Friday, 5 March 2021

8 मार्च, अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का इतिहास

   महिला दिवस के मायने

(संदीप कुमार)

(यह लेख अभियान पत्रिका के अंक-95 में प्रकाशित किया गया था। इस लेख के

माध्यम से अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के इतिहास को समझने में मदद मिलती है।

महिला दिवस के इतिहास को समझने के लिए यह लेख स्वयं पढ़ें, दोस्तों को पढ़ने

के लिए प्रेरित करें और इस लेख को ओर ज्यादा बेहतर बनाने के लिए अपने

बहुमूल्य सुझाव दें।)


   

दुनिया के सभी देशों में 8 मार्च  को ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। पर आज शासक वर्गों ने इस दिन का स्वरूप ही बिगाड़ कर रख दिया है। भारत में महिला दिवस को जैसे मनाया जाता है, सबसे पहले हम उस पर चर्चा  करते हैं। आज भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के तमाम देशों को बाजार ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है। हमारा खान-पान, रहन-सहन, चाल-ढ़ाल, तीज-त्योहार, शादी-ब्याह, रश्मों-रिवाज ही नहीं, हमारी हर बात आज बाजार तय कर रहा है। बाजार हमारी जीवन-चर्या, हमारी जिदंगी पर हावी हो गया है। हमारे देश में 8 मार्च सभी सरकारी व गैर-सरकारी शिक्षण संस्थानों-संगठनों-निकायों द्वारा मनाया जाता है। हैसियत के हिसाब से एक कार्यक्रम की चमक-दमक दूसरे कार्यक्रम से कम या ज्यादा हो सकती है। परन्तु सभी जगहों के कार्यक्रमों का रंग-रूप लगभग एक जैसा ही होता है। डांस-गीत, कंपीटीशन, मेंहदी-रंगोली प्रतियोगिता, उछल-कूद, लंगड़ी दौड़ प्रतियोगिता, सरकारी रीतियों-नीतियों (चाहे वे नीतियां महिला-विरोधी ही क्यों न हों) की जय-जयकार बुलाने वाली कुछ गिनी-चुनी महिलाओं को शॉल-साड़ी से सम्मानित करना या फिर ऐसा ही कुछ और। इन्हीं कार्यक्रमों से लगभग सभी महिला-दिवस समारोहों का शुभारंभ-समापन होता है। और संस्थानों द्वारा इस महान दिवस को मना लिये जाने की औपचारिकता पूरी हो जाती है। 

इस बात का किसी व्यक्ति, संस्था या संस्थान को कभी ख्याल तक नहीं आता कि मौजूदा बाजारू अर्थव्यवस्था तथा उसके दलाल शासक वर्गों द्वारा प्रायोजित इस चकाचौंध के पीछे इस महान दिवस के संघर्षों की गाथा को, इसके पवित्र उद्देश्यों को, इसके झण्डे तले दिये गये बलिदानों को कहीं गहरे छुपा दिया जाता है। महिला दिवस को मनाने के पीछे नीहित भावना की, इसके लिए लड़ी गई लड़ाइयों की बात तक नहीं की जाती। इसके पीछे नीहित महिलाओं के बराबरी, समानता, स्वतंत्रता व एक इंसानी जिंदगी जीने के उनके जन्मसिद्ध अधिकार जैसे महान उद्देश्यों का जिक्र तक नहीं किया जाता। छात्र-छात्राओं व युवा पीढ़ी को नहीं बताया जाता कि चिरकाल से महिला-शोषण के विरुद्ध चल रहे संघर्षों की  श्रखला में 8 मार्च 1908 को अमरीका के  न्यूयार्क शहर तथा उसके आसपास के इलाकों में लगभग 15000 महिलाओं ने संगठित होकर काम के घंटे कम करने, अच्छी तनख्वाह देने, मत का अधिकार देने तथा बालश्रम खत्म करने की मांगों को लेकर न्यूयार्क शहर में एक विशाल प्रदर्शन किया था। फिर अगले वर्ष 28 फरवरी को पूरे अमरीका में महिला दिवस मनाया गया था। 

