ऐ! नए साल
(संदीप कुमार)
ऐ! नए साल
पिछले साल का हमने स्वागत किया था
'अभियान' समाज में बढ़ रही अंधविश्वास, अध्यात्मवाद, उपभोक्तावाद और विलासिता की सामंती व साम्राज्यवादी संस्कृति को खत्म कर, स्वस्थ संस्कृति के निर्माण के लिए तथा जनता को समस्याओं के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित करने हेतु प्रयत्नशील है । और हर प्रकार के जातीय, महिला व आर्थिक शोषण के खिलाफ संघर्षरत है । आपसे अपील है कि आप अपनी रचनाएं तथा सुझाव भेजकर इस अभियान में शामिल हों । E-mail :- janaabhiyan@gmail.com
ऐ! नए साल
(संदीप कुमार)
ऐ! नए साल
पिछले साल का हमने स्वागत किया था
सही दुश्मन की पहचान कर ली है किसान आंदोलन ने
(संजय कुमार)
(पंजाब में इस आंदोलन ने एक अलग ही शक्ल अख्तियार की है। पंजाब में जगह-जगह जिओ के टावरों को तोड़ा जा रहा है, उनकी लाइनें उखाड़ी जा रही हैं। अब तक पंजाब में 1500 से अधिक जिओ के टावर ध्वस्त किए जा चुके हैं। लाखों लोग जिओ से अन्य कम्पनियों में अपना सिम पोर्ट करा चुके हैं। अपने नुक्सान से घबराकर जिओ को ट्राई में शिकायत करनी पड़ी कि एयरटेल व वोडाफोन उसके खिलाफ दुष्प्रचार कर रही हैं। अम्बानी अडानी व रामदेव की कम्पनियों के खिलाफ लोगों में बेहद गुस्सा है।)
वर्तमान किसान आंदोलन की उपलब्धियां
1. किसान
किसान आंदोलन - एक अवलोकन
(डॉक्टर प्रदीप)
देश की राजधानी इस वक्त एक अलग किस्म की सुनामी देख रही है। यह देखना बेहद सुखद है कि जब राजसत्ता अपने सर्वाधिक निरकुंश तौर तरीकों से विरोध के प्रत्येक स्वर को दबाने पर तुली थी, विरोध की हर आवाज को देश विरोध के नाम पर बदनाम करने की कोशिश कर रही थी, जब अधिकांश मीडिया भांडगिरी का चरम प्रदर्शन कर रहा था, ठीक उसी समय लाखों-लाख किसान जनविरोधी कानूनों को रद्द करवाने के लिए दिल्ली को घेरे खड़े हैं और हजारों की संख्या में किसान प्रत्येक दिन दिल्ली की ओर कूच कर रहे हैं।
किसान कहीं दिल्ली न पहुंच जाएं, यह डर इतना ज्यादा था कि किसानों को रोकने के लिए जो हथकंडे सरकार द्वारा अपनाये गये, वो इस प्रकार के थे मानो किसी दुश्मन सेना का रास्ता रोका जा रहा हो। सडकों पर आठ-आठ फूट गहरी खंदकें खोद दी गई। बड़े-बड़े बोल्डर(पत्थर) सडकों पर डाल दिए गए। लेकिन किसानों की सुनामी को रोका नहीं जा सका। सरकारें कुछ सालों से इस मुगालते में राज कर रही हैं कि जो वो कर रही है, जो वो कह रही हैं, जनता उस सब को आंखें बंद करके स्वीकार कर लेंगी।
जो तीन कृषि कानून सरकार ने लागू किए हैं, इनके बारे में सरकार ने किसी की राय ली? भाजपा के बिकाऊ प्रवक्ताओं ने मीडिया के सामने ताल ठोकी कि ये कानून बहुत विचार विमर्श व जन समुदाय से राय लेकर बनाए गए हैं और जनता इसका विरोध नहीं कर रही, केवल विपक्ष इसे अपनी राजनीति के लिए मुद्दा बना रहा है। लेकिन जल्दी ही उसके पूराने सहयोगी दल शिरोमणि अकाली दल ने इस मुद्दे पर एनडीए छोड़ दी, उसके एक और पुराने मित्र चौटाला ने नुक्ताचीनी शुरू कर दी। इसलिये नहीं कि अकाली दल व जजपा किसानों की हितैषी है। जब बिल पास हो रहे थे तो इनका समर्थन बाजपा को था। लेकिन इन कानूनों के जनता द्वारा जबरदस्त विरोध को देखते हुए इन्हें समझ में आ गया कि अगर उन्होंने अपनी पॉजिशन नहीं बदली तो जनता इन्हें गटर में फैंक देगी। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इन कानूनों को बनाने से पहले आर.एस.एस. से जुड़े भारतीय किसान संघ से भी कोई राय नहीं ली गई, किसी ओर किसान संगठन से राय मशविरा करना तो बहुत दूर की बात है।
