Monday 4 January 2021

लघुकथाएं


(प्रोफेसर हरभगवान चावला द्वारा लिखी गई छह लघुकथाओं को हम अभियान के ब्लॉग पर दे रहे हैं जिन्हें पढ़ते हुए हम महसूस कर सकते हैं कि लेखक समाज के प्रति किस तरह से अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह कर सकते हैं। सामाजिक सरोकारों से जुड़ी हुई ये कहानियां हमें वर्तमान दौर में चल रहे संघर्षों को समझने में मदद करती हैं।)



 1. क़िस्से 


जंगल के एक बड़े पेड़ के नीचे हिरणों का झुण्ड जमा था। हमेशा की तरह आज भी चर्चा के केन्द्र में एक शिकारी था। हिरण उसकी चतुराई, उसकी नज़र, उसके अचूक निशाने की तारीफ़ कर रहे थे। तभी झुण्ड के एक हिरण का ध्यान उस हिरण पर गया जो चर्चा से असम्पृक्त चुपचाप बैठा हुआ था। उसने पूछा- किस समाधि में लीन हो मित्र, कुछ बोल ही नहीं रहे हो?
- हम जब भी मिलते हैं, किसी न किसी शिकारी की बहादुरी और नृशंसता का गुणगान करने लगते हैं, यह जानते हुए भी कि इन्हीं शिकारियों की वजह से हमारा अस्तित्व तक समाप्त होने को है। मुझे आश्चर्य होता है कि हम अपने क़ातिलों पर मुग्ध हैं। हम अपने बच्चों को विरासत में क्या दे रहे हैं- कायरता और असहायता। काश, हमने अपने उन साथियों के क़िस्से सुनाए होते, जिन्होंने शिकारियों को नाकों चने चबवा दिए। ऐसा होता तो हम और हमारे बच्चे आज शिकारियों के सामने चुपचाप समर्पण करने की बजाय लड़ रहे होते। हम लड़ते हुए मर जाते तो हमारी मौत गर्व की मौत होती, शिकारी को मार देते तो आने वाली नस्लों के लिए प्रेरणास्रोत होते। कम से कम बिना लड़े मर जाने की शर्मिंदगी का कलंक तो हमारे सर नहीं होता।
अब उस पेड़ के नीचे किसी शिकारी का क़िस्सा नहीं था, चुप्पी थी, जो मुखर हो जाने को आकुल थी।


2. मदारी


एक फ़क़ीर गाँव में आया । बच्चों ने उसे घेर लिया । फ़क़ीर ने अपने झोले में से पकवान निकाले, फूल निकाले, खिलौने निकाले और फिर तृप्त बच्चों को सुन्दर-सुन्दर, क़ीमती रेशमी कपड़ों से सजा दिया । बच्चे अब राजकुमारों जैसे लग रहे थे । वे ख़ुश थे, बार-बार फ़क़ीर को चूमते और तालियाँ बजाते । गाँव के लोग इस दृश्य को देखकर विह्वल हो गये और फ़क़ीर की जय-जयकार करने लगे । फ़क़ीर ने झोला उठाया, सबको प्रणाम किया और अगले गाँव की तरफ़ चल दिया । उसके जादू में बँधी भीड़ भी जय-जयकार करती उसके पीछे-पीछे चल दी । 
फ़क़ीर ने उधर गाँव की सीमा लाँघी कि इधर बच्चे भूख-भूख चिल्लाते हुए रोने लगे । उन्हें इतनी भूख महसूस हो रही थी कि जैसे जन्म के बाद से उन्होंने कुछ भी न खाया हो । सारे फूल, खिलौने और रेशमी वस्त्र भी ग़ायब हो गये थे । आश्चर्य तो यह कि उनके तन के वे पुराने वस्त्र भी अब उनके तन पर न थे । गाँव भर ने इसे क़िस्मत का खेल माना तथा यह तय पाया कि उनकी क़िस्मत के बंद हो गये तालों को वह फ़क़ीर ही खोल सकता है । गाँव उस फ़क़ीर का भक्त हो गया । कोई नहीं समझ पाया कि दरअसल वह फ़क़ीर एक मदारी था और कुछ पलों का करतब दिखा बच्चों के पेट का खाना तथा तन के वस्त्र लूट ले गया था ।


