(महान क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल के जन्मदिन पर प्रस्तुत है उनकी जिंदगी का छोटा-सा सफरनामा । इससे हम समझ सकते हैं कि लगातार जो लोग ईमानदारी से सिद्धांत को व्यवहार से और व्यवहार को सिद्धांत से मिलाकर आगे बढ़ते हैं वो लोग संघर्षों के नए रास्तों का निर्माण करते हैं । बिस्मिल ने जिस एच.आर.ए. की स्थापना की थी आगे चलकर वही विकसित होकर एच.एस.आर.ए. बनी । - संपादक मंडल अभियान )
राम प्रसाद 'बिस्मिल' भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की क्रांतिकारी धारा के एक प्रमुख सेनानी थे, जो 30 वर्ष की आयु में शहादत का जाम पी गए थे । वे मैनपुरी षड्यंत्र व काकोरी कांड जैसी कई घटनाओं में शामिल थे तथा हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य भी थे । एक कवि, शायर, अनुवादक, बहुभाषाभाषी, इतिहासकार व साहित्यकार भी थे । बिस्मिल उनका उपनाम था । बिस्मिल के अतिरिक्त वे राम और अज्ञात के नाम से भी लेख कविताएं लिखते थे । 11 वर्ष के क्रांतिकारी जीवन में उन्होंने कई पुस्तकें लिखी और स्वयं ही उन्हें प्रकाशित किया । पुस्तकों को बेचकर जो पैसा मिला, उससे हथियार खरीदे और उनका प्रयोग ब्रिटिश राज को उखाड़ फेंकने के लिए किया । उनकी 11 पुस्तकें उनके जीवन काल में प्रकाशित हुई और ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त कर ली गई ।
11 जून, 1898 को उत्तरदेश के शाहजहांपुर में पंडित मुरलीधर की पत्नी मूलमति ने एक बालक को जन्म दिया । बालक का नाम रामप्रसाद रखा गया । बाल्यकाल से ही रामप्रसाद की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा । उसका मन खेलने में अधिक, पढ़ने में कम लगता था । इसके कारण पिताजी तो उनकी खूब पिटाई करते, पर मां हमेशा प्यार से यही समझाती, "बेटा राम! यह बहुत बुरी बात है! मत किया करो!" इस प्यार भरी सिख का उसके मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा । पिता ने पहले हिंदी का अक्षर बोध कराया, किंतु उ से उल्लू न तो उन्होंने पढ़ना सीखा और ना ही लिख कर दिखाया । उन दिनों हिंदी की वर्णमाला में उ से उल्लू ही पढ़ाया जाता था । वह इस बात का विरोध करते थे और हार कर उन्हें उर्दू के स्कूल में भर्ती करा दिया गया ।
रामप्रसाद जब आठवीं कक्षा में थे, तभी संयोग से स्वामी सोमदेव का आर्य समाज भवन में आगमन हुआ । रामप्रसाद को स्वामी जी की सेवा में नियुक्त किया गया । यहीं से उनके जीवन की दशा और दिशा, दोनों में परिवर्तन हुआ । स्वामी सोमदेव के साथ राजनीतिक विषयों पर खुली चर्चा से उनके मन में देश प्रेम की भावना जागृत हुई । सन् 1916 के कांग्रेस अधिवेशन में स्वागताध्यक्ष पंडित जगत नारायण 'मुल्ला' के आदेश की धज्जियां उड़ाते हुए रामप्रसाद ने जब बाल गंगाधर तिलक की पूरे लखनऊ में शोभायात्रा निकाली तो नवयुवकों का ध्यान उनकी दृढ़ता की ओर गया । अधिवेशन के दौरान उनका परिचय सोमदेव शर्मा व मुकुंदीलाल आदि से हुआ । बाद में इन्हीं सोमदेव शर्मा ने एक पुस्तक प्रकाशित की थी, जिसका शीर्षक था - “ अमेरिका की स्वतंत्रता का इतिहास” । रामप्रसाद ने पुस्तक अपनी मां से ₹400 लेकर छपावाई थी । पुस्तक छपते ही जब्त कर ली गई थी । बाद में जब काकोरी कांड का अभियोग चला तो साक्ष्य के रूप में यही पुस्तक प्रस्तुत की गई थी ।
