Monday 21 September 2020

विरासत



(मौजूदा सरकार के नियमों और कानूनों का अस्तित्व ही हमारी जनता के हितों के खिलाफ विदेशी शासकों के स्वार्थ के लिए है और ऐसी स्थिति में उनके प्रति कोई भी नैतिक बन्धन नहीं हो सकता। अतः इन नियमों का उल्लंघन एवं अवज्ञा हर भारतीय का अनिवार्य कर्त्तव्य है। शोषण की मशीनरी का एक पुर्जा होने के नाते, अंग्रेजी अदालतें न्याय नहीं दे सकतीं, खासकर राजनैतिक मुकदमों में, जहां सरकार के एवं जनता के हितों के बीच टकराव होता है। हम जानते हैं कि ये अदालतें न्याय का मजाक उड़ाने वाले ‘मंचों’ के अलावा और कुछ नहीं हैं।)


शत्रु की अदालत एक तमाशा है : हम हिस्सा नहीं लेंगे

      - शहीद भगत सिंह





(प्रचार के उद्देश्य से लाहौर षड्यन्त्र केस के अभियुक्तों ने अपने आप को तीन हिस्सों में विभाजित कर लिया था। पहले ग्रुप में वे साथी थे जिनकी पैरवी वकील करता था और जिनके खिलाफ कोई संगीन चार्ज नहीं था।
दूसरे ग्रुप के साथी अपनी पैरवी स्वयं करते थे। अदालत में आमतौर पर इसी ग्रुप के अभियुक्त बोलते थे। उनका काम था सरकारी गवाहों से जिरह करना, सरकारी वकीलों की दलीलों और अदालत के निर्णयों को चुनौती देना, राजनीतिक भाषण देना और अदालत की कार्यवाही को अधिक से अधिक लम्बा खींचने की कोशिश करना।
तीसरा ग्रुप बचाव न पेश करने वाले साथियों का था। इनका काम था बुनियादी सवालों को उठाना, सरकार तथा उसकी अदालत को मान्यता देने से इनकार करना। इस ग्रुप में पांच साथी थे। विशेष ट्रिब्यूनल के सामने पहले ही दिन उन्होंने एक लिखित ब्यान के द्वारा एलान किया कि हम न तो विदेशी सरकार को मानते हैं और न उसकी अदालत को। हम शत्रु की अदालत से किसी प्रकार के न्याय की उम्मीद नहीं करते और इसीलिये हम लोग अदालत की कार्यवाही में भाग नहीं लेंगे।
यह ब्यान लिखा था भगतसिंह ने, और अदालत में उसे पढ़कर सुनाया था जितेन्द्रनाथ सान्याल ने। सान्याल के साथ ब्यान पर हस्ताक्षर करने वाले अन्य साथी थे - महावीर सिंह, गयाप्रसाद कटियार, कुन्दन लाल और बटुकेश्वर दत्त।
ट्रिब्यूनल ने ब्यान को राजद्रोहात्मक कहकर जब्त कर लिया था। - शिववर्मा )



