Wednesday, 31 March 2021

लॉकडाउन का एक साल

 

लॉकडाउन का एक साल
(रजत)


25 मार्च 2021 को देश में सर्वाध्कि लंबे चले लॉकडाउन को एक साल पूरा हो गया है। इस प्रकार के लॉकडाउन कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों के लिए कोई नई बात नहीं हैं, लेकिन देश के अन्य राज्यों के लिए यह एक अभूतपूर्व घटनाक्रम था। पंजाब में आप्रेशन ब्लू स्टार के समय में भी कुछ दिनों के लिए ऐसे ही हालात बने थे जब पूरा पंजाब थम गया था। लेकिन 68 दिन तक देश के पहिए का रुकना कभी भी नहीं हुआ था। 
लॉकडाउन की घोषणा के समय कहा गया था कि वैश्विक महामारी को रोकने के लिए इस सख्त कदम की आवश्यकता है। 25 मार्च, 2020 को देश में 519 केस थे और 68 दिन के लॉकडाउन के बाद, जब चरणबद्ध ढंग से लॉकडाउन को हटाने की प्रक्रिया शुरु की गयी तो केसों की संख्या दो लाख से थोड़ा ही कम थी। इससे भी बढ़ कर विरोधाभास यह है कि जब देश पहली पीक की तरफ जा रहा था, और देश में प्रतिदिन केसों की संख्या 1 लाख के आसपास पंहुच रही थी, तब भी हम चरणबद्ध ढंग से लॉकडाउन को खत्म करने की ओर ही बढ़ रहे थे। 
आंकड़ों से साफ जाहिर हो रहा है कि महामारी को रोकने में लॉकडाउन पूरी तरह असफल साबित हुआ। लेकिन कहा जा सकता है कि अगर लॉकडाउन न हुआ होता तो भारत में कोरोना के केसों के बढ़ने की गति बहुत तेज होती और जिस प्रकार का आधारभूत ढांचा हमारे पास है, उसमें इतनी बड़ी संख्या में केसों को संभालना शायद संभव न होता। मार्च के महीने में हमारे पास न तो पर्याप्त मात्रा में मास्क थे और न ही पीपीई किट। न हमारे पास हस्पतालों में कोरोना मरीजों के लिए बिस्तर थे और न ही तंत्र इस महामारी से निपटने के लिए तैयार था। लॉकडाउन ने इन तैयारियों के लिए हमें समय उपलब्ध करवा दिया और हम बेहतर तरीके से कोरोना से निपट सके। 
लॉकडाउन ने देश को पूरी तरह से रोक कर रख दिया। फैक्टरियां-कारखाने सभी बंद हो गए। सड़कें सुनसान हो गयीं। रेलगाड़ियों के पहिए थम गए। हवाई जहाजों और समुद्री जहाजों की आवाजाही बंद हो गयी। हवा, पानी और जमीन को जहरीला बनाने वाले रसायन बनना बंद हो गए। प्रकृति को अपने ज़ख्मों को सहलाने और भरने का अवसर मिला। इंसान ने प्रकृति को रौंदने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी थी, अब इन दिनों में प्रकृति को उससे राहत मिल गयी। और इतने छोटे से अंतराल में ही हमें अद्भुत नजारे देखने को मिले। देश की नदियों का पानी साफ हो गया। गंगा के ऐसे इलाकों में डाल्फिन मछली दिखाई देने लगी जहां इसकी मौजूदगी के बारे में कुछ महीने पहले तक सोच भी नहीं सकते थे। दिल्ली जैसे शहरों के लोगों को पहली बार महसूस हुआ कि साफ हवा में सांस लेना क्या होता है। सूदूर मैदानी इलाकों से भी हिमालय की बर्फीली चोटियां दिखाई देने लगीं। महसूस होने लगा मानो बसंत लंबे समय तक टिक गयी हो। 
यह सब एक सुकून देने वाला अहसास था कि अगर हम प्रकृति के साथ अभी भी छेड़छाड़ बंद कर दें तो प्रकृति इंसान द्वारा किए गए नुकसान की पूरी तरह भरपाई कर अपनी पुरानी अवस्था में लौट सकती है। औद्योगिक क्रांति के समय से पर्यावरण के विनाश के जिस रास्ते पर दुनिया चल रही है, वह अभी ऐसे मुकाम पर नहीं पंहुची जहां से वापिस लौटने के रास्ते बंद हो गए हों बशर्ते अभी भी इंसान अनुचित छेड़छाड़ बंद कर दे। 
