Sunday, 17 January 2021

वैक्सीन बनने में कितना समय लगता है?

 कोरोना वैक्सीनः विज्ञान और राजनीति

(अनुपम)

(31 दिसंबर, 2020 को "दस्तक नए समय की" पत्रिका के ब्लॉग पर यह लेख छपा था जिसमें आशंका जाहिर की थी कि कोरोना वैक्सीन में जल्दबाजी करना इंसानी जिंदगी के साथ खिलवाड़ करना है। जिसके परिणाम हम देख भी रहे हैं। यह उस समय और ज्यादा खतरनाक हो जाता है जब राजनीति, पूंजीपतियों की अंधी लूट में शामिल हो।)





जनवरी 2021 से कोरोना वैक्सीन के भारत में आ जाने की बात जोर-शोर से प्रचारित की जा रही है। यह कितनी कारगर होगी, इसे देखना अभी बाकी है, क्योंकि इसके आने से पहले ही ये संदेह के घेरे में आने लगी है।कोरोना वैक्सीन के बारे में जानने से पहले थोड़ा वैक्सीन के इतिहास पर और इस से जुड़े तथ्यों के 
बारे में जान लें, ताकि कोरोना वैक्सीन के साथ ही आगे विकसित होने वाले किसी भी वैक्सीन के बारे स्टीक राय बना पाएं कि यह कितना प्रभावी होगा ।

भारत में और पूरी दुनिया में टीकाकरण (वैक्सीनेशन) का बहुत ही आक्रामक प्रचार किया जाता है और निश्चित समय पर टीकाकरण अभियान भी लिया जाता है। ऐसा लगता है कि यही एक काम सरकार बेहद ईमानदारी से करती है। और इससे किसी को दिक्कत भी नही है। सभी लोग अपने नन्हे-मुन्ने बच्चों को भावी बीमारियों से बचाने के लिए टीकाकरण के लिए सरकारी अस्पतालों की लाइन में लगे रहते हैं। जिनके पास पैसा है वे निजी अस्पतालों की ओर रुख करते हैं। यह सब सामान्य गति से चलता है। लेकिन यदि कोई आपसे पूछे कि क्या टीकाकरण (वैक्सीनेशन) का कोई गम्भीर साइड इफेक्ट्स भी है, तो 99% लोग यही कहेंगे कि ‘नहीं’। यदि आप भी इन 99 प्रतिशत लोगों में शामिल हैं तो आपको scilence, on vaccine; shots in the dark नामक डाक्यूमेंट्री जरुर देखनी चाहिए। फिल्म देखकर आपको यह जरुर लगेगा कि 99% लोगो की यह राय, ‘नोमचोम्स्की’ की भाषा में कहें तो ‘मैनुफैक्चर्ड कन्सेन्ट’ है।

दरअसल पिछले 15-20 सालों का ‘स्वतंत्र-शोध’ यह साबित करता है कि टीकाकरण के गम्भीर ‘साइड इफेक्ट्स’ हैं। विशेषकर दिमाग सम्बन्धी ज्यादातर रोगों का सम्बन्ध टीके में पाये जाने वाले तत्वों से है। इस फिल्म में विभिन्न वैज्ञानिकों, वरिष्ठ डाक्टरों और  प्रभावित बच्चों के अभिभावकों के हवाले से बताया  गया है कि टीकाकरण के ज्यादातर ‘साइड इफेक्ट्स’ कुछ समय बाद (कभी कभी 15-20 सालों बाद भी) सामने आते हैं। इसलिए ज्यादातर सामान्य डाक्टरों और अभिभावकों के लिए इसे टीके के ‘साइड इफेक्ट’ के रुप में देखना संभव नहीं होता। दरअसल ज्यादातर टीकों में ‘मर्करी’ और ‘एल्यूमिनियम’ जैसे हानिकारक तत्व होते हैं, जो शरीर के लिए बेहद हानिकारक होते है।वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों का दावा होता है कि ये हानिकारक तत्व इतनी कम मात्रा में होते हैं, कि शरीर पर इनका कोई बुरा असर नहीं होता है। लेकिन इस फिल्म में बहुत साफ और सरल तरीके से यह बताया गया है, कि भले ही शरीर पर इस अल्प मात्रा का असर उतना ना होता हो, लेकिन हमारे दिमाग के न्यूरॉन्स को प्रभावित करने के लिए यह ‘अल्प मात्रा’  काफी है। न्यूरॉन्स के प्रभावित होने से ‘सर दर्द’ से लेकर  autism, ‘मिर्गी’ और ‘अल्जाइमर’ जैसे अनेक रोग हो सकते है।दरअसल मर्करी, एल्यूमिनियम जैसे  हानिकारक तत्व दिमाग की प्रतिरोधक क्षमता को कम कर देते हैं या  खत्म कर देते हैं।

फिल्म में इस पर भी सवाल उठाया गया है कि एक-दो साल के बच्चे को जब उसकी प्रतिरोधक क्षमता पूरी तरह विकसित नहीं हुई होती है, तो उसे लगातार टीके की इतनी खुराक देना  क्या ठीक है? अमरीका में बच्चे के डेढ़ साल का होते-होते 38 टीके लगा दिये जाते है। और कुल टीकों की संख्या वहां करीेब 70-80 के आसपास है। हमारा देश भी इससे ज्यादा पीछे नहीं है।

फिल्म में एक चार्ट के माध्यम से साफ  दिखाया गया है कि जैसे-जैसे टीकों की संख्या बढ़ रही है, वैसे-वैसे विभिन्न तरह की दिमागी बीमारियां बढ़ रही हैं।आज अमरीका में हर 6 बच्चों पर 1 बच्चा किसी ना किसी तरह की दिमागी बीमारी से पीड़ित है।फिल्म में बच्चों को दिये जाने वाले कुछ टीकों को एकदम अनावश्यक बताया  गया है। जैसे ‘हेपेटाइटिस बी’ का टीका। जब यह बात सिद्ध है, कि ‘हेपेटाइटिस बी’  रक्तहस्तान्तरण से और सेक्स सम्बन्धों से ही हो सकता है तो फिर इस टीके को बच्चे को देने की क्या जरुरत है?

