लॉकडाउन का एक साल
(रजत)
25 मार्च 2021 को देश में सर्वाध्कि लंबे चले लॉकडाउन को एक साल पूरा हो गया है। इस प्रकार के लॉकडाउन कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों के लिए कोई नई बात नहीं हैं, लेकिन देश के अन्य राज्यों के लिए यह एक अभूतपूर्व घटनाक्रम था। पंजाब में आप्रेशन ब्लू स्टार के समय में भी कुछ दिनों के लिए ऐसे ही हालात बने थे जब पूरा पंजाब थम गया था। लेकिन 68 दिन तक देश के पहिए का रुकना कभी भी नहीं हुआ था।
लॉकडाउन की घोषणा के समय कहा गया था कि वैश्विक महामारी को रोकने के लिए इस सख्त कदम की आवश्यकता है। 25 मार्च, 2020 को देश में 519 केस थे और 68 दिन के लॉकडाउन के बाद, जब चरणबद्ध ढंग से लॉकडाउन को हटाने की प्रक्रिया शुरु की गयी तो केसों की संख्या दो लाख से थोड़ा ही कम थी। इससे भी बढ़ कर विरोधाभास यह है कि जब देश पहली पीक की तरफ जा रहा था, और देश में प्रतिदिन केसों की संख्या 1 लाख के आसपास पंहुच रही थी, तब भी हम चरणबद्ध ढंग से लॉकडाउन को खत्म करने की ओर ही बढ़ रहे थे।
आंकड़ों से साफ जाहिर हो रहा है कि महामारी को रोकने में लॉकडाउन पूरी तरह असफल साबित हुआ। लेकिन कहा जा सकता है कि अगर लॉकडाउन न हुआ होता तो भारत में कोरोना के केसों के बढ़ने की गति बहुत तेज होती और जिस प्रकार का आधारभूत ढांचा हमारे पास है, उसमें इतनी बड़ी संख्या में केसों को संभालना शायद संभव न होता। मार्च के महीने में हमारे पास न तो पर्याप्त मात्रा में मास्क थे और न ही पीपीई किट। न हमारे पास हस्पतालों में कोरोना मरीजों के लिए बिस्तर थे और न ही तंत्र इस महामारी से निपटने के लिए तैयार था। लॉकडाउन ने इन तैयारियों के लिए हमें समय उपलब्ध करवा दिया और हम बेहतर तरीके से कोरोना से निपट सके।
लॉकडाउन ने देश को पूरी तरह से रोक कर रख दिया। फैक्टरियां-कारखाने सभी बंद हो गए। सड़कें सुनसान हो गयीं। रेलगाड़ियों के पहिए थम गए। हवाई जहाजों और समुद्री जहाजों की आवाजाही बंद हो गयी। हवा, पानी और जमीन को जहरीला बनाने वाले रसायन बनना बंद हो गए। प्रकृति को अपने ज़ख्मों को सहलाने और भरने का अवसर मिला। इंसान ने प्रकृति को रौंदने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी थी, अब इन दिनों में प्रकृति को उससे राहत मिल गयी। और इतने छोटे से अंतराल में ही हमें अद्भुत नजारे देखने को मिले। देश की नदियों का पानी साफ हो गया। गंगा के ऐसे इलाकों में डाल्फिन मछली दिखाई देने लगी जहां इसकी मौजूदगी के बारे में कुछ महीने पहले तक सोच भी नहीं सकते थे। दिल्ली जैसे शहरों के लोगों को पहली बार महसूस हुआ कि साफ हवा में सांस लेना क्या होता है। सूदूर मैदानी इलाकों से भी हिमालय की बर्फीली चोटियां दिखाई देने लगीं। महसूस होने लगा मानो बसंत लंबे समय तक टिक गयी हो।
यह सब एक सुकून देने वाला अहसास था कि अगर हम प्रकृति के साथ अभी भी छेड़छाड़ बंद कर दें तो प्रकृति इंसान द्वारा किए गए नुकसान की पूरी तरह भरपाई कर अपनी पुरानी अवस्था में लौट सकती है। औद्योगिक क्रांति के समय से पर्यावरण के विनाश के जिस रास्ते पर दुनिया चल रही है, वह अभी ऐसे मुकाम पर नहीं पंहुची जहां से वापिस लौटने के रास्ते बंद हो गए हों बशर्ते अभी भी इंसान अनुचित छेड़छाड़ बंद कर दे।
