मोदी सरकार के तीन आध्यादेशः कृषकों की तबाही के दस्तावेज
राजेश कापड़ो
(कृषि पर राज्य सरकारों का नियंत्रण समाप्त होने से राज्य सरकारों की आमदनी घटेगी। कृषि पर मोदी सरकार के इन तीन हमलों से राज्यों के पास हस्तक्षेप करने का कोई रास्ता नहीं बचने वाला। इसके अलावा, देश की जनता को व्यापक रूप से मंहगाई का सामना करना पड़ेगा। कृषि में उदारीकरण प्रक्रिया तेज होने के कारण कृषि उत्पादों का आयात बढ़ेगा। भले ही आध्यादेशों में इस बाबत कोई उल्लेख नहीं किया गया है। भारत का किसान विदेशी उत्पादों से प्रतियोगिता में निश्चित रूप से टिक नहीं सकता। बाजार पर बड़े राक्षसों का एकाधिकार और बाजार रूझानों की सूचनाओं तक पंहुच की गैर-बराबरी भारतीय किसान को मार डालेगी।)
जब देश का ध्यान कोरोना महामारी पर था। मोदी सराकर द्वारा मात्र चार घंटे के अल्टीमेटम पर रातोरात थोंपी देशव्यापी तालाबंदी से भयांक्रात देश के मेहनतकश अवाम जब महानगरों से सुदूर ग्रामीण अंचलों की तरफ अपने ऐतिहासिक लंबे अभियान पर निकल चुके थे। शहरों में महामारी की दस्तक से उपजे भय और सरकार की अमानवीय तालाबंदी के बाद की परिस्थितियों से तो यही लग रहा था कि लोग माहामारी से पहले भूख से ही मारे जायेगे। गांवों की ओर इस महापलायन के पीछे कहीं न कहीं, यही सोच थी कि वहां पर उनको भूख से नहीं मरना पड़ेगा। जो काफी हद तक सही भी थी। लेकिन ये किसको पता था कि ऐन महामारी के बीच मोदी सरकार गरीब जनता के अंतिम सहारे पर हमला करने वाली है। इसी समय केंद्र सरकार ने महामारी की आड़ में कृषि क्षेत्र पर एक बड़ा हमला किया है। जून 2020 में मोदी सरकार कृषि क्षेत्र में सुधार करने के नाम पर तीन आध्यादेश लेकर आयी है। संसद के मानसून सत्र का इंतजार भी नहीं किया। बल्कि राष्ट्रपति की शक्तियों का प्रयोग करते हुये ये कानून आध्यादेश के रूप में लाये गये। इसमें भी कोई दोराय नहीं है कि संसद में भी सरकार इनको पास करवा लेगी। भक्ततजनों का कहना है कि मोदी सरकार के इन कदमों से किसानों को अभूतपूर्व लाभ होगा और कृषि क्षेत्र का कायापलट हो जायेगा।
ग्रामीण भारत को बर्बाद कर देने वाले इन काले कानूनों को सरकार ने अपने आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत पास किया है। इसी समय सरकार लोकल के लिये वोकल होने का नारा दे रही थी। कृषि देश की कुल श्रम शक्ति के आधे से ज्यादा हिस्से को रोजगार देती है। देश की 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है। कोरोना महामारी के कारण अर्थव्यवस्था के बाकि क्षेत्र बंद पड़े हैं। जीडीपी की दर पहली तिमाही के लिये नकारात्मक में चली गयी है। ऐसे मोड़ पर सरकार ने कृषि क्षेत्र को ओपन कर देने का निर्णय लिया है। सरकार के इस कदम का मतलब होगा कि अब भारत का कृषि क्षेत्र प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिये खुल चुका है।
