Thursday 10 September 2020

शहादतनामा


(तब तक चित्तप्रिय शहीद हो चुके थे। यतीन बहुत बुरी तरह घायल थे, उनके बचने की कोई आशा नहीं थी। मनोरंजन पास की नदी में से चादर भिगोकर उन्हें पानी पिलाने की कोशिश करने लगे। इसी बीच पुलिस दल-बल सहित आ गई थी। मजिस्ट्रेट किलबी यतीन के पास आए। यतीन बोले, "बुरा मत मानिए, हमें नहीं मालूम था कि आप भी आए हैं। हमें आपसे कोई शिकायत नहीं है। बस कृपा करके यह देख लीजिएगा कि इन दो बालकों के साथ कोई अन्याय न हो, सारी घटनाओं का मैं ही योजनाकार हूँ। मैं तमाम जिम्मेदारी अपने ऊपर लेता हूँ।" यतीन का यह साहस देखकर मजिस्ट्रेट किलबी, पुलिस वाले और दूसरे गोरे अफसर भी प्रभावित हुए बिना न रह सके। अगले दिन, 10 सितंबर, 1915 को इस महान क्रान्तिकारी की जीवन यात्रा अस्पताल में समाप्त हो गई। नरेन्द्र और मनोरंजन को फाँसी की सजा सुनाई गई और ज्योतिष पाल को आजन्म काले पानी की सजा दी गई।)





बाघा यतीन (बाघा जतीन) बंगाल के क्रांतिकारी इतिहास में एक संगठनकारी के रूप में बहुत बड़ा स्थान रखते हैं। उनका पूरा नाम यतीन्द्रनाथ मुखर्जी (जतीन्द्रनाथ मुखर्जी) था। जब बंगाल में बारीन्द्र कुमार घोष के दल को पुलिस ने छिन्न-भिन्न कर दिया और दल के अधिकांश लोगों को काले पानी भेज दिया, दल के प्रधन नेता अरबिन्द घोष अध्यात्मवाद में आश्रय लेकर पांडिचेरी में आश्रम बनाकर बैठ गए, तब उस घोर निराशा की काली रात में बाघा यतीन सामने आए और क्रांति की मशाल को अपने हाथ में थामते हुए खुद को क्रान्ति की बलिवेदी पर न्यौछावर कर दिया।

बाघा यतीन के पूर्वज जैसोर जिले के रहने वाले थे, जो इस समय बांग्लादेश में है। उनका जन्म 07 दिसम्बर, 1879 को कृष्णनगर के पास अपने ननिहाल कया नामक गाँव में हुआ। उनके पिता का नाम उमेशचन्द्र और माता का सरस्वती देवी था। 5 साल की उम्र में ही उनके पिता का देहान्त हो गया। यतीन्द्र की माता रामायण-महाभारत की वीरगाथाओं पर पली हुई एक साधरण हिन्दू औरत थी और उसी रूप में उन्होंने अपने बेटे का पालन-पोषण किया। यतीन बचपन से ही तैरने में पारंगत थे और अपने गाँव के पास गहुई नदी में तैरते रहते थे। उनके मामा के पास एक बन्दूक थी। वे इससे शिकार करना सीख चुके थे और साथ ही बन्दूक चलाने की कला में भी निपुण हो गए थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव में ही हुई। आगे कोई अंग्रेजी स्कूूूल वहाँ न होने के कारण वे कृष्णनगर में रहकर पढ़ाई करने लगे।