आइये अब जानते हैं कोरोना के लिए बन रहे वैक्सीन के बारे में -:

किसी भी बीमारी के लिए टीका विकसित  करने में काफी समय की जरूरत होती है। किसी भी वैक्सीन के विकास और उसके सफल  परीक्षण में 4 से 5 सालों का समय लग जाता है। लेकिन वैक्सीन को इतनी तेजी से बाजार में लाने का मकसद सिर्फ मुनाफे के एजेंडे को आगे  बढ़ाना है।तेजी का मतलब है कि किसी भी वैक्सीन को निर्माण करने और आम जनता के लिए उपलब्ध कराने के पहले उसको तीन  फेज ट्रायल स्टेज से गुजारना होता है। लेकिन इस वैक्सीन को विकसित करने में इन सब को नजरअंदाज किया जा रहा है। कोरोना की वैक्सीन भी इस कड़ी में शामिल है।कोविड-19 महामारी से जो डर और  स्वास्थ्य असुरक्षा का माहौल बना है, उसको सभी वैक्सीन  विकसित करने वाली कंपनियां मोटे मुनाफे के रूप में भुनाना चाहती हैं। इसलिए ‘फाइजर’ से लेकर ‘मोडर्ना’ जैसी कंपनियां जल्द से जल्द टिका लाने की होड़ में शामिल हैं। क्योंकि इन कंपनियों के मालिक यह भली-भांति जानते हैं कि जैसे-जैसे वायरस का डर आम जनता के बीच से गायब होगा, वैक्सीन की बिक्री  उतनी ही कम होती जाएगी। साथ ही साथ डर के इस माहौल में उनकी वैक्सीन आसानी से बिना किसी प्रचार माध्यम व डॉक्टरों पर बड़ी राशि खर्च किये बिना ही बिक जाएगी। तो सामने मोटे मुनाफे को देखकर इन कंपनियों के मुंह में पानी आ रहा है और वो जल्द से इस मुनाफे को अपनी तिजोरी में बंद करना चाहते हैं।पूंजीपतियों द्वारा मुनाफा पाने की दौड़ ने वैक्सीन बनाने के कई मानकों को  नजरअंदाज किया है और आनन-फानन में इन्हें लांच कर दिया गया है या उसकी तैयारी चल रही है। आगे निकलने की होड़ ने मानव स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा उत्पन्न कर दिया है। हम मेडिकल फील्ड के तकनीकी विशेषज्ञ तो नहीं हैं, इसलिए वैक्सीन की आंतरिक प्रकृति पर तो कोई टिप्पणी नहीं कर सकते हैं, लेकिन इतना तो हम देख और समझ ही सकते हैं या जांच-पड़ताल तो कर ही सकतें है कि जो भी वैक्सीन विकसित की जा रही है - क्या वह बुनियादी पैमाने पर खरी उतर रही है और सही  प्रक्रियाओं से गुजर रही है या नहीं? अगर नहीं गुजर  रही है तो उससे क्या-क्या खतरा उत्पन्न होने की संभावना है? इसी प्रश्न को ध्यान में रख कर और देश-दुनिया में प्रकाशित खबरों और न्यूज व तथ्यों के आधार पर यह सोचने के लिए  मजबूर होना पड़ रहा है। कुछ उदाहरणों पर नजर डालिये-

चेन्नई में रहने वाले एक 41 साल के  कारोबारी ने कोरोना वैक्सीन ट्रायल में वॉलेंटियर के रूप में भाग लिया। टीके की डोज लेने के बाद से इस वॉलेंटियर को गंभीर न्यूरोलॉजिकल व साइकोलॉजिकल दिक्कतों का सामना  करना पड़ रहा है। मेमोरी लॉस की शिकायत मिल रही है इन्हें एक अक्टूबर को चेन्नई के श्री रामचंद्राइंस्टिट्यूट ऑफ हायर एजुकेशन एंड रिसर्च में कोरोना वैक्सीन की एक खुराक दी गई थी।आपको बता दें कि यह ट्रायल सीरम  इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे द्वारा किया जा रहा है। सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ‘कोविशील्ड’ नाम से टीके (वैक्सीन) का उत्पादन ड्रग निर्माता ‘एस्ट्रजेनेका’ और ‘ऑक्सफोर्ड  विश्वविद्यालय’ की साझेदारी में कर रही है।इस वैक्सीन की भारत में सबसे ज्यादा चर्चा है और देश के प्रधानमंत्री भी इस इंस्टीट्यूट का दौरा कर  चुके हैं।फिलहाल इस वैक्सीन ट्रायल में भाग लेने वाले चेन्नई के व्यक्ति ने अपने बिगड़ते  स्वास्थ्य के लिए इस वैक्सीन को जिम्मेदार ठहराते  हुए 5 करोड़ मुआवजे की मांग की है। साथ ही वैक्सीन के गंभीर साइड इफेक्ट को बताते  हुए, ट्रायल को रोकने की मांग की है। वहीं दूसरी ओर सीरम इंस्टीट्यूट ने इस व्यक्ति के साथ सहानुभूति दिखाने और इसके इलाज की  चिंता करने के बजाए उल्टा व्यक्ति को जिम्मेदार ठहरा दिया। ऊपर से 100 करोड़ का मानहानि का मुकदमा भी ठोकने की बात कही है।इतिहास में शायद यह पहली बार हुआ है कि किसी व्यक्ति ने मानव जाति के हित में  अपने शरीर को ट्रायल के लिए सौंपा और  उसके ऊपर ही 100 करोड़ का मुकदमा ठोंक दिया ।

वही ब्रिटेन में फाइजर वैक्सीन लेने वाले दो स्वास्थ्य कर्मियों ने एलर्जी की शिकायत की है।उनका कहना है कि फाइजर कंपनी द्वारा विकसित कोरोना वैक्सीन लेने बाद उनके  शरीर पर चकत्ते देखने को मिले और सांस लेने में तकलीफ होने की शिकायत की है। यह दो तथ्य काफी कुछ कह देते हैं कि आखिर कैसे  मुनाफे की हवस में इंसानी जिंदगी को खतरे में  डाला जा रहा है। मुनाफा कमाने की इतनी जल्दी है कि वॉलेंटियर के रूप शामिल होने वाले  व्यक्ति के जीवन की भी चिंता नहीं कि जा रही है।इसके उलट वैक्सीनेशन के कारण होने वाले साइड-इफेक्ट की शिकायत करने पर कानूनी नोटिस और भारी-भरकम जुर्माना वसूलने की धमकी दी जा रही है। इस से साफ जाहिर होता है कि ये बीमारी ठीक करने के लिए वैक्सीन विकसित नहीं करना चाहते हैं बल्कि अपने फायदे के लिए। इसलिए अगर कोई व्यक्ति पूरे मानव हित को ध्यान में रखते हुए किसी  वैक्सीन ट्रायल में शामिल हो रहा हो और अपनी जान व शरीर को जोखिम में डाल रहा है।तो उसके हर सुख-दुःख और उसकी परेशानियों को समझकर उसकी मदद करने की जरूरत होनी चाहिए।