3. पैंतरा


सत्ताधारी दल के एक नेता पर भ्रष्टाचार के बहुत गंभीर आरोप थे। विपक्षी दल लगातार सरकार से इन आरोपों की जाँच करवाने की माँग कर रहे थे। सरकार आरोपों को निराधार बताते हुए विपक्ष को ग़ैरज़िम्मेदार ठहराने में लगी थी। ऐसे में ख़बर आई कि एक बड़े वकील ने नेता पर लगे आरोपों की जाँच करवाने की माँग को लेकर न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की है। नेता के कुछ विरोधी लोग चौपाल में बैठे इस ख़बर पर बात कर रहे थे। एक व्यक्ति ने अख़बार में छपी इस ख़बर को गुनगुनाते हुए पढ़ा और कहा, "अभी सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है। आज भी अच्छे लोग मौजूद हैं। अब देखना, यह नेता बचेगा नहीं। न्यायालय ज़रूर अपनी निगरानी में आरोपों की जाँच करवाएगा।" लोग पूरी तरह आश्वस्त होते, उससे पहले ही एक और व्यक्ति ने कहा, "इस देश के लोग कितने सहज विश्वासी हैं। काश, वैसा ही होता, जैसा आप सोच रहे हैं। आप लोग परिष्कृत न्याय प्रणाली से परिचित नहीं हैं। मैं बताता हूँ कि यह नेता अब आरोपों से मुक्त हो जाएगा।"
"यह कैसे संभव है? उसके विरुद्ध याचिका दायर हुई है, आरोपमुक्त कैसे हो जाएगा?" कुछ लोगों ने एक साथ आपत्ति दर्ज की।
"ध्यान से सुनो मेरी बात। चर्चा थी कि विपक्ष इस नेता के विरुद्ध याचिका दायर करेगा। चर्चा थी कि नहीं?"
"हाँ, चर्चा तो थी।" एक व्यक्ति ने कहा।
"अब इस वकील के बारे में भी जान लीजिये। यह वकील सत्ताधारी दल के बहुत नज़दीक है। विपक्षी दल पूरे सुबूतों के साथ याचिका डालते, उससे पहले ही इस वकील ने अपर्याप्त सुबूतों के साथ याचिका दायर कर दी। अपर्याप्त सुबूतों की बिनाह पर यह याचिका ख़ारिज हो जाएगी। और जब विपक्ष याचिका दायर करेगा तो वह इस आधार पर रद्द हो जाएगी कि इस मामले से सम्बंधित एक याचिका पहले ही रद्द की जा चुकी है, मामले में कोई दम नहीं है, बेवजह न्यायालय का समय नष्ट किया जा रहा है। इस तरह नेता को क्लीन चिट मिल जाएगी। यह और कुछ अन्य वकील पहले कई बार ऐसा कर चुके हैं।"
जज बिक जाते हैं, जज डर जाते हैं, जजों के तबादले हो जाते हैं, जज राजनीतिक सम्बन्धों के कारण ग़लत निर्णय देते हैं- लोग ये बातें अक्सर सुना करते थे और न्याय को लेकर आशंकित हो जाते थे। इस नए पैंतरे की जानकारी ने न्याय के प्रति उनकी आस्था को और डगमगा दिया। एक आदमी सहसा कह उठा, "आम आदमी तो इन्साफ की उम्मीद न ही करे, जिसकी लाठी, उसकी भैंस।"


4. इन्सान का दर्द


लोग काले क़ानून के विरुद्ध सड़कों पर उतर आए थे। शहर में निकलने वाले हर जुलूस में शामलाल शामिल रहते। बेटा उनसे कहता, "हम दूर-दूर तक इस क़ानून की ज़द में नहीं आते, आपको क्या ज़रूरत है दूसरों के फट्टे में टाँग अड़ाने की?" शामलाल का एक ही जवाब होता, "सत्ता एक-एक करके समूहों का शिकार करती है। इन्सान वो जो दूसरे इन्सान का दर्द समझे।" बेटा वरुण वितृष्णा से मुँह बिचका देता।
एक दिन शामलाल को कुछ अन्य लोगों के साथ गिरफ़्तार कर लिया गया। जेल में भी उन लोगों का शांतिपूर्ण विरोध जारी था। पुलिस वालों को उन सबसे कोई शिकायत नहीं थी, बल्कि वे जैसे ही थोड़ा ख़ाली होते, उनके विद्वत्ता से भरे वक्तव्य सुनते, चमत्कृत होते, सहमत होते। एक दिन शामलाल को मालूम हुआ कि थोड़ी देर बाद कुछ और आंदोलनकारी जेल में लाए जा रहे हैं। क़रीब घण्टे भर बाद आंदोलनकारियों ने जेल में प्रवेश किया तो शामलाल को यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि इन लोगों में उसका बेटा भी था। वह चीखा, "अरे तू भी...?"
"हाँ, मैं भी। इन्सान वो जो दूसरे इन्सान का दर्द समझे! याद तो है न यह बात, कि भूल गए?"
दोनों ने एक साथ ठहाका लगाया और एक दूसरे की तरफ़ अँगूठे का विजय चिह्न लहरा दिया।


