पहुंचे होंगे तो दूसरे कैम्पों से खबर मंगाकर तुम्हें उनसे मिलवाया जाएगा।’’ मैं आशाओं के जाल में बन्ध गई। मैं तमाम कहानी शुरू से आखिर तक कहती गई। बीच में आशाओं को झटके भी लग रहे थे, जब कभी सांस के साथ उसके मुंह से शराब की बू आती थी। ‘‘मुसलमान और शराब’’ यह सोच कर मैं बीच में कांप भी जाती थी।
उसने मुझे बातों में उलझाए हुए दो घण्टे गुजार दिए। फीर अचानक बत्ती बुझ गई, कमरे का दरवाजा बाहर से बन्द हो गया और मैं उसकी गिरफ्त में थी। मुझे छोड़ दे गुण्डे, तू मुसलमान का बीज नहीं, तू काफिर है!’’ मैं जोर से चिल्लाती रही। वह आदमी जो मुझे बुलाकर ले गया था, बाहर ही खड़ा था और दरवाजा भी उसी ने बन्द किया था बाहर से। जब मेरी दुनिया लुट चुकी तो उस गुण्डे ने उस्मान नाम पुकारा और दरवाजा खुल गया। मैंने कमरे से बाहर निकल कर अपने आप को मौत की गोद में सुलाने की ठान ली। कैम्प के लोगों को तो मेरे जाते ही पता चल गया था कि मेरे साथ क्या बीतेगी, क्योंकि मेरे आने से पहले भी इस प्रकार की कई घटनाएं हो चुकी थीं। मैं एक कम्बल में, जो मुझे वैफम्प की ओर से मिला था, मुंह छुपाकर पड़ी रही। सुबह उठकर खुद को मौत के हवाले करने के लिए चल पड़ी। कैम्प से बाहर निकलकर सौ कदम ही चली थी कि पीछे से आवाज आई, ‘‘ठहरो रजिया।’’ मैंने मुड़कर देखा, मैं विस्मय से खड़ी हो गई। यह कौन है? मेरा नाम कैसे जानता है? जरूर कोई रात वाले उस्मान जैसा होगा। वह मेरे पास पहुँच कर बोला, ‘‘क्या मैं पूछ सकता हूं कि तुम सुबह-सुबह दबे पांव कैम्प से बाहर निकलकर कहां जा रही हो?’’
‘‘यह पूछकर तुम क्या करोगे ? तुम्हारा मुझसे क्या वास्ता है?’’ मैंने कहा।
‘‘वास्ता इन्सान का हर इन्सान के साथ होता है यदि वह वास्तव में इन्सान हो’’ वह बोला। 
नहीं, मुझे अपनी राह जाने दो, मैंने अब तक दुनिया में हिन्दू को देखा है, मुसलमान को देखा है, परन्तु इन्सान कभी नहीं देखा, तुम कहां से आ गए?’’ मैं बोली।
‘‘सभी इन्सान पैदा होते हैं रजिया, हिन्दू या मुसलमान तो उन्हें बाद में बनाया जाता है । कुदरत ने मनुष्य को दिमाग दिया है ताकि बड़ा होकर वह समझ सके कि उसे इन्सान से कुछ और क्यों बना दिया गया, किसने बना दिया? फिर इन्सान तो इन्सान ही रहता है।’’ वह बोलता ही जा रहा था कि मैंने उसे बीच में टोका, ‘‘मुझे तुम्हारी बातें बड़ी अजीब लग रही हैं। मैं इन्हें समझ नहीं पा रही। मुझे अपनी राह जाने दो।’’
‘‘नहीं, मैं तुम्हारा रास्ता रोकूंगा और उस वक्त तक रोकूंगा जब तक तुम खुद न समझ लो कि तुम्हारा रास्ता यह नहीं, दूसरा है। और वह रास्ता है, दुःखी लोगां का रास्ता, गरीबों का रास्ता, मजलूमों का रास्ता !’’
