Friday, 7 August 2020

कविताएं




वरवर राव के लिए-2

(प्रो. वरवरा राव व तमाम राजनीतिक बंदियों की रिहाई की मांग करते हुए हमने पहले भी प्रो. वरवरा राव के लिए लिखी गई कविताओं को प्रकाशित किया है। आज फिर से इस दौरान प्रो. वरवरा राव के पक्ष में लिखी गई 11 कविताओं को हम प्रकाशित कर रहे हैं। सभी कविताएं फेसबुक से साभार ली गई हैं। - संपादक मंडल)

1. वरवर राव के लिए

वो कविताओं में उतर कर
क्रांति के बीज बोता है,
वो कविता लिखता भर नहीं
उसे जीता भी है,
कविता के स्वप्न को
जमीन पर बोता भी है
वो सिर्फ कवि नहीं
क्रांतिकारी कवि है।

कहते हैं
कवि कैद हो सकता है
कविता आज़ाद होती है,
कवि मर जाता है
कविता ज़िंदा रहती है
और समय के दिलों में धड़कती रहती है।
लेकिन वह सिर्फ कवि नहीं है
कविता बन चुका है।
कविता बन समय के दिलों में धड़क रहा है।

गौर से देखो
सत्ता के निशाने पर
सिर्फ कवि नहीं
कविता भी है।
जेल के भीतर ही कविता की 
हत्या की सुपारी दी जा चुकी है
समय का दिल खतरे में है।
ऐसे समय से निकलने की राह
उसने ही बताई है -
'कविता सिर्फ लिखो मत
उसे जिअो भी,
कविता के स्वप्न को
जमीन पर बोओ भी,
कविता में उतर
क्रांति के बीज को बोओ भी।'

                                     (-सीमा आज़ाद)


2. कवि और सरकारें

1.
सरकारें नंगी-भूखी प्रजा से नहीं डरतीं 
सरकारें खा-खाकर तोंद फुलाए सेठों से भी नहीं डरतीं
सरकारें पढ़े लिखे नौजवान अफसरों से नहीं डरतीं
सरकारें पुलिस, कचहरी, न्यायाधीशों से नहीं डरतीं
सरकारें पाकिस्तान-चीन की सेनाओं से नहीं डरतीं
सरकारें करोड़ों करोड़ बेरोजगार युवाओं से नहीं डरतीं 
लेकिन सरकारें डर जाती हैं कवियों से।

सरकारें क्यों डर जाती हैं कवियों से?
वो तो सिर्फ गरीबों के दुःख लिखता है पन्नों पर
वो तो सिर्फ भूखे नंगों के चित्र बनाता है शब्दों से
वो तो सिर्फ शोषण की दास्तान सुनाता है समय को
वो तो धरना प्रदर्शन जुलूस भी नहीं निकालता
सरकारों के ख़िलाफ़
फिर भी सरकारें डर जाती हैं कवियों से
सरकारें क्यों डर जाती हैं कवियों से?

जेलों में यातना सहता
80 साल का वृद्ध कवि मुस्कुराता है
सरकारें डर जाती हैं
अपने बच्चों के दुखों से बेपरवाह
कवि गुनगुनाता है कुछ शब्द
सरकारें डर जाती हैं.
सरकारें क्यों डर जाती हैं कवियों से?

2.
सरकारें सदियों से डरती रही हैं कवियों से
इसीलिये सरकारों ने बनाई हैं साहित्य अकादमियां 
कवि आवार्ड के लिए दिल्ली तक पहुँच जाते हैं
कवि फिर दुःख के गीत नहीं गाते
राजाओं की लीलाओं के नयनाभिराम चित्र उकेरते हैं 
कवि जीवन के सौन्दर्य बखानते हैं
कला के गीत गाते हैं
राजाओं की अगवानी में शब्दों के हार बनाते हैं कवि
कवि रानियों के लिए प्रेम गीत लिखते हैं
उनके बच्चों के लिए लोरियां गाते हैं
उनके भाषणों में जनता के लिए राहतों के शब्द लिखते हैं कवि।

फिर वो कौन कवि है
जो अब भी गरीबों-शोषितों-पीड़ितों के दुःख लिख रहा है
अपनी कविताओं में?

                                     
                                                 (-धनंजय कुमार, मुम्बई)




3. अगर तुम कायर नहीं हो तो

कवि जेल में बंद है
क्योंकि
कवि से सरकार डरती है
उसे रिहा करने से हिल जाती है
सरकार की दुनिया
कवि बूढ़ा हो या हो बीमार तो भी
उसकी हुंकार से
सरकार सिहरती है!