चिल्ड्रेन हेल्थ डिफेंस (CHD) एक नॉन-प्रॉफिट संस्था है, जो एन्टी-वैक्सीन एक्टिविज्म के लिए जानी जाती है। इसके अनुसार जितने भी अभी तक कोरोना के लड़ने के लिए जो वैक्सीन विकसित किये जा रहे हैं वह असुरक्षित तकनीकों, असुरक्षित अवयवों और  अपर्याप्त परीक्षण के साथ विकसित किया जा रहा है।फाइजर/बायोएनटेक की कोविड वैक्सीन की जितनी प्रभावशीलता है उस से ज्यादा बढ़-चढ़कर उसका प्रचार किया जा रहा है।

वायरोलॉजिस्ट फ्लोरियन क्रैमर के अनुसार, ‘यह निर्धारित करना मुश्किल होगा कि फाइजर और दूसरों के वैक्सीन कई चरणों से गुजरने के बाद भी शायद उतने प्रभावशाली न हों कि वो कोरोना के संक्रमण को पूरी तरह रोक पाए।' 

चिल्ड्रेन हेल्थ डिफेंस के अनुसार जो  वैक्सीन बन रही है, वो कोविड को पूर्णतः रोकने की क्षमता पर आधारित नहीं होगा, इसलिए हो सकता है कि हमें कभी न खत्म होने वाले लॉकडाउन का सामना करना पड़े।

थाईलैंड मेडिकल न्यूज के मुताबिक,  फाइजर मैनेजमेंट पीआर कॉन्फ्रेंस पर और अपने वैक्सीन के सकारात्मक प्रचार पर अलग से पैसे खर्च कर रही है, ताकि मीडिया को पैसे देकर अनैतिक रूप से सभी को यह विश्वास हो  जाय कि उनके द्वारा विकसित वैक्सीन बिना  किसी दुष्प्रभाव के कारगर है। आगे यह न्यूज बताती है कि ‘अमेरिका ने वैक्सीन के अनुमोदन और प्रभावकारिता के लिए जिन मानकों को तय किया गया था, उसको अब कम कर दिया है।यहां तक कि (अन्य) दवाओं और दूसरे चिकित्सीय कार्यो के लिए भी। कोई डेटा यह नहीं दिखाता है कि फाइजर टीका कोरोना के गंभीर मामलों को रोकती है, जैसे जिस  मामलों में मरीज को अस्पताल में भर्ती करना पड़ता है या फिर जिन मामलों में मृत्यु हो जाती है,  अगर इन मामलों में वैक्सीन कारगर नहीं है तो  फिर इसके होने न होने का क्या फायदा है। वहीं चूंकि इन वैक्सीनों का परीक्षण केवल कुछ महीनों तक ही चल रहा हैं, वहां यह कहना असंभव है कि यह वैक्सीन वायरस से होने वाले  संक्रमण से कितनी देर तक रक्षा करेगा। इन सब तथ्यों से यह बात तो साफ होती है, कि कोरोना  वैक्सीन को मानव सामज के लिए फायदे की नीयत से कम और पूंजीपतियों के मुनाफे की  नीयत से ज्यादा बनाया जा रहा है।क्योंकि जैसे ही यह घोषणा हुई कि फाइजर कंपनी ने जिस कोरोना वैक्सीन का सफलतापूर्वक परीक्षण किया वह 90  प्रतिशत प्रभावी है। खबर के बाहर आते ही फाइजर के शेयर में भारी उछाल आ गया। इस अप्रत्याशित उछाल को देखते हुए इसके सीईओ एल्बर्ट बुर्ला ने 5.6 मिलियन डॉलर का शेयर तुरंत  बेच दिया।क्योंकि शायद उन्हें यह पता हो, कि उनकी कंपनी द्वारा विकसित वैक्सीन  भविष्य में कारगर सिद्ध नहीं हो। इसलिए अभी ही सभी शेयर बेचकर मोटा मुनाफा निकाल लिया  जाय।हालांकि जब इन पर सवाल उठने लगे, तब इन्होंने यह कह कर सफाई दी, कि यह  कंपनी की पहले से निर्धारित कार्य्रकम के तहत  किया गया है। वर्तमान में वैक्सीन बनाने वाली सभी कंपनियों की कमोबेश यही स्थिति है। फाइजर के साथ मोडर्ना, जे एंड जे,   एस्ट्राजेनेका, और ग्लैक्सोस्मिथक्लाइन भी कोविड के लिए वैक्सीन विकसित करने की होड़ में शामिल है।दरअसल इन सारी चीजों के पीछे जो चीज काम कर रही है, वह है दवा कंपनियों का  अकूत मुनाफा। अनिवार्य टीकाकरण की नीति के कारण टीकों की सबसे बड़ी खरीददार  सरकारें हैं इसी कारण 2013 में विश्व भर में टीके का कुल कारोबार करीब 25 बिलियन डालर था।और इसके 90 प्रतिशत कारोबार पर सिर्फ 5 दवा कंपनियों (सानोफी, मर्क, फाइजर,  ग्लैक्सो, नोवार्तिस) का कब्जा है। ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ के माध्यम से ये कंपनियां दुनिया भर की सरकारों की स्वास्थ्य नीतियों को अपने हित में प्रभावित करती हैं। अमेरिका में छपी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अमरीकी सदन में  लॉबिंग में दवा कंपनियां तेल कंपनियों से भी ज्यादा  पैसा खर्च करती है। यही नही दुनिया भर के प्रतिष्ठित जर्नल और शोध संस्थानों को ये दवा कंपनियां ही फंड करती हैं।