देश में 68 दिन तक पूर्ण लॉकडाउन रहा। प्रधनमंत्री के शब्दों में - 'जो जहां है, वो वहीं रहे।’ यह बेहद डरावना और क्रूर निर्णय था। रात को 8 बजे घोषणा कर दी गयी कि रात्रि 12 बजे से संपूर्ण देश में लॉकडाउन लगा दिया गया है। करोड़ों लोग अलग-अलग जगहों पर फंस गए। सभी उद्योग-धंधे, दुकानें, कल-कारखाने, आर्थिक गतिविधियां बंद हो गयीं। करोड़ों मजदूर जो रोज कमाते हैं, रोज खाते हैं, भुखमरी की कगार पर पंहुच गए। जिन मजदूरों ने पूरे आत्मसम्मान के साथ सूखी रोटी खाकर आज तक गुजारा किया था, इस निर्णय के साथ भीख मांगने के लिए मजबूर हो गए। और फिर शुरु हुआ आधुनिक विश्व का सबसे बड़ा, यंत्रणादायक और अभूतपूर्व पलायन। लाखों-लाख मजदूर अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ सड़कों पर निकल आए- अपने गांव जाने के लिए। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, मुंबई, बैंग्लोर, हैदराबाद, गुजरात जैसे औद्योगिक क्षेत्र जहां बिहार, बंगाल, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उड़ीसा आदि राज्यों से आए करोड़ों प्रवासी मजदूर रोजी-रोटी कमाते हैं, एकाएक इस पलायन के केंद्र बन गए। चूंकि बसें और रेलगाड़ियां बंद थी इसलिए लोग पैदल, साईकल, रिक्शा, ऑटो- जो भी मिला, उस पर निकल पड़े। भूखे-प्यासे, कमजोर लोग जिनमें बुजुर्ग, बीमारों और गर्भवती महिलाओं की भी बहुत बड़ी संख्या थी, एक लंबी यात्रा पर निकल पड़े। कुछ के लिए यह यात्रा 1000-1500 किलोमीटर लंबी भी थी। सैंकड़ों लोग कभी अपने गंतव्य पर नहीं पंहुच पाए। उन्होंने रास्ते में ही भूख-प्यास, बीमारी या दुर्घटनाओं में दम तोड़ दिया। गर्भवती महिलाओं ने रास्ते में ही बच्चों को जना और फिर कुछ घंटे बाद पुनः लंबे अभियान पर निकल पड़ी। छोटे बच्चे अपने सिर पर गठरी लादे अपने मां-बाप के साथ छोटे-छोटे डग भरते हुए अप्रैल-जून के लू भरे तपते उत्तर भारतीय मौसम में कैसे चले हांगे, इसकी कल्पना आज भी सिरहन पैदा करती है। अगर इन अंतहीन और अकथनीय पीड़ा और यंत्रणाओं का दस्तावेजीकरण किया जाए तो यह शायद मानवीय इतिहास की सर्वाधिक पीड़ादायक पलायन यात्राओं में से एक होगी।
लॉकडाउन ने केवल मानवीय त्रास्दी को ही जन्म नहीं दिया, यह अपने आप में बहुत बड़ी आर्थिक त्रास्दी भी थी। 25 मार्च को लॉकडाउन की घोषणा के साथ देश के तमाम उद्योग धंधे बंद हो गए। इसके साथ ही करोड़ों लोग बेरोजगार हो गए। देश की अर्थव्यवस्था में असंगठित क्षेत्र का बहुत बड़ा योगदान है। अधिकांश लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। ये सभी लोग बेरोजगार हो गए। इसके अलावा संगठित क्षेत्र में भी बहुत बड़ी संख्या में रोजगार में कटौती कर दी गयी। केवल सरकारी नौकरी करने वाले लोग अपना रोजगार बचा पाए अन्यथा बाकी सभी के रोजगार या तो छीन लिए गए या उसी काम के लिए उन्हें पहले से बेहद कम वेतन पर काम करने के लिए मजबूर किया गया। पिछले साल की पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था