कवि के शब्द तुम्हारी कैद में नहीं आने वाले 
कवि के कथन तुमको सदियों सोने न देंगे 
कवि के विचार तुम्हारे विरुद्ध युद्ध के लिए
निमंत्रित करेंगे कोटि-कोटि जन को
कवि के शब्द बेधते रहेंगे
तुम्हारे कुटिल तंत्र को!

एक कवि को तुम मार सकते हो
लेकिन उसकी मौत भी कविता बन
तुम्हारे पराभव के गीत गाएगी
उसकी कविता को
तुम्हारी जेल भी कैद नहीं कर पाएगी!

उसके शब्द षड्यंत्र हैं तुम्हारे लिए
उसके विचार विद्रोह हैं तुम्हारे लिए!
उसका जीवन विद्रोह है!

विरुद्ध कवियों कि कतार बढ़ती जा रही है
विरुद्ध कविता तुम्हारे अंत के गीत गा रही है!

वरवरा राव को रिहा करो!
अगर तुम कायर नहीं हो तो!

                                            
                                                          (-बोधिसत्व, मुंबई)


4. कवि का पक्ष और संघर्ष

जहर का प्याला
और सच 

ज़िन्दगी  का गीत
और  दंड

मौत का खौफ
और लक्ष्य

कवि का पक्ष
और संघर्ष

लाल सलाम का नारा
और भींचे मुट्ठी ताने वरवर ....!

'सिले होठों के सेनापति'
आँखो से  कभी
ओझल नहीं होते ...!


                                             (-देवेंद्र कुमार)



5. डर


क्या आप जानते है
डर किसे कहते हैं?
जब हमारे कवि ने
कविता लिखी
और कविता से ही
उखड़ने लगे सत्ता के पोल
तब हमने देखा
सत्ता में डर
और उन्होंने उन्हें पकड़ने का
कर दिया फरमान जारी।

जब हमारे कवि ने
जेल जाकर भी
मुस्कराना नहीं छोड़ा
तब वे डरे
इतना डरे
कि उन्हें
नहीं दिया बेल
वे इतना डरे
कि बेल के नाम से ही
थर्र थर्र कांपने लगे।

जब जेल में रहकर भी
हमारे कवि
हमारे दिलों तक पहुंच गए
और बाहर के आबोहवा में
तैरने लगी उनकी कविता
जब उस कवि और कविता के लिए
उठने लगी आवाज
वे और डरे
बढ़ा दिया पहरा इतना
कि न बाहर की हवा
अंदर जा सके
न अंदर की बाहर
और संपर्कविहीन रहे
अंदर बाहर की दुनिया ।।

वे आज भी डरे हुए है
बेहद डरे हुए
जहाँ कोरोना के नाम पर
पैरोल पर कैदियों को
छोड़ने की निकली नोटिस
विचाराधीन और जनकवि
और अस्सी साल के वृद्ध
होने के बावजूद
बढ़ाए गये उनके पहरे 
कोराना के डर की संभावना की
अपील भी कर दी गयी रद्द
और एक दिन
उनके ही पहरे के अंदर
उनकी लापरवाही को
उजागर करती महामारी ने
जकड़ लिया उन्हें
तब बेहद खराब अवस्था में
पहुंचा दिया गया उनका स्वास्थ्य
एक बेशर्म व्यवस्था के तहत ।।

वे इतने डरे  कि
तब भी नहीं करते
इलाज का उचित बंदोबस्त
उनके इसी तरह
मार डालने की
साजिश के साथ।।

उनके जिंदा रहने का खतरा
उन्हें वैसा ही हो रहा महसूस
जैसे चंद्रशेखर आजाद ,
भगत सिंह...
की जिंदगी से
अंग्रेज को हुआ था।।

आज बेहद खराब हालात पर भी
वे उनके इलाज से
कन्नी काटना चाहते हैं
क्योंकि वे बेहद डरे हुए है 
जब कवि लिखता है
मैंने बम नहीं बांटे
वे और भी डर जाते है

आज यदि हम कह दें उन्हें
नालायक अब क्या डरते हो
इस अवस्था में पहुंचाकर
कि उन्हें अपना सुध भी नहीं
तो हमारा यह कहना गलत होगा
सच याद तो रखनी है
कि वे एक जनकवि है
और उनके साथ
इस अवस्था में
पहुंचाने वाले से
जनता एक दिन
अपना हिसाब जरूर करेंगी।।

जब वे डरते है इस बात से
कि कवि ने बम नहीं बांटे
तो उनका डर सच है
वे भी जानते है
बम को डिफ्यूज
किया जा सकता है
क्रांतिकारी  विचार को
डिफ्यूज करना
कठिन ही नहीं
नामुमकिन है   ।।


                             (-इलिका प्रिय)