देश और दुनिया में कोरोना के लिए विकसित वैक्सीन की चर्चा बहुत जोरो पर है। इसी चर्चा के बीच भारत के कई प्राइवेट संस्थान भी वैक्सीन बना लेने का दावा कर चुके है। देश के प्रधानमंत्री भी इन संस्थानों को स्वंय जाकर वैधता प्रदान कर रहे हैं और एक तरह से वे उन निजी कंपनियों का प्रचार-प्रसार ही कर रहे हैं।इसलिए इन भारतीय कंपनियों के विषय मेंं जानना हम सबके लिए जरूरी हो जाता है।क्योंकि यह भारत की 130 करोड़ जनता के जीवन से जुड़ा हुआ है।

इनमें प्रमुख रूप से

1.सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, जिसकी साझेदारी ड्रग कंपनी ‘एस्ट्रजेनेका’ और ‘ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय’ के साथ है।

2. डॉ रेड्डी लैबोरेटरीज लिमिटेड जिसकी साझेदारी रूसी कंपनी ‘स्पुतनिक’ के साथ है।

3. भारत  बायोटेक, जिसकी साझेदारी सरकारी संस्था इंडियन कॉउंसिल ऑफ मेडिकल  रिसर्च के साथ है।

इस समय जब यह शोर मचाया जा रहा है, कि भारत खुद का अपना वैक्सीन विकसित कर रहा है। ऐसे में इस पर ज्यादा समझदारी बनाने के लिए भारत में पोलियो वैक्सीन से जुड़ा  तथ्य भी हम सभी को जान लेना चाहिए। 1990 से पहले पोलियो से रोकथाम के लिए जो  वैक्सीन लगाया जाता था, उसमें भारत पूर्णतः आत्मनिर्भर था। यानी कि पोलियो वैक्सीन की तकनीक और उत्पादन दोनों भारत में ही विकसित होती थी। लेकिन 1990 के बाद पोलियो वैक्सीन पर से भारत की  आत्मनिर्भरता खत्म कर दी गयी और विदेशी वैक्सीन  कंपनियों के लिए पूरा दरवाजा खोल दिया। 1990 के बाद से पोलियो ड्राप को लाया गया, जो पूरी तरह से विदेशी था और वो भी इस बौने तर्क के साथ कि जो वैक्सीन भारत में विकसित  होती थी उसको इंजेक्शन के जरिये लगाया जाता था और इंजेक्शन लगाने में बच्चों को काफी दर्द होता है और बच्चे को रोने से बचाने के लिए उसकी जगह विदेशी कंपनी का पोलियो ड्राप लाया गया। जिसका मकसद सिर्फ और सिर्फ इन कंपनियों को अरबों डॉलर का मुनाफा पहुंचाना था। और इस तरह भारतीय सरकार ने जनता के अरबों रुपये को विदेशी और  प्राइवेट कंपनियों की जेब में डाल दिया। अब इस वैक्सीन पर पूरी तरह बड़ी-बड़ी विदेशी कंपनियों का कब्जा है।

भारत में जिस-जिस संस्था के द्वारा कोरोना वैक्सीन विकसित करने की बात कही जा  रही है उसकी वास्तविकता यह है कि भारत के इन संस्थाओं ने वैक्सीन की तकनीक और  फॉर्मूले को विदेशों से आयात किया है, या यों कहें कि रॉयल्टी देने की शर्त पर इजाजत ली है। यानी सारे संसाधन भारत के होंगे और खरीददारी भी भारत के लोग करेंगे, लेकिन मुनाफे का बड़ा हिस्सा बाहर निर्यात होगा। भारत में जो भी वैक्सीन विकसित होने की बात कही जा रही है, असल में वो भारत के वैज्ञानिकों द्वारा किया गया खुद का अपना शोध नहीं है। वो विदेशों में किये गए शोध और तकनीक को आयात  कर रहे हैं।विदेशी कम्पनियों ने अपना शोध क्यों बेचा? यह  सवाल आना स्वाभाविक है। इसलिए ताकि उनके शोधों का परीक्षण भारत के लोगों पर ज्यादा से ज्यादा किया जाय और बड़े पैमाने पर वैक्सीन बेची जाय। बेहतर यह होता कि थोड़ा समय लेकर भारत में ही यहां के वैज्ञानिकों द्वारा वैक्सीन को विकसित किया जाता, जैसे  रूस, इसराइल, अमेरिका, चीन आदि खुद अपना विकसित कर रहे हैं। एक जरुरी बात यह है कि कोरोना के लिए जो वैक्सीन विकसित की जा रही है वह RNA टेक्नोलॉजी पर आधारित है,  और यह बिल्कुल नई तकनीक है। इसलिए इस नई तकनीक पर बनने वाली वैक्सीन को  और ज्यादा समय लेकर ज्यादा से ज्यादा ट्रायल व मोनिटरिंग करने की जरूरत थी। लेकिन इस तरह की जल्दबाजी मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा हो सकती है। इन सब वैक्सीन में बिलगेट्स जैसे कई  पूंजीपतियों का काफी पैसा लगा हुआ है।

भारत मे विकसित लगभग सभी वैक्सीन की साझेदारी ब्रिटेन, अमेरिका और रूसी  कंपनियों के साथ है। चूंकि भारत और अन्य तीसरी दुनिया के देशों में श्रम सस्ता है, इसलिए  यहां वैक्सीन का सस्ती मजदूरी पर उत्पादन हो जाएगा, जिससे उनका प्रॉफिट मार्जिन बढ़ जायेगा। विदेशी कंपनियां अपनी तकनीक बेचकर, भारत में वैक्सीन विकसित इसलिए कर रही हैं, क्योंकि अमेरिका के बाद सबसे  ज्यादा कोरोना से संक्रमित केस भारत में ही है। इसी कारण वायरस से डर का माहौल और उसकेखरीदने वालों का बाजार बहुत बड़ा है। इस कारण इन कंपनियों को यहां वैक्सीन बेचने में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी। वहीं भारत की जनता को आसानी से वैक्सीन परीक्षण के लिए ‘गिनीपिग’ (वैक्सीन को आजमाने के लिए जानवर) बनाया जा सके।टीके के लिए गिनीपिग बनने और उसकी  विश्वसनीयता को हम हरियाणा के एक मंत्री अनिल विज के  मामले में भी देख सकते हैं, जिन्होंने शोहरत बटोरने के लिए टीका लगवाया यानि खुद को गिनीपिग के तौर पर प्रस्तुत किया और फिर भी कोरोना संक्रमित हो गए। इस मामले में भी कम्पनी ने ‘अगर-मगर’ करके मामले को दफा करने का प्रयास किया है।