सेवा में
कमिश्नर
स्पेशल ट्रिब्यूनल,
लाहौर षड्यन्त्र केस,
लाहौर।

श्रीमान् जी,

मैं अपने सहित अपने पाँचों साथियों की ओर से केस के आरम्भ में ही यह वक्तव्य देना आवश्यक समझता हूँ। हमारी इच्छा है कि इसे रिकार्ड पर सुरक्षित रखा जाये।
हम इस केस में किसी प्रकार का भाग लेने नहीं जा रहे हैं क्योंकि हम लोग इस सरकार को मान्यता नहीं देते, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह न्याय पर आधरित है या कि उसकी स्थापना कानून द्वारा हुई है।
हमारा विश्वास है और हम ऐलान करते हैं कि मनुष्य ही सम्पूर्ण शक्ति और अधिकार का द्योतक है अतः कोई एक व्यक्ति या सरकार उस समय तक शक्ति या अधिकार की हकदार नहीं है जब तक कि वे अधिकार सीधे जनता से प्राप्त न किये जाएं।
चूंकि यह सरकार इस सिद्धान्त का पूर्ण निषेध है, अतः इसके अस्तित्व का भी कोई औचित्य नहीं है। ऐसी सरकारों का गठन ही दलित राष्ट्रों के शोषण के लिये किया जाता हैं। ऐसी सरकार को तलवार या पाशविक शक्ति, जिसके सहारे वे स्वतंत्रता एवं स्वाधीनता के विचारों तथा जनता की आकांक्षाओं को कुचलने का प्रयास करते हैं को छोड़कर और किसी के सहारे कायम रहने का अधिकार नहीं है।
हमारा विश्वास है कि इस प्रकार की सभी सरकारें, विशेषतया ब्रिटिश सरकार, जिसे असहाय भारतवासियों के ऊपर जबरदस्ती थोप दिया गया है, तबाही एवं खून-खराबे के सभी साधनों से लैस डाकुओं एवं शोषकों के एक संगठित गिरोह के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अमन और कानून के नाम पर  ये उन सभी लोगों को कुचल देते हैं जो उनको बेनकाब करने या उनका विरोध करने का साहस करते हैं।
.......हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि साम्राज्यवाद लूटने खसोटने के उद्देश्य से संगठित किये गये एक विस्तृत षड्यन्त्र को छोड़ कर और कुछ नहीं है। साम्राज्यवाद मनुष्य द्वारा मनुष्य की तथा एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र को धेखा देकर शोषण करने की नीति के विकास की अन्तिम अवस्था है। साम्राज्यवादी अपने लूट खसोट के मनसूबों को आगे बढ़ाने की गरज से केवल अपनी अदालतों द्वारा ही राजनैतिक हत्याएँ नहीं करते, बल्कि युद्ध के रूप में कत्लेआम, विनाश तथा अन्य कितने ही वीभत्स एवं भयानक कार्यों का संगठन करते हैं। जो लोग उनकी लूट खसोट की मांगों को पूरा करने से इनकार करते हैं या उनके तबाह करने वाले घृणित मनसूबों का विरोध करते हैं, उन्हें वे गोली से उड़ा देने में जरा भी नहीं हिचकिचाते। न्याय तथा शांति का रक्षक होने के बहाने वे शांति का गला घोंटते हैं, अशान्ति की सृष्टि करते हैं, बेगुनाहों की जान लेते हैं और सभी प्रकार के जुल्मों को प्रोत्साहन देते हैं।
हमारा यह विश्वास है कि मनुष्य होने के नाते हर व्यक्ति आजादी का हकदार है, उसे कोई दूसरा व्यक्ति दबा कर नहीं रख सकता। हर मनुष्य को अपनी मेहनत का फल पाने का पूरा अधिकार है और हर राष्ट्र अपने साधनों का पूरा मालिक है। यदि कोई सरकार उन्हें, उनके इन प्रारम्भिक (बुनियादी-स.) अधिकारों से वंचित रखती है तो लोगों का अधिकार ही नहीं, बल्कि यह उनका कर्त्तव्य है कि वे ऐसी सरकार को उलट दें, मिटा दें। चूंकि ब्रिटिश सरकार इन उसूलों से, जिनके लिये हम खड़े हुए हैं, बिल्कुल परे है इसलिये हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि क्रांति के द्वारा मौजूदा हुकूमत को समाप्त करने के लिये सभी कोशिशें तथा सभी उपाय न्यायसंगत हैं। हम परिवर्तन चाहते हैं - सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक, सभी क्षेत्रों में आमूल परिवर्तन। हम मौजूदा समाज को जड़ से उखाड़ कर उसके स्थान पर एक ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते हैं जिसमें मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण असम्भव हो जाये और हर व्यक्ति को हर क्षेत्र में पूरी आजादी हासिल हो जाये। हम महसूस करते हैं कि जब तक समाज का पूरा ढ़ांचा ही नहीं बदला जाता और उसकी जगह समाजवादी समाज की स्थापना नहीं हो जाती, तब तक दुनिया महाविनाश के खतरे से बाहर नहीं है।