6. उसकी बराबर वाली कोठरी में एक बूढा कवि बंद है


जंगल में अभी भी उतनी ही हरियाली है
घने जंगल में अभी अभी बारिश बंद हुई है
अभी भी पत्तों से बूंदें टपक रही हैं
जंगल के बीच बसे गाँव में मिट्टी के खपरे वाले घर से अभी भी धुआं निकल रहा है
घर के सामने छोटा बच्चा अभी भी खेल रहा है
भात पकने के बाद बच्चे को मिलेगा यह उम्मीद अभी भी बाकी है

उधर बहुत बड़े शहर में एक अडानी इस जंगल का सौदा कर रहा है
उसके सूटकेस में कागज के नोटों के बंडल हैं
एमएलए और मंत्री लार टपका रहे हैं

उधर दिल्ली में दो खूनी बैठ कर अडानी के पाँव दबा रहे हैं
इधर एक जख्मी औरत अडानी को रोकने के लिए पूरी ताकत लगा रही है
इधर वर्दी पहने एक कानून का रखवाला अडानी के लिए उस औरत को मारने की योजना बना रहा है

उधर दूर किसी जेल में एक कानून जानने वाली औरत बंद है
उसकी बराबर वाली कोठरी में एक बूढा कवि बंद है
उससे अगली कोठरी में जनता को प्यार करने के जुर्म में शरीक कई सारे लोग जमीन पर लेटे हुए हैं
एक मास्टर भी जमीन पर घिसट रहा है क्योंकि उसके पाँव बेजान हो चुके हैं
एक वर्दी वाला जो दोनों खूनियों की खूनी की कहानी जानता है वह भी उदास बैठा है

शहर में लोग अपने बनाए हुए पकोड़ों के फोटो शेयर कर रहे हैं

इधर जंगल में लोग भात की पतीली बचाने के लिए अपनी लड़ाई लड़ने की योजना बना रहे हैं

कुछ लोग सातवें आसमान में बैठे किसी ईश्वर का इन्तजार कर रहे हैं

कुछ लोग इसे बदलने की कोशिश कर रहे हैं


                                                                             (-हिमांशु कुमार)



7. मैं सत्ता से कवि की मुक्ति की मांग को खारिज करता हूं!


(कैद कवि वरवर राव के लिए)
मेरे पास कोई कविता नहीं जिससे
एक कवि को कैद से छुड़ा लाऊं
मेरे पास ऐसे कोई शब्द नहीं जिनसे
मैं रोटी बना पाऊं
या कोटि कोटि जन के
दुःख मिटाने वाले मंत्र बना पाऊं
मेरे पास ऐसे कोई अक्षर नहीं जिससे मैं
एक विलाप को गायन में बदल पाऊं!

कवि को कैद में रहने दो?
भूख को बने रहने दो?
विलाप को गायन क्यों बनाना?
दुःख मिटाने के लिए उठाओ शब्द नहीं कुछ और
कुछ और कुछ और!

मैं कविता शब्द और
अक्षर के दुःख और सुख जानता हूं
मैं कवि की कैद को कविता की जय मानता हूं
वे हथकड़ियां पराजित हैं
जो कवि को बंधक बनाया करती हैं

सृष्टि में भूख और रुलाई
सत्ता के मृत होने के संकेत हैं
हर आंसू शासक की मृत्यु है
हर यातना हर क्रूरता!

एक उदास तिनका यदि इच्छा के विपरीत जलाया जाए तो यह अग्नि की क्रूरता है!
एक उदास अक्षर एक शब्द यदि एक अपनी इच्छा के विपरित प्रशस्ति पत्र में जोड़ा जाए तो यह
संसार के हर शब्द की पराजय है!

यह एकदम जरूरी नहीं कि सत्ता अपनी पराजय की घोषणा करे स्वयं
वह अपनी हार की मुनादी करे और बताए कि वह हार चुकी है लोगों!
यह एकदम जरूरी नहीं कि वह एक कवि से भी स्वीकार करे अपनी हार?

हारी हुई सत्ता
आंसू की बूंदों में अपने प्रतिबिंब देख कर डरती है
हर पराजित राज्य भूख को भूल जाने के मंत्र खोज लेने की मुनादी करता ही है बार बार!

लेकिन वह हर आंसू के साथ मरता ही है!

मैं कवि को रिहा करने की मांग नहीं करता
किसी तानाशाह से
किसी सत्ता से कुछ भी मांगना
मुझे स्वीकार नहीं!

वह जो दे सकता है वह दे चुका है कवि को
वह जो दे सकता है दे रहा है विदूषक!

उससे पाने कि उम्मीद भी क्यों?
उससे मुक्ति की बात करो
उससे क्यों छुड़ाना कवि को याचना करके?
उससे आंसू और यातना के नए अर्थ क्यों पूछना?

कवि कैद में है
यह याद रहे तो भी सत्ता की पराजय है
कवि से सत्ता परेशान है यह याद रखना भी
कविता की जीत है!