विश्वसनीयता स्थापित करने के लिए वैक्सीन के पहले स्टेज का ट्रायल तो पश्चिमी देशों में  किया गया। लेकिन दूसरे और तीसरे ट्रायल को मिलाकर भारत में किया जा रहा है। क्योंकि पहले स्टेज काफी कम लेकिन दूसरे और  तीसरे ट्रायल में काफी ज्यादा वॉलेंटियर की  जरूरत होती है। जो कि इन कंपनियों को विदेशों में आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। इतना तो ठीक है वैक्सीन को जल्दी लाने की होड़ में दूसरे और तीसरे फेज के ट्रायल को मिला दिया  गया है। ताकी ट्रायल को कम लोगो पर करना पड़े और जल्द से जल्द वैक्सीन को बेचने के  लिए बाजार में उतारा जाय।

कोरोना के टीके के भारत में स्वागत करने के पहले टीकाकरण के विज्ञान और  मुनाफाखोर व्यवस्था की इस राजनीति के बारे में अवश्य सोचें।

लेखक बीएचयू में शोध छात्र और  'भगतसिंह छात्र मोर्चा’ के सचिव हैं।

साभार -:दस्तक  नए  समय की 

Wednesday, 6 January 2021

किसान आंदोलन पर हिंदी गीत


टेक -: रै छिड़गी जंग उठो रै भाई 

         यू दुश्मन मार गिराणा सै

       (अमनप्रीत विद्यार्थी)



1. सब खातर अन्न पैदा करता

    खून-पसीना एक तू करता 

    फेर भी तू तो भूखा मरता

    नाज तेरा मंडी म्ह रुलता

    कद तक चुप बैठ्या रहैगा

    जुलमां नै चुपचाप सहैगा

    संघर्ष राह पै चलो र भाई  

    दुश्मन मार गिराणा सै ।


2. काले कानून लेकै आया

    खेल नया डाकी नै रचाया

    जमीन लेण का प्लान बणाया

    मंडी खत्म करेंगें सरकारी

    MSP लुट्जयागी म्हारी

    जमाखोरी होवैगी भारी 

    बिल बिजली के घणे बढ़ाए

    सरकारी महकमे निजी बणाए

    इन्ने शर्म कती ना आई 

    देश की इज्जत बेच कै खाई

    ना पाछै कदम हटो रै भाई...

    के दुश्मन मार भगाणा सै !



3. मिलबैठ कै सोचो बहण अर भाई 

    नेता देखो यें बणे कसाई 

    भगत सिंह सी सोच बणाल्यो

    उधम सिंह सा जोश जगाल्यो

    ट्रैक्टर ट्रॉली जोड़ कै चालो

    हाथां म्हं सब जेली ठाल्यो 

    पंजाब हरियाणा एक्का करल्यो

    सही दुश्मन पै ध्यान धरल्यो

    इंकलाब का नारा लाओ 

    इन नेत्यां नै सबक सिखाओ 

    सबक सिखाण नै जुटों रै भाई ..

    के दुश्मन मार भगाणा सै!




4.मजदूर किसान और कर्मचारी

   छात्र ,युवा संग म्हं नारी ,

   मेहनतकश की एकता भारी 

   दिनों दिन या बढ़ती जरह्यी ,

   टोल यें सारे फ्री कराए 

   नेता सारे हामनै भजाए ,

   गाजीपुर ,सिंघु अर टिकरी 

   चलरह्ये म्हारे पहरे ठीकरी , 

   इब या लड़ाई नही रुकैगी 

   जनता बिल्कुल नही झुकैगी ,

   तोड़ो रै इनकी तानाशाही 

   जनयुद्ध की चालो राही ,

   कुर्बानी तै मिलै आज़ादी 

   मोर्चे पै या रीत चलादी 

   चाहे इंच इंच कटो रै भाई दुश्मन ..



Monday, 4 January 2021

लघुकथाएं


(प्रोफेसर हरभगवान चावला द्वारा लिखी गई छह लघुकथाओं को हम अभियान के ब्लॉग पर दे रहे हैं जिन्हें पढ़ते हुए हम महसूस कर सकते हैं कि लेखक समाज के प्रति किस तरह से अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह कर सकते हैं। सामाजिक सरोकारों से जुड़ी हुई ये कहानियां हमें वर्तमान दौर में चल रहे संघर्षों को समझने में मदद करती हैं।)



 1. क़िस्से 


जंगल के एक बड़े पेड़ के नीचे हिरणों का झुण्ड जमा था। हमेशा की तरह आज भी चर्चा के केन्द्र में एक शिकारी था। हिरण उसकी चतुराई, उसकी नज़र, उसके अचूक निशाने की तारीफ़ कर रहे थे। तभी झुण्ड के एक हिरण का ध्यान उस हिरण पर गया जो चर्चा से असम्पृक्त चुपचाप बैठा हुआ था। उसने पूछा- किस समाधि में लीन हो मित्र, कुछ बोल ही नहीं रहे हो?
- हम जब भी मिलते हैं, किसी न किसी शिकारी की बहादुरी और नृशंसता का गुणगान करने लगते हैं, यह जानते हुए भी कि इन्हीं शिकारियों की वजह से हमारा अस्तित्व तक समाप्त होने को है। मुझे आश्चर्य होता है कि हम अपने क़ातिलों पर मुग्ध हैं। हम अपने बच्चों को विरासत में क्या दे रहे हैं- कायरता और असहायता। काश, हमने अपने उन साथियों के क़िस्से सुनाए होते, जिन्होंने शिकारियों को नाकों चने चबवा दिए। ऐसा होता तो हम और हमारे बच्चे आज शिकारियों के सामने चुपचाप समर्पण करने की बजाय लड़ रहे होते। हम लड़ते हुए मर जाते तो हमारी मौत गर्व की मौत होती, शिकारी को मार देते तो आने वाली नस्लों के लिए प्रेरणास्रोत होते। कम से कम बिना लड़े मर जाने की शर्मिंदगी का कलंक तो हमारे सर नहीं होता।
अब उस पेड़ के नीचे किसी शिकारी का क़िस्सा नहीं था, चुप्पी थी, जो मुखर हो जाने को आकुल थी।