क्या मैं पूछ सकती हूं कि तुम मुझे ही क्यों दिखाना चाहते हो वो रास्ता? क्या अब तक मेरे सिवा तुम्हें और कोई दुःखी, गरीब और मजलूम नहीं मिला रास्ता दिखाने के लिए?’’ 
वह बोला, ‘‘मिले हैं, कुछ रास्ता पकड़ भी चुके हैं, कुछ दोबारा भटक गए हैं। अब तुम्हारी यह शंका कि तुम्हें ही क्यों चुना? तो इसका जवाब यह है कि इस कैम्प में आए मुझे दस दिन हो गये हैं। यहां हर रोज एक लड़की के साथ यह घटना होती है। परन्तु किसी ने मुकाबले की हिम्मत नहीं की। आह तक नहीं की। आकर मिल गई भेड़ों में भेड़ और चर्चा यही चली, ‘‘क्या करें? जब जान पर बन आए तो इज्जत भी दांव पर लगानी पड़ती है ।’’ यह उनका आत्मसर्मपण था। तुमने आत्मसर्मपण नहीं किया बल्कि संघर्ष किया और तुम्हें इस घटना से आत्मग्लानि हुई। वह तुम्हारे रात भर अनबोल पड़े रहने और सवेरे-सवेरे चुपचाप गलत राह पर चल पड़ने से प्रतीत होती है।’’ 
‘‘तुम्हें क्या पता मैं किस रास्ते पर जा रही हूँ और वह गलत है? मैंने कहा।
‘‘हां मुझे मालूम है। जो आदमी समाज में हो रहे इन जुल्मों को सहन नहीं कर सकता, उसके सामने तीन रास्ते होते हैं। पहला, परिस्थितियों से समझौता, यानि आत्मसमर्पण। इस रास्ते को कमजोर और कमीनी वृत्ति के आदमी ही अपना सकते हैं। दूसरा रास्ता है-- आत्महत्या, जिसे मैं समझता हूँ तुमने अपनाया है। इसे हम कायरता कह सकते हैं।’’ इन दोनों रास्तों को हिन्दू अपना सकता है, सिख अपना सकता है, मुसलमान अपना सकता है, परन्तु इन्सान नहीं अपना सकता।’’ वह तीसरा रास्ता है, जिसे इन्सान अपना सकता है। वो रास्ता है--जीना और इन जुल्मों के खिलाफ संघर्ष करना। एक ऐसा समाज बनाने के लिए, जिसमें कोई शोषक न हो, कोई शोषित न हो। यह रास्ता इन्सानों का है, बहादुरों का है, सपूतों का है।’’ 
क्या तुम कोई संघर्ष कर रहे हो ऐसा? मैंने पूछा। 
‘‘हां, जितनी शक्ति है वह लग रहा हूँ, बढे़गी और लगाऊंगा। यदि तुम भी साथ दोगी तो दोगुनी हो जाएगी।’’ 
‘‘मैं तुम्हारा साथ कैसे दूं?’’ मेरी क्या औकात है तुम्हारा साथ देने की?’’
‘‘मैं परख चुका हूँ तुम्हारी औकात को, जो कमी है उसे मैं पूरा करूंगा’’ उसने जवाब दिया। 
‘‘क्या कमी है? कैसे पूरी करोगे? क्या मैं जान सकती हूँ?’’
‘‘हां, तुम में साहस नजर आता है, कमी केवल शिक्षा की हैं। वह मैं दूंगा तुम्हें, जीवन साथी बना कर।’’ 
‘‘हैरानी है मुझे, मुझ पतिता को अपनाने की बात कर रहे हो, यह जानते हुए भी कि मेरा पतन तुम्हारी आंखों के सामने हुआ है।’’
‘‘मैं यह भी तो जानता हूं कि तुमने खुद को बचाने के लिए कितना संघर्ष किया। ऐसे संघर्षकारी व्यक्ति का जीवन समाप्त होना मानव समाज का भारी नुकसान होता है। पतिता होने का दोष तो तब था यदि तुमने आत्मसमर्पण कर दिया होता। मुसीबतों के बीच से तपकर निकली हुई तुम्हारी जवानी न मालूम मानव समाज का कितना कल्याण कर सकती है?’’ 
