Monday, 31 August 2020

आदिविद्रोही भाग - 1

 आदिविद्रोही - स्पार्टकस




संक्षिप्त रूपांतरण : डॉ० सुरेन्द्र 'भारती'



(यह उन बहादुर मर्दों और औरतों की कहानी है जो आजादी को, मनुष्य के स्वाभिमान को, दुनिया की सब चीजों से ज्यादा प्यार करते थे और उन्होंने अपनी जिन्दगी को हिम्मत और आन-बान के साथ जीया। मैंने यह सच्ची कहानी इसलिए लिखी कि जो भी लोग इसें पढ़ें, हमारे उद्विग्न भविष्य के लिए इससे ताकत पाएँ तथा अन्याय और अत्याचार के खिलाफ लड़ें, ताकि स्पार्टकस का सपना हमारे समय में सच हो सके।         - हावर्ड फास्ट)


कहानी 71 ईसा पूर्व में शुरू होती है-
[1]


एकाएक वहाँ पहुँचते ही हवा रुक जाती है, गर्मी की भयानक लहरें आकर तुम्हारी पीठ से टकराती हैं, समय अनन्त हो जाता है और स्थान दु:स्वप्र की एक विभीषिका, परन्तु  तुम हो कि इस जन-वन विहीन रेगिस्तान में से रास्ता बनाते हुए चलते जाते हो, चलते जाते हो। अब तो चलने में, साँस लेने में, देखने में और सोचने में, हर बात में डर मालूम होता है। धरती के इस नरक का नाम है -- नूबिया का रेगिस्तान -- जो कि मिस्र में है।
इसी भयानक रेगिस्तान में एक लम्बी जंजीर से बँधे एक सौ बाईस गुलाम आगे बढ़ रहे हैं। इन लोगों को यहाँ सोने की खानों में काम करने के लिए लाया जा रहा है। इनमें बारहवाँ आदमी थ्रेस का स्पार्टकस है। कैसा है यह आदमी? वैसे वह तेईस वर्ष का है, परन्तु उसके चेहरे पर इसकी कोई निशानी नहीं है। वह धूल से ढका हुआ है, काफी सख्त जान लगता है। और हो भी क्यों न, कोरू जो ठहरा। कोरू -- यानि कि गुलाम की औलाद की औलाद, जिसका जन्म और पालन-पोषण एक ऐसी प्रणाली में हुआ था जिसमें केवल वही बच पाते थे जो मजबूत और सख्त जान होते थे। उसके गले में पड़े काँसे के पट्टे से बने घावों के नासूर बन गए हैं। उसका चेहरा चौड़ा है, नाक टूटी हुई है और आँखें एक-दूसरे से काफी दूर होने के कारण उनमें भेड़ जैसा भोलापन दिखाई देता है।
हाँ, तो यह स्पार्टकस है। उसे अपने भविष्य के बारे में कुछ पता नहीं है और अतीत में उसके पास याद करने को कुछ नहीं है सिवाय कड़ी मेहनत और पीड़ाओं के। कभी भी उसके मन में यह विचार नहीं आया कि वे लोग -- जो कड़ी मेहनत करते हैं कभी और कुछ भी करेंगे, और न ही उसके मन में यह आया कि कभी ऐसा समय भी आएगा जब मेहनत से चूर आदमी की पीठ पर कोड़े नहीं पड़ेंगे। जब गले में जंजीर पड़ी हो तो सोचने को कुछ खास रहता भी नहीं है, सिवाए इसके कि अब मैं फिर कब खाऊँगा, कब पीऊँगा, कब सोऊँगा? इन्सानों को जब तुमने जानवर ही बना दिया हो, फिर वे फरिश्तों की बातें नहीं सोच सकते।
दिन खत्म होने को है, जंजीर में बँधे लोग एक चट्टानी दीवार के पास पहुँच जाते हैैं, तभी वे देखते हैं कि कुछ चीजेें चट्टानों में से रेंगती हुई बाहर आ रही हैं। स्पार्टकस सोचता है कि यह सब क्या है? हे भगवान ! मेरी मदद कर! परन्तु यहाँ भगवान नहीं है, उसका यहाँ क्या काम? और नजदीक पहुँचने पर उसकी समझ में आता है कि वे चीजें और कुछ नहीं, बल्कि उसके जैसे ही लोग हैं, जो पेट के बल घिसटकर चट्टानों  में से बाहर आ रहे हैं, जब से वे लोग यहाँ आये हैं, नहाए नहीं हैं, और न अब कभी नहाएंगे। वे या तो बच्चे हैं या बूढ़े, क्योंकि जवानी यहाँ ज्यादा देर नहीं ठहरती। वे नंगे हैं, बिल्कुल नंगे। मकडिय़ों की तरह दुबले-पतले बच्चों के चेहरे चलते समय दर्द से फड़कते हैं। ये बच्चे कभी बड़े नहीं होते और यहाँ आने के बाद ज्यादा-से-ज्यादा दो साल तक जीवित रह पाते हैं।  यह सब देखकर उसका पत्थर हो चुका हृदय भय और पीड़ा से कराह उठता है।