2. मदारी


एक फ़क़ीर गाँव में आया । बच्चों ने उसे घेर लिया । फ़क़ीर ने अपने झोले में से पकवान निकाले, फूल निकाले, खिलौने निकाले और फिर तृप्त बच्चों को सुन्दर-सुन्दर, क़ीमती रेशमी कपड़ों से सजा दिया । बच्चे अब राजकुमारों जैसे लग रहे थे । वे ख़ुश थे, बार-बार फ़क़ीर को चूमते और तालियाँ बजाते । गाँव के लोग इस दृश्य को देखकर विह्वल हो गये और फ़क़ीर की जय-जयकार करने लगे । फ़क़ीर ने झोला उठाया, सबको प्रणाम किया और अगले गाँव की तरफ़ चल दिया । उसके जादू में बँधी भीड़ भी जय-जयकार करती उसके पीछे-पीछे चल दी । 
फ़क़ीर ने उधर गाँव की सीमा लाँघी कि इधर बच्चे भूख-भूख चिल्लाते हुए रोने लगे । उन्हें इतनी भूख महसूस हो रही थी कि जैसे जन्म के बाद से उन्होंने कुछ भी न खाया हो । सारे फूल, खिलौने और रेशमी वस्त्र भी ग़ायब हो गये थे । आश्चर्य तो यह कि उनके तन के वे पुराने वस्त्र भी अब उनके तन पर न थे । गाँव भर ने इसे क़िस्मत का खेल माना तथा यह तय पाया कि उनकी क़िस्मत के बंद हो गये तालों को वह फ़क़ीर ही खोल सकता है । गाँव उस फ़क़ीर का भक्त हो गया । कोई नहीं समझ पाया कि दरअसल वह फ़क़ीर एक मदारी था और कुछ पलों का करतब दिखा बच्चों के पेट का खाना तथा तन के वस्त्र लूट ले गया था ।


3. पैंतरा


सत्ताधारी दल के एक नेता पर भ्रष्टाचार के बहुत गंभीर आरोप थे। विपक्षी दल लगातार सरकार से इन आरोपों की जाँच करवाने की माँग कर रहे थे। सरकार आरोपों को निराधार बताते हुए विपक्ष को ग़ैरज़िम्मेदार ठहराने में लगी थी। ऐसे में ख़बर आई कि एक बड़े वकील ने नेता पर लगे आरोपों की जाँच करवाने की माँग को लेकर न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की है। नेता के कुछ विरोधी लोग चौपाल में बैठे इस ख़बर पर बात कर रहे थे। एक व्यक्ति ने अख़बार में छपी इस ख़बर को गुनगुनाते हुए पढ़ा और कहा, "अभी सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है। आज भी अच्छे लोग मौजूद हैं। अब देखना, यह नेता बचेगा नहीं। न्यायालय ज़रूर अपनी निगरानी में आरोपों की जाँच करवाएगा।" लोग पूरी तरह आश्वस्त होते, उससे पहले ही एक और व्यक्ति ने कहा, "इस देश के लोग कितने सहज विश्वासी हैं। काश, वैसा ही होता, जैसा आप सोच रहे हैं। आप लोग परिष्कृत न्याय प्रणाली से परिचित नहीं हैं। मैं बताता हूँ कि यह नेता अब आरोपों से मुक्त हो जाएगा।"
"यह कैसे संभव है? उसके विरुद्ध याचिका दायर हुई है, आरोपमुक्त कैसे हो जाएगा?" कुछ लोगों ने एक साथ आपत्ति दर्ज की।
"ध्यान से सुनो मेरी बात। चर्चा थी कि विपक्ष इस नेता के विरुद्ध याचिका दायर करेगा। चर्चा थी कि नहीं?"
"हाँ, चर्चा तो थी।" एक व्यक्ति ने कहा।
"अब इस वकील के बारे में भी जान लीजिये। यह वकील सत्ताधारी दल के बहुत नज़दीक है। विपक्षी दल पूरे सुबूतों के साथ याचिका डालते, उससे पहले ही इस वकील ने अपर्याप्त सुबूतों के साथ याचिका दायर कर दी। अपर्याप्त सुबूतों की बिनाह पर यह याचिका ख़ारिज हो जाएगी। और जब विपक्ष याचिका दायर करेगा तो वह इस आधार पर रद्द हो जाएगी कि इस मामले से सम्बंधित एक याचिका पहले ही रद्द की जा चुकी है, मामले में कोई दम नहीं है, बेवजह न्यायालय का समय नष्ट किया जा रहा है। इस तरह नेता को क्लीन चिट मिल जाएगी। यह और कुछ अन्य वकील पहले कई बार ऐसा कर चुके हैं।"
जज बिक जाते हैं, जज डर जाते हैं, जजों के तबादले हो जाते हैं, जज राजनीतिक सम्बन्धों के कारण ग़लत निर्णय देते हैं- लोग ये बातें अक्सर सुना करते थे और न्याय को लेकर आशंकित हो जाते थे। इस नए पैंतरे की जानकारी ने न्याय के प्रति उनकी आस्था को और डगमगा दिया। एक आदमी सहसा कह उठा, "आम आदमी तो इन्साफ की उम्मीद न ही करे, जिसकी लाठी, उसकी भैंस।"