5. बीसवाँ कोड़ा


(लघुकथा संग्रह 'बीसवाँ कोड़ा' की शीर्षक लघुकथा)

अपने पालतू सफ़ेद कबूतर का पीछा करते हुए राजकुमार कब छोटी रानी के महल में दाख़िल हो गया, उसे पता ही नहीं चला। रानी के महल में राजा के अलावा किसी परिंदे को भी घुसने की इजाज़त नहीं थी, पर यहाँ तो परिंदा ही नहीं, परिंदे का मालिक राजकुमार भी महल में घुस आया था।उस समय रानी वस्त्र बदल रही थी। राजकुमार को रानी के महल में घुसने का दोषी पाया गया। अब वह दोषी था तो सज़ा मिलना भी तय था; लेकिन एक तो राजकुमार, ऊपर से नाबालिग! सो तय किया गया कि राजकुमार को प्रतीकात्मक सज़ा दी जाएगी। हूबहू राजकुमार जैसा रुई का एक पुतला बनाया गया और उस पुतले को बीस कोड़ों की सज़ा सुनाई गई। दरबार में सज़ा देने का सिलसिला आरम्भ हुआ। एक सिपाही जाता, एक कोड़ा मारता, फिर दूसरा जाता, दूसरा कोड़ा मारता। इस तरह उन्नीस कोड़े पूरे हो गए। इस बीच सारे तमाशे को देखता हुआ राजकुमार ख़ामोश बना रहा। कभी उसकी आँखों से कोई आँसू टपक जाता, तो कभी किसी को बहुत धीरे से कूड़ा मारने की रस्म पूरी करते देख उसे हँसी आ जाती। अब बीसवाँ कोड़ा बचा था ।एक सिपाही ने पुतले को कोड़ा मारा। पर यह क्या?पुतले पर कोड़ा पड़ते ही राजकुमार की चीख निकल गई और वह दर्द से बिलबिलाकर दोहरा हो गया। सारे दरबारी हैरान होकर देख रहे थे। राजकुमार की पीठ पर एक धारी थी, जिसमें से लहू रिस रहा था। वज़ीर कुछ देर ध्यान से देखता रहा। उसे सारा माज़रा समझ में आ चुका था । उसने उस सैनिक को बुलाया और गरज कर कहा, " सज़ा के तौर पर कोड़ा मारना तुम्हारा कर्त्तव्य था, पर तुम्हारे मन में गहरा द्वेष भरा था । इसीलिये कोड़ा सीधे राजकुमार की पीठ पर पड़ा और उनकी पीठ पर इतना गहरा घाव हो गया । बताओ, राजकुमार से तुम्हारी क्या व्यक्तिगत शत्रुता है?जल्दी बोलो, वरना सर धड़ से अलग कर दिया जाएगा। सिपाही ने इधर-उधर देखा । सारे सिपाही सर झुकाए खड़े थे। उसने इत्मीनान से वज़ीर की आँखों में आँखें डालकर कहा," मेरी राजधानी में युवाओं को बैल की जगह कोल्हू में जोता जाता है और जब कोई युवा कोल्हू को खींचते हुए बेदम होकर साँस लेने के लिए रुकता है तो उस पर कोड़े बरसाए जाते हैं। कोल्हू में जुतने वाले युवाओं में एक मेरा भी बेटा है। वह रोज़ शाम को जब घर आता है तो उसकी पीठ पर मैं धारियाँ देखता हूँ जिनमें से लहू रिस रहा होता है ।आज जब मैंने राजकुमार के पुतले पर कोड़ा बरसाया तो बरबस मुझे अपने बेटे की पीठ याद आ गई थी।" 


