किसान आंदोलन - एक अवलोकन
(डॉक्टर प्रदीप)
देश की राजधानी इस वक्त एक अलग किस्म की सुनामी देख रही है। यह देखना बेहद सुखद है कि जब राजसत्ता अपने सर्वाधिक निरकुंश तौर तरीकों से विरोध के प्रत्येक स्वर को दबाने पर तुली थी, विरोध की हर आवाज को देश विरोध के नाम पर बदनाम करने की कोशिश कर रही थी, जब अधिकांश मीडिया भांडगिरी का चरम प्रदर्शन कर रहा था, ठीक उसी समय लाखों-लाख किसान जनविरोधी कानूनों को रद्द करवाने के लिए दिल्ली को घेरे खड़े हैं और हजारों की संख्या में किसान प्रत्येक दिन दिल्ली की ओर कूच कर रहे हैं।
किसान कहीं दिल्ली न पहुंच जाएं, यह डर इतना ज्यादा था कि किसानों को रोकने के लिए जो हथकंडे सरकार द्वारा अपनाये गये, वो इस प्रकार के थे मानो किसी दुश्मन सेना का रास्ता रोका जा रहा हो। सडकों पर आठ-आठ फूट गहरी खंदकें खोद दी गई। बड़े-बड़े बोल्डर(पत्थर) सडकों पर डाल दिए गए। लेकिन किसानों की सुनामी को रोका नहीं जा सका। सरकारें कुछ सालों से इस मुगालते में राज कर रही हैं कि जो वो कर रही है, जो वो कह रही हैं, जनता उस सब को आंखें बंद करके स्वीकार कर लेंगी।
जो तीन कृषि कानून सरकार ने लागू किए हैं, इनके बारे में सरकार ने किसी की राय ली? भाजपा के बिकाऊ प्रवक्ताओं ने मीडिया के सामने ताल ठोकी कि ये कानून बहुत विचार विमर्श व जन समुदाय से राय लेकर बनाए गए हैं और जनता इसका विरोध नहीं कर रही, केवल विपक्ष इसे अपनी राजनीति के लिए मुद्दा बना रहा है। लेकिन जल्दी ही उसके पूराने सहयोगी दल शिरोमणि अकाली दल ने इस मुद्दे पर एनडीए छोड़ दी, उसके एक और पुराने मित्र चौटाला ने नुक्ताचीनी शुरू कर दी। इसलिये नहीं कि अकाली दल व जजपा किसानों की हितैषी है। जब बिल पास हो रहे थे तो इनका समर्थन बाजपा को था। लेकिन इन कानूनों के जनता द्वारा जबरदस्त विरोध को देखते हुए इन्हें समझ में आ गया कि अगर उन्होंने अपनी पॉजिशन नहीं बदली तो जनता इन्हें गटर में फैंक देगी। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इन कानूनों को बनाने से पहले आर.एस.एस. से जुड़े भारतीय किसान संघ से भी कोई राय नहीं ली गई, किसी ओर किसान संगठन से राय मशविरा करना तो बहुत दूर की बात है।
अगर अपने ही किसान संगठन से राय नहीं तो किसकी इच्छा से ये कानून बनाये गए और वे भी अध्यादेश के माध्यम से? मोदी सरकार को ऐसी क्या जल्दी पड़ी थी कि जब देश लॉकडाउन में फंसा हुआ था, सरकार ने अध्यादेश के द्वारा यह कृषि बदलाव करने का षड्यंत्र रचा? अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि ये तीनों कानून बड़ी कंपनियों की कृषि क्षेत्र में घुसपैठ और मुनाफे को सुनिश्चित करते हैं।
हर व्यक्ति जानता है कि फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य असल में अधिकतम मूल्य है जो किसानों को मिल पाता है। मात्र 6% फसल इस मूल्य पर बिक पाती है, बाकि 94% फसलें इस एमएसपी से 50% तक कम मूल्य पर बिकती हैं। जहां एमएसपी मिलता है, वो इलाके मुख्यतः पंजाब और हरियाणा में हैं जहां मंडी व्यवस्था कायम है। बाकि राज्यों में न मंडी है न एमएसपी है। इसमें कोई शक नहीं है कि मंडी व्यवस्था, कोई बेहतरीन व्यवस्था नहीं है। और यह भी सच्चाई है कि आढतियों ने किसानों को अपने कर्ज जाल में फंसा रखा है। नए कृषि कानून किसानों को आढ़तियों से भी बढ़ी जोंकों के शिकंजे में फंसाने का इंतजाम करते है। यह उम्मीद करना कि किसानों को मंडी से बाहर बेहतर रेट मिल सकते हैं, मूर्खता होगी। देश के किसी भी क्षेत्र में ऐसा नहीं हो पाया है। लेकिन इसकी इजाजत देकर कंपनियों का रास्ता जरूर साफ कर दिया है। अब अगर अंबानी व अडाणी कृषि उत्पाद खरीदने के लिए बाजार का रूख करेगा तो वह कोई 50-100 क्विंटल तो खरीदेगा नहीं। उनके पास हजारों टन की भण्डार क्षमता है। अभी तक कृषि उत्पाद आवश्यक वस्तुओं की श्रेणी में आते थे इसलिए एक मात्रा से अधिक कोई व्यक्ति/कंपनी ये खरीद नहीं सकती थी इसलिये दूसरे कृषि कानून की जरूरत पड़ी जहां जमाखोरी पर से सभी प्रतिबंध हटा लिए गए हैं। इसी से जुड़ा तीसरा कानून कांट्रेक्ट खेती से जुड़ा है। स्पष्ट है पूंजीपतियों को अपनी फैक्ट्रियों के लिए कच्चा माल चाहिए। कांट्रेक्ट खेती के द्वारा वो अपनी मर्जी का माल पैदा करने के लिए किसानों को बाध्य करेंगे। ब्रिटिश काल में नील की खेती करने वाले किसानों की दुर्दशा इतिहास के पन्नों में खूब दर्ज है। वर्तमान में भी अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय अनुभव यही बताते हैं कि कांट्रेक्ट खेती में घाटा हमेशा किसान को ही रहा है। खराब गुणवत्ता के नाम पर किसान की फसल सस्ते दाम पर खरीद ली जाती है।