अमरीका की इन घटनाओं से प्रेरित व उत्साहित हो विश्व-प्रसिद्ध क्रांतिकारी जर्मन महिला लुई जिट्स व क्लारा जैटकिन ने कोपेनहेगन (डेनमार्क) में 1910 में आयोजित किये गये ‘समाजवादी कामकाजी महिलाओं का दूसरा अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन’ में महिला दिवस को ‘अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ के रूप में मनाने का प्रस्ताव रखा। प्रस्ताव को 17 देशों से आई 100 से भी ज्यादा महिला प्रतिनिधियों ने अपनी सहमति प्रदान की। परन्तु सम्मेलन ने दिवस को मनाने की कोई तारीख तय नहीं की। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रथम महिला दिवस 19 मार्च, 1911 को आस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी व स्विट्जरलैंड नामक देशों में मनाया गया। दस लाख से भी ज्यादा लोगों ने रैलियों-प्रदर्शनों-सभाओं-गोष्ठियों में भाग लिया। ‘पेरिस कम्यून’ के महान शहीदों की याद में बैनर लगाए गए। महिलाओं को वोट देने का अधिकार, व्यावसायिक प्रशिक्षण में और कार्य-स्थलों पर उनसे भेदभाव खत्म करने तथा महिलाओं को समान वेतन देने के अधिकारों को लेकर आवाज उठायी गयी। आज भी अनेक देशों में जनवादी व लोकतांत्रिक-प्रजातांत्रिक मूल्यों के पक्षधर लोग व संगठन महिला-दिवस को एक संघर्ष-दिवस के रूप में याद करते हैं। 19 मार्च की तारीख जर्मन महिलाओं द्वारा तय की गई थी क्योंकि इसी दिन वहां सन् 1848 में राजा के खिलाफ एक विशाल विद्रोह हुआ था और राजा को कई सुधारों का वायदा करना पड़ा था। 

सन् 1914 में अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की तारीख बदल कर 8 मार्च कर दी गई। यह इस दिन घटी दो महान घटनाओं की याद में किया गया था। पहली घटना 8 मार्च 1857 की थी, जब न्यूयार्क शहर में गारमेंट व कपड़ा उद्योग में काम करने वाली महिलाओं ने विशाल जलूस निकाले तथा धरने दिये थे। उन्होंने काम के घंटे घटाकर 10 करने, महिलाओं को समान अधिकार देने, समान वेतन देने तथा काम करने के अमानवीय हालातों में सुधार करने की मांगें रखी थीं। इस सबके लिए उन्हें सरकार-पुलिस के जुल्म का शिकार होना पड़ा था। दूसरी घटना इसके ठीक 51 वर्ष बाद 8 मार्च, 1908 को न्यूयार्क शहर में ही उन्हीं बहनों की नई पीढ़ी द्वारा किया गया मार्च था। 

कामकाजी महिलाओं का सबसे महत्त्वपूर्ण महिला दिवस 8 मार्च, 1917 (रूसी कलेंडर में 24 फरवरी) को सेंटपीटर्सबर्ग में मनाया गया था। इस दिन रूसी महिलाओं ने रोटी व शान्ति के लिए क्लारा जैटकिन व अलेक्सान्द्रा कोलोन्ताई की अगुवाई में एक हड़ताल का आयोजन किया। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की यह हड़ताल जल्दी ही एक आम विद्रोह में तब्दील हो गई और विश्व प्रसिद्ध रूसी फरवरी-क्रांति की जनक बनी। 

यह है महिला-दिवस की विशेषता व महानता, जिसे मौजूदा व्यवस्थाओं ने नाच-गाने में डुबो कर रख दिया है। इसकी शुरूआत शोषण व गैर-बराबरी के खिलाफ संघर्षों में शहीद हुई महिला साथियों को याद करने तथा उनके अधूरे सपनों को पूरा करने के लिए मनाने हेतु की गई थी, ताकि न्याय व समानता के आधर पर एक स्वस्थ-सुंदर समाज का निर्माण किया जा सके। 

भारत में पहली बार महिला दिवस 8 मार्च, 1943 को ‘सोवियत संघ के मित्रों’ द्वारा बंबई में मनाया गया। बाद में सन् 1950 से ‘भारतीय महिलाओं का फेडरेशन’ लगातार इसे मनाता रहा। परन्तु पूरे देश में महिला दिवस मनाये जाने की शुरूआत 1980 से ही हुई। 

हमारे देश की अनेक महिलाओं ने भी अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता-संग्राम में हिस्सा लिया है। उन्होंने अनेक नेतृत्वकारी भूमिकाएं निभाई हैं। अनेक महिलाओं के नाम तो इतिहास दर्ज ही नहीं कर पाया और वे गुमनाम रहकर ही देश की उत्पीड़ित जनता के लिए शहीद हो गईं और एक नए कल के लिए रास्ते की शुरूआत कर गईं। फिर भी कुछ नाम जो नई पीढ़ियों की प्रेरणा हेतु इतिहास के पन्नों पर अंकित हो गए, मैं उन्हें लेना जरूरी समझता हूँ। 

