Wednesday, 30 December 2020

ऐ! नए साल




ऐ! नए साल

(संदीप कुमार) 




ऐ! नए साल

पिछले साल का हमने स्वागत किया था

शाहिन बाग आंदोलन में उठते नारों से
इस बार हम फिर से स्वागत कर रहे हैं
किसानों की बुलंद आवाज के साथ।

ऐ! नए साल
हमने, बीते साल खोए हैं अपने
चालीस से ज्यादा किसान साथी
जिनकी कुर्बानी व्यर्थ नहीं जाएगी
उनके लहू का रंग
हम सफेद नहीं होने देंगे।

ऐ! नए साल
हम लड़ेंगे तब तक
जब तक लहू का आखिरी कतरा
हमारी रगो में दौड़ता रहेगा
हम इसलिये भी लड़ेंगे
कि आने वाली पीढियां
गर्व से कह सकें
"हमारे पूर्वजों ने 
तानाशाह की आंखों में आंखें डालकर
सीधे-सीधे अपनी बातें कही
और तानाशाह के हर आदेश को
मानने से इनकार कर दिया।"

ऐ! नए साल
हम तो शांति से जीना चाहते हैं
हम बस यही चाहते हैं कि
कोई हमारे श्रम को न चुराए
हम चाहते हैं हमारे चेहरे देखकर
बच्चे चिंता की जगह, सिर्फ मुस्कुराएं
और जबतक हमारी मेहनत का पाई पाई
हमें नहीं लौटाया जाएगा
तबतक ये जंग जारी रहेगी।

ऐ! नए साल
आगाह करो तानाशाह को
ये शांति प्रिय जंग
कब अपने बचाव में हथियार उठा लेगी
कहा नहीं जा सकता
यह भी तय नहीं है कि कब ये जंग
खेत खलिहानों से होते हुए
जहर उगलती फैक्ट्रियों तक पहुंच जाएगी
और ये भी अंधेरे में है
कब ये नेतृत्व किसान-मजदूरों का 
सांझा नेतृत्व हो जाएगा।





किसान आंदोलन-3

 सही दुश्मन की पहचान कर ली है  किसान आंदोलन ने

(संजय कुमार)


(पंजाब में इस आंदोलन ने एक अलग ही शक्ल अख्तियार की है। पंजाब में जगह-जगह जिओ के टावरों को तोड़ा जा रहा है, उनकी लाइनें उखाड़ी जा रही हैं। अब तक पंजाब में 1500 से अधिक जिओ के टावर ध्वस्त किए जा चुके हैं। लाखों लोग जिओ से अन्य कम्पनियों में अपना सिम पोर्ट करा चुके हैं। अपने नुक्सान से घबराकर जिओ को ट्राई में शिकायत करनी पड़ी कि एयरटेल व वोडाफोन उसके खिलाफ दुष्प्रचार कर रही हैं। अम्बानी अडानी व रामदेव की कम्पनियों के खिलाफ लोगों में बेहद गुस्सा है।)




देश भर में किसानों का आक्रोश अपने शिखर पर है। किसानों ने दिल्ली की सीमाओं पर आकर घेरा डाला हुआ है जिसमें सभी राज्यों के किसान शामिल हो रहे हैं। इसकी शुरुआत पंजाब-हरियाणा के किसानों ने की। उसी पंजाब-हरियाणा की धरती के बाशिंदों ने जो हर विदेशी हमलावरों को दिल्ली पर हमला करने से पहले ललकारते रहे हैं। पंजाब में तो यह एक सामाजिक-सांस्कृतिक जनांदोलन बन चुका है और हर धर्म, हर जाति, हर तबके के लोग इसका हिस्सा बन चुके हैं। पंजाब के हर घर से कोई न कोई दिल्ली मोर्चे पर डटा है और रोजाना सैंकड़ों, हजारों ट्रैक्टर-ट्रालियां दिल्ली कूच कर रही हैं। 
पंजाब में इस आंदोलन ने एक अलग ही शक्ल अख्तियार की है। पंजाब में जगह-जगह जिओ के टावरों को तोड़ा जा रहा है, उनकी लाइनें उखाड़ी जा रही हैं। अब तक पंजाब में 1500 से अधिक जिओ के टावर ध्वस्त किए जा चुके हैं। लाखों लोग जिओ से अन्य कम्पनियों में अपना सिम पोर्ट करा चुके हैं। अपने नुक्सान से घबराकर जिओ को ट्राई में शिकायत करनी पड़ी कि एयरटेल व वोडाफोन उसके खिलाफ दुष्प्रचार कर रही हैं। अम्बानी अडानी व रामदेव की कम्पनियों के खिलाफ लोगों में बेहद गुस्सा है।
दरअसल किसानों को यह समझ आ गया है कि सरकार अम्बानी-अडानी जैसे चंद बड़े पूंजीपतियों के हितों के लिए यह कृषि कानून लेकर आयी है और उन्हीं के दबाव में इतनी हठधर्मिता दिखा रही है। सरकार जब एक देश, एक मार्किट की बात करती है तो यह सब पूंजीपतियों को ही फायदा पहुंचाता है क्योंकि अलग कानून और अलग बाजार व्यवस्था व टैक्स सिस्टम बड़े पूंजीपतियों के लिए सिरदर्दी का काम है और छोटे स्थानीय व्यापारी के फायदे में हैं। अगर बड़े पूंजीपति को देश के पूरे बाज़ार पर कब्जा करना है तो उसे पूरे देश में एक जैसा ढांचा चाहिए। कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर के शब्दों में मनमोहन सरकार भी ऐसा करना चाहती थी लेकिन वह यह दबाव नहीं झेल पाई। लेकिन मोदी सरकार आर्थिक सुधारीकरण की दिशा में हर जनदबाव को दरकिनार करते हुए तेजी से आगे बढ़ रही है यही कारण है कि हर सार्वजनिक विभाग का तेजी से निजीकरण किया जा रहा है। रेलवे को भी निजी हाथों में दे दिया गया तो एयरपोर्ट भी अम्बानी-अडानी को दे दिए गए। अब देश के सबसे बड़े कृषि सेक्टर पर बड़े पूंजीपतियों की गिद्ध दृष्टि जमी हुई है और पूंजीपतियों को इसमें अपार संभावनाएं दिखाई दे रही हैं। यही कारण है कि अडानी ने बड़ी रेल लाइनों के किनारे अरबों रुपये का निवेश कर बड़े भंडारगृहों का निर्माण किया है। सरकारी सहयोग और सरकार द्वारा कौड़ियों के भाव सरकारी उपक्रम दिए जाने से जहाँ लॉकडाउन के बावजूद इनकी सम्पत्ति में भारी उछाल हुआ वहीं कुछ दिनों के बहिष्कार से ही अम्बानी बड़े दस धनकुबेरों की लिस्ट से बाहर हो गया।
लेकिन उनकी इस योजना को किसानों ने पलीता लगा दिया है। पंजाब में दशहरे पर नरेंद्र मोदी और अम्बानी अडानी के पुतले फूंकने से शुरू हुआ यह आंदोलन रिलायंस के पेट्रोल पम्पों और उनके स्टोर के विरोध से अब उनके सिम पोर्ट करने से उनके टॉवर उखाड़ने तक पहुंच गया है तो समझना होगा कि अब यह आंदोलन कार्पोरेटपरस्त इस सरकार और उनके पूंजीपति आकाओं के तंबू उखाड़कर ही दम लेगा।

Friday, 25 December 2020

किसान आंदोलन-2

 वर्तमान किसान आंदोलन की उपलब्धियां

 (संजय कुमार)




(इस आंदोलन ने लोगों में एक नई ऊर्जा और उत्साह का संचार किया है। अब तक जो मोदी सरकार अपराजेय नजर आ रही थी, अब लोगों में एक नई आशा की किरण जगी है कि इस सरकार को भी झुकाया जा सकता है, इसे भी हराया जा सकता है। तमाम आंदोलनकारी संगठन, ताकतें, कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी एक मंच पर आकर हुंकार भर रहे हैं। इसी आंदोलन के दौरान बिहार के विधानसभा चुनाव हुए, हैदराबाद नगर निकाय, राजस्थान में पंचायतों व जम्मू कश्मीर में जिला विकास निगम के भी चुनाव हुए जिनमें बीजेपी ने बाजी मारी और उसने यह कहना शुरू कर दिया कि लोगों ने इन बिलों के पक्ष में भाजपा को जिताया है जिस कारण इस आंदोलन ने यह भी साबित किया है कि फासीवाद और उसकी वाहक भाजपा व संघ परिवार को संसदीय राजनीति के जरिये नहीं हराया जा सकता बल्कि जनसंघर्षों के माध्यम से ही फासीवाद पर मरणांतक चोट की जा सकती है।)


देश भर में मोदी सरकार द्वारा कोरोना काल में जबरदस्ती थोपे गए तीनों कृषि कानूनों के खिलाफ जबरदस्त रोष है। इन कानूनों के वापस लिए जाने की मांग को लेकर पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान के किसान दिल्ली आने वाले सभी राजमार्गों को एक महीने से घेरकर बैठे हैं। इनके अलावा उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र व अन्य राज्यों के किसान भी दिल्ली आकर धरने पर बैठे हैं व देश के अनेक हिस्सों में किसान जिला व ब्लॉक स्तर पर मोर्चा लगाए बैठे हैं। 
जहाँ सरकार कारपोरेट घरानों के दबाव में किसानों की मांगें मानने को बिल्कुल तैयार नहीं दिखती वहीं किसान भी पूरी तैयारी के साथ दिल्ली आए हैं और अपनी बातें मजबूत तर्कों के साथ रख रहे हैं, यह आंदोलन स्थल पर बखूबी देखा जा सकता है। चाहे वह दिन रात चलने वाले लंगर हों, सर्दी और ओस से बचाव करने वाले टैंट हों, कपड़े धोने की मशीनें, पानी गर्म करने की मशीनें हों या खाना बनाने वाली मशीनें, डॉक्टरी सुविधाएं सबकुछ बहुत ही मैनेजमेंट के साथ चल रहा है। बल्कि अब तो धरनास्थल पर ही स्कूल, लाइब्रेरी भी खुल गए हैं। किसानों का कहना है कि वे अपने साथ कम से कम 6 महीने का राशन लेकर आये हैं और उन्हें अब तक अपना राशन खोलने की जरूरत नहीं पड़ी क्योंकि नजदीकी गांवों से ही इफरात में दूध, लस्सी व अन्य खाद्य सामग्री सहयोग के तौर पर पहुंचाई जा रही है।
इसका अर्थ यह है कि किसान भी सरकार से आर पार की लड़ाई के मूड में हैं। इस आंदोलन का परिणाम चाहे जो भी हो लेकिन इस आंदोलन ने देश-विदेश की राजनीति और जनता में बड़ी हलचल मचा दी है। कनाडा के प्रधानमंत्री तक को किसान आंदोलन के पक्ष में बयान देना पड़ा। मोदी सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद अपनी सम्पत्ति में अकूत उछाल देखने वाले कारपोरेट घराने अडानी को फुल पेज के विज्ञापन जारी कर सफाई देनी पड़ी है। आंदोलनकारी किसानों को खालिस्तानी, माओवादी, अतिवादी, चीनी साजिश का शिकार, कांग्रेसी, विपक्षी दलों के बहकाये गए बताने के सभी हथकंडे बेकार गए हैं। प्रायोजित किसान सम्मेलनों व किसानों द्वारा सरकार के पक्ष में ज्ञापन दिलवाकर आंदोलन में फूट डालने की कोशिशें भी काम नहीं कर पाई हैं।
हरियाणा, उत्तरप्रदेश की भाजपा सरकारों द्वारा पुलिस के इस्तेमाल, बैरिकेड, वाटर कैनन, आंसू गैस के गोले भी किसानों को दिल्ली की तरफ बढ़ने से नहीं रोक पाए। झक मारकर सरकार को किसानों को बातचीत की मेज पर बुलाना ही पड़ा।
पहली बार सरकार कुछ-कुछ झुकती दिखाई दे रही है। अब तक CAA, NRC के मुद्दे पर शाहीन बाग, रोहित वेमुला की आत्महत्या के मुद्दे पर, स्टूडेंट्स मुद्दों पर अनेकों देशव्यापी आंदोलन हुए लेकिन सरकार ने उन्हें मुस्लिमों का या टुकड़े टुकड़े गैंग के विरोध बताकर खारिज कर दिया। हालांकि सरकार द्वारा पहले इस आंदोलन को भी ऐसे ही खारिज करने की कोशिशें की गई लेकिन उन्हें मजबूरन किसान संगठनों को वार्ता की मेज पर बुलाना ही पड़ा और गृह मंत्री अमित शाह को बातचीत की कमान संभालनी पड़ी। 

इस आंदोलन ने काफी उपलब्धियां भी प्राप्त की हैं और बहुत कुछ सीखाया है जिसे याद रखना बहुत जरुरी है।

