Friday 25 December 2020

किसान आंदोलन-2

 वर्तमान किसान आंदोलन की उपलब्धियां

 (संजय कुमार)




(इस आंदोलन ने लोगों में एक नई ऊर्जा और उत्साह का संचार किया है। अब तक जो मोदी सरकार अपराजेय नजर आ रही थी, अब लोगों में एक नई आशा की किरण जगी है कि इस सरकार को भी झुकाया जा सकता है, इसे भी हराया जा सकता है। तमाम आंदोलनकारी संगठन, ताकतें, कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी एक मंच पर आकर हुंकार भर रहे हैं। इसी आंदोलन के दौरान बिहार के विधानसभा चुनाव हुए, हैदराबाद नगर निकाय, राजस्थान में पंचायतों व जम्मू कश्मीर में जिला विकास निगम के भी चुनाव हुए जिनमें बीजेपी ने बाजी मारी और उसने यह कहना शुरू कर दिया कि लोगों ने इन बिलों के पक्ष में भाजपा को जिताया है जिस कारण इस आंदोलन ने यह भी साबित किया है कि फासीवाद और उसकी वाहक भाजपा व संघ परिवार को संसदीय राजनीति के जरिये नहीं हराया जा सकता बल्कि जनसंघर्षों के माध्यम से ही फासीवाद पर मरणांतक चोट की जा सकती है।)


देश भर में मोदी सरकार द्वारा कोरोना काल में जबरदस्ती थोपे गए तीनों कृषि कानूनों के खिलाफ जबरदस्त रोष है। इन कानूनों के वापस लिए जाने की मांग को लेकर पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान के किसान दिल्ली आने वाले सभी राजमार्गों को एक महीने से घेरकर बैठे हैं। इनके अलावा उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र व अन्य राज्यों के किसान भी दिल्ली आकर धरने पर बैठे हैं व देश के अनेक हिस्सों में किसान जिला व ब्लॉक स्तर पर मोर्चा लगाए बैठे हैं। 
जहाँ सरकार कारपोरेट घरानों के दबाव में किसानों की मांगें मानने को बिल्कुल तैयार नहीं दिखती वहीं किसान भी पूरी तैयारी के साथ दिल्ली आए हैं और अपनी बातें मजबूत तर्कों के साथ रख रहे हैं, यह आंदोलन स्थल पर बखूबी देखा जा सकता है। चाहे वह दिन रात चलने वाले लंगर हों, सर्दी और ओस से बचाव करने वाले टैंट हों, कपड़े धोने की मशीनें, पानी गर्म करने की मशीनें हों या खाना बनाने वाली मशीनें, डॉक्टरी सुविधाएं सबकुछ बहुत ही मैनेजमेंट के साथ चल रहा है। बल्कि अब तो धरनास्थल पर ही स्कूल, लाइब्रेरी भी खुल गए हैं। किसानों का कहना है कि वे अपने साथ कम से कम 6 महीने का राशन लेकर आये हैं और उन्हें अब तक अपना राशन खोलने की जरूरत नहीं पड़ी क्योंकि नजदीकी गांवों से ही इफरात में दूध, लस्सी व अन्य खाद्य सामग्री सहयोग के तौर पर पहुंचाई जा रही है।
इसका अर्थ यह है कि किसान भी सरकार से आर पार की लड़ाई के मूड में हैं। इस आंदोलन का परिणाम चाहे जो भी हो लेकिन इस आंदोलन ने देश-विदेश की राजनीति और जनता में बड़ी हलचल मचा दी है। कनाडा के प्रधानमंत्री तक को किसान आंदोलन के पक्ष में बयान देना पड़ा। मोदी सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद अपनी सम्पत्ति में अकूत उछाल देखने वाले कारपोरेट घराने अडानी को फुल पेज के विज्ञापन जारी कर सफाई देनी पड़ी है। आंदोलनकारी किसानों को खालिस्तानी, माओवादी, अतिवादी, चीनी साजिश का शिकार, कांग्रेसी, विपक्षी दलों के बहकाये गए बताने के सभी हथकंडे बेकार गए हैं। प्रायोजित किसान सम्मेलनों व किसानों द्वारा सरकार के पक्ष में ज्ञापन दिलवाकर आंदोलन में फूट डालने की कोशिशें भी काम नहीं कर पाई हैं।
हरियाणा, उत्तरप्रदेश की भाजपा सरकारों द्वारा पुलिस के इस्तेमाल, बैरिकेड, वाटर कैनन, आंसू गैस के गोले भी किसानों को दिल्ली की तरफ बढ़ने से नहीं रोक पाए। झक मारकर सरकार को किसानों को बातचीत की मेज पर बुलाना ही पड़ा।
पहली बार सरकार कुछ-कुछ झुकती दिखाई दे रही है। अब तक CAA, NRC के मुद्दे पर शाहीन बाग, रोहित वेमुला की आत्महत्या के मुद्दे पर, स्टूडेंट्स मुद्दों पर अनेकों देशव्यापी आंदोलन हुए लेकिन सरकार ने उन्हें मुस्लिमों का या टुकड़े टुकड़े गैंग के विरोध बताकर खारिज कर दिया। हालांकि सरकार द्वारा पहले इस आंदोलन को भी ऐसे ही खारिज करने की कोशिशें की गई लेकिन उन्हें मजबूरन किसान संगठनों को वार्ता की मेज पर बुलाना ही पड़ा और गृह मंत्री अमित शाह को बातचीत की कमान संभालनी पड़ी। 