स्पार्टकस वाली टोली को भी उसी बैरक में धकेल दिया जाता है जिसमें बाकी गुलाम रहते हैं। उसमें रोशनी के लिए केवल दो दरवाजे हैं। उसे कभी साफ नहीं किया गया, दसियों सालों से गन्दगी उसके फर्श पर सड़कर कड़ी पड़ती गई है। दरोगा लोग कभी उसके अन्दर नहीं जाते। जब कोई मर जाता है तो गुलाम उसके शरीर को बाहर ले आते हैं और कभी-कभी जब कोई नन्हा बच्चा मर जाता है और किसी का ध्यान उस पर नहीं जाता तो उसके शरीर के सडऩे से आने वाली बदबू से ही पता चल पाता है कि वह बच्चा अब नहीं है -- ऐसी जगह है यह बैरक।
स्पार्टकस भी अपना खाना-पानी लेकर बैरक में घुस जाता है, सडाँध के बफारे उसे झंझोड़ डालते हैं। मगर कहीं कोई बदबू से भी मरता है? वह कै करके अपने पेट का खाना खराब नहीं करेगा। वह खाने का एक-एक दाना चट कर जाता है। खाने का संबंध भूख से नहीं है, खाना प्राणरक्षा का उपाय है। फिर वह सोने के लिए लेट जाता है और बचपन की स्मृतियों में डूब जाता है -- वह चीड़ के पेड़ों के नीचे बैठा है और एक बहुत ही बूढ़ा आदमी उसे पढऩा-लिखना सिखा रहा है। वह कहता है -- ''पढ़ो, सीखो मेरे बच्चे! ज्ञान ही हम लोगों का हथियार है।" और तभी उसकी आँखें नींद में डूब जाती हैं।
सुबह नगाड़े पर चोट पड़ते ही उसकी आँख खुल जाती है, अभी काफी ठण्ड है परन्तु गुलामों के शरीर पर एक चिन्दी भी नहीं है, वे ठण्ड से काँप रहे हैं। स्पार्टकस को क्रोध कम ही आता है, क्योंकि वह जानता है कि इससे कोई हल निकलने वाला नहीं है, मगर फिर भी वह सोचता है कि हम सब कुछ सह सकते हैं परन्तु यह असहनीय है कि हमें तन ढकने को एक कपड़ा भी न मिले।
सूरज निकल रहा है, उन्हें जंजीरों से बाँध दिया जाता है। ठण्डक खत्म हो चुकी है, उन्हें चट्टान की वह जगह दिखा दी जाती है जहाँ खुदाई करनी है, सोना निकालना है।
सूरज अब आसमान पर चढ़ आया है। हर घण्टा बीतने पर ऐसा महसूस होता है जैसे हथौड़े का वजन एक सेर बढ़ गया हो। और यहाँ, जहाँ पानी इतना अनमोल है स्पार्टकस को पसीना आने लगता है। वह अपनी पूरी इच्छाशक्ति से चाहता है कि पसीना रुक जाए। प्यास एक हिंसक वन्य पशु के समान आगे बढ़ रही है, ये नूबिया की सोने की खानें हैं......। दोपहर होने तक गुलामों की काम करने की शक्ति चूकने लगती है, तब दरोगा के हाथ का कोड़ा अपना कमाल दिखाता है। उसमें ऐसी खूबी है कि वह आदमी के शरीर में से तानें निकाल सकता है। और ऐसा एक दिन अनन्त होता है, तथापि प्रकृति के नियमानुसार इसका भी अन्त होता है।
स्पार्टकस हथौड़ा रखकर अपने लहूलुहान हाथों को देखता है, तभी अठारह साल का एक लड़का लडख़ड़ाकर गिर जाता है, वह उसके पास जाता है और उसका माथा चूम लेता है परन्तु उसे मरता देखकर भी रो नहीं पाता। यह है वह नरक -- जहाँ स्पार्टकस जिन्दा रहने के लिए संघर्ष कर रहा है। इस जगह की एक और खूबी भी है -- यह देखते-देखते गुलाम के हृदय से इस लालसा को निकाल फेंकती है कि वह फिर से मनुष्यों की दुनिया में प्रवेश कर सकेगा। अपनी इस निराशा में वे कुछ भी कर सकते हैं। यही निराशा है जो उन्हें जान पर खेल जाने को प्रेरित करती हैै। ऐसे में जब स्पार्टकस जैसा कोई विचारशील आदमी भी गुलामों के बीच में हो तो खतरा और भी बढ़ जाता है। इसलिए ऐसे खतरनाक लोगों को फौरन खत्म कर देना जरूरी हो जाता है। इसका एक आसान-सा तरीका है उन्हें किसी लानिस्ता को बेच देना। और स्पार्टकस को भी बाटियाटस नाम के लानिस्ता को बेच दिया जाता है।