1. फासीवाद पर चोट -: पहली बार फासीवाद के खिलाफ एक बड़ा सयुंक्त मोर्चा कायम होता दिखाई दे रहा है। इस आंदोलन में सभी वर्गों, जातियों और धर्मों के लोगों ने जो एकजुटता दिखाई है, जिससे संघ परिवार को अपनी नींव हिलती दिखाई देने लगी है। उत्तर भारत में फासीवाद का मजबूत आधार बड़ा किसान, आढ़ती व व्यापारी भी आज उसके खिलाफ मजबूती से खड़ा है। इतने सालों बाद पहली बार स्वतस्फूर्त रूप से देशव्यापी बंद हुआ है।
2. हरियाणा पंजाब भाईचारा -: जहां इस आंदोलन की शुरुआत पंजाब के किसानों द्वारा हुई वहीं हरियाणा के किसान भी बड़ी संख्या में इस जत्थेबंदी में जुड़े और जगह-जगह पंजाब-हरियाणा भाईचारे के बैनर लहराए जा रहे हैं। 1966 में पंजाब से अलग होकर हरियाणा के बनने के समय से ही राजधानी पंजाब और सतलुज के पानी के बंटवारे को लेकर व अन्य कुछ मुद्दों पर पंजाब-हरियाणा में विवाद रहा है, लेकिन इस आंदोलन में दोनों प्रदेशों की जनता सभी मतभेद बुलाकर कंधे से कंधा मिलाकर साथ खड़ी है। जहाँ मोर्चे पर पंजाब के सिक्ख किसान ज्यादा है, वहीं हरियाणा के सभी गांवों से उनके लिए भोजन और अन्य सहयोग आ रहा है। सरकार ने इस भाईचारे को तोड़ने के लिए SYL का मुद्दा उछालने की भी कोशिश की लेकिन भाजपा सरकार अपने इस मनसूबे में नाकामयाब रही बल्कि किसनों ने इसे फ्लॉप कर दिया। 
3. असली दुश्मन कारपोरेट पर चोट -: इस आंदोलन ने जनता के असली दुश्मन और मोदी के सरपरस्त कारपोरेट जगत को जनता के सामने नंगा कर दिया। लोग अम्बानी, अडानी के विरोध में खुलकर आये और उनके बहिष्कार की मुहिम देशव्यापी मुहिम बन गई। यहाँ तक कि अडानी को अखबारों व मीडिया में फुल पेज के विज्ञापन देकर सफाई देनी पड़ी। अम्बानी ने भी अपने कस्टमर कम होने के लिए वोडाफोन और एयरटेल पर आरोप लगाए। अडानी के गुंडों ने करनाल के पत्रकार आकर्षण उप्पल पर हमला करवाया जिससे वह और ज्यादा बेनकाब हुआ। पहली बार किसानों ने टोल फ्री करवाकर कारपोरेट पर चोट की।
4. महिलाओं की भागीदारी -: दूरी होने के बावजूद आंदोलन में बड़ी संख्या में महिलाओं की भागीदारी है। 70 साल की बुजुर्ग औरतें भी पंजाब से जीप चलाकर दिल्ली पहुंची हैं। महिलाओं की जरूरतों का इस आंदोलन में पूरा ध्यान रखा जा रहा है। उनके लिए अलग बाथरूम से लेकर शौचालय व सेनेटरी पैड तक का बंदोबस्त किया गया है। पुरुषों द्वारा गोल रोटी बनाना व खाना बनाना सीखना एक सुखद बयार की तरह है, जिससे उन्हें घर के काम का महत्व पता चलेगा। इस तरह यह आंदोलन महिला-पुरुष समानता की दिशा में भी एक कदम है। महिला किसानों का कांसेप्ट, उनकी समस्याएं भी यह आंदोलन उठा रहा है।
5. नौजवानों की चेतना -: पंजाब का नौजवान हमेशा ही सामाजिक चेतना और क्रांतिकारी चेतना का वाहक रहा है। मुगल शासन के अत्याचारों के खिलाफ गुरु तेग बहादुर और उनके साहबजादों ने अपनी शहादत दी, आजादी की लड़ाई में करतार सिंह सराबा हो या शहीदे आजम भगत सिंह, नक्सलबाड़ी आंदोलन में भी पंजाब के नौजवानों ने बढ़ चढ़कर कुर्बानियां दी हैं, खालिस्तान के धार्मिक उन्माद के खिलाफ भी अवतार सिंह पाश सरीखे कवि ने अपनी शहादत दी। लेकिन पिछले कुछ समय से पंजाब की युवा पीढ़ी नशे और साम्राज्यवादी पॉप कल्चर की गिरफ्त में थी लेकिन इस आंदोलन ने उसे एक गहरी नींद से जगाने का काम किया है। आज वे आंदोलन में एक जुझारु भूमिका निभा रहे हैं वहीं करपोरेटवाद, साम्राज्यवाद व सरकारी जुल्म के खिलाफ गीतों, नारों व नाटकों के माध्यम से एक नई संस्कृति का भी निर्माण कर रहे हैं।
6. गजब का प्रबन्धन -: अलग अलग किसान यूनियनों के किसान और लाखों की भीड़ होने के बावजूद आन्दोलनस्थल पर गजब का अनुशासन और प्रबन्धन देखने को मिल रहा है। एक महीना से ज्यादा होने और दिल्ली की हाड़ कंपा देने वाली ठंड के बावजूद किसी तरह की कोई हड़बड़ी और अव्यवस्था नहीं है। हर व्यक्ति की जरूरतों का पूरा ध्यान रखा जा रहा है। इतने लोगों के होने के बावजूद साफ सफाई का पूरा ध्यान है। अलग अलग विचारों की मतभिन्नता के बावजूद किसान जत्थेबंदियों में आंदोलन को लेकर एकता है और सभी को उचित स्पेस मिल रहा है तभी सरकार आंदोलन में कोई फूट नहीं डाल पाई है हालांकि सरकार ने अलग अलग यूनियनों को बुलाकर ऐसा करने की भरपूर कोशिश की।
7. किसानों की राजनैतिक चेतना -: इस आंदोलन ने किसानों की राजनैतिक चेतना को प्रमुखता से बढाने का काम किया है। जहाँ किसान नेता तीनों कानूनों के हर क्लाज को इतने अच्छे से सरकार के सामने रख रहे हैं कि सरकार को इतने संसोधन लेकर सामने आना पड़ा कि किसानों ने तीनों कानूनों को रद्द कर ही वार्ता आगे बढाने की मांग कर दी है। वहीं आंदोलन में शामिल किसी भी किसान से बात कर लो वही हर कानून की धज्जियां उड़ाकर रख देता है। मीडिया वाले जानबूझकर ऐसे किसानों से बातचीत करने की कोशिश करते हैं जिसे उनकी समझ से कुछ न पता हो ताकि वे यह दिखा सके कि ये किसान बहकाकर लाये गए हैं लेकिन उन्हें निराश ही होना पड़ता है।

किसान आंदोलन की कमजोरियां -:

हर आंदोलन की कुछ न कुछ कमजोरियां भी जरूर होती हैं, वही इस आंदोलन के भी साथ है।
 
1. सामंती धनी किसानों के हाथ में नेतृत्व -:
यह आंदोलन की सबसे बड़ी कमजोरी है कि इसका नेतृत्व किसी क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के हाथ में न होकर सामंती धनी किसानों के हाथ में है व इसे आढ़तियों व जमींदारों का समर्थन प्राप्त है क्योंकि उनके हित इससे पूरी तरह गुंथे हुए हैं। लेकिन यह इस आंदोलन की कमजोरी न होकर कम्युनिस्ट पार्टी की कमजोरी है कि वह अपनी कमजोर ताकत के चलते इसकी अगुआ नहीं बन पाई। देश में कम्युनिस्ट आंदोलन बिखराव व विभ्रम का शिकार है, इसलिए आगे बढ़कर इस ऊर्जावान आंदोलन को नेतृत्व नहीं दे पा रहा है। हालांकि कई सारे कम्युनिस्ट जन संगठन व कार्यकर्ता इस आंदोलन में पूरी शिद्दत से लगे हुए हैं।
2. मजदूरों की भागीदारी -: इन कानूनों में जमाखोरी से सम्बंधित तीसरे कानून का सबसे घातक असर मजदूर और आम आदमी पर पड़ने वाला है क्योंकि आलू-प्याज की एकदम से बढ़ी हुई कीमतों के रूप में हम यह देख चुके हैं। लेकिन अभी यह आंदोलन किसानों तक ही सीमित है और बड़े पैमाने पर मजदूरों को नहीं जोड़ पाया है। बेशक मारुति वर्कर्स यूनियन और सोनीपत के मजदूर अधिकार संगठन के बैनर तले मजदूरों ने आंदोलन में भाग लिया है, लेकिन व्यापक स्तर पर मजदूरों की भागीदारी और उनके नेतृत्व में ही यह आंदोलन कामयाब हो सकता है। इसलिए मजदूर संगठनों और उनकी पार्टियों की यह महती जिम्मेवारी बनती है कि वे इन कानूनों के दुष्प्रभावों को मजदूरों के बीच लेकर जाएं और इस आंदोलन में बड़ी संख्या में शिरकत सुनिश्चित करें।
इस आंदोलन ने लोगों में एक नई ऊर्जा और उत्साह का संचार किया है। अब तक जो मोदी सरकार अपराजेय नजर आ रही थी, अब लोगों में एक नई आशा की किरण जगी है कि इस सरकार को भी झुकाया जा सकता है, इसे भी हराया जा सकता है। तमाम आंदोलनकारी संगठन, ताकतें, कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी एक मंच पर आकर हुंकार भर रहे हैं। इसी आंदोलन के दौरान बिहार के विधानसभा चुनाव हुए, हैदराबाद नगर निकाय, राजस्थान में पंचायतों व जम्मू कश्मीर में जिला विकास निगम के भी चुनाव हुए जिनमें बीजेपी ने बाजी मारी और उसने यह कहना शुरू कर दिया कि लोगों ने इन बिलों के पक्ष में भाजपा को जिताया है जिस कारण इस आंदोलन ने यह भी साबित किया है कि फासीवाद और उसकी वाहक भाजपा व संघ परिवार को संसदीय राजनीति के जरिये नहीं हराया जा सकता बल्कि जनसंघर्षों के माध्यम से ही फासीवाद पर मरणांतक चोट की जा सकती है।

Wednesday, 16 December 2020

किसान आंदोलन कविताएं-2

 1. किसान 

(गौहर रजा)




तुम किसानों को सड़कों पे ले आए हो 
अब ये सैलाब हैं 
और सैलाब तिनकों से रुकते नहीं 

ये जो सड़कों पे हैं 
ख़ुदकशी का चलन छोड़ कर आए हैं 
बेड़ियां पाओं की तोड़ कर आए हैं 
सोंधी ख़ुशबू की सब ने क़सम खाई है 
और खेतों से वादा किया है के अब 
जीत होगी तभी लौट कर आएंगे 

अब जो आ ही गए हैं तो यह भी सुनो 
झूठे वादों से ये टलने वाले नहीं 

तुम से पहले भी जाबिर कई आए थे 
तुम से पहले भी शातिर कई आए थे 
तुम से पहले भी ताजिर कई आए थे 
तुम से पहले भी रहज़न कई आए थे 
जिन की कोशिश रही 
सारे खेतों का कुंदन, बिना दाम के 
अपने आकाओं के नाम गिरवी रखें 

उन की क़िस्मत में भी हार ही हार थी 
और तुम्हारा मुक़द्दर भी बस हार है 

तुम जो गद्दी पे बैठे, ख़ुदा बन गए 
तुम ने सोचा के तुम आज भगवान हो 
तुम को किस ने दिया था ये हक़, 
ख़ून से सब की क़िस्मत लिखो, और लिखते रहो 

गर ज़मीं पर ख़ुदा है, कहीं भी कोई 
तो वो दहक़ान है,
है वही देवता, वो ही भगवान है 

और वही देवता,
अपने खेतों के मंदिर की दहलीज़ को छोड़ कर 
आज सड़कों पे है 
सर-ब-कफ़, अपने हाथों में परचम लिए
सारी तहज़ीब-ए-इंसान का वारिस है जो 
आज सड़कों पे है 

हाकिमों जान लो। तानाशाहों सुनो 
अपनी क़िस्मत लिखेगा वो सड़कों पे अब 

काले क़ानून का जो कफ़न लाए हो 
धज्जियाँ उस की बिखरी हैं चारों तरफ़ 
इन्हीं टुकड़ों को रंग कर धनक रंग में 
आने वाले ज़माने का इतिहास भी 
शाहराहों पे ही अब लिखा जाएगा।

तुम किसानों को सड़कों पे ले आए हो 
अब ये सैलाब हैं 
और सैलाब तिनकों से रुकते नहीं 

2. मैं उनकी कविता होना चाहती हूँ

(रंजीत वर्मा)


