Thursday, 24 September 2020

कृषि अध्याधेश

 मोदी सरकार के तीन आध्यादेशः कृषकों की तबाही के दस्तावेज

राजेश कापड़ो


(कृषि पर राज्य सरकारों का नियंत्रण समाप्त होने से राज्य सरकारों की आमदनी घटेगी। कृषि पर मोदी सरकार के इन तीन हमलों से राज्यों के पास हस्तक्षेप करने का कोई रास्ता नहीं बचने वाला। इसके अलावा, देश की जनता को व्यापक रूप से मंहगाई का सामना करना पड़ेगा। कृषि में उदारीकरण प्रक्रिया तेज होने के कारण कृषि उत्पादों का आयात बढ़ेगा। भले ही आध्यादेशों में इस बाबत कोई उल्लेख नहीं किया गया है। भारत का किसान विदेशी उत्पादों से प्रतियोगिता में निश्चित रूप से टिक नहीं सकता। बाजार पर बड़े राक्षसों का एकाधिकार और बाजार रूझानों की सूचनाओं तक पंहुच की गैर-बराबरी भारतीय किसान को मार डालेगी।)









जब देश का ध्यान कोरोना महामारी पर था। मोदी सराकर द्वारा मात्र चार घंटे के अल्टीमेटम पर रातोरात थोंपी देशव्यापी तालाबंदी से भयांक्रात देश के मेहनतकश अवाम जब महानगरों से सुदूर ग्रामीण अंचलों की तरफ अपने ऐतिहासिक लंबे अभियान पर निकल चुके थे। शहरों में महामारी की दस्तक से उपजे भय और सरकार की अमानवीय तालाबंदी के बाद की परिस्थितियों से तो यही लग रहा था कि लोग माहामारी से पहले भूख से ही मारे जायेगे। गांवों की ओर इस महापलायन के पीछे कहीं न कहीं, यही सोच थी कि वहां पर उनको भूख से नहीं मरना पड़ेगा। जो काफी हद तक सही भी थी। लेकिन ये किसको पता था कि ऐन महामारी के बीच मोदी सरकार गरीब जनता के अंतिम सहारे पर हमला करने वाली है। इसी समय केंद्र सरकार ने महामारी की आड़ में कृषि क्षेत्र पर एक बड़ा हमला किया है। जून 2020 में मोदी सरकार कृषि क्षेत्र में सुधार करने के नाम पर तीन आध्यादेश लेकर आयी है। संसद के मानसून सत्र का इंतजार भी नहीं किया। बल्कि राष्ट्रपति की शक्तियों का प्रयोग करते हुये ये कानून आध्यादेश के रूप में लाये गये। इसमें भी कोई दोराय नहीं है कि संसद में भी सरकार इनको पास करवा लेगी। भक्ततजनों का कहना है कि मोदी सरकार के इन कदमों से किसानों को अभूतपूर्व लाभ होगा और कृषि क्षेत्र का कायापलट हो जायेगा। 
ग्रामीण भारत को बर्बाद कर देने वाले इन काले कानूनों को सरकार ने अपने आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत पास किया है। इसी समय सरकार लोकल के लिये वोकल होने का नारा दे रही थी। कृषि देश की कुल श्रम शक्ति के आधे से ज्यादा हिस्से को रोजगार देती है। देश की 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है। कोरोना महामारी के कारण अर्थव्यवस्था के बाकि क्षेत्र बंद पड़े हैं। जीडीपी की दर पहली तिमाही के लिये नकारात्मक में चली गयी है। ऐसे मोड़ पर सरकार ने कृषि क्षेत्र को ओपन कर देने का निर्णय लिया है। सरकार के इस कदम का मतलब होगा कि अब भारत का कृषि क्षेत्र प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिये खुल चुका है। 
किसान संगठन सरकार की इन किसान विरोधी नीतियों का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि मोदी सरकार के इन निर्णयों से किसान कारपोरेट जगत के भंयकर शोषण का शिकार बनेंगे। हरियाणा में मुख्य रूप से भारतीय किसान युनियन (गुरनाम सिंह चढ़ुनी) के नेतृत्व में कुरूक्षेत्र, करनाल, यमुनानगर व फतेहबाद आदि जगहों पर किसानों ने मोदी सरकार के आध्यादेशों के खिलाफ आवाज उठाई है। इसी प्रकार पंजाब में भी भारतीय किसान युनियन के रजोवाल और लखोवाल समूहों की अगुवाई में व्यापक रूप से किसानों ने विरोध प्रदर्शन किये। किसानों ने मोदी सरकार के खिलाफ ट्रैक्टर मार्च निकाले तथा तीनों किसान विराधी आध्यादेशों को वापस लेने की मांग की।
मोदी सरकार द्वारा लाये गये तीन आध्यादेशों में एक है- आवश्यक वस्तु (संसोधन) आध्यादेश 2020 जोकि वर्तमान आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 में संशोधन करके तमाम कृषि उत्पादों को आवश्यक-वस्तु-सूची से हटाता है। सरकार का कहना है कि कृषि क्षेत्र में उत्पादन, संग्रहण, तथा सप्लाई को बाधा मुक्त करने से किसान खुशहाल होंगे तथा कृषि क्षेत्र में नीजि व प्रत्यक्ष निवेश आकृषित किया जायेगा। जिससे कोल्ड स्टोरेज तथा फूड सप्लाई चेन के आधुनिकीकरण के लिये निवेश को बढ़ावा मिलेगा। मोदी सरकार का तो यहां तक दावा है कि आध्यादेश से मंहगाई पर नियंत्रण होगा तथा उपभोक्ताओं को लाभ होगा और यह मुख्य रूप से व्यापारियों को मदद करेगा, आदि-आदि। मोदी सकार द्वारा हाल ही लाये गये आवश्यक वस्तु (संशोधन) आध्यादेश, 2020 के अनुसार आपातकाल के समय चिन्हित कृषि उत्पादों पर पाबंदी लगाने की शक्तियां अब केंद्र सरकार ने अपने पास रख ली हैं, जो पूर्व के कानून में राज्य सरकारों के पास थीं। इसका अर्थ है कि अब कृषि क्षेत्र से राज्य सरकारों का नियंत्रण अब समाप्त हो जाएगा। यह केंद्र द्वारा राज्यों को बाई पास करना है। हालांकि पहले वाले कानून से भी किसानों को कोई लाभ नहीं हुआ, मोदी सरकार के वर्तमान संशोधन से भी कोई फायदा होने वाला नहीं है। यह कुछ नहीं बल्कि केंद्र सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र को देशी विदेशी बड़े दानवों के हवाले कर तबाह करने की मुहिम है।
दूसरा आध्यादेश है, Farming Produce Trade and Commerce (Promotion and Facilitation) Ordinance, 2020. मोदी सरकार के दावे पर विश्वास करें तो इस आध्यादेश का मकसद भी कृषि एवं कृषकों का कल्याण करना है। सरकार का कहना है कि यह कानून बनने के बाद राज्य सरकारों के कानूनों के अधीन स्थापित अनाज मंडियों से अलग राज्यों के अंदर तथा एक राज्य से दूसरे राज्यों के बीच कृषि उत्पादों का व्यापार एवं वाणिज्य बेरोकटोक हो सकेगा। इससे एक सीमा-मुक्त व्यापार व वाणिज्य को प्रोत्साहन मिलेगा तथा इसके बाद राज्य सरकारों द्वारा संचालित अनाज मंडियों से अलग कृषि संबंधित व्यापारिक गतिविधियों को बढावा मिलेगा। 
मोदी सरकार ने राज्यों के नियंत्रण वाली अनाज मंडी व्यवस्था को समाप्त करने के मकसद से यह आध्यादेश पास किया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि एपीएमसी मंडियों में बहुत समस्याएं हैं। इनमें भ्रष्टाचार का बोलबाला है। मंडियों की संख्या कम है। इनमें सुविधाओं का अभाव है। लालफीताशाही अपने चरम पर है। निकायों के चुनाव समय पर नहीं होते। व्यापारी भी मनमर्जी करते हैं तथा किसानों को रशीद या बिल नहीं देते। आढ़ती हरियाणा में कृषि उपज खरीद के फर्जी बिल बनाते हैं तथा न्यूनतम मूल्य से कम दामों पर उपज बिहार जैसे राज्यों से, जहां एपीएमसी कानून 2006 में हटा दिया था, खरीद कर कमीशन घोटाले करते हैं। किसानों को किये जाने वाले भुगतान में अनचाही कटौतियां करते हैं। निश्चित रूप से आढ़ती किसानों का बेहद शोषण करता है। लेकिन इसकी आड़ में मोदी सरकार के ये कदम क्या किसानों का कल्याण करने वाले हैं? सरकार बहादुर ने ऐलान किया है कि यह भारत के सरकार नियंत्रित कृषि बाजार को ‘अनलॉक’ करने वाला ऐतिहासिक कदम है। कोरोना काल में मोदी ने नारा दिया है कि आपदा को अवसर में बदलो। सरकार बहादुर महामारी के फलस्वरूप मिले अवसर का लाभ उठाकर भारत के किसानों को आढ़तियों से भी ज्यादा भयंकर और रक्त पीपासु दानवों के आगे फेंक रही है। कृषि क्षेत्र के खुलने से मुनाफा कमाने वाली विदेशी कम्पनियों व उनके टुकड़ों पर पलने वाले दलालों के लिये कोरोना महामारी निश्चित रूप से एक सुअवसर बन कर आयी है। यही वर्ग है जो मोदी सरकार द्वारा लाये गये तीनों आध्यादेशों को कृषि के लिये रामबाण बता रहा है। एपीएमसी एक्ट को समाप्त करने का सीधा सा मतलब है कि यह न्यूनतम सर्मथन मूल्य की व्यवस्था का अंत कर देगा और किसानों को बिना किसी राजकीय संरक्षण भगवान के भरोसे छोड़ देगा। 
मोदी सरकार द्वारा लाया गया तीसरा आध्यादेश है- दी फ्रार्मर (एम्पावरमेंट एंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्यूरेंस एंड फ्रार्म सर्विसेज आर्डिनेंस, 2020 । सरकार ने यह कानून इस लिये बनाया है ताकि भारत में कांट्रेक्ट फार्मिंग का रास्ता साफ किया जा सके। सरकार ने इस कानून को नाम तो किसान-सशक्तिकरण-कानून का दिया है परन्तु असल में यह है- कम्पनी-द्वारा-खेती-कानून । जैसे जहर की बोतल पर कोई अमृत लिखकर बेचता है, सरकार वही धोखा कर रही है। इस कानून के अनुसार बड़ी-बड़ी कम्पनियां सीधे किसानों के साथ खेती करने का करार कर सकेगी। बल्कि वे खुद ही खेती करेंगी। महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय रोहतक में अर्थशास्त्र के पूर्व प्रोफेसर श्री राजेंद्र चौधरी कहते हैं कि अनुबंध खेती का अर्थ बुवाई के समय ही बिक्री का सौदा होता है ताकि किसान को भाव की चिंता न रहे। सरकार द्वारा पारित वर्तमान कानून में अनुबंध की परिभाषा को बिक्री तक सीमित न करके, उसमें सभी किस्म के कृषि कार्यों को शामिल किया गया है। इस आध्यादेश ने परोक्ष रूप से कम्पनियों द्वारा किसान से जमीन हड़पने की राह खोल दी है। कम्पनियां किसान को भुगतान करेंगी। यह भुगतान उपज की बिक्री के लिये न होकर, कम्पनी द्वारा किसान की जमीन व श्रम के दोहन के लिये होगा। अखिल भारतीय किसान सभा के नेता अमराराम कहते हैं -‘सरकार कृषि में सुधार और किसानों की आय बढ़ाने के नाम पर कृषि व्यवस्था को एग्रो-बिजनेस के क्षेत्र में काम करने वाली कम्पनियों के हवाले करने जा रही है।’ अभी तक भरतीय कृषि बड़े बड़े दैत्यों की पकड़ से कमोबेस बाहर थी। अब अगर यह कानून लागू हुये तो कृषि पूरी तरह बदल जायेगी। उदारीकरण का नतीजा है कि 30 साल में 5 लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। सरकार के कारनामों से भविष्य में यह स्थिति विकराल रूप धारण करने वाली है। जो लोग कांट्रेक्ट खेती से कृषि में खुशहाली के सपने दिखा रहे हैं, वो एक नम्बर के ठग हैं और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से कृषि क्षेत्र में समृद्धि का नारा हद दर्जे की बकवास है। 