अगर अपने ही किसान संगठन से राय नहीं तो किसकी इच्छा से ये कानून बनाये गए और वे भी अध्यादेश के माध्यम से? मोदी सरकार को ऐसी क्या जल्दी पड़ी थी कि जब देश लॉकडाउन में फंसा हुआ था, सरकार ने अध्यादेश के द्वारा यह कृषि बदलाव करने का षड्यंत्र रचा? अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि ये तीनों कानून बड़ी कंपनियों की कृषि क्षेत्र में घुसपैठ और मुनाफे को सुनिश्चित करते हैं।
हर व्यक्ति जानता है कि फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य असल में अधिकतम मूल्य है जो किसानों को मिल पाता है। मात्र 6% फसल इस मूल्य पर बिक पाती है, बाकि 94% फसलें इस एमएसपी से 50% तक कम मूल्य पर बिकती हैं। जहां एमएसपी मिलता है, वो इलाके मुख्यतः पंजाब और हरियाणा में हैं जहां मंडी व्यवस्था कायम है। बाकि राज्यों में न मंडी है न एमएसपी है। इसमें कोई शक नहीं है कि मंडी व्यवस्था, कोई बेहतरीन व्यवस्था नहीं है। और यह भी सच्चाई है कि आढतियों ने किसानों को अपने कर्ज जाल में फंसा रखा है। नए कृषि कानून किसानों को आढ़तियों से भी बढ़ी जोंकों के शिकंजे में फंसाने का इंतजाम करते है। यह उम्मीद करना कि किसानों को मंडी से बाहर बेहतर रेट मिल सकते हैं, मूर्खता होगी। देश के किसी भी क्षेत्र में ऐसा नहीं हो पाया है। लेकिन इसकी इजाजत देकर कंपनियों का रास्ता जरूर साफ कर दिया है। अब अगर अंबानी व अडाणी कृषि उत्पाद खरीदने के लिए बाजार का रूख करेगा तो वह कोई 50-100 क्विंटल तो खरीदेगा नहीं। उनके पास हजारों टन की भण्डार क्षमता है। अभी तक कृषि उत्पाद आवश्यक वस्तुओं की श्रेणी में आते थे इसलिए एक मात्रा से अधिक कोई व्यक्ति/कंपनी ये खरीद नहीं सकती थी इसलिये दूसरे कृषि कानून की जरूरत पड़ी जहां जमाखोरी पर से सभी प्रतिबंध हटा लिए गए हैं। इसी से जुड़ा तीसरा कानून कांट्रेक्ट खेती से जुड़ा है। स्पष्ट है पूंजीपतियों को अपनी फैक्ट्रियों के लिए कच्चा माल चाहिए। कांट्रेक्ट खेती के द्वारा वो अपनी मर्जी का माल पैदा करने के लिए किसानों को बाध्य करेंगे। ब्रिटिश काल में नील की खेती करने वाले किसानों की दुर्दशा इतिहास के पन्नों में खूब दर्ज है। वर्तमान में भी अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय अनुभव यही बताते हैं कि कांट्रेक्ट खेती में घाटा हमेशा किसान को ही रहा है। खराब गुणवत्ता के नाम पर किसान की फसल सस्ते दाम पर खरीद ली जाती है।
अंत: सरकार ने किसानों से राय करने के बाद नहीं बल्कि कारपोरेट जगत से बात करने के बाद ये कृषि कानून लागू किए गए। ये कानून केवल किसानों को ही प्रभावित नहीं करेंगे बल्कि देश कि 80% आबादी के लिए नुकसानदायक साबित होने वाले हैं क्योंकि आधे से ज्यादा आबादी प्रत्यक्ष तौर पर और एक चौथाई आबादी अप्रत्यक्ष तौर पर खेती से जुड़ी है। इसलिये देश के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य बनता है कि तीनों नए कृषि कानूनों को रद्द करने के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करें। यह संघर्ष देश की जनता के अधिकारों का, कारपोरेट जगत की अंधी लूट की खिलाफत का संघर्ष है।