न मालूम उस नौजवान की बातों में मुझे क्यों दिलचस्पी होने लगी थी? मैं उसका नाम पूछ बैठी। 
‘‘मेरा नाम हनीफ है’’ उसने कहा। 
‘‘क्या मैं पूछ सकती हूं कि तुम्हारा हिन्दुस्तान में कौन-सा गांव था? परिवार में कौन-कौन था?’’ 
‘‘पूछने में तो कोई हर्ज नहीं, परन्तु इस सवाल का और इसके जवाब का अब कोई मतलब नहीं रहा। रजिया, अब हमें नया देश मिल गया है, अब तो इसी में जीना होगा। फिर भी तुम्हें सब कुछ बता दूंगा समय आने पर।
अगले दिन कैम्प में एक नया काफिला आकर ठहरा, जिसमें जोहरा भी शामिल थी। जोहरा को तुम नहीं जानते, वह मेरी फूफीजाद बहन थी। जोहरा ने बताया कि इस्माईल, जिसके साथ उसकी शादी हुई थी, मारा गया और हिन्दू कातिलों ने उसे उठाकर अपने घर में डाल लिया था। परन्तु खोजबीन के बाद पुलिस ने उसे भी निकाल कर पाकिस्तान भिजवा दिया। जोहरा से मिलने के बाद बोलने से पहले ही  मेरी आँखें चश्मे की तरह फूट निकलीं। दोनों बहनें गले मिलकर खूब रोईं और इतनी रोईं कि मुसीबतों का सारा जहर आंखों के रास्ते समाप्त हो गया। दोनों बहनें शाम तक पिछले जीवन पर चर्चा करती रहीं। 5 बजे कैम्प कमाण्डर ने रोज की तरह नए आने वाले व्यक्तियों से मुलाकात की। आज उसकी हवस का शिकार जोहरा थी। जब मैंने अपनी आपबीती सुनाई तो जोहरा का चेहरा सफेद पड़ने लगा।
शाम को कमीना कर्मचारी जोहरा को बुलाने आया और कहने लगा, ‘‘बी जोहरा, साहब तुम्हारे ऊपर बड़े मेहरबान हैं, तुम्हें एक बार बुला रहे हैं ।’’ 
हनीफ ने बीच में आकर उसे झंझोड़ते हुए कहा, ‘‘कमीने कुत्ते चले जाओ यहां से, यह नहीं जाएगी और जाकर अपने उस जलील आका को बता दे कि उसके गुनाहों का हम सरेबाजार भण्डाफोड़ करेंगे और जब तक उसे जहन्नुम में न भेज दें, चैन से नहीं बैठेंगे।’’
शोर सुनकर कैम्प के सभी मर्द, औरत, बच्चे व बूढे उसके चारों ओर झूम गए। हनीफ ने और जोश के साथ बोलना शुरू किया, ‘‘मुहाजरीन बहनो व भाइयो! हम यहां इज्जत बचाकर लुटाने नहीं आए। यदि यही सब होना था तो हिन्दुस्तान में ही हो जाता। फिर इस्लाम के नाम पर क्यों बरबाद हुए? क्या हमेंं राज करना था? हम तो केवल जीना चाहते थे। क्या पाकिस्तान, क्या हिन्दुस्तान! जहां अस्मतें लूटी जायें, वह सब जहन्नुम है। मुझे तो ऐसा लग रहा है जैसे हिन्दुस्तान व पाकिस्तान कुछ नहीं, यह तो लुटेरों ने अपने क्षेत्र बांट लिए हैं, लोगों का शोषण करने के लिए। यह लड़ाई अपनी लड़ाई नहीं थी, अपनी लड़ाई तो तब शुरू होगी जब हम इन लुटेरों की चाल को समझ जाएंगे। यह लड़ाई न केवल हिन्दुस्तान व पाकिस्तान में, बल्कि सारी दुनिया में लड़नी पड़ेगी। और उस समय तक लड़नी पड़ेगी जब तक कैम्प कमाण्डर जैसे भेड़ियों, इस अरदली जैसे कुत्तों का और उस वर्ग के..... की कोशिश की। 