भूमंडलीकरण की नीतियों ने कृषि क्षेत्र को तबाह किया है, भारत में इन नीतियों का 25 वर्ष का इतिहास खुद इसका साक्षी है। बड़ी खुदरा कम्पनियां उपभोक्ताओं व किसानों, दोनों को लूटती हैं, यह एक उदाहरण से समझ सकते हैं। डाउन टू अर्थ में प्रकाशित एक रिर्पोट के अनुसार भारती-वालमार्ट ने पंजाब के कांट्रेक्ट खेती करने वाले किसानों से बेबी कोर्न की उपज मात्र 8 रूपये प्रति किलो के हिसाब से खरीदी तथा उसी उपज को कम्पनी होलसेल में 100 रूपये प्रति किलोग्राम की दर से बेचती है तथा यही उपज अंतिम उपभोक्ता को 200 रूपये प्रति किलो बेची गयी। इस प्रकार उपभोक्ता द्वारा भुगतान किये गये अंतिम मूल्य का केवल 4 प्रतिशत ही किसान को मिलता है। बिहार की धान उपज का केस देखना भी मजेदार होगा। बिहार राज्य ने 2006 में ही एपीएमसी कानून खत्म कर दिया था। पंजाब के खरीद मूल्य 1310 रूपये प्रति क्विंटल की तुलना में बिहार के किसानों को उसी गुणवता का धान 800 या 900 रूपये प्रति क्विंटल पर बेचना पड़ा। मोदी सरकार पूरे देश को बिहार बनाने के लिये ये काले कानून लायी है।
तमाम सरंक्षणों के बावजूद भी किसानों की लूट कोई कम नहीं थी। हरियाणा व पंजाब में मंडियों की व्यवस्था तुलनात्मक रूप से बढि़या है। लेकिन यहां भी किसानों को उपज के उचित भाव नहीं मिल पाते। भारतीय किसान युनियन द्वारा 2 जून को जारी एक बयान में कहा गया कि सरकार ने वर्ष 2016-17 में धान के समर्थन मूल्य में 4.3 प्रतिशत बढोतरी की थी, जबकि उसके बाद 2017-18 में 5.4 प्रतिशत, 2018-19 में 12.9 प्रतिशत, 2019-20 में 3.71 प्रतिशत बढोतरी की गई। लेकिन वर्तमान सीजन 2020-21 में यह पिछले पांच वर्षों की सबसे कम केवल 2.92 प्रतिशत बढोतरी की है। सरकार द्वारा घोषित धान के समर्थन मूल्य में प्रति क्विंटल 715 रूपये का घाटा है। ऐसे ही ज्वार में 631 रूपये, बाजरा में 934 रूपये, मक्का में 580 रूपये, अरहर दाल में 3603 रूपये तथा मूंग, उड़द, चना, सोयाबीन आदि उपजों में औसतन 3100 रूपये प्रति क्विंटल घाटा है। अक्तुबर 2019 में धान खरीद के ऐन बीच में करनाल जिला प्रशासन ने अपने निर्धारित कोटा 1.35 मीलियन टन के अतिरिक्त खरीद पर रोक लगा दी थी। बेहतर अनाज मंडियों की व्यवस्था वाले राज्यों की ये दशा है तो अन्यों की हालत का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। 
अपने 16-28 फरवरी, 2019 के अंक में डाउन टू अर्थ ने एक विश्लेषण में पाया कि गेंहू के उत्पादन पर प्रति हेक्टेयर 32644 रूपये लागत आ रही है तथा इस पर किसान केवल 7639 रूपये ही कमा रहा है। किसान को प्रति हेक्टेयर 25005 रूपये घाटा हो रहा है। इसी प्रकार धान में प्रति हेक्टेयर घाटा 36410 रूपये आता है। सरकार यह सब जानती है। एक आरटीआई के जवाब में कृषि विभाग, हरियाणा ने स्वीकार किया कि वर्ष 2018-19 में गेंहू का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1840 रूपये प्रति क्विंटल की तुलना में इसकी उत्पादन लागत लगभग 2074 रूपये प्रति क्विंटल थी। इसमें 234 रूपये प्रति क्विंटल घाटा है। कपास के मामले में यह घाटा 830 रूपये प्रति क्विंटल था। 
यह भी कहा जाता है कि एपीएमसी कानून के तहत मंडियों में कृषि उपजों की बिक्री के लिये मुक्त व्यापार की व्यवस्था नहीं होती बल्कि मंडियों में एकाधिकार के कारण किसान अपनी फसल को लाभकारी मूल्यों पर नहीं बेच पाते। यह सही नहीं है। अनाज मंडियों में पहले उपज की खूली बोली लगती है । किसान अपनी मर्जी के भाव व व्यापारी को उपज बेच सकता है। अपनी तमाम कमियों के बावजूद एपीएमसी कानून किसानों के लिये न्यूनतम कीमतों व बाजार में न्यूनतम सुरक्षा की गारंटी करता था। मंडियों में यह व्यवस्था थी। यह सही है कि आढ़ती किसानों को अपने कर्ज के मकड़जाल में फंसा कर, किसान की मोलभाव करने की आजादी को लगभग समाप्त कर देता था। फिर भी जो उपज खूली बोली में नहीं बिक पाती या जिनका कोई स्वतंत्र खरीददार नहीं होता, उनको न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी ऐजेंसियां खरीद लेती थीं। किसान के पास उपज बिक्री की गारंटी रहती थी। कम से कम इसका कानूनी आश्वासन रहता था। मौजूदा अध्यादेश में इस कानूनी आश्वासन या गारंटी को समाप्त कर दिया है और बताया जा रहा है कि सरकार के इन कदमों से किसानों की आमदनी बढ़कर दोगुणा होने वाली है। इसके अलावा आवश्यक वस्तु (संशोधन) आध्यादेश, 2020 भी राज्यों की शक्तियों को हड़पने वाला एक अन्य आध्यादेश है। हालांकि कृषि क्षेत्र राज्य सरकारों के अधीन आता है जिसमें केंद्र सरकार कई तरह से जैसे- नियोजन, अनुदान आबंटन तथा क्रियान्वयन आदि में भागेदार रहती है। लेकिन बीज, खाद व कीटनाशक आदि उत्पादन करने वाली बड़ी कम्पनियां लम्बे समय से सरकार पर कृषि के केंद्रीयकरण का दबाव बना रही थी। मोदी सरकार ने यह आध्यादेश लाकर कारपोरेट जगत की यह मांग पूरी कर दी है। 
2016 से ही देश भर में किसान लगातार आंदोलन कर रहे थे। जिनकी मुख्य मांगे थी कि सरकार स्वामीनाथन आयोग की सिफारिसें लागू करे तथा विभिन्न उपजों के न्यूनतम समर्थन मूल्यों में बढोतरी करे। क्योंकि मोदी स्वामीनाथन को लागू करने का वादा करके सत्ता पर काबिज हुये थे। हालांकि 2019 में भाजपा-कांग्रेस, दोनों दलों ने अपने-अपने चुनाव घोषणा पत्रों से स्वामीनाथन को बाहर कर दिया था। जिसके अनुसार उपजों के मूल्यों को लागत से 1.5 गुणा ज्यादा तय करना था। उपज खरीद करने वाली संस्थाओं को सक्षम बनाना था। कृषि में सरकारी निवेश में वृद्धि करनी थी। परन्तु मोदी सरकार के मौजुदा कारनामों से उपरोक्त सभी व्यवस्थायें समाप्त हो जायेंगी। ऊपर से सरकार कह रही है कि यह सब किसानों की भलाई के लिये है!
मोदी सरकार मुनाफाखोर बहुराष्ट्रीय दानवों के दबाव में कृषि क्षेत्र के लिये संरक्षण के तमाम कानूनी प्रावधानों को हटाने के लिये प्रतिबद्ध है। मोदी सरकार के मौजुदा कदम कृषि क्षेत्र में भूमंडलीकरण के लिये आखिरी फल्ड गेट खोलने जैसा है, जो भारत की खेती बर्बाद कर देंगे। अपने 15 अगस्त के भाषण में मोदी इन काले कानूनों का गुणगान करते हुए कह रहे थे, ‘कौन सोच सकता था कि किसानों की भलाई के लिये एपीएमसी जैसे कानून में इतने बदलाव हो जाऐंगे? कौन सोच सकता था, हमारे व्यापारियों पर जो लटकती तलवार थी- आवश्यक वस्तु कानून, इतने सालों के बाद वह भी बदल जायेगा?’ इससे आगे वे कहते हैं, ‘भारत में परिवर्तन के इस कालखंड के सुधारों को दुनिया देख रही है। एक के बाद एक, एक-दूसरे से जुड़े हुए, हम जो रिफोर्म कर रहे हैं, उसको दुनिया बड़ी बारीकी से देख रही है और उसी का कारण है, बीते वर्ष भारत में एफडीआई ने अब तक के सारे रिकार्ड तोड़ दिये हैं।’ प्रधानमंत्री कृषि की इस विनाशलीला को आत्मनिर्भर होना बता रहे हैं। मोदी के भाषण के अंश देखिये- आत्मनिर्भर भारत की अहम प्राथमिकता आत्मनिर्भर कृषि और आत्मनिर्भर किसान हैं। इसको हम कभी भी नजरअंदाज नहीं कर सकते। किसान को तमाम बंधनों से मुक्त करना होगा, वो काम हमने कर दिया है। बहुत लोगों को पता नहीं होगा, मेरे देश का किसान जो उत्पादन करता था, न वो अपनी मर्जी से बेच सकता था, न अपनी मर्जी से जहां बेचना चाहता था, वहां बेच सकता था। उसके लिये जो दायरा तय किया था, वहीं बेचना पड़ता था। उन सारे बंधनों को हमने खत्म कर दिया है।’ सरकार बहादुर कुछ भी कहे, इन कानूनों से किसान को कुछ भी हासिल नहीं होने वाला, इसके विपरित ये कानून भारतीय कृषि और व्यापक किसान समुदाय को 
पूर्णतया तबाह करने में मील के पत्थर बनने वाले हैं। ये केवल व्यापारियों को लाभ पंहुचाने वाले कानून हैं। मुख्य रूप से एग्रो-बिजनेस करने वाले बड़े कारपोरेट घराने तथा विशालकाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियां ही इससे मुनाफा उड़ायेगे। इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट पर पार पाने के लिये दुनिया भर में भारत की सराहना की गई थी। इसका कारण उपभोग - वस्तुओं की मांग व आर्थिक वृद्धि को लगातार बरकरार रखना था। इन उपभोक्ताओं का बड़ा हिस्सा ग्रामीण क्ष्रेत्रों से आता है और ये मुख्य रूप से कृषि पर निर्भर हैं। इससे भारत की कुल अर्थव्यवस्था में ग्रामीण क्षेत्रों की भूमिका की महता का अंदाजा लग जाना चाहिये। यदि भारत की कृषि को ‘आत्मनिर्भरता’ के नाम पर वैश्विक दैत्यों के सामने असहाय छोड़ दिया होता तो उपरोक्त परिणाम नहीं आते। आर्थिक संकट भारत की कृषि को ध्वस्त कर डालता, तब ना भारत की अर्थव्यवस्था बचती और न ही आत्मनिर्भर बनने के लिये बेचारा किसान। मोदी सरकार उन सभी संरक्षणों को समाप्त कर रही है जो भारत की खेती को भारी आर्थिक भूचालों से बचाते थे। एक नकारात्मक पहलू ही सही, भारतीय कृषि का वैश्विक अर्थव्यवस्था की बजाय अपने मानसून पर निर्भर होना ज्यादा बेहतर था। राजनीतिक रूप से ये कानून संविधान द्वारा प्रदत राज्यों की शक्तियों को कुतरने वाले हैं। एक तरह से भारत के संघीय ढांचे पर हमला भी है। इनके परिणामस्वरूप तमाम राज्य सरकारों व मार्किट कमेटियों की शक्तियां प्रभावहीन हो जायेंगी। 
कृषि पर राज्य सरकारों का नियंत्रण समाप्त होने से राज्य सरकारों की आमदनी घटेगी। कृषि पर मोदी सरकार के इन तीन हमलों से राज्यों के पास हस्तक्षेप करने का कोई रास्ता नहीं बचने वाला। इसके अलावा, देश की जनता को व्यापक रूप से मंहगाई का सामना करना पड़ेगा। कृषि में उदारीकरण प्रक्रिया तेज होने के कारण कृषि उत्पादों का आयात बढ़ेगा। भले ही आध्यादेशों में इस बाबत कोई उल्लेख नहीं किया गया है। भारत का किसान विदेशी उत्पादों से प्रतियोगिता में निश्चित रूप से टिक नहीं सकता। बाजार पर बड़े राक्षसों का एकाधिकार और बाजार रूझानों की सूचनाओं तक पंहुच की गैर-बराबरी भारतीय किसान को मार डालेगी।

