Saturday 13 April 2024

सुनो, ऐ हुक्मरानों

 सुनो, ऐ हुक्मरानों


- सम्राट 



सुनो, ऐ हुक्मरानों

हमें पता है सबकुछ है तुम्हारे पास

धन, दौलत, अखबार, मीडिया चैनल

शानो-शौकत, हथियार, गोला-बारूद, तोपें

और मुस्तैद सिपाहियों की विशाल फौज

जो एक ही झटके में पैरों तले रौंद सकती है 

तमाम किसानों, मजदूरों के आंदोलनों को

दलितों, अल्पसंख्यकों व आदिवासियों को भी

फिर क्या कमी है तुम्हारे पास 

कौन रोक सकता है तुम्हारे विजयरथ को



और हम

क्या है हमारे पास 

हम निहत्थे, बेबस, लाचार 

कैसे कर सकते हैं तुम्हारा सामना

हमारे पास तो कुछ भी नहीं है

शायद कुछ भी नहीं

सिवाय प्रकृति के शाश्वत नियमों के।


प्रकृति के वो शाश्वत नियम 

जिन्होंने रोम जैसी हुकूमत को भी

इतिहास बना दिया 

जिसके सामने न सिकंदर की चली


न अकबर की

और जिनका सूरज कभी अस्त नहीं होता था 

उन्हें भी अपने घूटने टेकने पड़े।


प्रकृति के स्वाभाविक गति के नियम

जो देते हैं जन्म परिवर्तन को, बदलाव को

जो मानव समाज में पैदा कर देते हैं हलचल

और जन्म देते हैं 

विद्रोहों को, बगावतों को, क्रांतियों को

जो नाश कर देते हैं पूराने का

सृजन करते हैं नये का

पहले से बेहतर का

सुनो ऐ हुक्मरानों 

तुम भी इन नियमों से परे नहीं हो।


Thursday 2 March 2023

लघुकथा

 क्या मुझे न्याय मिलेगा?

-जसमिंदर 



रात के 11:30 बजे थे नवंबर का महीना था। सर्दी पड़ रही थी। पुलिस चौकी में बैठे सब इंस्पेक्टर साहब ने पीसीआर के ड्राइवर से पूछा कि कुछ देर गश्त करके आया जाए? ड्राइवर ने हां में सिर हिलाया‌। तभी पास ही बैठे दूसरे सिपाही और एक हेड कांस्टेबल को सब इंस्पेक्टर ने साथ में लिया और गाड़ी की तरफ बढ़ लिये। गाड़ी में बैठ कर पास वाले गांव की तरफ चल पड़े ताकि जायजा लिया जा सके कि गांव में सब कुछ ठीक चल रहा है और कानून व्यवस्था को बनाए रखा जा सके। पुलिस की गाड़ी गांवों में से गुजरते हुए चौथे गांव में पहुंच चुकी थी रात के 12:30 बज चुके थे गांव से निकलते ही सड़क के किनारे उन्होंने ने देखा कि एक लड़का और एक लड़की खड़े हुए हैं। सब इंस्पेक्टर ने सिपाही को आदेश दिया कि जाकर पता करो यहां पर क्या कर रहे हैं? सिपाही लड़का लड़की के पास गया, शक भरी निगाहों से उनकी तरफ देखा और फिर थोड़ा सा रोब की आवाज में बोला," यहां पर क्या कर रहे हो?" इतना सुनकर लड़का घबरा गया। लड़की को कोई जवाब नहीं सूझा।सिपाही के दोबारा पूछने पर लड़के ने बताया कि सर मैं फौजी हूं और यह मेरी दोस्त है। मेरा दूसरा दोस्त खेत में गया हुआ है। उसका पानी का वार है आज का, वह भी कुछ ही देर में आ रहा होगा । उसके आते ही हम घर चले जाएंगे।लेकिन सिपाही फिर से गुस्से में चिल्लाया और लड़की को गाड़ी में जाकर बैठ जाने को कहा। लड़की घबरा गई वहां से हिल ही नहीं पाई । उसका दिमाग नहीं समझ पा रहा था कि क्या किया जाए? कैसे इन पुलिस वालों को समझाया जाये? इतनी ही देर में पुलिस वाले ने दोबारा से गुस्से में उन दोनों से बात की और कहा कि इतनी रात को यहां पर बाहर घूमने का क्या मतलब है? तुम्हें अभी पुलिस स्टेशन चलना होगा और अगर बात नहीं बताई तो तुम्हें केस लगाकर लाक अप में भी डाला जा सकता है। लड़का लड़की और भी घबरा गए , कैसे परिवार और रिश्तेदारों को समझायेंगे? शायद इसी बात का फायदा पुलिस वाला उठा रहा था। काफी सोच विचार कर लड़के ने कहा कि तुम गाड़ी में बैठो मैं आता हूं।लड़की चुपचाप पुलिस की गाड़ी में जाकर बैठ गई इतनी देर में बाकी पुलिस वाले भी उतर के लड़के के पास आ गये लड़के ने पुलिस वालों से गुहार लगाई कि सर प्लीज मुझे जाने दो और जितने लड़के के पास पैसे थे वह पैसे देने का भी ऑफर किया। इतनी देर में सिपाही जो सबसे पहले लड़का लड़की के पास आया था गाड़ी की तरफ गया लड़की की तरफ देखा और कहा कि लेट जाओ। लेकिन लड़की नहीं लेटी।इस पर पुलिस वाले को गुस्सा आ गया उसने सब इंस्पेक्टर की तरफ देखा सब इंस्पेक्टर बिना पलक झपकाये उसकी तरफ देख रहा था। सिपाही ने लड़की को जबरदस्ती लेटा लिया और उसका बलात्कार किया । लड़का और बाकी पुलिस वाले चुपचाप लड़की के साथ हो रही इस जबरदस्ती को देख रहे थे। अपनी हवस पूरी करने के बाद पुलिस वाले ने लड़की का हाथ पकड़ के गाड़ी से नीचे की तरफ धकेल दिया और कहा जा अपने आशिक के पास पहुंच जा। अब लड़की सदमे में रोती हुई लड़के के पास जाकर खड़ी हो गई और पुलिस वाले अपनी गाड़ी में बैठ कर आगे निकल लिए ताकि कानून व्यवस्था को और अच्छे से बना कर रखा जा सके। अब लड़की लड़के से पूछती है,


"मेरे साथ जो उन्होंने किया इसकी शिकायत किसके पास करूं? इसकी उनको क्या सजा मिलेगी ? मुझे न्याय कैसे मिलेगा?"

 

लड़के ने लड़की को समझाते हुए कहा कि चुप रहने में ही फायदा है अगर ज्यादा बोलेंगे तो हमें जेल में भी डाल सकते हैं और पूरा समाज हमीं से सवाल करेगा , हमारे ऊपर ही थूकेगा, तुम्हारे चरित्र पर सवाल उठाएगा। इतना सुनकर लड़की रोने लगी और रोते हुए लड़के की तरफ देखती रही उसके बाद उनका क्या हुआ उन्होंने क्या किया आज तक कुछ नहीं पता।

Tuesday 28 February 2023

कविता

प्यारे पाठकों हम लंबे समय के बाद फिर से "अभियान पत्रिका" के ब्लॉग को शुरू कर रहे हैं। और उम्मीद करते हैं कि आप ब्लॉग के लिए लेख, कविता, कहानी, नाटक, गजल, रागनी, पुस्तक समीक्षा व फिल्म समीक्षा जरूर लिखेंगे। आप पाठकों के सहयोग के बिना हम पत्रिका व ब्लॉग को निरंतरता में जारी रखने में असमर्थ हैं। 

प्रस्तुत कविता "अभियान" के नये अंक-112 में प्रकाशित हुई है। 


 बेटियों ने दरवाजे क्यों कस लिए 

मुकेश 


मेरी बेटी दुनिया भर के 

लोकतंत्र के बारे में पढ़ती है 

विश्वविद्यालय में 

लोकतंत्र के विकास व इतिहास में 

खास रुचि है उसकी 

पर जो दरवाजे की सांकल हम 

या तो खुली ही रखते थे 

या लापरवाही से अटका भर देते थे 

वो उस कुंडी को जोर से कस लेती है 

अकेली होते ही 

और रात सोने से पहले उसे जरूर 

जाँचती है अच्छी तरह 

मैं सोचती हूँ 

ज़्यूं-ज़्यूं लोकतंत्र जवान हुआ 

मेरे देश में 

तो बेटियों ने दरवाजे क्यों कस लिए?  

Wednesday 31 March 2021

लॉकडाउन का एक साल

 

लॉकडाउन का एक साल
(रजत)