देश में 68 दिन तक पूर्ण लॉकडाउन रहा। प्रधनमंत्री के शब्दों में - 'जो जहां है, वो वहीं रहे।’ यह बेहद डरावना और क्रूर निर्णय था। रात को 8 बजे घोषणा कर दी गयी कि रात्रि 12 बजे से संपूर्ण देश में लॉकडाउन लगा दिया गया है। करोड़ों लोग अलग-अलग जगहों पर फंस गए। सभी उद्योग-धंधे, दुकानें, कल-कारखाने, आर्थिक गतिविधियां बंद हो गयीं। करोड़ों मजदूर जो रोज कमाते हैं, रोज खाते हैं, भुखमरी की कगार पर पंहुच गए। जिन मजदूरों ने पूरे आत्मसम्मान के साथ सूखी रोटी खाकर आज तक गुजारा किया था, इस निर्णय के साथ भीख मांगने के लिए मजबूर हो गए। और फिर शुरु हुआ आधुनिक विश्व का सबसे बड़ा, यंत्रणादायक और अभूतपूर्व पलायन। लाखों-लाख मजदूर अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ सड़कों पर निकल आए- अपने गांव जाने के लिए। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, मुंबई, बैंग्लोर, हैदराबाद, गुजरात जैसे औद्योगिक क्षेत्र जहां बिहार, बंगाल, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उड़ीसा आदि राज्यों से आए करोड़ों प्रवासी मजदूर रोजी-रोटी कमाते हैं, एकाएक इस पलायन के केंद्र बन गए। चूंकि बसें और रेलगाड़ियां बंद थी इसलिए लोग पैदल, साईकल, रिक्शा, ऑटो- जो भी मिला, उस पर निकल पड़े। भूखे-प्यासे, कमजोर लोग जिनमें बुजुर्ग, बीमारों और गर्भवती महिलाओं की भी बहुत बड़ी संख्या थी, एक लंबी यात्रा पर निकल पड़े। कुछ के लिए यह यात्रा 1000-1500 किलोमीटर लंबी भी थी। सैंकड़ों लोग कभी अपने गंतव्य पर नहीं पंहुच पाए। उन्होंने रास्ते में ही भूख-प्यास, बीमारी या दुर्घटनाओं में दम तोड़ दिया। गर्भवती महिलाओं ने रास्ते में ही बच्चों को जना और फिर कुछ घंटे बाद पुनः लंबे अभियान पर निकल पड़ी। छोटे बच्चे अपने सिर पर गठरी लादे अपने मां-बाप के साथ छोटे-छोटे डग भरते हुए अप्रैल-जून के लू भरे तपते उत्तर भारतीय मौसम में कैसे चले हांगे, इसकी कल्पना आज भी सिरहन पैदा करती है। अगर इन अंतहीन और अकथनीय पीड़ा और यंत्रणाओं का दस्तावेजीकरण किया जाए तो यह शायद मानवीय इतिहास की सर्वाधिक पीड़ादायक पलायन यात्राओं में से एक होगी।
लॉकडाउन ने केवल मानवीय त्रास्दी को ही जन्म नहीं दिया, यह अपने आप में बहुत बड़ी आर्थिक त्रास्दी भी थी। 25 मार्च को लॉकडाउन की घोषणा के साथ देश के तमाम उद्योग धंधे बंद हो गए। इसके साथ ही करोड़ों लोग बेरोजगार हो गए। देश की अर्थव्यवस्था में असंगठित क्षेत्र का बहुत बड़ा योगदान है। अधिकांश लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। ये सभी लोग बेरोजगार हो गए। इसके अलावा संगठित क्षेत्र में भी बहुत बड़ी संख्या में रोजगार में कटौती कर दी गयी। केवल सरकारी नौकरी करने वाले लोग अपना रोजगार बचा पाए अन्यथा बाकी सभी के रोजगार या तो छीन लिए गए या उसी काम के लिए उन्हें पहले से बेहद कम वेतन पर काम करने के लिए मजबूर किया गया। पिछले साल की पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था ने जबर्दस्त गोता लगाया था और जीडीपी में लगभग 25% की कमी दर्ज की गयी थी। दिसंबर आने तक भी रोजगार की स्थिति कोरोना पूर्व की स्थिति पर लौट नहीं पाई थी। कोरोना पूर्व के काल से दिसंबर में 50 लाख रोजगार कम थे। इससे भी बढ़ कर जो लोग रोजगार में थे, वे कम वेतन पर काम कर रहे थे। जो पहले स्थायी रोजगार में थे, वे अस्थायी रोजगार में काम करने पर मजबूर थे। महिलाओं की स्थिति और भी शौचनीय है। बेरोजगारी की दर महिलाओं में पुरुषों की तुलना में बहुत अधिक है। महिलाओं में बेरोजगारी एक दूसरी मानवीय त्रास्दी को जन्म देती है जिस पर बात करने से सभी कन्नी काटने लगते हैं। जब महिलाओं को रोजगार नहीं मिलता तो उनके विरूद्ध यौन हिंसा की घटनाएं बढ़ जाती हैं। वे यौन शोषण का शिकार होने लगती हैं। रोजगार न मिलने की स्थिति में अपने भूखे बच्चों का पेट भरने के लिए महिलाओं को किन परिस्थितियों से समझौता करना पड़ता है, इसे समझने के लिए ज्यादा दिमाग लगाने की आवश्यकता नहीं है।  