देश में सबसे पहले सावित्री बाई फुले ने बेहद विपरीत हालातों का सामना करते हुए पुणा (महाराष्ट्र) में महिलाओं को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया। महिला विरोधी, रूढ़िवादी लोगों द्वारा उन्हें हर संभव तरीके से तंग किया गया। उन पर मल फेंका गया, यहां तक कि उन्हें बदचलन तक करार दिया गया। परन्तु अपने उद्देश्य, अपनी सोच व कर्त्तव्य के प्रति वे इस हद तक कृत-संकल्प थीं कि वे डरी नहीं, डिगी नहीं, हटी नहीं। वे डटी रहीं एक अड़िग योद्धा की भांति! यह उनके संघर्षों का ही फल है, जो आज पूरे देश में लड़कियां बेहिचक लड़कों के कंधे-से-कंधा मिलाकर स्कूल-कॉलेजों में शिक्षा ग्रहण कर रही हैं, अपने पैरों पर खड़ी हो रही हैं तथा अपने देश, समाज व कुल मानव जाति की प्रगति में अपना महत्ती योगदान दे रही हैं। ऐसी महान शिक्षिका से हमें आज बहुत कुछ सीखने की जरूरत है, ताकि हम खुद को वैचारिक रूप से मजबूत बना सकें। 