एक दिन यतीन पेंसिल खरीदने के लिए एक दुकान पर खड़े थे। उन्होंने देखा कि एक घोड़ा लोगों को घायल करता हुआ बेकाबू होकर इधर-उधर भाग रहा है और सईस उसके पीछे-पीछे भाग रहा है। ज्यों ही घोड़ा दुकान के सामने आया, उन्होंने एकदम छलांग लगाकर घोड़े की गर्दन के बाल पकड़ लिए और उसे रोक लिया। सब लोग दौड़ते हुए आए और कहने लगे कि उसने अपनी जान व्यर्थ में ही संकट में डाली। उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया और चुपचाप पेंसिल लेकर चले गए। इसी प्रकार एक दिन उन्होंने देखा कि नदी के घाट पर एक बुढ़िया घास का गट्ठर लिये खड़ी है और सबसे उठवाने के लिए कह रही है, पर लोग उसकी बात अनसुनी करके चले जाते थे। यतीन ने जैसे ही गट्ठर उठवाने में मदद करनी चाही तो देखा कि वह बहुत भारी था। यह देख उन्होंने वह बोझ खुद उठाकर बुढ़िया के साथ चलना शुरू कर दिया और उसके घर तक पहुँचा कर आए।

एक दिन सुनने में आया कि कया गाँव के पास एक बाघ ने उपद्रव मचा रखा है। बाघ कभी किसी की बकरी उठा ले जाता है तो कभी बछड़ा मार देता है। लोगों ने बाघ को मारने की बहुत कोशिश की, पर सफल नहीं हुए। तब यतीन के एक ममेरे भाई ने तय किया कि बाघ को मारना ही है। वे बन्दूक लेकर आए। जब यतीन को यह बात मालूम हुई तो वे बहुत खुश हुए और शिकारी भाई के साथ जाने को तैयार हो गए। बंदूक एक ही थी, अतः वे एक भुजाली ले आए। दोपहर के समय यह टोली निकली। कुछ गाँव वाले बाघ को बिदकाने के लिए शंख, घड़ियाल, कनस्तर आदि लेकर चले और वे जंगल के चारों तरफ घूमते रहे। गाँव वालों ने इसे एक उत्सव का मौका मान लिया और सब लोग शोर मचाते, नाचते इधर-उधर घूमते रहे। काफी देर बाद, जहाँ पर यतीन खड़े थे, अचानक वहीं से एक बहुत बड़ा बाघ निकला। उसे देखते ही शंख, घड़ियाल बजाने वाले लोग भाग खड़े हुए। भाई ने बन्दूक चलाई, पर गोली बाघ के सिर में न लगकर उसे छूकर चली गई। इससे बाघ और भी खूंखार हो गया और उसने यतीन पर आक्रमण कर दिया। यतीन ने इस पर प्रत्याक्रमण किया और बाघ का गला बगल में दबाकर उस पर बहुत जोर से अपनी भुजाली मारना शुरू कर दिया। इधर भाई साहब बन्दूक लेकर तैयार हुए, पर यह सोचकर गोली नहीं चलाई कि कहीं गोली यतीन को ही न लग जाए क्योंकि दोनों में भयंकर लड़ाई हो रही थी। लगभग 10 मिनट तक लड़ाई होने के बाद हालात यह हो गई कि बाघ और यतीन, दोनों बहुत बुरी तरह घायल हो गए। यतीन समझ गए थे कि अब दोनों में से एक का मरना तय है। इसलिए वे पागलों की तरह वार करते रहे और बाघ को न जाने कितनी जगह से काट डाला। अन्त में दोनों बेहोश होकर गिर पड़े। भाई साहब दौड़कर आए, इस बीच और लोग भी आ गए और देखा कि बाघ तो मर चुका है और यतीन बेहोश है।