इस आर्थिक त्रास्दी में जिस क्षेत्र ने जनता को तिनके का सहारा प्रदान किया, वह क्षेत्र है-कृषि क्षेत्र। कृषि क्षेत्र को सरकारें निजी कंपनियों और कारपोरेट्स के हवाले करने की जी तोड़ कोशिश कर रही हैं हालांकि यह कृषि क्षेत्र ही है जिसने साल 2008 के विश्व व्यापी आर्थिक संकट और अब कोरोना काल के बाद के आर्थिक संकट से उबरने में मदद की। यह इसलिए हो पाया क्योंकि भारत में कृषि अभी तक कारपोरेट के हाथों में नहीं गई है। वर्तमान कोरोना संकट के दौरान भी औद्योगिक केंद्रों से ग्रामीण क्षेत्रों में इसलिए पलायन हो सका क्योंकि मजदूरों को भरोसा था कि गांव में एक छत्त और सूखी रोटी उनको मिल पाएगी जो शहर में संभव नहीं थी। यह एक और बड़ा सबक है, अगर कोई सरकार सीखना चाहे कि कृषि क्षेत्र को कारपोरेट के हाथ गिरवी नहीं रखना चाहिए। हालांकि जिस प्रकार मौजूदा केंद्र सरकार तीन कृषि कानूनों को लागू करने पर आमादा है, इसकी संभावना कम ही लग रही है कि वह इस अनुभव से कुछ सीखेगी। 
जहां एक ओर कोरोना ने करोड़ों लोगों के जीवन में भयानक त्रास्दियों को पैदा किया, करोड़ों लोगों को कंगालीकरण की ओर धकेल दिया, वहीं देश और दुनिया की सबसे बड़ी कारपोरेट कंपनियों को मुनाफा कमाने का अवसर भी प्रदान किया। यह कितनी विचित्र बात है कि अनेक बड़े कारपोरेट ने पिछले वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में साल 2019 की तुलना में ज्यादा मुनाफा कमाया। 
लॉकडाउन ने कुछ आर्थिक गतिविधियों को पूरी तरह ठप्प कर दिया जैसे पर्यटन, यात्रा, आदि। जबकि कुछ दूसरी गतिविधियों को अपना कामकाज का तौर तरीका बदलना पड़ा जैसे स्वास्थ्य। अनेक उद्यमों ने ‘घर से काम’ की अवधरणा पर काम करना शुरु किया और कुछ हद तक अपने काम काज को जारी रखने में कामयाब भी हुए। लेकिन इस ‘घर से काम’ की अवधरणा कर्मचारियों में किस खतरनाक स्तर पर अलगाव, अवसाद, कुण्ठा और अकेलेपन की भावना पैदा करने वाली है और इसके क्या दूरगामी परिणाम निकलेंगे, इस पर यह व्यवस्था कुछ सोचेगी, इसकी संभावना कम ही है। कुछ क्षेत्रों को इस त्रास्दी ने फलने-फूलने के नए अवसर भी प्रदान किए जैसे अमेजोन जैसी ई कॉमर्स कंपनियां, पैसे का लेन-देन करने वाले पेटीएम जैसे विविध एप, जोमेटो जैसी कंपनियां आदि। कुछ क्षेत्रों में चीजें बदलने के प्रयास किए गए लेकिन परिणाम निराशाजनक ही रहे हैं जैसे शिक्षा। कुछ समय पहले तक छोटे बच्चों को मोबाइल से दूर रहने की सलाह दी जाती थी लेकिन अब बच्चों को पढ़ाई और परीक्षा के लिए मोबाइल पर निर्भर बना दिया गया। इसका बच्चों की आंखों और मस्तिष्क पर क्या दुष्प्रभाव पड़ने वाला है, इसका अध्ययन कुछ समय बाद ही हो पाएगा। 
लॉकडाउन ने सामाजिक ताने बाने को भी हिला कर रख दिया। महीनों तक लोग अपने घरों में कैद रहे। विशेषकर शहरों में जहां अधिकांश लोगों के पास रहने की जगह बहुत कम होती है, उनके लिए यह समय पीड़ादायक था। महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा की घटनाएं बढ़ गईं। मानसिक रोगों की संख्या बढ़ गईं। बच्चों में चिड़चिड़ापन बढ़ने लगा। उनके सोशल न होने की वजह से मानसिक-शारीरिक विकास में समस्या आने लगी।  