Monday, 21 September 2020

विरासत



(मौजूदा सरकार के नियमों और कानूनों का अस्तित्व ही हमारी जनता के हितों के खिलाफ विदेशी शासकों के स्वार्थ के लिए है और ऐसी स्थिति में उनके प्रति कोई भी नैतिक बन्धन नहीं हो सकता। अतः इन नियमों का उल्लंघन एवं अवज्ञा हर भारतीय का अनिवार्य कर्त्तव्य है। शोषण की मशीनरी का एक पुर्जा होने के नाते, अंग्रेजी अदालतें न्याय नहीं दे सकतीं, खासकर राजनैतिक मुकदमों में, जहां सरकार के एवं जनता के हितों के बीच टकराव होता है। हम जानते हैं कि ये अदालतें न्याय का मजाक उड़ाने वाले ‘मंचों’ के अलावा और कुछ नहीं हैं।)


शत्रु की अदालत एक तमाशा है : हम हिस्सा नहीं लेंगे

      - शहीद भगत सिंह





(प्रचार के उद्देश्य से लाहौर षड्यन्त्र केस के अभियुक्तों ने अपने आप को तीन हिस्सों में विभाजित कर लिया था। पहले ग्रुप में वे साथी थे जिनकी पैरवी वकील करता था और जिनके खिलाफ कोई संगीन चार्ज नहीं था।
दूसरे ग्रुप के साथी अपनी पैरवी स्वयं करते थे। अदालत में आमतौर पर इसी ग्रुप के अभियुक्त बोलते थे। उनका काम था सरकारी गवाहों से जिरह करना, सरकारी वकीलों की दलीलों और अदालत के निर्णयों को चुनौती देना, राजनीतिक भाषण देना और अदालत की कार्यवाही को अधिक से अधिक लम्बा खींचने की कोशिश करना।
तीसरा ग्रुप बचाव न पेश करने वाले साथियों का था। इनका काम था बुनियादी सवालों को उठाना, सरकार तथा उसकी अदालत को मान्यता देने से इनकार करना। इस ग्रुप में पांच साथी थे। विशेष ट्रिब्यूनल के सामने पहले ही दिन उन्होंने एक लिखित ब्यान के द्वारा एलान किया कि हम न तो विदेशी सरकार को मानते हैं और न उसकी अदालत को। हम शत्रु की अदालत से किसी प्रकार के न्याय की उम्मीद नहीं करते और इसीलिये हम लोग अदालत की कार्यवाही में भाग नहीं लेंगे।
यह ब्यान लिखा था भगतसिंह ने, और अदालत में उसे पढ़कर सुनाया था जितेन्द्रनाथ सान्याल ने। सान्याल के साथ ब्यान पर हस्ताक्षर करने वाले अन्य साथी थे - महावीर सिंह, गयाप्रसाद कटियार, कुन्दन लाल और बटुकेश्वर दत्त।
ट्रिब्यूनल ने ब्यान को राजद्रोहात्मक कहकर जब्त कर लिया था। - शिववर्मा )



सेवा में
कमिश्नर
स्पेशल ट्रिब्यूनल,
लाहौर षड्यन्त्र केस,
लाहौर।

श्रीमान् जी,

मैं अपने सहित अपने पाँचों साथियों की ओर से केस के आरम्भ में ही यह वक्तव्य देना आवश्यक समझता हूँ। हमारी इच्छा है कि इसे रिकार्ड पर सुरक्षित रखा जाये।
हम इस केस में किसी प्रकार का भाग लेने नहीं जा रहे हैं क्योंकि हम लोग इस सरकार को मान्यता नहीं देते, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह न्याय पर आधरित है या कि उसकी स्थापना कानून द्वारा हुई है।
हमारा विश्वास है और हम ऐलान करते हैं कि मनुष्य ही सम्पूर्ण शक्ति और अधिकार का द्योतक है अतः कोई एक व्यक्ति या सरकार उस समय तक शक्ति या अधिकार की हकदार नहीं है जब तक कि वे अधिकार सीधे जनता से प्राप्त न किये जाएं।
चूंकि यह सरकार इस सिद्धान्त का पूर्ण निषेध है, अतः इसके अस्तित्व का भी कोई औचित्य नहीं है। ऐसी सरकारों का गठन ही दलित राष्ट्रों के शोषण के लिये किया जाता हैं। ऐसी सरकार को तलवार या पाशविक शक्ति, जिसके सहारे वे स्वतंत्रता एवं स्वाधीनता के विचारों तथा जनता की आकांक्षाओं को कुचलने का प्रयास करते हैं को छोड़कर और किसी के सहारे कायम रहने का अधिकार नहीं है।
हमारा विश्वास है कि इस प्रकार की सभी सरकारें, विशेषतया ब्रिटिश सरकार, जिसे असहाय भारतवासियों के ऊपर जबरदस्ती थोप दिया गया है, तबाही एवं खून-खराबे के सभी साधनों से लैस डाकुओं एवं शोषकों के एक संगठित गिरोह के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अमन और कानून के नाम पर  ये उन सभी लोगों को कुचल देते हैं जो उनको बेनकाब करने या उनका विरोध करने का साहस करते हैं।
.......हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि साम्राज्यवाद लूटने खसोटने के उद्देश्य से संगठित किये गये एक विस्तृत षड्यन्त्र को छोड़ कर और कुछ नहीं है। साम्राज्यवाद मनुष्य द्वारा मनुष्य की तथा एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र को धेखा देकर शोषण करने की नीति के विकास की अन्तिम अवस्था है। साम्राज्यवादी अपने लूट खसोट के मनसूबों को आगे बढ़ाने की गरज से केवल अपनी अदालतों द्वारा ही राजनैतिक हत्याएँ नहीं करते, बल्कि युद्ध के रूप में कत्लेआम, विनाश तथा अन्य कितने ही वीभत्स एवं भयानक कार्यों का संगठन करते हैं। जो लोग उनकी लूट खसोट की मांगों को पूरा करने से इनकार करते हैं या उनके तबाह करने वाले घृणित मनसूबों का विरोध करते हैं, उन्हें वे गोली से उड़ा देने में जरा भी नहीं हिचकिचाते। न्याय तथा शांति का रक्षक होने के बहाने वे शांति का गला घोंटते हैं, अशान्ति की सृष्टि करते हैं, बेगुनाहों की जान लेते हैं और सभी प्रकार के जुल्मों को प्रोत्साहन देते हैं।
हमारा यह विश्वास है कि मनुष्य होने के नाते हर व्यक्ति आजादी का हकदार है, उसे कोई दूसरा व्यक्ति दबा कर नहीं रख सकता। हर मनुष्य को अपनी मेहनत का फल पाने का पूरा अधिकार है और हर राष्ट्र अपने साधनों का पूरा मालिक है। यदि कोई सरकार उन्हें, उनके इन प्रारम्भिक (बुनियादी-स.) अधिकारों से वंचित रखती है तो लोगों का अधिकार ही नहीं, बल्कि यह उनका कर्त्तव्य है कि वे ऐसी सरकार को उलट दें, मिटा दें। चूंकि ब्रिटिश सरकार इन उसूलों से, जिनके लिये हम खड़े हुए हैं, बिल्कुल परे है इसलिये हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि क्रांति के द्वारा मौजूदा हुकूमत को समाप्त करने के लिये सभी कोशिशें तथा सभी उपाय न्यायसंगत हैं। हम परिवर्तन चाहते हैं - सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक, सभी क्षेत्रों में आमूल परिवर्तन। हम मौजूदा समाज को जड़ से उखाड़ कर उसके स्थान पर एक ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते हैं जिसमें मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण असम्भव हो जाये और हर व्यक्ति को हर क्षेत्र में पूरी आजादी हासिल हो जाये। हम महसूस करते हैं कि जब तक समाज का पूरा ढ़ांचा ही नहीं बदला जाता और उसकी जगह समाजवादी समाज की स्थापना नहीं हो जाती, तब तक दुनिया महाविनाश के खतरे से बाहर नहीं है।
रही बात उपायों की - शांतिमय अथवा दूसरे - जिन्हें हम क्रांतिकारी आदर्शों की पूर्ति के लिये काम में लायेंगे, हम कह देना चाहते हैं कि इसका फैसला करना बहुत कुछ उन लोगों पर निर्भर करता है जिनके पास ताकत है। क्रांतिकारी तो सबका फायदा चाहने के सिद्धान्त पर विश्वास करने के नाते शांति के ही उपासक हैं - सच्ची और टिकने वाली शांति के, जिसका आधर न्याय तथा समानता पर हो, न कि कायरता पर आधारित तथा संगीनों की नोक पर बचा कर रखी जाने वाली शांति के.......।’’
.....हम पर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का अभियोग लगाया गया है। हम ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाई गई किसी भी अदालत से न्याय की आशा नहीं करते और इसलिये हम इस न्याय-नाटक में भाग नहीं लेंगे। क्रान्तिकारी बम और पिस्तौल सभी उठाते हैं, लेकिन तभी, जब वो अत्यावश्यक हो जाता है, केवल अन्तिम उपाय के रूप में।
हमारा विश्वास है कि कानून और व्यवस्था मनुष्य के लिये हैं, न कि मनुष्य कानून और व्यवस्था के लिए। क्रान्तिकारी फ्रांस की सर्वोच्च जूरी कौंसिल के शब्दों में, ‘‘कानून का उद्देश्य स्वतंत्रता को समाप्त करना या उस पर रोक लगाना नहीं है, उसका उद्देश्य है स्वतंत्रता की रक्षा तथा उसका पालन। शासनार्थ कानून बनाने के लिये न्यायसंगत अधिकार की आवश्यकता होती है, जिसकी स्थापना सार्वजनिक हितों के लिए हुई हो और जो अन्ततोगत्वा जनता की सहमति तथा उसके द्वारा प्रदत्त अधिकारों पर आधारित हो। इस नियम से कोई भी ऊपर नहीं है, विधायक भी नहीं।’’
कानून की पवित्रता तभी तक सुरक्षित रह सकती है जब तक वो जनता की इच्छाओं को अभिव्यक्त करता है। किसी जालिम एवं दमनकारी वर्ग के हाथों का हथियार बन जाने पर वह अपना महत्व और पवित्रता खो देता है। क्योंकि न्याय के प्रशासनार्थ पहली और आधारभूत शर्त है -- निहित स्वार्थ की समाप्ति।
ज्यों ही कानून जनप्रिय सामाजिक आवश्यकताओं को प्रतिबिम्बित करना छोड़ देता है, वह अन्याय तथा अत्याचार के पोषित कर्मों का साधन बन जाता है। इस प्रकार के कानूनों को बनाए रखना, जनहित के विरुद्ध कुछ विशेष हितों को सुरक्षित रखने की मक्कारी के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
मौजूदा सरकार के नियमों और कानूनों का अस्तित्व ही हमारी जनता के हितों के खिलाफ विदेशी शासकों के स्वार्थ के लिए है और ऐसी स्थिति में उनके प्रति कोई भी नैतिक बन्धन नहीं हो सकता। अतः इन नियमों का उल्लंघन एवं अवज्ञा हर भारतीय का अनिवार्य कर्त्तव्य है। शोषण की मशीनरी का एक पुर्जा होने के नाते, अंग्रेजी अदालतें न्याय नहीं दे सकतीं, खासकर राजनैतिक मुकदमों में, जहां सरकार के एवं जनता के हितों के बीच टकराव होता है। हम जानते हैं कि ये अदालतें न्याय का मजाक उड़ाने वाले ‘मंचों’ के अलावा और कुछ नहीं हैं।
इन्हीं कारणों से हम इस नाटकीय मुकदमे में हिस्सा लेने से इन्कार करते हैं और आगे से हम इस केस की कार्यवाही में कोई हिस्सा नहीं लेंगे।

भवदीय -
जे.एन.सान्याल
महाबीर सिंह
बी.के. दत्त
गया प्रसाद
कुन्दन लाल




Thursday, 10 September 2020

शहादतनामा


(तब तक चित्तप्रिय शहीद हो चुके थे। यतीन बहुत बुरी तरह घायल थे, उनके बचने की कोई आशा नहीं थी। मनोरंजन पास की नदी में से चादर भिगोकर उन्हें पानी पिलाने की कोशिश करने लगे। इसी बीच पुलिस दल-बल सहित आ गई थी। मजिस्ट्रेट किलबी यतीन के पास आए। यतीन बोले, "बुरा मत मानिए, हमें नहीं मालूम था कि आप भी आए हैं। हमें आपसे कोई शिकायत नहीं है। बस कृपा करके यह देख लीजिएगा कि इन दो बालकों के साथ कोई अन्याय न हो, सारी घटनाओं का मैं ही योजनाकार हूँ। मैं तमाम जिम्मेदारी अपने ऊपर लेता हूँ।" यतीन का यह साहस देखकर मजिस्ट्रेट किलबी, पुलिस वाले और दूसरे गोरे अफसर भी प्रभावित हुए बिना न रह सके। अगले दिन, 10 सितंबर, 1915 को इस महान क्रान्तिकारी की जीवन यात्रा अस्पताल में समाप्त हो गई। नरेन्द्र और मनोरंजन को फाँसी की सजा सुनाई गई और ज्योतिष पाल को आजन्म काले पानी की सजा दी गई।)





बाघा यतीन (बाघा जतीन) बंगाल के क्रांतिकारी इतिहास में एक संगठनकारी के रूप में बहुत बड़ा स्थान रखते हैं। उनका पूरा नाम यतीन्द्रनाथ मुखर्जी (जतीन्द्रनाथ मुखर्जी) था। जब बंगाल में बारीन्द्र कुमार घोष के दल को पुलिस ने छिन्न-भिन्न कर दिया और दल के अधिकांश लोगों को काले पानी भेज दिया, दल के प्रधन नेता अरबिन्द घोष अध्यात्मवाद में आश्रय लेकर पांडिचेरी में आश्रम बनाकर बैठ गए, तब उस घोर निराशा की काली रात में बाघा यतीन सामने आए और क्रांति की मशाल को अपने हाथ में थामते हुए खुद को क्रान्ति की बलिवेदी पर न्यौछावर कर दिया।

बाघा यतीन के पूर्वज जैसोर जिले के रहने वाले थे, जो इस समय बांग्लादेश में है। उनका जन्म 07 दिसम्बर, 1879 को कृष्णनगर के पास अपने ननिहाल कया नामक गाँव में हुआ। उनके पिता का नाम उमेशचन्द्र और माता का सरस्वती देवी था। 5 साल की उम्र में ही उनके पिता का देहान्त हो गया। यतीन्द्र की माता रामायण-महाभारत की वीरगाथाओं पर पली हुई एक साधरण हिन्दू औरत थी और उसी रूप में उन्होंने अपने बेटे का पालन-पोषण किया। यतीन बचपन से ही तैरने में पारंगत थे और अपने गाँव के पास गहुई नदी में तैरते रहते थे। उनके मामा के पास एक बन्दूक थी। वे इससे शिकार करना सीख चुके थे और साथ ही बन्दूक चलाने की कला में भी निपुण हो गए थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव में ही हुई। आगे कोई अंग्रेजी स्कूूूल वहाँ न होने के कारण वे कृष्णनगर में रहकर पढ़ाई करने लगे।