लेकिन इस पूरे घटनाक्रम का एक अन्य आयाम भी है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सभी किसान संगठन स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने की बात कर रहे हैं, निस्संदेह होनी भी चाहिए लेकिन स्वामीनाथन आयोग तो जमीन के वितरण की, भूमि सुधारों की भी बात करता है। इस पर किसान संगठन चुप्पी साधे हैं। इस आंदोलन में कृषि क्षेत्र से जुड़ी आधी आबादी सिरे से गायब है। खेत मजदूर, भूमिहीन किसानों के लिए इस आंदोलन में कोई जगह नहीं है। किसान आंदोलन ने उन्हें अपने से दूर कर रखा है और यह इस आंदोलन की एक बहुत बड़ी कमजोरी है। जो वर्ग किसी भी कृषि संघर्ष की मुख्य ताकत होना चाहिए, वही हाशिये पर नजर आ रहा है। दूसरी ओर यहां आढ़तिए उत्पीड़ित के रूप में और मसीहा के रूप में पेश किए जा रहे हैं। सच्चाई तो यह है कि आढतिया पूराने सूदखोर का ही नया रूप है। (आढ़तिये ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सामंती सत्ता के प्रतीक हैं) किसानों को मंडी में आढतियों की लूट से मुक्ति चाहिए थी लेकिन वर्तमान आंदोलन आढतियों के समर्थन, सहयोग से चल रहा है। ग्रामीण क्षेत्र के संकट को दूर करने के लिए जरूरत तो आमूलचूल बदलाव की है जो नए कृषि कानूनों को रद्द कर पैबंद लगाने से दुरूस्त नहीं होगी। असल में कृषि कानूनों के विरोध के नाम पर कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा आदि संसदीय पार्टियों के बीच चल रही नूरा कुश्ती को भी समझने की जरूरत है। साल 1991 से आज तक के तीस सालों के दौरान देश का प्रत्येक राजनीतिक दल कभी न कभी सत्ता में रहा है। विपक्ष में रहते हुए जो पार्टियां विदेशी कंपनियों का पुरजोर विरोध करती नजर आती हैं, वही सत्ता में आते ही चुप्पी की चादर ओढ लेती हैं। आज कांग्रेस इन कानूनों का विरोध करती नजर आ रही है लेकिन अगर कांग्रेस सत्ता में होती तो उसी ने इन कानूनों को लागू करना था क्योंकि कांग्रेस हो या भाजपा, या कोई और पार्टी आर्थिक नीतियां साम्राज्यवादियों के ही इशारे से चल रही हैं।
सार रूप में आढ़तियों व बड़े जमींदारों व धनी किसानों के सहयोग से चल रहा यह आंदोलन वर्गीय संरचना में कोई बदलाव नहीं करेगा। भूमि सुधारों के बिना , कृषि क्रांति के बिना भूमिहीनों, गरीब किसानों, खेत मजदूरों के जीवन में कोई बदलाव नहीं आएगा। लेकिन व्यापक जनमानस में प्रचंड साम्राज्यवादी हमले का प्रतिरोध करने की चेतना अवश्य पैदा करेगा और सत्ता के घमंड में चूर दिल्ली की सल्तनत को जनता की ताकत का अहसास दिलाएगा जो लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए बेहद जरूरी है।
1. ऐलान
यह पुस्तक एक बहादुर बोलीवियाई मजदूर औरत डोमितिला बारिओस डि चुन्गारा के जीवन संघर्ष की कहानी है। एक साधारण महिला की असाधारण कहानी। इस पुस्तक का अनुवाद अमिता शीरिन ने किया है जो बहुत ही आसान शब्दों में है और पाठक को बांधकर रखता है।
https://drive.google.com/file/d/19FRYwTxSJnhc_XPO43gJfj89pIXLU84h/view?usp=drivesdk
अभय वसीयत..!
*शर्मा जी,जाति को नहीं मानते*
प्रिय पाठकों, हम अभियान के सभी अंकों को धीरे धीरे करके ब्लॉग पर डाल रहे हैं। आप यहां से ये सभी अंक डाउनलोड कर सकते हैं। और अगर कोई समस्या आती है तो आप janaabhiyan@gmail.com पर मेल के माध्यम से संपर्क कर सकते हैं। धन्यवाद।
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उत्तर प्रदेश में कितनी सुरक्षित हैं दलित महिलायें ?