ने जबर्दस्त गोता लगाया था और जीडीपी में लगभग 25% की कमी दर्ज की गयी थी। दिसंबर आने तक भी रोजगार की स्थिति कोरोना पूर्व की स्थिति पर लौट नहीं पाई थी। कोरोना पूर्व के काल से दिसंबर में 50 लाख रोजगार कम थे। इससे भी बढ़ कर जो लोग रोजगार में थे, वे कम वेतन पर काम कर रहे थे। जो पहले स्थायी रोजगार में थे, वे अस्थायी रोजगार में काम करने पर मजबूर थे। महिलाओं की स्थिति और भी शौचनीय है। बेरोजगारी की दर महिलाओं में पुरुषों की तुलना में बहुत अधिक है। महिलाओं में बेरोजगारी एक दूसरी मानवीय त्रास्दी को जन्म देती है जिस पर बात करने से सभी कन्नी काटने लगते हैं। जब महिलाओं को रोजगार नहीं मिलता तो उनके विरूद्ध यौन हिंसा की घटनाएं बढ़ जाती हैं। वे यौन शोषण का शिकार होने लगती हैं। रोजगार न मिलने की स्थिति में अपने भूखे बच्चों का पेट भरने के लिए महिलाओं को किन परिस्थितियों से समझौता करना पड़ता है, इसे समझने के लिए ज्यादा दिमाग लगाने की आवश्यकता नहीं है।
इस आर्थिक त्रास्दी में जिस क्षेत्र ने जनता को तिनके का सहारा प्रदान किया, वह क्षेत्र है-कृषि क्षेत्र। कृषि क्षेत्र को सरकारें निजी कंपनियों और कारपोरेट्स के हवाले करने की जी तोड़ कोशिश कर रही हैं हालांकि यह कृषि क्षेत्र ही है जिसने साल 2008 के विश्व व्यापी आर्थिक संकट और अब कोरोना काल के बाद के आर्थिक संकट से उबरने में मदद की। यह इसलिए हो पाया क्योंकि भारत में कृषि अभी तक कारपोरेट के हाथों में नहीं गई है। वर्तमान कोरोना संकट के दौरान भी औद्योगिक केंद्रों से ग्रामीण क्षेत्रों में इसलिए पलायन हो सका क्योंकि मजदूरों को भरोसा था कि गांव में एक छत्त और सूखी रोटी उनको मिल पाएगी जो शहर में संभव नहीं थी। यह एक और बड़ा सबक है, अगर कोई सरकार सीखना चाहे कि कृषि क्षेत्र को कारपोरेट के हाथ गिरवी नहीं रखना चाहिए। हालांकि जिस प्रकार मौजूदा केंद्र सरकार तीन कृषि कानूनों को लागू करने पर आमादा है, इसकी संभावना कम ही लग रही है कि वह इस अनुभव से कुछ सीखेगी।
जहां एक ओर कोरोना ने करोड़ों लोगों के जीवन में भयानक त्रास्दियों को पैदा किया, करोड़ों लोगों को कंगालीकरण की ओर धकेल दिया, वहीं देश और दुनिया की सबसे बड़ी कारपोरेट कंपनियों को मुनाफा कमाने का अवसर भी प्रदान किया। यह कितनी विचित्र बात है कि अनेक बड़े कारपोरेट ने पिछले वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में साल 2019 की तुलना में ज्यादा मुनाफा कमाया।
लॉकडाउन ने कुछ आर्थिक गतिविधियों को पूरी तरह ठप्प कर दिया जैसे पर्यटन, यात्रा, आदि। जबकि कुछ दूसरी गतिविधियों को अपना कामकाज का तौर तरीका बदलना पड़ा जैसे स्वास्थ्य। अनेक उद्यमों ने ‘घर से काम’ की अवधरणा पर काम करना शुरु किया और कुछ हद तक अपने काम काज को जारी रखने में कामयाब भी हुए। लेकिन इस ‘घर से काम’ की अवधरणा कर्मचारियों में किस खतरनाक स्तर पर अलगाव, अवसाद, कुण्ठा और अकेलेपन की भावना पैदा करने वाली है और इसके क्या दूरगामी परिणाम निकलेंगे, इस पर यह व्यवस्था कुछ सोचेगी, इसकी संभावना कम ही है। कुछ क्षेत्रों को इस त्रास्दी ने फलने-फूलने