एक दिन यतीन पेंसिल खरीदने के लिए एक दुकान पर खड़े थे। उन्होंने देखा कि एक घोड़ा लोगों को घायल करता हुआ बेकाबू होकर इधर-उधर भाग रहा है और सईस उसके पीछे-पीछे भाग रहा है। ज्यों ही घोड़ा दुकान के सामने आया, उन्होंने एकदम छलांग लगाकर घोड़े की गर्दन के बाल पकड़ लिए और उसे रोक लिया। सब लोग दौड़ते हुए आए और कहने लगे कि उसने अपनी जान व्यर्थ में ही संकट में डाली। उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया और चुपचाप पेंसिल लेकर चले गए। इसी प्रकार एक दिन उन्होंने देखा कि नदी के घाट पर एक बुढ़िया घास का गट्ठर लिये खड़ी है और सबसे उठवाने के लिए कह रही है, पर लोग उसकी बात अनसुनी करके चले जाते थे। यतीन ने जैसे ही गट्ठर उठवाने में मदद करनी चाही तो देखा कि वह बहुत भारी था। यह देख उन्होंने वह बोझ खुद उठाकर बुढ़िया के साथ चलना शुरू कर दिया और उसके घर तक पहुँचा कर आए।

एक दिन सुनने में आया कि कया गाँव के पास एक बाघ ने उपद्रव मचा रखा है। बाघ कभी किसी की बकरी उठा ले जाता है तो कभी बछड़ा मार देता है। लोगों ने बाघ को मारने की बहुत कोशिश की, पर सफल नहीं हुए। तब यतीन के एक ममेरे भाई ने तय किया कि बाघ को मारना ही है। वे बन्दूक लेकर आए। जब यतीन को यह बात मालूम हुई तो वे बहुत खुश हुए और शिकारी भाई के साथ जाने को तैयार हो गए। बंदूक एक ही थी, अतः वे एक भुजाली ले आए। दोपहर के समय यह टोली निकली। कुछ गाँव वाले बाघ को बिदकाने के लिए शंख, घड़ियाल, कनस्तर आदि लेकर चले और वे जंगल के चारों तरफ घूमते रहे। गाँव वालों ने इसे एक उत्सव का मौका मान लिया और सब लोग शोर मचाते, नाचते इधर-उधर घूमते रहे। काफी देर बाद, जहाँ पर यतीन खड़े थे, अचानक वहीं से एक बहुत बड़ा बाघ निकला। उसे देखते ही शंख, घड़ियाल बजाने वाले लोग भाग खड़े हुए। भाई ने बन्दूक चलाई, पर गोली बाघ के सिर में न लगकर उसे छूकर चली गई। इससे बाघ और भी खूंखार हो गया और उसने यतीन पर आक्रमण कर दिया। यतीन ने इस पर प्रत्याक्रमण किया और बाघ का गला बगल में दबाकर उस पर बहुत जोर से अपनी भुजाली मारना शुरू कर दिया। इधर भाई साहब बन्दूक लेकर तैयार हुए, पर यह सोचकर गोली नहीं चलाई कि कहीं गोली यतीन को ही न लग जाए क्योंकि दोनों में भयंकर लड़ाई हो रही थी। लगभग 10 मिनट तक लड़ाई होने के बाद हालात यह हो गई कि बाघ और यतीन, दोनों बहुत बुरी तरह घायल हो गए। यतीन समझ गए थे कि अब दोनों में से एक का मरना तय है। इसलिए वे पागलों की तरह वार करते रहे और बाघ को न जाने कितनी जगह से काट डाला। अन्त में दोनों बेहोश होकर गिर पड़े। भाई साहब दौड़कर आए, इस बीच और लोग भी आ गए और देखा कि बाघ तो मर चुका है और यतीन बेहोश है।

यतीन को किसी तरह कलकत्ता ले जाया गया। उनके शरीर पर कोई 300 घाव थे। बाघ ने उनकी जाँघों को इतनी बुरी तरह से काटा था कि डॉक्टर का कहना था कि शायद जान बचाने हेतु दोनों पैर काटने पड़ें। बहुत अच्छी देखभाल व चिकित्सा के कारण वे अच्छे तो हो गए, पर फिर भी उन्हें 6 महीने तक बिस्तर पर पड़े रहना पड़ा और एक साल तक वे ठीक से चल नहीं पाए। पर यतीन जैसे दृढ़निश्चयी व्यक्ति के लिये कुछ भी नामुमकिन नहीं था। काफी दिनों के कठिन अभ्यास के बाद वे फिर से पहले की तरह हो गए और इसी से उनका नाम बाघा यतीन पड़ा। इसके बाद यतीन अपनी पढ़ाई में जुट गये और सैन्ट्रल कॉलेज में एफ.ए. में दाखिला ले लिया। फिर वे शीघ्रलिपि और टंकन का काम सीखने लगे। कुछ महिनों के अन्दर ही वे शीघ्रलिपि और टंकन कला अच्छी तरह सीख गए और कलकत्ता की एक गोरी कम्पनी में 50 रुपये महीने पर नौकर हो गए। बाद में एक आई०सी०एस० अफसर के अधीन काम करते हुए उन्हें पता लगा कि भारत के राजा-महाराजा किस तरह एक मामूली से आई.सी.एस. अफसर के सामने केंचुए बने रहते हैं।

एक बार रेल यात्रा के दौरान यतीन एक बच्चे के लिए पानी लेने गए। जब वे पानी लेकर गाड़ी में चढ़ने वाले थे तो जल्दी में एक गोरे सैनिक को धक्का लगा और पानी उसके ऊपर गिर गया। यह देखकर गोरे सैनिकों ने यतीन को नीचे गिरा दिया। लेकिन यतीन ने तुरन्त उठकर तीन गोरों को पटक दिया। बाद में उन्हें गिरफ्तार करके अदालत में पेश किया गया। लेकिन जज नहीं चाहता था कि इस मामले पर ज्यादा शोर मचे और वैसे भी यतीन सरकारी नौकरी पर होने के कारण जमानत पर छूट गए। धीरेे-धीरे राजनीतिक घटनाओं की जानकारी भी होने लगी थी। उन्हें पता लगने लगा था कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए क्या हो रहा है। खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी के बलिदान की कहानी उन तक पहुँच चुकी थी और उन्हें लग रहा था कि केवल सरकारी नौकरी करना और गृहस्थ जीवन व्यतीत करना ही जिंदगी नहीं है। इसी बीच सन् 1900 की अप्रैल में इन्दुबाला से उनकी शादी भी हो गई। 1903 में देशभक्त लेखक योगेन्द्र विद्याभूषण के घर पर यतीन अरबिन्द घोष से मिले जो उस समय एक क्रांतिकारी नेता थे और उन्होंने अपने भाई बारीन्द्र को भी क्रान्तिकारी मार्ग की दीक्षा दी थी। तय हुआ कि यतीन भी आगे से क्रान्तिकारी कार्यों में भागेदारी करेंगे।

पर घटनाचक्र कुछ ऐसा चला कि बारीन्द्र के बहुत-से साथी पकड़े गए और बारीन्द्र को सजा हो गई। अरबिन्द के खिलाफ कोई आरोप साबित न हो पाने के कारण वे छूट तो गये, पर वे इस सबसे बचकर भाग निकले और पांडिचेरी जाकर अध्यात्मवाद में आश्रय खोजने लगे। एक बार तो ऐसा लगा जैसे बंगाल में क्रान्तिकारी आन्दोलन का अंत ही हो गया हो!

ऐसे समय में, जब तमाम नेतृत्वकारी साथी या तो शहीद हो गये थे, या जेलों में थे या फिर निष्क्रिय पड़ गए थे। जब चारों ओर निराशा का घना कोहरा छा गया था। अपने नाम को चरितार्थ करते हुए बाघा यतीन एक शेर की भान्ति आगे बढ़े और क्रान्तिकारी दल की बागडोर अपने हाथों में ले ली। उन्हीं दिनों नदिया जिले के रायटा और हलुदवाड़ी गाँवों में दो डकैतियाँ हुईं। पुलिस हर संभव कोशिश कर रही थी कि ऐसे लोगों को गिरफ्तार किया जाए जो किसी भी तरह से क्रांतिकारियों से संबंध रखते हों। पर यतीन्द्रनाथ मुखर्जी (बाघा यतीन) के बारे में अभी तक पुलिस को कुछ पता नहीं था। 17 फरवरी, 1909 को अलीपुर षड्यन्त्र के सरकारी वकील आशुतोष विश्वास को अदालत के बाहर उड़ा दिया गया। 23 अप्रैल, 1909 को डायमण्ड हार्बर के पास नेत्रा गाँव में एक सेठ के घर डकैती पड़ी। इसी प्रकार 9 जनवरी, 1910 को शम्सुलअली नामक व्यक्ति की हत्या कर दी गई जो सरकार की ओर से इस मुकद्दमे की पैरवी कर रहा था। उसे बीरेन्द्रनाथ गुप्त नामक एक 18 साल के किशोर ने गोली मारी थी। पर चपड़ासियों तथा सैनिकों ने उसे पकड़ लिया था। उसके घर की तलाशी लेने पर पुलिस को पता चल गया कि इन सब मामलों के पीछे बाघा यतीन  हैं। अब तक यतीन सरकारी नौकर थे। 20 जनवरी, 1910 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें बहुत सताया गया और हर संभव कोशिश की गई कि वे अपने साथियों के नाम बता दें। पर यतीन ने किसी प्रकार भी मौन नहीं तोड़ा। उन पर जो मुकद्दमा चला, वह हावड़ा-षड्यन्त्र मुकद्दमा कहलाया। यतीन के विरुद्ध कोई भी जुर्म साबित नहीं हो पाया। क्रांतिकारी न केवल धन्ना-सेठों को लूट रहे थे और देश के लुटेरों-गद्दारों को मृत्युदंड दे रहे थे, बल्कि वे सेना में विद्रोह के बीज बोने की भी कोशिशें कर रहे थे। कहा जाता है कि सरकार को जो प्रमाण मिले थे, उनसे पूरा पता तो नहीं लगा, फिर भी 10 नम्बर जाट रेजीमेण्ट को समाप्त कर दिया गया।

मजेदार बात यह हुई कि अपनी पूरी कोशिशों के बावजूद भी सरकार यतीन के विरुद्ध कोई आरोप साबित नहीं कर पाई और अप्रैल 1911 में अदालत को उन्हें मजबूरन बाइज्जत बरी करना पड़ा। क्रांतिकारियों की एक महत्त्वपूर्ण सभा हुई जिसमें नरेन्द्रनाथ भट्टाचार्य (बाद में एम.एन. राय) अमरेन्द्र चट्टोपध्याय, नरेन्द्र सेन, मतिलाल राय आदि क्रांतिकारी उपस्थित थे। तय हुआ कि बंगाल में फौरन 10,000 जवान तैयार किए जाएं और एक हजार बम चंदननगर में तैयार किये जाएं। यह भी तय हुआ कि धन्नासेठों के यहां डकैतियाँ डालकर क्रांतिकारी दल के लिए धन एकत्र किया जाए। क्रांतिकारी दल का एक सदस्य शिरीषचन्द्र, राडा नामक एक कम्पनी में नौकर था। यह कम्पनी अस्त्र-शस्त्र बेचती थी। इन्हीं दिनों एक जहाज पर कम्पनी का कुछ माल आया। यह माल इतना अधिक था कि इसे सात बैलगाड़ियों पर रखा गया। इसमें 200 बक्सों में गोलियाँ और एक में माउजर पिस्तौलें थीं। शिरीष ने यह माल जहाज से लिया और उसे कम्पनी के गोदाम में पहुँचाने की बजाय क्रांतिकारियों के हाथों में देकर गायब हो गया। इस प्रकार क्रांतिकारियों के हाथ 50 माउजर पिस्तौलें और 40 हजार गोलियाँ लगीं। ये पिस्तौलें 300 बोर की थीं। इसके अलावा क्रांतिकारियों ने 12 फरवरी, 1915 को गार्डन रीच में डकैती की और उनके हाथ लगभग 18,000 रुपये आए। 22 फरवरी को बेलिया घाटा के चावलपट्टी रोड़ पर एक बंगाली पूँजीपति की दुकान पर डकैती डाली गई और वहाँ क्रांतिकारियों के हाथ 22 हजार रुपये लगे। 9 दिनों के अन्दर इस प्रकार दो बड़ी डकैतियाँ हो जाने के कारण पुलिस-सरकार बहुत परेशान थी। अन्त में पुलिस ने कुछ क्रांतिकारियों को पकड़ लिया। यह सारा काम यतीन के नेतृत्व में ही हो रहा था।

इन्हीं दिनों एक घटना और घटी। 1915 की 24 फरवरी को, यानी बेलिया घाटा डकैती के दो दिन बाद, यतीन और चित्तप्रिय एक मकान में बैठे पिस्तौलें साफ कर रहे थे कि एकाएक पुलिस का एक आदमी नीरद हालदार अन्दर घुस आया। जैसे ही उसने अपने सामने यतीन को देखा तो हैरान होते हुए कहा, अरे यतीन बाबू, आप यहाँ? अच्छा! तो आप भी विद्रोही हैं? मैं अभी खबर करता हूं! यतीन व चित्तप्रिय को भी उसे वहां देख तथा उसकी यह हरकत देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। जैसे ही नीरद वापिस मुड़कर भागने को हुआ, यतीन जोर से चिल्लाये, शूट हिम! चित्तप्रिय ने फौरन घोड़ा दबाया और नीरद वहीं गिर पड़ा। अब लाश कैसे हटाई जाए? इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने जल्दबाजी में नीरद की लाश को एक तरफ डाला और वहाँ से भाग खड़े हुए। पर नीरद तब तक मरा नहीं था। वह बुरी तरह घायल था। वह किसी तरह रेंगकर पुलिस तक पहंचा और मरते-मरते बयान दे दिया कि यतीन और चित्तप्रिय ने उसे मारा है। जैसे ही पुलिस को सारी बातें मालूम हुईं, तुरन्त यतीन और चित्तप्रिय की गिरफ्तारी के लिए पुरस्कार की घोषणा कर दी गई।