वह आज फिर सिंघु बॉर्डर जाने की 
ज़िद पर अड़ी थी
कल जब वह लौटी थी
तो पाँव में पुराना दर्द लेकर लौटी थी
बावजूद इसके वह आज फिर
सिंघु बॉर्डर जाने को खड़ी थी
वह अंतिम छोर तक जाना चाहती थी
जहाँ घंटों चलने के बाद भी वह
कल नहीं पहुंच पाई थी
जब लौटी थी तो बेहाल हो चुकी थी
तभी उसने ठान लिया था कि 
कल वह फिर जाएगी
और इस बार चाहे जो हो
अंतिम छोर तक जाएगी

उसे नहीं मालूम था
कि कल वह जिस अंतिम छोर तक नहीं जा सकी थी
वह अंतिम छोर आज
आठ किलोमीटर और दूर चला गया है
और आज जब वह वहाँ पहुंचने को चलेगी 
तब तक वह अंतिम छोर 
हो सकता है कि
भगत सिंह के फांसी के फंदे को चूमता
उसके आगे निकल जाए
बॉर्डर की उस रेखा के पार निकल जाए
जो हिंदू को मुस्लिम को सिख को ईसाई को
एक-दूसरे से अलग करती है

पति ने समझाया कि अब असंभव है तुम्हारे लिए
अंतिम छोर देख पाना
उसका अंत अब कहीं नहीं है

उसने कहा जहाँ थक जाऊंगी
वहाँ मुझे बैठा देना
जहाँ आसपास कविताएं पढ़ी जा रही हो
गीत गाए जा रहे हों
जहाँ लोग अनशन में बैठे हों
वहीं मुझे भी बैठा देना
मैं उनके बीच उनकी कविता होना चाहती हूँ
उनका झूमता नाचता गीत होना चाहती हूँ
मैं उनकी भूख की आग होना चाहती हूँ
तुम अंतिम छोर देखकर आना
और मुझे पूरा हाल ठीक-ठीक बताना
मैं वहाँ सबसे पीछे खड़ी होकर उन्हें देखना चाहती हूँ

तुम कुछ सुन रहे हो हुक्मरान
समझ रहे हो कुछ
क्या कह रही है वह
और तुम सोचते हो कि
गोलमेज पर तुम किसान का हल निकाल लोगे
अपने कक्ष के गोलमेज पर तो तुम 
उनका हाल भी नहीं जान सकते
हल क्या निकालोगे
जाना होगा तुम्हें सिंघु बॉर्डर के अंतिम छोर पर खड़े
किसान तक
एक स्त्री की चिंता में वह कैसा दिखता है
पहले तुम्हें यह जानना होगा
फिर उसके बाद ही हल निकालने की सोचना।

3. धर्मवीर सिंह

विश्व का सबसे बड़ा साम्राज्य
विश्व के सबसे बड़े खेत से 
ज्यादा बड़ा नहीं हो सकता। 

इतिहास का कोई भी 
सम्राट 
अपने युग के किसान से 
ज्यादा जरूरी नहीं हो सकता।। 

4. देवेन्द्र सिंह

नीरो ने दीयों की आग से सब्र किया
शहर के भट्ठी हो जाने को
सुलगाया है उसने जो
चिंगारी इन्हीं दीयों के भीतर से हो
किसान से खालिस्तान
फिर हिन्दू
फिर सिख
फिर ज़ात
फिर सरहद
अनेक दरारों से होती
दहका देगी
मुल्क को
एक बार फिर
दंगो में,

चैन से फिर वो
बंसी बजाएगा या
सुनाएगा मन की बात
यह उसके
आका 
मार्केटिंग एजेंसियों से मिल
तय कर देंगे।

5. ललकार

( हरभगवान चावला )

क्या यह ज़रूरी है
कि ढोरों के बीच रह रहा आदमी
ख़ुद ढोर हो जाए?
यह भी ज़रूरी नहीं
कि मिट्टी जोतता आदमी
ख़ुद मिट्टी हो जाए
या कँटीली झाड़ियों को काटते हुए
आदमी की देह पर काँटे उग आएँ
किसान आदमी ही होता है
तुम्हारी तरह हाड़-मांस से बना
उसे भी भूख लगती है
पेट पर लात पड़ती है
तो उसे भी गुस्सा आता है
तुम कहते हो
किसान आसमानी बातें करता है
वह जानता नहीं कि
जिन्हें वह ललकार रहा है
वे बहुत ऊँचे लोग हैं
वह अच्छी तरह जानता है
शत्रु को पहचानता है
वह इन्सानियत को मानता है
पर साँपों का फन कुचलना जानता है
तुम भी यह जान लो-
इमारत कितनी भी ऊँची हो
आसमान से नीची ही रहती है।

6. तैयारी पूरी हो चुकी है
( सुशील मानव )

नहीं, उन्हें तुम नहीं 
तुम्हारे खेत चाहिए 
वो तो चाहते ही हैं 
कि छोड़ दो तुम घाटे का सौदा 
ताकि वो इसमें मुनाफा कमा सकें 
उनका लक्ष्य ही है अनब्रांड 
फल,सब्जी और अनाज से हमें मुक्त करना 
वैसे जैसे पानी की ब्रांडिंग की उन्होंने 
वैसे जैसे चाय की ब्रांडिंग की उन्होंने 
वैसे जैसे कपड़े की ब्रांडिंग की उन्होंने और गायब कर दिये 
हमारे गली मोहल्लों से टेलर 
वैसे ही अनाज की ब्रांडिंग करने के लिए 
वो गायब कर देंगे एक रोज तुम्हें भी, 
ओ किसानों!
ताकि हर थाली में परोस सकें वो 
पतंजलि, रिलायंस और अडानी 
विल्मार के दाल,चावल और रोटी 
उनकी तैयारी पूरी हो चुकी है 
तुम्हें गाँव से खींचकर शहर लाने की।

ठीक बुआई से पहले नोटबंदी ऐसी ही एक साजिश थी 
जानबूझकर रखा जाएगा न्यूनतम 
तुम्हारे फसलों का समर्थन मूल्य 
समय से नहीं किया जाएगा तुम्हें 
तुम्हारी फसलों का भुगतान 
गायब कर दिए जाएँगे बाजार से उर्वरक,कीटनाशक और बीज 
ऐन बुआई से पहले 
जीएम बीज एक ऐसी ही साजिश थी 
कि बोओगे उम्मीद और उगेगें आँसू 
जहाँ बैंक तुम्हें आसानी से दे देंगे कर्ज 
वहाँ तुम्हारे खेतों की नीलामी का जिम्मा बैंकों के हाथ होगा 
जहाँ बैंक नहीं देंगे कर्ज वहाँ अडानी,अंबानी के हाथों
तुम्हारे खेतों की नीलामी का जिम्मा 
गाँव के सेठों,साहूकारों , दबंगों का होगा 
खरीद लिए गए हैं सारे संस्थान 
खरीद ली गई हैं वोटिंग मशीनें 
अब कई वर्षों तक नहीं बदलेंगी सरकार 
सबसे बड़े हत्यारे को दे दिया गया है टेंडर 
खेत और खलिहान खाली कराने का 
जबकि एवज में खोल दी गई है लूट की कमाई 
बड़े हत्यारे के नीचे कई मझोले हत्यारे 
मझोलों के नीचे छोटे हत्यारे कर दिए गए हैं तैनात 
हत्याओं का न्यायीकरण कर दिया जाएगा 
प्रतिरोध करने वाले किसान 
असमाजिक तत्व कहकर मारा जाएगा 
ठीक वैसे ही जैसे मारा जाता है 
प्रतिरोध करने वाले आदिवासियों को नक्सली बताकर 
तुम्हारे शान्तिप्रद प्रतिरोध को 
विपक्ष की साजिश बताकर 
गुमराह कर दिया जाएगा 
बड़े जन समूहों के समाज को 
ताकि समाज में न उपजे तुम्हारे प्रति समर्थन का भावबोध 
बिल्कुल वैसे ही जैसे वामपंथियों की साजिश बताने पर नहीं उपजता है 
तुम्हारे मन में सहानुभूति 
और समर्थन का भावबोध 
शांतिप्रद आदिवासी आंदोलनों के प्रति
विपक्ष की मरम्मत के लिए ही 
खोले व बनाए गए हैं 
कई हिंदू सेना व प्रकोष्ठ 
जिसमें भर्ती किए गए हैं किराए के बाउंसर 
'विपक्ष' दरअसल कोड है उनका 
विपक्ष- मुक्त माने प्रतिरोध मुक्त 
तो कौन है उनका असली विपक्ष 
दरअसल किसान और आदिवासी ही उनका मुख्य विपक्ष है 
जिसके पास जमीन और जंगल है 
उन्हें हमारी जमीन चाहिए 
उन्हें हमारे जंगल चाहिए 
आदिवासियों ने तो कब का शुरू कर दिया है अपना संघर्ष 
अब बारी हमारी, हम किसानों की है 
संकट अब हमारे अस्तित्व का है 
उनकी तैयारी पूरी हो चुकी है
अब करो या मरो 
मरो या करो।

Sunday, 6 December 2020

किसान आंदोलन - 1

 किसान आंदोलन - एक अवलोकन

(डॉक्टर प्रदीप)



देश की राजधानी इस वक्त एक अलग किस्म की सुनामी देख रही है। यह देखना बेहद सुखद है कि जब राजसत्ता अपने सर्वाधिक निरकुंश तौर तरीकों से विरोध के प्रत्येक स्वर को दबाने पर तुली थी, विरोध की हर आवाज को देश विरोध के नाम पर बदनाम करने की कोशिश कर रही थी, जब अधिकांश मीडिया भांडगिरी का चरम प्रदर्शन कर रहा था, ठीक उसी समय लाखों-लाख किसान जनविरोधी कानूनों को रद्द करवाने के लिए दिल्ली को घेरे खड़े हैं और हजारों की संख्या में किसान प्रत्येक दिन दिल्ली की ओर कूच कर रहे हैं। 

किसान कहीं दिल्ली न पहुंच जाएं, यह डर इतना ज्यादा था कि किसानों को रोकने के लिए जो हथकंडे सरकार द्वारा अपनाये गये, वो इस प्रकार के थे मानो किसी दुश्मन सेना का रास्ता रोका जा रहा हो। सडकों पर आठ-आठ फूट गहरी खंदकें खोद दी गई। बड़े-बड़े बोल्डर(पत्थर) सडकों पर डाल दिए गए। लेकिन किसानों की सुनामी को रोका नहीं जा सका। सरकारें कुछ सालों से इस मुगालते में राज कर रही हैं कि जो वो कर रही है, जो वो कह रही हैं, जनता उस सब को आंखें बंद करके स्वीकार कर लेंगी। 

जो तीन कृषि कानून सरकार ने लागू किए हैं, इनके बारे में सरकार ने किसी की राय ली? भाजपा के बिकाऊ प्रवक्ताओं ने मीडिया के सामने ताल ठोकी कि ये कानून बहुत विचार विमर्श व जन समुदाय से राय लेकर बनाए गए हैं और जनता इसका विरोध नहीं कर रही, केवल विपक्ष इसे अपनी राजनीति के लिए मुद्दा बना रहा है। लेकिन जल्दी ही उसके पूराने सहयोगी दल शिरोमणि अकाली दल ने इस मुद्दे पर एनडीए छोड़ दी, उसके एक और पुराने मित्र चौटाला ने नुक्ताचीनी शुरू कर दी। इसलिये नहीं कि अकाली दल व जजपा किसानों की हितैषी है। जब बिल पास हो रहे थे तो इनका समर्थन बाजपा को था। लेकिन इन कानूनों के जनता द्वारा जबरदस्त विरोध को देखते हुए इन्हें समझ में आ गया कि अगर उन्होंने अपनी पॉजिशन नहीं बदली तो जनता इन्हें गटर में फैंक देगी। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इन कानूनों को बनाने से पहले आर.एस.एस. से जुड़े भारतीय किसान संघ से भी कोई राय नहीं ली गई, किसी ओर किसान संगठन से राय मशविरा करना तो बहुत दूर की बात है।

अगर अपने ही किसान संगठन से राय नहीं तो किसकी इच्छा से ये कानून बनाये गए और वे भी अध्यादेश के माध्यम से? मोदी सरकार को ऐसी क्या जल्दी पड़ी थी कि जब देश लॉकडाउन में फंसा हुआ था, सरकार ने अध्यादेश के द्वारा यह कृषि बदलाव करने का षड्यंत्र रचा? अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि ये तीनों कानून बड़ी कंपनियों की कृषि क्षेत्र में घुसपैठ और मुनाफे को सुनिश्चित करते हैं।