यतीन को किसी तरह कलकत्ता ले जाया गया। उनके शरीर पर कोई 300 घाव थे। बाघ ने उनकी जाँघों को इतनी बुरी तरह से काटा था कि डॉक्टर का कहना था कि शायद जान बचाने हेतु दोनों पैर काटने पड़ें। बहुत अच्छी देखभाल व चिकित्सा के कारण वे अच्छे तो हो गए, पर फिर भी उन्हें 6 महीने तक बिस्तर पर पड़े रहना पड़ा और एक साल तक वे ठीक से चल नहीं पाए। पर यतीन जैसे दृढ़निश्चयी व्यक्ति के लिये कुछ भी नामुमकिन नहीं था। काफी दिनों के कठिन अभ्यास के बाद वे फिर से पहले की तरह हो गए और इसी से उनका नाम बाघा यतीन पड़ा। इसके बाद यतीन अपनी पढ़ाई में जुट गये और सैन्ट्रल कॉलेज में एफ.ए. में दाखिला ले लिया। फिर वे शीघ्रलिपि और टंकन का काम सीखने लगे। कुछ महिनों के अन्दर ही वे शीघ्रलिपि और टंकन कला अच्छी तरह सीख गए और कलकत्ता की एक गोरी कम्पनी में 50 रुपये महीने पर नौकर हो गए। बाद में एक आई०सी०एस० अफसर के अधीन काम करते हुए उन्हें पता लगा कि भारत के राजा-महाराजा किस तरह एक मामूली से आई.सी.एस. अफसर के सामने केंचुए बने रहते हैं।

एक बार रेल यात्रा के दौरान यतीन एक बच्चे के लिए पानी लेने गए। जब वे पानी लेकर गाड़ी में चढ़ने वाले थे तो जल्दी में एक गोरे सैनिक को धक्का लगा और पानी उसके ऊपर गिर गया। यह देखकर गोरे सैनिकों ने यतीन को नीचे गिरा दिया। लेकिन यतीन ने तुरन्त उठकर तीन गोरों को पटक दिया। बाद में उन्हें गिरफ्तार करके अदालत में पेश किया गया। लेकिन जज नहीं चाहता था कि इस मामले पर ज्यादा शोर मचे और वैसे भी यतीन सरकारी नौकरी पर होने के कारण जमानत पर छूट गए। धीरेे-धीरे राजनीतिक घटनाओं की जानकारी भी होने लगी थी। उन्हें पता लगने लगा था कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए क्या हो रहा है। खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी के बलिदान की कहानी उन तक पहुँच चुकी थी और उन्हें लग रहा था कि केवल सरकारी नौकरी करना और गृहस्थ जीवन व्यतीत करना ही जिंदगी नहीं है। इसी बीच सन् 1900 की अप्रैल में इन्दुबाला से उनकी शादी भी हो गई। 1903 में देशभक्त लेखक योगेन्द्र विद्याभूषण के घर पर यतीन अरबिन्द घोष से मिले जो उस समय एक क्रांतिकारी नेता थे और उन्होंने अपने भाई बारीन्द्र को भी क्रान्तिकारी मार्ग की दीक्षा दी थी। तय हुआ कि यतीन भी आगे से क्रान्तिकारी कार्यों में भागेदारी करेंगे।

पर घटनाचक्र कुछ ऐसा चला कि बारीन्द्र के बहुत-से साथी पकड़े गए और बारीन्द्र को सजा हो गई। अरबिन्द के खिलाफ कोई आरोप साबित न हो पाने के कारण वे छूट तो गये, पर वे इस सबसे बचकर भाग निकले और पांडिचेरी जाकर अध्यात्मवाद में आश्रय खोजने लगे। एक बार तो ऐसा लगा जैसे बंगाल में क्रान्तिकारी आन्दोलन का अंत ही हो गया हो!