यतीन के लिए कलकत्ता में रहना अब और भी मुश्किल हो गया था। एम.एन.राय पहले ही गिरफ्तार हो चुके थे और दल को इससे बहुत हानि पहुँची थी। वे जर्मनी से सम्पर्क रखने वाले मुख्य व्यक्ति थे। इस पर चारों तरफ निराशा फैल गई। यतीन दा ने कहा, अरे, मेरा दाहिना हाथ टूट गया! हमें एम.एन.राय को तो छुड़ाना ही है! आज जब संध्या समय उन्हें लाल बाजार ले जाया जाएगा तब गाड़ी पर कब्जा करके उन्हें छुड़ाना होगा! उस दिन यतीन दा के आदेश पर कुछ लोग जेल की गाड़ी तोड़ने के लिए निकल पड़े और उनमें बहुत उत्साह था। पर उस दिन एम.एन.राय को दूसरे दिनों की तरह लाल बाजार लाया ही नहीं गया। उन्हें सीधे जेल भेज दिया गया। साथी निराश होकर लौट आये। पर यतीन दा बोले, कुछ भी हो, तुम लोग गए तो थे। वे प्रयास को पूरा महत्त्व देते थे। वे यह नहीं मानते थे कि सफलता ही सब कुछ है।

संयोग यह हुआ कि एम.एन.राय जमानत पर छूट गए। दल ने तय किया कि राय को जमानत पर रहते भगा दिया जाए। वे चार्ल्स मार्टिन नाम रखकर चोरी से भारत से निकल गए। क्रांतिकारी बाहर से हथियार प्राप्त करने का हर संभव प्रयास कर रहे थे। इसी उद्देश्य से विदेशों से हथियार लेकर कुछ जहाज चले भी, पर वे अपने गन्तव्य तक नहीं पहुंच पाये। मौवेरिक नामक जहाज पर डच नेवी के एक जहाज ने कब्जा कर लिया। बाकी कई जहाज भी ब्रिटिश समुद्री सेना द्वारा पकड़ लिये गये। इसी प्रकार के एक जहाज में हेरम्ब गुप्त नामक क्रांतिकारी थे। वे गिरफ्तार कर लिए गए। उन पर शिकागो में मुकद्दमा चला और उन्हें सजा हो गई। जब इस प्रकार अस्त्र मिलने की जो भी सम्भावना थी, वह खत्म हो गई। ऐसे में यतीन दा तथा अन्य क्रांतिकारियों ने तय किया कि उन्हें फिलहाल कलकत्ता से बाहर रहना चाहिए।

चन्द्रशेखर आजाद की तरह बाघा यतीन ने भी कसम खाई थी कि वे खुद को कभी भी अंग्रेजों के हाथ नहीं पड़ने देंगे। एक क्रान्तिकारी साथी भूपति मजूमदार बाद में लिखते हैं, हम लोग आसाम से लौटे ही थे कि यतीन दा ने हुक्म दिया कि साथ चलना पड़ेगा। हम लोग कलकत्ता से दूसरे दर्जे का टिकट लेकर तीन साईकिलों के साथ हावड़ा पहुँचे। बीच में एक स्टेशन से यतीन दा और एम.एन.राय. सवार हो गए। हम लोग बालेश्वर जा रहे थे। अगले स्टेशन पर दो गोरे सवार हुए। उन्होंने जिद्द की कि जहाँ दादा और एम.एन.राय. बैठे थे, वे भी वहीं बैठेंगे। जब हमने उन्हें जगह देने से इन्कार किया, तो वे गालियाँ देने लगे और लड़ने पर उतारू हो गए। हम पाँचों के पास पिस्तौलें थीं। हमारे हावभाव देखते ही यतीन दा समझ गए कि हम क्या सोच रहे हैं। इसलिए उन्होंने कहा- ‘चुपचाप बैठे रहो!’ फिर टूटी-फूटी हिन्दी में कहा- ‘हजूर, आप गुस्सा क्यों करते हैं। हम आपको बैठने के लिए जगह जरूर देंगे। हम ठहरे काले आदमी! हम लोग एक-दूसरे से सटकर बैठ सकते हैं।’ यह कहकर उन्होंने अपना स्थान छोड़ दिया। फिर कोई बात नहीं हुई और वे गोरे खड़गपुर में उतर गए। दादा ने हँसकर कहा- ‘तुम लोग उनकी गालियाँ सुनकर नाराज हो गए थे। मैं इन दोनों को एक साथ गाड़ी से नीचे फेंक सकता था। लेकिन हम जिस उद्देश्य से अपने को छिपाकर जा रहे हैं, वह उद्देश्य हमारी इस बेवकूफी से खत्म हो जाता। यदि हमारे में आत्मसंयम नहीं है, तो फिर क्रांतिकारी मार्ग हमारे लिए नहीं है।

इस प्रकार क्रांतिकारी बालेश्वर पहुँच गए और वहाँ से वे बंगाल की खाड़ी के पास एक गहरे जंगल में घुस गए। वे बालेश्वर से लगभग 20 मील की दूरी पर काप्ती पोदा नामक गाँव में रहने लगे। इस गाँव में यतीन, नरेन्द्र और मनोरंजन तथा इससे 12 मील दूर एक दूसरे गाँव में चित्तप्रिय और ज्योतिष पाल रहते थे। थोड़े ही दिनों में उन्हें सन्देह हुआ कि पुलिस उनके बारे में जान गई है, इसलिए वे वहाँ से रवाना हो गए। ज्योतिष पाल बीमार थे, उनको साथ लेकर ज्यादा तेजी से चलना काफी कठिन था। पुलिस को खबर मिली कि बाघा यतीन तथा उनके साथी इधर ही कहीं छिपे हुए हैं। पर यतीन जब एक जगह से निकल जाते थे, तब पुलिस वाले पहुँचते थे।

एक दिन वे अपने साथियों के साथ बिना खाए-पिए और बिना सोए बूढ़ी बालम नदी के किनारे गोविन्दपुर नामक स्थान पर पहुँचे। वहाँ देखा कि वर्षा के कारण नदी इतनी उमड़ी हुई है कि उसे पार करना बेहद मुश्किल था। इसलिए उन्होंने एक मछुआरे को पैसे दिए और उसने इन लोगों को नदी को पार करा दिया। पर उस मछुआरे ने सुना था कि सरकारी ऐलान है कि कोई अपरिचित व्यक्ति मिले तो उसकी सूचना पुलिस को दी जाए। साथ ही यह कि चारों तरफ जर्मन घूम रहे हैं, उनकी खबर भी पुलिस को पहुँचानी है। मछुआरे को यह तो पता ही नहीं था कि जर्मन भी अंग्रेजों की तरह ही गोरे होते हैं, इसलिए उसने पुलिस को जाकर खबर दी कि 5 जर्मन जंगल के अन्दर घुसे हैं। इसके अलावा उसने यही बात लोगों में भी फैला दी। गाँव वालों में इस बात को लेकर काफी कौतूहल था कि जिन जर्मनों के बारे में वे इतना कुछ सुन रहे हैं, वे देखने में कैसे हैं? इसलिए भोले-भाले गाँव वाले, क्या चौकीदार, क्या दफादार! सब उसी तरफ दौड़ पड़े, जिधर क्रांतिकारी गए थे। परिस्थिति अब क्रांतिकारियों के लिए बहुत ही खतरनाक हो गई थी। वे दोपहर के समय दामुद्रा गाँव में पहुँचे। लोग अब भी उनका पीछा कर रहे थे। इस पर उन्होंने हवा में कुछ गोलियां चलाई। पर जनता इतनी बुरी तरह पीछे पड़ गई थी कि जब गोलियाँ चलाई जातीं तो लोग भाग जाते और थोड़ी देर बाद फिर पीछा करने लगते। कभी वे ‘चोर-चोर!’ कहकर चिल्लाते थे, कभी ‘पकड़ो-पकड़ो!’ का शोर मचाकर परेशान करते थे। क्रांतिकारियों के लिए यह एक बड़ी ही विषम परिस्थिति थी। जब उन्होंने देखा कि लोग ऐसे नहीं मानेंगे तब उन्होंने सचमुच पीछा करते हुए लोगों में से पुलिसवालों पर निशाना साधकर गोलियाँ चलाईं, जिसमें एक व्यक्ति मारा गया तथा एक घायल हो गया। अब लोगों ने पीछा करना छोड़ दिया। पर पुलिस भला पीछा करना कैसे छोड़ देती? इसी बीच पुलिस ने चारों तरफ खबर भी भेज दी थी।

मयूरगंज का रास्ता पार करके क्रांतिकारी एक छोटी नदी के पास पहुँचे। उन्होंने हथियार अपने सिरों पर बाँध लिए और तैरकर नदी पार करके चस्कन्द नामक एक गाँव में पहुँच गए। इसके बाद वे और गहरे जंगलों में पहुँच गए। अब उन्हें ऐसा लगा कि इस जंगल में उन पर कोई मुसीबत नहीं आ सकती। उधर पुलिस ने तय किया कि क्रान्तिकारियों को दो तरफ से घेरा जाए। एक टुकड़ी मयूरगंज की तरफ चली और दूसरी मदनपुर की तरफ चली और इस प्रकार जंगल को घेर लिया गया। पुलिस वाले बीच-बीच में गोलियाँ भी चलाते जाते थे। एक तरफ भूख और अनिद्रा से परेशान पाँच क्रान्तिकारी थे, जिनके पास बहुत थोड़ी मात्रा में हथियार थे। दूसरी तरफ, उधर उस ब्रिटिश सरकार का दल-बल था, जिसके राज्य में कहते हैं कि सूर्य कभी अस्त नहीं होता था। ऊपर से सारे गाँव वाले भी उनका साथ दे रहे थे। गाँव वाले भला क्या जानते थे कि उनके सामने कौन हैं! कुछ लोग उन्हें जर्मन समझ रहे थे और कुछ मामूली अपराधी समझ रहे थे। यह तो उन्हें सपने में भी गुमान नहीं था कि वे उन महामानवों को पकड़वाने जा रहे हैं जो इतिहास की इबारतों को बदलने की कूव्वत रखते थे।

09 दिसंबर, 1915; पूरी तरह हथियारों से लैस 100 से ऊपर घुड़सवारों की पुलिस टुकड़ी उन्हें चारों तरफ से घेरने की कोशिश कर रही थी। जब क्रांतिकारियों ने देखा कि अब वे किसी भी हालत में भाग नहीं सकते तो उन्होंने भी मोर्चा संभाल लिया। कई घण्टों तक घमासान लड़ाई चलती रही। दोनों तरफ से बराबर गोलियाँ चल रही थीं। अचानक एक गोली आकर चित्तप्रिय को लगी और वे बुरी तरह घायल हो गये। पुलिस बलों ने भी शायद यह देख लिया था, इसलिए उन्होंने गोलीबारी और तेज कर दी। चित्तप्रिय का खून बड़ी तेजी से बह रहा था। यतीन दा उन्हें अपनी गोद में उठाए थे। वे खुद भी काफी घायल हो चुके थे। उसी समय एक गोली और आकर यतीन दा के पेट में लगी। अबकी बार वे गिर पड़े। सभी क्रांतिकारियों को चोटें लगीं थीं। यतीन समझ गए थे कि अब अन्तिम घड़ी नजदीक ही है। उन्होंने सोचा कि बाकी साथियों को मरवाने का कोई औचित्य नहीं है। इसलिए उन्होंने आदेश दिया कि सफेद चादर लहराकर युद्ध विराम की घोषणा की जाए।

तब तक चित्तप्रिय शहीद हो चुके थे। यतीन बहुत बुरी तरह घायल थे, उनके बचने की कोई आशा नहीं थी। मनोरंजन पास की नदी में से चादर भिगोकर उन्हें पानी पिलाने की कोशिश करने लगे। इसी बीच पुलिस दल-बल सहित आ गई थी। मजिस्ट्रेट किलबी यतीन के पास आए। यतीन बोले, "बुरा मत मानिए, हमें नहीं मालूम था कि आप भी आए हैं। हमें आपसे कोई शिकायत नहीं है। बस कृपा करके यह देख लीजिएगा कि इन दो बालकों के साथ कोई अन्याय न हो, सारी घटनाओं का मैं ही योजनाकार हूँ। मैं तमाम जिम्मेदारी अपने ऊपर लेता हूँ।" यतीन का यह साहस देखकर मजिस्ट्रेट किलबी, पुलिस वाले और दूसरे गोरे अफसर भी प्रभावित हुए बिना न रह सके। अगले दिन, 10 सितंबर, 1915 को इस महान क्रान्तिकारी की जीवन यात्रा अस्पताल में समाप्त हो गई। नरेन्द्र और मनोरंजन को फाँसी की सजा सुनाई गई और ज्योतिष पाल को आजन्म काले पानी की सजा दी गई।