किसान संगठन सरकार की इन किसान विरोधी नीतियों का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि मोदी सरकार के इन निर्णयों से किसान कारपोरेट जगत के भंयकर शोषण का शिकार बनेंगे। हरियाणा में मुख्य रूप से भारतीय किसान युनियन (गुरनाम सिंह चढ़ुनी) के नेतृत्व में कुरूक्षेत्र, करनाल, यमुनानगर व फतेहबाद आदि जगहों पर किसानों ने मोदी सरकार के आध्यादेशों के खिलाफ आवाज उठाई है। इसी प्रकार पंजाब में भी भारतीय किसान युनियन के रजोवाल और लखोवाल समूहों की अगुवाई में व्यापक रूप से किसानों ने विरोध प्रदर्शन किये। किसानों ने मोदी सरकार के खिलाफ ट्रैक्टर मार्च निकाले तथा तीनों किसान विराधी आध्यादेशों को वापस लेने की मांग की।
मोदी सरकार द्वारा लाये गये तीन आध्यादेशों में एक है- आवश्यक वस्तु (संसोधन) आध्यादेश 2020 जोकि वर्तमान आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 में संशोधन करके तमाम कृषि उत्पादों को आवश्यक-वस्तु-सूची से हटाता है। सरकार का कहना है कि कृषि क्षेत्र में उत्पादन, संग्रहण, तथा सप्लाई को बाधा मुक्त करने से किसान खुशहाल होंगे तथा कृषि क्षेत्र में नीजि व प्रत्यक्ष निवेश आकृषित किया जायेगा। जिससे कोल्ड स्टोरेज तथा फूड सप्लाई चेन के आधुनिकीकरण के लिये निवेश को बढ़ावा मिलेगा। मोदी सरकार का तो यहां तक दावा है कि आध्यादेश से मंहगाई पर नियंत्रण होगा तथा उपभोक्ताओं को लाभ होगा और यह मुख्य रूप से व्यापारियों को मदद करेगा, आदि-आदि। मोदी सकार द्वारा हाल ही लाये गये आवश्यक वस्तु (संशोधन) आध्यादेश, 2020 के अनुसार आपातकाल के समय चिन्हित कृषि उत्पादों पर पाबंदी लगाने की शक्तियां अब केंद्र सरकार ने अपने पास रख ली हैं, जो पूर्व के कानून में राज्य सरकारों के पास थीं। इसका अर्थ है कि अब कृषि क्षेत्र से राज्य सरकारों का नियंत्रण अब समाप्त हो जाएगा। यह केंद्र द्वारा राज्यों को बाई पास करना है। हालांकि पहले वाले कानून से भी किसानों को कोई लाभ नहीं हुआ, मोदी सरकार के वर्तमान संशोधन से भी कोई फायदा होने वाला नहीं है। यह कुछ नहीं बल्कि केंद्र सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र को देशी विदेशी बड़े दानवों के हवाले कर तबाह करने की मुहिम है।
दूसरा आध्यादेश है, Farming Produce Trade and Commerce (Promotion and Facilitation) Ordinance, 2020. मोदी सरकार के दावे पर विश्वास करें तो इस आध्यादेश का मकसद भी कृषि एवं कृषकों का कल्याण करना है। सरकार का कहना है कि यह कानून बनने के बाद राज्य सरकारों के कानूनों के अधीन स्थापित अनाज मंडियों से अलग राज्यों के अंदर तथा एक राज्य से दूसरे राज्यों के बीच कृषि उत्पादों का व्यापार एवं वाणिज्य बेरोकटोक हो सकेगा। इससे एक सीमा-मुक्त व्यापार व वाणिज्य को प्रोत्साहन मिलेगा तथा इसके बाद राज्य सरकारों द्वारा संचालित अनाज मंडियों से अलग कृषि संबंधित व्यापारिक गतिविधियों को बढावा मिलेगा।