ऐसे समय में, जब तमाम नेतृत्वकारी साथी या तो शहीद हो गये थे, या जेलों में थे या फिर निष्क्रिय पड़ गए थे। जब चारों ओर निराशा का घना कोहरा छा गया था। अपने नाम को चरितार्थ करते हुए बाघा यतीन एक शेर की भान्ति आगे बढ़े और क्रान्तिकारी दल की बागडोर अपने हाथों में ले ली। उन्हीं दिनों नदिया जिले के रायटा और हलुदवाड़ी गाँवों में दो डकैतियाँ हुईं। पुलिस हर संभव कोशिश कर रही थी कि ऐसे लोगों को गिरफ्तार किया जाए जो किसी भी तरह से क्रांतिकारियों से संबंध रखते हों। पर यतीन्द्रनाथ मुखर्जी (बाघा यतीन) के बारे में अभी तक पुलिस को कुछ पता नहीं था। 17 फरवरी, 1909 को अलीपुर षड्यन्त्र के सरकारी वकील आशुतोष विश्वास को अदालत के बाहर उड़ा दिया गया। 23 अप्रैल, 1909 को डायमण्ड हार्बर के पास नेत्रा गाँव में एक सेठ के घर डकैती पड़ी। इसी प्रकार 9 जनवरी, 1910 को शम्सुलअली नामक व्यक्ति की हत्या कर दी गई जो सरकार की ओर से इस मुकद्दमे की पैरवी कर रहा था। उसे बीरेन्द्रनाथ गुप्त नामक एक 18 साल के किशोर ने गोली मारी थी। पर चपड़ासियों तथा सैनिकों ने उसे पकड़ लिया था। उसके घर की तलाशी लेने पर पुलिस को पता चल गया कि इन सब मामलों के पीछे बाघा यतीन  हैं। अब तक यतीन सरकारी नौकर थे। 20 जनवरी, 1910 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें बहुत सताया गया और हर संभव कोशिश की गई कि वे अपने साथियों के नाम बता दें। पर यतीन ने किसी प्रकार भी मौन नहीं तोड़ा। उन पर जो मुकद्दमा चला, वह हावड़ा-षड्यन्त्र मुकद्दमा कहलाया। यतीन के विरुद्ध कोई भी जुर्म साबित नहीं हो पाया। क्रांतिकारी न केवल धन्ना-सेठों को लूट रहे थे और देश के लुटेरों-गद्दारों को मृत्युदंड दे रहे थे, बल्कि वे सेना में विद्रोह के बीज बोने की भी कोशिशें कर रहे थे। कहा जाता है कि सरकार को जो प्रमाण मिले थे, उनसे पूरा पता तो नहीं लगा, फिर भी 10 नम्बर जाट रेजीमेण्ट को समाप्त कर दिया गया।

मजेदार बात यह हुई कि अपनी पूरी कोशिशों के बावजूद भी सरकार यतीन के विरुद्ध कोई आरोप साबित नहीं कर पाई और अप्रैल 1911 में अदालत को उन्हें मजबूरन बाइज्जत बरी करना पड़ा। क्रांतिकारियों की एक महत्त्वपूर्ण सभा हुई जिसमें नरेन्द्रनाथ भट्टाचार्य (बाद में एम.एन. राय) अमरेन्द्र चट्टोपध्याय, नरेन्द्र सेन, मतिलाल राय आदि क्रांतिकारी उपस्थित थे। तय हुआ कि बंगाल में फौरन 10,000 जवान तैयार किए जाएं और एक हजार बम चंदननगर में तैयार किये जाएं। यह भी तय हुआ कि धन्नासेठों के यहां डकैतियाँ डालकर क्रांतिकारी दल के लिए धन एकत्र किया जाए। क्रांतिकारी दल का एक सदस्य शिरीषचन्द्र, राडा नामक एक कम्पनी में नौकर था। यह कम्पनी अस्त्र-शस्त्र बेचती थी। इन्हीं दिनों एक जहाज पर कम्पनी का कुछ माल आया। यह माल इतना अधिक था कि इसे सात बैलगाड़ियों पर रखा गया। इसमें 200 बक्सों में गोलियाँ और एक में माउजर पिस्तौलें थीं। शिरीष ने यह माल जहाज से लिया और उसे कम्पनी के गोदाम में पहुँचाने की बजाय क्रांतिकारियों के हाथों में देकर गायब हो गया। इस प्रकार क्रांतिकारियों के हाथ 50 माउजर पिस्तौलें और 40 हजार गोलियाँ लगीं। ये पिस्तौलें 300 बोर की थीं। इसके अलावा क्रांतिकारियों ने 12 फरवरी, 1915 को गार्डन रीच में डकैती की और उनके हाथ लगभग 18,000 रुपये आए। 22 फरवरी को बेलिया घाटा के चावलपट्टी रोड़ पर एक बंगाली पूँजीपति की दुकान पर डकैती डाली गई और वहाँ क्रांतिकारियों के हाथ 22 हजार रुपये लगे। 9 दिनों के अन्दर इस प्रकार दो बड़ी डकैतियाँ हो जाने के कारण पुलिस-सरकार बहुत परेशान थी। अन्त में पुलिस ने कुछ क्रांतिकारियों को पकड़ लिया। यह सारा काम यतीन के नेतृत्व में ही हो रहा था।