परन्तु सारी भीड़ का शोर उठ खड़ा हुआ, ‘‘छोड़ो इसे, कहां ले जा रहे हो? इस अकेले को हम नहीं जाने देंगे! चलो हम भी चलते हैं। कैम्प कमांडर गुण्डा है, यह नौजवान ठीक कह रहा है।’’ मामले को बढ़ता देखकर पुलिस वालों ने नरमी पकड़ी और थानेदार ने आगे बढ़कर सबको शान्ति से बैठने के लिए कहा। पूछताछ के दौरान थानेदार कैम्प कमांडर के सम्मान के लिए वकालत करने की कोशिश करता, लेकिन जब उसका एक भी शब्द कमाण्डर के हक में निकलता तो भीड़ चिल्लाना शुरू कर देती।
कुछ देर बाद एक बड़ा अफसर आया, जिसे लोग पुलिस कप्तान कह रहे थे। उसने कहा, ‘‘आप शान्त हो जाइए, आगे कोई ऐसी घटना नहीं होगी। कल से आपकी सब सुनाई होगी।’’ यह एक ऐसी जांच थी जिसमें पुलिस ने कैम्प कमाण्डर और उसके सम्मान को सुरक्षित रखने का जिम्मा अपने सिर पर ले रखा था। उस बेहूदे का काला मुंह दिखाने के लिए उसे भीड़ के सामने तक भी नहीं लाया गया। इतना जरूर हुआ कि अगले दिन उसकी जगह कोई दूसरा व्यक्ति बैठा हुआ था।
करीब एक माह बाद नए कैम्प कमाण्डर ने हनीफ को बुलाकर एक कागज उसके हाथ में थमाया और कहा कि वह रावलपिण्डी, चेक नं. 17, मकान न. 42 में चला जाए, उसे वह मकान अलाट हुआ है। जब हनीफ ने आकर बताया तो मुझे अपने पैरों के नीचे तले से जमीन खिसकती मालूम हुई। मैंने जोहरा की तरफ नजर घुमाई, वह उदास खड़ी थी। हनीफ ने हमें एक तरकीब सुझाई और हम कैम्प कमाण्डर के सामने जाकर पेश हो गईं। हमने कहा कि हमें हनीफ के साथ भेज दो। 
कमाण्डर ने कहा, ‘‘नहीं ऐसा नहीं हो सकता। जब तक तुम्हारे परिवारों का अता-पता नहीं मिलता तुम्हें कैम्प में रहना होगा। हम नौजवान लड़कियों को गैर मर्द के साथ कैसे भेज सकते हैं ।’’ मैंने कहा, ‘‘यहां भी तो हम गैर मर्दों के साये में बैठी हैं। अब हमारा परिवार वही होगा, जहां हम रहेंगीं। हनीफ से हमें वह खतरा कभी नहीं हो सकता जो इस कैम्प के लोगों से है।’’ उसकी बोलचाल और आंखें ऐसा संकेत दे रही थीं कि जितने दिन हो सके, कैम्प की शोभा बनी रहे। परन्तु उसकी पार न बसाई। उसने हनीफ को बुलाकर एक कागज पर दस्तखत कराए और साथ ही मेरे और जोहरा के भी। उसी दिन से मैं हनीफ के साथ रावलपिण्डी में रह रही हूं। यहां के लोकल बाशिन्दों के साथ हमारी भाषा व संस्कृति का कोई मेल नहीं है। जो रोष मेरे दिल में हिन्दुओं के प्रति था, वह आहिस्ता-2 कम होकर और मुसलमानों के प्रति बढ़कर अब समानान्तर चलने लगा है।