हर व्यक्ति जानता है कि फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य असल में अधिकतम मूल्य है जो किसानों को मिल पाता है। मात्र 6% फसल इस मूल्य पर बिक पाती है, बाकि 94% फसलें इस एमएसपी से 50% तक कम मूल्य पर बिकती हैं। जहां एमएसपी मिलता है, वो इलाके मुख्यतः पंजाब और हरियाणा में हैं जहां मंडी व्यवस्था कायम है। बाकि राज्यों में न मंडी है न एमएसपी है। इसमें कोई शक नहीं है कि मंडी व्यवस्था, कोई बेहतरीन व्यवस्था नहीं है। और यह भी सच्चाई है कि आढतियों ने किसानों को अपने कर्ज जाल में फंसा रखा है। नए कृषि कानून किसानों को आढ़तियों से भी बढ़ी जोंकों के शिकंजे में फंसाने का इंतजाम करते है। यह उम्मीद करना कि किसानों को मंडी से बाहर बेहतर रेट मिल सकते हैं, मूर्खता होगी। देश के किसी भी क्षेत्र में ऐसा नहीं हो पाया है। लेकिन इसकी इजाजत देकर कंपनियों का रास्ता जरूर साफ कर दिया है। अब अगर अंबानी व अडाणी कृषि उत्पाद खरीदने के लिए बाजार का रूख करेगा तो वह कोई 50-100 क्विंटल तो खरीदेगा नहीं। उनके पास हजारों टन की भण्डार क्षमता है। अभी तक कृषि उत्पाद आवश्यक वस्तुओं की श्रेणी में आते थे इसलिए एक मात्रा से अधिक कोई व्यक्ति/कंपनी ये खरीद नहीं सकती थी इसलिये दूसरे कृषि कानून की जरूरत पड़ी जहां जमाखोरी पर से सभी प्रतिबंध हटा लिए गए हैं। इसी से जुड़ा तीसरा कानून कांट्रेक्ट खेती से जुड़ा है। स्पष्ट है पूंजीपतियों को अपनी फैक्ट्रियों के लिए कच्चा माल चाहिए। कांट्रेक्ट खेती के द्वारा वो अपनी मर्जी का माल पैदा करने के लिए किसानों को बाध्य करेंगे। ब्रिटिश काल में नील की खेती करने वाले किसानों की दुर्दशा इतिहास के पन्नों में खूब दर्ज है। वर्तमान में भी अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय अनुभव यही बताते हैं कि कांट्रेक्ट खेती में घाटा हमेशा किसान को ही रहा है। खराब गुणवत्ता के नाम पर किसान की फसल सस्ते दाम पर खरीद ली जाती है। 

अंत: सरकार ने किसानों से राय करने के बाद नहीं बल्कि कारपोरेट जगत से बात करने के बाद ये कृषि कानून लागू किए गए। ये कानून केवल किसानों को ही प्रभावित नहीं करेंगे बल्कि देश कि 80% आबादी के लिए नुकसानदायक साबित होने वाले हैं क्योंकि आधे से ज्यादा आबादी प्रत्यक्ष तौर पर और एक चौथाई आबादी अप्रत्यक्ष तौर पर खेती से जुड़ी है। इसलिये देश के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य बनता है कि तीनों नए कृषि कानूनों को रद्द करने के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करें। यह संघर्ष देश की जनता के अधिकारों का, कारपोरेट जगत की अंधी लूट की खिलाफत का संघर्ष है। 

लेकिन इस पूरे घटनाक्रम का एक अन्य आयाम भी है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सभी किसान संगठन स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने की बात कर रहे हैं, निस्संदेह होनी भी चाहिए लेकिन स्वामीनाथन आयोग तो जमीन के वितरण की, भूमि सुधारों की भी बात करता है। इस पर किसान संगठन चुप्पी साधे हैं। इस आंदोलन में कृषि क्षेत्र से जुड़ी आधी आबादी सिरे से गायब है। खेत मजदूर, भूमिहीन किसानों के लिए इस आंदोलन में कोई जगह नहीं है। किसान आंदोलन ने उन्हें अपने से दूर कर रखा है और यह इस आंदोलन की एक बहुत बड़ी कमजोरी है। जो वर्ग किसी भी कृषि संघर्ष की मुख्य ताकत होना चाहिए, वही हाशिये पर नजर आ रहा है। दूसरी ओर यहां आढ़तिए उत्पीड़ित के रूप में और मसीहा के रूप में पेश किए जा रहे हैं। सच्चाई तो यह है कि आढतिया पूराने सूदखोर का ही नया रूप है। (आढ़तिये ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सामंती सत्ता के प्रतीक हैं) किसानों को मंडी में आढतियों की लूट से मुक्ति चाहिए थी लेकिन वर्तमान आंदोलन आढतियों के समर्थन, सहयोग से चल रहा है। ग्रामीण क्षेत्र के संकट को दूर करने के लिए जरूरत तो आमूलचूल बदलाव की है जो नए कृषि कानूनों को रद्द कर पैबंद लगाने से दुरूस्त नहीं होगी। असल में कृषि कानूनों के विरोध के नाम पर कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा आदि संसदीय पार्टियों के बीच चल रही नूरा कुश्ती को भी समझने की जरूरत है। साल 1991 से आज तक के तीस सालों के दौरान देश का प्रत्येक राजनीतिक दल कभी न कभी सत्ता में रहा है। विपक्ष में रहते हुए जो पार्टियां विदेशी कंपनियों का पुरजोर विरोध करती नजर आती हैं, वही सत्ता में आते ही चुप्पी की चादर ओढ लेती हैं। आज कांग्रेस इन कानूनों का विरोध करती नजर आ रही है लेकिन अगर कांग्रेस सत्ता में होती तो उसी ने इन कानूनों को लागू करना था क्योंकि कांग्रेस हो या भाजपा, या कोई और पार्टी आर्थिक नीतियां साम्राज्यवादियों के ही इशारे से चल रही हैं। 

सार रूप में आढ़तियों व बड़े जमींदारों व धनी किसानों के सहयोग से चल रहा यह आंदोलन वर्गीय संरचना में कोई बदलाव नहीं करेगा। भूमि सुधारों के बिना , कृषि क्रांति के बिना भूमिहीनों, गरीब किसानों, खेत मजदूरों के जीवन में कोई बदलाव नहीं आएगा। लेकिन व्यापक जनमानस में प्रचंड साम्राज्यवादी हमले का प्रतिरोध करने की चेतना अवश्य पैदा करेगा और सत्ता के घमंड में चूर दिल्ली की सल्तनत को जनता की ताकत का अहसास दिलाएगा जो लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए बेहद जरूरी है।

Friday, 27 November 2020

कविता

 1. ऐलान 


हुआ है ऐलान
किसान देश की राजधानी दिल्ली नहीं आयेंगे !
उन्हें रोकने के लिए
लगाये हैं संगीनों के पहरे !
उन्हीं के बेटों-भतीजों-भाइयों को खड़ा कर दिया है
बंदूकें लेकर उनके ही सामने !




ये कौन हैं
जिसने किसानों को दिल्ली आने से रोकने का हुकुम सुनाया है ?
ये भारत माता की संतान तो नहीं हो सकते
ये भारत के लोग नहीं हो सकते
इनकी जड़ें भारत में होती तो ये जानते
भारत आदिकाल से किसानों का देश है
किसान ही इस देश की संस्कृति और सभ्यता हैं
किसान ही इसके व्रतों, त्योहारों और उत्सवों की परंपरा में हैं!

ये देश किसानों का है
लेकिन किसान मर रहे हैं
अभावों और कर्जों के बोझ तले
ये क़र्ज़ माफी का ढोंग कर
एक और बोझ डाल देते हैं किसानों पर
अहसान का !
शहरीकरण और उद्योग धंधों के नाम पर
इनकी ज़मीनें छीनी जा रही हैं जबरन
क़ानून के नाम पर
बेड़ियाँ और फंदे डाले जा रहे हैं
किसानों के पांवों और गले में
कि ये अपना प्रतिरोध भी दर्ज न कर सकें
इतिहास के पन्नों में!

लेकिन यह बात अच्छी तरह जान लो
अमीरों और बनियों के दलालों
किसान कमज़ोर नहीं होते
साहसी होते हैं
ये प्रकृति से भी नहीं डरते
जंगलों जानवरों से भिड़ना जानते हैं
पर्वतों का सीना चीर फसल उगाना आता है इन्हें
टेढ़े मेढ़े, उबड़ खाबड़, पथरीली, कंटीली ज़मीनों समतल बनाना जानते हैं ये.
जब तुम खून जमाती ठण्ड में रजाई ओढ़कर नींदें काट रहे होते हो
ये हंसिया से फसलें काट रहे होते हैं
कुदालों से खेतों में उगे घास निकाल रहे होते हैं
जब तुम जेठ की दुपहरी में
एसी में बैठकर जीवन के मज़े ले रहे होते हो
बिसलेरी पीते हुए जनता के लिए मीटिंगे करने का ढोंग कर रहे होते हो
किसान पाइन- नहर में ठहरे पानी पीकर
फसलों को खलिहान में ला रहे होते हैं.

किसानों ने तुम्हें जीने का आधार दिया था
अनाज दिया था टैक्स के रूप में
कि तुम उनकी रक्षा कर सको लुटेरों से
लेकिन 70 साल आते आते तुम खुद लुटेरे बन गए
तुम सेवक से सरकार
और किसान मालिक से प्रजा बन गए!
तुमने संविधान बनाते वक़्त भी किसानों के साथ धोखा किया
यह देश किसानों का है
कहते रहे सिर्फ़ ज़ुबानी
कागजों-दस्तावेजों में देश बनियों के नाम करते रहे
लुटेरों और डकैतों को भी
‘भारत के लोग’ कहकर बराबरी का हक दे दिया!
मिट्टी खोदकर अनाज उगाने वाले
और एसी में बैठकर तीन पांच करने वाले बराबर कैसे हो सकते हैं?
अनाज ज़रूरी है हर किसी के लिए
तो किसान का होना भी ज़रूरी होना चाहिए था हर जगह के लिए !

क़ानून बनाते हो तो पहले उद्योगपतियों से मीटिंगे करते हो
खी खी कर उनका मूत पीते हो 
सत्ता में बने रहने के लिए
और किसानों के साथ विकास और क़ानून के नाम पर छल करते हो
गोलियां चलवाते हो....!

बहुत हो गया
बहुत हो गया
किसानों के साथ जुर्म
किसानों ! अब जाग जाओ !
ये लोग तुम्हारी सरकार नहीं है
सेवक हैं,
जो बने बैठे हैं लुटेरे, शोषक और जोंक
ये जो घूम रहे हैं बेलगाम
इन्हें काबू में लाकर
मवेशियों की तरह बाड़े में बांधना ज़रूरी है.
नहीं तो याद रखो
ये एक दिन फसलों के साथ साथ खेत भी चर जायेंगे
फिर तुम्हारे
और तुम्हारे बच्चों के लिए
खेत की मिट्टी भी नही बचेगी!

- धनंजय कुमार
27/11/20

2. मैं भी रूबरू होना चाहती

मैं भी रूबरू होना चाहती 
उस पुलिस से 
जो रोटी नहीं 
हड्डियां चबाती हैं 

जो अपनी बेटी को सुला 
ज़ामिया पर हमले 
करने आती हैं 

जिसके बाप ने खेत 
गिरवी रख करवाई 
थी पुलिस की नौकरी 
आज वही किसान 
पर लाठिया बरसाती 
हैं 

मुझे रूबरू होना हैं उससे 
जो रात के अंधरे में 
बेटियो को जला देती हैं 
जो कानुन घूसेड़ देने 
की बात करती हैं 

मैं उन प्यादो 
के रूबरू होना चाहती 
हूँ जो मशगूल हैं 
हाकिम की 
जी हुजूरी में

- नंदिता मऊ

3. किसानों की पुकार

नए नियम से नए रूप से
नए रंग से नए ढंग से
खेती होगी
खेत का खलयान का रोना

बीज, खाद, पानी का रोना
गाय की हाय, बैल का रोना
घास, खली, भूसे का रोना
जमींदार की मार का रोना

गाली और फटकार का रोना
धर-पकड़ और बेगार का रोना
करज़े और ब्याज का रोना
बनिये और बजाज का रोना

इज़्ज़त और लाज का रोना
पटवारी की चाल का रोना
दंड राज परताल का रोना
साथी लाल बाल का रोना

आये दिन के काल का रोना
हर चीज़ और हर बात का रोना
जुग जुग से दिन रात का रोना
नहीं रहेगा, नहीं रहेगा।

दिन बदलेगा पाप कटेगा
साथी सब संताप कटेगा
अन्न खलयान से घर में आए
इसकी नौबत कब आती है

अब तक छाती फाड़ परिश्रम
करके जो कुछ फ़स्ल उगाई
वो गाढ़ी भरपूर कमाई
दो दिन अपने काम न आई

ऊपर ऊपर उड़ जाती थी
रह जाते भूके के भूके
रह जाते नंगे के नंगे
रह जाते करज़े में डूबे

जीवन कटता ब्याज चुकाते
जीवन अब कुछ होने को है
खेती, बाड़ी, बाग़ और जंगल
दूध, दही, घी नाज और फल

गाँव में जो दौलत उपजेगी
वो सबकी सब अपनी होगी
अब ये दुर्व्यवहार मिटेगा
अब ये अत्याचार मिटेगा

चालाकी में धौंस- धाँस में
दल्लालों की फोड़ -फाँस में
फुसलाने में बहकाने में
डरवाने में धमकाने में

लुट्टस- पिट्टट्स की हलचल में
धन्ना सेठ के छल बल कल में
चतुर किसान नहीं आएगा
वो अपना हिस्सा, अपना हक़

लेके रहेगा, लेके रहेगा
जीके रहेगा, मरके रहेगा
लेकिन अब कुछ करके रहेगा

हर बीघा में हर एकड़ में
पैदावार आठ गुनी होगी
भूक मिटेगी और घर-घर में
अन्नपूर्णा बास करेगी।

- फ़िराक़ गोरखपुरी


4. नयी खेती




मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा।

- रमाशंकर "विद्रोही"

5. देशद्रोही

पहले पहल आदिवासी 
अपनी जमीन की सुरक्षा में खड़े हुए
बिकाऊ मीडिया ने
उन्हें देशद्रोही का तमगा दिया
और आदिवासियों के खिलाफ
तनी बंदूक को जायज ठहरा दिया।

अब किसान उठ खड़े हुए हैं
और मीडिया भी उठ खड़ी हुई है
देशद्रोही ठहराने के लिए
किसानों के खिलाफ
खड़ी कर दी है पुलिस-फौज
बंदूक गोलों के साथ

इन्हें भ्रम है 
अपने गोले बारूद पर
लेकिन इतिहास गवाह है
जनता जब जब उठ खड़ी हुई है
तानाशाहों को कुर्सियां छोड़नी पड़ी हैं।

- संदीप कुमार

6. 