इस आंदोलन ने काफी उपलब्धियां भी प्राप्त की हैं और बहुत कुछ सीखाया है जिसे याद रखना बहुत जरुरी है।

1. फासीवाद पर चोट -: पहली बार फासीवाद के खिलाफ एक बड़ा सयुंक्त मोर्चा कायम होता दिखाई दे रहा है। इस आंदोलन में सभी वर्गों, जातियों और धर्मों के लोगों ने जो एकजुटता दिखाई है, जिससे संघ परिवार को अपनी नींव हिलती दिखाई देने लगी है। उत्तर भारत में फासीवाद का मजबूत आधार बड़ा किसान, आढ़ती व व्यापारी भी आज उसके खिलाफ मजबूती से खड़ा है। इतने सालों बाद पहली बार स्वतस्फूर्त रूप से देशव्यापी बंद हुआ है।
2. हरियाणा पंजाब भाईचारा -: जहां इस आंदोलन की शुरुआत पंजाब के किसानों द्वारा हुई वहीं हरियाणा के किसान भी बड़ी संख्या में इस जत्थेबंदी में जुड़े और जगह-जगह पंजाब-हरियाणा भाईचारे के बैनर लहराए जा रहे हैं। 1966 में पंजाब से अलग होकर हरियाणा के बनने के समय से ही राजधानी पंजाब और सतलुज के पानी के बंटवारे को लेकर व अन्य कुछ मुद्दों पर पंजाब-हरियाणा में विवाद रहा है, लेकिन इस आंदोलन में दोनों प्रदेशों की जनता सभी मतभेद बुलाकर कंधे से कंधा मिलाकर साथ खड़ी है। जहाँ मोर्चे पर पंजाब के सिक्ख किसान ज्यादा है, वहीं हरियाणा के सभी गांवों से उनके लिए भोजन और अन्य सहयोग आ रहा है। सरकार ने इस भाईचारे को तोड़ने के लिए SYL का मुद्दा उछालने की भी कोशिश की लेकिन भाजपा सरकार अपने इस मनसूबे में नाकामयाब रही बल्कि किसनों ने इसे फ्लॉप कर दिया। 
3. असली दुश्मन कारपोरेट पर चोट -: इस आंदोलन ने जनता के असली दुश्मन और मोदी के सरपरस्त कारपोरेट जगत को जनता के सामने नंगा कर दिया। लोग अम्बानी, अडानी के विरोध में खुलकर आये और उनके बहिष्कार की मुहिम देशव्यापी मुहिम बन गई। यहाँ तक कि अडानी को अखबारों व मीडिया में फुल पेज के विज्ञापन देकर सफाई देनी पड़ी। अम्बानी ने भी अपने कस्टमर कम होने के लिए वोडाफोन और एयरटेल पर आरोप लगाए। अडानी के गुंडों ने करनाल के पत्रकार आकर्षण उप्पल पर हमला करवाया जिससे वह और ज्यादा बेनकाब हुआ। पहली बार किसानों ने टोल फ्री करवाकर कारपोरेट पर चोट की।
4. महिलाओं की भागीदारी -: दूरी होने के बावजूद आंदोलन में बड़ी संख्या में महिलाओं की भागीदारी है। 70 साल की बुजुर्ग औरतें भी पंजाब से जीप चलाकर दिल्ली पहुंची हैं। महिलाओं की जरूरतों का इस आंदोलन में पूरा ध्यान रखा जा रहा है। उनके लिए अलग बाथरूम से लेकर शौचालय व सेनेटरी पैड तक का बंदोबस्त किया गया है। पुरुषों द्वारा गोल रोटी बनाना व खाना बनाना सीखना एक सुखद बयार की तरह है, जिससे उन्हें घर के काम का महत्व पता चलेगा। इस तरह यह आंदोलन महिला-पुरुष समानता की दिशा में भी एक कदम है। महिला किसानों का कांसेप्ट, उनकी समस्याएं भी यह आंदोलन उठा रहा है।