सन् 1915 में भाई परमानंद की फांसी का समाचार सुनकर रामप्रसाद ने ब्रिटिश साम्राज्य को समूल नष्ट करने की कसम ली । कुछ नवयुवक उनसे पहले ही जुड़ चुके थे, और स्वामी सोमदेव का साथ भी उन्हें प्राप्त था । उन्होंने पंडित गेंदालाल के मार्गदर्शन में मातृवेदी के नाम से एक संगठन खड़ा किया । इस संगठन की ओर से भारत माता को विदेशियों के शिकंजे से मुक्त कराने के आशय से एक इश्तिहार और एक प्रतिज्ञा प्रकाशित की गई । रामप्रसाद जिनकी अब तक एक पुस्तक भी प्रकाशित हो चुकी थी, अब बिस्मिल के नाम से प्रसिद्ध हो चुके थे । सन् 1918 में रामप्रसाद के दल ने क्रांतिकारी गतिविधियों हेतु धन एकत्र करने के उद्देश्य से धन्ना सेठों के यहां तीन डकैतीयां डाली, जिससे पुलिस हाथ धोकर उनके पीछे पड़ गई ।
मैनपुरी षड्यंत्र -:
मैनपुरी षड्यंत्र में शाहजहांपुर से 6 युवक शामिल हुए थे, जिनके नेता बिस्मिल थे, किन्तु पुलिस के हाथ नहीं आए, तत्काल फरार हो गए । 1 नवंबर, 1919 को जज ने मैनपुरी षड्यंत्र का फैसला सुना दिया । बिस्मिल पूरे 2 वर्ष भूमिगत रहे । उनके दल के कुछ लोगों ने शाहजहांपुर में जाकर यह अफवाह फैला दी कि भाई राम प्रसाद तो पुलिस की गोली से मारे गए, जबकि सच्चाई यह थी कि वे पुलिस मुठभेड़ के दौरान नदी में छलांग लगाकर पानी के अंदर ही अंदर तैरते हुए बहुत दूर जाकर बाहर निकले और निर्जन बीहड़ों में चले गए । बिस्मिल किसी भी स्थान पर अधिक दिनों तक ठहरते नहीं थे । पलायनावस्था में उन्होंने अंग्रेजी पुस्तक "द ग्रैंड मदर आफ रशियन रिवॉल्यूशन" का हिंदी अनुवाद किया ।
पुन: क्रांति की ओर -:
आम माफी के सरकारी ऐलान के बाद रामप्रसाद बिस्मिल शाहजहांपुर वापिस आ गए । एक कंपनी में कुछ दिन मैनेजरी करने के बाद उन्होंने अपने एक सांझीदार बनारसी लाल के साथ साड़ियों का व्यापार शुरू कर दिया । कांग्रेस जिला समीति ने उन्हें कार्यकारी कमेटी में ले लिया । सितंबर 1920 की कलकत्ता कांग्रेस में वे शाहजहांपुर के अधिकृत प्रतिनिधि के रूप में शामिल हुए । कलकत्ता में उनकी भेंट लाला लाजपत राय से हुई । लालाजी ने जब उनकी लिखी पुस्तकें देखी तो वे काफी प्रभावित हुए । लालाजी ने उनका परिचय कोलकत्ता के कुछ प्रकाशकों से करा दिया । सन् 1921 के अहमदाबाद के कांग्रेस अधिवेशन में बिस्मिल ने पूर्ण स्वराज के प्रस्ताव पर मौलाना हसरत मोहानी का खुलकर समर्थन किया और अंत में गांधीजी से असहयोग आंदोलन शुरू करने का प्रस्ताव पारित करवाकर ही माने । इस कारण वे युवाओं में काफी लोकप्रिय हो गए । समूचे देश में असहयोग आंदोलन शुरू करने में शाहजहांपुर के स्वयंसेवकों की अहम भूमिका थी । किंतु 1922 में जब चौरी चौरा की घटना के बाद, बिना किसी से परामर्श किए गांधीजी ने आंदोलन वापिस ले लिया तो 1922 की गया