मरता है किसान तो मरने दो,
कोई सुशांत थोड़ी है, 
उजड़ता है खेत खलियान उजड़ने दो, 
कोई कंगना का मकान थोड़ी है। 


- जयंत प्रकाश

Friday, 20 November 2020

सुनो मेरी कहानी-मेरी जुबानी

 यह पुस्तक एक बहादुर बोलीवियाई मजदूर औरत डोमितिला बारिओस डि चुन्गारा के जीवन संघर्ष की कहानी है। एक साधारण महिला की असाधारण कहानी। इस पुस्तक का अनुवाद अमिता शीरिन ने किया है जो बहुत ही आसान शब्दों में है और पाठक को बांधकर रखता है।






https://drive.google.com/file/d/19FRYwTxSJnhc_XPO43gJfj89pIXLU84h/view?usp=drivesdk

Thursday, 12 November 2020

कविता

 अभय वसीयत..!


(अभय सिन्हा, सबौर, भागलपुर)

मैं अपने देश का एक अनाम नागरिक..!
अपनी अंतरात्मा को साक्षी मानकर..!
पूरे होशो-हवास में अपनी वसीयत, 
लिख रहा हूँ ताकि सनद रहे..! 
मेरे पास किसी को देने के लिए,
खुद के अलावा और है क्या..?
(सम्पत्ति किसकी रही है, किसकी रहेगी..?) 

मैं मरणोपरांत अपनी आंखें,
दे देना चाहता हूँ कानून को..!
ताकि कल कोई ये न कहे,
कि कानून अंधा होता है..!
मैं खोल देना चाहता हूँ..!
न्याय की देवी की आंखों पर बंधी पट्टियाँ..!
ताकि वह खुद देख सके..!
रोटी चुराने वाले के भूख का दर्द..!
और पूरे समाज का हिस्सा, 
चुराने वाले की हवस में क्या फर्क है..? 
फैसले बहुत हो चुके..!
अब इंसाफ करने का वक्त है..! 




मैं अपने कान दे देना चाहता हूँ दीवारों को,
ताकि यह बात सिर्फ़ कहावत तक न रहे..!
दीवारें सुन सकें बंद कमरे में होने वाली,
देश को बेच डालने वाली दुरभिसंधियां..!
या किसी मजलूम के 
खिलाफ होने वाली सरगोशियाँ..!
किसी बेबस की चीख सुनकर,
मन तड़प जाये तो सुन आये..! 
जाकर उखड़ी किवाड़ के पीछे,
आदम और हव्वा की खुसुर-पुसुर..!

मैं अपनी नाक दे देना चाहता हूँ..!
उस अभागे पिता को,
जिसकी नाक कट चुकी है..!
उसे देखकर, पड़ोसी अनदेखा कर जाते हैं..!
उसकी पत्नी और छोटी बेटी को,
लोग देखते हैं अश्लील नजरों से..!
क्योंकि उसकी युवा बेटी ने
इंकार कर दिया है दमघोंटू विषैले धुएं से..!
अपना आशियाना बना लिया है उसने,
इन्द्रधनुष के पार अपने प्रेमी के साथ..!

मैं अपने हाथ दे देना चाहता हूँ..!
ट्रैफिक सिग्नल पर बैठे, 
उस भिखारी लड़के को जो, 
अपने टुंडे हाथों से खिसकाता है, 
चिल्लर और नोटों से भरा अपना कटोरा..! 
रोज शाम को ठेकेदार उठा लेता है,
मुठ्ठी भर नोट, उसके कटोरे से..!
और वह ढंग से आंसू भी नहीं पोछ पाता..!
मगर शर्त है कि मेरे दिये हाथों से वह,
कटोरा नहीं, ठेकेदार का गिरेबान जायेगा..!
उसकी हथेलियां बंध जायेगीं..!
तनी मुट्ठियों की शक्ल में और वह,
हर एक से अपना हिसाब मांगेगा..!

अपना रक्त देना चाहता हूँ मैं..!
उन मुफलिसी को जिनके लिए,
ब्लड बैंक के दरवाजे कभी नहीं खुलते..!

और अंत में अपना दिल..!
मेरी जान तुमको दे देना चाहता हूं..!
ताकि तुम मुझसे प्यार करके भी,
हमेशा पवित्र और अनछुई बनी रह सको..!

Wednesday, 11 November 2020

शर्मा जी, जाति को नहीं मानते

 *शर्मा जी,जाति को नहीं मानते*


शर्मा जी ने 90 के दशक की शुरुआत में पुलिस विभाग में नौकरी ज्वाइन की थी। तब से लेकर अब तक शर्मा जी प्रमोट होकर सब इंस्पेक्टर बन चुके हैं। शर्मा जी पिछले कुछ समय से सेक्टर में रहने लगे हैं। शर्मा जी ने जो अपने बच्चों को सिखाया उस में सबसे खास बात यह है कि उन्होंने अपने बच्चों को बताया कि जाति के आधार पर कोई भी छोटा बड़ा नहीं होता,सब बराबर होते हैं। किसी के साथ भी जाति के आधार पर भेदभाव नहीं करना है, हो सके तो किसी की जाति पूछनी भी नहीं है। आदर्श भारतीय बच्चों की तरह ऐसा ही शर्मा जी के बच्चे करते आए हैं उन्होंने कभी भी अपने दोस्तों की, ना अपने रिश्तेदारों की, ना अपने आस पड़ोस वालों की जाति पता करने की कोशिश की। शर्मा जी और शर्मा जी का परिवार अपनी जाति किसी को नहीं बताते। वह बात अलग है कि इनके नाम के पीछे शर्मा लगा हुआ है। शर्मा जी की बेटी बड़ी हो चुकी है। उसने पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ से मास्टर्स की है। बहुत होशियार है और शर्मा जी के परिवार में उनकी शादी को लेकर बातचीत चलती रहती है। शर्मा जी अपनी बेटी के लिए एक अच्छा सा लड़का ढूंढने में व्यस्त हो चुके हैं। एक बात जो शर्मा जी के सभी पड़ोसियों को परेशान किए हुए है वह यह है कि शर्मा जी अपनी जाति का लड़का नहीं ढूंढ रहे हैं शर्मा जी सिर्फ एक लड़का ढूंढ रहे हैं। कोई मायने नहीं रखता शर्मा जी के लिए कि लड़के की जाति क्या है? वह सिर्फ इतना चाहते हैं कि उनकी बेटी को एक अच्छा जीवन साथी हमसफ़र मिले जो उनकी बेटी को खूब प्यार दे, हर मुसीबत में उनकी बेटी के साथ खड़ा हो और पति न बनकर एक अच्छा दोस्त, एक अच्छा जीवन साथी उनकी बेटी का बन पाए। इसीलिए उन्होंने बहुत सारे रिश्ते देखे व बहुत सारे लड़कों के घरों पर गए shaadi.com जैसी वेबसाइट से पता करके भी लड़कों से मिलने गए अपनी बेटी को भी मिलवाने ले गए। 
उन्होंने अपनी बेटी से भी पूछा कि अगर उसको कोई लड़का पसंद हो तो वो उससे भी मिलने को तैयार है लेकिन लड़की की जिंदगी में ऐसा कोई लड़का था ही नहीं। ऐसे पिता भारत में दुर्लभ ही पाए जाते हैं जो अपनी बेटी का रिश्ता जाति से ऊपर उठकर करें और अपनी बेटी से ही पूछे हैं कि उसे कोई लड़का पसंद हो तो वह बता सकती है। 
अंत में एक लड़का शर्मा जी को पसंद आ गया। दोनों परिवारों की आपस में बातचीत हुई और दोनों परिवारों के बीच रिश्ते को लेकर भी बात बन गई। 
लेकिन एक गड़बड़ हो गई लड़के के पिता की इस बात में जिज्ञासा बढ़ गई कि शर्मा जी की असली जाति क्या है? लड़के के पिता ने खूब कोशिश की शर्मा जी से उनकी जाति पता करने की। शर्मा जी के बेटे से पूछा, बेटी से पूछा, उनकी पत्नी से पूछा लेकिन किसी ने भी जाती पर बात करने से मना कर दिया और कहा कि हम जाति को नहीं मानते हम सिर्फ इंसान हैं। जाति तो इंसान की बनाई हुई है इंसानियत सबसे ऊपर है। लेकिन भारद्वाज जी तो कसम खा चुके थे कि शर्मा जी की असली जाति पता करके रहेंगे बेशक शर्मा जी ने अपना गांव तक भारद्वाज जी को नहीं बताया था। भारद्वाज जी ने पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ में पढ़ रहे अपने भांजे से संपर्क किया। लड़की का नाम, पिता का नाम, माता का नाम, किस सत्र में मास्टर्स की थी वह सेशन, परसेंटेज सब बताया और कहा कि इस लड़की की कैटेगरी पता करो। लड़का विश्वविद्यालय में एक देशभक्त छात्र संगठन में सक्रिय था उसने अपने नेता जी से बात की और लड़की की कैटेगरी खोज निकाली। जब भारद्वाज जी को पता चला कि लड़की की कैटेगरी ओबीसी यानी कि अन्य पिछड़ा वर्ग है तो आग बबूला हो गए तुरंत शर्मा जी के पास फोन लगाया और गुस्से में शर्मा जी पर टूट पड़े,"तुम्हें हम अपने बराबर में ना बैठायें और तुम अपनी बेटी का रिश्ता मेरे बेटे के साथ करने चले आए। तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरा धर्म भ्रष्ट करने की? क्या तुम्हें नहीं पता की शादी के लिए गुणों के साथ-साथ जाति का मिलना भी बहुत जरूरी है?" भारद्वाज जी ने गालियां भी दी और भी न जाने क्या-क्या कहा और अंत में फोन काट दिया। इसके बाद भारद्वाज जी ने शर्मा जी के एक पड़ोसी को इसके बारे में बताया। बस फिर क्या था पूरे सेक्टर को शर्मा जी की जाती पता चल गई। लेकिन शर्मा जी अभी भी अपनी बेटी के लिए लड़का ढूंढ रहे हैं और बिना किसी जाति को ध्यान में रखे ढूंढ रहे हैं। अंत में बस एक छोटा सा सवाल बचा है कि शर्मा जी जाति को नहीं मानते लेकिन फिर भी उन्होंने नाम के पीछे शर्मा लगाया जबकि उनका वास्तविक गोत्र या सरनेम कुछ और है, आखिर ऐसा क्यों?

Monday, 9 November 2020

अभियान अंक - 14, 15

 प्रिय पाठकों, हम अभियान के सभी अंकों को धीरे धीरे करके ब्लॉग पर डाल रहे हैं। आप यहां से ये सभी अंक डाउनलोड कर सकते हैं। और अगर कोई समस्या आती है तो आप janaabhiyan@gmail.com पर मेल के माध्यम से संपर्क कर सकते हैं। धन्यवाद।



https://drive.google.com/file/d/19Ul6C4kFN1yPc4GZmLItAZyby5IRTSFo/view?usp=drivesdk


https://drive.google.com/file/d/19XoRkjvOtwOeepYf85cNFjgOV1A1Cd10/view?usp=drivesdk

Wednesday, 28 October 2020

अभियान अंक - 12, 13

 प्रिय पाठकों, हम अभियान के सभी अंकों को धीरे धीरे करके ब्लॉग पर डाल रहे हैं। आप यहां से ये सभी अंक डाउनलोड कर सकते हैं। और अगर कोई समस्या आती है तो आप janaabhiyan@gmail.com पर मेल के माध्यम से संपर्क कर सकते हैं। धन्यवाद।

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Saturday, 17 October 2020

अभियान अंक - 11

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Monday, 12 October 2020

अभियान अंक - 8,9,10

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Saturday, 10 October 2020

अभियान अंक -7

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Friday, 9 October 2020

अभियान अंक -6

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Thursday, 8 October 2020

अभियान अंक -5

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महिलाओं पर बढ़ते अपराध

उत्तर प्रदेश में कितनी सुरक्षित हैं दलित महिलायें ?