रही बात उपायों की - शांतिमय अथवा दूसरे - जिन्हें हम क्रांतिकारी आदर्शों की पूर्ति के लिये काम में लायेंगे, हम कह देना चाहते हैं कि इसका फैसला करना बहुत कुछ उन लोगों पर निर्भर करता है जिनके पास ताकत है। क्रांतिकारी तो सबका फायदा चाहने के सिद्धान्त पर विश्वास करने के नाते शांति के ही उपासक हैं - सच्ची और टिकने वाली शांति के, जिसका आधर न्याय तथा समानता पर हो, न कि कायरता पर आधारित तथा संगीनों की नोक पर बचा कर रखी जाने वाली शांति के.......।’’
.....हम पर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का अभियोग लगाया गया है। हम ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाई गई किसी भी अदालत से न्याय की आशा नहीं करते और इसलिये हम इस न्याय-नाटक में भाग नहीं लेंगे। क्रान्तिकारी बम और पिस्तौल सभी उठाते हैं, लेकिन तभी, जब वो अत्यावश्यक हो जाता है, केवल अन्तिम उपाय के रूप में।
हमारा विश्वास है कि कानून और व्यवस्था मनुष्य के लिये हैं, न कि मनुष्य कानून और व्यवस्था के लिए। क्रान्तिकारी फ्रांस की सर्वोच्च जूरी कौंसिल के शब्दों में, ‘‘कानून का उद्देश्य स्वतंत्रता को समाप्त करना या उस पर रोक लगाना नहीं है, उसका उद्देश्य है स्वतंत्रता की रक्षा तथा उसका पालन। शासनार्थ कानून बनाने के लिये न्यायसंगत अधिकार की आवश्यकता होती है, जिसकी स्थापना सार्वजनिक हितों के लिए हुई हो और जो अन्ततोगत्वा जनता की सहमति तथा उसके द्वारा प्रदत्त अधिकारों पर आधारित हो। इस नियम से कोई भी ऊपर नहीं है, विधायक भी नहीं।’’
कानून की पवित्रता तभी तक सुरक्षित रह सकती है जब तक वो जनता की इच्छाओं को अभिव्यक्त करता है। किसी जालिम एवं दमनकारी वर्ग के हाथों का हथियार बन जाने पर वह अपना महत्व और पवित्रता खो देता है। क्योंकि न्याय के प्रशासनार्थ पहली और आधारभूत शर्त है -- निहित स्वार्थ की समाप्ति।
ज्यों ही कानून जनप्रिय सामाजिक आवश्यकताओं को प्रतिबिम्बित करना छोड़ देता है, वह अन्याय तथा अत्याचार के पोषित कर्मों का साधन बन जाता है। इस प्रकार के कानूनों को बनाए रखना, जनहित के विरुद्ध कुछ विशेष हितों को सुरक्षित रखने की मक्कारी के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
मौजूदा सरकार के नियमों और कानूनों का अस्तित्व ही हमारी जनता के हितों के खिलाफ विदेशी शासकों के स्वार्थ के लिए है और ऐसी स्थिति में उनके प्रति कोई भी नैतिक बन्धन नहीं हो सकता। अतः इन नियमों का उल्लंघन एवं अवज्ञा हर भारतीय का अनिवार्य कर्त्तव्य है। शोषण की मशीनरी का एक पुर्जा होने के नाते, अंग्रेजी अदालतें न्याय नहीं दे सकतीं, खासकर राजनैतिक मुकदमों में, जहां सरकार के एवं जनता के हितों के बीच टकराव होता है। हम जानते हैं कि ये अदालतें न्याय का मजाक उड़ाने वाले ‘मंचों’ के अलावा और कुछ नहीं हैं।
इन्हीं कारणों से हम इस नाटकीय मुकदमे में हिस्सा लेने से इन्कार करते हैं और आगे से हम इस केस की कार्यवाही में कोई हिस्सा नहीं लेंगे।

भवदीय -
जे.एन.सान्याल
महाबीर सिंह
बी.के. दत्त
गया प्रसाद
कुन्दन लाल




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