इन्हीं दिनों एक घटना और घटी। 1915 की 24 फरवरी को, यानी बेलिया घाटा डकैती के दो दिन बाद, यतीन और चित्तप्रिय एक मकान में बैठे पिस्तौलें साफ कर रहे थे कि एकाएक पुलिस का एक आदमी नीरद हालदार अन्दर घुस आया। जैसे ही उसने अपने सामने यतीन को देखा तो हैरान होते हुए कहा, अरे यतीन बाबू, आप यहाँ? अच्छा! तो आप भी विद्रोही हैं? मैं अभी खबर करता हूं! यतीन व चित्तप्रिय को भी उसे वहां देख तथा उसकी यह हरकत देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। जैसे ही नीरद वापिस मुड़कर भागने को हुआ, यतीन जोर से चिल्लाये, शूट हिम! चित्तप्रिय ने फौरन घोड़ा दबाया और नीरद वहीं गिर पड़ा। अब लाश कैसे हटाई जाए? इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने जल्दबाजी में नीरद की लाश को एक तरफ डाला और वहाँ से भाग खड़े हुए। पर नीरद तब तक मरा नहीं था। वह बुरी तरह घायल था। वह किसी तरह रेंगकर पुलिस तक पहंचा और मरते-मरते बयान दे दिया कि यतीन और चित्तप्रिय ने उसे मारा है। जैसे ही पुलिस को सारी बातें मालूम हुईं, तुरन्त यतीन और चित्तप्रिय की गिरफ्तारी के लिए पुरस्कार की घोषणा कर दी गई।

यतीन के लिए कलकत्ता में रहना अब और भी मुश्किल हो गया था। एम.एन.राय पहले ही गिरफ्तार हो चुके थे और दल को इससे बहुत हानि पहुँची थी। वे जर्मनी से सम्पर्क रखने वाले मुख्य व्यक्ति थे। इस पर चारों तरफ निराशा फैल गई। यतीन दा ने कहा, अरे, मेरा दाहिना हाथ टूट गया! हमें एम.एन.राय को तो छुड़ाना ही है! आज जब संध्या समय उन्हें लाल बाजार ले जाया जाएगा तब गाड़ी पर कब्जा करके उन्हें छुड़ाना होगा! उस दिन यतीन दा के आदेश पर कुछ लोग जेल की गाड़ी तोड़ने के लिए निकल पड़े और उनमें बहुत उत्साह था। पर उस दिन एम.एन.राय को दूसरे दिनों की तरह लाल बाजार लाया ही नहीं गया। उन्हें सीधे जेल भेज दिया गया। साथी निराश होकर लौट आये। पर यतीन दा बोले, कुछ भी हो, तुम लोग गए तो थे। वे प्रयास को पूरा महत्त्व देते थे। वे यह नहीं मानते थे कि सफलता ही सब कुछ है।