मोदी सरकार ने राज्यों के नियंत्रण वाली अनाज मंडी व्यवस्था को समाप्त करने के मकसद से यह आध्यादेश पास किया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि एपीएमसी मंडियों में बहुत समस्याएं हैं। इनमें भ्रष्टाचार का बोलबाला है। मंडियों की संख्या कम है। इनमें सुविधाओं का अभाव है। लालफीताशाही अपने चरम पर है। निकायों के चुनाव समय पर नहीं होते। व्यापारी भी मनमर्जी करते हैं तथा किसानों को रशीद या बिल नहीं देते। आढ़ती हरियाणा में कृषि उपज खरीद के फर्जी बिल बनाते हैं तथा न्यूनतम मूल्य से कम दामों पर उपज बिहार जैसे राज्यों से, जहां एपीएमसी कानून 2006 में हटा दिया था, खरीद कर कमीशन घोटाले करते हैं। किसानों को किये जाने वाले भुगतान में अनचाही कटौतियां करते हैं। निश्चित रूप से आढ़ती किसानों का बेहद शोषण करता है। लेकिन इसकी आड़ में मोदी सरकार के ये कदम क्या किसानों का कल्याण करने वाले हैं? सरकार बहादुर ने ऐलान किया है कि यह भारत के सरकार नियंत्रित कृषि बाजार को ‘अनलॉक’ करने वाला ऐतिहासिक कदम है। कोरोना काल में मोदी ने नारा दिया है कि आपदा को अवसर में बदलो। सरकार बहादुर महामारी के फलस्वरूप मिले अवसर का लाभ उठाकर भारत के किसानों को आढ़तियों से भी ज्यादा भयंकर और रक्त पीपासु दानवों के आगे फेंक रही है। कृषि क्षेत्र के खुलने से मुनाफा कमाने वाली विदेशी कम्पनियों व उनके टुकड़ों पर पलने वाले दलालों के लिये कोरोना महामारी निश्चित रूप से एक सुअवसर बन कर आयी है। यही वर्ग है जो मोदी सरकार द्वारा लाये गये तीनों आध्यादेशों को कृषि के लिये रामबाण बता रहा है। एपीएमसी एक्ट को समाप्त करने का सीधा सा मतलब है कि यह न्यूनतम सर्मथन मूल्य की व्यवस्था का अंत कर देगा और किसानों को बिना किसी राजकीय संरक्षण भगवान के भरोसे छोड़ देगा।
मोदी सरकार द्वारा लाया गया तीसरा आध्यादेश है- दी फ्रार्मर (एम्पावरमेंट एंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्यूरेंस एंड फ्रार्म सर्विसेज आर्डिनेंस, 2020 । सरकार ने यह कानून इस लिये बनाया है ताकि भारत में कांट्रेक्ट फार्मिंग का रास्ता साफ किया जा सके। सरकार ने इस कानून को नाम तो किसान-सशक्तिकरण-कानून का दिया है परन्तु असल में यह है- कम्पनी-द्वारा-खेती-कानून । जैसे जहर की बोतल पर कोई अमृत लिखकर बेचता है, सरकार वही धोखा कर रही है। इस कानून के अनुसार बड़ी-बड़ी कम्पनियां सीधे किसानों के साथ खेती करने का करार कर सकेगी। बल्कि वे खुद ही खेती करेंगी। महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय रोहतक में अर्थशास्त्र के पूर्व प्रोफेसर श्री राजेंद्र चौधरी कहते हैं कि अनुबंध खेती का अर्थ बुवाई के समय ही बिक्री का सौदा होता है ताकि किसान को भाव की चिंता न रहे। सरकार द्वारा पारित वर्तमान कानून में अनुबंध की परिभाषा को बिक्री तक सीमित न करके, उसमें सभी किस्म के कृषि कार्यों को शामिल किया गया है। इस आध्यादेश ने परोक्ष रूप से कम्पनियों द्वारा किसान से जमीन हड़पने की राह खोल दी है। कम्पनियां किसान को भुगतान करेंगी। यह भुगतान उपज की बिक्री के लिये न होकर, कम्पनी द्वारा किसान की जमीन व श्रम के दोहन के लिये होगा। अखिल भारतीय किसान सभा के नेता अमराराम कहते हैं -‘सरकार कृषि में सुधार और किसानों की आय बढ़ाने के नाम पर कृषि व्यवस्था को एग्रो-बिजनेस के क्षेत्र में काम करने वाली कम्पनियों के हवाले करने जा रही है।’ अभी तक भरतीय कृषि बड़े बड़े दैत्यों की पकड़ से कमोबेस बाहर थी। अब अगर यह कानून लागू हुये तो कृषि पूरी तरह बदल जायेगी। उदारीकरण का नतीजा है कि 30 साल में 5 लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। सरकार के कारनामों से भविष्य में यह स्थिति विकराल रूप धारण करने वाली है। जो लोग कांट्रेक्ट खेती से कृषि में खुशहाली के सपने दिखा रहे हैं, वो एक नम्बर के ठग हैं और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से कृषि क्षेत्र में समृद्धि का नारा हद दर्जे की बकवास है।
भूमंडलीकरण की नीतियों ने कृषि क्षेत्र को तबाह किया है, भारत में इन नीतियों का 25 वर्ष का इतिहास खुद इसका साक्षी है। बड़ी खुदरा कम्पनियां उपभोक्ताओं व किसानों, दोनों को लूटती हैं, यह एक उदाहरण से समझ सकते हैं। डाउन टू अर्थ में प्रकाशित एक रिर्पोट के अनुसार भारती-वालमार्ट ने पंजाब के कांट्रेक्ट खेती करने वाले किसानों से बेबी कोर्न की उपज मात्र 8 रूपये प्रति किलो के हिसाब से खरीदी तथा उसी उपज को कम्पनी होलसेल में 100 रूपये प्रति किलोग्राम की दर से बेचती है तथा यही उपज अंतिम उपभोक्ता को 200 रूपये प्रति किलो बेची गयी। इस प्रकार उपभोक्ता द्वारा भुगतान किये गये अंतिम मूल्य का केवल 4 प्रतिशत ही किसान को मिलता है। बिहार की धान उपज का केस देखना भी मजेदार होगा। बिहार राज्य ने 2006 में ही एपीएमसी कानून खत्म कर दिया था। पंजाब के खरीद मूल्य 1310 रूपये प्रति क्विंटल की तुलना में बिहार के किसानों को उसी गुणवता का धान 800 या 900 रूपये प्रति क्विंटल पर बेचना पड़ा। मोदी सरकार पूरे देश को बिहार बनाने के लिये ये काले कानून लायी है।
तमाम सरंक्षणों के बावजूद भी किसानों की लूट कोई कम नहीं थी। हरियाणा व पंजाब में मंडियों की व्यवस्था तुलनात्मक रूप से बढि़या है। लेकिन यहां भी किसानों को उपज के उचित भाव नहीं मिल पाते। भारतीय किसान युनियन द्वारा 2 जून को जारी एक बयान में कहा गया कि सरकार ने वर्ष 2016-17 में धान के समर्थन मूल्य में 4.3 प्रतिशत बढोतरी की थी, जबकि उसके बाद 2017-18 में 5.4 प्रतिशत, 2018-19 में 12.9 प्रतिशत, 2019-20 में 3.71 प्रतिशत बढोतरी की गई। लेकिन वर्तमान सीजन 2020-21 में यह पिछले पांच वर्षों की सबसे कम केवल 2.92 प्रतिशत बढोतरी की है। सरकार द्वारा घोषित धान के समर्थन मूल्य में प्रति क्विंटल 715 रूपये का घाटा है। ऐसे ही ज्वार में 631 रूपये, बाजरा में 934 रूपये, मक्का में 580 रूपये, अरहर दाल में 3603 रूपये तथा मूंग, उड़द, चना, सोयाबीन आदि उपजों में औसतन 3100 रूपये प्रति क्विंटल घाटा है। अक्तुबर 2019 में धान खरीद के ऐन बीच में करनाल जिला प्रशासन ने अपने निर्धारित कोटा 1.35 मीलियन टन के अतिरिक्त खरीद पर रोक लगा दी थी। बेहतर अनाज मंडियों की व्यवस्था वाले राज्यों की ये दशा है तो अन्यों की हालत का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।