कांग्रेस में बिस्मिल तथा उनके साथियों ने गांधी का इतना जोरदार विरोध किया कि कांग्रेस में फिर से दो विचारधाराएं बन गई । एक उदारवादी और दूसरी विद्रोही या रिबेलीयन । गांधी विद्रोही विचारधारा के युवकों को कांग्रेस की आम सभा में विरोध करने के कारण हमेशा हुल्लड़ बाज कहा करते थे । एक बार तो उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखकर क्रांतिकारी नवयुवकों का साथ देने पर बुरी तरह फटकार भी लगाई थी ।
एच. आर. ए. का गठन -:
जनवरी, 1923 में मोतीलाल नेहरू व देशबंधु चितरंजन दास सरीखे धनाढ्य लोगों ने मिलकर स्वराज पार्टी बना ली । नवयुवकों ने तदर्थ पार्टी के रूप में रिवॉल्यूशनरी पार्टी का ऐलान कर दिया । सितंबर, 1923 में दिल्ली में हुए कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में नव युवकों ने निर्णय लिया कि वे भी अपनी पार्टी का नाम व संविधान आदि निश्चित कर राजनीति में दखल देना शुरू करेंगे, अन्यथा देश में लोकतंत्र के नाम पर लूट तंत्र जारी रहेगा । देखा जाए तो उस समय उनकी यह सोच बड़ी दूरदर्शी सोच थी । क्रांतिकारी लाला हरदयाल जो उन दिनों विदेश में रहकर हिंदुस्तान को स्वतंत्र कराने की रणनीति बनाने में जुटे हुए थे, स्वामी सोमदेव के समय से ही बिस्मिल के संपर्क में थे । लालाजी ने ही पत्र लिखकर रामप्रसाद को शचीन्द्रनाथ सान्याल व यदुगोपाल मुखर्जी से मिलकर नई पार्टी का संविधान तैयार करने की सलाह दी थी । लाला जी की सलाह मानकर रामप्रसाद इलाहाबाद गए और सचिंद्र नाथ सान्याल के घर पर पार्टी का संविधान तैयार किया । नयी पार्टी का नाम “हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन” संक्षेप में h.r.a. रखा गया व इसका संविधान पीले रंग के पर्चे पर लिखकर सभी सदस्यों को भेजा गया । 3 अक्तूबर, 1924 को पार्टी की एक बैठक कानपुर में की गई जिसमें शचीन्द्रनाथ सान्याल, योगेश चंद्र चटर्जी व राम प्रसाद बिस्मिल आदि कई प्रमुख सदस्य शामिल हुए । बैठे में पार्टी का नेतृत्व बिस्मिल को सौंपकर सान्याल व चटर्जी बंगाल चले गए । पार्टी के लिए फंड एकत्र करने में कठिनाई को देखते हुए आयरलैंड के क्रांतिकारियों का तरीका अपनाया गया और पार्टी की और से पहली डकैती 25 दिसंबर, 1924 को बमरौली में डाली गई ।
जनवरी, 1925 में पार्टी ने देश के सभी प्रमुख स्थानों पर द रिवॉल्यूशनरी नाम से अपना घोषणा पत्र बांटा, जिसमें बिस्मिल ने विजय कुमार के नाम से दल की विचारधारा का खुलासा करते हुए साफ शब्दों में घोषित किया कि क्रांतिकारी इस देश की शासन व्यवस्था में किस प्रकार का बदलाव करना चाहते हैं और इसके लिए वे क्या-क्या कर सकते हैं ? केवल इतना ही नहीं, उन्होंने गांधीजी की नीतियों के बारे में बात करते हुए यह प्रश्न भी किया था कि वे अंग्रेजों से खुलकर बात करने में डरते क्यों हैं ? उन्होंने देश के सभी नौजवानों को ऐसे छद्मवेशी महात्मा के बहकावे में न आने की सलाह देते हुए क्रांतिकारी पार्टी में शामिल होकर अंग्रेजों से टक्कर लेने का खुला आह्वान किया ।
काकोरी कांड -:
द रिवॉल्यूशनरी नाम से प्रकाशित घोषणापत्र को देखते ही ब्रिटिश सरकार इसके लेखक को खोजने लगी । संयोग से शचींद्रनाथ सान्याल बांकुरा में उस समय गिरफ्तार कर लिए गए जब वे यह घोषणा पत्र अपने किसी साथी को पोस्ट करने जा रहे थे । इसी प्रकार योगेशचंद्र चटर्जी कानपुर से पार्टी की मीटिंग करके जैसे ही हावड़ा स्टेशन पर ट्रेन से उतरे, एच.आर.ए. के संविधान की ढेर सारी प्रतियों के साथ पकड़ लिए गए । दोनों प्रमुख नेताओं के गिरफ्तार हो जाने से बिस्मिल के कंधों पर उत्तर प्रदेश के साथ-साथ बंगाल के सदस्यों का उत्तरदायित्व भी आ गया । बिस्मिल का स्वभाव था कि वे या तो किसी काम को हाथ में लेते ही नहीं थे और यदि एक बार काम हाथ में ले लिया तो फिर उसे पूरा किए बगैर छोड़ते न थे । क्रांतिकारी गतिविधियों हेतु धन की आवश्यकता पहले भी थी किंतु अब और अधिक बढ़ गई थी । 7 अगस्त 1925 को एक एक आपात मीटिंग हुई, जिसमें सरकारी खजाना लूटने का निर्णय लिया गया और विस्तार से योजना बनाई गई ।
9 अगस्त 1925 को शाहजहांपुर रेलवे स्टेशन से बिस्मिल के नेतृत्व में कुल 10 लोग -
अशफाक उल्ला खां, राजेंद्र लाहिड़ी, चन्द्रशेखर आजाद, शचींद्रनाथ बक्शी, मन्मथनाथ, मुकुंदी लाल, केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम) मुरारी शर्मा (वास्तविक नाम मुरारी लाल गुप्त) तथा बनवारी लाल साहरनपुर-लखनऊ पैसेंजर रेलगाड़ी में सवार हुए । इन सबके पास पिस्तौलों के अतिरिक्त जर्मनी के बने चार माउज़र पिस्तौल भी थे । लखनऊ से पहले काकोरी रेलवे स्टेशन पर रुक कर जैसे ही गाड़ी आगे बढ़ी क्रांतिकारियों ने चेन खींचकर उसे रोक दिया और गार्ड के डिब्बे से सरकारी खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया । बक्से को खोलने की कोशिश की गई किंतु जब वह नहीं खुला तो अशफाक ने अपना माउजर एक साथी को पकड़ा दिया और हथोड़ा लेकर बक्सा तोड़ने में जुट गया । साथी से अचानक माउजर का ट्रिगर दब गया और गोली एक यात्री को लगी और उसकी मौके पर मौत पर ही मृत्यु हो गई । इस अनहोनी से सभी घबरा गए और जल्दी-जल्दी सिक्कों व नोटों से भरे थैलों को चादरों में बांधने लगे । अफरा-तफरी में एक चादर वहीं छूट गई । अगले दिन अखबारों के माध्यम से यह खबर पूरे संसार में फैल गई । ब्रिटिश सरकार, जिसके राज्य में कभी सूरज नहीं डूबता था, उसके खजाने को लूट लिया जाना कोई मामूली घटना नहीं थी । पूरा शासन-प्रशासन हिल गया ।
गिरफ्तारी और अभियोग -
पुलिस छानबीन में साफ हो गया कि काकोरी ट्रेन डकैती क्रांतिकारियों का एक सुनियोजित षड्यंत्र था । सरकार ने काकोरी कांड से संबंधित जानकारी देने व षड्यंत्र में शामिल किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करवाने के लिए इनाम की घोषणा कर दी । फलस्वरूप पुलिस को घटनास्थल पर मिली चादर में लगे धोबी के निशान से यह पता चल गया कि चद्दर शाहजहांपुर के किसी व्यक्ति की है । शाहजहांपुर के धोबियों से पूछताछ करने पर मालूम हुआ की यह चद्दर बनारसी लाल की है । बनारसी लाल से पुलिस ने सारा भेद प्राप्त कर लिया । यह भी पता चल गया कि 9 अगस्त, 1925 को शाहजहांपुर से उसकी पार्टी के कौन-कौन लोग शहर से बाहर गए थे और वे कब कब वापस आए ? जब इस बात की पुष्टि हो गई कि रामप्रसाद बिस्मिल, जो कि एचआरए के कमांडर थे, उस दिन शहर में नहीं थे, तो 26 सितंबर 1925 की रात में बिस्मिल के साथ-साथ पूरे देश से 40 से भी अधिक लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया ।