1948-49-50-51-52

हनीफ के साथ मैं और जोहरा भी एक कपास मिल में मजदूरी पर जाने लगीं। मिल का मालिक एक हिन्दू था। मजदूरों में हनीफ का एक साथी से परिचय बढ़ने लगा, जिसका नाम गुलजार था। गुलजार और हनीफ के विचार बहुत मिलते थे। वे दोनों जब हमारे सामने बैठकर एक-दूसरे के सवालों और जवाबों में लग जाते तो घण्टों लगे रहते। चर्चा का विषय ज्यादातर लोगों का आर्थिक व सामाजिक जीवन होता था। गुलजार भी हमारी तरह भारत से उजड़कर आया था। यहां पाकिस्तान के लोकल बाशिन्दों के दिल में हमारे प्रति बड़ी घृणा देखने को मिलती थी, फिर भी हनीफ और गुलजार यहां के बाशिन्दों से मेलजोल बढ़ाने में अपना रोल ईमानदारी से निभाते थे। थोड़े ही दिनों में उन्होंने यहां के लोकल मजदूरों में काफी लोकप्रियता हासिल कर ली थी। हमें वे फुरसत के समय पढ़ने की प्रेरणा देते और समय मिलने पर हनीफ खुद भी हमें पढ़ाते। हमने तीन साल में ही किताबें पढ़नी शुरू कर दी। एक दिन हम चारों इकट्ठे बैठे थे, हनीफ ने जोहरा को चाय बनाने को कहा। जोहरा उठकर रसोईघर में चली गई। हनीफ ने जोहरा के जाते ही गुलजार से चर्चा चला दी। यह चर्चा एक मुस्लिम विधवा औरत की थी, जिसे मुस्लिम कानून में दूसरी शादी करने का अधिकार नहीं, जबकि मर्द एक साथ चार-चार शादियां कर सकता है। हनीफ हमारे दोनों के बीते हुए जीवन के बारे में गुलजार को पहले ही बहुत कुछ बता चुका था। गुलजार अपने दिल में जोहरा के लिए असीम जगह होते हुए भी किसी निर्णायक स्थिति में नहीं था। दिन बीतते चले गए। हम मजदूरी करके जीवन की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे। मुझे और जोहरा को किताबें पढ़ने का शौक बढ़ने लगा। हनीफ ने ढेर सारी किताबें हमें पढ़ने को दीं, साथ में यह भी कहा कि इन किताबों को खुले आम पढ़ना ठीक नहीं, इनके पढ़ने पर पाबन्दी है। फिर भी हम मजूदरों के लिए इनका ज्ञान जरूरी है।
मिल का मालिक साल दर साल मुनाफा कमाता रहा। साल दर साल चीजों के दाम बढ़ते रहे और हमारी दिहाड़ी जीवन निर्वाह के लिये साल दर साल कमजोर पड़ती गई। घरेलू जरूरत की चीजों का खरीदना अत्यन्त कठिन हो गया। सब मजदूरों में इस समस्या से निपटने के लिए चर्चाएं शुरू होने लगीं और एक दिन सबने मिलकर हड़ताल करने का निर्णय ले लिया। मिल के गेट पर तालाबन्दी का नोटिस लग गया। मजदूरों में रोष पैदा हो गया। सब मजदूर तालाबन्दी के विरुद्ध प्रदर्शन करते हुए जलूस की शक्ल में मार्च कर रहे थे। पुलिस के एक दस्ते ने आगे आकर ऐलान किया, ‘‘खबरदार, यदि आगे बढ़े तो गोली मार दी जाएगी।’’ ‘‘हम अपना हक मांग रहे हैं, अपना हक लेकर रहेंगे, हमें कोई नहीं रोक सकता!’’ कहते हुए मजूदर आगे बढ़ने लगे। इसके बाद पुलिस ने अपने देश के कमेरों को अपना हक मांगने के बदले में लाठियों और गोलियों का इनाम देना शुरू कर दिया। गुलजार के पांव में गोली लगी, जोहरा की नजर गिरते हुए गुलजार पर पड़ी। पुलिस और प्रशासन को बुरी तरह कोसती हुई जोहरा भागकर गुलजार के पास पहुंची। उसने अपनी ओढ़णी को फाड़कर चलते खून को रोकने के लिए गुलजार के पांव पर पट्टी बांधी और उसे अपनी पीठ पर उठाकर हस्पताल की ओर भागी। और भी कई मजदूर घायल हुए। पुलिस जलूस को तितर-बितर करने में तो जरूर सफल हो गई, परन्तु हड़ताल को न तुड़वा सकी। मजदूरों की आर्थिक स्थिति दिन पर दिन बिगड़ती चली गई। एक दिन फिर सबकी मीटिंग बुलाई गई। गेट के सामने फरमान अली, जो यहां का लोकल बाशिन्दा और मजदूरों का नेता था, बोलने के लिए उठा। श्रोताओं में करीब सभी मजदूर थे, जिनमें से बहुत सारों को पट्टियां बंधी थीं। किसी के सिर पर, किसी के हाथ पर, किसी के पांव पर। फरमान अली ने बोलना शुरू किया, ‘‘साथियो , आपको मालूम है कि हमारे शरीरों पर बंधी पट्टियाँ किस देशभक्ति का इनाम हैं? हमने इस मिल में काम किया, कपास को रूई में बदला, रूई को धागे में हमारे दूसरे साथियों ने बदला, धागे को कपड़े में भी हमारे ही साथियों ने बदला। कपड़े की पोशाक भी हमारे ही साथियों ने बनाई! परन्तु जब पोशाक बन गई तो वह अमीरों के तन की शोभा बनकर रह गई! हम चाहते हैं कि हमने जो माल बनाया, वह ज्यादा नहीं तो कम से कम अपनी जरूरत के लिए तो मिले। सालों से हमारी मजूदरी की दर वहीं खड़ी है, जबकि वस्तुओं के दाम चौगुने हो गए हैं। यदि हम सारे मजदूर एक हो जाएं तो इन अमीरों की क्या औकात है जो हमें हमारा हक ना दें? इसलिए मेरी आप से अपील है कि उन सब साथियों को साथ लेकर आगे बढ़ें जो दूसरे कारखानों में काम करते हैं। हमारे संघर्षों ने दास प्रथा को तोड़ कर स्वामियों का बीज नाश किया। उसके बाद शहनशाहों व सामन्तों के तख्त उखाडे़ और ताजों को ठोकरें मारी हैं। फिर क्या कारण है कि हम इन लुटेरों से अपने हक प्राप्त न कर सकें? हम अपने हक जरूर लेकर रहेंगें !’’ जोरदार तालियां बजीं और नारे गूंजे, ‘‘मजदूर एकता जिन्दाबाद !’’
इसके बाद हनीफ ने बोलना शुरू किया, ‘‘साथियो! एक दिन था जब हम हिन्दु-मुस्लिम एक ही देश के वासी थे और अंग्रेज हमारे ऊपर राज करते थे। तब भी हम पिस रहे थे और आज भी हम पिस रहे हैं। एक देश के दो देश बनाने के लिए, एक मार्केट के दो मार्केट बनाने के लिए अंग्रेजी साम्राज्य ने हमारे बीच जहर घोल कर हमें लड़ाया। इस जहर को फैलाने में राज के भूखे नेताओं ने अपना रोल खूब अच्छी तरह निभाया। हम लोग तो अपनी मेहनत की कमाई भी पूरी नहीं पाते थे, राज कहां मिलना था ? ठोकरें मिली, मौत मिली, परिवारों और दोस्तों के बिछोड़े मिले और बेइज्जती मिली। दूसरी ओर, इस धर्म-मजहब का जहर फैलाने वालों को राज मिला। उन्हें उनका मनचाहा हिन्दू राज्य व मुसलिम राज्य या यूं कहिए कि भगवान का राज और खुदा का राज मिला। ‘‘जो कठोर दिन हमने बिताये हैं उसके लिए किसी ऐतिहासिक प्रमाण की जरूरत नहीं है। हिन्दुस्तान में हमारे वे पड़ोसी जो