[2]

पिछले कुछ सालों से गुलामों के प्रति लोगों का दृष्टिकोण बिल्कुल बदल गया था। बहुतों ने उन्हें मानवता के अधिकांश तत्वों से वंचित कर दिया था। उनको और जानवरों को एक ही समझा जाने लगा था, कई मायनों में तो जानवर भी उनसे बेहतर थे। मनोरंजन के लिए गुलामों को लड़वाना एक फैशन-सा बन गया था।
इसी तरह एक दिन दो नौजवान उस अखाड़े में आते हैं जहाँ स्पार्टकस भी एक ग्लैडिएटर है,  वे दो जोड़ों की लड़ाई का प्रस्ताव रखते हैं, इस शर्त के साथ कि लड़ाई का खात्मा एक की मौत के साथ ही होगा। इसके लिए ड्राबा नामक एक हब्शी को, डेविड नामक यहूदी तथा स्पार्टकस व पोलेमस नाम एक अन्य थ्रेसियन को चुना जाता है।
लड़ाई शुरू होने वाली थी, ग्लैडिएटर एक जगह बैठे इंतजार कर रहे थे। उन्हें कोई खुशी न थी। हब्शी अपनी पुरानी यादों में खोया हुआ अपने घर, पत्नी तथा बच्चों को याद कर रहा था तथा उस जिल्लत भरी, जानवरों से भी बदतर जिन्दगी के बारे में भी सोच रहा था, जिसे जीने के लिए उसे अपने ही साथियों को मारना पड़ता था और अब स्पार्टकस को मारना पड़ेगा, उस स्पार्टकस को -- जिसकी वह सबसे ज्यादा कद्र करता है। इसीलिए तो कहा गया है कि 'ग्लैडिएटर कभी दूसरे ग्लैडिएटर से दोस्ती न करे।' अब तक सभी गुलाम जान चुके थे कि कैसे जोड़ बने हैं, उन्हें परिणाम भी मालूम था कि पोलेमस मारा जाएगा तथा स्पार्टकस मारा जाएगा।
हब्शी ने धीरे से स्पार्टकस से कहा, ''साथी, मैं बहुत अकेला हूँ, अपने घर से बहुत दूर हूँ, मुझ में अब जीने की इच्छा नहीं है,  मैं तुम्हें नहीं मारूँगा।"
स्पार्टकस जवाब देता है, ''गुलाम की जिन्दगी की अकेली खासियत यही होती है कि वह जिन्दा रहे।"
नगाड़ा बजने लगा, पोलेमस और यहूदी दोनों ने अपने-अपने लबादे गिरा दिये। दोनों नंगे बदन अगल-बगल मैदान में निकल आए।
हब्शी को कोई दिलचस्पी न थी, वह मौत को वर चुका था, वह अपनी स्मृतियों में खोया हुआ बैंच पर झुका बैठा था और उसका सिर उसके हाथों पर टिका था। वह धागा टूट चुका था जो उसे जिन्दगी से बाँधे था। परन्तु स्पार्टकस का सत्त जिन्दगी थी। उसने देखने के लिए उठकर दरार में अपनी आँख लगा दी।
पहले दोनों लड़ने वालों पर उसकी आँखें टिकी रहीं, परन्तु ज्यों-ज्यों वे आगे बढ़ते गए उनका आकार छोटा होता गया और वे शानदार खेमे के नीचे बैठे उन शक्तिशाली लोगों के सामने जाकर खड़े हो गए, जिन्होंने उनकी जिन्दगी और मौत खरीदी थी। इसी समय स्पार्टकस के मन में इस अमानवीय कृत्य के खिलाफ वे सभी विचार आए जो कभी न कभी एक आदमी की जिंदगी में जरूर आते हैं।