काकोरी कांड में केवल 10 लोग वास्तविक रूप से शामिल हुए थे । अतः उन सभी को नामजद किया गया । इनमें से पांच चंद्रशेखर आजाद, मुरारी शर्मा (छद्म नाम), केशव चक्रवर्ती(छद्म नाम), अशफाक उल्ला खां व शचींद्रनाथ बख्शी को छोड़कर, जो कि पुलिस के हाथ नहीं आए थे, शेष सभी व्यक्तियों पर अभियोग चला और उन्हें 5 वर्ष की कैद से लेकर फांसी तक की सजा सुनाई गई । स्पेशल मजिस्ट्रेट ऐनुद्दीन ने क्रांतिकारियों की छवि खराब करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । सिर्फ इतना ही नहीं, केस को सेशन कोर्ट में भेजने से पहले ही इस बात के सभी साक्षी व साक्ष्य एकत्र कर लिए थे कि यदि अपील भी की जाए, तो भी एक भी क्रांतिकारी बिना सजा के छूटने न पाए । बनारसीलाल को हवालात में ही कड़ी सजा का भय दिखाकर तोड़ लिया गया था । शाहजहांपुर जिला कांग्रेस कमेटी में पार्टी फंड को लेकर इसी बनारसी का बिस्मिल से झगड़ा हो चुका था । बिस्मिल ने बनारसी लाल पर पार्टी फंड में गबन का आरोप सिद्ध करते हुए उसे पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निलंबित कर दिया था । बाद में जब गांधीजी शाहजहांपुर आए तो बनारसी ने उनसे मिलकर अपना पक्ष रखा । गांधीजी ने उस समय यह कह कर कि छोटी-मोटी हेरा फेरी को ज्यादा तूल नहीं देना चाहिए, इन दोनों में सुलह करा दी थी । परंतु बनारसी बड़ा मक्कार था । उसने पहले तो बिस्मिल से माफी मांग ली, फिर गांधी जी को अलग ले जाकर उनके कान भर दिए कि रामप्रसाद बड़ा ही अपराधी किस्म का व्यक्ति है । वे इसकी किसी भी बात का विश्वास न करें ।
आगे चलकर बनारसी ने बिस्मिल से मित्रता कर ली और मीठी मीठी बातों से उनका विश्वास अर्जित करके उनके व्यापार में साझीदार बन गया । जब बिस्मिल ने गांधी जी की आलोचना करते हुए अलग पार्टी का गठन किया, तो बनारसीलाल मौके की तलाश में चुप्पी साधे बैठा रहा ।
पुलिस ने स्थानीय लोगों से बिस्मिल व बनारसी के पिछले झगड़े की बात जानकर ही बनारसी को सरकारी गवाह बनाया था और उसे बिस्मिल के विरोध पूरे अभियोग में एक अचूक औजार की तरह इस्तेमाल किया । बनारसी साझीदार होने के कारण क्रांतिकारी पार्टी से संबंधित ऐसी ऐसी गोपनीय बातें जानता था जिनका बिस्मिल के अतिरिक्त और किसी को भी पता नहीं था ।