अंत: सरकार ने किसानों से राय करने के बाद नहीं बल्कि कारपोरेट जगत से बात करने के बाद ये कृषि कानून लागू किए गए। ये कानून केवल किसानों को ही प्रभावित नहीं करेंगे बल्कि देश कि 80% आबादी के लिए नुकसानदायक साबित होने वाले हैं क्योंकि आधे से ज्यादा आबादी प्रत्यक्ष तौर पर और एक चौथाई आबादी अप्रत्यक्ष तौर पर खेती से जुड़ी है। इसलिये देश के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य बनता है कि तीनों नए कृषि कानूनों को रद्द करने के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करें। यह संघर्ष देश की जनता के अधिकारों का, कारपोरेट जगत की अंधी लूट की खिलाफत का संघर्ष है।
लेकिन इस पूरे घटनाक्रम का एक अन्य आयाम भी है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सभी किसान संगठन स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने की बात कर रहे हैं, निस्संदेह होनी भी चाहिए लेकिन स्वामीनाथन आयोग तो जमीन के वितरण की, भूमि सुधारों की भी बात करता है। इस पर किसान संगठन चुप्पी साधे हैं। इस आंदोलन में कृषि क्षेत्र से जुड़ी आधी आबादी सिरे से गायब है। खेत मजदूर, भूमिहीन किसानों के लिए इस आंदोलन में कोई जगह नहीं है। किसान आंदोलन ने उन्हें अपने से दूर कर रखा है और यह इस आंदोलन की एक बहुत बड़ी कमजोरी है। जो वर्ग किसी भी कृषि संघर्ष की मुख्य ताकत होना चाहिए, वही हाशिये पर नजर आ रहा है। दूसरी ओर यहां आढ़तिए उत्पीड़ित के रूप में और मसीहा के रूप में पेश किए जा रहे हैं। सच्चाई तो यह है कि आढतिया पूराने सूदखोर का ही नया रूप है। (आढ़तिये ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सामंती सत्ता के प्रतीक हैं) किसानों को मंडी में आढतियों की लूट से मुक्ति चाहिए थी लेकिन वर्तमान आंदोलन आढतियों के समर्थन, सहयोग से चल रहा है। ग्रामीण क्षेत्र के संकट को दूर करने के लिए जरूरत तो आमूलचूल बदलाव की है जो नए कृषि कानूनों को रद्द कर पैबंद लगाने से दुरूस्त नहीं होगी। असल में कृषि कानूनों के विरोध के नाम पर कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा आदि संसदीय पार्टियों के बीच चल रही नूरा कुश्ती को भी समझने की जरूरत है। साल 1991 से आज तक के तीस सालों के दौरान देश का प्रत्येक राजनीतिक दल कभी न कभी सत्ता में रहा है। विपक्ष में रहते हुए जो पार्टियां विदेशी कंपनियों का पुरजोर विरोध करती नजर आती हैं, वही सत्ता में आते ही चुप्पी की चादर ओढ लेती हैं। आज कांग्रेस इन कानूनों का विरोध करती नजर आ रही है लेकिन अगर कांग्रेस सत्ता में होती तो उसी ने इन कानूनों को लागू करना था क्योंकि कांग्रेस हो या भाजपा, या कोई और पार्टी आर्थिक नीतियां साम्राज्यवादियों के ही इशारे से चल रही हैं।
सार रूप में आढ़तियों व बड़े जमींदारों व धनी किसानों के सहयोग से चल रहा यह आंदोलन वर्गीय संरचना में कोई बदलाव नहीं करेगा। भूमि सुधारों के बिना , कृषि क्रांति के बिना भूमिहीनों, गरीब किसानों, खेत मजदूरों के जीवन में कोई बदलाव नहीं आएगा। लेकिन व्यापक जनमानस में प्रचंड साम्राज्यवादी हमले का प्रतिरोध करने की चेतना अवश्य पैदा करेगा और सत्ता के घमंड में चूर दिल्ली की सल्तनत को जनता की ताकत का अहसास दिलाएगा जो लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए बेहद जरूरी है।
शानदार अवलोकन
ReplyDeleteसभी अंतर्विरोधों को स्पष्ट करता हुआ एक जरुरी लेख।
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