संयोग यह हुआ कि एम.एन.राय जमानत पर छूट गए। दल ने तय किया कि राय को जमानत पर रहते भगा दिया जाए। वे चार्ल्स मार्टिन नाम रखकर चोरी से भारत से निकल गए। क्रांतिकारी बाहर से हथियार प्राप्त करने का हर संभव प्रयास कर रहे थे। इसी उद्देश्य से विदेशों से हथियार लेकर कुछ जहाज चले भी, पर वे अपने गन्तव्य तक नहीं पहुंच पाये। मौवेरिक नामक जहाज पर डच नेवी के एक जहाज ने कब्जा कर लिया। बाकी कई जहाज भी ब्रिटिश समुद्री सेना द्वारा पकड़ लिये गये। इसी प्रकार के एक जहाज में हेरम्ब गुप्त नामक क्रांतिकारी थे। वे गिरफ्तार कर लिए गए। उन पर शिकागो में मुकद्दमा चला और उन्हें सजा हो गई। जब इस प्रकार अस्त्र मिलने की जो भी सम्भावना थी, वह खत्म हो गई। ऐसे में यतीन दा तथा अन्य क्रांतिकारियों ने तय किया कि उन्हें फिलहाल कलकत्ता से बाहर रहना चाहिए।

चन्द्रशेखर आजाद की तरह बाघा यतीन ने भी कसम खाई थी कि वे खुद को कभी भी अंग्रेजों के हाथ नहीं पड़ने देंगे। एक क्रान्तिकारी साथी भूपति मजूमदार बाद में लिखते हैं, हम लोग आसाम से लौटे ही थे कि यतीन दा ने हुक्म दिया कि साथ चलना पड़ेगा। हम लोग कलकत्ता से दूसरे दर्जे का टिकट लेकर तीन साईकिलों के साथ हावड़ा पहुँचे। बीच में एक स्टेशन से यतीन दा और एम.एन.राय. सवार हो गए। हम लोग बालेश्वर जा रहे थे। अगले स्टेशन पर दो गोरे सवार हुए। उन्होंने जिद्द की कि जहाँ दादा और एम.एन.राय. बैठे थे, वे भी वहीं बैठेंगे। जब हमने उन्हें जगह देने से इन्कार किया, तो वे गालियाँ देने लगे और लड़ने पर उतारू हो गए। हम पाँचों के पास पिस्तौलें थीं। हमारे हावभाव देखते ही यतीन दा समझ गए कि हम क्या सोच रहे हैं। इसलिए उन्होंने कहा- ‘चुपचाप बैठे रहो!’ फिर टूटी-फूटी हिन्दी में कहा- ‘हजूर, आप गुस्सा क्यों करते हैं। हम आपको बैठने के लिए जगह जरूर देंगे। हम ठहरे काले आदमी! हम लोग एक-दूसरे से सटकर बैठ सकते हैं।’ यह कहकर उन्होंने अपना स्थान छोड़ दिया। फिर कोई बात नहीं हुई और वे गोरे खड़गपुर में उतर गए। दादा ने हँसकर कहा- ‘तुम लोग उनकी गालियाँ सुनकर नाराज हो गए थे। मैं इन दोनों को एक साथ गाड़ी से नीचे फेंक सकता था। लेकिन हम जिस उद्देश्य से अपने को छिपाकर जा रहे हैं, वह उद्देश्य हमारी इस बेवकूफी से खत्म हो जाता। यदि हमारे में आत्मसंयम नहीं है, तो फिर क्रांतिकारी मार्ग हमारे लिए नहीं है।

इस प्रकार क्रांतिकारी बालेश्वर पहुँच गए और वहाँ से वे बंगाल की खाड़ी के पास एक गहरे जंगल में घुस गए। वे बालेश्वर से लगभग 20 मील की दूरी पर काप्ती पोदा नामक गाँव में रहने लगे। इस गाँव में यतीन, नरेन्द्र और मनोरंजन तथा इससे 12 मील दूर एक दूसरे गाँव में चित्तप्रिय और ज्योतिष पाल रहते थे। थोड़े ही दिनों में उन्हें सन्देह हुआ कि पुलिस उनके बारे में जान गई है, इसलिए वे वहाँ से रवाना हो गए। ज्योतिष पाल बीमार थे, उनको साथ लेकर ज्यादा तेजी से चलना काफी कठिन था। पुलिस को खबर मिली कि बाघा यतीन तथा उनके साथी इधर ही कहीं छिपे हुए हैं। पर यतीन जब एक जगह से निकल जाते थे, तब पुलिस वाले पहुँचते थे।