लखनऊ जिला जेल में सभी क्रांतिकारियों को एक साथ रखा गया और हजरतगंज चौराहे के पास रिंग थियेटर नाम की एक बिल्डिंग में अदालत का निर्माण किया गया । इस ऐतिहासिक मुकदमे में जवाहरलाल नेहरू के साले जगत नारायण को एक सोची समझी रणनीति के अंतर्गत सरकारी वकील बना गया । जगतनारायण ने अपनी ओर से कड़ी से कड़ी सजा दिलवाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी । यह वही जगत नारायण था जिसकी मर्जी के खिलाफ बिस्मिल ने लोकमान्य तिलक की शोभायात्रा पूरे लखनऊ में निकाली थी । इसी बात से चिढ़कर मैनपुरी षड्यंत्र में भी जगतनारायण ने सरकारी वकील की हैसियत से काफी जोर लगाया था, पर वे उस समय रामप्रसाद बिस्मिल का कुछ भी बिगाड़ नहीं पाए थे क्योंकि मैनपुरी षड्यंत्र में बिस्मिल फरार हो गए थे और दो साल तक पुलिस के हाथ ही नहीं आये थे ।
फांसी की सजा -:
6 अप्रैल, 1927 को सेशन जज ए हैमिल्टन ने लिखा, “यह कोई साधारण ट्रेन डकैती नहीं, अपितु ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने की एक सोची-समझी साजिश है । हालांकि इनमें से कोई भी अभियुक्त अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए इस योजना में शामिल नहीं हुआ, परंतु किसी ने भी न तो अपने किए पर कोई पछतावा किया है और न ही भविष्य में इस प्रकार की गतिविधियों से स्वयं को अलग रखने का वचन दिया है, अतः जो भी सजा दी गई है, वह सोच समझ कर दी गई है और इसमें किसी प्रकार की कोई छूट नहीं दी जा सकती । फिर भी, इनमें से कोई भी अभियुक्त है यदि लिखित में पश्चाताप प्रकट करता है और भविष्य में ऐसा न करने का वचन देता है तो उनकी अपील पर अपर कोर्ट विचार कर सकती है ।
22 अगस्त, 1927 को जो फैसला सुनाया गया उसके अनुसार रामप्रसाद बिस्मिल, राजेंद्र नाथ लाहिड़ी, अशफाक उल्ला खां एवं ठाकुर रोशन सिंह को फांसी का हुक्म हुआ । मन्मथ नाथ को 14 वर्ष के कारावास की सजा दी गई । काकोरी कांड में प्रयुक्त माउज़र पिस्तौल के कारतूस प्रेमकृष्ण खन्ना के लाइसेंस पर खरीदे गए थे, अतः प्रेम कृष्ण को 5 वर्ष के कठोर कारावास की सजा मिली ।
गोरखपुर जेल में फांसी -:
16 दिसंबर, 1927 को बिस्मिल ने आत्मकथा का आखिरी अध्याय पूर्ण किया । 18 दिसंबर को उन्होंने अपने माता-पिता से अंतिम मुलाकात की और सोमवार 19 दिसंबर 1927 को प्रातः 6:30 बजे गोरखपुर की जिला जेल में इस महामानव को फांसी दे दी गई । बिस्मिल के बलिदान का समाचार सुनकर बहुत बड़ी संख्या में जनता जेल के फाटक पर एकत्रित हो गई । यह देख प्रशासन के हाथ पांव फूल गए । जेल का मुख्य द्वार बंद रखा गया और फांसी घर के पास वाली दीवार को तोड़कर उनका पार्थिव शरीर उनके परिजनों को सौंप दिया गया । पूरी कोशिशों के बावजूद शहीद रामप्रसाद बिस्मिल के पार्थिव शरीर को डेढ़ लाख से भी अधिक लोगों ने श्रद्धांजलि दी तथा जुलूस निकालकर राप्ती नदी के किनारे राजघाट पर उनका अंतिम संस्कार किया गया ।
इस घटना से आहत हो भगत सिंह ने किरती (पंजाबी मासिक) में विद्रोही के छद्म नाम से एक लेख लिखा, जिसके कुछ अंश यहां दे रहे हैं, "फांसी के तख्ते पर खड़े होकर बिस्मिल ने कहा होगा, "I wish the downfall of British Empire!" अर्थात मैं ब्रिटिश साम्राज्य का पतन चाहता हूं! फिर यह शेर कहा होगा -
अब न अहले-वलवले हैं,
न अरमानों की भीड़,
एक मिट जाने की हसरत,
अब दिल ए बिस्मिल में है!