(रिपोर्ट के अनुसार देश में वर्ष 2019 में दलितों के विरुद्ध उत्पीड़न के कुल 45,935 अपराध घटित हुए जिन में से उत्तर प्रदेश में 11,829 अपराध घटित हुए जो कि राष्ट्रीय स्तर पर कुल घटित अपराध का 25.8 प्रतिशत है जबीकि राष्ट्रीय स्तर पर दलितों की आबादी 20.7% प्रतिशत है तथा यह 5% अधिक है......)


ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के राष्ट्रीय प्रवक्ता और आईपीएस - एस. आर दारापुरी (से.नि.) का विश्लेषण


हाल में राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो द्वारा क्राईम इन इंडिया- 2019 रिपोर्ट जारी की गयी है। इस रिपोर्ट में वर्ष 2019 में पूरे देश में दलित उत्पीड़न के अपराध के जो आंकड़े छपे हैं उनसे यह उभर कर आया है कि इसमें उत्तर प्रदेश काफी आगे है। उत्तर प्रदेश की दलित आबादी देश में सब से अधिक आबादी है जो कि देश की आबादी का 20.7% प्रतिशत है। रिपोर्ट के अनुसार देश में वर्ष 2019 में दलितों के विरुद्ध उत्पीड़न के कुल 45,935 अपराध घटित हुए जिन में से उत्तर प्रदेश में 11,829 अपराध घटित हुए जो कि राष्ट्रीय स्तर पर कुल घटित अपराध का 25.8 प्रतिशत है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर दलितों की आबादी 20.7% प्रतिशत है तथा यह 5% अधिक है। इस अवधि में राष्ट्रीय स्तर पर प्रति एक लाख दलित आबादी पर घटित अपराध की दर 22.8 रही जबकि उत्तर प्रदेश की यह दर 28.6 रही जोकि राष्ट्रीय दर से 6% अधिक है। इस प्रकार राष्ट्रीय स्तर पर दलित उत्पीडन के मामलों में उत्तर प्रदेश का 7वां स्थान है। यह भी उल्लेखनीय है कि 2016 की राष्ट्रीय दर 20.3 के मुकाबले में यह काफी अधिक है। इन आंकड़ों से एक बात उभर कर आई है कि उत्तर प्रदेश में दलित एवं दलित महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं क्योंकि दलित महिलाओं पर अत्याचार के मामलों की संख्या और दर राष्ट्रीय दर से काफी ऊँची है। अब अगर दलितों पर राष्ट्र तथा उत्तर प्रदेश में घटित अपराधों के श्रेणीवार आंकड़ों का विश्लेषण किया जाये तो स्थिति निम्न प्रकार है - 

एससी/एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम(आईपीसी सहित) के अपराध :-

वर्ष 2019 में पूरे देश में इस अधिनियम के अंतर्गत 41,793 अपराध घटित हुए जबकि इसमें से अकेले उत्तर प्रदेश में 9,451 अपराध घटित हुए। इन अपराधों की राष्ट्रीय दर (प्रति 1 लाख आबादी पर) 20.8 थी जबकि उत्तर प्रदेश की यह दर 22.9 थी जोकि राष्ट्रीय स्तर पर घटित कुल अपराध का लगभग 22.6% है। इस प्रकार राष्ट्रीय स्तर पर इन अपराधों के मामलों में उत्तर प्रदेश का 6वां स्थान है जोकि काफी ऊँचा है। 

हत्या :-

वर्ष 2019 में पूरे देश में दलितों की हत्यायों की संख्या 923 थी जिनमें अकेले उत्तर प्रदेश में 219 हत्याएं हुयीं। इस अपराध की राष्ट्रीय दर 0.4 के विपरीत उत्तर प्रदेश की दर 0.5 रही जो कि राष्ट्रीय स्तर पर घटित कुल अपराध का लगभग 24% है। राष्ट्रीय स्तर पर उत्तर प्रदेश का चौथा स्थान है। इससे स्पष्ट है कि दलित हत्यायों के मामले में उत्तर प्रदेश काफी आगे है।

महिलाओं पर लज्जाभंग के इरादे से हमला :-

इस अपराध के अंतर्गत पूरे देश में 3375 मामले घटित हुए जबकि अकेले उत्तर प्रदेश में 776 मामले रहे जोकि राष्ट्रीय स्तर पर घटित अपराध का 23%है। इस अपराध की राष्ट्रीय दर 1.7 थी जबकि उत्तर प्रदेश की यह दर 1.9 रही जो राष्ट्रीय दर से काफी ऊँची है। 

महिलाओं को परेशान करने के इरादे से हमला (धारा 354 ए) :-

इसके अंतर्गत पूरे देश में 976 अपराध घटित हुए जबकि अकेले उत्तर प्रदेश में 226 मामले रहे जोकि कुल अपराध का 23% है। इस अपराध की राष्ट्रीय दर 0.3 थी जबकि उत्तर प्रदेश की यह दर 0.5 रही जो राष्ट्रीय दर से काफी ऊँची है। 

महिलाओं को वस्त्रहीन करने के इरादे से बलप्रयोग (धारा 354 बी) :-

इस शीर्षक अंतर्गत पूरे देश में 266 अपराध घटित हुए जबकि अकेले उत्तर प्रदेश में 104 मामले रहे जोकि कुल अपराध का 39% रहा। इस अपराध की राष्ट्रीय दर 0.1 थी जबकि उत्तर प्रदेश की यह दर 0.3 रही जो राष्ट्रीय दर से काफी ऊँची है। 

महिलाओं को अपहरण धारा 363, 369 IPC) :-

इस शीर्षक अंतर्गत पूरे देश में 916 अपराध घटित हुए जबकि अकेले उत्तर प्रदेश में 449 मामले रहे जोकि देश में कुल अपराध का 49% है। इस अपराध की राष्ट्रीय दर 0.5 थी जबकि उत्तर प्रदेश की यह दर 1.1 रही जो राष्ट्रीय दर से बहुत ऊँची है। 

महिलाओं को अपहरण (धारा 363) :-

इसके शीर्षक अंतर्गत पूरे देश में 392 अपराध घटित हुए जबकि अकेले उत्तर प्रदेश में 196 मामले रहे जोकि देश में कुल अपराध का 49.5% है। इस अपराध की राष्ट्रीय दर 0.2 थी जबकि उत्तर प्रदेश की यह दर 0.5 रही जो राष्ट्रीय दर से बहुत ऊँची है। 

अन्य अपहरण :-

इस शीर्षक अंतर्गत पूरे देश में 313 अपराध घटित हुए जबकि अकेले उत्तर प्रदेश में 176 मामले रहे जोकि देश में कुल अपराध का 56% है। इस अपराध की राष्ट्रीय दर 0.2 थी जबकि उत्तर प्रदेश की यह दर 0.4 रही जो राष्ट्रीय दर से बहुत ऊँची है। 

महिलाओं का विवाह के लिए अपहरण (366) :-

वर्ष 2019 में पूरे देश में विवाह के लिए अपहरण के कुल 357 मामले घटित हुए जिन में से अकेले उत्तर प्रदेश में 243 अपराध घटित हुए जोकि देश में कुल अपराध का 68% है। इस अपराध की राष्ट्रीय दर 0.2 के विपरीत उत्तर प्रदेश की यह दर 0.6 रही जो कि पूरे देश में सब से ऊँची है। 

बलात्कार (धारा 376) :-

वर्ष 2019 में पूरे देश में दलित महिलाओं के बलात्कार के 3,486 अपराध घटित हुए जिन में से अकेले उत्तर प्रदेश में 537 बलात्कार के मामले दर्ज हुए जोकि राष्ट्रीय स्तर पर घटित कुल अपराध का 15.4% है। यद्यपि इस अपराध की राष्ट्रीय दर 1.7 के विपरीत उत्तर प्रदेश की दर 1.3 रही है परन्तु यह भी सर्वविदित है कि पुलिस में ऊँची जातियों के खिलाफ बलात्कार का मामला दर्ज कराना कितना मुश्किल होता है जैसा कि हाल की हाथरस की घटना से स्पष्ट है। अतः बलात्कार के बहुत से मामले या तो लिखे ही नहीं जाते हैं या उनको अन्य हलकी धाराओं में दर्ज किया जाता है।

न्यायालय में सजा की दर :-

राष्ट्रीय स्तर पर न्यायालय में निस्तारित दलित उत्पीडन के मामलों की सजा की दर 32.1% के विपरीत उत्तर प्रदेश की यह दर 66.1% रही और इसका राष्ट्रीय स्तर पर दूसरा स्थान रहा। यद्यपि यह दर गुजरात की 1.8% की दर की अपेक्षा बहुत अच्छी कही जा सकती है परन्तु वर्ष के अंत तक विवेचना हेतु लंबित मामलों (50,776) की दर 95.4% है जोकि राष्ट्रीय दर 93.8% से ऊँची है, इस उपलब्धि को धूमिल कर देती है।


उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि वर्ष 2019 में उत्तर प्रदेश में दलितों के विरुद्ध घटित कुल अपराध की दर राष्ट्रीय दर से बहुत अधिक है। इसमें दलितों के विरुद्ध गंभीर अपराध जैसे हत्या, लज्जाभंग/प्रयास, यौन उत्पीड़न, बलात्कार, अपहरण और विवाह के लिए अपहरण, गंभीर चोट, बलवा और एससी/एसटी एक्ट के अंतर्गत घटित अपराधों की दर राष्ट्रीय दर से काफी अधिक रही। इन आंकड़ों से एक बात उभर कर सामने आई है कि उत्तर प्रदेश में दलित महिलाओं के विरुद्ध अपराध जैसे बलात्कार, लज्जाभंग का प्रयास, अपहरण, यौन उत्पीड़न तथा विवाह के लिए अपहरण आदि की संख्या एवं दर राष्ट्रीय दर से काफी अधिक है। इससे यह स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार में दलित महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। यह देखा गया है कि उत्तर प्रदेश में हमेशा से दलितों पर होने वाले अत्याचार राष्ट्रीय दर से अधिक रहे हैं चाहे सरकार किसी की भी रही हो। इसका एक मुख्य कारण यह है कि उत्तर प्रदेश की सामाजिक राजनीतिक एवं आर्थिक संरचना सामंती रही है जिसमें इन वर्गों पर अत्याचार होना स्वाभाविक है। इस कारण यहाँ की प्रशासनिक व्यवस्था भी सामंती ही रही है जो हमेशा सत्ताधारियों के हुकम की गुलाम रहती है। आज़ादी के बाद भी उत्तर प्रदेश की सामाजिक, राजनीतिक तथा अर्थव्यवस्था का लोकतंत्रीकरण नहीं हो सका है। इसके विपरीत आज़ादी के बाद विकास की प्रक्रिया के अंतर्गत पूँजी का जो निवेश हुआ है उसने नये माफिया को जन्म दिया है जिसने सामंती ताकतों से गठजोड़ करके राजनीतिक सत्ता में अपना दखल बढ़ा लिया है। यह सर्वविदित है कि सामंती माफिया पूँजी के गठजोड़ की उपस्थिति सभी राजनीतिक दलों में रहती है और वे ज़रुरत के मुताबिक दल भी बदलते रहते हैं। इसी लिए सरकार बदलने के बाद भी उनकी राजनीतिक पकड़/पहुँच कमज़ोर नहीं होती। यही तत्व दलितों तथा अन्य कमज़ोर वर्गों एवं महिलाओं पर अत्याचार के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। उत्तर प्रदेश की यह भी त्रासदी है कि यहां पर सामंती-माफिया-पूंजी गठजोड़ के विरुद्ध बिहार की तरह (नक्सली तथा किसान आन्दोलन) ज़मीनी स्तर पर कोई भी प्रतिरोधी आन्दोलन नहीं हुआ है जिस कारण इन तत्वों को कोई चुनौती नहीं मिल सकी है। उत्तर प्रदेश की दलित राजनीति भी इन्हीं सामन्ती/पूँजी माफियायों का सहारा लेकर सत्ता का भोग करती रही है जिस कारण इन तत्वों की सत्ता पर कभी भी पकड कमज़ोर नहीं हुयी है। अतःउत्तर प्रदेश की राजनीति पर सामन्ती-माफिया-पूँजी की निरंतर बनी रहने वाली पकड जो भाजपा सरकार के अधिनायकवादी चरित्र के कारण और भी मज़बूत हो गयी है, दलितों पर राष्ट्रीय स्तर पर अधिक अत्याचार के लिए ज़िम्मेदार है। अतः उत्तर प्रदेश में दलितों पर होने वाले अत्याचार को रोकने के लिए राजनीति पर सामन्ती-माफिया-पूंजी गठजोड़ को तोड़ने के लिए जनवादी आंदोलनों को तेज़ करना होगा। यह काम केवल वाम-जनवादी लोकतान्त्रिक ताकतें ही कर सकती हैं न कि सत्ता की राजनीति करने वाली कांग्रेस, समाजवादी, भीम आर्मी और बहुजन समाज पार्टी एवं उनके नेता।