25 मार्च 2021 को देश में सर्वाध्कि लंबे चले लॉकडाउन को एक साल पूरा हो गया है। इस प्रकार के लॉकडाउन कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों के लिए कोई नई बात नहीं हैं, लेकिन देश के अन्य राज्यों के लिए यह एक अभूतपूर्व घटनाक्रम था। पंजाब में आप्रेशन ब्लू स्टार के समय में भी कुछ दिनों के लिए ऐसे ही हालात बने थे जब पूरा पंजाब थम गया था। लेकिन 68 दिन तक देश के पहिए का रुकना कभी भी नहीं हुआ था। 
लॉकडाउन की घोषणा के समय कहा गया था कि वैश्विक महामारी को रोकने के लिए इस सख्त कदम की आवश्यकता है। 25 मार्च, 2020 को देश में 519 केस थे और 68 दिन के लॉकडाउन के बाद, जब चरणबद्ध ढंग से लॉकडाउन को हटाने की प्रक्रिया शुरु की गयी तो केसों की संख्या दो लाख से थोड़ा ही कम थी। इससे भी बढ़ कर विरोधाभास यह है कि जब देश पहली पीक की तरफ जा रहा था, और देश में प्रतिदिन केसों की संख्या 1 लाख के आसपास पंहुच रही थी, तब भी हम चरणबद्ध ढंग से लॉकडाउन को खत्म करने की ओर ही बढ़ रहे थे। 
आंकड़ों से साफ जाहिर हो रहा है कि महामारी को रोकने में लॉकडाउन पूरी तरह असफल साबित हुआ। लेकिन कहा जा सकता है कि अगर लॉकडाउन न हुआ होता तो भारत में कोरोना के केसों के बढ़ने की गति बहुत तेज होती और जिस प्रकार का आधारभूत ढांचा हमारे पास है, उसमें इतनी बड़ी संख्या में केसों को संभालना शायद संभव न होता। मार्च के महीने में हमारे पास न तो पर्याप्त मात्रा में मास्क थे और न ही पीपीई किट। न हमारे पास हस्पतालों में कोरोना मरीजों के लिए बिस्तर थे और न ही तंत्र इस महामारी से निपटने के लिए तैयार था। लॉकडाउन ने इन तैयारियों के लिए हमें समय उपलब्ध करवा दिया और हम बेहतर तरीके से कोरोना से निपट सके। 
लॉकडाउन ने देश को पूरी तरह से रोक कर रख दिया। फैक्टरियां-कारखाने सभी बंद हो गए। सड़कें सुनसान हो गयीं। रेलगाड़ियों के पहिए थम गए। हवाई जहाजों और समुद्री जहाजों की आवाजाही बंद हो गयी। हवा, पानी और जमीन को जहरीला बनाने वाले रसायन बनना बंद हो गए। प्रकृति को अपने ज़ख्मों को सहलाने और भरने का अवसर मिला। इंसान ने प्रकृति को रौंदने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी थी, अब इन दिनों में प्रकृति को उससे राहत मिल गयी। और इतने छोटे से अंतराल में ही हमें अद्भुत नजारे देखने को मिले। देश की नदियों का पानी साफ हो गया। गंगा के ऐसे इलाकों में डाल्फिन मछली दिखाई देने लगी जहां इसकी मौजूदगी के बारे में कुछ महीने पहले तक सोच भी नहीं सकते थे। दिल्ली जैसे शहरों के लोगों को पहली बार महसूस हुआ कि साफ हवा में सांस लेना क्या होता है। सूदूर मैदानी इलाकों से भी हिमालय की बर्फीली चोटियां दिखाई देने लगीं। महसूस होने लगा मानो बसंत लंबे समय तक टिक गयी हो। 
यह सब एक सुकून देने वाला अहसास था कि अगर हम प्रकृति के साथ अभी भी छेड़छाड़ बंद कर दें तो प्रकृति इंसान द्वारा किए गए नुकसान की पूरी तरह भरपाई कर अपनी पुरानी अवस्था में लौट सकती है। औद्योगिक क्रांति के समय से पर्यावरण के विनाश के जिस रास्ते पर दुनिया चल रही है, वह अभी ऐसे मुकाम पर नहीं पंहुची जहां से वापिस लौटने के रास्ते बंद हो गए हों बशर्ते अभी भी इंसान अनुचित छेड़छाड़ बंद कर दे। 
देश में 68 दिन तक पूर्ण लॉकडाउन रहा। प्रधनमंत्री के शब्दों में - 'जो जहां है, वो वहीं रहे।’ यह बेहद डरावना और क्रूर निर्णय था। रात को 8 बजे घोषणा कर दी गयी कि रात्रि 12 बजे से संपूर्ण देश में लॉकडाउन लगा दिया गया है। करोड़ों लोग अलग-अलग जगहों पर फंस गए। सभी उद्योग-धंधे, दुकानें, कल-कारखाने, आर्थिक गतिविधियां बंद हो गयीं। करोड़ों मजदूर जो रोज कमाते हैं, रोज खाते हैं, भुखमरी की कगार पर पंहुच गए। जिन मजदूरों ने पूरे आत्मसम्मान के साथ सूखी रोटी खाकर आज तक गुजारा किया था, इस निर्णय के साथ भीख मांगने के लिए मजबूर हो गए। और फिर शुरु हुआ आधुनिक विश्व का सबसे बड़ा, यंत्रणादायक और अभूतपूर्व पलायन। लाखों-लाख मजदूर अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ सड़कों पर निकल आए- अपने गांव जाने के लिए। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, मुंबई, बैंग्लोर, हैदराबाद, गुजरात जैसे औद्योगिक क्षेत्र जहां बिहार, बंगाल, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उड़ीसा आदि राज्यों से आए करोड़ों प्रवासी मजदूर रोजी-रोटी कमाते हैं, एकाएक इस पलायन के केंद्र बन गए। चूंकि बसें और रेलगाड़ियां बंद थी इसलिए लोग पैदल, साईकल, रिक्शा, ऑटो- जो भी मिला, उस पर निकल पड़े। भूखे-प्यासे, कमजोर लोग जिनमें बुजुर्ग, बीमारों और गर्भवती महिलाओं की भी बहुत बड़ी संख्या थी, एक लंबी यात्रा पर निकल पड़े। कुछ के लिए यह यात्रा 1000-1500 किलोमीटर लंबी भी थी। सैंकड़ों लोग कभी अपने गंतव्य पर नहीं पंहुच पाए। उन्होंने रास्ते में ही भूख-प्यास, बीमारी या दुर्घटनाओं में दम तोड़ दिया। गर्भवती महिलाओं ने रास्ते में ही बच्चों को जना और फिर कुछ घंटे बाद पुनः लंबे अभियान पर निकल पड़ी। छोटे बच्चे अपने सिर पर गठरी लादे अपने मां-बाप के साथ छोटे-छोटे डग भरते हुए अप्रैल-जून के लू भरे तपते उत्तर भारतीय मौसम में कैसे चले हांगे, इसकी कल्पना आज भी सिरहन पैदा करती है। अगर इन अंतहीन और अकथनीय पीड़ा और यंत्रणाओं का दस्तावेजीकरण किया जाए तो यह शायद मानवीय इतिहास की सर्वाधिक पीड़ादायक पलायन यात्राओं में से एक होगी।
लॉकडाउन ने केवल मानवीय त्रास्दी को ही जन्म नहीं दिया, यह अपने आप में बहुत बड़ी आर्थिक त्रास्दी भी थी। 25 मार्च को लॉकडाउन की घोषणा के साथ देश के तमाम उद्योग धंधे बंद हो गए। इसके साथ ही करोड़ों लोग बेरोजगार हो गए। देश की अर्थव्यवस्था में असंगठित क्षेत्र का बहुत बड़ा योगदान है। अधिकांश लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। ये सभी लोग बेरोजगार हो गए। इसके अलावा संगठित क्षेत्र में भी बहुत बड़ी संख्या में रोजगार में कटौती कर दी गयी। केवल सरकारी नौकरी करने वाले लोग अपना रोजगार बचा पाए अन्यथा बाकी सभी के रोजगार या तो छीन लिए गए या उसी काम के लिए उन्हें पहले से बेहद कम वेतन पर काम करने के लिए मजबूर किया गया। पिछले साल की पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था ने जबर्दस्त गोता लगाया था और जीडीपी में लगभग 25% की कमी दर्ज की गयी थी। दिसंबर आने तक भी रोजगार की स्थिति कोरोना पूर्व की स्थिति पर लौट नहीं पाई थी। कोरोना पूर्व के काल से दिसंबर में 50 लाख रोजगार कम थे। इससे भी बढ़ कर जो लोग रोजगार में थे, वे कम वेतन पर काम कर रहे थे। जो पहले स्थायी रोजगार में थे, वे अस्थायी रोजगार में काम करने पर मजबूर थे। महिलाओं की स्थिति और भी शौचनीय है। बेरोजगारी की दर महिलाओं में पुरुषों की तुलना में बहुत अधिक है। महिलाओं में बेरोजगारी एक दूसरी मानवीय त्रास्दी को जन्म देती है जिस पर बात करने से सभी कन्नी काटने लगते हैं। जब महिलाओं को रोजगार नहीं मिलता तो उनके विरूद्ध यौन हिंसा की घटनाएं बढ़ जाती हैं। वे यौन शोषण का शिकार होने लगती हैं। रोजगार न मिलने की स्थिति में अपने भूखे बच्चों का पेट भरने के लिए महिलाओं को किन परिस्थितियों से समझौता करना पड़ता है, इसे समझने के लिए ज्यादा दिमाग लगाने की आवश्यकता नहीं है।  
इस आर्थिक त्रास्दी में जिस क्षेत्र ने जनता को तिनके का सहारा प्रदान किया, वह क्षेत्र है-कृषि क्षेत्र। कृषि क्षेत्र को सरकारें निजी कंपनियों और कारपोरेट्स के हवाले करने की जी तोड़ कोशिश कर रही हैं हालांकि यह कृषि क्षेत्र ही है जिसने साल 2008 के विश्व व्यापी आर्थिक संकट और अब कोरोना काल के बाद के आर्थिक संकट से उबरने में मदद की। यह इसलिए हो पाया क्योंकि भारत में कृषि अभी तक कारपोरेट के हाथों में नहीं गई है। वर्तमान कोरोना संकट के दौरान भी औद्योगिक केंद्रों से ग्रामीण क्षेत्रों में इसलिए पलायन हो सका क्योंकि मजदूरों को भरोसा था कि गांव में एक छत्त और सूखी रोटी उनको मिल पाएगी जो शहर में संभव नहीं थी। यह एक और बड़ा सबक है, अगर कोई सरकार सीखना चाहे कि कृषि क्षेत्र को कारपोरेट के हाथ गिरवी नहीं रखना चाहिए। हालांकि जिस प्रकार मौजूदा केंद्र सरकार तीन कृषि कानूनों को लागू करने पर आमादा है, इसकी संभावना कम ही लग रही है कि वह इस अनुभव से कुछ सीखेगी। 
जहां एक ओर कोरोना ने करोड़ों लोगों के जीवन में भयानक त्रास्दियों को पैदा किया, करोड़ों लोगों को कंगालीकरण की ओर धकेल दिया, वहीं देश और दुनिया की सबसे बड़ी कारपोरेट कंपनियों को मुनाफा कमाने का अवसर भी प्रदान किया। यह कितनी विचित्र बात है कि अनेक बड़े कारपोरेट ने पिछले वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में साल 2019 की तुलना में ज्यादा मुनाफा कमाया। 
लॉकडाउन ने कुछ आर्थिक गतिविधियों को पूरी तरह ठप्प कर दिया जैसे पर्यटन, यात्रा, आदि। जबकि कुछ दूसरी गतिविधियों को अपना कामकाज का तौर तरीका बदलना पड़ा जैसे स्वास्थ्य। अनेक उद्यमों ने ‘घर से काम’ की अवधरणा पर काम करना शुरु किया और कुछ हद तक अपने काम काज को जारी रखने में कामयाब भी हुए। लेकिन इस ‘घर से काम’ की अवधरणा कर्मचारियों में किस खतरनाक स्तर पर अलगाव, अवसाद, कुण्ठा और अकेलेपन की भावना पैदा करने वाली है और इसके क्या दूरगामी परिणाम निकलेंगे, इस पर यह व्यवस्था कुछ सोचेगी, इसकी संभावना कम ही है। कुछ क्षेत्रों को इस त्रास्दी ने फलने-फूलने के नए अवसर भी प्रदान किए जैसे अमेजोन जैसी ई कॉमर्स कंपनियां, पैसे का लेन-देन करने वाले पेटीएम जैसे विविध एप, जोमेटो जैसी कंपनियां आदि। कुछ क्षेत्रों में चीजें बदलने के प्रयास किए गए लेकिन परिणाम निराशाजनक ही रहे हैं जैसे शिक्षा। कुछ समय पहले तक छोटे बच्चों को मोबाइल से दूर रहने की सलाह दी जाती थी लेकिन अब बच्चों को पढ़ाई और परीक्षा के लिए मोबाइल पर निर्भर बना दिया गया। इसका बच्चों की आंखों और मस्तिष्क पर क्या दुष्प्रभाव पड़ने वाला है, इसका अध्ययन कुछ समय बाद ही हो पाएगा। 
लॉकडाउन ने सामाजिक ताने बाने को भी हिला कर रख दिया। महीनों तक लोग अपने घरों में कैद रहे। विशेषकर शहरों में जहां अधिकांश लोगों के पास रहने की जगह बहुत कम होती है, उनके लिए यह समय पीड़ादायक था। महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा की घटनाएं बढ़ गईं। मानसिक रोगों की संख्या बढ़ गईं। बच्चों में चिड़चिड़ापन बढ़ने लगा। उनके सोशल न होने की वजह से मानसिक-शारीरिक विकास में समस्या आने लगी।  
क्या बिना लॉकडाउन किए काम नहीं चल सकता था। बहुत से देशों में लॉकडाउन नहीं किया गया। बहुत से बुद्धिजीवियों का मत है कि लॉकडाउन की आवश्यकता नहीं थी। दूसरी तरफ सरकारी प्रवक्ताओं ने लाखों और करोड़ों के आंकड़े देते हुए दावा किया है कि अगर इतना सख्त लॉकडाउन नहीं लगाया जाता तो देश में कोरोना के केसों की संख्या करोड़ों में होती और मरने वालों के आकड़े जून में ही कई लाख हो गए होते। लेकिन महा पलायन के दौरान लाखों मजदूर सड़कों पर दिखाई दिए थे। ट्रकों, बसों में (जितने भी मिले और जहां भी मिले) लोग एक दूसरे पर चढ़े हुए दिखाई दिए। लेकिन उनकी वजह से कोरोना के केस बढ़ते नहीं देखे गए। हमने यह भी देखा है कि अक्तूबर में त्यौहारों के दौरान बाजारों में जबर्दस्त भीड़ रही थी। देश में इन महीनों के दौरान अनेक स्थानों पर चुनाव हुए हैं जिसमें स्थानीय निकाय चुनावों से लेकर विधनसभा चुनाव और संसद के उपचुनाव तक शामिल हैं। इन चुनावों के दौरान रैलियों में लाखों लोगों को बसों, ट्रकों में भर कर लाया गया। हजारों की संख्या में लोग रैलियों में जुटे। अभी भी बंगाल, आसाम, तमिलनाड, केरल और पुडूचेरी में हो रहे चुनावों में हजारों लोग रैलियों में इक्ट्ठा हो रहे हैं। जिस प्रकार कोविड के नियमों का उल्लंघन हो रहा है, कोरोना के केस उस गति से बढ़ते नजर नहीं आए। कहने का अर्थ यह है कि सरकारी प्रवक्ताओं के आंकड़े सही मानने का भी कोई आधर नहीं है। यद्यपि इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि भीड़-भाड़ वाले इलाके कोरोना को फैलने में मदद करते हैं। 
इस बात का अर्थ यह हुआ कि भीड़ कोरोना को फैलाती तो है लेकिन सरकारी प्रवक्ताओं ने जिस प्रकार का डर कायम कर इतने लंबे चले लॉकडाउन को सही साबित करने की कोशिश की है, वह भी सही नहीं है। 
एक बात तय है कि हमारे पास मार्च 2020 में कोरोना से निपटने की कोई तैयारियां नहीं थीं। देश में कोरोना का पहला केस 28 जनवरी को आ गया था। उसके बाद पूरा एक महीना देश में कोरोना का कोई केस नहीं आया। मार्च 24, 2020 को देश में मात्र 525 केस थे। इसका अर्थ हुआ कि देश में पहला केस रिपोर्ट होने से लेकर लॉकडाउन तक के लगभग दो महीने का समय हमारे पास था, लेकिन तैयारियों के नाम पर हमने सिर्फ ताली और थाली पीटने का काम किया। शायद उस समय मानसिकता यह रही हो कि गर्मियां आने पर अन्य फ्लू केसों की तरह कोरोना की रफ्तार भी धीमी पड़ जाएगी और ताली और थाली की करामात से सरकार अपनी पीठ थपथपा लेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। देश व्यापी लॉकडाउन से पहले एक दिन का जनता कफर्यू लगाया गया था और सरकार के भक्तों को उम्मीद थी कि एक दिन के कफर्यू से कोरोना की कमर तोड़ दी जाएगी। वट्स एप पर उस दिन इस ‘शानदार विचार’ के लिए मोदी को स्वास्थ्य का नोबल प्राइज देने के संदेश भी भेजे जा रहे थे। 
फिर तुरंत-फुरत में बिना सोचे समझे लॉकडाउन लगा दिया गया। शायद सरकार को सलाह देने वाले लोगों को लगा होगा कि 12 घंटे नहीं लेकिन 15 दिन में तो जरूर कोरोना को पस्त कर देंगे। लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ और लॉकडाउन खिंचते-खिंचते पूरे 68 दिन खिंच गया। अगर सरकार ने लॉकडाउन से पहले जनता को संभलने के लिए कुछ दिनों का समय दिया होता ताकि लोग अपने-अपने स्थानों पर पंहुच गए होते तो जिस मानवीय त्रास्दी का सामना करना पड़ा, उसकी भयावहता निश्चित तौर पर कम होती। लॉकडाउन इतने लंबे समय तक तो कतई जरूरी नहीं था। असल में अगर हम पीछे मुड़ कर देखें और फरवरी व मार्च 2020 के महीने हमने तैयारियों पर लगाए होते तो इतनी भयानक मानवीय त्रास्दी की जरूरत नहीं पड़ती। महज गतिविधियों पर कुछ सीमाएं लगा कर, ठीक वैसे जैसे पिछले छः महीने से किया जा रहा है, कोरोना के फैलने की दर को नियंत्रित किया जा सकता था। वर्तमान दौर में जब कोरोना के केस बढ़ने की रफ्तार पुनः बहुत ज्यादा हो गयी है और देश व्यापी दूसरी वेब चल रही है, हम पूर्ण लॉकडाउन के बारे में नहीं सोच रहे हैं। 
काश पहले भी जनता के दुख दर्दों के प्रति ज्यादा संवेदनशीलता और हमदर्दी के साथ सोचा जाता तो इस महामारी से लड़ना इतना कष्टदायक नहीं होता।