मैडम भीका जी कामा ने सन् 1928 में कलकत्ता में "वूमेन स्टूडेण्ट आर्गेनाइजेशन"
नाम से एक महिला संगठन का गठन किया। यह संगठन महिलाओं को क्रांतिकारी योद्धा बनने का प्रशिक्षण देता था। इसकी सदस्याएं कोरियर की भूमिका निभाती थीं। वे क्रांतिकारियों के लिए हथियार, साहित्य व अन्य सामग्री लाने-ले-जाने के काम को बखूबी निभाती थीं। मैडम भीका जी ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ भारतीय सशस्त्र विद्रोह में एक उल्लेखनीय भूमिका निभाई थी।  
दिसंबर 1931 में शान्ति घोष व सुनीता चौधरी नामक दो वीरांगनाओं ने स्टीवनस नामक एक ब्रिटिश क्लेक्टर से मुलाकात तय की और उसके नजदीक जाकर उसे गोली से उड़ा दिया। इन्हें अण्डेमान द्वीप समूह पर काले पानी की लंबी सजा हुई।
भगतसिंह व चन्द्रशेखर आजाद द्वारा गठित ‘हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ’ में कई महिला क्रांतिकारी थीं। 17 वर्ष की रूपवती जैन दिल्ली स्थित गुप्त बम फैक्टरी की इंचार्ज थी। इससे साफ होता है कि महिलाएं किसी भी जिम्मेदारी को उठाने में पुरुषों से पीछे नहीं रहीं। भगवती चरण वोहरा की जीवन-संगिनी दुर्गा भाभी का नाम भला किसे मालूम नहीं। सांडर्स हत्याकांड के बाद लाहौर से भगतसिंह को अपनी जान की बाजी लगाकर ये ही सुरक्षित निकाल कर ले गई थीं। 
मास्टर सूर्यसेन द्वारा चिटगांव (बंगला देश) में गठित "भारत मुक्ति सेना" में अनेक महिला क्रांतिकारी थीं। हथियार-गोला-बारूद एकत्रित करने हेतु अंग्रेज तोपखानों व बैरकों पर छापे मारने में वे बढ़-चढ़कर भाग लेती थीं। इन्हीं में एक थीं - प्रीतिलता वादेदार। सितंबर 1932 में इन्हांने अफसरों के एक क्लब पर बम फेंका, जिसमें एक अफसर मारा गया और कई घायल हो गये। वे खुद भी घायल हो गई, पर दुश्मन के हाथों पड़ने की बजाय सायनाइड कैप्सूल निगल कर शहीद हो गईं। उनकी साथी कल्पना गिरफ्तार हो गईं, उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई गई। 
आज सत्ता के गलियारों में महिलाओं को फौज में शामिल करने या न करने को लेकर बहस छिड़ी है, जबकि आजाद हिन्द फौज की (रानी झांसी) महिला रेजीमेंट का नेतृत्व कैप्टन लक्ष्मी सहगल के हाथों में था। 
अनेक महिला क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के खिलाफ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़कर भाग लिया और कुर्बानियां दीं। तथाकथित आजादी के बाद के अनेक मुक्ति संघर्षों में भी महिलाओें ने अपनी महत्ती भागेदारी दर्ज की है। 
हमें 8 मार्च को अपने इन महान प्रेरणा-स्त्रोतों को याद करते हुए, उनकी कुर्बानियों को नमन करते हुए, उनके द्वारा आलोकित संघर्ष पथ पर अडिगता से आगे बढ़ते हुए, उनके अधूरे सपनों को पूरा करने हेतु अपने जनवादी संघर्षों को तेज करना है, ताकि एक नई सुबह का आगाज हो सके। आज भी देश में जनवादी मूल्यों के पक्षधर लोग व संगठन इस दिन को एक संघर्ष-दिवस के रूप में मनाते हैं। वे महिलाओं, दलितों, छात्रों, बेरोजगारों व अन्य उत्पीड़ित तबकों की समस्याओं को लेकर विचार गोष्ठियों का आयोजन करते हैं ताकि नए रास्तों की तलाश की जा सके और गुलामी के इस जुए को उतार फेंका जा सके।  जब हम गुलामी या गुलामों का जिक्र करते हैं, तो तीन सत्ताओं की गुलामी के जुए तले दबी महिलाओं का जिक्र करना भूल जाते हैं। हम यह सोचना तक गवारा नहीं करते कि महिलाएं गुलामों में भी गुलाम हैं। महिलाओं पर पहली सत्ता (पितृसत्ता) परिवार की है, जहां सुरक्षा के नाम पर उसे घर में कैद कर दिया गया है। जहां नौकरीपेशा महिला ऑफिस व घर की दोहरी चक्की में पिसती है। जहां वह अपनी कमाई तक को अपनी मर्जी से खर्च नहीं कर सकती। जहां संस्कारों के नाम पर एक बेटी, बहन, पत्नी या मां के रूप में वह अपने पिता, भाई, पति या बेटे की ज्यादतियों को चुपचाप सहन करती है। 
दूसरी सत्ता, महिला विरोधी सामंती रूढ़ियों में जकड़े हमारे समाज की है जो रोज महिला-विरोधी फैंसले सुनाता रहता है। कभी उसे बाल-विवाह करके तो कभी शिक्षा से वंचित करके उत्पीड़ित किया जाता है और कभी पर्दा-प्रथा के पीछे धकेल कर उजाले से महरूम कर दिया जाता है। कभी-कभी तो बेटों की चाह में उसे गर्भ में ही मार दिया जाता है। तीसरी सत्ता, शासक-वर्गों की सत्ता है जो एक वर्ग या समुदाय पर नियंत्रण रखने हेतु, अपनी अंधी लूट को जारी रखने हेतु सेनाओं का इस्तेमाल करती है। और ये सेनाएं समुदाय विशेष को दबाने, उसमें डर पैदा करने हेतु उसकी महिलाओं को अपने वहशी शोषण का शिकार बनाती हैं। उन पर नृशंस अत्याचार करती हैं। जम्मू-कश्मीर, मध्य भारत तथा उत्तर-पूर्व के प्रांत इसके नग्न उदाहरण हैं जहां सुरक्षा बलों द्वारा लड़कियों-महिलाओं से बलात्कार करना व उन्हें मौत के घाट उतारना एक आम बात है। छत्तीसगढ़ की जल-जंगल-जमीन व आदिवासियों के मौलिक अधिकारों के लिए आवाज बुलंद करने वाली सोनी सोरी पर पुलिस अत्याचार की कहानी जगजाहिर है। आज यह एक खुला रहस्य है कि किस तरह दांतेवाड़ा के एस.पी. अमित गर्ग ने उसके गुप्तांगों में पत्थर डलवाकर उसे उत्पीड़ित किया था। यह भी सर्वविदित है कि किस तरह महिला पक्षधर होने का ढोंग रचने वाली सरकार ने अपने इस ‘बहादुर पुलिस अफसर’ को राष्ट्रपति अवार्ड से सम्मानित किया है। ‘आर्म्ड फोर्सिस स्पेशल पॉवर एक्ट’ के विरोध में वर्षों से भूख-हड़ताल पर बैठी इरोम-शर्मिला के संघर्षों को कौन नहीं जानता। पर बड़े-बड़े मंचों से बड़े-बड़े दावे-वादे करने वाली हमारी सरकारों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। 
हम क्या करें? क्या हम भी सरकार व उसके पिछलग्गुओं द्वारा 8 मार्च पर कराए जाते नाच-गानों की चमक-दमक में इसके सच्चे उद्देश्यों को भूल जाएं? इसके संघर्षशील इतिहास को विस्मृत कर दें? या फिर महिला शोषण के तमाम आयामों को ध्वस्त करने हेतु, महिला को एक इन्सान होने की गरिमा प्रदान करने हेतु उसके कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़े हों तथा 8 मार्च के महान दिन को एक संघर्ष दिवस के रूप में मनाते हुए एक सुनहली सुबह का आह्वान करें! यह हमें तय करना होगा। 

No comments:

Post a Comment