एक दिन वे अपने साथियों के साथ बिना खाए-पिए और बिना सोए बूढ़ी बालम नदी के किनारे गोविन्दपुर नामक स्थान पर पहुँचे। वहाँ देखा कि वर्षा के कारण नदी इतनी उमड़ी हुई है कि उसे पार करना बेहद मुश्किल था। इसलिए उन्होंने एक मछुआरे को पैसे दिए और उसने इन लोगों को नदी को पार करा दिया। पर उस मछुआरे ने सुना था कि सरकारी ऐलान है कि कोई अपरिचित व्यक्ति मिले तो उसकी सूचना पुलिस को दी जाए। साथ ही यह कि चारों तरफ जर्मन घूम रहे हैं, उनकी खबर भी पुलिस को पहुँचानी है। मछुआरे को यह तो पता ही नहीं था कि जर्मन भी अंग्रेजों की तरह ही गोरे होते हैं, इसलिए उसने पुलिस को जाकर खबर दी कि 5 जर्मन जंगल के अन्दर घुसे हैं। इसके अलावा उसने यही बात लोगों में भी फैला दी। गाँव वालों में इस बात को लेकर काफी कौतूहल था कि जिन जर्मनों के बारे में वे इतना कुछ सुन रहे हैं, वे देखने में कैसे हैं? इसलिए भोले-भाले गाँव वाले, क्या चौकीदार, क्या दफादार! सब उसी तरफ दौड़ पड़े, जिधर क्रांतिकारी गए थे। परिस्थिति अब क्रांतिकारियों के लिए बहुत ही खतरनाक हो गई थी। वे दोपहर के समय दामुद्रा गाँव में पहुँचे। लोग अब भी उनका पीछा कर रहे थे। इस पर उन्होंने हवा में कुछ गोलियां चलाई। पर जनता इतनी बुरी तरह पीछे पड़ गई थी कि जब गोलियाँ चलाई जातीं तो लोग भाग जाते और थोड़ी देर बाद फिर पीछा करने लगते। कभी वे ‘चोर-चोर!’ कहकर चिल्लाते थे, कभी ‘पकड़ो-पकड़ो!’ का शोर मचाकर परेशान करते थे। क्रांतिकारियों के लिए यह एक बड़ी ही विषम परिस्थिति थी। जब उन्होंने देखा कि लोग ऐसे नहीं मानेंगे तब उन्होंने सचमुच पीछा करते हुए लोगों में से पुलिसवालों पर निशाना साधकर गोलियाँ चलाईं, जिसमें एक व्यक्ति मारा गया तथा एक घायल हो गया। अब लोगों ने पीछा करना छोड़ दिया। पर पुलिस भला पीछा करना कैसे छोड़ देती? इसी बीच पुलिस ने चारों तरफ खबर भी भेज दी थी।

मयूरगंज का रास्ता पार करके क्रांतिकारी एक छोटी नदी के पास पहुँचे। उन्होंने हथियार अपने सिरों पर बाँध लिए और तैरकर नदी पार करके चस्कन्द नामक एक गाँव में पहुँच गए। इसके बाद वे और गहरे जंगलों में पहुँच गए। अब उन्हें ऐसा लगा कि इस जंगल में उन पर कोई मुसीबत नहीं आ सकती। उधर पुलिस ने तय किया कि क्रान्तिकारियों को दो तरफ से घेरा जाए। एक टुकड़ी मयूरगंज की तरफ चली और दूसरी मदनपुर की तरफ चली और इस प्रकार जंगल को घेर लिया गया। पुलिस वाले बीच-बीच में गोलियाँ भी चलाते जाते थे। एक तरफ भूख और अनिद्रा से परेशान पाँच क्रान्तिकारी थे, जिनके पास बहुत थोड़ी मात्रा में हथियार थे। दूसरी तरफ, उधर उस ब्रिटिश सरकार का दल-बल था, जिसके राज्य में कहते हैं कि सूर्य कभी अस्त नहीं होता था। ऊपर से सारे गाँव वाले भी उनका साथ दे रहे थे। गाँव वाले भला क्या जानते थे कि उनके सामने कौन हैं! कुछ लोग उन्हें जर्मन समझ रहे थे और कुछ मामूली अपराधी समझ रहे थे। यह तो उन्हें सपने में भी गुमान नहीं था कि वे उन महामानवों को पकड़वाने जा रहे हैं जो इतिहास की इबारतों को बदलने की कूव्वत रखते थे।