6. सत्य और न्याय


"क्या आप मुझे बता सकते हैं कि मुझ जैसे शांतिप्रिय इन्सान को इस आज़ाद देश में सत्य और न्याय कहाँ मिलेंगे?" वह आदमी, जिसकी दाढ़ी बढ़ गई थी, जो बहुत दिनों से भूखा और प्यासा था, जगह-जगह जाकर यही सवाल पूछता। लोग हँस देते, पागल कहते। कभी-कभी तो बच्चे उस पर पत्थर बरसा देते। अपने इस सवाल को लेकर वह शिक्षकों, डॉक्टरों, वकीलों, जजों के पास जा चुका था। सभी उस पर हँसे थे, जवाब किसी ने नहीं दिया था।
आख़िर वह सत्य और न्याय की तलाश में जंगल में निकल गया। उसने घास में, पेड़ों में, फूलों में, कांँटों में सब जगह सत्य और न्याय को ढूँढ़ा। जंगल में उसे एक चरवाहा मिला। चरवाहे ने उससे जानना चाहा कि वह इन पेड़-पौधों में क्या ढूंँढ़ रहा है। चरवाहे से उसने वही प्रश्न पूछा। चरवाहा हंँस दिया, "सत्य और न्याय जंगल में थोड़े ही मिलेंगे। सत्य और न्याय तो लोगों के व्यवहार और कर्म में होता है। तुम्हारे सवाल का जवाब तो लोगों में ही मिलेगा।"
"किसी ने भी जवाब नहीं दिया। सुना है, तुम्हारी तो सितारों से बात होती है। चरवाहे जब जंगल में भटक जाते हैं तो सितारे उन्हें रास्ता दिखाते हैं।"
"कभी ऐसा होता होगा, अब नहीं होता। अब तो शायद पुजारियों की बात ही सितारों से होती होगी।"
वह आदमी देवालय में पुजारी के पास पहुंँचा। पुजारी ने उसे बैठाया, पानी पिलवाया और फिर पूछा, "भूखे हो?"
"नहीं।"
"तो फिर क्या चाहते हो?"
"क्या आप मुझे बता सकते हैं कि इस आज़ाद देश में सत्य और न्याय कहांँ मिलेंगे? मैंने सुना है आप सितारों से बात कर सकते हैं। आप ज़रूर मुझे बता सकेंगे।"
"अवश्य बताऊंँगा, थोड़ा धैर्य रखो।" पुजारी ने सेवक को आवाज़ देकर एक जूट का बोरा मंँगवाया और उस आदमी से कहा, "इस बोरे में घुसो।" वह आदमी चुपचाप बोरे में घुस कर उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। पुजारी मौन था और उस आदमी को सांँस लेने में दिक़्क़त होने लगी थी। वह बोरे में से चिल्लाया, "मुझे बाहर निकालो, मेरा दम घुटा जा रहा है।"
"निश्चिंत रहो, तुम मरोगे नहीं। बोरे के छिद्रों में से इतनी हवा आ रही है कि तुम ज़िन्दा रह सको। देश के बहुत से लोगों को तो इतनी भी हवा सुलभ नहीं है, फिर भी उन्होंने कभी इतना ख़तरनाक सवाल नहीं पूछा। मुझे तुम्हारे प्रश्न में देशद्रोह और बग़ावत की बू आ रही है। इतना तो तुम जानते ही होगे कि सच्चा प्रभुभक्त सच्चा राजभक्त भी होता है। मेरा कर्तव्य मैंने पूरा किया। अब राजा तुम्हारा निर्णय करेंगे।"
और फिर उस बोरे को लुढ़काकर उसी क़ैदख़ाने में पहुंँचा दिया गया, जहांँ वैसे ही कई बोरे पड़े हुए थे। उन बोरों में क़ैद लोगों ने भी वैसा ही कोई सवाल पूछा था। क़ैदख़ाने में उसने महसूस किया कि बोरे लुढ़कते हैं, एक दूसरे से टकराते हैं और फिर बोरों के भीतर से हंँसी फूटने लगती है- आशा से भरी निर्भीक हँसी। थोड़ी देर बाद उसकी हंँसी भी सामूहिक हंँसी में शामिल हो गई।
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