क्या बिना लॉकडाउन किए काम नहीं चल सकता था। बहुत से देशों में लॉकडाउन नहीं किया गया। बहुत से बुद्धिजीवियों का मत है कि लॉकडाउन की आवश्यकता नहीं थी। दूसरी तरफ सरकारी प्रवक्ताओं ने लाखों और करोड़ों के आंकड़े देते हुए दावा किया है कि अगर इतना सख्त लॉकडाउन नहीं लगाया जाता तो देश में कोरोना के केसों की संख्या करोड़ों में होती और मरने वालों के आकड़े जून में ही कई लाख हो गए होते। लेकिन महा पलायन के दौरान लाखों मजदूर सड़कों पर दिखाई दिए थे। ट्रकों, बसों में (जितने भी मिले और जहां भी मिले) लोग एक दूसरे पर चढ़े हुए दिखाई दिए। लेकिन उनकी वजह से कोरोना के केस बढ़ते नहीं देखे गए। हमने यह भी देखा है कि अक्तूबर में त्यौहारों के दौरान बाजारों में जबर्दस्त भीड़ रही थी। देश में इन महीनों के दौरान अनेक स्थानों पर चुनाव हुए हैं जिसमें स्थानीय निकाय चुनावों से लेकर विधनसभा चुनाव और संसद के उपचुनाव तक शामिल हैं। इन चुनावों के दौरान रैलियों में लाखों लोगों को बसों, ट्रकों में भर कर लाया गया। हजारों की संख्या में लोग रैलियों में जुटे। अभी भी बंगाल, आसाम, तमिलनाड, केरल और पुडूचेरी में हो रहे चुनावों में हजारों लोग रैलियों में इक्ट्ठा हो रहे हैं। जिस प्रकार कोविड के नियमों का उल्लंघन हो रहा है, कोरोना के केस उस गति से बढ़ते नजर नहीं आए। कहने का अर्थ यह है कि सरकारी प्रवक्ताओं के आंकड़े सही मानने का भी कोई आधर नहीं है। यद्यपि इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि भीड़-भाड़ वाले इलाके कोरोना को फैलने में मदद करते हैं। 
इस बात का अर्थ यह हुआ कि भीड़ कोरोना को फैलाती तो है लेकिन सरकारी प्रवक्ताओं ने जिस प्रकार का डर कायम कर इतने लंबे चले लॉकडाउन को सही साबित करने की कोशिश की है, वह भी सही नहीं है। 
एक बात तय है कि हमारे पास मार्च 2020 में कोरोना से निपटने की कोई तैयारियां नहीं थीं। देश में कोरोना का पहला केस 28 जनवरी को आ गया था। उसके बाद पूरा एक महीना देश में कोरोना का कोई केस नहीं आया। मार्च 24, 2020 को देश में मात्र 525 केस थे। इसका अर्थ हुआ कि देश में पहला केस रिपोर्ट होने से लेकर लॉकडाउन तक के लगभग दो महीने का समय हमारे पास था, लेकिन तैयारियों के नाम पर हमने सिर्फ ताली और थाली पीटने का काम किया। शायद उस समय मानसिकता यह रही हो कि गर्मियां आने पर अन्य फ्लू केसों की तरह कोरोना की रफ्तार भी धीमी पड़ जाएगी और ताली और थाली की करामात से सरकार अपनी पीठ थपथपा लेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। देश व्यापी लॉकडाउन से पहले एक दिन का जनता कफर्यू लगाया गया था और सरकार के भक्तों को उम्मीद थी कि एक दिन के कफर्यू से कोरोना की कमर तोड़ दी जाएगी। वट्स एप पर उस दिन इस ‘शानदार विचार’ के लिए मोदी को स्वास्थ्य का नोबल प्राइज देने के संदेश भी भेजे जा रहे थे। 
फिर तुरंत-फुरत में बिना सोचे समझे लॉकडाउन लगा दिया गया। शायद सरकार को सलाह देने वाले लोगों को लगा होगा कि 12 घंटे नहीं लेकिन 15 दिन में तो जरूर कोरोना को पस्त कर देंगे। लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ और लॉकडाउन खिंचते-खिंचते पूरे 68 दिन खिंच गया। अगर सरकार ने लॉकडाउन से पहले जनता को संभलने के लिए कुछ दिनों का समय दिया होता ताकि लोग अपने-अपने स्थानों पर पंहुच गए होते तो जिस मानवीय त्रास्दी का सामना करना पड़ा, उसकी भयावहता निश्चित तौर पर कम होती। लॉकडाउन इतने लंबे समय तक तो कतई जरूरी नहीं था। असल में अगर हम पीछे मुड़ कर देखें और फरवरी व मार्च 2020 के महीने हमने तैयारियों पर लगाए होते तो इतनी भयानक मानवीय त्रास्दी की जरूरत नहीं पड़ती। महज गतिविधियों पर कुछ सीमाएं लगा कर, ठीक वैसे जैसे पिछले छः महीने से किया जा रहा है, कोरोना के फैलने की दर को नियंत्रित किया जा सकता था। वर्तमान दौर में जब कोरोना के केस बढ़ने की रफ्तार पुनः बहुत ज्यादा हो गयी है और देश व्यापी दूसरी वेब चल रही है, हम पूर्ण लॉकडाउन के बारे में नहीं सोच रहे हैं। 
काश पहले भी जनता के दुख दर्दों के प्रति ज्यादा संवेदनशीलता और हमदर्दी के साथ सोचा जाता तो इस महामारी से लड़ना इतना कष्टदायक नहीं होता।