09 दिसंबर, 1915; पूरी तरह हथियारों से लैस 100 से ऊपर घुड़सवारों की पुलिस टुकड़ी उन्हें चारों तरफ से घेरने की कोशिश कर रही थी। जब क्रांतिकारियों ने देखा कि अब वे किसी भी हालत में भाग नहीं सकते तो उन्होंने भी मोर्चा संभाल लिया। कई घण्टों तक घमासान लड़ाई चलती रही। दोनों तरफ से बराबर गोलियाँ चल रही थीं। अचानक एक गोली आकर चित्तप्रिय को लगी और वे बुरी तरह घायल हो गये। पुलिस बलों ने भी शायद यह देख लिया था, इसलिए उन्होंने गोलीबारी और तेज कर दी। चित्तप्रिय का खून बड़ी तेजी से बह रहा था। यतीन दा उन्हें अपनी गोद में उठाए थे। वे खुद भी काफी घायल हो चुके थे। उसी समय एक गोली और आकर यतीन दा के पेट में लगी। अबकी बार वे गिर पड़े। सभी क्रांतिकारियों को चोटें लगीं थीं। यतीन समझ गए थे कि अब अन्तिम घड़ी नजदीक ही है। उन्होंने सोचा कि बाकी साथियों को मरवाने का कोई औचित्य नहीं है। इसलिए उन्होंने आदेश दिया कि सफेद चादर लहराकर युद्ध विराम की घोषणा की जाए।

तब तक चित्तप्रिय शहीद हो चुके थे। यतीन बहुत बुरी तरह घायल थे, उनके बचने की कोई आशा नहीं थी। मनोरंजन पास की नदी में से चादर भिगोकर उन्हें पानी पिलाने की कोशिश करने लगे। इसी बीच पुलिस दल-बल सहित आ गई थी। मजिस्ट्रेट किलबी यतीन के पास आए। यतीन बोले, "बुरा मत मानिए, हमें नहीं मालूम था कि आप भी आए हैं। हमें आपसे कोई शिकायत नहीं है। बस कृपा करके यह देख लीजिएगा कि इन दो बालकों के साथ कोई अन्याय न हो, सारी घटनाओं का मैं ही योजनाकार हूँ। मैं तमाम जिम्मेदारी अपने ऊपर लेता हूँ।" यतीन का यह साहस देखकर मजिस्ट्रेट किलबी, पुलिस वाले और दूसरे गोरे अफसर भी प्रभावित हुए बिना न रह सके। अगले दिन, 10 सितंबर, 1915 को इस महान क्रान्तिकारी की जीवन यात्रा अस्पताल में समाप्त हो गई। नरेन्द्र और मनोरंजन को फाँसी की सजा सुनाई गई और ज्योतिष पाल को आजन्म काले पानी की सजा दी गई।

इस प्रकार बाघा यतीन अपने जन्मस्थान से दूर, साथियों से दूर, अज्ञात रूप से शहीद हो गए। यहाँ तक कि उनकी पत्नी इन्दुबाला भी 12 वर्षों तक यही समझती रहीं कि वे जिन्दा हैं। जब लोगों को यतीन के बलिदान की कहानी पता चली तो सब उनके साहस व वीरता के आगे नतमस्तक हो गये। वे एक महान संगठनकर्ता होने के साथ-साथ एक महाबलिदानी भी थे।


संदर्भ -: जरा याद करें कुर्बानी
अभियान, प्रकाशन (रोहतक)

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