Thursday 18 March 2021

किसान आंदोलन - रागणी

 हैवान दिल्ली म्हं 

(मास्टर दिलशेर 'मांडीकलां')




100 दिन तै बैठे सैं, किसान दिल्ली म्हं!

सुणते नही पुकार उनकी,हैवान दिल्ली म्हं !!


1. गर्मी म्हं आकै बैठ्या , गर्मी आई दोबारा,

हार मानकै उल्टा जाणा, उनको नही गवारा,

300 वीर कुर्बानी देगे , शहादत पथ संवारा,

धक्काशाही होण लागरह्यी, चालै कोन्या चारा-२,

ट्रॉली छोड़ बणाए झौंपड़ी ,मकान दिल्ली म्हं,

कमेरयां के कुचल रहे , अरमान दिल्ली म्हं ।


2. 11 दौर की वार्ता हो ली , कोन्या करी सुणाई,

संशोधन हाम्म कर देवांगे , योहे रट्ट लगाई,

न्यू कहरे कानून ठीक , होगी थारी भलाई,

किसान कहरह्या नही चाहिए , क्यूँ करते धक्काशाही-२,

जाण बुझकै करण लागरह्ये , परेशान दिल्ली म्हं ।

गरीबां गेल्याँ सींग फसारह्ये , धनवान दिल्ली म्हं ।।


3. कारपोरेट घराने कब्जाणा चाह्वैं , खेती बणी निशाना,

खेती लूटगी, रोटी खुसगी ,ना बचण का खान्ना,

कानून रद्द करणे होंगे , चालै नही बहाना,

बच्चे , बूढ़े कफ़न बांधरह्ये , आज देखरह्या जमाना-२,

त्यार होण नै बेठे-२ , कुर्बान दिल्ली म्हं।

हथेली ऊपर लेकै आए , जान दिल्ली म्हं।।


4. सोच्या करते कौण होगा,म्हारे खिलाफ खड्या,

मेहनतकश उठ्या जोश म्हं, थप्पड़ सही जड्या,

दुनिया म्हं आवाज गूंजी,रुक्का देख पड्या,

ठरगल माण्डी बैठ टिकरी,छंद कसूत घड्या,

घमंडी का तोड़ बगाया, अभिमान दिल्ली म्हं।

जनयुद्ध का शुरू होया, अभियान दिल्ली म्हं।।

Friday 5 March 2021

8 मार्च, अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का इतिहास

   महिला दिवस के मायने

(संदीप कुमार)

(यह लेख अभियान पत्रिका के अंक-95 में प्रकाशित किया गया था। इस लेख के

माध्यम से अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के इतिहास को समझने में मदद मिलती है।

महिला दिवस के इतिहास को समझने के लिए यह लेख स्वयं पढ़ें, दोस्तों को पढ़ने

के लिए प्रेरित करें और इस लेख को ओर ज्यादा बेहतर बनाने के लिए अपने

बहुमूल्य सुझाव दें।)


   

दुनिया के सभी देशों में 8 मार्च  को ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। पर आज शासक वर्गों ने इस दिन का स्वरूप ही बिगाड़ कर रख दिया है। भारत में महिला दिवस को जैसे मनाया जाता है, सबसे पहले हम उस पर चर्चा  करते हैं। आज भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के तमाम देशों को बाजार ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है। हमारा खान-पान, रहन-सहन, चाल-ढ़ाल, तीज-त्योहार, शादी-ब्याह, रश्मों-रिवाज ही नहीं, हमारी हर बात आज बाजार तय कर रहा है। बाजार हमारी जीवन-चर्या, हमारी जिदंगी पर हावी हो गया है। हमारे देश में 8 मार्च सभी सरकारी व गैर-सरकारी शिक्षण संस्थानों-संगठनों-निकायों द्वारा मनाया जाता है। हैसियत के हिसाब से एक कार्यक्रम की चमक-दमक दूसरे कार्यक्रम से कम या ज्यादा हो सकती है। परन्तु सभी जगहों के कार्यक्रमों का रंग-रूप लगभग एक जैसा ही होता है। डांस-गीत, कंपीटीशन, मेंहदी-रंगोली प्रतियोगिता, उछल-कूद, लंगड़ी दौड़ प्रतियोगिता, सरकारी रीतियों-नीतियों (चाहे वे नीतियां महिला-विरोधी ही क्यों न हों) की जय-जयकार बुलाने वाली कुछ गिनी-चुनी महिलाओं को शॉल-साड़ी से सम्मानित करना या फिर ऐसा ही कुछ और। इन्हीं कार्यक्रमों से लगभग सभी महिला-दिवस समारोहों का शुभारंभ-समापन होता है। और संस्थानों द्वारा इस महान दिवस को मना लिये जाने की औपचारिकता पूरी हो जाती है। 

इस बात का किसी व्यक्ति, संस्था या संस्थान को कभी ख्याल तक नहीं आता कि मौजूदा बाजारू अर्थव्यवस्था तथा उसके दलाल शासक वर्गों द्वारा प्रायोजित इस चकाचौंध के पीछे इस महान दिवस के संघर्षों की गाथा को, इसके पवित्र उद्देश्यों को, इसके झण्डे तले दिये गये बलिदानों को कहीं गहरे छुपा दिया जाता है। महिला दिवस को मनाने के पीछे नीहित भावना की, इसके लिए लड़ी गई लड़ाइयों की बात तक नहीं की जाती। इसके पीछे नीहित महिलाओं के बराबरी, समानता, स्वतंत्रता व एक इंसानी जिंदगी जीने के उनके जन्मसिद्ध अधिकार जैसे महान उद्देश्यों का जिक्र तक नहीं किया जाता। छात्र-छात्राओं व युवा पीढ़ी को नहीं बताया जाता कि चिरकाल से महिला-शोषण के विरुद्ध चल रहे संघर्षों की  श्रखला में 8 मार्च 1908 को अमरीका के  न्यूयार्क शहर तथा उसके आसपास के इलाकों में लगभग 15000 महिलाओं ने संगठित होकर काम के घंटे कम करने, अच्छी तनख्वाह देने, मत का अधिकार देने तथा बालश्रम खत्म करने की मांगों को लेकर न्यूयार्क शहर में एक विशाल प्रदर्शन किया था। फिर अगले वर्ष 28 फरवरी को पूरे अमरीका में महिला दिवस मनाया गया था। 

अमरीका की इन घटनाओं से प्रेरित व उत्साहित हो विश्व-प्रसिद्ध क्रांतिकारी जर्मन महिला लुई जिट्स व क्लारा जैटकिन ने कोपेनहेगन (डेनमार्क) में 1910 में आयोजित किये गये ‘समाजवादी कामकाजी महिलाओं का दूसरा अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन’ में महिला दिवस को ‘अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ के रूप में मनाने का प्रस्ताव रखा। प्रस्ताव को 17 देशों से आई 100 से भी ज्यादा महिला प्रतिनिधियों ने अपनी सहमति प्रदान की। परन्तु सम्मेलन ने दिवस को मनाने की कोई तारीख तय नहीं की। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रथम महिला दिवस 19 मार्च, 1911 को आस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी व स्विट्जरलैंड नामक देशों में मनाया गया। दस लाख से भी ज्यादा लोगों ने रैलियों-प्रदर्शनों-सभाओं-गोष्ठियों में भाग लिया। ‘पेरिस कम्यून’ के महान शहीदों की याद में बैनर लगाए गए। महिलाओं को वोट देने का अधिकार, व्यावसायिक प्रशिक्षण में और कार्य-स्थलों पर उनसे भेदभाव खत्म करने तथा महिलाओं को समान वेतन देने के अधिकारों को लेकर आवाज उठायी गयी। आज भी अनेक देशों में जनवादी व लोकतांत्रिक-प्रजातांत्रिक मूल्यों के पक्षधर लोग व संगठन महिला-दिवस को एक संघर्ष-दिवस के रूप में याद करते हैं। 19 मार्च की तारीख जर्मन महिलाओं द्वारा तय की गई थी क्योंकि इसी दिन वहां सन् 1848 में राजा के खिलाफ एक विशाल विद्रोह हुआ था और राजा को कई सुधारों का वायदा करना पड़ा था। 