अपने 16-28 फरवरी, 2019 के अंक में डाउन टू अर्थ ने एक विश्लेषण में पाया कि गेंहू के उत्पादन पर प्रति हेक्टेयर 32644 रूपये लागत आ रही है तथा इस पर किसान केवल 7639 रूपये ही कमा रहा है। किसान को प्रति हेक्टेयर 25005 रूपये घाटा हो रहा है। इसी प्रकार धान में प्रति हेक्टेयर घाटा 36410 रूपये आता है। सरकार यह सब जानती है। एक आरटीआई के जवाब में कृषि विभाग, हरियाणा ने स्वीकार किया कि वर्ष 2018-19 में गेंहू का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1840 रूपये प्रति क्विंटल की तुलना में इसकी उत्पादन लागत लगभग 2074 रूपये प्रति क्विंटल थी। इसमें 234 रूपये प्रति क्विंटल घाटा है। कपास के मामले में यह घाटा 830 रूपये प्रति क्विंटल था।
यह भी कहा जाता है कि एपीएमसी कानून के तहत मंडियों में कृषि उपजों की बिक्री के लिये मुक्त व्यापार की व्यवस्था नहीं होती बल्कि मंडियों में एकाधिकार के कारण किसान अपनी फसल को लाभकारी मूल्यों पर नहीं बेच पाते। यह सही नहीं है। अनाज मंडियों में पहले उपज की खूली बोली लगती है । किसान अपनी मर्जी के भाव व व्यापारी को उपज बेच सकता है। अपनी तमाम कमियों के बावजूद एपीएमसी कानून किसानों के लिये न्यूनतम कीमतों व बाजार में न्यूनतम सुरक्षा की गारंटी करता था। मंडियों में यह व्यवस्था थी। यह सही है कि आढ़ती किसानों को अपने कर्ज के मकड़जाल में फंसा कर, किसान की मोलभाव करने की आजादी को लगभग समाप्त कर देता था। फिर भी जो उपज खूली बोली में नहीं बिक पाती या जिनका कोई स्वतंत्र खरीददार नहीं होता, उनको न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी ऐजेंसियां खरीद लेती थीं। किसान के पास उपज बिक्री की गारंटी रहती थी। कम से कम इसका कानूनी आश्वासन रहता था। मौजूदा अध्यादेश में इस कानूनी आश्वासन या गारंटी को समाप्त कर दिया है और बताया जा रहा है कि सरकार के इन कदमों से किसानों की आमदनी बढ़कर दोगुणा होने वाली है। इसके अलावा आवश्यक वस्तु (संशोधन) आध्यादेश, 2020 भी राज्यों की शक्तियों को हड़पने वाला एक अन्य आध्यादेश है। हालांकि कृषि क्षेत्र राज्य सरकारों के अधीन आता है जिसमें केंद्र सरकार कई तरह से जैसे- नियोजन, अनुदान आबंटन तथा क्रियान्वयन आदि में भागेदार रहती है। लेकिन बीज, खाद व कीटनाशक आदि उत्पादन करने वाली बड़ी कम्पनियां लम्बे समय से सरकार पर कृषि के केंद्रीयकरण का दबाव बना रही थी। मोदी सरकार ने यह आध्यादेश लाकर कारपोरेट जगत की यह मांग पूरी कर दी है।
2016 से ही देश भर में किसान लगातार आंदोलन कर रहे थे। जिनकी मुख्य मांगे थी कि सरकार स्वामीनाथन आयोग की सिफारिसें लागू करे तथा विभिन्न उपजों के न्यूनतम समर्थन मूल्यों में बढोतरी करे। क्योंकि मोदी स्वामीनाथन को लागू करने का वादा करके सत्ता पर काबिज हुये थे। हालांकि 2019 में भाजपा-कांग्रेस, दोनों दलों ने अपने-अपने चुनाव घोषणा पत्रों से स्वामीनाथन को बाहर कर दिया था। जिसके अनुसार उपजों के मूल्यों को लागत से 1.5 गुणा ज्यादा तय करना था। उपज खरीद करने वाली संस्थाओं को सक्षम बनाना था। कृषि में सरकारी निवेश में वृद्धि करनी थी। परन्तु मोदी सरकार के मौजुदा कारनामों से उपरोक्त सभी व्यवस्थायें समाप्त हो जायेंगी। ऊपर से सरकार कह रही है कि यह सब किसानों की भलाई के लिये है!