(रिपोर्ट के अनुसार देश में वर्ष 2019 में दलितों के विरुद्ध उत्पीड़न के कुल 45,935 अपराध घटित हुए जिन में से उत्तर प्रदेश में 11,829 अपराध घटित हुए जो कि राष्ट्रीय स्तर पर कुल घटित अपराध का 25.8 प्रतिशत है जबीकि राष्ट्रीय स्तर पर दलितों की आबादी 20.7% प्रतिशत है तथा यह 5% अधिक है......)
ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के राष्ट्रीय प्रवक्ता और आईपीएस - एस. आर दारापुरी (से.नि.) का विश्लेषण
हाल में राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो द्वारा क्राईम इन इंडिया- 2019 रिपोर्ट जारी की गयी है। इस रिपोर्ट में वर्ष 2019 में पूरे देश में दलित उत्पीड़न के अपराध के जो आंकड़े छपे हैं उनसे यह उभर कर आया है कि इसमें उत्तर प्रदेश काफी आगे है। उत्तर प्रदेश की दलित आबादी देश में सब से अधिक आबादी है जो कि देश की आबादी का 20.7% प्रतिशत है। रिपोर्ट के अनुसार देश में वर्ष 2019 में दलितों के विरुद्ध उत्पीड़न के कुल 45,935 अपराध घटित हुए जिन में से उत्तर प्रदेश में 11,829 अपराध घटित हुए जो कि राष्ट्रीय स्तर पर कुल घटित अपराध का 25.8 प्रतिशत है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर दलितों की आबादी 20.7% प्रतिशत है तथा यह 5% अधिक है। इस अवधि में राष्ट्रीय स्तर पर प्रति एक लाख दलित आबादी पर घटित अपराध की दर 22.8 रही जबकि उत्तर प्रदेश की यह दर 28.6 रही जोकि राष्ट्रीय दर से 6% अधिक है। इस प्रकार राष्ट्रीय स्तर पर दलित उत्पीडन के मामलों में उत्तर प्रदेश का 7वां स्थान है। यह भी उल्लेखनीय है कि 2016 की राष्ट्रीय दर 20.3 के मुकाबले में यह काफी अधिक है। इन आंकड़ों से एक बात उभर कर आई है कि उत्तर प्रदेश में दलित एवं दलित महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं क्योंकि दलित महिलाओं पर अत्याचार के मामलों की संख्या और दर राष्ट्रीय दर से काफी ऊँची है। अब अगर दलितों पर राष्ट्र तथा उत्तर प्रदेश में घटित अपराधों के श्रेणीवार आंकड़ों का विश्लेषण किया जाये तो स्थिति निम्न प्रकार है -
एससी/एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम(आईपीसी सहित) के अपराध :-
वर्ष 2019 में पूरे देश में इस अधिनियम के अंतर्गत 41,793 अपराध घटित हुए जबकि इसमें से अकेले उत्तर प्रदेश में 9,451 अपराध घटित हुए। इन अपराधों की राष्ट्रीय दर (प्रति 1 लाख आबादी पर) 20.8 थी जबकि उत्तर प्रदेश की यह दर 22.9 थी जोकि राष्ट्रीय स्तर पर घटित कुल अपराध का लगभग 22.6% है। इस प्रकार राष्ट्रीय स्तर पर इन अपराधों के मामलों में उत्तर प्रदेश का 6वां स्थान है जोकि काफी ऊँचा है।
हत्या :-
वर्ष 2019 में पूरे देश में दलितों की हत्यायों की संख्या 923 थी जिनमें अकेले उत्तर प्रदेश में 219 हत्याएं हुयीं। इस अपराध की राष्ट्रीय दर 0.4 के विपरीत उत्तर प्रदेश की दर 0.5 रही जो कि राष्ट्रीय स्तर पर घटित कुल अपराध का लगभग 24% है। राष्ट्रीय स्तर पर उत्तर प्रदेश का चौथा स्थान है। इससे स्पष्ट है कि दलित हत्यायों के मामले में उत्तर प्रदेश काफी आगे है।
महिलाओं पर लज्जाभंग के इरादे से हमला :-
इस अपराध के अंतर्गत पूरे देश में 3375 मामले घटित हुए जबकि अकेले उत्तर प्रदेश में 776 मामले रहे जोकि राष्ट्रीय स्तर पर घटित अपराध का 23%है। इस अपराध की राष्ट्रीय दर 1.7 थी जबकि उत्तर प्रदेश की यह दर 1.9 रही जो राष्ट्रीय दर से काफी ऊँची है।
