Thursday 12 November 2020

कविता

 अभय वसीयत..!


(अभय सिन्हा, सबौर, भागलपुर)

मैं अपने देश का एक अनाम नागरिक..!
अपनी अंतरात्मा को साक्षी मानकर..!
पूरे होशो-हवास में अपनी वसीयत, 
लिख रहा हूँ ताकि सनद रहे..! 
मेरे पास किसी को देने के लिए,
खुद के अलावा और है क्या..?
(सम्पत्ति किसकी रही है, किसकी रहेगी..?) 

मैं मरणोपरांत अपनी आंखें,
दे देना चाहता हूँ कानून को..!
ताकि कल कोई ये न कहे,
कि कानून अंधा होता है..!
मैं खोल देना चाहता हूँ..!
न्याय की देवी की आंखों पर बंधी पट्टियाँ..!
ताकि वह खुद देख सके..!
रोटी चुराने वाले के भूख का दर्द..!
और पूरे समाज का हिस्सा, 
चुराने वाले की हवस में क्या फर्क है..? 
फैसले बहुत हो चुके..!
अब इंसाफ करने का वक्त है..! 




मैं अपने कान दे देना चाहता हूँ दीवारों को,
ताकि यह बात सिर्फ़ कहावत तक न रहे..!
दीवारें सुन सकें बंद कमरे में होने वाली,
देश को बेच डालने वाली दुरभिसंधियां..!
या किसी मजलूम के 
खिलाफ होने वाली सरगोशियाँ..!
किसी बेबस की चीख सुनकर,
मन तड़प जाये तो सुन आये..! 
जाकर उखड़ी किवाड़ के पीछे,
आदम और हव्वा की खुसुर-पुसुर..!

मैं अपनी नाक दे देना चाहता हूँ..!
उस अभागे पिता को,
जिसकी नाक कट चुकी है..!
उसे देखकर, पड़ोसी अनदेखा कर जाते हैं..!
उसकी पत्नी और छोटी बेटी को,
लोग देखते हैं अश्लील नजरों से..!
क्योंकि उसकी युवा बेटी ने
इंकार कर दिया है दमघोंटू विषैले धुएं से..!
अपना आशियाना बना लिया है उसने,
इन्द्रधनुष के पार अपने प्रेमी के साथ..!

मैं अपने हाथ दे देना चाहता हूँ..!
ट्रैफिक सिग्नल पर बैठे, 
उस भिखारी लड़के को जो, 
अपने टुंडे हाथों से खिसकाता है, 
चिल्लर और नोटों से भरा अपना कटोरा..! 
रोज शाम को ठेकेदार उठा लेता है,
मुठ्ठी भर नोट, उसके कटोरे से..!
और वह ढंग से आंसू भी नहीं पोछ पाता..!
मगर शर्त है कि मेरे दिये हाथों से वह,
कटोरा नहीं, ठेकेदार का गिरेबान जायेगा..!
उसकी हथेलियां बंध जायेगीं..!
तनी मुट्ठियों की शक्ल में और वह,
हर एक से अपना हिसाब मांगेगा..!

अपना रक्त देना चाहता हूँ मैं..!
उन मुफलिसी को जिनके लिए,
ब्लड बैंक के दरवाजे कभी नहीं खुलते..!

और अंत में अपना दिल..!
मेरी जान तुमको दे देना चाहता हूं..!
ताकि तुम मुझसे प्यार करके भी,
हमेशा पवित्र और अनछुई बनी रह सको..!

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