के नए अवसर भी प्रदान किए जैसे अमेजोन जैसी ई कॉमर्स कंपनियां, पैसे का लेन-देन करने वाले पेटीएम जैसे विविध एप, जोमेटो जैसी कंपनियां आदि। कुछ क्षेत्रों में चीजें बदलने के प्रयास किए गए लेकिन परिणाम निराशाजनक ही रहे हैं जैसे शिक्षा। कुछ समय पहले तक छोटे बच्चों को मोबाइल से दूर रहने की सलाह दी जाती थी लेकिन अब बच्चों को पढ़ाई और परीक्षा के लिए मोबाइल पर निर्भर बना दिया गया। इसका बच्चों की आंखों और मस्तिष्क पर क्या दुष्प्रभाव पड़ने वाला है, इसका अध्ययन कुछ समय बाद ही हो पाएगा।
लॉकडाउन ने सामाजिक ताने बाने को भी हिला कर रख दिया। महीनों तक लोग अपने घरों में कैद रहे। विशेषकर शहरों में जहां अधिकांश लोगों के पास रहने की जगह बहुत कम होती है, उनके लिए यह समय पीड़ादायक था। महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा की घटनाएं बढ़ गईं। मानसिक रोगों की संख्या बढ़ गईं। बच्चों में चिड़चिड़ापन बढ़ने लगा। उनके सोशल न होने की वजह से मानसिक-शारीरिक विकास में समस्या आने लगी।
क्या बिना लॉकडाउन किए काम नहीं चल सकता था। बहुत से देशों में लॉकडाउन नहीं किया गया। बहुत से बुद्धिजीवियों का मत है कि लॉकडाउन की आवश्यकता नहीं थी। दूसरी तरफ सरकारी प्रवक्ताओं ने लाखों और करोड़ों के आंकड़े देते हुए दावा किया है कि अगर इतना सख्त लॉकडाउन नहीं लगाया जाता तो देश में कोरोना के केसों की संख्या करोड़ों में होती और मरने वालों के आकड़े जून में ही कई लाख हो गए होते। लेकिन महा पलायन के दौरान लाखों मजदूर सड़कों पर दिखाई दिए थे। ट्रकों, बसों में (जितने भी मिले और जहां भी मिले) लोग एक दूसरे पर चढ़े हुए दिखाई दिए। लेकिन उनकी वजह से कोरोना के केस बढ़ते नहीं देखे गए। हमने यह भी देखा है कि अक्तूबर में त्यौहारों के दौरान बाजारों में जबर्दस्त भीड़ रही थी। देश में इन महीनों के दौरान अनेक स्थानों पर चुनाव हुए हैं जिसमें स्थानीय निकाय चुनावों से लेकर विधनसभा चुनाव और संसद के उपचुनाव तक शामिल हैं। इन चुनावों के दौरान रैलियों में लाखों लोगों को बसों, ट्रकों में भर कर लाया गया। हजारों की संख्या में लोग रैलियों में जुटे। अभी भी बंगाल, आसाम, तमिलनाड, केरल और पुडूचेरी में हो रहे चुनावों में हजारों लोग रैलियों में इक्ट्ठा हो रहे हैं। जिस प्रकार कोविड के नियमों का उल्लंघन हो रहा है, कोरोना के केस उस गति से बढ़ते नजर नहीं आए। कहने का अर्थ यह है कि सरकारी प्रवक्ताओं के आंकड़े सही मानने का भी कोई आधर नहीं है। यद्यपि इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि भीड़-भाड़ वाले इलाके कोरोना को फैलने में मदद करते हैं।
इस बात का अर्थ यह हुआ कि भीड़ कोरोना को फैलाती तो है लेकिन सरकारी प्रवक्ताओं ने जिस प्रकार का डर कायम कर इतने लंबे चले लॉकडाउन को सही साबित करने की कोशिश की है, वह भी सही नहीं है।
