Tuesday 23 June 2020

गजल/कविता

कचोटती स्वतन्त्रता 
( नाज़िम हिक़मत )

तुम खर्च करते हो अपनी आँखों का शऊर,
अपने हाथों की जगमगाती मेहनत,
और गूँधते हो आटा दर्जनों रोटियों के लिए काफ़ी
मगर ख़ुद एक भी कौर नहीं चख पाते,
तुम स्वतन्त्र हो दूसरों के वास्ते खटने के लिए
अमीरों को और अमीर बनाने के लिए
तुम स्वतन्त्र हो ।

जन्म लेते ही तुम्हारे चारों ओर
वे गाड़ देते हैं झूठ कातने वाली तकलियाँ
जो जीवनभर के लिए लपेट देती हैं
तुम्हें झूठ के जाल में ।
अपनी महान स्वतन्त्रता के साथ
सिर पर हाथ धरे सोचते हो तुम
ज़मीर की आज़ादी के लिए तुम स्वतन्त्र हो ।

तुम्हारा सिर झुका हुआ मानो आधा कटा हो
गर्दन से,
लुंज-पुंज लटकती हैं बाँहें,
यहाँ-वहाँ भटकते हो तुम
अपनी महान स्वतन्त्रता में,
बेरोज़गार रहने की आज़ादी के साथ
तुम स्वतन्त्र हो ।

तुम प्यार करते हो देश को
सबसे क़रीबी, सबसे क़ीमती चीज़ के समान ।
लेकिन एक दिन, वे उसे बेच देंगे,
उदाहरण के लिए अमेरिका को
साथ में तुम्हें भी, तुम्हारी महान आज़ादी समेत
सैनिक अड्डा बन जाने के लिए तुम स्वतन्त्र हो ।
तुम दावा कर सकते हो कि तुम नहीं हो
महज़ एक औज़ार, एक संख्या या एक कड़ी
बल्कि एक जीता-जागते इन्सान
वे फौरन हथकड़ियाँ जड़ देंगे
तुम्हारी कलाइयों पर ।
गिरफ़्तार होने, जेल जाने
या फिर फाँसी चढ़ जाने के लिए
तुम स्वतन्त्र हो ।

नहीं है तुम्हारे जीवन में लोहे, काठ
या टाट का भी परदा,
स्वतन्त्रता का वरण करने की कोई ज़रूरत नहीं :
तुम तो हो ही स्वतन्त्र ।
मगर तारों की छाँह के नीचे
इस क़िस्म की स्वतन्त्रता कचोटती है ।

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