सन् 1914 में अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की तारीख बदल कर 8 मार्च कर दी गई। यह इस दिन घटी दो महान घटनाओं की याद में किया गया था। पहली घटना 8 मार्च 1857 की थी, जब न्यूयार्क शहर में गारमेंट व कपड़ा उद्योग में काम करने वाली महिलाओं ने विशाल जलूस निकाले तथा धरने दिये थे। उन्होंने काम के घंटे घटाकर 10 करने, महिलाओं को समान अधिकार देने, समान वेतन देने तथा काम करने के अमानवीय हालातों में सुधार करने की मांगें रखी थीं। इस सबके लिए उन्हें सरकार-पुलिस के जुल्म का शिकार होना पड़ा था। दूसरी घटना इसके ठीक 51 वर्ष बाद 8 मार्च, 1908 को न्यूयार्क शहर में ही उन्हीं बहनों की नई पीढ़ी द्वारा किया गया मार्च था। 

कामकाजी महिलाओं का सबसे महत्त्वपूर्ण महिला दिवस 8 मार्च, 1917 (रूसी कलेंडर में 24 फरवरी) को सेंटपीटर्सबर्ग में मनाया गया था। इस दिन रूसी महिलाओं ने रोटी व शान्ति के लिए क्लारा जैटकिन व अलेक्सान्द्रा कोलोन्ताई की अगुवाई में एक हड़ताल का आयोजन किया। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की यह हड़ताल जल्दी ही एक आम विद्रोह में तब्दील हो गई और विश्व प्रसिद्ध रूसी फरवरी-क्रांति की जनक बनी। 

यह है महिला-दिवस की विशेषता व महानता, जिसे मौजूदा व्यवस्थाओं ने नाच-गाने में डुबो कर रख दिया है। इसकी शुरूआत शोषण व गैर-बराबरी के खिलाफ संघर्षों में शहीद हुई महिला साथियों को याद करने तथा उनके अधूरे सपनों को पूरा करने के लिए मनाने हेतु की गई थी, ताकि न्याय व समानता के आधर पर एक स्वस्थ-सुंदर समाज का निर्माण किया जा सके। 

भारत में पहली बार महिला दिवस 8 मार्च, 1943 को ‘सोवियत संघ के मित्रों’ द्वारा बंबई में मनाया गया। बाद में सन् 1950 से ‘भारतीय महिलाओं का फेडरेशन’ लगातार इसे मनाता रहा। परन्तु पूरे देश में महिला दिवस मनाये जाने की शुरूआत 1980 से ही हुई। 

हमारे देश की अनेक महिलाओं ने भी अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता-संग्राम में हिस्सा लिया है। उन्होंने अनेक नेतृत्वकारी भूमिकाएं निभाई हैं। अनेक महिलाओं के नाम तो इतिहास दर्ज ही नहीं कर पाया और वे गुमनाम रहकर ही देश की उत्पीड़ित जनता के लिए शहीद हो गईं और एक नए कल के लिए रास्ते की शुरूआत कर गईं। फिर भी कुछ नाम जो नई पीढ़ियों की प्रेरणा हेतु इतिहास के पन्नों पर अंकित हो गए, मैं उन्हें लेना जरूरी समझता हूँ। 

देश में सबसे पहले सावित्री बाई फुले ने बेहद विपरीत हालातों का सामना करते हुए पुणा (महाराष्ट्र) में महिलाओं को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया। महिला विरोधी, रूढ़िवादी लोगों द्वारा उन्हें हर संभव तरीके से तंग किया गया। उन पर मल फेंका गया, यहां तक कि उन्हें बदचलन तक करार दिया गया। परन्तु अपने उद्देश्य, अपनी सोच व कर्त्तव्य के प्रति वे इस हद तक कृत-संकल्प थीं कि वे डरी नहीं, डिगी नहीं, हटी नहीं। वे डटी रहीं एक अड़िग योद्धा की भांति! यह उनके संघर्षों का ही फल है, जो आज पूरे देश में लड़कियां बेहिचक लड़कों के कंधे-से-कंधा मिलाकर स्कूल-कॉलेजों में शिक्षा ग्रहण कर रही हैं, अपने पैरों पर खड़ी हो रही हैं तथा अपने देश, समाज व कुल मानव जाति की प्रगति में अपना महत्ती योगदान दे रही हैं। ऐसी महान शिक्षिका से हमें आज बहुत कुछ सीखने की जरूरत है, ताकि हम खुद को वैचारिक रूप से मजबूत बना सकें। 

मैडम भीका जी कामा ने सन् 1928 में कलकत्ता में "वूमेन स्टूडेण्ट आर्गेनाइजेशन"
नाम से एक महिला संगठन का गठन किया। यह संगठन महिलाओं को क्रांतिकारी योद्धा बनने का प्रशिक्षण देता था। इसकी सदस्याएं कोरियर की भूमिका निभाती थीं। वे क्रांतिकारियों के लिए हथियार, साहित्य व अन्य सामग्री लाने-ले-जाने के काम को बखूबी निभाती थीं। मैडम भीका जी ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ भारतीय सशस्त्र विद्रोह में एक उल्लेखनीय भूमिका निभाई थी।  
दिसंबर 1931 में शान्ति घोष व सुनीता चौधरी नामक दो वीरांगनाओं ने स्टीवनस नामक एक ब्रिटिश क्लेक्टर से मुलाकात तय की और उसके नजदीक जाकर उसे गोली से उड़ा दिया। इन्हें अण्डेमान द्वीप समूह पर काले पानी की लंबी सजा हुई।
भगतसिंह व चन्द्रशेखर आजाद द्वारा गठित ‘हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ’ में कई महिला क्रांतिकारी थीं। 17 वर्ष की रूपवती जैन दिल्ली स्थित गुप्त बम फैक्टरी की इंचार्ज थी। इससे साफ होता है कि महिलाएं किसी भी जिम्मेदारी को उठाने में पुरुषों से पीछे नहीं रहीं। भगवती चरण वोहरा की जीवन-संगिनी दुर्गा भाभी का नाम भला किसे मालूम नहीं। सांडर्स हत्याकांड के बाद लाहौर से भगतसिंह को अपनी जान की बाजी लगाकर ये ही सुरक्षित निकाल कर ले गई थीं। 
मास्टर सूर्यसेन द्वारा चिटगांव (बंगला देश) में गठित "भारत मुक्ति सेना" में अनेक महिला क्रांतिकारी थीं। हथियार-गोला-बारूद एकत्रित करने हेतु अंग्रेज तोपखानों व बैरकों पर छापे मारने में वे बढ़-चढ़कर भाग लेती थीं। इन्हीं में एक थीं - प्रीतिलता वादेदार। सितंबर 1932 में इन्हांने अफसरों के एक क्लब पर बम फेंका, जिसमें एक अफसर मारा गया और कई घायल हो गये। वे खुद भी घायल हो गई, पर दुश्मन के हाथों पड़ने की बजाय सायनाइड कैप्सूल निगल कर शहीद हो गईं। उनकी साथी कल्पना गिरफ्तार हो गईं, उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई गई। 
आज सत्ता के गलियारों में महिलाओं को फौज में शामिल करने या न करने को लेकर बहस छिड़ी है, जबकि आजाद हिन्द फौज की (रानी झांसी) महिला रेजीमेंट का नेतृत्व कैप्टन लक्ष्मी सहगल के हाथों में था। 
अनेक महिला क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के खिलाफ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़कर भाग लिया और कुर्बानियां दीं। तथाकथित आजादी के बाद के अनेक मुक्ति संघर्षों में भी महिलाओें ने अपनी महत्ती भागेदारी दर्ज की है। 
हमें 8 मार्च को अपने इन महान प्रेरणा-स्त्रोतों को याद करते हुए, उनकी कुर्बानियों को नमन करते हुए, उनके द्वारा आलोकित संघर्ष पथ पर अडिगता से आगे बढ़ते हुए, उनके अधूरे सपनों को पूरा करने हेतु अपने जनवादी संघर्षों को तेज करना है, ताकि एक नई सुबह का आगाज हो सके। आज भी देश में जनवादी मूल्यों के पक्षधर लोग व संगठन इस दिन को एक संघर्ष-दिवस के रूप में मनाते हैं। वे महिलाओं, दलितों, छात्रों, बेरोजगारों व अन्य उत्पीड़ित तबकों की समस्याओं को लेकर विचार गोष्ठियों का आयोजन करते हैं ताकि नए रास्तों की तलाश की जा सके और गुलामी के इस जुए को उतार फेंका जा सके।  जब हम गुलामी या गुलामों का जिक्र करते हैं, तो तीन सत्ताओं की गुलामी के जुए तले दबी महिलाओं का जिक्र करना भूल जाते हैं। हम यह सोचना तक गवारा नहीं करते कि महिलाएं गुलामों में भी गुलाम हैं। महिलाओं पर पहली सत्ता (पितृसत्ता) परिवार की है, जहां सुरक्षा के नाम पर उसे घर में कैद कर दिया गया है। जहां नौकरीपेशा महिला ऑफिस व घर की दोहरी चक्की में पिसती है। जहां वह अपनी कमाई तक को अपनी मर्जी से खर्च नहीं कर सकती। जहां संस्कारों के नाम पर एक बेटी, बहन, पत्नी या मां के रूप में वह अपने पिता, भाई, पति या बेटे की ज्यादतियों को चुपचाप सहन करती है। 
दूसरी सत्ता, महिला विरोधी सामंती रूढ़ियों में जकड़े हमारे समाज की है जो रोज महिला-विरोधी फैंसले सुनाता रहता है। कभी उसे बाल-विवाह करके तो कभी शिक्षा से वंचित करके उत्पीड़ित किया जाता है और कभी पर्दा-प्रथा के पीछे धकेल कर उजाले से महरूम कर दिया जाता है। कभी-कभी तो बेटों की चाह में उसे गर्भ में ही मार दिया जाता है। तीसरी सत्ता, शासक-वर्गों की सत्ता है जो एक वर्ग या समुदाय पर नियंत्रण रखने हेतु, अपनी अंधी लूट को जारी रखने हेतु सेनाओं का इस्तेमाल करती है। और ये सेनाएं समुदाय विशेष को दबाने, उसमें डर पैदा करने हेतु उसकी महिलाओं को अपने वहशी शोषण का शिकार बनाती हैं। उन पर नृशंस अत्याचार करती हैं। जम्मू-कश्मीर, मध्य भारत तथा उत्तर-पूर्व के प्रांत इसके नग्न उदाहरण हैं जहां सुरक्षा बलों द्वारा लड़कियों-महिलाओं से बलात्कार करना व उन्हें मौत के घाट उतारना एक आम बात है। छत्तीसगढ़ की जल-जंगल-जमीन व आदिवासियों के मौलिक अधिकारों के लिए आवाज बुलंद करने वाली सोनी सोरी पर पुलिस अत्याचार की कहानी जगजाहिर है। आज यह एक खुला रहस्य है कि किस तरह दांतेवाड़ा के एस.पी. अमित गर्ग ने उसके गुप्तांगों में पत्थर डलवाकर उसे उत्पीड़ित किया था। यह भी सर्वविदित है कि किस तरह महिला पक्षधर होने का ढोंग रचने वाली सरकार ने अपने इस ‘बहादुर पुलिस अफसर’ को राष्ट्रपति अवार्ड से सम्मानित किया है। ‘आर्म्ड फोर्सिस स्पेशल पॉवर एक्ट’ के विरोध में वर्षों से भूख-हड़ताल पर बैठी इरोम-शर्मिला के संघर्षों को कौन नहीं जानता। पर बड़े-बड़े मंचों से बड़े-बड़े दावे-वादे करने वाली हमारी सरकारों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। 
हम क्या करें? क्या हम भी सरकार व उसके पिछलग्गुओं द्वारा 8 मार्च पर कराए जाते नाच-गानों की चमक-दमक में इसके सच्चे उद्देश्यों को भूल जाएं? इसके संघर्षशील इतिहास को विस्मृत कर दें? या फिर महिला शोषण के तमाम आयामों को ध्वस्त करने हेतु, महिला को एक इन्सान होने की गरिमा प्रदान करने हेतु उसके कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़े हों तथा 8 मार्च के महान दिन को एक संघर्ष दिवस के रूप में मनाते हुए एक सुनहली सुबह का आह्वान करें! यह हमें तय करना होगा। 