इस प्रकार बाघा यतीन अपने जन्मस्थान से दूर, साथियों से दूर, अज्ञात रूप से शहीद हो गए। यहाँ तक कि उनकी पत्नी इन्दुबाला भी 12 वर्षों तक यही समझती रहीं कि वे जिन्दा हैं। जब लोगों को यतीन के बलिदान की कहानी पता चली तो सब उनके साहस व वीरता के आगे नतमस्तक हो गये। वे एक महान संगठनकर्ता होने के साथ-साथ एक महाबलिदानी भी थे।


संदर्भ -: जरा याद करें कुर्बानी
अभियान, प्रकाशन (रोहतक)

Wednesday, 9 September 2020

कविता

 (आज अवतार सिंह पाश का जन्मदिन है। पाश एक जनकवि थे जिन्होंने हमेशा जनता के पक्ष में आवाज बुलंद की ओर उसी पक्षधरता के कारण वो बहुत ही कम उम्र में हमारे बीच से विदा हो गए। लेकिन उनकी कविताएं जिंदा रही। कोई भी जनांदोलन ऐसा नहीं है जहां पर पाश की कविताओं के पोस्टर न बनाए जाते हों या फिर कविताओं का पाठ न किया जाता हो। तो हम पाश की उन छोटी छोटी कविताओं से आपका परिचय करवाने की कोशिश करेंगे जिनकी ओर बहुत ही कम ध्यान गया है।)





1. हुकूमत

हुकूमत!
तुम्हारी तलवार का कद बहुत छोटा है
कवि की कलम से कहीं छोटा
कविता के पास अपना बहुत कुछ है
तुम्हारे कानून की तरह वह खोखली नहीं है
कविता के लिए तुम्हारी जेल हजार बार हो सकती है
लेकिन यह कभी न होगा
कि कविता तुम्हारी जेल के लिए हो

2. हमारे लहू

हमारे लहू को आदत है
मौसम नहीं देखता, महफिल नहीं देखता
जिंदगी के जश्न शुरू कर लेता है
सूली के गीत छेड़ लेता है

शब्द हैं कि पत्थरों पर बह बहकर घिस जाते हैं
लहू है कि तब भी गाता है

जरा सोचें कि रूठी सर्द रातों को कौन मनाए?
निर्मोही पलों को हथेलियों पर कौन खिलाए?
लहू ही है जो रोज धाराओं के होंठ चूमता है
लहू तारीख की दीवारों को उलांघ आता है
यह जश्न यह गीत किसी को बहुत हैं -
जो कल तक हमारे लहू की खामोश नदी में
तैरने का अभ्यास करते थे।

3. तब भी मेरे शब्द

तब भी मेरे शब्द रक्त के थे
तब भी मेरा रक्त लोहे का था
जब मैं जलते फूलों में
घिरा पड़ा था -
फिर जब मैं जल रहे फूलों से बाहर आकर
तलवारों के जंगल में घुसा
तो भी मेरे शब्द रक्त के थे
तो भी मेरा रक्त लौहे का था
और अब मेरे सफर में
जलते फूलों की गंद नहीं
पिघले हुए फौलाद की गंद आती है
और मेरा सफर
मेरा फूल से रक्त तक का सफर
एक इतिहास है
शब्द से आवाज तक का इतिहास
और अब मुझे
होंठों पर किसी भी
खुबसूरती का जिक्र लाने से पहले
तलवारों के कई जंगलों से
गुजरना पड़ता है।


4. जितने भी मांसखोरे हों


जितने भी मांसखोरे हों हथियार
यातनादायी व आधुनिक हों हथियार
भुगता नहीं सकेंगे कभी भी
प्रेम कविता को
कातिलों के हक में।

5. जिन्होंने उम्र भर

जिन्होंने उम्र-भर तलवार का गीत गाया है
उनके शब्द लहू के होते हैं
लहू लोहे का होता है
जो मौत के किनारे जीते हैं
उनकी मौत से जिंदगी का सफर शुरू होता है
जिनका लहू और पसीना मिट्टी में गिर जाता है
वे मिट्टी में दबकर उग आते हैं।

Tuesday, 8 September 2020

कविता

 कितना दुखद होता है वह लम्हा

 


कितना दुखद होता है वह लम्हा 

जब औरत की होती है खरीद-फरोख्त 

होती है जबरन शादी 
होता है उसके साथ दुष्कर्म 
और पुलिस लेती रहती है सपना
कि गली-गली और कूचे-कूचे सब सुरक्षित हैं। 


कितना दुखद होता है वह लम्हा 
जब कोई बेरोजगार रह जाता है नौकरी लगने से 
होती रहती है प्रतिभाओं के साथ ज्यादती 
वह रोता है अपनी डिग्रिओं को देखकर 
और अफसर खेलते हैं नोटों में 
प्रचार है कि, साफ-सुथरी भर्ती हुई है। 


कितना दुखद होता है वह लम्हा 
जब कोई सच्चा इंसान, हार जाता है मुकदमा 
बिक जाते हैं गवाह और जज
वह उम्र-भर सड़ता है सलाखों के पीछे 
कि न्याय भटक जाता है पथ से। 


कितना दुखद होता है वह लम्हा 
जब अन्न के भंडार भरे होते हैं 
और भूख से मर जाए कोई बच्चा
होता रहता है आयात-निर्यात
सड जाता है लाखों टन अनाज हर वर्ष 
कि अनुमान से पैदावार हुई है। 


दयाल चंद जास्ट गाँव व डा जोडमाजरा तहसील इन्द्री करनाल 

फोन नंबर 9466220146

Wednesday, 2 September 2020

आदिविद्रोही भाग-3

 [5]


(कथाएं, लोककथाएं बन जाती हैं, मगर उत्पीड़कों के विरुद्ध उत्पीडितों  का संघर्ष बराबर चलता रहता है। यह एक ऐसी लौ है जो कभी तेज जलती है, कभी मद्धिम, पर बुझती कभी नहीें।)



क्रिक्सस का सपना था कि रोम का ध्वंस किया जाए। वह इस सपने को अपने सीने से चिपकाए था। मगर स्पार्टकस जान गया था कि कोई सपना मर गया और असंभव हो गया। एक क्षण आया जब उसे लगा कि वे रोम का ध्वंस नहीं कर सकेंगे बल्कि रोम ही उनका ध्वंस करेगा। इस  निराशा की शुरूआत उस समय हुई जब क्रिक्सस के नेतृत्व में 20 हजार गुलाम अलग होकर चले गए। फिर, एक दिन खबर आई कि क्रिक्सस, वह लंबा, तगड़ा गॉल वीर नहीं रहा, उसकी फौज नष्ट हो गई। यह सुनकर स्पार्टकस को लगता है कि मौत आज फिर जिंदगी से जीत गई है। उसकी आँखें आँसुओं से भर उठती हैं। वह रोते हुए कहता है, ''ऐसा क्यों हुआ, हम लोगों ने कहाँ पर भूल की, हम नाकाम क्यों  रहे? क्रिक्सस! मेरे साथी! तुम क्यों मरे? तुम क्यों इतने हठीले थे? सारी दुनिया में सुबह के घंटे बज रहे थे, अब फिर काली रात आएगी।"
वे सभी समझ गए थे कि खेल अब खत्म हो चुका है, कि आने वाली लड़ाई उनकी आखिरी लड़ाई होगी। स्पार्टकस अपनी गर्भवती पत्नी वारिनिया को अंतिम विदा कर चुका था। लड़ाई शुरू होने वाली थी। उसने अपने साथियों से कहा, ''मेरे प्यारे साथियो ! आज अगर हम नाकाम भी रहते हैं तो भी हमने ऐसा काम किया है, जिसे मानव जाति हमेशा-हमेशा याद रखेगी।" फिर उसने अपने साथियों को गले लगाया।
थोड़ी देर में लड़ाई शुरू हो जाती है, गुलाम बड़ी बहादुरी से लड़ते हैं, परन्तु स्पार्टकस की बात सच होती है। बहुत से गुलाम योद्धा मारे जाते हैं, स्पार्टकस भी वीरगति को प्राप्त होता है। काफी गुलामों को बंदी बना लिया जाता है। उनमें बेहोश डेविड भी होता है।

[6]

छ: हजार चार सौ बहत्तर गुलाम योद्धाओं को सड़कों के किनारे सलीबों पर टांग दिया जाता है। रोमन सभ्यता यहां तक पहुँच जाती है कि बहुत से गुलामों का कीमा-चटनी बनाकर बाजार में बेच दिया जाता है। पकड़े गए ग्लैडिएटरों को जोड़ों से लड़ाया जाता है, जिसमें एक का मरना जरूरी होता है। और इस सब में से बचकर निकलने वाला आखिरी ग्लैडिएटर है -- डेविड। यह यहूदी वीर , जो स्पार्टकस का प्रिय साथी था। उसे भी सूली पर चढ़ा दिया गया। मरते समय भी उसके मन में न्याय और अन्याय के प्रश्न थे। साथ ही और भी बहुत से प्रश्न थे। जैसे कि -- ''स्पार्टकस! स्पार्टकस ! हम नाकाम क्यों रहे? हमारा जीवन-लक्ष्य धूल में क्यों खो गया?" यदि किसी तरह सूली पर टंगे उन सभी लोगों के दिमाग को पढ़ा जा सकता तो उन सबमें यह प्रश्र अवश्य मिलता -- ''हम नाकाम क्यों रहे?"
वारिनिया को रोमन सेनापति ने अपने घर पर कैद कर लिया था। परन्तु वह एक भले आदमी की मदद से निकल भागती है तथा अपने बच्चे के साथ दूर-देहात में एक किसान के घर में रहने लगती है। वह अपने बेटे का नाम भी स्पार्टकस रखती है और उसे बताती है कि उसके पिता तथा उनके साथी एक ऐसी दुनिया बनाना चाहते थे, जहाँ कोई गुलाम या मालिक न होंगे।
इसी तरह कहानी आगे बढ़ती जाती है, स्पार्टकस का बेटा, अपने बेटे को यह संघर्ष गाथा सुनाता है तथा इन्हीं संघर्षों में वीर गति को प्राप्त हो जाता है।
कथाएं, लोककथाएं बन जाती हैं, मगर उत्पीड़कों के विरुद्ध उत्पीडितों  का संघर्ष बराबर चलता रहता है। यह एक ऐसी लौ है जो कभी तेज जलती है, कभी मद्धिम, पर बुझती कभी नहीें।
और साथियो ! स्पार्टकस कभी मरा नहीं, क्योंकि यह रक्त की परम्परा नहीं, बल्कि मिले-जुले संघर्ष की परम्परा थी।
एक समय आएगा जब रोम को तोड़कर गिरा दिया जाएगा। उसे तोडऩे वाले गुलाम होंगे, मजदूर होंगे, किसान होंगे तथा तमाम मेहनतकश आवाम होगा। फिर एक दिन ऐसा आएगा जब स्पार्टकस का महान सपना सच होगा।

THE END

Tuesday, 1 September 2020

आदिविद्रोही भाग -2

 [3]


(एक मर रहे साथी से स्पार्टकस ने कहा, ''साथी! हम तुम्हारे नाम को याद रखेंगे। कभी हथियार नहीं डालेंगे। हम लोग भागेंगे नहीं, बल्कि एक के बाद दूसरी जगह जाएंगे, घर-घर में जाएंगे और अपने गुलाम साथियों को आजाद करेंगे। हम रोम का अन्त कर देंगे और एक नये जीवन का निर्माण करेंगे, हम एक ऐसी दुनिया बनाएंगे जिसमें न कोई गुलाम होगा और न कोई मालिक।"
अभी यह सब एक स्वप्र जैसा लगता था। पर उसे देखने का उनका जी हो रहा था।
''हमारा कानून बहुत आसान होगा, जो कुछ भी हमारे पास होगा, सभी का होगा, सिवाए अपने कपड़ों तथा हथियारों के। हम लोग स्त्री को केवल साथी के रूप में रखेंगे। एक व्यक्ति चाहे वह कोई भी क्यों न हो, एक से अधिक स्त्री नहीं रखेगा।"
इन सब बातों पर उनमें पूर्ण मतैक्य था।
.........................................................
परन्तु स्पार्टकस के भीतर आशाओं, निराशाओं, चिन्ताओं तथा संदेहों की आंधियाँ चल रही थीं। उसके चिन्तित चेहरे पर हाथ फिराते हुए वारिनिया ने पूछा, ''प्राण, तुम फिर कोई स्वप्र देख रहे हो?"
''हाँ, मैं देख रहा हूँ कि हम एक नया संसार बनाएंगे। देखो ! इस संसार में एक भी चीज ऐसी नहीं है जो हमने न बनाई हो। नगर, मीनारें, दीवारें, सड़कें, महल, जहाज.....!  सभी कुछ तो हमने बनाया है। हम इस नव निर्माण के लिए दुनिया भर के गुलामों का आह्वान करेंगे!")