Thursday, 18 March 2021

किसान आंदोलन - रागणी

 हैवान दिल्ली म्हं 

(मास्टर दिलशेर 'मांडीकलां')




100 दिन तै बैठे सैं, किसान दिल्ली म्हं!

सुणते नही पुकार उनकी,हैवान दिल्ली म्हं !!


1. गर्मी म्हं आकै बैठ्या , गर्मी आई दोबारा,

हार मानकै उल्टा जाणा, उनको नही गवारा,

300 वीर कुर्बानी देगे , शहादत पथ संवारा,

धक्काशाही होण लागरह्यी, चालै कोन्या चारा-२,

ट्रॉली छोड़ बणाए झौंपड़ी ,मकान दिल्ली म्हं,

कमेरयां के कुचल रहे , अरमान दिल्ली म्हं ।


2. 11 दौर की वार्ता हो ली , कोन्या करी सुणाई,

संशोधन हाम्म कर देवांगे , योहे रट्ट लगाई,

न्यू कहरे कानून ठीक , होगी थारी भलाई,

किसान कहरह्या नही चाहिए , क्यूँ करते धक्काशाही-२,

जाण बुझकै करण लागरह्ये , परेशान दिल्ली म्हं ।

गरीबां गेल्याँ सींग फसारह्ये , धनवान दिल्ली म्हं ।।


3. कारपोरेट घराने कब्जाणा चाह्वैं , खेती बणी निशाना,

खेती लूटगी, रोटी खुसगी ,ना बचण का खान्ना,

कानून रद्द करणे होंगे , चालै नही बहाना,

बच्चे , बूढ़े कफ़न बांधरह्ये , आज देखरह्या जमाना-२,

त्यार होण नै बेठे-२ , कुर्बान दिल्ली म्हं।

हथेली ऊपर लेकै आए , जान दिल्ली म्हं।।


4. सोच्या करते कौण होगा,म्हारे खिलाफ खड्या,

मेहनतकश उठ्या जोश म्हं, थप्पड़ सही जड्या,

दुनिया म्हं आवाज गूंजी,रुक्का देख पड्या,

ठरगल माण्डी बैठ टिकरी,छंद कसूत घड्या,

घमंडी का तोड़ बगाया, अभिमान दिल्ली म्हं।

जनयुद्ध का शुरू होया, अभियान दिल्ली म्हं।।

Friday, 5 March 2021

8 मार्च, अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का इतिहास

   महिला दिवस के मायने

(संदीप कुमार)

(यह लेख अभियान पत्रिका के अंक-95 में प्रकाशित किया गया था। इस लेख के

माध्यम से अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के इतिहास को समझने में मदद मिलती है।

महिला दिवस के इतिहास को समझने के लिए यह लेख स्वयं पढ़ें, दोस्तों को पढ़ने

के लिए प्रेरित करें और इस लेख को ओर ज्यादा बेहतर बनाने के लिए अपने

बहुमूल्य सुझाव दें।)


   

दुनिया के सभी देशों में 8 मार्च  को ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। पर आज शासक वर्गों ने इस दिन का स्वरूप ही बिगाड़ कर रख दिया है। भारत में महिला दिवस को जैसे मनाया जाता है, सबसे पहले हम उस पर चर्चा  करते हैं। आज भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के तमाम देशों को बाजार ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है। हमारा खान-पान, रहन-सहन, चाल-ढ़ाल, तीज-त्योहार, शादी-ब्याह, रश्मों-रिवाज ही नहीं, हमारी हर बात आज बाजार तय कर रहा है। बाजार हमारी जीवन-चर्या, हमारी जिदंगी पर हावी हो गया है। हमारे देश में 8 मार्च सभी सरकारी व गैर-सरकारी शिक्षण संस्थानों-संगठनों-निकायों द्वारा मनाया जाता है। हैसियत के हिसाब से एक कार्यक्रम की चमक-दमक दूसरे कार्यक्रम से कम या ज्यादा हो सकती है। परन्तु सभी जगहों के कार्यक्रमों का रंग-रूप लगभग एक जैसा ही होता है। डांस-गीत, कंपीटीशन, मेंहदी-रंगोली प्रतियोगिता, उछल-कूद, लंगड़ी दौड़ प्रतियोगिता, सरकारी रीतियों-नीतियों (चाहे वे नीतियां महिला-विरोधी ही क्यों न हों) की जय-जयकार बुलाने वाली कुछ गिनी-चुनी महिलाओं को शॉल-साड़ी से सम्मानित करना या फिर ऐसा ही कुछ और। इन्हीं कार्यक्रमों से लगभग सभी महिला-दिवस समारोहों का शुभारंभ-समापन होता है। और संस्थानों द्वारा इस महान दिवस को मना लिये जाने की औपचारिकता पूरी हो जाती है। 