मोदी सरकार मुनाफाखोर बहुराष्ट्रीय दानवों के दबाव में कृषि क्षेत्र के लिये संरक्षण के तमाम कानूनी प्रावधानों को हटाने के लिये प्रतिबद्ध है। मोदी सरकार के मौजुदा कदम कृषि क्षेत्र में भूमंडलीकरण के लिये आखिरी फल्ड गेट खोलने जैसा है, जो भारत की खेती बर्बाद कर देंगे। अपने 15 अगस्त के भाषण में मोदी इन काले कानूनों का गुणगान करते हुए कह रहे थे, ‘कौन सोच सकता था कि किसानों की भलाई के लिये एपीएमसी जैसे कानून में इतने बदलाव हो जाऐंगे? कौन सोच सकता था, हमारे व्यापारियों पर जो लटकती तलवार थी- आवश्यक वस्तु कानून, इतने सालों के बाद वह भी बदल जायेगा?’ इससे आगे वे कहते हैं, ‘भारत में परिवर्तन के इस कालखंड के सुधारों को दुनिया देख रही है। एक के बाद एक, एक-दूसरे से जुड़े हुए, हम जो रिफोर्म कर रहे हैं, उसको दुनिया बड़ी बारीकी से देख रही है और उसी का कारण है, बीते वर्ष भारत में एफडीआई ने अब तक के सारे रिकार्ड तोड़ दिये हैं।’ प्रधानमंत्री कृषि की इस विनाशलीला को आत्मनिर्भर होना बता रहे हैं। मोदी के भाषण के अंश देखिये- आत्मनिर्भर भारत की अहम प्राथमिकता आत्मनिर्भर कृषि और आत्मनिर्भर किसान हैं। इसको हम कभी भी नजरअंदाज नहीं कर सकते। किसान को तमाम बंधनों से मुक्त करना होगा, वो काम हमने कर दिया है। बहुत लोगों को पता नहीं होगा, मेरे देश का किसान जो उत्पादन करता था, न वो अपनी मर्जी से बेच सकता था, न अपनी मर्जी से जहां बेचना चाहता था, वहां बेच सकता था। उसके लिये जो दायरा तय किया था, वहीं बेचना पड़ता था। उन सारे बंधनों को हमने खत्म कर दिया है।’ सरकार बहादुर कुछ भी कहे, इन कानूनों से किसान को कुछ भी हासिल नहीं होने वाला, इसके विपरित ये कानून भारतीय कृषि और व्यापक किसान समुदाय को
पूर्णतया तबाह करने
में मील के पत्थर बनने वाले हैं। ये केवल व्यापारियों को लाभ पंहुचाने वाले कानून हैं। मुख्य रूप से एग्रो-बिजनेस करने वाले बड़े कारपोरेट घराने तथा विशालकाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियां ही इससे मुनाफा उड़ायेगे। इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट पर पार पाने के लिये दुनिया भर में भारत की सराहना की गई थी। इसका कारण उपभोग - वस्तुओं की मांग व आर्थिक वृद्धि को लगातार बरकरार रखना था। इन उपभोक्ताओं का बड़ा हिस्सा ग्रामीण क्ष्रेत्रों से आता है और ये मुख्य रूप से कृषि पर निर्भर हैं। इससे भारत की कुल अर्थव्यवस्था में ग्रामीण क्षेत्रों की भूमिका की महता का अंदाजा लग जाना चाहिये। यदि भारत की कृषि को ‘आत्मनिर्भरता’ के नाम पर वैश्विक दैत्यों के सामने असहाय छोड़ दिया होता तो उपरोक्त परिणाम नहीं आते। आर्थिक संकट भारत की कृषि को ध्वस्त कर डालता, तब ना भारत की अर्थव्यवस्था बचती और न ही आत्मनिर्भर बनने के लिये बेचारा किसान। मोदी