यहूदी और थ्रेसियन के हाथों में छुरे पकड़ा दिए गए। अब वे इन्सान नहीं बल्कि एक दूसरे के खून के प्यासे जानवर बन चुके थे। वे एक दूसरे पर भयंकर हमले कर रहे थे। अचानक जैसे ही थ्रेसियन ने पूरा जोर लगाकर वार किया, यहूदी ने वार बचाते हुए उसे ऊपर उछाल दिया और इससे पहले कि थ्रेसियन जमीन पर गिरे, मौत उसके सिर पर आ चुकी थी और ताबड़-तोड़ वार कर रही थी। इतने पर भी वह नौजवान अपनी जान बचाने के लिए पागलों की तरह लड़ रहा था। आखिरकार थ्रेसियन उठकर खड़ा हो गया तथा लडख़ड़ाते हुए यहूदी को अपने से दूर रखने के लिए हवा में छुरा चलाने लगा। परन्तु यहूदी उससे दूर खड़ा रहा और उसने पास पहुँचने की कोई कोशिश नहीं की। इसकी जरूरत भी न थी क्योंकि थ्रेसियन मौत के बाण से बिंध चुका था और तेजी से मर रहा था।
आखिर रोमन तंद्रा से जागकर चीखे, ''मारो, मारो !" परन्तु यहूदी अपनी जगह से नहीं हिला, उसने अपना छुरा रेत पर फेंक दिया था और सिर झुकाए खड़ा था। रोमन चीख रहे थे। यह देखकर अखाड़े का उस्ताद कोड़ा लेकर यहूदी पर टूट पड़ा। इसी बीच दर्द से चीखता थ्रेसियन मुंह के बल गिर पड़ा। उस्ताद ने कोड़े बरसाने बन्द कर दिए। उधर हब्शी भी दरवाजे के पास आकर खड़ा हो गया था।
सिपाही थ्रेसियन के पास पहुँचे। एक ने अपने भारी हथौड़े से उसकी कनपटी पर कस कर चोट की जिससे उसकी खोपड़ी चूर-चूर हो गई तथा फिर भेजे से सने हथौड़े से दर्शकों को सलाम कर चला गया।
आदमी की जिन्दगी के प्रति यह कठोरतम उपेक्षा देखकर हब्शी बोला, ''स्पार्टकस, मैं तुमसे नहीं लडूँगा।"
''अगर हम नहीं लड़ते तो दोनों मारे जाएंगे।" स्पार्टकस ने कहा।
''तो तुम मुझे मार डालो, मेरे दोस्त! पर मैं तुमसे नहीं लडूँगा। मेरा दिल उन लोगों के लिए तड़फ रहा है जो मुझ से प्यार करते थे।"
इतने में दोबारा नगाड़ा बजने लगा, हब्शी और स्पार्टकस जाकर अखाड़े में खड़े हो गए। दोनों को उनके हथियार पकड़ा दिए गए। और तब अपना त्रिशूलनुमा हथियार हाथ में आते ही हब्शी जैसे पागल हो गया तथा बड़े ही हिंसक तरीके से खेमे की तरफ बढ़ा। उस्ताद ने उसका रास्ता रोकने की कोशिश की तो उसने उसे त्रिशूल की नोंक पर उठा लिया और अखाड़े की मजबूत बाड़ को कागज की तरह नोंचकर फेंक दिया, यह देखकर सिपाहियों ने उसे भालों से बींध दिया, पर वह अपनी आखिरी साँस तक खेमे की तरफ बढ़ता रहा और जब वह गिरा, उसका त्रिशूल उस मंच को छू रहा था, जहाँ रोमन दहशत के मारे सिमटे बैठे थे।
इस पूरी घटना के दौरान स्पार्टकस हिला तक नहीं, उसने अपना छुरा जमीन पर फेंक दिया था और बिना हिले-डुले खड़ा रहा।


(कल अगला भाग पढ़ना न भूलें। साथियों, यह एक लंबी कहानी है जिसे हम पाठकों की सुविधा के लिए तीन भागों में दे रहे हैं। तीन दिन, तीन भाग।)

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