इस बात का किसी व्यक्ति, संस्था या संस्थान को कभी ख्याल तक नहीं आता कि मौजूदा बाजारू अर्थव्यवस्था तथा उसके दलाल शासक वर्गों द्वारा प्रायोजित इस चकाचौंध के पीछे इस महान दिवस के संघर्षों की गाथा को, इसके पवित्र उद्देश्यों को, इसके झण्डे तले दिये गये बलिदानों को कहीं गहरे छुपा दिया जाता है। महिला दिवस को मनाने के पीछे नीहित भावना की, इसके लिए लड़ी गई लड़ाइयों की बात तक नहीं की जाती। इसके पीछे नीहित महिलाओं के बराबरी, समानता, स्वतंत्रता व एक इंसानी जिंदगी जीने के उनके जन्मसिद्ध अधिकार जैसे महान उद्देश्यों का जिक्र तक नहीं किया जाता। छात्र-छात्राओं व युवा पीढ़ी को नहीं बताया जाता कि चिरकाल से महिला-शोषण के विरुद्ध चल रहे संघर्षों की  श्रखला में 8 मार्च 1908 को अमरीका के  न्यूयार्क शहर तथा उसके आसपास के इलाकों में लगभग 15000 महिलाओं ने संगठित होकर काम के घंटे कम करने, अच्छी तनख्वाह देने, मत का अधिकार देने तथा बालश्रम खत्म करने की मांगों को लेकर न्यूयार्क शहर में एक विशाल प्रदर्शन किया था। फिर अगले वर्ष 28 फरवरी को पूरे अमरीका में महिला दिवस मनाया गया था। 

अमरीका की इन घटनाओं से प्रेरित व उत्साहित हो विश्व-प्रसिद्ध क्रांतिकारी जर्मन महिला लुई जिट्स व क्लारा जैटकिन ने कोपेनहेगन (डेनमार्क) में 1910 में आयोजित किये गये ‘समाजवादी कामकाजी महिलाओं का दूसरा अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन’ में महिला दिवस को ‘अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ के रूप में मनाने का प्रस्ताव रखा। प्रस्ताव को 17 देशों से आई 100 से भी ज्यादा महिला प्रतिनिधियों ने अपनी सहमति प्रदान की। परन्तु सम्मेलन ने दिवस को मनाने की कोई तारीख तय नहीं की। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रथम महिला दिवस 19 मार्च, 1911 को आस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी व स्विट्जरलैंड नामक देशों में मनाया गया। दस लाख से भी ज्यादा लोगों ने रैलियों-प्रदर्शनों-सभाओं-गोष्ठियों में भाग लिया। ‘पेरिस कम्यून’ के महान शहीदों की याद में बैनर लगाए गए। महिलाओं को वोट देने का अधिकार, व्यावसायिक प्रशिक्षण में और कार्य-स्थलों पर उनसे भेदभाव खत्म करने तथा महिलाओं को समान वेतन देने के अधिकारों को लेकर आवाज उठायी गयी। आज भी अनेक देशों में जनवादी व लोकतांत्रिक-प्रजातांत्रिक मूल्यों के पक्षधर लोग व संगठन महिला-दिवस को एक संघर्ष-दिवस के रूप में याद करते हैं। 19 मार्च की तारीख जर्मन महिलाओं द्वारा तय की गई थी क्योंकि इसी दिन वहां सन् 1848 में राजा के खिलाफ एक विशाल विद्रोह हुआ था और राजा को कई सुधारों का वायदा करना पड़ा था। 

सन् 1914 में अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की तारीख बदल कर 8 मार्च कर दी गई। यह इस दिन घटी दो महान घटनाओं की याद में किया गया था। पहली घटना 8 मार्च 1857 की थी, जब न्यूयार्क शहर में गारमेंट व कपड़ा उद्योग में काम करने वाली महिलाओं ने विशाल जलूस निकाले तथा धरने दिये थे। उन्होंने काम के घंटे घटाकर 10 करने, महिलाओं को समान अधिकार देने, समान वेतन देने तथा काम करने के अमानवीय हालातों में सुधार करने की मांगें रखी थीं। इस सबके लिए उन्हें सरकार-पुलिस के जुल्म का शिकार होना पड़ा था। दूसरी घटना इसके ठीक 51 वर्ष बाद 8 मार्च, 1908 को न्यूयार्क शहर में ही उन्हीं बहनों की नई पीढ़ी द्वारा किया गया मार्च था। 

कामकाजी महिलाओं का सबसे महत्त्वपूर्ण महिला दिवस 8 मार्च, 1917 (रूसी कलेंडर में 24 फरवरी) को सेंटपीटर्सबर्ग में मनाया गया था। इस दिन रूसी महिलाओं ने रोटी व शान्ति के लिए क्लारा जैटकिन व अलेक्सान्द्रा कोलोन्ताई की अगुवाई में एक हड़ताल का आयोजन किया। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की यह हड़ताल जल्दी ही एक आम विद्रोह में तब्दील हो गई और विश्व प्रसिद्ध रूसी फरवरी-क्रांति की जनक बनी। 

यह है महिला-दिवस की विशेषता व महानता, जिसे मौजूदा व्यवस्थाओं ने नाच-गाने में डुबो कर रख दिया है। इसकी शुरूआत शोषण व गैर-बराबरी के खिलाफ संघर्षों में शहीद हुई महिला साथियों को याद करने तथा उनके अधूरे सपनों को पूरा करने के लिए मनाने हेतु की गई थी, ताकि न्याय व समानता के आधर पर एक स्वस्थ-सुंदर समाज का निर्माण किया जा सके। 

भारत में पहली बार महिला दिवस 8 मार्च, 1943 को ‘सोवियत संघ के मित्रों’ द्वारा बंबई में मनाया गया। बाद में सन् 1950 से ‘भारतीय महिलाओं का फेडरेशन’ लगातार इसे मनाता रहा। परन्तु पूरे देश में महिला दिवस मनाये जाने की शुरूआत 1980 से ही हुई। 