Monday 8 February 2021

कहानी - आंंदोलन में शामिल लड़की की




चंचल

(संदीप कुमार)




नसीब कहीं भी जाते या किसी के भी पास बैठते अपनी बेटी चंचल का जिक्र जरूर करते। वो बहुत खुश होकर कहते कि चंचल कभी भी ऊंची आवाज में बात नहीं करती। अगर घर पर कोई भी महमान आता तो उन्हें पता भी नहीं चलता कि घर में कोई लड़की भी है। और गली में खड़ा होना तो उसके वसूलों के खिलाफ है। वह बस अपने काम से ही मतलब रखती है। वह बहुत कम बोलती है और अपने में ही खुश रहती है। 

लेकिन, सच्चाई यह नहीं है। सच्चाई तो यह है कि उससे कभी किसी ने बात ही नहीं की। ओर मान लिया कि वह किसी से बात करना ही नहीं चाहती। वह अकेले में ही खुश है।

चंचल का दिन भी ओर लड़कियों की तरह ही शुरू होता। वह सुबह उठकर पूरे परिवार के लिए चाय बनाती, पूरे घर की साफ सफाई करती और उसके बाद खाना बनाकर झूठे बर्तनों को साफ करती व फटाफट नहा धोकर अपनी बिखरी हुई किताबें बैग में डालती और स्कूल के लिए निकल जाती। कभी-कभी काम करते हुए इतनी देर हो जाती कि वह सुबह का खाना ही नहीं खा पाती। दोपहर को आधी छुट्टी में ही आकर खाना खाती। स्कूल से घर आते ही फिर से घर के कार्यों में मशगूल हो जाती और रात में स्कूल का कार्य करते-करते कब नींद आ जाती कई बार उसे पता ही नहीं चलता। चाहे माहवारी का दर्द हो या फिर कुछ ओर उसकी जिंदगी में कभी आराम नहीं मिलता और उसने इसे ही किस्मत समझकर मान लिया था।

चंचल के भाई, राज ने कॉलेज में जाना शुरू कर दिया और उसे कॉलेज में कुछ ऐसे सहपाठी मिले जो हमेशा अपने सुख दुःख बुलाकर समाज के बारे में बातें करते रहते। उनके सपनों में कभी भी यह नहीं आता कि उन्हें कहां नौकरी करनी है? भविष्य में कैसा मकान चाहिए? उनके सपने भी उनकी किताबों के जैसे थे। उनके पास बैग में कंपीटिशन की जगह प्रेमचंद, गोर्की, अवतार सिंह पाश, यशपाल व भगतसिंह की किताबें और समाज, आवाज, आगाज जैसी पत्रिकाएं रहती। 

उनकी बातों का विषय कभी भी यह नहीं रहा कि किस लड़की ने क्या पहन रखा है? उनकी चर्चा हमेशा यही रहती कि ऐसा समय कैसे आये कि कोई किसी के पहनने, खाने व रंग-रूप को लेकर कमेंट न करे। उनकी बातें हमेशा इस विषय के ईर्द-गिर्द रहती कि सबको शिक्षा क्यों नहीं मिल पाती? क्यों हजारों स्टूडेंट्स हर साल पढ़ाई छोड़ने के लिए मजबूर हो जाते हैं? पूरे कॉलेज में इनके बारे में बातचीत चलती ओर सभी इन्हें पागल कहते। कुछ इन्हें कहते कि ये अपना भविष्य खराब कर रहे हैं। जितने मुंह उतनी बातें। लेकिन ये अपनी मस्ती में मस्त रहते हुए सुंदर भविष्य के सपने देखने में ही मस्त रहते और उसके लिए कुछ न कुछ करते रहते। कॉलेज में बढ़ी हुई फीस के खिलाफ इन दो चार छात्रों ने जब आंदोलन शुरू किया तो काफिला बढ़ता गया और अंततः सरकार को बढ़ी हुई फीसें वापिस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस आंदोलन के बाद आम स्टूडेंट्स में इनकी इज्जत बढ़ गई। पूरे कॉलेज में जो इनके प्रति अवधारणा बनी थी वह बदल गयी। उदाहरण के तौर पर इनका नाम लिया जाने लगा। कॉलेज के कुछ प्रोफेसर भी इन्हें छुपे तौर पर हर तरह की मदद करने के लिए आगे आ गए। खैर, अभी हम वापिस चंचल की कहानी की ओर आते हैं।

कॉलेज के इस छोटे से ग्रुप ने अर्पित को अपना नेता स्वीकार कर लिया। अर्पित, राज के घर पर अक्सर जाता। जब शुरू-शुरू में अर्पित राज के साथ घर पर गया तो चंचल दूर बैठकर उन दोनों की बातचीत बहुत ही ध्यान से सुनती। अक्सर उसकी नजरें किताबों की ओर होती लेकिन कान उन दोनों की बातचीत पर। कई बार वह उनकी बातें सुनने में इतनी मगन हो जाती कि उसे चुल्हे पर रखी रोटी का ध्यान तभी आता जब वह आग में जलना शुरू हो जाती। अर्पित भी घर के सभी सदस्यों के साथ घुलमिलकर बात करता लेकिन चंचल कभी उससे बात नहीं करती। एकदिन अर्पित ने उसे पढ़ने के लिए "आवाज पत्रिका" दी। अर्पित ने चंचल की ओर जैसे ही आवाज पत्रिका बढ़ाई तो वह डर के मारे कांपने लगी। कांपते हाथों से पत्रिका जमीन पर गिर गई। जमीन से पत्रिका उठाकर अर्पित साईकिल की काठी पर रखकर राज के साथ घर से बाहर निकल जाता है। उनके घर से बाहर निकलते ही चंचल पत्रिका को साईकिल से इस तरह उठाती है,जैसे कि वह आग में तपी हुई कोई लौहे की छड़ हो। वह रात को पढ़ने के लिए उसे अपनी किताबों के बीच में छुपाकर रख देती है और अपने घर के कार्यों में लग जाती है। 

दो दिन बाद वह पत्रिका को पढ़ने के लिए खोलती है और वह यह पढ़कर हैरान हो जाती है, "औरतें भी इंसान हैं। हम समाज में जो महिला व पुरूष के बीच भेदभाव देखते हैं वह प्रकृति ने नहीं हमने ही बनाया है।" आगे वह पढ़ती है कि किसी का गरीब होना उसकी किस्मत के कारण नहीं है बल्कि उसकी मेहनत की लूट के कारण है। और ये बातें उसे समझ नहीं आयी। वह पिछले कुछ सालों से संतोषी मां व शिवजी के व्रत रखती थी। इसलिये उसे प्रकृति वाली बात समझ में नहीं आयी। वह बचपन से ही सुनती आयी थी कि पैदा होते ही "बेमाता" सबके लेख (किस्मत) लिख देती है। वह चिंतित हो जाती है और जानना चाहती है कि मेहनत की लूट कोई कैसे करता है? लेकिन, यह सब किससे पूछे? अपने भाई राज से तो उसने कभी बात की ही नहीं। और आज भी वह अपने भाई से बात करने की हिम्मत नहीं कर पा रही है जबकि आज वह देख पा रही है कि राज पहले की तरह आदेश नहीं देता है। न ही वह पहले की तरह गुस्सा करता है। बल्कि अब वह बहुत से कार्य खुद करता है। वह अब कभी भी किसी से अपने कपड़ों व जूतों के बारे में नहीं पूछता है कि कहां पर रखें हैं। और खाना भी वह स्वयं ही डाल कर खा लेता है। आज से पहले चंचल ने कभी भी इस तरह नहीं सोचा था। इस सबके बावजूद भी चंचल अपने भाई से बात करने की हिम्मत नहीं कर पायी। 

कुछ दिनों के बाद अर्पित घर पर पहुंचता है और घर पर उसे चंचल दिखाई देती है। वह चंचल से पूछता है कि राज कहां पर है?

चंचल, "वह कहीं बाहर गया हुआ है।"

अर्पित, "अंकल-आंटी भी दिखाई नहीं दे रहे हैं?"

चंचल, "वो शहर गए हैं। घर पर कोई नहीं है?"

अर्पित को चंचल के साथ बात करने का सूत्र मिल जाता है। वह वहीं चंचल के पास आंगन में खाली पड़ी खाट पर बैठ जाता है और बातचीत शुरू कर देता है।

अर्पित, "चंचल आप घर की सदस्य नहीं हो क्या?"

चंचल, "भाई, आप ऐसा क्यों कह रहे हो? मैं घर की सदस्य हूँ।"

अर्पित, "फिर आप ऐसा क्यों कह रही हो कि घर पर कोई नहीं है?"

इस बात का चंचल के पास कोई जवाब नहीं था। वह शर्म महसूस करती है और अपना सर झुका लेती है। फिर वहां पर एकदम से चुप्पी छा जाती है। इस चुप्पी को तोड़ते हुए अर्पित, चंचल से पूछता है कि आपने आवाज पत्रिका पढ़ी? वह उसी के बारे में बातचीत करना चाह रही थी लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी शुरू नहीं कर पा रही थी। वह अंदर ही अंदर बहुत खुश हो रही थी कि अब उसके मनपसंद विषय पर बातचीत होगी। उसके दिमाग में सवालों के बंवडर उठ रहे थे लेकिन उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि कहां से शुरू करे? काफी जद्दोजहद के बाद उसने बताया कि अभी तक पत्रिका के तीन चार लेख ही पढ़े हैं। और फिर एकदम से चुप हो गई।

अर्पित, "कोई बात नहीं आप धीरे धीरे पूरी पत्रिका जरूर पढ़ें। क्या आप बता सकती हैं कि आपने अभी तक कौन-कौन से तीन चार लेख पढ़े हैं?"