महिलाओं को परेशान करने के इरादे से हमला (धारा 354 ए) :-
इसके अंतर्गत पूरे देश में 976 अपराध घटित हुए जबकि अकेले उत्तर प्रदेश में 226 मामले रहे जोकि कुल अपराध का 23% है। इस अपराध की राष्ट्रीय दर 0.3 थी जबकि उत्तर प्रदेश की यह दर 0.5 रही जो राष्ट्रीय दर से काफी ऊँची है।
महिलाओं को वस्त्रहीन करने के इरादे से बलप्रयोग (धारा 354 बी) :-
इस शीर्षक अंतर्गत पूरे देश में 266 अपराध घटित हुए जबकि अकेले उत्तर प्रदेश में 104 मामले रहे जोकि कुल अपराध का 39% रहा। इस अपराध की राष्ट्रीय दर 0.1 थी जबकि उत्तर प्रदेश की यह दर 0.3 रही जो राष्ट्रीय दर से काफी ऊँची है।
महिलाओं को अपहरण धारा 363, 369 IPC) :-
इस शीर्षक अंतर्गत पूरे देश में 916 अपराध घटित हुए जबकि अकेले उत्तर प्रदेश में 449 मामले रहे जोकि देश में कुल अपराध का 49% है। इस अपराध की राष्ट्रीय दर 0.5 थी जबकि उत्तर प्रदेश की यह दर 1.1 रही जो राष्ट्रीय दर से बहुत ऊँची है।
महिलाओं को अपहरण (धारा 363) :-
इसके शीर्षक अंतर्गत पूरे देश में 392 अपराध घटित हुए जबकि अकेले उत्तर प्रदेश में 196 मामले रहे जोकि देश में कुल अपराध का 49.5% है। इस अपराध की राष्ट्रीय दर 0.2 थी जबकि उत्तर प्रदेश की यह दर 0.5 रही जो राष्ट्रीय दर से बहुत ऊँची है।
अन्य अपहरण :-
इस शीर्षक अंतर्गत पूरे देश में 313 अपराध घटित हुए जबकि अकेले उत्तर प्रदेश में 176 मामले रहे जोकि देश में कुल अपराध का 56% है। इस अपराध की राष्ट्रीय दर 0.2 थी जबकि उत्तर प्रदेश की यह दर 0.4 रही जो राष्ट्रीय दर से बहुत ऊँची है।
महिलाओं का विवाह के लिए अपहरण (366) :-
वर्ष 2019 में पूरे देश में विवाह के लिए अपहरण के कुल 357 मामले घटित हुए जिन में से अकेले उत्तर प्रदेश में 243 अपराध घटित हुए जोकि देश में कुल अपराध का 68% है। इस अपराध की राष्ट्रीय दर 0.2 के विपरीत उत्तर प्रदेश की यह दर 0.6 रही जो कि पूरे देश में सब से ऊँची है।
बलात्कार (धारा 376) :-
वर्ष 2019 में पूरे देश में दलित महिलाओं के बलात्कार के 3,486 अपराध घटित हुए जिन में से अकेले उत्तर प्रदेश में 537 बलात्कार के मामले दर्ज हुए जोकि राष्ट्रीय स्तर पर घटित कुल अपराध का 15.4% है। यद्यपि इस अपराध की राष्ट्रीय दर 1.7 के विपरीत उत्तर प्रदेश की दर 1.3 रही है परन्तु यह भी सर्वविदित है कि पुलिस में ऊँची जातियों के खिलाफ बलात्कार का मामला दर्ज कराना कितना मुश्किल होता है जैसा कि हाल की हाथरस की घटना से स्पष्ट है। अतः बलात्कार के बहुत से मामले या तो लिखे ही नहीं जाते हैं या उनको अन्य हलकी धाराओं में दर्ज किया जाता है।
न्यायालय में सजा की दर :-
राष्ट्रीय स्तर पर न्यायालय में निस्तारित दलित उत्पीडन के मामलों की सजा की दर 32.1% के विपरीत उत्तर प्रदेश की यह दर 66.1% रही और इसका राष्ट्रीय स्तर पर दूसरा स्थान रहा। यद्यपि यह दर गुजरात की 1.8% की दर की अपेक्षा बहुत अच्छी कही जा सकती है परन्तु वर्ष के अंत तक विवेचना हेतु लंबित मामलों (50,776) की दर 95.4% है जोकि राष्ट्रीय दर 93.8% से ऊँची है, इस उपलब्धि को धूमिल कर देती है।