(साभार : जनज्वार. कॉम https://janjwar.com/vimarsh/how-safe-are-dalit-women-in-uttar-pradesh-637380)

Wednesday, 7 October 2020

अभियान अंक-4

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Monday, 5 October 2020

अभियान अंक - 108

 अभियान अंक-108- हम सभी पाठकों के साथ सांझा कर रहे हैं। सभी पाठकों से उम्मीद है कि वे इस अंक को पढ़


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Saturday, 3 October 2020

अभियान अंक - 3

 

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अभियान अंक - 2

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Thursday, 1 October 2020

अभियान अंक - 1

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Thursday, 24 September 2020

कृषि अध्याधेश

 मोदी सरकार के तीन आध्यादेशः कृषकों की तबाही के दस्तावेज

राजेश कापड़ो


(कृषि पर राज्य सरकारों का नियंत्रण समाप्त होने से राज्य सरकारों की आमदनी घटेगी। कृषि पर मोदी सरकार के इन तीन हमलों से राज्यों के पास हस्तक्षेप करने का कोई रास्ता नहीं बचने वाला। इसके अलावा, देश की जनता को व्यापक रूप से मंहगाई का सामना करना पड़ेगा। कृषि में उदारीकरण प्रक्रिया तेज होने के कारण कृषि उत्पादों का आयात बढ़ेगा। भले ही आध्यादेशों में इस बाबत कोई उल्लेख नहीं किया गया है। भारत का किसान विदेशी उत्पादों से प्रतियोगिता में निश्चित रूप से टिक नहीं सकता। बाजार पर बड़े राक्षसों का एकाधिकार और बाजार रूझानों की सूचनाओं तक पंहुच की गैर-बराबरी भारतीय किसान को मार डालेगी।)