चंचल अब धीरे धीरे बोलना शुरू करती है। वह बताती है कि मुझे यह तो याद नहीं है कि कौन-कौन से लेख पढ़े हैं। लेकिन, मुझे यह समझ में नहीं आया कि महिला और पुरूष बराबर कैसे हैं? महिलाएं तो कमजोर होती हैं। वो पुरूषों के बराबर कार्य नहीं कर सकती। परंतु यहां लिखा है कि महिलाएं बराबर होती हैं। अब वह धाराप्रवाह बोलती जा रही थी और अर्पित धैर्य के साथ एक-एक शब्द सुन रहा था। बीच-बीच में वह देख भी रही थी कि अर्पित उसकी बातें सुन रहा है या नहीं? कहीं वह उसका मजाक तो नहीं कर रहा? लेकिन वह अर्पित के चेहरे के हावभाव देखकर संतुष्ट हो जाती है कि उसकी बातें गंभीरता से सुनी जा रहा है। उसे इग्नोर नहीं किया जा रहा है। इससे चंचल का हौंसला बढ़ता है और वह आगे अपनी बात जारी रखते हुए पूछती है कि इस दुनिया में अमीर-गरीब तो सब भगवान की देन है। इसमें ये मेहनत की लूट वाली बात समझ में नहीं आयी? जिस लड़की के बारे में यह सोचा जाता था कि वह किसी से बात करना पसंद नहीं करती, उसे चुप रहना अच्छा लगता है। आज वह बेहिचक अपने सवाल रख रही थी और वो भी उस अजनबी के सामने जो घर पर कभी-कभार ही आता है। यह अलग बात है कि उसे अपनी बात कहने के लिए एक-एक शब्द ढूंढना पड़ रहा था लेकिन उसके मन में आज डर बिल्कुल नहीं था। ये सब बातें कहने के बाद वह अपने आपको बहुत हल्का महसूस कर रही थी। 

अब अर्पित ने अपनी बात कहनी शुरू की तो उसके कान उनकी बातें सुनने में इस तरह मसगूल थे कि एक पत्ते की सरसराहट भी वह बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। गली में कुत्ता भौंकता है, तो वह तुरंत लाठी लेकर जाती है और कुत्ते को भगाकर वापिस वहीं बैठकर कहती है अब बताओ भाई।

अर्पित ने कहा कि मैं ये चाहता हूँ आप मेरे साथ बातचीत में शामिल हों तो आपको ये सब चीजें अच्छे से समझ में आएंगी। चंचल इस बात पर मूक सहमति दे देती है।

अर्पित, "हमने नौवीं कक्षा की विज्ञान में पढ़ा है कि लड़का और लड़की किस तरह से पैदा होते हैं। अगर XX का मेल होता है तो लड़की और अगर XY का मेल होता है तो लड़का पैदा होता है।"

चंचल, "हां, पढ़ा तो है।"

अर्पित, "अगर किसी घर में बच्चा पैदा हुआ है और उसे तोलिये में लपेट रखा है तो क्या हम बता सकते हैं कि वह लड़का है या लड़की?"

चंचल, "नहीं, बिना तोलिया हटाये ये हम कैसे बता सकते हैं?"

अर्पित ने बताया कि जब हम बिना तोलिया हटाये ये सब नहीं बता सकते तो इसका मतलब क्या है?

चंचल कुछ देर सोचती है और फिर कहती है, "इसका मतलब यही है कि दोनों बराबर हैं ।"

बिल्कुल इसका मतलब यही है, अर्पित ने यह कहते हुए बात आगे बढाई। इस तरह हम देखते हैं कि जब बच्चा पैदा होता है तो वह लड़का होता है या लड़की। उसके रंग, रूप व चेहरे को देखकर हम नहीं बता सकते कि वह क्या है? इसके बाद ही अगली कार्यवाही शुरू होती है कि अगर लड़का है तो घर में थाली बजाई जाती है, गीत गाए जाते हैं और भी बहुत कुछ होता है और लड़की के जन्म पर सभी घरों में मातम छा जाता है। इस तरह हम देखते हैं कि ये भेदभाव हमने किया है जोकि शुरू से नहीं है। अगर शुरू से होता तो पूरी दुनिया में लड़की के पैदा होने पर मातम होना था लेकिन ऐसा नहीं है। बहुत से समुदाय ऐसे हैं जहां पर लड़के व लड़की के जन्म पर बराबर की खुशीयां मनाई जाती हैं। अर्पित थोड़ा रूकता है तो चंचल बोल उठती है, "भाई, यह तो आप बिल्कुल सच कह रहे हो। इस तरह से तो मैंने कभी सोचा ही नहीं। और स्कूल में भी कभी ऐसे नहीं बताया गया। मुझे आज भी अच्छी तरह याद है कि जब विज्ञान में बच्चे कैसे पैदा होते हैं? यह पाठ आया तो राजेंद्र जी ने हमें पढ़ाया ही नहीं। उन्होंने कहा कि घर पर जाकर पढ़ लेना।"

हां, आप बिल्कुल सही कह रही हो। हमारे स्कूलों में शिक्षा सिर्फ इसलिए दी जा रही है कि हम ज्यादा से ज्यादा नंबर कैसे लेकर आएं?

चंचल तुरंत बोल उठती है, "शिक्षा नंबरों के लिए ही तो दी जाती है। नंबर आएंगे तो नौकरी मिलेगी।"

अर्पित फिर से अपनी बात शुरू करते हुए कहता है, "ये हमारे देश का दुर्भाग्य है कि यहां पर शिक्षा को नंबरों से जोड़ दिया गया है। नौकरी का सिर्फ नंबरों से कोई मेल-मिलाप नहीं करना चाहिए। उसके और भी कई पैमाने होने चाहिएं जोकि नहीं हैं। शिक्षा केवल नौकरी के लिए नहीं होनी चाहिये, शिक्षा जिंदगी कैसे जिएं? समाज को और ज्यादा बेहतर कैसे बनाएं? इसके लिए होनी चाहिये जोकि नहीं है। अभी मैं आपके अगले सवाल का जवाब भी दे देता हूँ। आप परेशान तो नहीं हो रही?"

नहीं, चंचल ने जवाब दिया।

"अभी हमने शिक्षा को लेकर बातचीत की। एक बच्चा उस घर में पैदा होता है, जिस घर में दो वक्त की रोटियों का जुगाड़ भी बड़ी मुश्किल से होता हो और दूसरा बच्चा उस घर में पैदा होता है जिस घर में प्रत्येक कार्य नौकर करते हैं और वह पैदा होते ही करोड़ों रूपये का मालिक होता है। यह हम पहले ही बात कर आएं हैं कि बच्चे का जन्म अंडाणुओं व शुक्राणुओं के मेल से होता है भगवान की मर्जी से नहीं। अब आप बताओ कि आगे बढ़ने के ज्यादा मौके किसे मिलेंगे?" - अर्पित, चंचल से पूछता है।

"भाई, जिसके पास पैसा होगा ज्यादा मौके तो उसे ही मिलेंगे" - चंचल जवाब देती है।

अर्पित, "शारीरिक मेहनत कौन करता है?"

चंचल, "गरीब आदमी"

अर्पित, "अमीर आदमी क्या करता है?"

चंचल, "आदेश देता है। गरीबों को गाली देता है, उनके साथ मारपीट करता है।"

अर्पित, "भूख से कौन मरता है?"

चंचल, "जो खून-पसीना एक करता है।"

अर्पित, "रूपये, सौहरत, सुख सुविधाएं किसे मिलनी चाहियें?"

चंचल, "जो खून पसीना एक करता है।"

अर्पित, "मिलती किसे हैं?"

चंचल, "जो आदेश देता है?"

अर्पित, "क्यों?"

चंचल, "क्योंकि वो मेहनत को लूटता है। और मेहनत को लूट सके इसके लिए वह मेहनत करने वालों को गालियां देता है, उनके साथ मारपीट करता है। मैंने अपने ही पड़ोस में देखा है कि गांव के सरपंच ने मनरेगा में कार्य करने वाले लोगों को मजदूरी नहीं दी। जब वो मजदूर सरपंच की रिपोर्ट दर्ज करवाने के लिए थाने गए तो उनकी रिपोर्ट दर्ज नहीं की उल्टे उन्हें गालियां देकर भगा दिया गया। फिर उन लोगों को कहते सुना है कि हमारी मजदूरी के रूपये सिर्फ सरपंच ने ही नहीं खाए हैं ये रूपये बहुत ऊपर तक बंटे हैं सरपंच के हाथ तो कुछ ही रूपये लगे हैं।"

चंचल अपने सवालों के जवाब खुद ही दे रही थी। जब उसे इस बात का अहसास हुआ तो वह आश्चर्यचकित रह गई।

अर्पित आगे कुछ बात करता इतने में राज घर का दरवाजा खोलकर अंदर आ जाता है। अर्पित, राज से कहता है कि आगे से मीटिंग में बहन को भी साथ लेकर आया करो और घर पर भी इनसे बातचीत किया करो। 

उसके बाद चंचल अपने भाई के साथ मीटिंगों में शामिल होने लगी ओर अगले साल स्कूली शिक्षा खत्म करके कॉलेज में दाखिला ले लिया। अपनी छात्रों की यूनियन में वह एक बेहतरीन वक्ता बन गई। ऐसा कोई भी प्रदर्शन व प्रोग्राम नहीं था जिसमें चंचल युवाओं में जोश न भरती हो। चंचल के साथी बताते हैं कि आजकल चंचल अपने साथियों के साथ गांव-गांव घूमकर तीनों कृषि बिलों का विरोध कर रही है। जिसके कारण उसे अलग अलग जगह से धमकी भरे फोन आते हैं। चंचल है कि उन धमकियों को एक कान से सुनती है और दूसरे कान से निकालते हुए जोर से महिला, मजदूर, छात्र, किसान एकता का नारा लगाते हुए अपनी ही धुन में आजादी का गीत शुरू कर देती है। उदास दिलों में अपने भाषणों से जोश पैदा कर रही है तभी तो हजारों की संख्या में महिलाएं आंदोलन में शामिल हो रही हैं।

चंचल के दोस्त ये भी बताते हैं कि हरियाणा में सरकार द्वारा जो बैरिकेडिंंग की गई थी उसे तोड़ते हुए चंचल सिंघु बॉर्डर तक पहुंची और पूरे होश व जोश के साथ अगली कतार में खड़ी रही।

खैर, मैं तो हजारों चंचल देख रहा हूँ जिन्होंने अपने विचारों के लिए हर उस शख्स से बगावत की है जो भी उनके रास्ते में रूकावट बनकर खड़ा हुआ है, चाहे वो उसका बाप ही क्यों न हो। समय उन सब चंचलों की कहानियां जरूर लिखेगा।


Sunday 17 January 2021

वैक्सीन बनने में कितना समय लगता है?

 कोरोना वैक्सीनः विज्ञान और राजनीति

(अनुपम)

(31 दिसंबर, 2020 को "दस्तक नए समय की" पत्रिका के ब्लॉग पर यह लेख छपा था जिसमें आशंका जाहिर की थी कि कोरोना वैक्सीन में जल्दबाजी करना इंसानी जिंदगी के साथ खिलवाड़ करना है। जिसके परिणाम हम देख भी रहे हैं। यह उस समय और ज्यादा खतरनाक हो जाता है जब राजनीति, पूंजीपतियों की अंधी लूट में शामिल हो।)





जनवरी 2021 से कोरोना वैक्सीन के भारत में आ जाने की बात जोर-शोर से प्रचारित की जा रही है। यह कितनी कारगर होगी, इसे देखना अभी बाकी है, क्योंकि इसके आने से पहले ही ये संदेह के घेरे में आने लगी है।कोरोना वैक्सीन के बारे में जानने से पहले थोड़ा वैक्सीन के इतिहास पर और इस से जुड़े तथ्यों के 
बारे में जान लें, ताकि कोरोना वैक्सीन के साथ ही आगे विकसित होने वाले किसी भी वैक्सीन के बारे स्टीक राय बना पाएं कि यह कितना प्रभावी होगा ।

भारत में और पूरी दुनिया में टीकाकरण (वैक्सीनेशन) का बहुत ही आक्रामक प्रचार किया जाता है और निश्चित समय पर टीकाकरण अभियान भी लिया जाता है। ऐसा लगता है कि यही एक काम सरकार बेहद ईमानदारी से करती है। और इससे किसी को दिक्कत भी नही है। सभी लोग अपने नन्हे-मुन्ने बच्चों को भावी बीमारियों से बचाने के लिए टीकाकरण के लिए सरकारी अस्पतालों की लाइन में लगे रहते हैं। जिनके पास पैसा है वे निजी अस्पतालों की ओर रुख करते हैं। यह सब सामान्य गति से चलता है। लेकिन यदि कोई आपसे पूछे कि क्या टीकाकरण (वैक्सीनेशन) का कोई गम्भीर साइड इफेक्ट्स भी है, तो 99% लोग यही कहेंगे कि ‘नहीं’। यदि आप भी इन 99 प्रतिशत लोगों में शामिल हैं तो आपको scilence, on vaccine; shots in the dark नामक डाक्यूमेंट्री जरुर देखनी चाहिए। फिल्म देखकर आपको यह जरुर लगेगा कि 99% लोगो की यह राय, ‘नोमचोम्स्की’ की भाषा में कहें तो ‘मैनुफैक्चर्ड कन्सेन्ट’ है।