स्पार्टकस सो रहा था और उसकी पत्नी, वह जर्मन बाला वारिनिया -- जिसे बाटियाटस ने सिर्फ 500 दिनार में खरीदा था और जब वह उसके काबू नहीं आई तो उसे सबक सिखाने के लिए स्पार्टकस को सौंप दिया था, उसके कराहने तथा नींद में पागलों की तरह बड़बड़ाने से जगी उसके पास बैठी थी। वह बहुत सी चीजों के बारे में बातें कर रहा था। क्षण भर पहले वह एक बच्चा था, फिर देखो तो खानों में पहुंंच गया। अगले ही क्षण लड़ाई के अखाड़े में और तभी जैसे छुरे ने उसके गोश्त को चाक कर दिया और वह दर्द से चीख पड़ा। जब यह सब देखना वारिनिया के लिए असह्य हो गया, उसने उसे जगा दिया और बड़े प्यार से उसे सहलाने लगी।
धीरे-धीरे वह शांत हो गया और उसने पूछा, ''कभी यह भी सोचा है कि एकदिन हमारा साथ टूट जाए, तब तुम क्या करोगी?"
''हाँ, मैं मर जाऊँगी।" वारिनिया ने सीधे-सरल ढंग से उत्तर दिया।
''पर मैं चाहता हूँ कि मेरे मरने या अलग हो जाने की हालत में भी तुम जीवित रहो।"
''तुम्हारे बिना मेरे लिए जीवन का कोई अर्थ नहीं।"
''पर जीवन के बिना कुछ नहीं है, इसलिए तुम मुझे वचन दो कि हर हाल में जीवित रहोगी।"
अन्तत: वारिनिया ने कहा -- ''मैं वचन देती हूँ।"
अगली सुबह बाटियाटस का गुस्सा हर जगह छाया हुआ था। ग्लैडिएटरों को कोड़े मार-मारकर लाइन में खड़ा किया जा रहा था। स्पार्टकस के एक ओर मैनिकस था तथा दूसरी ओर क्रिक्सस नाम का एक गॉल।
''वह इनमें से किसी को मारे बगैर ही मर गया, आदमी को अगर मरना ही है तो वह इससे अच्छी तरह भी मर सकता है।" गॉल फुसफुसाया।
तब स्पार्टकस के मन में इतने दिनों से जो चेतना थी, वह एक वास्तविकता का रूप लेने लगी। वह वास्तविकता अभी आरंभ हो रही थी, उसका अंत तो अनन्त था और उस भविष्य के गर्भ में छुपा था जिसका अभी जन्म नहीं हुआ था। मगर उसका संबंध सभी गुलामों की जिंदगी की मुसीबतों से था।
तभी गुस्से में बेहाल बाटियाटस आया और गुलामों को सबक देने के लिए एक हब्शी गुलाम को भालों से बिंधवा दिया।
''मैं तुम्हें अपना दोस्त कहता हूँ।"  दु:ख और गुस्से को पीते हुए स्पार्टकस ने क्रिक्सस से  कहा।
क्रिक्सस उसके बगल की कोठरी में रहता था और बहुत बार स्पार्टकस ने उससे सिसिली के गुलामों के अनेक विद्रोहों के बारे में सुना था। कुछ साल पहले भी वहां की तीन जागीरदारियों में विद्रोह हुआ था। उनमें 900 गुलाम थे, बहुतों को मौत के घाट उतार दिया गया था। थोड़े से बचे गुलामों को जहाज पर बेच दिया गया था। क्रिक्सस उन्हीं में से एक था। उसके लोगों में बहुत से बहादुर वीर थे, जैसे वह वीर युनूस, जिसने उस द्वीप के एक-एक गुलाम को आजाद करवाया था और मरने से पहले तीन-तीन रोमन सेनाओं का ध्वंस किया था। फिर यूनान का वह एथीनियन, थ्रेस का सैल्वियस, जर्मनी का उण्डार्ट। इन सभी की कहानियाँ सुनकर स्पार्टकस का हृदय गर्व  से भर उठता था। फिर यूनान की, स्पेन की खानों के गुलामों का महान विद्रोह, इन सबके बारे में सुनकर वह उन मृत वीरों की इच्छा को, उनके स्वप्र को अच्छी तरह समझने लगा था।
उसने निश्चय किया कि अब वह किसी भी ग्लैडिएटर से नहीं लड़ेगा। फिर भूत-भविष्य-वर्तमान सब एक में मिल गए और उस थ्रेसियन गुलाम ने हजारों वर्ष का बोझ अपने ऊपर अनुभव किया । जो पहले कई हजार वर्ष में नहीं हुआ था, वह अब कुछ घंटों में होने वाला था।
आज भी सभी ग्लैडिएटर आकर खाने के हाल में बैठ गए, हाल के दरवाजे बाहर से बंद कर दिए गए। बावर्चीखाने में काम करने वाली गुलाम औरतें उन्हें खाना परोसने लगीं। चार उस्ताद, हाल के बीच में घूम रहे थे। दो सिपाही दरवाजे पर तैनात थे तथा बाकी करीब सौ गज दूर नाले के उस पार छाया में बैठे सुबह का नाश्ता कर रहे थे।
स्पार्टकस ने यह सब देखा, उसका मुंह सूख रहा था और दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। उसे सिर्फ इतना पता था कि उसे ग्लैडिएटरों से बात करनी है। आगे क्या होगा इसका उसे कोई आभास नहीं था। उसने क्रिक्सस से कहा, ''मैं कुछ बोलना चाहता हूँ, जब मैं बोलूँगा तो फिर पीछे हटना नामुमकिन होगा, और हमारे ये उस्ताद हमें रोकने की कोशिश करेंगे।"
''वे तुम्हें नहीं रोकेंगे, तुम बोलो।" दैत्याकार गॉल ने कहा। यहूदी डेविड, गैनिकस तथा कई और गुलाम उसके पास खिसक आए।
स्पार्टकस के साथ-साथ दर्जनों ग्लैडिएटर उठकर खड़े हो गए। उस्तादों ने उनके ऊपर कोड़े बरसाने तथा छुरे चलाने शुरू किए पर ग्लैडिएटरों ने उन्हें देखते-देखते खत्म कर दिया।
''सभी मेरे पास आ आओ।" स्पार्टकस ने कहा। वारिनिया बावर्ची खाने में काम कर रही थी, वह आकर उसके बगल में खड़ी हो गई तथा शेष उसे घेरकर खड़े हो गए। इसी पल उसे आजादी का सुखद अहसास हुआ। मगर इसके साथ भय भी था, उस आदमी का भय, जो कि अपरिवर्तनीय निश्चय करता है और जानता है कि उसके रास्ते में हर कदम पर मौत खड़ी है। वह जानता था कि उसके  साथियों के मन अन्धविश्वासों तथा अज्ञान से भरे हुए हैं तथा भविष्य के प्रति उनके मन में भयंकर संदेह है। इसलिए उसने महसूूस किया कि उसके लिए जरूरी है कि वह भविष्य को समझे और अगर उस तक जाने के लिए कोई मार्ग नहीं है तो वह मार्ग बनाए।
उसने कहा, ''मैं अब कभी ग्लैडिएटर नहीं बनूँगा, पहले मैं मरूँगा। क्या तुम मेेरा साथ दोगे?"
यह सुनकर उनकी आँखों में आँसू भर आए और वे उसके और नजदीक खिसक आए।
उसने कहा, ''अब हम सब साथी होंगे और हर काम में एक  साथ रहेंगे। अब सबसे पहले सिपाहियों को......। पर याद रखो ! कि वे भागेेंगे नहीं, इसलिए हमें उन्हें खत्म कर देना होगा, नहीं तो वे हमें खत्म कर देंगे, और यह भी याद रखो कि रोमन सैनिकों का कहीं अंत नहीं है, उनके मरने के बाद दूसरे उनकी जगह आ जाएंगे, परन्तु इसके साथ ही यह भी सच है कि गुलामों का भी कहीं अंत नहीं है।"
इसके बाद उन्होंने बड़ी जल्दी तैयारियां कीं, जो भी हथियार के रूप में प्रयोग करने लायक चीजें -- मसलन मूसल, सलाखें, हड्डियां वगैरह मिलीं, उठाकर वे बाहर निकल आए।
उधर तब तक सभी सैनिक तथा उस्ताद भी अस्त्र-शस्त्रों से लैस हो तैयार हो चुके थे। इस तरह दो सौ निहत्थे ग्लैडिएटरों को पूरी तरह सुसज्जित 54 सैनिकों का मुकाबला करना था।
सैनिक इस कूड़े को साफ करने के लिए आगे बढ़े। इसी क्षण में स्पार्टकस सेनापति बन  गया। नेतृत्व एक ऐसा गुण है जिसे पकड़ पाना बहुत कठिन है, खासकर ऐसी परिस्थिति में जब इसके पीछे कोई  सत्ता या वैभव न हो। आदेश तो कोई भी दे सकता है पर इसे इस तरह देना कि दूसरे उसका पालन करें, एक विशेष गुण है और यह गुण स्पार्टकस में था। उसके आदेश का पालन करते हुए ग्लैडिएटरों ने सैनिकों को एक घेरे में ले लिया और इन सर्कश ग्लैडिएटरों के घेरे में फंसकर महान रोमन शक्ति और उसका अनुशासन निपट असहाय होकर रह गए।
''पत्थर फेंको! पत्थर चलाओ !!" स्पार्टकस चिल्लाया। पत्थरों की बौछार ने  सैनिकों को झुकने और रुकने के लिए मजबूर कर दिया। औरतें, घरों तथा खेतों में काम करने वाले गुलाम भी आ-आकर घेरे में शामिल होने लगे। एक दस्ते ने जैसे ही आगे बढ़कर हमला करने की कोशिश की, ग्लैडिएटर उसके ऊपर चढ़ दौड़े तथा मिनटों में उसे खत्म कर दिया। सैनिक पूरा जोर लगाकर लड़ रहे थे, पर ग्लैडिएटरों ने उन्हें खाली हाथों से ही मार-माकर खत्म कर दिया। उस्ताद भी मार डाले गए.....।
लड़ाई अब शहर की सड़कों पर हो रही थी। इस लड़ाई में बहुत से ग्लैडिएटर भी वीरगति को प्राप्त हुए।
मगर यह तो शुरूआत भर थी --  खून से लथपथ, विजय के गर्व से भरी हुई और उसके उल्लास को लिए हुए। सभी खुशी मना रहे थे, नाच रहे थे और अपनी जीत के नशे में चूर वे लोग उसी समय इतिहास के बाहर निकल जा सकते थे, क्योंकि सैनिक शहर के फाटक से बाहर निकलने लगे थे। तभी स्पार्टकस उन्हें होश में ले आया, उसने हुक्म दिया कि सभी सैनिकों के हथियार इकट्ठे कर लिए जाएं! उसकी कोमलता अब गायब हो चुकी थी। गुलामी की जंजीरों को तोड़ देने का एकाग्र संकल्प उसके भीतर एक तेज लौ की भाँति जल रहा था, उसकी सारी जिन्दगी, सारा धीरज इसी तैयारी के लिए था। उसने सदियों इंतजार किया था, आज के दिन का इंतजार वह उस दिन से कर रहा था जिस दिन पहले इंसान को गुलामी की जंजीरों में जकड़ा गया था। अब वह इससे किसी भी हालत में अलग नहीं हो सकता था, क्योंकि वह जानता था कि गुलाम के लिए कहीं शरण लेने को जगह न थी। और यह सीधी-सी बात उसकी समझ में आ गई थी कि इस दुनिया में जिन्दा रहने के लिए उन्हें इस दुनिया को ही बदलना होगा....!
''भागने को कहीं जगह नहीं है, हम इन सैनिकों का मुकाबला करेंगे।" उसने कहा।
सैनिकों की तादाद गुलामों से काफी ज्यादा थी और वे पूरी तरह से लैस थे, मगर उन्हें यह आशा नहीं थी कि गुलाम लड़ेंगे जबकि गुलाम जानते थे कि सैनिक लड़ेंगे। गुलाम वापिस मुड़कर तेजी से सैनिकों की तरफ दौड़े और सैनिक इस अप्रत्याशित हमले से हैरान हो गए तथा इनका मुकाबला न कर सके व भाग खड़े हुए। यह दुनिया को हिला देने वाली घटना थी कि गुलाम दिन में दो बार अपने मालिक को मार भगाए।
शहर से बाहर एक पहाड़ी पर सभी गुलाम एकत्रित हुए। चारों तरफ की जागीरों से और भी गुलाम भाग-भागकर उनसे मिल रहे थे और अब वे एक छोटी-सी सेना बन गए थे, स्पार्टकस उनका नेता था, इसके बारे में कोई बहस न थी। वह उनके बीच खड़ा था। उसने कहा, ''अब हम एक कबीला हैं तथा आजाद हैं। जो भी कोई नेतृत्व करना चाहता हो, आगे आए।"
कोई खड़ा नहीं हुआ, सभी ने तालियाँ बजाकर स्पार्टकस का अभिवादन किया। मैनिकस चिल्लाया, ''स्पार्टकस जिन्दाबाद!"
एक मर रहे साथी से स्पार्टकस ने कहा, ''साथी! हम तुम्हारे नाम को याद रखेंगे। कभी हथियार नहीं डालेंगे। हम लोग भागेंगे नहीं, बल्कि एक के बाद दूसरी जगह जाएंगे, घर-घर में जाएंगे और अपने गुलाम साथियों को आजाद करेंगे। हम रोम का अन्त कर देंगे और एक नये जीवन का निर्माण करेंगे, हम एक ऐसी दुनिया बनाएंगे जिसमें न कोई गुलाम होगा और न कोई मालिक।"
अभी यह सब एक स्वप्र जैसा लगता था। पर उसे देखने का उनका जी हो रहा था।
''हमारा कानून बहुत आसान होगा, जो कुछ भी हमारे पास होगा, सभी का होगा, सिवाए अपने कपड़ों तथा हथियारों के। हम लोग स्त्री को केवल साथी के रूप में रखेंगे। एक व्यक्ति चाहे वह कोई भी क्यों न हो, एक से अधिक स्त्री नहीं रखेगा।"
इन सब बातों पर उनमें पूर्ण मतैक्य था।
विद्रोह की  खबर जंगल की आग की तरह फैलती जा रही थी। चारों तरफ से गुलाम अपने औजारों के साथ आकर मिल रहे थे। अब वे लोग धीरे-धीरे, प्यार के साथ हँसते-गाते आगे बढ़ रहे थे। उन सबको आजादी का, प्रेम का तथा स्वाभिमान का थोड़ा-थोड़ा स्पर्श मिल गया था। उनमें एक भी ऐसा न था जिसने उस रात एक नये संसार का, गुलामों से रहित संसार का स्वपन न देखा हो।
परन्तु स्पार्टकस के भीतर आशाओं, निराशाओं, चिन्ताओं तथा संदेहों की आंधियाँ चल रही थीं। उसके चिन्तित चेहरे पर हाथ फिराते हुए वारिनिया ने पूछा, ''प्राण, तुम फिर कोई स्वप्र देख रहे हो?"
''हाँ, मैं देख रहा हूँ कि हम एक नया संसार बनाएंगे। देखो ! इस संसार में एक भी चीज ऐसी नहीं है जो हमने न बनाई हो। नगर, मीनारें, दीवारें, सड़कें, महल, जहाज.....!  सभी कुछ तो हमने बनाया है। हम इस नव निर्माण के लिए दुनिया भर के गुलामों का आह्वान करेंगे!"