जब देश का ध्यान कोरोना महामारी पर था। मोदी सराकर द्वारा मात्र चार घंटे के अल्टीमेटम पर रातोरात थोंपी देशव्यापी तालाबंदी से भयांक्रात देश के मेहनतकश अवाम जब महानगरों से सुदूर ग्रामीण अंचलों की तरफ अपने ऐतिहासिक लंबे अभियान पर निकल चुके थे। शहरों में महामारी की दस्तक से उपजे भय और सरकार की अमानवीय तालाबंदी के बाद की परिस्थितियों से तो यही लग रहा था कि लोग माहामारी से पहले भूख से ही मारे जायेगे। गांवों की ओर इस महापलायन के पीछे कहीं न कहीं, यही सोच थी कि वहां पर उनको भूख से नहीं मरना पड़ेगा। जो काफी हद तक सही भी थी। लेकिन ये किसको पता था कि ऐन महामारी के बीच मोदी सरकार गरीब जनता के अंतिम सहारे पर हमला करने वाली है। इसी समय केंद्र सरकार ने महामारी की आड़ में कृषि क्षेत्र पर एक बड़ा हमला किया है। जून 2020 में मोदी सरकार कृषि क्षेत्र में सुधार करने के नाम पर तीन आध्यादेश लेकर आयी है। संसद के मानसून सत्र का इंतजार भी नहीं किया। बल्कि राष्ट्रपति की शक्तियों का प्रयोग करते हुये ये कानून आध्यादेश के रूप में लाये गये। इसमें भी कोई दोराय नहीं है कि संसद में भी सरकार इनको पास करवा लेगी। भक्ततजनों का कहना है कि मोदी सरकार के इन कदमों से किसानों को अभूतपूर्व लाभ होगा और कृषि क्षेत्र का कायापलट हो जायेगा। 
ग्रामीण भारत को बर्बाद कर देने वाले इन काले कानूनों को सरकार ने अपने आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत पास किया है। इसी समय सरकार लोकल के लिये वोकल होने का नारा दे रही थी। कृषि देश की कुल श्रम शक्ति के आधे से ज्यादा हिस्से को रोजगार देती है। देश की 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है। कोरोना महामारी के कारण अर्थव्यवस्था के बाकि क्षेत्र बंद पड़े हैं। जीडीपी की दर पहली तिमाही के लिये नकारात्मक में चली गयी है। ऐसे मोड़ पर सरकार ने कृषि क्षेत्र को ओपन कर देने का निर्णय लिया है। सरकार के इस कदम का मतलब होगा कि अब भारत का कृषि क्षेत्र प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिये खुल चुका है। 
किसान संगठन सरकार की इन किसान विरोधी नीतियों का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि मोदी सरकार के इन निर्णयों से किसान कारपोरेट जगत के भंयकर शोषण का शिकार बनेंगे। हरियाणा में मुख्य रूप से भारतीय किसान युनियन (गुरनाम सिंह चढ़ुनी) के नेतृत्व में कुरूक्षेत्र, करनाल, यमुनानगर व फतेहबाद आदि जगहों पर किसानों ने मोदी सरकार के आध्यादेशों के खिलाफ आवाज उठाई है। इसी प्रकार पंजाब में भी भारतीय किसान युनियन के रजोवाल और लखोवाल समूहों की अगुवाई में व्यापक रूप से किसानों ने विरोध प्रदर्शन किये। किसानों ने मोदी सरकार के खिलाफ ट्रैक्टर मार्च निकाले तथा तीनों किसान विराधी आध्यादेशों को वापस लेने की मांग की।
मोदी सरकार द्वारा लाये गये तीन आध्यादेशों में एक है- आवश्यक वस्तु (संसोधन) आध्यादेश 2020 जोकि वर्तमान आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 में संशोधन करके तमाम कृषि उत्पादों को आवश्यक-वस्तु-सूची से हटाता है। सरकार का कहना है कि कृषि क्षेत्र में उत्पादन, संग्रहण, तथा सप्लाई को बाधा मुक्त करने से किसान खुशहाल होंगे तथा कृषि क्षेत्र में नीजि व प्रत्यक्ष निवेश आकृषित किया जायेगा। जिससे कोल्ड स्टोरेज तथा फूड सप्लाई चेन के आधुनिकीकरण के लिये निवेश को बढ़ावा मिलेगा। मोदी सरकार का तो यहां तक दावा है कि आध्यादेश से मंहगाई पर नियंत्रण होगा तथा उपभोक्ताओं को लाभ होगा और यह मुख्य रूप से व्यापारियों को मदद करेगा, आदि-आदि। मोदी सकार द्वारा हाल ही लाये गये आवश्यक वस्तु (संशोधन) आध्यादेश, 2020 के अनुसार आपातकाल के समय चिन्हित कृषि उत्पादों पर पाबंदी लगाने की शक्तियां अब केंद्र सरकार ने अपने पास रख ली हैं, जो पूर्व के कानून में राज्य सरकारों के पास थीं। इसका अर्थ है कि अब कृषि क्षेत्र से राज्य सरकारों का नियंत्रण अब समाप्त हो जाएगा। यह केंद्र द्वारा राज्यों को बाई पास करना है। हालांकि पहले वाले कानून से भी किसानों को कोई लाभ नहीं हुआ, मोदी सरकार के वर्तमान संशोधन से भी कोई फायदा होने वाला नहीं है। यह कुछ नहीं बल्कि केंद्र सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र को देशी विदेशी बड़े दानवों के हवाले कर तबाह करने की मुहिम है।
दूसरा आध्यादेश है, Farming Produce Trade and Commerce (Promotion and Facilitation) Ordinance, 2020. मोदी सरकार के दावे पर विश्वास करें तो इस आध्यादेश का मकसद भी कृषि एवं कृषकों का कल्याण करना है। सरकार का कहना है कि यह कानून बनने के बाद राज्य सरकारों के कानूनों के अधीन स्थापित अनाज मंडियों से अलग राज्यों के अंदर तथा एक राज्य से दूसरे राज्यों के बीच कृषि उत्पादों का व्यापार एवं वाणिज्य बेरोकटोक हो सकेगा। इससे एक सीमा-मुक्त व्यापार व वाणिज्य को प्रोत्साहन मिलेगा तथा इसके बाद राज्य सरकारों द्वारा संचालित अनाज मंडियों से अलग कृषि संबंधित व्यापारिक गतिविधियों को बढावा मिलेगा। 
मोदी सरकार ने राज्यों के नियंत्रण वाली अनाज मंडी व्यवस्था को समाप्त करने के मकसद से यह आध्यादेश पास किया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि एपीएमसी मंडियों में बहुत समस्याएं हैं। इनमें भ्रष्टाचार का बोलबाला है। मंडियों की संख्या कम है। इनमें सुविधाओं का अभाव है। लालफीताशाही अपने चरम पर है। निकायों के चुनाव समय पर नहीं होते। व्यापारी भी मनमर्जी करते हैं तथा किसानों को रशीद या बिल नहीं देते। आढ़ती हरियाणा में कृषि उपज खरीद के फर्जी बिल बनाते हैं तथा न्यूनतम मूल्य से कम दामों पर उपज बिहार जैसे राज्यों से, जहां एपीएमसी कानून 2006 में हटा दिया था, खरीद कर कमीशन घोटाले करते हैं। किसानों को किये जाने वाले भुगतान में अनचाही कटौतियां करते हैं। निश्चित रूप से आढ़ती किसानों का बेहद शोषण करता है। लेकिन इसकी आड़ में मोदी सरकार के ये कदम क्या किसानों का कल्याण करने वाले हैं? सरकार बहादुर ने ऐलान किया है कि यह भारत के सरकार नियंत्रित कृषि बाजार को ‘अनलॉक’ करने वाला ऐतिहासिक कदम है। कोरोना काल में मोदी ने नारा दिया है कि आपदा को अवसर में बदलो। सरकार बहादुर महामारी के फलस्वरूप मिले अवसर का लाभ उठाकर भारत के किसानों को आढ़तियों से भी ज्यादा भयंकर और रक्त पीपासु दानवों के आगे फेंक रही है। कृषि क्षेत्र के खुलने से मुनाफा कमाने वाली विदेशी कम्पनियों व उनके टुकड़ों पर पलने वाले दलालों के लिये कोरोना महामारी निश्चित रूप से एक सुअवसर बन कर आयी है। यही वर्ग है जो मोदी सरकार द्वारा लाये गये तीनों आध्यादेशों को कृषि के लिये रामबाण बता रहा है। एपीएमसी एक्ट को समाप्त करने का सीधा सा मतलब है कि यह न्यूनतम सर्मथन मूल्य की व्यवस्था का अंत कर देगा और किसानों को बिना किसी राजकीय संरक्षण भगवान के भरोसे छोड़ देगा। 
मोदी सरकार द्वारा लाया गया तीसरा आध्यादेश है- दी फ्रार्मर (एम्पावरमेंट एंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्यूरेंस एंड फ्रार्म सर्विसेज आर्डिनेंस, 2020 । सरकार ने यह कानून इस लिये बनाया है ताकि भारत में कांट्रेक्ट फार्मिंग का रास्ता साफ किया जा सके। सरकार ने इस कानून को नाम तो किसान-सशक्तिकरण-कानून का दिया है परन्तु असल में यह है- कम्पनी-द्वारा-खेती-कानून । जैसे जहर की बोतल पर कोई अमृत लिखकर बेचता है, सरकार वही धोखा कर रही है। इस कानून के अनुसार बड़ी-बड़ी कम्पनियां सीधे किसानों के साथ खेती करने का करार कर सकेगी। बल्कि वे खुद ही खेती करेंगी। महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय रोहतक में अर्थशास्त्र के पूर्व प्रोफेसर श्री राजेंद्र चौधरी कहते हैं कि अनुबंध खेती का अर्थ बुवाई के समय ही बिक्री का सौदा होता है ताकि किसान को भाव की चिंता न रहे। सरकार द्वारा पारित वर्तमान कानून में अनुबंध की परिभाषा को बिक्री तक सीमित न करके, उसमें सभी किस्म के कृषि कार्यों को शामिल किया गया है। इस आध्यादेश ने परोक्ष रूप से कम्पनियों द्वारा किसान से जमीन हड़पने की राह खोल दी है। कम्पनियां किसान को भुगतान करेंगी। यह भुगतान उपज की बिक्री के लिये न होकर, कम्पनी द्वारा किसान की जमीन व श्रम के दोहन के लिये होगा। अखिल भारतीय किसान सभा के नेता अमराराम कहते हैं -‘सरकार कृषि में सुधार और किसानों की आय बढ़ाने के नाम पर कृषि व्यवस्था को एग्रो-बिजनेस के क्षेत्र में काम करने वाली कम्पनियों के हवाले करने जा रही है।’ अभी तक भरतीय कृषि बड़े बड़े दैत्यों की पकड़ से कमोबेस बाहर थी। अब अगर यह कानून लागू हुये तो कृषि पूरी तरह बदल जायेगी। उदारीकरण का नतीजा है कि 30 साल में 5 लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। सरकार के कारनामों से भविष्य में यह स्थिति विकराल रूप धारण करने वाली है। जो लोग कांट्रेक्ट खेती से कृषि में खुशहाली के सपने दिखा रहे हैं, वो एक नम्बर के ठग हैं और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से कृषि क्षेत्र में समृद्धि का नारा हद दर्जे की बकवास है। 
भूमंडलीकरण की नीतियों ने कृषि क्षेत्र को तबाह किया है, भारत में इन नीतियों का 25 वर्ष का इतिहास खुद इसका साक्षी है। बड़ी खुदरा कम्पनियां उपभोक्ताओं व किसानों, दोनों को लूटती हैं, यह एक उदाहरण से समझ सकते हैं। डाउन टू अर्थ में प्रकाशित एक रिर्पोट के अनुसार भारती-वालमार्ट ने पंजाब के कांट्रेक्ट खेती करने वाले किसानों से बेबी कोर्न की उपज मात्र 8 रूपये प्रति किलो के हिसाब से खरीदी तथा उसी उपज को कम्पनी होलसेल में 100 रूपये प्रति किलोग्राम की दर से बेचती है तथा यही उपज अंतिम उपभोक्ता को 200 रूपये प्रति किलो बेची गयी। इस प्रकार उपभोक्ता द्वारा भुगतान किये गये अंतिम मूल्य का केवल 4 प्रतिशत ही किसान को मिलता है। बिहार की धान उपज का केस देखना भी मजेदार होगा। बिहार राज्य ने 2006 में ही एपीएमसी कानून खत्म कर दिया था। पंजाब के खरीद मूल्य 1310 रूपये प्रति क्विंटल की तुलना में बिहार के किसानों को उसी गुणवता का धान 800 या 900 रूपये प्रति क्विंटल पर बेचना पड़ा। मोदी सरकार पूरे देश को बिहार बनाने के लिये ये काले कानून लायी है।
तमाम सरंक्षणों के बावजूद भी किसानों की लूट कोई कम नहीं थी। हरियाणा व पंजाब में मंडियों की व्यवस्था तुलनात्मक रूप से बढि़या है। लेकिन यहां भी किसानों को उपज के उचित भाव नहीं मिल पाते। भारतीय किसान युनियन द्वारा 2 जून को जारी एक बयान में कहा गया कि सरकार ने वर्ष 2016-17 में धान के समर्थन मूल्य में 4.3 प्रतिशत बढोतरी की थी, जबकि उसके बाद 2017-18 में 5.4 प्रतिशत, 2018-19 में 12.9 प्रतिशत, 2019-20 में 3.71 प्रतिशत बढोतरी की गई। लेकिन वर्तमान सीजन 2020-21 में यह पिछले पांच वर्षों की सबसे कम केवल 2.92 प्रतिशत बढोतरी की है। सरकार द्वारा घोषित धान के समर्थन मूल्य में प्रति क्विंटल 715 रूपये का घाटा है। ऐसे ही ज्वार में 631 रूपये, बाजरा में 934 रूपये, मक्का में 580 रूपये, अरहर दाल में 3603 रूपये तथा मूंग, उड़द, चना, सोयाबीन आदि उपजों में औसतन 3100 रूपये प्रति क्विंटल घाटा है। अक्तुबर 2019 में धान खरीद के ऐन बीच में करनाल जिला प्रशासन ने अपने निर्धारित कोटा 1.35 मीलियन टन के अतिरिक्त खरीद पर रोक लगा दी थी। बेहतर अनाज मंडियों की व्यवस्था वाले राज्यों की ये दशा है तो अन्यों की हालत का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। 
अपने 16-28 फरवरी, 2019 के अंक में डाउन टू अर्थ ने एक विश्लेषण में पाया कि गेंहू के उत्पादन पर प्रति हेक्टेयर 32644 रूपये लागत आ रही है तथा इस पर किसान केवल 7639 रूपये ही कमा रहा है। किसान को प्रति हेक्टेयर 25005 रूपये घाटा हो रहा है। इसी प्रकार धान में प्रति हेक्टेयर घाटा 36410 रूपये आता है। सरकार यह सब जानती है। एक आरटीआई के जवाब में कृषि विभाग, हरियाणा ने स्वीकार किया कि वर्ष 2018-19 में गेंहू का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1840 रूपये प्रति क्विंटल की तुलना में इसकी उत्पादन लागत लगभग 2074 रूपये प्रति क्विंटल थी। इसमें 234 रूपये प्रति क्विंटल घाटा है। कपास के मामले में यह घाटा 830 रूपये प्रति क्विंटल था। 
यह भी कहा जाता है कि एपीएमसी कानून के तहत मंडियों में कृषि उपजों की बिक्री के लिये मुक्त व्यापार की व्यवस्था नहीं होती बल्कि मंडियों में एकाधिकार के कारण किसान अपनी फसल को लाभकारी मूल्यों पर नहीं बेच पाते। यह सही नहीं है। अनाज मंडियों में पहले उपज की खूली बोली लगती है । किसान अपनी मर्जी के भाव व व्यापारी को उपज बेच सकता है। अपनी तमाम कमियों के बावजूद एपीएमसी कानून किसानों के लिये न्यूनतम कीमतों व बाजार में न्यूनतम सुरक्षा की गारंटी करता था। मंडियों में यह व्यवस्था थी। यह सही है कि आढ़ती किसानों को अपने कर्ज के मकड़जाल में फंसा कर, किसान की मोलभाव करने की आजादी को लगभग समाप्त कर देता था। फिर भी जो उपज खूली बोली में नहीं बिक पाती या जिनका कोई स्वतंत्र खरीददार नहीं होता, उनको न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी ऐजेंसियां खरीद लेती थीं। किसान के पास उपज बिक्री की गारंटी रहती थी। कम से कम इसका कानूनी आश्वासन रहता था। मौजूदा अध्यादेश में इस कानूनी आश्वासन या गारंटी को समाप्त कर दिया है और बताया जा रहा है कि सरकार के इन कदमों से किसानों की आमदनी बढ़कर दोगुणा होने वाली है। इसके अलावा आवश्यक वस्तु (संशोधन) आध्यादेश, 2020 भी राज्यों की शक्तियों को हड़पने वाला एक अन्य आध्यादेश है। हालांकि कृषि क्षेत्र राज्य सरकारों के अधीन आता है जिसमें केंद्र सरकार कई तरह से जैसे- नियोजन, अनुदान आबंटन तथा क्रियान्वयन आदि में भागेदार रहती है। लेकिन बीज, खाद व कीटनाशक आदि उत्पादन करने वाली बड़ी कम्पनियां लम्बे समय से सरकार पर कृषि के केंद्रीयकरण का दबाव बना रही थी। मोदी सरकार ने यह आध्यादेश लाकर कारपोरेट जगत की यह मांग पूरी कर दी है। 
2016 से ही देश भर में किसान लगातार आंदोलन कर रहे थे। जिनकी मुख्य मांगे थी कि सरकार स्वामीनाथन आयोग की सिफारिसें लागू करे तथा विभिन्न उपजों के न्यूनतम समर्थन मूल्यों में बढोतरी करे। क्योंकि मोदी स्वामीनाथन को लागू करने का वादा करके सत्ता पर काबिज हुये थे। हालांकि 2019 में भाजपा-कांग्रेस, दोनों दलों ने अपने-अपने चुनाव घोषणा पत्रों से स्वामीनाथन को बाहर कर दिया था। जिसके अनुसार उपजों के मूल्यों को लागत से 1.5 गुणा ज्यादा तय करना था। उपज खरीद करने वाली संस्थाओं को सक्षम बनाना था। कृषि में सरकारी निवेश में वृद्धि करनी थी। परन्तु मोदी सरकार के मौजुदा कारनामों से उपरोक्त सभी व्यवस्थायें समाप्त हो जायेंगी। ऊपर से सरकार कह रही है कि यह सब किसानों की भलाई के लिये है!
मोदी सरकार मुनाफाखोर बहुराष्ट्रीय दानवों के दबाव में कृषि क्षेत्र के लिये संरक्षण के तमाम कानूनी प्रावधानों को हटाने के लिये प्रतिबद्ध है। मोदी सरकार के मौजुदा कदम कृषि क्षेत्र में भूमंडलीकरण के लिये आखिरी फल्ड गेट खोलने जैसा है, जो भारत की खेती बर्बाद कर देंगे। अपने 15 अगस्त के भाषण में मोदी इन काले कानूनों का गुणगान करते हुए कह रहे थे, ‘कौन सोच सकता था कि किसानों की भलाई के लिये एपीएमसी जैसे कानून में इतने बदलाव हो जाऐंगे? कौन सोच सकता था, हमारे व्यापारियों पर जो लटकती तलवार थी- आवश्यक वस्तु कानून, इतने सालों के बाद वह भी बदल जायेगा?’ इससे आगे वे कहते हैं, ‘भारत में परिवर्तन के इस कालखंड के सुधारों को दुनिया देख रही है। एक के बाद एक, एक-दूसरे से जुड़े हुए, हम जो रिफोर्म कर रहे हैं, उसको दुनिया बड़ी बारीकी से देख रही है और उसी का कारण है, बीते वर्ष भारत में एफडीआई ने अब तक के सारे रिकार्ड तोड़ दिये हैं।’ प्रधानमंत्री कृषि की इस विनाशलीला को आत्मनिर्भर होना बता रहे हैं। मोदी के भाषण के अंश देखिये- आत्मनिर्भर भारत की अहम प्राथमिकता आत्मनिर्भर कृषि और आत्मनिर्भर किसान हैं। इसको हम कभी भी नजरअंदाज नहीं कर सकते। किसान को तमाम बंधनों से मुक्त करना होगा, वो काम हमने कर दिया है। बहुत लोगों को पता नहीं होगा, मेरे देश का किसान जो उत्पादन करता था, न वो अपनी मर्जी से बेच सकता था, न अपनी मर्जी से जहां बेचना चाहता था, वहां बेच सकता था। उसके लिये जो दायरा तय किया था, वहीं बेचना पड़ता था। उन सारे बंधनों को हमने खत्म कर दिया है।’ सरकार बहादुर कुछ भी कहे, इन कानूनों से किसान को कुछ भी हासिल नहीं होने वाला, इसके विपरित ये कानून भारतीय कृषि और व्यापक किसान समुदाय को 
पूर्णतया तबाह करने में मील के पत्थर बनने वाले हैं। ये केवल व्यापारियों को लाभ पंहुचाने वाले कानून हैं। मुख्य रूप से एग्रो-बिजनेस करने वाले बड़े कारपोरेट घराने तथा विशालकाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियां ही इससे मुनाफा उड़ायेगे। इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट पर पार पाने के लिये दुनिया भर में भारत की सराहना की गई थी। इसका कारण उपभोग - वस्तुओं की मांग व आर्थिक वृद्धि को लगातार बरकरार रखना था। इन उपभोक्ताओं का बड़ा हिस्सा ग्रामीण क्ष्रेत्रों से आता है और ये मुख्य रूप से कृषि पर निर्भर हैं। इससे भारत की कुल अर्थव्यवस्था में ग्रामीण क्षेत्रों की भूमिका की महता का अंदाजा लग जाना चाहिये। यदि भारत की कृषि को ‘आत्मनिर्भरता’ के नाम पर वैश्विक दैत्यों के सामने असहाय छोड़ दिया होता तो उपरोक्त परिणाम नहीं आते। आर्थिक संकट भारत की कृषि को ध्वस्त कर डालता, तब ना भारत की अर्थव्यवस्था बचती और न ही आत्मनिर्भर बनने के लिये बेचारा किसान। मोदी सरकार उन सभी संरक्षणों को समाप्त कर रही है जो भारत की खेती को भारी आर्थिक भूचालों से बचाते थे। एक नकारात्मक पहलू ही सही, भारतीय कृषि का वैश्विक अर्थव्यवस्था की बजाय अपने मानसून पर निर्भर होना ज्यादा बेहतर था। राजनीतिक रूप से ये कानून संविधान द्वारा प्रदत राज्यों की शक्तियों को कुतरने वाले हैं। एक तरह से भारत के संघीय ढांचे पर हमला भी है। इनके परिणामस्वरूप तमाम राज्य सरकारों व मार्किट कमेटियों की शक्तियां प्रभावहीन हो जायेंगी। 
कृषि पर राज्य सरकारों का नियंत्रण समाप्त होने से राज्य सरकारों की आमदनी घटेगी। कृषि पर मोदी सरकार के इन तीन हमलों से राज्यों के पास हस्तक्षेप करने का कोई रास्ता नहीं बचने वाला। इसके अलावा, देश की जनता को व्यापक रूप से मंहगाई का सामना करना पड़ेगा। कृषि में उदारीकरण प्रक्रिया तेज होने के कारण कृषि उत्पादों का आयात बढ़ेगा। भले ही आध्यादेशों में इस बाबत कोई उल्लेख नहीं किया गया है। भारत का किसान विदेशी उत्पादों से प्रतियोगिता में निश्चित रूप से टिक नहीं सकता। बाजार पर बड़े राक्षसों का एकाधिकार और बाजार रूझानों की सूचनाओं तक पंहुच की गैर-बराबरी भारतीय किसान को मार डालेगी।