दरअसल पिछले 15-20 सालों का ‘स्वतंत्र-शोध’ यह साबित करता है कि टीकाकरण के गम्भीर ‘साइड इफेक्ट्स’ हैं। विशेषकर दिमाग सम्बन्धी ज्यादातर रोगों का सम्बन्ध टीके में पाये जाने वाले तत्वों से है। इस फिल्म में विभिन्न वैज्ञानिकों, वरिष्ठ डाक्टरों और  प्रभावित बच्चों के अभिभावकों के हवाले से बताया  गया है कि टीकाकरण के ज्यादातर ‘साइड इफेक्ट्स’ कुछ समय बाद (कभी कभी 15-20 सालों बाद भी) सामने आते हैं। इसलिए ज्यादातर सामान्य डाक्टरों और अभिभावकों के लिए इसे टीके के ‘साइड इफेक्ट’ के रुप में देखना संभव नहीं होता। दरअसल ज्यादातर टीकों में ‘मर्करी’ और ‘एल्यूमिनियम’ जैसे हानिकारक तत्व होते हैं, जो शरीर के लिए बेहद हानिकारक होते है।वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों का दावा होता है कि ये हानिकारक तत्व इतनी कम मात्रा में होते हैं, कि शरीर पर इनका कोई बुरा असर नहीं होता है। लेकिन इस फिल्म में बहुत साफ और सरल तरीके से यह बताया गया है, कि भले ही शरीर पर इस अल्प मात्रा का असर उतना ना होता हो, लेकिन हमारे दिमाग के न्यूरॉन्स को प्रभावित करने के लिए यह ‘अल्प मात्रा’  काफी है। न्यूरॉन्स के प्रभावित होने से ‘सर दर्द’ से लेकर  autism, ‘मिर्गी’ और ‘अल्जाइमर’ जैसे अनेक रोग हो सकते है।दरअसल मर्करी, एल्यूमिनियम जैसे  हानिकारक तत्व दिमाग की प्रतिरोधक क्षमता को कम कर देते हैं या  खत्म कर देते हैं।

फिल्म में इस पर भी सवाल उठाया गया है कि एक-दो साल के बच्चे को जब उसकी प्रतिरोधक क्षमता पूरी तरह विकसित नहीं हुई होती है, तो उसे लगातार टीके की इतनी खुराक देना  क्या ठीक है? अमरीका में बच्चे के डेढ़ साल का होते-होते 38 टीके लगा दिये जाते है। और कुल टीकों की संख्या वहां करीेब 70-80 के आसपास है। हमारा देश भी इससे ज्यादा पीछे नहीं है।

फिल्म में एक चार्ट के माध्यम से साफ  दिखाया गया है कि जैसे-जैसे टीकों की संख्या बढ़ रही है, वैसे-वैसे विभिन्न तरह की दिमागी बीमारियां बढ़ रही हैं।आज अमरीका में हर 6 बच्चों पर 1 बच्चा किसी ना किसी तरह की दिमागी बीमारी से पीड़ित है।फिल्म में बच्चों को दिये जाने वाले कुछ टीकों को एकदम अनावश्यक बताया  गया है। जैसे ‘हेपेटाइटिस बी’ का टीका। जब यह बात सिद्ध है, कि ‘हेपेटाइटिस बी’  रक्तहस्तान्तरण से और सेक्स सम्बन्धों से ही हो सकता है तो फिर इस टीके को बच्चे को देने की क्या जरुरत है?

आइये अब जानते हैं कोरोना के लिए बन रहे वैक्सीन के बारे में -:

किसी भी बीमारी के लिए टीका विकसित  करने में काफी समय की जरूरत होती है। किसी भी वैक्सीन के विकास और उसके सफल  परीक्षण में 4 से 5 सालों का समय लग जाता है। लेकिन वैक्सीन को इतनी तेजी से बाजार में लाने का मकसद सिर्फ मुनाफे के एजेंडे को आगे  बढ़ाना है।तेजी का मतलब है कि किसी भी वैक्सीन को निर्माण करने और आम जनता के लिए उपलब्ध कराने के पहले उसको तीन  फेज ट्रायल स्टेज से गुजारना होता है। लेकिन इस वैक्सीन को विकसित करने में इन सब को नजरअंदाज किया जा रहा है। कोरोना की वैक्सीन भी इस कड़ी में शामिल है।कोविड-19 महामारी से जो डर और  स्वास्थ्य असुरक्षा का माहौल बना है, उसको सभी वैक्सीन  विकसित करने वाली कंपनियां मोटे मुनाफे के रूप में भुनाना चाहती हैं। इसलिए ‘फाइजर’ से लेकर ‘मोडर्ना’ जैसी कंपनियां जल्द से जल्द टिका लाने की होड़ में शामिल हैं। क्योंकि इन कंपनियों के मालिक यह भली-भांति जानते हैं कि जैसे-जैसे वायरस का डर आम जनता के बीच से गायब होगा, वैक्सीन की बिक्री  उतनी ही कम होती जाएगी। साथ ही साथ डर के इस माहौल में उनकी वैक्सीन आसानी से बिना किसी प्रचार माध्यम व डॉक्टरों पर बड़ी राशि खर्च किये बिना ही बिक जाएगी। तो सामने मोटे मुनाफे को देखकर इन कंपनियों के मुंह में पानी आ रहा है और वो जल्द से इस मुनाफे को अपनी तिजोरी में बंद करना चाहते हैं।पूंजीपतियों द्वारा मुनाफा पाने की दौड़ ने वैक्सीन बनाने के कई मानकों को  नजरअंदाज किया है और आनन-फानन में इन्हें लांच कर दिया गया है या उसकी तैयारी चल रही है। आगे निकलने की होड़ ने मानव स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा उत्पन्न कर दिया है। हम मेडिकल फील्ड के तकनीकी विशेषज्ञ तो नहीं हैं, इसलिए वैक्सीन की आंतरिक प्रकृति पर तो कोई टिप्पणी नहीं कर सकते हैं, लेकिन इतना तो हम देख और समझ ही सकते हैं या जांच-पड़ताल तो कर ही सकतें है कि जो भी वैक्सीन विकसित की जा रही है - क्या वह बुनियादी पैमाने पर खरी उतर रही है और सही  प्रक्रियाओं से गुजर रही है या नहीं? अगर नहीं गुजर  रही है तो उससे क्या-क्या खतरा उत्पन्न होने की संभावना है? इसी प्रश्न को ध्यान में रख कर और देश-दुनिया में प्रकाशित खबरों और न्यूज व तथ्यों के आधार पर यह सोचने के लिए  मजबूर होना पड़ रहा है। कुछ उदाहरणों पर नजर डालिये-

चेन्नई में रहने वाले एक 41 साल के  कारोबारी ने कोरोना वैक्सीन ट्रायल में वॉलेंटियर के रूप में भाग लिया। टीके की डोज लेने के बाद से इस वॉलेंटियर को गंभीर न्यूरोलॉजिकल व साइकोलॉजिकल दिक्कतों का सामना  करना पड़ रहा है। मेमोरी लॉस की शिकायत मिल रही है इन्हें एक अक्टूबर को चेन्नई के श्री रामचंद्राइंस्टिट्यूट ऑफ हायर एजुकेशन एंड रिसर्च में कोरोना वैक्सीन की एक खुराक दी गई थी।आपको बता दें कि यह ट्रायल सीरम  इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे द्वारा किया जा रहा है। सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ‘कोविशील्ड’ नाम से टीके (वैक्सीन) का उत्पादन ड्रग निर्माता ‘एस्ट्रजेनेका’ और ‘ऑक्सफोर्ड  विश्वविद्यालय’ की साझेदारी में कर रही है।इस वैक्सीन की भारत में सबसे ज्यादा चर्चा है और देश के प्रधानमंत्री भी इस इंस्टीट्यूट का दौरा कर  चुके हैं।फिलहाल इस वैक्सीन ट्रायल में भाग लेने वाले चेन्नई के व्यक्ति ने अपने बिगड़ते  स्वास्थ्य के लिए इस वैक्सीन को जिम्मेदार ठहराते  हुए 5 करोड़ मुआवजे की मांग की है। साथ ही वैक्सीन के गंभीर साइड इफेक्ट को बताते  हुए, ट्रायल को रोकने की मांग की है। वहीं दूसरी ओर सीरम इंस्टीट्यूट ने इस व्यक्ति के साथ सहानुभूति दिखाने और इसके इलाज की  चिंता करने के बजाए उल्टा व्यक्ति को जिम्मेदार ठहरा दिया। ऊपर से 100 करोड़ का मानहानि का मुकदमा भी ठोकने की बात कही है।इतिहास में शायद यह पहली बार हुआ है कि किसी व्यक्ति ने मानव जाति के हित में  अपने शरीर को ट्रायल के लिए सौंपा और  उसके ऊपर ही 100 करोड़ का मुकदमा ठोंक दिया ।

वही ब्रिटेन में फाइजर वैक्सीन लेने वाले दो स्वास्थ्य कर्मियों ने एलर्जी की शिकायत की है।उनका कहना है कि फाइजर कंपनी द्वारा विकसित कोरोना वैक्सीन लेने बाद उनके  शरीर पर चकत्ते देखने को मिले और सांस लेने में तकलीफ होने की शिकायत की है। यह दो तथ्य काफी कुछ कह देते हैं कि आखिर कैसे  मुनाफे की हवस में इंसानी जिंदगी को खतरे में  डाला जा रहा है। मुनाफा कमाने की इतनी जल्दी है कि वॉलेंटियर के रूप शामिल होने वाले  व्यक्ति के जीवन की भी चिंता नहीं कि जा रही है।इसके उलट वैक्सीनेशन के कारण होने वाले साइड-इफेक्ट की शिकायत करने पर कानूनी नोटिस और भारी-भरकम जुर्माना वसूलने की धमकी दी जा रही है। इस से साफ जाहिर होता है कि ये बीमारी ठीक करने के लिए वैक्सीन विकसित नहीं करना चाहते हैं बल्कि अपने फायदे के लिए। इसलिए अगर कोई व्यक्ति पूरे मानव हित को ध्यान में रखते हुए किसी  वैक्सीन ट्रायल में शामिल हो रहा हो और अपनी जान व शरीर को जोखिम में डाल रहा है।तो उसके हर सुख-दुःख और उसकी परेशानियों को समझकर उसकी मदद करने की जरूरत होनी चाहिए।

चिल्ड्रेन हेल्थ डिफेंस (CHD) एक नॉन-प्रॉफिट संस्था है, जो एन्टी-वैक्सीन एक्टिविज्म के लिए जानी जाती है। इसके अनुसार जितने भी अभी तक कोरोना के लड़ने के लिए जो वैक्सीन विकसित किये जा रहे हैं वह असुरक्षित तकनीकों, असुरक्षित अवयवों और  अपर्याप्त परीक्षण के साथ विकसित किया जा रहा है।फाइजर/बायोएनटेक की कोविड वैक्सीन की जितनी प्रभावशीलता है उस से ज्यादा बढ़-चढ़कर उसका प्रचार किया जा रहा है।

वायरोलॉजिस्ट फ्लोरियन क्रैमर के अनुसार, ‘यह निर्धारित करना मुश्किल होगा कि फाइजर और दूसरों के वैक्सीन कई चरणों से गुजरने के बाद भी शायद उतने प्रभावशाली न हों कि वो कोरोना के संक्रमण को पूरी तरह रोक पाए।' 

चिल्ड्रेन हेल्थ डिफेंस के अनुसार जो  वैक्सीन बन रही है, वो कोविड को पूर्णतः रोकने की क्षमता पर आधारित नहीं होगा, इसलिए हो सकता है कि हमें कभी न खत्म होने वाले लॉकडाउन का सामना करना पड़े।