हमारे देश की अनेक महिलाओं ने भी अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता-संग्राम में हिस्सा लिया है। उन्होंने अनेक नेतृत्वकारी भूमिकाएं निभाई हैं। अनेक महिलाओं के नाम तो इतिहास दर्ज ही नहीं कर पाया और वे गुमनाम रहकर ही देश की उत्पीड़ित जनता के लिए शहीद हो गईं और एक नए कल के लिए रास्ते की शुरूआत कर गईं। फिर भी कुछ नाम जो नई पीढ़ियों की प्रेरणा हेतु इतिहास के पन्नों पर अंकित हो गए, मैं उन्हें लेना जरूरी समझता हूँ। 

देश में सबसे पहले सावित्री बाई फुले ने बेहद विपरीत हालातों का सामना करते हुए पुणा (महाराष्ट्र) में महिलाओं को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया। महिला विरोधी, रूढ़िवादी लोगों द्वारा उन्हें हर संभव तरीके से तंग किया गया। उन पर मल फेंका गया, यहां तक कि उन्हें बदचलन तक करार दिया गया। परन्तु अपने उद्देश्य, अपनी सोच व कर्त्तव्य के प्रति वे इस हद तक कृत-संकल्प थीं कि वे डरी नहीं, डिगी नहीं, हटी नहीं। वे डटी रहीं एक अड़िग योद्धा की भांति! यह उनके संघर्षों का ही फल है, जो आज पूरे देश में लड़कियां बेहिचक लड़कों के कंधे-से-कंधा मिलाकर स्कूल-कॉलेजों में शिक्षा ग्रहण कर रही हैं, अपने पैरों पर खड़ी हो रही हैं तथा अपने देश, समाज व कुल मानव जाति की प्रगति में अपना महत्ती योगदान दे रही हैं। ऐसी महान शिक्षिका से हमें आज बहुत कुछ सीखने की जरूरत है, ताकि हम खुद को वैचारिक रूप से मजबूत बना सकें। 