5. नौजवानों की चेतना -: पंजाब का नौजवान हमेशा ही सामाजिक चेतना और क्रांतिकारी चेतना का वाहक रहा है। मुगल शासन के अत्याचारों के खिलाफ गुरु तेग बहादुर और उनके साहबजादों ने अपनी शहादत दी, आजादी की लड़ाई में करतार सिंह सराबा हो या शहीदे आजम भगत सिंह, नक्सलबाड़ी आंदोलन में भी पंजाब के नौजवानों ने बढ़ चढ़कर कुर्बानियां दी हैं, खालिस्तान के धार्मिक उन्माद के खिलाफ भी अवतार सिंह पाश सरीखे कवि ने अपनी शहादत दी। लेकिन पिछले कुछ समय से पंजाब की युवा पीढ़ी नशे और साम्राज्यवादी पॉप कल्चर की गिरफ्त में थी लेकिन इस आंदोलन ने उसे एक गहरी नींद से जगाने का काम किया है। आज वे आंदोलन में एक जुझारु भूमिका निभा रहे हैं वहीं करपोरेटवाद, साम्राज्यवाद व सरकारी जुल्म के खिलाफ गीतों, नारों व नाटकों के माध्यम से एक नई संस्कृति का भी निर्माण कर रहे हैं।
6. गजब का प्रबन्धन -: अलग अलग किसान यूनियनों के किसान और लाखों की भीड़ होने के बावजूद आन्दोलनस्थल पर गजब का अनुशासन और प्रबन्धन देखने को मिल रहा है। एक महीना से ज्यादा होने और दिल्ली की हाड़ कंपा देने वाली ठंड के बावजूद किसी तरह की कोई हड़बड़ी और अव्यवस्था नहीं है। हर व्यक्ति की जरूरतों का पूरा ध्यान रखा जा रहा है। इतने लोगों के होने के बावजूद साफ सफाई का पूरा ध्यान है। अलग अलग विचारों की मतभिन्नता के बावजूद किसान जत्थेबंदियों में आंदोलन को लेकर एकता है और सभी को उचित स्पेस मिल रहा है तभी सरकार आंदोलन में कोई फूट नहीं डाल पाई है हालांकि सरकार ने अलग अलग यूनियनों को बुलाकर ऐसा करने की भरपूर कोशिश की।
7. किसानों की राजनैतिक चेतना -: इस आंदोलन ने किसानों की राजनैतिक चेतना को प्रमुखता से बढाने का काम किया है। जहाँ किसान नेता तीनों कानूनों के हर क्लाज को इतने अच्छे से सरकार के सामने रख रहे हैं कि सरकार को इतने संसोधन लेकर सामने आना पड़ा कि किसानों ने तीनों कानूनों को रद्द कर ही वार्ता आगे बढाने की मांग कर दी है। वहीं आंदोलन में शामिल किसी भी किसान से बात कर लो वही हर कानून की धज्जियां उड़ाकर रख देता है। मीडिया वाले जानबूझकर ऐसे किसानों से बातचीत करने की कोशिश करते हैं जिसे उनकी समझ से कुछ न पता हो ताकि वे यह दिखा सके कि ये किसान बहकाकर लाये गए हैं लेकिन उन्हें निराश ही होना पड़ता है।