एक बात तय है कि हमारे पास मार्च 2020 में कोरोना से निपटने की कोई तैयारियां नहीं थीं। देश में कोरोना का पहला केस 28 जनवरी को आ गया था। उसके बाद पूरा एक महीना देश में कोरोना का कोई केस नहीं आया। मार्च 24, 2020 को देश में मात्र 525 केस थे। इसका अर्थ हुआ कि देश में पहला केस रिपोर्ट होने से लेकर लॉकडाउन तक के लगभग दो महीने का समय हमारे पास था, लेकिन तैयारियों के नाम पर हमने सिर्फ ताली और थाली पीटने का काम किया। शायद उस समय मानसिकता यह रही हो कि गर्मियां आने पर अन्य फ्लू केसों की तरह कोरोना की रफ्तार भी धीमी पड़ जाएगी और ताली और थाली की करामात से सरकार अपनी पीठ थपथपा लेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। देश व्यापी लॉकडाउन से पहले एक दिन का जनता कफर्यू लगाया गया था और सरकार के भक्तों को उम्मीद थी कि एक दिन के कफर्यू से कोरोना की कमर तोड़ दी जाएगी। वट्स एप पर उस दिन इस ‘शानदार विचार’ के लिए मोदी को स्वास्थ्य का नोबल प्राइज देने के संदेश भी भेजे जा रहे थे।
फिर तुरंत-फुरत में बिना सोचे समझे लॉकडाउन लगा दिया गया। शायद सरकार को सलाह देने वाले लोगों को लगा होगा कि 12 घंटे नहीं लेकिन 15 दिन में तो जरूर कोरोना को पस्त कर देंगे। लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ और लॉकडाउन खिंचते-खिंचते पूरे 68 दिन खिंच गया। अगर सरकार ने लॉकडाउन से पहले जनता को संभलने के लिए कुछ दिनों का समय दिया होता ताकि लोग अपने-अपने स्थानों पर पंहुच गए होते तो जिस मानवीय त्रास्दी का सामना करना पड़ा, उसकी भयावहता निश्चित तौर पर कम होती। लॉकडाउन इतने लंबे समय तक तो कतई जरूरी नहीं था। असल में अगर हम पीछे मुड़ कर देखें और फरवरी व मार्च 2020 के महीने हमने तैयारियों पर लगाए होते तो इतनी भयानक मानवीय त्रास्दी की जरूरत नहीं पड़ती। महज गतिविधियों पर कुछ सीमाएं लगा कर, ठीक वैसे जैसे पिछले छः महीने से किया जा रहा है, कोरोना के फैलने की दर को नियंत्रित किया जा सकता था। वर्तमान दौर में जब कोरोना के केस बढ़ने की रफ्तार पुनः बहुत ज्यादा हो गयी है और देश व्यापी दूसरी वेब चल रही है, हम पूर्ण लॉकडाउन के बारे में नहीं सोच रहे हैं।
काश पहले भी जनता के दुख दर्दों के प्रति ज्यादा संवेदनशीलता और हमदर्दी के साथ सोचा जाता तो इस महामारी से लड़ना इतना कष्टदायक नहीं होता।
अभियान की राय कोरोना पर स्पष्टता के साथ आना बेहद जरूरी है और इस वजह से यह लेख बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है। लेकिन यहां लेखक के विचारों में ही विरोधभास है। लेख के दूसरे ही पैरे में लेखक लिखता है' लॉक डाउन की घोषणा......खत्म करने की तरफ बढ़ रहे थे।' क्या यहां लेखक यह कहना चाहता है कि उस समय लॉकडाउन नहीं हटाना चाहिए था।
ReplyDeleteअगले पैर में खुद लेखक कहता है 'लेकिन कहा जा सकता है ....... हम बेहतर तरीके से कोरोना से निपट सके।' मतलब यहाँ लेखक खुद भी लॉकडाउन के पक्ष में है और लेखक का मानना है कि सरकार बेहतर तरीकों से कोरोना से निपट सकी।
लेकिन अंत तक आते आते लेखक लिखता है कि बिहार चुनावों में कोरोना नहीं था, बंगाल, असम समेत 5 राज्यों में कोरोना नहीं है। त्यौहारों में कोरोना नहीं था। मतलब कोरोना के फैलने की दर उतनी नहीं है जितनी सरकार इसे बढ़ाचढ़ाकर दिखा रही है लेकिन अगली सांस में फिर से लेखक मानता है कि भीड़ से कोरोना फैलता है। यह तो लेखक ही बताएगा कि कोरोना स्कूली बच्चों और बाजार की भीड़ से फैलता है और चुनावी व धार्मिक भीड़ से नहीं क्योंकि अभी तक भी बिहार और बंगाल से कोरोना की भयावहता के आंकड़े नहीं है।