थाईलैंड मेडिकल न्यूज के मुताबिक,  फाइजर मैनेजमेंट पीआर कॉन्फ्रेंस पर और अपने वैक्सीन के सकारात्मक प्रचार पर अलग से पैसे खर्च कर रही है, ताकि मीडिया को पैसे देकर अनैतिक रूप से सभी को यह विश्वास हो  जाय कि उनके द्वारा विकसित वैक्सीन बिना  किसी दुष्प्रभाव के कारगर है। आगे यह न्यूज बताती है कि ‘अमेरिका ने वैक्सीन के अनुमोदन और प्रभावकारिता के लिए जिन मानकों को तय किया गया था, उसको अब कम कर दिया है।यहां तक कि (अन्य) दवाओं और दूसरे चिकित्सीय कार्यो के लिए भी। कोई डेटा यह नहीं दिखाता है कि फाइजर टीका कोरोना के गंभीर मामलों को रोकती है, जैसे जिस  मामलों में मरीज को अस्पताल में भर्ती करना पड़ता है या फिर जिन मामलों में मृत्यु हो जाती है,  अगर इन मामलों में वैक्सीन कारगर नहीं है तो  फिर इसके होने न होने का क्या फायदा है। वहीं चूंकि इन वैक्सीनों का परीक्षण केवल कुछ महीनों तक ही चल रहा हैं, वहां यह कहना असंभव है कि यह वैक्सीन वायरस से होने वाले  संक्रमण से कितनी देर तक रक्षा करेगा। इन सब तथ्यों से यह बात तो साफ होती है, कि कोरोना  वैक्सीन को मानव सामज के लिए फायदे की नीयत से कम और पूंजीपतियों के मुनाफे की  नीयत से ज्यादा बनाया जा रहा है।क्योंकि जैसे ही यह घोषणा हुई कि फाइजर कंपनी ने जिस कोरोना वैक्सीन का सफलतापूर्वक परीक्षण किया वह 90  प्रतिशत प्रभावी है। खबर के बाहर आते ही फाइजर के शेयर में भारी उछाल आ गया। इस अप्रत्याशित उछाल को देखते हुए इसके सीईओ एल्बर्ट बुर्ला ने 5.6 मिलियन डॉलर का शेयर तुरंत  बेच दिया।क्योंकि शायद उन्हें यह पता हो, कि उनकी कंपनी द्वारा विकसित वैक्सीन  भविष्य में कारगर सिद्ध नहीं हो। इसलिए अभी ही सभी शेयर बेचकर मोटा मुनाफा निकाल लिया  जाय।हालांकि जब इन पर सवाल उठने लगे, तब इन्होंने यह कह कर सफाई दी, कि यह  कंपनी की पहले से निर्धारित कार्य्रकम के तहत  किया गया है। वर्तमान में वैक्सीन बनाने वाली सभी कंपनियों की कमोबेश यही स्थिति है। फाइजर के साथ मोडर्ना, जे एंड जे,   एस्ट्राजेनेका, और ग्लैक्सोस्मिथक्लाइन भी कोविड के लिए वैक्सीन विकसित करने की होड़ में शामिल है।दरअसल इन सारी चीजों के पीछे जो चीज काम कर रही है, वह है दवा कंपनियों का  अकूत मुनाफा। अनिवार्य टीकाकरण की नीति के कारण टीकों की सबसे बड़ी खरीददार  सरकारें हैं इसी कारण 2013 में विश्व भर में टीके का कुल कारोबार करीब 25 बिलियन डालर था।और इसके 90 प्रतिशत कारोबार पर सिर्फ 5 दवा कंपनियों (सानोफी, मर्क, फाइजर,  ग्लैक्सो, नोवार्तिस) का कब्जा है। ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ के माध्यम से ये कंपनियां दुनिया भर की सरकारों की स्वास्थ्य नीतियों को अपने हित में प्रभावित करती हैं। अमेरिका में छपी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अमरीकी सदन में  लॉबिंग में दवा कंपनियां तेल कंपनियों से भी ज्यादा  पैसा खर्च करती है। यही नही दुनिया भर के प्रतिष्ठित जर्नल और शोध संस्थानों को ये दवा कंपनियां ही फंड करती हैं।

देश और दुनिया में कोरोना के लिए विकसित वैक्सीन की चर्चा बहुत जोरो पर है। इसी चर्चा के बीच भारत के कई प्राइवेट संस्थान भी वैक्सीन बना लेने का दावा कर चुके है। देश के प्रधानमंत्री भी इन संस्थानों को स्वंय जाकर वैधता प्रदान कर रहे हैं और एक तरह से वे उन निजी कंपनियों का प्रचार-प्रसार ही कर रहे हैं।इसलिए इन भारतीय कंपनियों के विषय मेंं जानना हम सबके लिए जरूरी हो जाता है।क्योंकि यह भारत की 130 करोड़ जनता के जीवन से जुड़ा हुआ है।

इनमें प्रमुख रूप से

1.सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, जिसकी साझेदारी ड्रग कंपनी ‘एस्ट्रजेनेका’ और ‘ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय’ के साथ है।

2. डॉ रेड्डी लैबोरेटरीज लिमिटेड जिसकी साझेदारी रूसी कंपनी ‘स्पुतनिक’ के साथ है।

3. भारत  बायोटेक, जिसकी साझेदारी सरकारी संस्था इंडियन कॉउंसिल ऑफ मेडिकल  रिसर्च के साथ है।

इस समय जब यह शोर मचाया जा रहा है, कि भारत खुद का अपना वैक्सीन विकसित कर रहा है। ऐसे में इस पर ज्यादा समझदारी बनाने के लिए भारत में पोलियो वैक्सीन से जुड़ा  तथ्य भी हम सभी को जान लेना चाहिए। 1990 से पहले पोलियो से रोकथाम के लिए जो  वैक्सीन लगाया जाता था, उसमें भारत पूर्णतः आत्मनिर्भर था। यानी कि पोलियो वैक्सीन की तकनीक और उत्पादन दोनों भारत में ही विकसित होती थी। लेकिन 1990 के बाद पोलियो वैक्सीन पर से भारत की  आत्मनिर्भरता खत्म कर दी गयी और विदेशी वैक्सीन  कंपनियों के लिए पूरा दरवाजा खोल दिया। 1990 के बाद से पोलियो ड्राप को लाया गया, जो पूरी तरह से विदेशी था और वो भी इस बौने तर्क के साथ कि जो वैक्सीन भारत में विकसित  होती थी उसको इंजेक्शन के जरिये लगाया जाता था और इंजेक्शन लगाने में बच्चों को काफी दर्द होता है और बच्चे को रोने से बचाने के लिए उसकी जगह विदेशी कंपनी का पोलियो ड्राप लाया गया। जिसका मकसद सिर्फ और सिर्फ इन कंपनियों को अरबों डॉलर का मुनाफा पहुंचाना था। और इस तरह भारतीय सरकार ने जनता के अरबों रुपये को विदेशी और  प्राइवेट कंपनियों की जेब में डाल दिया। अब इस वैक्सीन पर पूरी तरह बड़ी-बड़ी विदेशी कंपनियों का कब्जा है।

भारत में जिस-जिस संस्था के द्वारा कोरोना वैक्सीन विकसित करने की बात कही जा  रही है उसकी वास्तविकता यह है कि भारत के इन संस्थाओं ने वैक्सीन की तकनीक और  फॉर्मूले को विदेशों से आयात किया है, या यों कहें कि रॉयल्टी देने की शर्त पर इजाजत ली है। यानी सारे संसाधन भारत के होंगे और खरीददारी भी भारत के लोग करेंगे, लेकिन मुनाफे का बड़ा हिस्सा बाहर निर्यात होगा। भारत में जो भी वैक्सीन विकसित होने की बात कही जा रही है, असल में वो भारत के वैज्ञानिकों द्वारा किया गया खुद का अपना शोध नहीं है। वो विदेशों में किये गए शोध और तकनीक को आयात  कर रहे हैं।विदेशी कम्पनियों ने अपना शोध क्यों बेचा? यह  सवाल आना स्वाभाविक है। इसलिए ताकि उनके शोधों का परीक्षण भारत के लोगों पर ज्यादा से ज्यादा किया जाय और बड़े पैमाने पर वैक्सीन बेची जाय। बेहतर यह होता कि थोड़ा समय लेकर भारत में ही यहां के वैज्ञानिकों द्वारा वैक्सीन को विकसित किया जाता, जैसे  रूस, इसराइल, अमेरिका, चीन आदि खुद अपना विकसित कर रहे हैं। एक जरुरी बात यह है कि कोरोना के लिए जो वैक्सीन विकसित की जा रही है वह RNA टेक्नोलॉजी पर आधारित है,  और यह बिल्कुल नई तकनीक है। इसलिए इस नई तकनीक पर बनने वाली वैक्सीन को  और ज्यादा समय लेकर ज्यादा से ज्यादा ट्रायल व मोनिटरिंग करने की जरूरत थी। लेकिन इस तरह की जल्दबाजी मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा हो सकती है। इन सब वैक्सीन में बिलगेट्स जैसे कई  पूंजीपतियों का काफी पैसा लगा हुआ है।

भारत मे विकसित लगभग सभी वैक्सीन की साझेदारी ब्रिटेन, अमेरिका और रूसी  कंपनियों के साथ है। चूंकि भारत और अन्य तीसरी दुनिया के देशों में श्रम सस्ता है, इसलिए  यहां वैक्सीन का सस्ती मजदूरी पर उत्पादन हो जाएगा, जिससे उनका प्रॉफिट मार्जिन बढ़ जायेगा। विदेशी कंपनियां अपनी तकनीक बेचकर, भारत में वैक्सीन विकसित इसलिए कर रही हैं, क्योंकि अमेरिका के बाद सबसे  ज्यादा कोरोना से संक्रमित केस भारत में ही है। इसी कारण वायरस से डर का माहौल और उसकेखरीदने वालों का बाजार बहुत बड़ा है। इस कारण इन कंपनियों को यहां वैक्सीन बेचने में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी। वहीं भारत की जनता को आसानी से वैक्सीन परीक्षण के लिए ‘गिनीपिग’ (वैक्सीन को आजमाने के लिए जानवर) बनाया जा सके।टीके के लिए गिनीपिग बनने और उसकी  विश्वसनीयता को हम हरियाणा के एक मंत्री अनिल विज के  मामले में भी देख सकते हैं, जिन्होंने शोहरत बटोरने के लिए टीका लगवाया यानि खुद को गिनीपिग के तौर पर प्रस्तुत किया और फिर भी कोरोना संक्रमित हो गए। इस मामले में भी कम्पनी ने ‘अगर-मगर’ करके मामले को दफा करने का प्रयास किया है।

विश्वसनीयता स्थापित करने के लिए वैक्सीन के पहले स्टेज का ट्रायल तो पश्चिमी देशों में  किया गया। लेकिन दूसरे और तीसरे ट्रायल को मिलाकर भारत में किया जा रहा है। क्योंकि पहले स्टेज काफी कम लेकिन दूसरे और  तीसरे ट्रायल में काफी ज्यादा वॉलेंटियर की  जरूरत होती है। जो कि इन कंपनियों को विदेशों में आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। इतना तो ठीक है वैक्सीन को जल्दी लाने की होड़ में दूसरे और तीसरे फेज के ट्रायल को मिला दिया  गया है। ताकी ट्रायल को कम लोगो पर करना पड़े और जल्द से जल्द वैक्सीन को बेचने के  लिए बाजार में उतारा जाय।

कोरोना के टीके के भारत में स्वागत करने के पहले टीकाकरण के विज्ञान और  मुनाफाखोर व्यवस्था की इस राजनीति के बारे में अवश्य सोचें।

लेखक बीएचयू में शोध छात्र और  'भगतसिंह छात्र मोर्चा’ के सचिव हैं।

साभार -:दस्तक  नए  समय की