मैडम भीका जी कामा ने सन् 1928 में कलकत्ता में "वूमेन स्टूडेण्ट आर्गेनाइजेशन"
नाम से एक महिला संगठन का गठन किया। यह संगठन महिलाओं को क्रांतिकारी योद्धा बनने का प्रशिक्षण देता था। इसकी सदस्याएं कोरियर की भूमिका निभाती थीं। वे क्रांतिकारियों के लिए हथियार, साहित्य व अन्य सामग्री लाने-ले-जाने के काम को बखूबी निभाती थीं। मैडम भीका जी ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ भारतीय सशस्त्र विद्रोह में एक उल्लेखनीय भूमिका निभाई थी।  
दिसंबर 1931 में शान्ति घोष व सुनीता चौधरी नामक दो वीरांगनाओं ने स्टीवनस नामक एक ब्रिटिश क्लेक्टर से मुलाकात तय की और उसके नजदीक जाकर उसे गोली से उड़ा दिया। इन्हें अण्डेमान द्वीप समूह पर काले पानी की लंबी सजा हुई।
भगतसिंह व चन्द्रशेखर आजाद द्वारा गठित ‘हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ’ में कई महिला क्रांतिकारी थीं। 17 वर्ष की रूपवती जैन दिल्ली स्थित गुप्त बम फैक्टरी की इंचार्ज थी। इससे साफ होता है कि महिलाएं किसी भी जिम्मेदारी को उठाने में पुरुषों से पीछे नहीं रहीं। भगवती चरण वोहरा की जीवन-संगिनी दुर्गा भाभी का नाम भला किसे मालूम नहीं। सांडर्स हत्याकांड के बाद लाहौर से भगतसिंह को अपनी जान की बाजी लगाकर ये ही सुरक्षित निकाल कर ले गई थीं। 
मास्टर सूर्यसेन द्वारा चिटगांव (बंगला देश) में गठित "भारत मुक्ति सेना" में अनेक महिला क्रांतिकारी थीं। हथियार-गोला-बारूद एकत्रित करने हेतु अंग्रेज तोपखानों व बैरकों पर छापे मारने में वे बढ़-चढ़कर भाग लेती थीं। इन्हीं में एक थीं - प्रीतिलता वादेदार। सितंबर 1932 में इन्हांने अफसरों के एक क्लब पर बम फेंका, जिसमें एक अफसर मारा गया और कई घायल हो गये। वे खुद भी घायल हो गई, पर दुश्मन के हाथों पड़ने की बजाय सायनाइड कैप्सूल निगल कर शहीद हो गईं। उनकी साथी कल्पना गिरफ्तार हो गईं, उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई गई। 
आज सत्ता के गलियारों में महिलाओं को फौज में शामिल करने या न करने को लेकर बहस छिड़ी है, जबकि आजाद हिन्द फौज की (रानी झांसी) महिला रेजीमेंट का नेतृत्व कैप्टन लक्ष्मी सहगल के हाथों में था। 
अनेक महिला क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के खिलाफ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़कर भाग लिया और कुर्बानियां दीं। तथाकथित आजादी के बाद के अनेक मुक्ति संघर्षों में भी महिलाओें ने अपनी महत्ती भागेदारी दर्ज की है। 
हमें 8 मार्च को अपने इन महान प्रेरणा-स्त्रोतों को याद करते हुए, उनकी कुर्बानियों को नमन करते हुए, उनके द्वारा आलोकित संघर्ष पथ पर अडिगता से आगे बढ़ते हुए, उनके अधूरे सपनों को पूरा करने हेतु अपने जनवादी संघर्षों को तेज करना है, ताकि एक नई सुबह का आगाज हो सके। आज भी देश में जनवादी मूल्यों के पक्षधर लोग व संगठन इस दिन को एक संघर्ष-दिवस के रूप में मनाते हैं। वे महिलाओं, दलितों, छात्रों, बेरोजगारों व अन्य उत्पीड़ित तबकों की समस्याओं को लेकर विचार गोष्ठियों का आयोजन करते हैं ताकि नए रास्तों की तलाश की जा सके और गुलामी के इस जुए को उतार फेंका जा सके।  जब हम गुलामी या गुलामों का जिक्र करते हैं, तो तीन सत्ताओं की गुलामी के जुए तले दबी महिलाओं का जिक्र करना भूल जाते हैं। हम यह सोचना तक गवारा नहीं करते कि महिलाएं गुलामों में भी गुलाम हैं। महिलाओं पर पहली सत्ता (पितृसत्ता) परिवार की है, जहां सुरक्षा के नाम पर उसे घर में कैद कर दिया गया है। जहां नौकरीपेशा महिला ऑफिस व घर की दोहरी चक्की में पिसती है। जहां वह अपनी कमाई तक को अपनी मर्जी से खर्च नहीं कर सकती। जहां संस्कारों के नाम पर एक बेटी, बहन, पत्नी या मां के रूप में वह अपने पिता, भाई, पति या बेटे की ज्यादतियों को चुपचाप सहन करती है। 
दूसरी सत्ता, महिला विरोधी सामंती रूढ़ियों में जकड़े हमारे समाज की है जो रोज महिला-विरोधी फैंसले सुनाता रहता है। कभी उसे बाल-विवाह करके तो कभी शिक्षा से वंचित करके उत्पीड़ित किया जाता है और कभी पर्दा-प्रथा के पीछे धकेल कर उजाले से महरूम कर दिया जाता है। कभी-कभी तो बेटों की चाह में उसे गर्भ में ही मार दिया जाता है। तीसरी सत्ता, शासक-वर्गों की सत्ता है जो एक वर्ग या समुदाय पर नियंत्रण रखने हेतु, अपनी अंधी लूट को जारी रखने हेतु सेनाओं का इस्तेमाल करती है। और ये सेनाएं समुदाय विशेष को दबाने, उसमें डर पैदा करने हेतु उसकी महिलाओं को अपने वहशी शोषण का शिकार बनाती हैं। उन पर नृशंस अत्याचार करती हैं। जम्मू-कश्मीर, मध्य भारत तथा उत्तर-पूर्व के प्रांत इसके नग्न उदाहरण हैं जहां सुरक्षा बलों द्वारा लड़कियों-महिलाओं से बलात्कार करना व उन्हें मौत के घाट उतारना एक आम बात है। छत्तीसगढ़ की जल-जंगल-जमीन व आदिवासियों के मौलिक अधिकारों के लिए आवाज बुलंद करने वाली सोनी सोरी पर पुलिस अत्याचार की कहानी जगजाहिर है। आज यह एक खुला रहस्य है कि किस तरह दांतेवाड़ा के एस.पी. अमित गर्ग ने उसके गुप्तांगों में पत्थर डलवाकर उसे उत्पीड़ित किया था। यह भी सर्वविदित है कि किस तरह महिला पक्षधर होने का ढोंग रचने वाली सरकार ने अपने इस ‘बहादुर पुलिस अफसर’ को राष्ट्रपति अवार्ड से सम्मानित किया है। ‘आर्म्ड फोर्सिस स्पेशल पॉवर एक्ट’ के विरोध में वर्षों से भूख-हड़ताल पर बैठी इरोम-शर्मिला के संघर्षों को कौन नहीं जानता। पर बड़े-बड़े मंचों से बड़े-बड़े दावे-वादे करने वाली हमारी सरकारों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। 
हम क्या करें? क्या हम भी सरकार व उसके पिछलग्गुओं द्वारा 8 मार्च पर कराए जाते नाच-गानों की चमक-दमक में इसके सच्चे उद्देश्यों को भूल जाएं? इसके संघर्षशील इतिहास को विस्मृत कर दें? या फिर महिला शोषण के तमाम आयामों को ध्वस्त करने हेतु, महिला को एक इन्सान होने की गरिमा प्रदान करने हेतु उसके कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़े हों तथा 8 मार्च के महान दिन को एक संघर्ष दिवस के रूप में मनाते हुए एक सुनहली सुबह का आह्वान करें! यह हमें तय करना होगा।