4. इन्सान का दर्द


लोग काले क़ानून के विरुद्ध सड़कों पर उतर आए थे। शहर में निकलने वाले हर जुलूस में शामलाल शामिल रहते। बेटा उनसे कहता, "हम दूर-दूर तक इस क़ानून की ज़द में नहीं आते, आपको क्या ज़रूरत है दूसरों के फट्टे में टाँग अड़ाने की?" शामलाल का एक ही जवाब होता, "सत्ता एक-एक करके समूहों का शिकार करती है। इन्सान वो जो दूसरे इन्सान का दर्द समझे।" बेटा वरुण वितृष्णा से मुँह बिचका देता।
एक दिन शामलाल को कुछ अन्य लोगों के साथ गिरफ़्तार कर लिया गया। जेल में भी उन लोगों का शांतिपूर्ण विरोध जारी था। पुलिस वालों को उन सबसे कोई शिकायत नहीं थी, बल्कि वे जैसे ही थोड़ा ख़ाली होते, उनके विद्वत्ता से भरे वक्तव्य सुनते, चमत्कृत होते, सहमत होते। एक दिन शामलाल को मालूम हुआ कि थोड़ी देर बाद कुछ और आंदोलनकारी जेल में लाए जा रहे हैं। क़रीब घण्टे भर बाद आंदोलनकारियों ने जेल में प्रवेश किया तो शामलाल को यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि इन लोगों में उसका बेटा भी था। वह चीखा, "अरे तू भी...?"
"हाँ, मैं भी। इन्सान वो जो दूसरे इन्सान का दर्द समझे! याद तो है न यह बात, कि भूल गए?"
दोनों ने एक साथ ठहाका लगाया और एक दूसरे की तरफ़ अँगूठे का विजय चिह्न लहरा दिया।


5. बीसवाँ कोड़ा


(लघुकथा संग्रह 'बीसवाँ कोड़ा' की शीर्षक लघुकथा)

अपने पालतू सफ़ेद कबूतर का पीछा करते हुए राजकुमार कब छोटी रानी के महल में दाख़िल हो गया, उसे पता ही नहीं चला। रानी के महल में राजा के अलावा किसी परिंदे को भी घुसने की इजाज़त नहीं थी, पर यहाँ तो परिंदा ही नहीं, परिंदे का मालिक राजकुमार भी महल में घुस आया था।उस समय रानी वस्त्र बदल रही थी। राजकुमार को रानी के महल में घुसने का दोषी पाया गया। अब वह दोषी था तो सज़ा मिलना भी तय था; लेकिन एक तो राजकुमार, ऊपर से नाबालिग! सो तय किया गया कि राजकुमार को प्रतीकात्मक सज़ा दी जाएगी। हूबहू राजकुमार जैसा रुई का एक पुतला बनाया गया और उस पुतले को बीस कोड़ों की सज़ा सुनाई गई। दरबार में सज़ा देने का सिलसिला आरम्भ हुआ। एक सिपाही जाता, एक कोड़ा मारता, फिर दूसरा जाता, दूसरा कोड़ा मारता। इस तरह उन्नीस कोड़े पूरे हो गए। इस बीच सारे तमाशे को देखता हुआ राजकुमार ख़ामोश बना रहा। कभी उसकी आँखों से कोई आँसू टपक जाता, तो कभी किसी को बहुत धीरे से कूड़ा मारने की रस्म पूरी करते देख उसे हँसी आ जाती। अब बीसवाँ कोड़ा बचा था ।एक सिपाही ने पुतले को कोड़ा मारा। पर यह क्या?पुतले पर कोड़ा पड़ते ही राजकुमार की चीख निकल गई और वह दर्द से बिलबिलाकर दोहरा हो गया। सारे दरबारी हैरान होकर देख रहे थे। राजकुमार की पीठ पर एक धारी थी, जिसमें से लहू रिस रहा था। वज़ीर कुछ देर ध्यान से देखता रहा। उसे सारा माज़रा समझ में आ चुका था । उसने उस सैनिक को बुलाया और गरज कर कहा, " सज़ा के तौर पर कोड़ा मारना तुम्हारा कर्त्तव्य था, पर तुम्हारे मन में गहरा द्वेष भरा था । इसीलिये कोड़ा सीधे राजकुमार की पीठ पर पड़ा और उनकी पीठ पर इतना गहरा घाव हो गया । बताओ, राजकुमार से तुम्हारी क्या व्यक्तिगत शत्रुता है?जल्दी बोलो, वरना सर धड़ से अलग कर दिया जाएगा। सिपाही ने इधर-उधर देखा । सारे सिपाही सर झुकाए खड़े थे। उसने इत्मीनान से वज़ीर की आँखों में आँखें डालकर कहा," मेरी राजधानी में युवाओं को बैल की जगह कोल्हू में जोता जाता है और जब कोई युवा कोल्हू को खींचते हुए बेदम होकर साँस लेने के लिए रुकता है तो उस पर कोड़े बरसाए जाते हैं। कोल्हू में जुतने वाले युवाओं में एक मेरा भी बेटा है। वह रोज़ शाम को जब घर आता है तो उसकी पीठ पर मैं धारियाँ देखता हूँ जिनमें से लहू रिस रहा होता है ।आज जब मैंने राजकुमार के पुतले पर कोड़ा बरसाया तो बरबस मुझे अपने बेटे की पीठ याद आ गई थी।" 