हमारी मां, बहू, बेटियों को अपनी मां, बहू, बेटी समझते थे, धर्म की अफीम के नशे में उनकी हत्या ही नहीं, बेहुरमती भी कर रहे थे। यही कहानी यहां के हिन्दुओं के साथ दोहराई गई। खुदाई राज में भी हमने देखा कि एक पूंजीपति के लाभ की सुरक्षा के लिए मुस्लिम पुलिस, मुस्लिम मजदूरों पर मुस्लिम हाकिमों के हुक्म से गोलियां चला रही है, चाहे वह पूंजीपति किसी भी धर्म या जाति का हो। भारत में भी यही हो रहा है। वहां का भगवान भी हिन्दुओं को नहीं पहचानता। वहां भी पुलिस की गोलियां मजदूरों पर चलती हैं। हिन्दुओं की बन्दूक से निकली गोलियां भी हिन्दुओं को नहीं पहचानतीं।’’
इससे आगे की जीवन गाथा को बहुत छोटा करके लिख रही हूं। समय बीतता गया, चाहे दुःखों में ही सही। इस दौरान यहां कितने ही परिवर्तन हुए, लेकिन फौजी तानाशाहों की बन्दूकें हमेशा जनता पर तनी रही हैं। आज जब लुटेरों के पास यहां धर्म के आधार पर जनता में फूट डालने का मौका नहीं रहा तो उन्होंने लोगों को मुहाजरीन व स्थाई के नाम पर बांट दिया। हम यहां मुहाजरीन कहे जाते हैं, जिन्हे यहां के स्थाई बाशिन्दे अपनी आंख की किरकरी समझते हैं।
आखिर वह बुरा दिन भी आ गया, जिस दिन मुझे हनीफ से सदा के लिए बिछुड़ना पड़ा। हनीफ यहां के स्थाई व मुहाजिरों की भिड़न्त में यहां के स्थाई लोगों की गोली का शिकार हो गया। न मालूम खुदा ने क्यों नहीं सोचा कि हम भी मुसलमान हैं? आज जोहरा और गुलजार भी मेरे साथ ही रहते हैं। हम बिल्कुल एक परिवार की तरह रहते हैं। मेरे पास हनीफ की याद को ताजा रखने के लिए सलमा और असलम हैं जो अपनी उम्र की याद दिलाते हैं, जिस उम्र में तुम मेरे लिए काला कलोटा बनड़ा तलाश किया करते थे। आशा करती हूं कि तुम्हारे पास भी सलमा व असलम जैसे अनमोल मोती होंगे। जी चाहता है उन्हें अपनी आंखों से देखूं, उनके पास रहूं और उन्हें कह दूं अपने दिल के वे सब अरमान, जिन्हें हमारे मरने के बाद पूरा करने में वे भी अपनी जिंदगी लगा दें। क्या हैं वे अरमान? यह तुम जानते ही होगे। क्योंकि मुझे दुःखों ने जो रास्ता दिखाया है, वही रास्ता एकमात्र रास्ता है जो दुनिया भर के शोषित लोगों को मुक्त करवा सकता है। जो लोग दिन भर मेहनत करने के बाद भी आधा पेट खाते हैं, जो काम न मिलने के कारण भीख मांगकर पेट की आग बुझाते हैं, ऐसे लोगों की आवाज खुदा के कानों तक नहीं पहुँचती। न ही इनकी आवाज संसद भवन की ऊंची दीवारों को पार कर सकती है। ये आवाज तब तक खुदा के कानों तक नहीं पहुंचेगी जब तक हम सही रास्ते को जानकर एक साथ ऊंची आवाज में ‘‘इंकबाल जिन्दाबाद!’’ नहीं बोलेंगे।
काश ! तुम जिन्दा मिलो और मेरी डायरी तुम्हारे हाथों में पहुंचे, तुम्हारे पास भी असलम और सलमा जैसे हीरे हों , जिन्हें देखने के लिए मेरा दिल बार-बार मचल उठता है। अब मैं पत्र को खत्म कर रही हूंँ। मेरे पत्र का जवाब तुरन्त देना। पत्र के इन्तजार में।    