सरकार उन सभी संरक्षणों को समाप्त कर रही है जो भारत की खेती को भारी आर्थिक भूचालों से बचाते थे। एक नकारात्मक पहलू ही सही, भारतीय कृषि का वैश्विक अर्थव्यवस्था की बजाय अपने मानसून पर निर्भर होना ज्यादा बेहतर था। राजनीतिक रूप से ये कानून संविधान द्वारा प्रदत राज्यों की शक्तियों को कुतरने वाले हैं। एक तरह से भारत के संघीय ढांचे पर हमला भी है। इनके परिणामस्वरूप तमाम राज्य सरकारों व मार्किट कमेटियों की शक्तियां प्रभावहीन हो जायेंगी।
में मील के पत्थर बनने वाले हैं। ये केवल व्यापारियों को लाभ पंहुचाने वाले कानून हैं। मुख्य रूप से एग्रो-बिजनेस करने वाले बड़े कारपोरेट घराने तथा विशालकाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियां ही इससे मुनाफा उड़ायेगे। इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट पर पार पाने के लिये दुनिया भर में भारत की सराहना की गई थी। इसका कारण उपभोग - वस्तुओं की मांग व आर्थिक वृद्धि को लगातार बरकरार रखना था। इन उपभोक्ताओं का बड़ा हिस्सा ग्रामीण क्ष्रेत्रों से आता है और ये मुख्य रूप से कृषि पर निर्भर हैं। इससे भारत की कुल अर्थव्यवस्था में ग्रामीण क्षेत्रों की भूमिका की महता का अंदाजा लग जाना चाहिये। यदि भारत की कृषि को ‘आत्मनिर्भरता’ के नाम पर वैश्विक दैत्यों के सामने असहाय छोड़ दिया होता तो उपरोक्त परिणाम नहीं आते। आर्थिक संकट भारत की कृषि को ध्वस्त कर डालता, तब ना भारत की अर्थव्यवस्था बचती और न ही आत्मनिर्भर बनने के लिये बेचारा किसान। मोदी सरकार उन सभी संरक्षणों को समाप्त कर रही है जो भारत की खेती को भारी आर्थिक भूचालों से बचाते थे। एक नकारात्मक पहलू ही सही, भारतीय कृषि का वैश्विक अर्थव्यवस्था की बजाय अपने मानसून पर निर्भर होना ज्यादा बेहतर था। राजनीतिक रूप से ये कानून संविधान द्वारा प्रदत राज्यों की शक्तियों को कुतरने वाले हैं। एक तरह से भारत के संघीय ढांचे पर हमला भी है। इनके परिणामस्वरूप तमाम राज्य सरकारों व मार्किट कमेटियों की शक्तियां प्रभावहीन हो जायेंगी। कृषि पर राज्य सरकारों का नियंत्रण समाप्त होने से राज्य सरकारों की आमदनी घटेगी। कृषि पर मोदी सरकार के इन तीन हमलों से राज्यों के पास हस्तक्षेप करने का कोई रास्ता नहीं बचने वाला। इसके अलावा, देश की जनता को व्यापक रूप से मंहगाई का सामना करना पड़ेगा। कृषि में उदारीकरण प्रक्रिया तेज होने के कारण कृषि उत्पादों का आयात बढ़ेगा। भले ही आध्यादेशों में इस बाबत कोई उल्लेख नहीं किया गया है। भारत का किसान विदेशी उत्पादों से प्रतियोगिता में निश्चित रूप से टिक नहीं सकता। बाजार पर बड़े राक्षसों का एकाधिकार और बाजार रूझानों की सूचनाओं तक पंहुच की गैर-बराबरी भारतीय किसान को मार डालेगी।

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