6. सत्य और न्याय


"क्या आप मुझे बता सकते हैं कि मुझ जैसे शांतिप्रिय इन्सान को इस आज़ाद देश में सत्य और न्याय कहाँ मिलेंगे?" वह आदमी, जिसकी दाढ़ी बढ़ गई थी, जो बहुत दिनों से भूखा और प्यासा था, जगह-जगह जाकर यही सवाल पूछता। लोग हँस देते, पागल कहते। कभी-कभी तो बच्चे उस पर पत्थर बरसा देते। अपने इस सवाल को लेकर वह शिक्षकों, डॉक्टरों, वकीलों, जजों के पास जा चुका था। सभी उस पर हँसे थे, जवाब किसी ने नहीं दिया था।
आख़िर वह सत्य और न्याय की तलाश में जंगल में निकल गया। उसने घास में, पेड़ों में, फूलों में, कांँटों में सब जगह सत्य और न्याय को ढूँढ़ा। जंगल में उसे एक चरवाहा मिला। चरवाहे ने उससे जानना चाहा कि वह इन पेड़-पौधों में क्या ढूंँढ़ रहा है। चरवाहे से उसने वही प्रश्न पूछा। चरवाहा हंँस दिया, "सत्य और न्याय जंगल में थोड़े ही मिलेंगे। सत्य और न्याय तो लोगों के व्यवहार और कर्म में होता है। तुम्हारे सवाल का जवाब तो लोगों में ही मिलेगा।"
"किसी ने भी जवाब नहीं दिया। सुना है, तुम्हारी तो सितारों से बात होती है। चरवाहे जब जंगल में भटक जाते हैं तो सितारे उन्हें रास्ता दिखाते हैं।"
"कभी ऐसा होता होगा, अब नहीं होता। अब तो शायद पुजारियों की बात ही सितारों से होती होगी।"
वह आदमी देवालय में पुजारी के पास पहुंँचा। पुजारी ने उसे बैठाया, पानी पिलवाया और फिर पूछा, "भूखे हो?"
"नहीं।"
"तो फिर क्या चाहते हो?"
"क्या आप मुझे बता सकते हैं कि इस आज़ाद देश में सत्य और न्याय कहांँ मिलेंगे? मैंने सुना है आप सितारों से बात कर सकते हैं। आप ज़रूर मुझे बता सकेंगे।"
"अवश्य बताऊंँगा, थोड़ा धैर्य रखो।" पुजारी ने सेवक को आवाज़ देकर एक जूट का बोरा मंँगवाया और उस आदमी से कहा, "इस बोरे में घुसो।" वह आदमी चुपचाप बोरे में घुस कर उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। पुजारी मौन था और उस आदमी को सांँस लेने में दिक़्क़त होने लगी थी। वह बोरे में से चिल्लाया, "मुझे बाहर निकालो, मेरा दम घुटा जा रहा है।"
"निश्चिंत रहो, तुम मरोगे नहीं। बोरे के छिद्रों में से इतनी हवा आ रही है कि तुम ज़िन्दा रह सको। देश के बहुत से लोगों को तो इतनी भी हवा सुलभ नहीं है, फिर भी उन्होंने कभी इतना ख़तरनाक सवाल नहीं पूछा। मुझे तुम्हारे प्रश्न में देशद्रोह और बग़ावत की बू आ रही है। इतना तो तुम जानते ही होगे कि सच्चा प्रभुभक्त सच्चा राजभक्त भी होता है। मेरा कर्तव्य मैंने पूरा किया। अब राजा तुम्हारा निर्णय करेंगे।"
और फिर उस बोरे को लुढ़काकर उसी क़ैदख़ाने में पहुंँचा दिया गया, जहांँ वैसे ही कई बोरे पड़े हुए थे। उन बोरों में क़ैद लोगों ने भी वैसा ही कोई सवाल पूछा था। क़ैदख़ाने में उसने महसूस किया कि बोरे लुढ़कते हैं, एक दूसरे से टकराते हैं और फिर बोरों के भीतर से हंँसी फूटने लगती है- आशा से भरी निर्भीक हँसी। थोड़ी देर बाद उसकी हंँसी भी सामूहिक हंँसी में शामिल हो गई।
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Saturday, 2 January 2021

किसान आंदोलन में जो मांग उठाना जरूरी है

 किसान आंदोलन में जो मांग उठाना जरूरी है

(संदीप कुमार)

(स्वामीनाथन आयोग ने कहा है कि वर्तमान ग्रामीण संकट का एक प्रमुख कारण भूमि सुधार नहीं करना है। किसान संगठनों को इसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिए।)



किसान आंदोलन अपने उफान पर है। प्रत्येक दिन किसानों में उत्साह का संचार करने के लिए किसान नेता नयी-नयी गतिविधियों का ऐलान कर रहे हैं और उन्हें जमीनी स्तर पर भी लागू कर रहे हैं। आंदोलन के नेताओं ने मंचो से व सरकार के साथ बातचीत में स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू करने की मांग को मजबूती के साथ रखा है। लेकिन, पूरी रिपोर्ट पर नहीं, बस रिपोर्ट के एक हिस्से पर ही जोर शोर से आवाज बुलंद की जा रही है और वह है फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP)। जबकि स्वामीनाथन आयोग ने कहा है कि वर्तमान ग्रामीण संकट का एक प्रमुख कारण भूमि सुधार नहीं करना है। किसान संगठनों को इसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। इसलिये भूमिहीनों व शेड्यूल कास्ट के लोगों को कम से कम जोतने योग्य एक एकड़ जमीन प्राप्त हो यह मांग भी प्रमुखता से उठानी चाहिए। जिससे अपने परिवार के लिए भोजन व पशुओं का चारा जुटाया जा सके। अगर सभी परिवारों को एक-एक एकड़ जोतने योग्य भूमि का वितरण किया जाता है तो इससे लोग अमीर नहीं होंगे बस अपने गुजारे लायक कुछ प्राप्त कर पाएंगे। और जातीय बंधन ढिले होंगे तथा सामाजिक बंदी जैसे सामंती निर्णय भी प्रभावहीन होंगे। लोगों में आत्मसम्मान की भावना बढ़ेगी जिससे मानवीय गरिमा के साथ जिंदगी जिने का अहसास बढ़ेगा। उनकी जिंदगी बेहतर हो इसके लिए कुछ और ज्यादा बेहतर रोजगार तलाशने होंगे।
लेकिन, वर्तमान किसान आंदोलन का नेतृत्व बड़े किसानों व आढतियों के समर्थन से आगे बढ़ रहा है जो अपने वर्गीय चरित्र के हिसाब से जमीन वितरण के सवाल को नहीं उठा रहा है। और यही सबसे बड़ा कारण है कि शेड्यूल कास्ट खुलकर इन जनविरोधी कानूनों की खिलाफत में शामिल नहीं हो पा रही हैं। जमीन की मांग को उठाने की जिम्मेदारी उन किसान नेताओं, छात्रों, लेखकों, पत्रकारों की बनती है जो भारत में जातीय व्यवस्था को समझते हैं और उसे सभ्य समाज में कलंक की तरह देखते हैं। और अम्बेडकरवादी व दलित संगठनों का भी कर्तव्य बनता है कि वर्तमान किसान आंदोलन का समर्थन करते हुए, भूमिहीन वर्ग की जमीन की मांगों को उठाएं ताकि आंदोलन को एक सही दिशा दी जा सके और आगे की ओर एक कदम बढ़ा सकें। 
आज हम सबका कर्तव्य बनता है कि हम अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए शेड्यूल कास्ट में जाएं और उन्हें "तीन कृषि कानून विरोधी" किसान आंदोलन में अपनी जमीन की मांग के साथ शामिल होने का आह्वान करें। जबतक हम सभी वर्गों व जातियों को इस जनांदोलन के साथ नहीं जोड़ पाएंगे तबतक केंद्र सरकार को अपने जनविरोधी निर्णयों को वापिस लेने के लिए भी बाध्य नहीं कर पाएंगे।