[4]


रोमन सत्ता के गलियारों में विद्रोह की खबर से हड़कंप मचा था। रोमन सीनेटर कबूतरों की तरह कोनों में दुबकते फिर रहे थे। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि ये जानवर विद्रोह कैसे कर सकते हैं? महान् रोमन सत्ता के खिलाफ विद्रोह? जिसके न्याय का डंका पूरी दुनिया में बजता है, जिसने पूरी दुनिया को सुख, समृद्धि और शान्ति का रास्ता दिखलाया। इस डरी हुई महान् सीनेट ने,  गुलामों के सफाए के लिए शहर की फौज में से छ: टुकड़ियां भेज दीं। साथ ही शहर में अमन शान्ति बनाए रखने के लिए, नागरिकों के  डर को दूर करने के लिए व गुलामों को नसीहत देने के लिए, अस्सी निर्दोष गुलामों को सूली पर चढ़ा दिया।
गुलामों के सफाए के लिए भेजी गई फौज में तकरीबन साढ़े तीन हजार सिपाही थे। कई रोज तक उनकी तरफ से कोई खबर नहीं आई। फिर पता चला कि गुलामों ने उस फौज को नष्ट कर दिया। यह पता लगते ही पूरे शहर में खौफ छा गया।
चौबीस घण्टे के बाद उन टुकडिय़ों में से शेष बचे एक सैनिक को सीनेट के सामने पेश किया गया। उसके हाथ में राजदूत का वह छोटा-सा डण्डा था जिसे फौज के कमाण्डर को सौंपा गया था और जिसके बारे में कहा जाता था कि उसमें एक हमला करती फौज से भी ज्यादा ताकत है क्योंकि वह सीनेट की सत्ता व शक्ति का प्रतीक है।
ग्रैकस नाम के सीनेटर ने उठकर वह डण्डा उसके हाथ से ले लिया तथा उसे निर्भय हो जो कुछ घटा था, साफ-साफ बयान करने को कहा।
सैनिक ने अटकते हुए कहना शुरू किया -- ''गुलामों की तरफ बढ़ती सेना कोई बहुत सन्तुष्ट तथा प्रसन्न सेना न थी। गर्मी में हथियारों की रगड़ ने उनके शरीर पर जगह-जगह जख्म कर दिए थे। थकान से उनकी हालत ऐसी थी कि शिकायत के स्वर भी कहीं भीतर ही खो गए थे। तभी उन्होंने खेतों में काम करने वाले तीन गुलाम मर्दों तथा एक औरत को देखा। पूरी फौज उन पर बुरी तरह पिल पड़ी।"
''क्या उन्होंने तुम पर आक्रमण किया था?" ग्रैकस ने पूछा।
''नहीं, वे तो हमें देखने के लिए भागकर आए थे। और हमारे सैनिकों ने उस औरत के कपड़े नोंच डाले तथा एक के बाद एक उस पर टूट पड़े।"
''तुम्हारे अफसरों ने हस्तक्षेप किया?"
''नहीं हुजूर! वे कुछ नहीं बोले।"
''आगे क्या हुआ, क्या तुमने रात के पड़ाव के लिए किलेबन्दी की?"
''नहीं, सभी इधर-उधर पड़े रहे। क्योंकि अफसरों का ख्याल था कि इन मुठ्ठी-भर गलीज गुलामों से इतना डरने की जरूरत नहीं है। फिर मैं भी सो गया और किसी के चीखने से मेरी नींद खुल गई। मैं उठ बैठा, फिर मेरी समझ में आया कि ये तो बहुत-से लोग चीख रहे थे। चारों तरफ गुलाम ही गुलाम दिखाई दे रहे थे। उनके छुरे ऊपर उठते थे और नीचे आते थे। इस तरह थोड़ी ही देर में उन्होंने हमारी फौज को काटकर रख दिया। इसके बाद किसी ने मुझे पकड़कर उठा दिया। मैंने तलवार चलानी चाही पर उन्होंने उसे झटका देकर गिरा दिया। वे मेरा काम तमाम करने ही वाले थे कि एक थ्रेसियन वहाँ आया और बोला, ''रुको! मेरा ख्याल है यह अकेला ही बच रहा है.....रोमन सत्ता का प्रतीक! इसे मत मारो!" फिर मुझे कुछ गुलामों के पहरे में छोड़ दिया गया। और वे लोग सैनिकों के वस्त्र, हथियार वगैरह उतारकर इकठ्ठे करने लगे। गुलामों की टोली इस सबकी देखरेख कर रही थी और उस टोली का नेता टूटी नाक वाला एक थ्रेसियन था। फिर वे लोग मेरे पास आए और उस थ्रेसियन ने यह राजदण्ड मुझे थमा दिया तथा बोला, ''मेरा नाम स्पार्टकस है, रोमन! इस नाम को याद रखना। कल तुमने उन गुलामों को क्यों मारा? वे तो तुम्हें केवल देखने आए थे। फिर रोम की स्त्रियाँ क्या इतनी सती-साध्वी हैं कि पूरी रोमन सेना को एक बेचारी गुलाम औरत के ऊपर........!"
उन्हें हमारे बारे में सबकुछ मालूम था।
उसने फिर कहा, ''रोमन! मैं तुम्हें एक सन्देश देता हूँ। इसे शब्दश: अपनी महान् सीनेट के पास ले जाकर कहो। सीनेट से कहो -- तुमने हमारे खिलाफ फौज भेजी थी, हमने उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए। दुनिया तुम लोगों से, तुम्हारे सड़े-गले रोम से, तुम्हारे कोड़ों के संगीत से तंग आ चुकी है। तुम्हारी तमाम शानो-शौकत से तंग आ चुकी है जो तुमने हमारा खून निचोड़कर बनाई है। शुरू में सब लोग बराबर थे। मगर अब दो तरह के लोग हैं -- मालिक और गुलाम। पर हम तुमसे बहुत ज्यादा हैं, तुमसे अच्छे हैं, नेक हैं। इन्सानियत के पास जो कुछ अच्छा है वह हमारा है। हम अपनी औरतों की इज्जत करते हैं, मगर तुम अपनी औरतों को वेश्या बना देते हो। तुम आदमियों को जानवरों से भी बदतर बना देते हो, उन्हें अखाड़े में भेजते हो, ताकि तुम्हारी तफरीह के लिए वे एक-दूसरे के टुकड़े कर डालें। कितने जलील लोग हो तुम, जिन्दगी को तुमने कितना गन्दा बना दिया है।"
''तुम मजाक उड़ाते हो इन्सान की मेहनत और पसीने का। तुमने जिन्दगी की सारी खूबसूरती लूट ली है। मगर अब यह चीज नहीं चलेगी। अपनी सीनेट से कहो - अपनी और फौजें हमारे खिलाफ भेजे। हम उन्हें भी काटकर गिरा देंगे और तुम्हारे हथियारों से ही खुद को लैस करेंगे। हम दुनिया-भर के गुलामों से कहेंगे कि उठो! और अपनी जंजीरें तोड़ दो। फिर एक दिन हम तुम्हारी महानगरी रोम पर धावा बोलेेंगे, तुम्हारे सीनेटरों को उनकी शानदार कुर्सियों में से घसीटकर बाहर निकालेेंगे। उन्हें जाकर बता दो कि वे अपनी पूरी तैयारी कर लेंं। उनके अपराधों का दण्ड हम उन्हें जरूर देेंगे। हम कुछ भूलते नहीें। और जब न्याय हो चुकेगा तब हम तुम्हारे गले-सड़े रोम से अधिक सुन्दर नगर बनाएँगे। खूबसूरत नगर जिनमें दीवारें न होंगी और जहाँ मानवता सुख से, शान्ति से रह सकेगी। तुम्हारी सीनेट के लिए यही हमारा सन्देश है।"
इसके बाद तीसरी सेना को जिसमें कुल 7,000 सैनिक थे, गुलामों से लडऩे भेजा गया। इसके अफसरों ने सेना को तीन टुकड़ों में बाँट दिया और गुलामों ने तीन अलग-अलग लड़ाइयों में उनका सफाया कर दिया। एक बार भागती हुई एक रोमन टुकड़ी, गुलामों के खेमे की तरफ निकल आईं, वहाँ पर केवल बच्चे तथा औरतें थीं। अपनी हार के कारण प्रतिशोध से भरे सैनिकों ने बिना कुछ सोचे खेमे पर हमला कर दिया। वे बच्चों को भालों की नोंक पर उछालने लगे तथा कुछ औरतों को भी मार डाला। परन्तु फिर औरतों ने डटकर मुकाबला किया। उनका नेतृत्व वारिनिया कर रही थी। उसके कपड़े फट गए थे, वह चण्डिका की तरह अपने नेजे से लड़ रही थीं।
इस तरह रोम गुलामों के खिलाफ हर बार बड़ी-से-बड़ी फौज भेजता रहा और गुलाम फौज हर बार जी-जान से लड़कर उनका सफाया करती रही।
अब गुलामों की यह फौज 50 हजार सिपाहियों की एक विशाल सेना है, जिसका सेनापति स्पार्टकस है। बहुत-सी बातों में यह एक ऐसी फौज है जिससे अच्छी फौज दुनिया में आज तक किसी ने न देखी थीं। यह एक ऐसी फौज है जो बहुत सीधे-सादे शब्दों में बगैर किसी कलई-मुल्लमे की आजादी के लिए लड़ती है, जो इन्सान की आजादी और स्वाभिमान के लिए लड़ती है, जो किसी नगर या देश को अपना नहीं कहती क्योंकि इसके सिपाही सभी देशों, नगरों और जातियों से हैं। यह एक ऐसी फौज है जो जीतने के लिए कृतसंकल्प है, जिसे जीतना ही होगा, क्योंकि पीछे लौटने के लिए उनके पास कोई रास्ता नहीं है, कोई देश नहीं है जो उसे आश्रय दे, शरण दे।
आज भी यह फौज लड़ाई के लिए तैयार है। सामने, घाटी के उस पार एक विशाल रोमन फौज खड़ी है जोकि तादाद में सत्तर-अस्सी हजार से कम नहीें है। गुलाम फौज के नेता विचार-विमर्श में लीन हैं। आखिर में वे पहले हमला करने का निर्णय कर अपनी-अपनी रेजीमेंटों में चले जाते हैैं। परन्तु उनके हमला करने से पहले ही रोमन उनके मध्य भाग पर हमला कर देते हैं। गुलाम फौज केवल घंटे भर तक ही अपनी कमान चौकी से सुसंगठित-सुसम्बद्ध ढंग से लड़ाई लड़ पाती है। इसके बाद लड़ाई उनके ऊपर आ जाती है। स्पार्टकस का खेमा टूट जाता है। लड़ाई उसे अपने साथ बहा ले जाती है। चारों तरफ घमासान मचा हुआ है। डेविड साए की तरह स्पार्टकस के साथ है। कोई भी भाला स्पार्टकस को छुए, इससे पहले उसकी लाश गिरेगी। चारों तरफ, मीलों दूर तक हवा में स्पार्टकस का नाम गूँज रहा है। मगर डेविड को कुछ भी सुनाई या दिखाई नहीं देता, सिवाय इसके कि उसके तथा स्पार्टकस के सामने क्या है? उसके होंठ सूख रहे हैं, लड़ाई भयानक-से-भयानकतर होती जा रही है। उसे नहीं मालूम कि क्रिक्सस ने एक-चौथाई रोमन फौज का सफाया कर दिया है। सूरज डूब जाता है, लड़ते-लड़ते वे ढलवान से उतरकर घाटी में आ जाते हैं, फिर वे नदी के भीतर पहुँच जाते हैं और घुटने-घुटने पानी में खड़े होकर लड़ते हैं। नदी का पानी सुर्ख हो जाता है। गुलाम नदी के खूनी पानी में सिर डुबोते हैं और पीते ही चले जाते हैं। पौ फटते-फटते रोमन सेना भाग खड़ी होती है। क्रिक्सस तथा दूसरे साथी जब स्पार्टकस को ढूँढ़ते हुए आते हैं तो देखते हैं कि वह आराम से लाशों के बीच लेटा सो रहा है।