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि वर्ष 2019 में उत्तर प्रदेश में दलितों के विरुद्ध घटित कुल अपराध की दर राष्ट्रीय दर से बहुत अधिक है। इसमें दलितों के विरुद्ध गंभीर अपराध जैसे हत्या, लज्जाभंग/प्रयास, यौन उत्पीड़न, बलात्कार, अपहरण और विवाह के लिए अपहरण, गंभीर चोट, बलवा और एससी/एसटी एक्ट के अंतर्गत घटित अपराधों की दर राष्ट्रीय दर से काफी अधिक रही। इन आंकड़ों से एक बात उभर कर सामने आई है कि उत्तर प्रदेश में दलित महिलाओं के विरुद्ध अपराध जैसे बलात्कार, लज्जाभंग का प्रयास, अपहरण, यौन उत्पीड़न तथा विवाह के लिए अपहरण आदि की संख्या एवं दर राष्ट्रीय दर से काफी अधिक है। इससे यह स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार में दलित महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। यह देखा गया है कि उत्तर प्रदेश में हमेशा से दलितों पर होने वाले अत्याचार राष्ट्रीय दर से अधिक रहे हैं चाहे सरकार किसी की भी रही हो। इसका एक मुख्य कारण यह है कि उत्तर प्रदेश की सामाजिक राजनीतिक एवं आर्थिक संरचना सामंती रही है जिसमें इन वर्गों पर अत्याचार होना स्वाभाविक है। इस कारण यहाँ की प्रशासनिक व्यवस्था भी सामंती ही रही है जो हमेशा सत्ताधारियों के हुकम की गुलाम रहती है। आज़ादी के बाद भी उत्तर प्रदेश की सामाजिक, राजनीतिक तथा अर्थव्यवस्था का लोकतंत्रीकरण नहीं हो सका है। इसके विपरीत आज़ादी के बाद विकास की प्रक्रिया के अंतर्गत पूँजी का जो निवेश हुआ है उसने नये माफिया को जन्म दिया है जिसने सामंती ताकतों से गठजोड़ करके राजनीतिक सत्ता में अपना दखल बढ़ा लिया है। यह सर्वविदित है कि सामंती माफिया पूँजी के गठजोड़ की उपस्थिति सभी राजनीतिक दलों में रहती है और वे ज़रुरत के मुताबिक दल भी बदलते रहते हैं। इसी लिए सरकार बदलने के बाद भी उनकी राजनीतिक पकड़/पहुँच कमज़ोर नहीं होती। यही तत्व दलितों तथा अन्य कमज़ोर वर्गों एवं महिलाओं पर अत्याचार के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। उत्तर प्रदेश की यह भी त्रासदी है कि यहां पर सामंती-माफिया-पूंजी गठजोड़ के विरुद्ध बिहार की तरह (नक्सली तथा किसान आन्दोलन) ज़मीनी स्तर पर कोई भी प्रतिरोधी आन्दोलन नहीं हुआ है जिस कारण इन तत्वों को कोई चुनौती नहीं मिल सकी है। उत्तर प्रदेश की दलित राजनीति भी इन्हीं सामन्ती/पूँजी माफियायों का सहारा लेकर सत्ता का भोग करती रही है जिस कारण इन तत्वों की सत्ता पर कभी भी पकड कमज़ोर नहीं हुयी है। अतःउत्तर प्रदेश की राजनीति पर सामन्ती-माफिया-पूँजी की निरंतर बनी रहने वाली पकड जो भाजपा सरकार के अधिनायकवादी चरित्र के कारण और भी मज़बूत हो गयी है, दलितों पर राष्ट्रीय स्तर पर अधिक अत्याचार के लिए ज़िम्मेदार है। अतः उत्तर प्रदेश में दलितों पर होने वाले अत्याचार को रोकने के लिए राजनीति पर सामन्ती-माफिया-पूंजी गठजोड़ को तोड़ने के लिए जनवादी आंदोलनों को तेज़ करना होगा। यह काम केवल वाम-जनवादी लोकतान्त्रिक ताकतें ही कर सकती हैं न कि सत्ता की राजनीति करने वाली कांग्रेस, समाजवादी, भीम आर्मी और बहुजन समाज पार्टी एवं उनके नेता।
(साभार : जनज्वार. कॉम https://janjwar.com/vimarsh/how-safe-are-dalit-women-in-uttar-pradesh-637380)
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मोदी सरकार के तीन आध्यादेशः कृषकों की तबाही के दस्तावेज