शहीद बिस्मिल के अंतिम पत्र का कुछ हिस्सा भी आपकी सेवा में प्रस्तुत है, “मैं खूब प्रसन्न हूँ । 19 तारीख को प्रात जो होना है, मैं उसके लिए तैयार हूं । मेरा विश्वास है कि मैं लोगों की सेवा के लिए जल्द ही इस देश में फिर जन्म लूंगा । सभी से मेरा नमस्कार कहें । दया कर इतना काम और करना कि मेरी ओर से पंडित जगतनारायण (सरकारी वकील तथा पंडित जवाहरलाल नेहरू के साले, जिन्होंने फांसी लगवाने के लिए अपना पूरा जोर लगा दिया था) को मेरा अंतिम नमस्कार कह देना । उन्हें हमारे खून से लथपथ रुपयों के बिस्तर पर चैन की नींद आये!"
फांसी से 2 दिन पहले तक सीआईडी के डिप्टी एसपी और सेशन जज हैमिल्टन बिस्मिल से बार-बार कहते रहे की यदि वे मौखिक रूप से ही सब बातें बता दें तो उन्हें पन्द्रह हजार नगद दिए जाएंगे और सरकारी खर्चे पर विलायत भेजकर बैरिस्टर की पढ़ाई करवाई जाएगी । लेकिन वे भला कब इन बातों की परवाह करते थे । आप तो हुकूमतों को ठुकराने वाले व कभी कभार जन्म लेने वालों में से थे ।
बिस्मिल व अन्य क्रांतिकारियों के बलिदान ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया । काकोरी कांड के फैसले से उत्पन्न परिस्थितियों ने, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की दशा और दिशा दोनों ही बदल दी । समूचे देश में स्थान स्थान पर चिंगारीयों के रूप में नई-नई समितियां गठित हो गई । बेतिया (बिहार) में फणींद्रनाथ का हिंदुस्तानी सेवा दल पंजाब में भगत सिंह की नौजवान सभा तथा लाहौर में सुखदेव की गुप्त समिति के नाम से कई क्रांतिकारी संस्थाएं जन्म ले चुकी थी । हिंदुस्तान के कोने-कोने में क्रांति की आग धावानल की तरह फैल चुकी थी । कानपुर से गणेश शंकर विद्यार्थी का प्रताप व गोरखपुर से दशरथ प्रसाद द्विवेदी के स्वदेश जैसे अखबार इन चिंगारीयों को हवा दे रहे थे ।
काकोरी कांड के एक प्रमुख क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद पूरे देश में भेस बदलकर घूमते रहे । उन्होंने भिन्न-भिन्न समीतियों के प्रमुख संघठनकर्ताओं से संपर्क करके सारी क्रांतिकारी गतिविधियों को एक सूत्र में पिरोने का कार्य किया । 8-9 सितंबर, 1928 को दिल्ली में एचआरए, नौजवान सभा, हिंदुस्तानी सेवा दल व गुप्त समिति का विलय करके हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी- एच एस आर ए के नाम से एक नई क्रांतिकारी पार्टी का गठन हुआ । जिसे भविष्य में शहीद बिस्मिल के बताए रास्ते पर चलकर ही देश को आजाद कराने हेतु संघर्ष करना था ।
(नोट -: यह जीवनी अभियान प्रकाशन द्वारा प्रकाशित जरा याद करो कुर्बानी पुस्तक से ली गई है । इस पुस्तक में 77 शहीदों की जिंदगी का सफरनामा शामिल किया गया है ।)