किसान आंदोलन की कमजोरियां -:

हर आंदोलन की कुछ न कुछ कमजोरियां भी जरूर होती हैं, वही इस आंदोलन के भी साथ है।
 
1. सामंती धनी किसानों के हाथ में नेतृत्व -:
यह आंदोलन की सबसे बड़ी कमजोरी है कि इसका नेतृत्व किसी क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के हाथ में न होकर सामंती धनी किसानों के हाथ में है व इसे आढ़तियों व जमींदारों का समर्थन प्राप्त है क्योंकि उनके हित इससे पूरी तरह गुंथे हुए हैं। लेकिन यह इस आंदोलन की कमजोरी न होकर कम्युनिस्ट पार्टी की कमजोरी है कि वह अपनी कमजोर ताकत के चलते इसकी अगुआ नहीं बन पाई। देश में कम्युनिस्ट आंदोलन बिखराव व विभ्रम का शिकार है, इसलिए आगे बढ़कर इस ऊर्जावान आंदोलन को नेतृत्व नहीं दे पा रहा है। हालांकि कई सारे कम्युनिस्ट जन संगठन व कार्यकर्ता इस आंदोलन में पूरी शिद्दत से लगे हुए हैं।
2. मजदूरों की भागीदारी -: इन कानूनों में जमाखोरी से सम्बंधित तीसरे कानून का सबसे घातक असर मजदूर और आम आदमी पर पड़ने वाला है क्योंकि आलू-प्याज की एकदम से बढ़ी हुई कीमतों के रूप में हम यह देख चुके हैं। लेकिन अभी यह आंदोलन किसानों तक ही सीमित है और बड़े पैमाने पर मजदूरों को नहीं जोड़ पाया है। बेशक मारुति वर्कर्स यूनियन और सोनीपत के मजदूर अधिकार संगठन के बैनर तले मजदूरों ने आंदोलन में भाग लिया है, लेकिन व्यापक स्तर पर मजदूरों की भागीदारी और उनके नेतृत्व में ही यह आंदोलन कामयाब हो सकता है। इसलिए मजदूर संगठनों और उनकी पार्टियों की यह महती जिम्मेवारी बनती है कि वे इन कानूनों के दुष्प्रभावों को मजदूरों के बीच लेकर जाएं और इस आंदोलन में बड़ी संख्या में शिरकत सुनिश्चित करें।
इस आंदोलन ने लोगों में एक नई ऊर्जा और उत्साह का संचार किया है। अब तक जो मोदी सरकार अपराजेय नजर आ रही थी, अब लोगों में एक नई आशा की किरण जगी है कि इस सरकार को भी झुकाया जा सकता है, इसे भी हराया जा सकता है। तमाम आंदोलनकारी संगठन, ताकतें, कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी एक मंच पर आकर हुंकार भर रहे हैं। इसी आंदोलन के दौरान बिहार के विधानसभा चुनाव हुए, हैदराबाद नगर निकाय, राजस्थान में पंचायतों व जम्मू कश्मीर में जिला विकास निगम के भी चुनाव हुए जिनमें बीजेपी ने बाजी मारी और उसने यह कहना शुरू कर दिया कि लोगों ने इन बिलों के पक्ष में भाजपा को जिताया है जिस कारण इस आंदोलन ने यह भी साबित किया है कि फासीवाद और उसकी वाहक भाजपा व संघ परिवार को संसदीय राजनीति के जरिये नहीं हराया जा सकता बल्कि जनसंघर्षों के माध्यम से ही फासीवाद पर मरणांतक चोट की जा सकती है।

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