तुम्हारी बहन रजिया












Tuesday 11 August 2020

गजल

 (मशहूर शायर "राहत इंदौरी" शारीरिक रूप से हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन उनकी शायरी हमेशा थक चुके कदमों का हौसला बढ़ाती रहेगी। हार चुके दिलों की धडकनों को जीत की उम्मीद देती रहेगी। और हमेशा खामोश आवाजों की आवाज बनकर तानाशाहों को ललकारती रहेगी।)




1.

अगर ख़िलाफ़ हैं होने दो 


अगर ख़िलाफ़ हैं होने दो जान थोड़ी है
ये सब धुआँ है कोई आसमान थोड़ी है

लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में
यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है

मैं जानता हूँ के दुश्मन भी कम नहीं लेकिन
हमारी तरहा हथेली पे जान थोड़ी है

हमारे मुँह से जो निकले वही सदाक़त है
हमारे मुँह में तुम्हारी ज़ुबान थोड़ी है

जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे
किराएदार हैं ज़ाती मकान थोड़ी है

सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है


2.

अपने होने का हम इस तरह पता देते थे

अपने होने का हम इस तरह पता देते थे
खाक मुट्ठी में उठाते थे, उड़ा देते थे

बेसमर जान के हम काट चुके हैं जिनको
याद आते हैं के बेचारे हवा देते थे

उसकी महफ़िल में वही सच था वो जो कुछ भी कहे
हम भी गूंगों की तरह हाथ उठा देते थे

अब मेरे हाल पे शर्मिंदा हुये हैं वो बुजुर्ग
जो मुझे फूलने-फलने की दुआ देते थे

अब से पहले के जो क़ातिल थे बहुत अच्छे थे
कत्ल से पहले वो पानी तो पिला देते थे

वो हमें कोसता रहता था जमाने भर में
और हम अपना कोई शेर सुना देते थे

घर की तामीर में हम बरसों रहे हैं पागल
रोज दीवार उठाते थे, गिरा देते थे

हम भी अब झूठ की पेशानी को बोसा देंगे
तुम भी सच बोलने वालों को सज़ा देते थे

3.

सफ़र की हद है वहाँ तक के कुछ निशान रहे

सफ़र की हद है वहाँ तक के कुछ निशान रहे
चले चलो के जहाँ तक ये आसमान रहे

ये क्या उठाये क़दम और आ गई मन्ज़िल
मज़ा तो जब है के पैरों में कुछ थकान रहे

वो शख़्स मुझ को कोई जालसाज़ लगता है
तुम उस को दोस्त समझते हो फिर भी ध्यान रहे

मुझे ज़मींन की गहराइयों ने दाब लिया
मैं चाहता था मेरे सर पे आसमान रहे

अब अपने बीच मरासिम नहीं अदावत है
मगर ये बात हमारे ही दरमियान रहे

मगर सितारों की फसलें उगा सका न कोई
मेरी ज़मीन पे कितने ही आसमान रहे

वो एक सवाल है फिर उस का सामना होगा
दुआ करो कि सलामत मेरी ज़बान रहे

4.

जो मंसबो के पुजारी पहन के आते हैं 

 
जो मंसबो के पुजारी पहन के आते हैं।
कुलाह तौक से भारी पहन के आते है।

अमीर शहर तेरे जैसी क़ीमती पोशाक
मेरी गली में भिखारी पहन के आते हैं।

यही अकीक़ थे शाहों के ताज की जीनत
जो उँगलियों में मदारी पहन के आते हैं।

इबादतों की हिफाज़त भी उनके जिम्मे हैं।
जो मस्जिदों में सफारी पहन के आते हैं।


5.

अँधेरे चारों तरफ़ 


अँधेरे चारों तरफ़ सायं-सायं करने लगे
चिराग़ हाथ उठाकर दुआएँ करने लगे

तरक़्क़ी कर गए बीमारियों के सौदागर
ये सब मरीज़ हैं जो अब दवाएँ करने लगे

लहूलोहान पड़ा था ज़मीं पे इक सूरज
परिन्दे अपने परों से हवाएँ करने लगे

ज़मीं पे आ गए आँखों से टूट कर आँसू
बुरी ख़बर है फ़रिश्ते ख़ताएँ करने लगे

झुलस रहे हैं यहाँ छाँव बाँटने वाले
वो धूप है कि शजर इलतिजाएँ करने लगे

अजीब रंग था मजलिस का, ख़ूब महफ़िल थी
सफ़ेद पोश उठे काएँ-काएँ करने लगे

6.

झूठों ने झूठों से कहा सच बोलो 


झूठों ने झूठों से कहा सच बोलो 
सरकारी एलान हुआ है सच बोलो 

घर के अंदर तो झूठों की एक मंडी है 
दरवाज़े पर लिखा हुआ है सच बोलो 

गुलदस्ते पर यकजहती लिख रक्खा है 
गुलदस्ते के अंदर क्या है सच बोलो 

गंगा मइया डूबाने वाले अपने थे 
नाव में किसने छेद किया है सच बोलो....