किसान आंदोलन से कोरोना भी डरता है। यूपी में कुम्भ में भी कोरोना का कोई खतरा सरकार और लेखक को नहीं दिखता। इसका मतलब कोरोना इतना भयानक नहीं है जितना इसे बढ़ा चढ़ा कर दिखाया जा रहा है। अभियान से अपेक्षा की जाती है कि वह सरकार द्वारा कोरोना के खतरे को बढ़ाचढ़ाकर दिखाने की साजिश का पर्दाफाश करती और दोबारा लॉकडाउन लगाने की मंशा का विरोध करती। इसका एक कारण तो सरकार द्वारा विरोध के सभी स्वरों को दबाना है दूसरा कोरोना की वैक्सीन के नाम पर मुनाफाखोर दवा कंपनियों द्वारा अरबों का निवेश किया गया था जो निष्फल जाता। उनके मुनाफे की हवस को पूरा करने के लिए कोरोना की दूसरी लहर का हव्वा खड़ा कर डर का माहौल बनाया जा रहा है ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को वैक्सीन के लिए मजबूर किया जा सके।
अभियान को सरकार की इन साजिशों का विरोध कर दवा कंपनियों द्वारा लोगों का भयादोहन कर वैक्सीन लगा कर मुनाफा कमाने की साजिशों का भंडाफोड़ करना चाहिए और दोबारा लॉकडाउन लगा कर जनता की कमर तोड़ने का विरोध करना चाहिए।
असल में यह लेख का अंतर विरोध नहीं है बल्कि जो तथ्य हमारे सामने हैं उनका विश्लेषण है. मेरे व्यक्तिगत अनुभव ने भी बताया है कि कोरोना गरीब लोगों की बीमारी नहीं है बल्कि यह मध्यम वर्ग व उच्च वर्ग की बीमारी है. यह भीड़ से फैलता है लेकिन बिहार चुनाव में हमें फैलता नजर नहीं आया. शायद इसलिए कि बिहार की जनता की इम्यूनिटी तुलनात्मक रूप से बेहतर है यही बात किसानों के बारे में भी कहीं जा सकती है. लेकिन स्कूली बच्चों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता.
Deleteकोरोना को बढ़ा चढ़ा कर पेश करने को मैं सरकार की मूर्खता मानता हूं, बिना सोचे समझे लिया गया निर्णय। लेकिन यह कहना कि दूसरी लहर का हौवा जान बूझ कर खड़ा किया जा रहा है और असल में कोरोना नहीं है, गलत होगा।
- रजत
आप खुद लॉकडाउन को जरूरी भी बता रहे हैं और कोरोना से बेहतर तरीके से निपटना भी।
ReplyDeleteकोरोना जिस तरह की बीमारी है उससे गरीब लोग ज्यादा प्रभावित होने चाहिए थें लेकिन आपका अनुभव उलट है। गरीब लोगों की इम्युनिटी मजबूत है, इसलिए बिहार में कोरोना नहीं फैला इससे क्या आप यह कहना चाहते हैं कि बिहार, बंगाल एक वर्गीय समाज है और पंजाब के किसान भी बिहार के गरीबों जितने ही गरीब हैं जबकि महाराष्ट्र के तमाम लोग अमीर।
स्कूली बच्चों की इम्युनिटी कमजोर होती है, इसलिये स्कूल कॉलेज बंद कर दिए जाएं और उन्हें बाल श्रम की ओर धकेल दिया जाए।
ReplyDeleteइम्यूनिटी को समझने का प्रयास करें. क्या कारण है कि अमरीका व युरोप में कोरोना से होने वाली मृत्यु दर भारत की तुलना में बहुत ज्यादा है? आप इसका क्या यह अर्थ निकालेंगे कि भारत में स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर है?
ReplyDeleteबच्चो को बाल श्रम की ओर धकेलने की बात कौन कर रहा है?