उस इमारत को देखो
उसमें कवि नहीं
एक पराजित सत्ता कैद है
उस कवि को याद रखो
उसकी कविता को मंत्र बनाओ
आओ लोगों सत्ता को याद दिलाओ
कि एक बीमार कवि की कैद में है
एक पूरी सत्ता!

मेरे पास कोई कविता नहीं
जिससे कवि की रिहाई संभव हो
मैं ऐसे शब्द और अक्षर हीन हूं
मैं सत्ता से कवि की मुक्ति की मांग को खारिज करता हूं!


                                                      (-बोधिसत्व, मुंबई)



8. वे भयग्रस्त हैं किताबों से


किताबों में
न कोई बम है
न कोई पिस्तौल
और न तेज धार वाला कोई चाकू
फिर भी
वे भयभीत हैं
उन किताबों से
जिनमें सपने हैं
बहुसंख्यक जन की आजादी और खुशी के
और जो
ऐसे सपनों को पूरा करने का
बताती हैं रास्ता...
इसीलिए
उन्हें तलाश है
इन्हें लोगों तक पहुँचाने वालों
पढ़ने वालों
सपने देखने वालों
और सपनों को सच में बदलने के लिए संकल्पबद्ध
सिरफिरों की...
लेकिन
उन्हें कुचल देने की तमाम कोशिशों के बावजूद
छोटे पड़ जा रहे हैं उनके हाथ
और दिन प्रतिदिन
बढ़ती ही चली जा रही है तादाद
सपने देखने वालों की
और उन्हें सच में बदलने वालों की...


                                                                    (-हितेश संगीता शांतिलाल)


9. वरवर राव


वरवर राव का कलम तोड़ने की
कई कोशिशें की जुल्मत के तख्तनशीनों ने
हर बार और ही निखरती गई उसकी आवाज

बंद करते हो उन्हें बार बार
कलम की जगह बंदूक उठाने के आरोप में
क्योंकि तुम डरते हो उनके कलम से गढ़ी कविता की धार से

क्योंकि लिखता है उनका कलम सदा ही सदाकत
होने से कमजोर दिमाग की आंखें
तुम्हें सदाकत में दिखती है जुल्म के मातों की बगावत

कलम जब्त कर उसे बंदूक बना देते हो
सशस्त्र तख्ता पलट का मुकदा लाद देते हो
मार भी डालोगे यदि वरवर राव को

आवाम पर आजमाई अपनी  बर्बरता से
कलम लिखता रहेगा सदाकत के तराने
आवाम की जंगे आजादी के गाने

हरावल दस्ता बन जाएगी कविता
निकल पड़ेगा जो ले मशालें शब्दों का
चकनाचूर कर देगा
धनपशुओं की खिदमत में
मुल्क को गुलाम बनाए रखने का तुम्हारा मंसूबा

तोड़ देगा समाज को टुकड़े-टुकड़े करने का तुम्हारा इरादा
जाति-धर्म के नाम पर

बनी रहेगी शब्दों के मशालों की निरंतरता
जुल्मतों के तुम्हारे निजाम के खात्मे तक
चप्पे चप्पे में इंकलाब के नारे गूंजने तक
इंकलाब जिंदाबाद
जिंदाबाद जिंदाबाद।



                                                (-ईश मिश्रा)



10. इंकलाबी कवि


इंकलाबी कवि होने के लिये 
यह ज़रूरी नहीं होता कि आप कितने वजनदार ,
कितने सख्त, कितने सुन्दर उपमा, अलंकारो से भरे हुए लिखे,
इंकलाबी कवि होने के लिये यह ज़रूरी है कि 
आपने जो लिखा उसके लिये आपने खुद कितना सहा .....
कितना किया ......
इंकलाब सिर्फ कविता नहीं .
सो इंकलाबी कवि भी कैसे सिर्फ 
कविता से कोई हो सकता है ..... ..


                                                      (-देवेंद्र कुमार)


11. क़ैद में कवि 


कहाँ कैद कर पायीं हैं एक कवि को 
जेल की सलाखें 

सरकारें उसे कैद करती हैं 
वह भाषा का हथियार भाँजते हुए निकल आता है 
अपनी देह के बाहर 
और किसी पूर्व चेतावनी की तरह 
फैल जाता है जनता के हृदयों में 

सरकारें कैद करती हैं
कवि बड़ा हो जाता है 
सरकारें हत्या करती हैं
कवि और बड़ा हो जाता है 

मूर्ख सरकारें एक देह को कैद करती हैं 
और सोचती हैं कवि को कैद कर लिया 

भला कौन बाँध पाया है पानी 
भला कौन भेद पाया है दिशाएँ 
भला कहाँ कैद कर पायीं हैं कवि को 
जेल की सलाखें । 


                                                  (-विहाग वैभव)

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