Sunday, 9 August 2020

नवयुवकों से दो बातें - 2

 गंताक से आगे........


नवयुवकों से दो बातें

प्रिंस क्रोपाटकिन


3. वकील


अब हम तीसरी कल्पना पर विचार करते हैं। मान लो, तुमने कानून की परीक्षा पास की है और वकालत का पेशा आरंभ करने वाले हो। संभवतः तुम्हें अपने भविष्य के कार्यक्रम के संबंध में भ्रमपूर्ण धारणाएं होंगी। मैं मानता हूं कि तुम एक श्रेष्ठ विचार वाले व्यक्ति हो और परोपकार का महत्त्व भी अच्छी तरह समझते हो। शायद तुम सोचते होगे कि ‘‘मैं जीवन-भर सब प्रकार के अन्याय का लगातार और बलपूर्वक विरोध करता रहूंगा। अपनी समस्त योग्यता कानून की विजय के लिए खर्च करूंगा। जनता के सामने सर्वोच्च न्याय का आदर्श उपस्थित करूंगा। क्या कोई पेशा इससे श्रेष्ठ हो सकता है?’’ इस प्रकार तुम अपने और अपने पसंद किये हुए पेशे के भीतर विश्वास रखते हुए जीवन-क्षेत्र में प्रवेश करते हो।
बहुत अच्छा, हम अदालती रिपोर्टों के पन्ने उलटकर इस बात की जांच करते हैं कि वास्तविक स्थिति क्या है?
अदालत के सामने एक मालदार जमींदार आता है। वह एक झोंपड़ी में रहने वाले किसान को कर्ज अदा न करने के कारण जमीन से बेदखल कराना चाहता है। कानून की दृष्टि से मुकदमे में किसी प्रकार की उलझन नहीं है, क्योंकि जब गरीब किसान कर्ज नहीं चुका सकता, तो उसे जमीन पर से कब्जा छोड़ देना चाहिए। पर अगर हम इस मामले में वास्तविक घटनाओं की जाँच करते हैं, तो हमें कुछ और ही पता चलता है। जमींदार अपनी आमदनी को ऐश-आराम के कामों में खुले हाथों बरबाद करता रहा है और किसान को उम्र भर हर रोज सख्त काम करना पड़ा है। जमींदार ने अपनी जमींदारी की उन्नति के लिए किसी तरह की कोशिश नहीं की, तो भी दस वर्ष के भीतर उसकी जमीन का दाम पहले से कई गुना हो गया है। जमीन का दाम बढ़ने का कारण है, एक नई रेलवे लाइन का बनना, या किसी बड़ी सड़क का पास से होकर निकल जाना, या दलदल को सुखाकर सूखी जमीन बना लेना, या ऊसर जमीन को खेती के लायक बनाना, इत्यादि। पर जिस किसान ने अधिकांश में इस सारी उन्नति के लिए परिश्रम किया, उसे इससे कुछ फायदा नहीं हुआ। वह बरबाद हो गया, साहूकारों के फंदे में फंसकर गले तक कर्ज में डूब गया और अब उसमें कर्ज अदा करने की भी सामर्थ्य नहीं रही। कानून सदा जायदाद वाले के पक्ष में रहता है। उसका अर्थ स्पष्ट है, और उसके अनुसार जमींदार न्याय पर है, पर तुम्हारा न्याय का भाव अभी कानूनी किस्सों से ढक नहीं गया है। तुम इस मामले में क्या करोगे? क्या तुम मान लोगे कि किसान को निकालकर बाहर सड़क पर डाल दिया जाये, क्योंकि कानून की यही मंशा है? अथवा तुम इस बात पर जोर दोगे कि जमींदार को जमीन की तमाम बढ़ी हुई आमदनी किसान को वापस कर देनी चाहिए! क्योंकि वह उसी की मेहनत का फल है और यही न्याय का निर्णय है? तुम कौन-सा पक्ष स्वीकार करोगे? कानून के अनुकूल पर न्याय के विरुद्ध या न्याय के अनुकूल और कानून वेफ विरुद्ध?
अथवा, जब किसी कारखाने के मालिक के खिलाफ मजदूरों ने बिना नोटिस दिये हड़ताल कर दी हो, तब तुम किसका पक्ष लोगे? तुम कानून का पक्ष लोगे, जिसका अर्थ है मालिक का पक्ष लेना, जिसने किसी हलचल के मौके से फायदा उठाकर बेहद नफा कमाया है? अथवा तुम कानून के खिलापफ चलकर मजदूरों का पक्ष लोगे, जिनको कभी चालीस या पचास रु० रोजाना से ज्यादा मजदूरी नहीं दी गई और जिनके स्त्री-बच्चे उनकी आंखों के सामने ही भूखों मर चुके हैं? क्या तुम उस जालसाजी से भरे कानून-कायदे का पक्ष ग्रहण करोगे, जोकि ‘इकरारनामे (प्रतिज्ञा) की स्वाधीनता का समर्थन करता है, अथवा तुम सच्चे न्याय का समर्थन करोगे, जिसके अनुसार ऐसा इकरारनामा, जो एक खूब भरे पेटवाले और एक ऐसे आदमी के बीच में हुआ हो, जिसे केवल प्राण-रक्षा के लिए कुछ भी मजदूरी करने की आवश्यकता है, अथवा जो ताकतवर और कमजोर के बीच में हुआ हो, जिसे किसी भी दशा में इकरारनामा नहीं कहा जा सकता?
एक और मुकदमा देखो। किसी बड़े शहर में एक आदमी बाजार में घूम रहा है। वह किसी दुकान से दो सेर आटा चुरा कर भागता है। पकड़े जाने पर जब उससे पूछा गया तो मालूम हुआ कि वह एक अच्छा कारीगर है, जो बिना रोजगार के भटक रहा है, और उसे तथा उसके बाल-बच्चों को चार दिन से एक टुकड़ा भी खाने को नहीं मिला! दुकानदार से अनुरोध किया गया कि वह अपराधी पर दया करके उसे छोड़ दे, पर वह इंसाफ की दुहाई देता है। वह मुकदमा दायर करता है और उस आदमी को छः महीने की जेल हो जाती है, क्योंकि कानून लिखने वाले अंधे, ऐसा ही कह गये हैं। क्या उस समय तुम्हारी अन्तरात्मा में समाज के प्रति विद्रोह का भाव पैदा नहीं होता जब तुम हर रोज इस प्रकार के फैसले होते देखते हो?
अथवा तुम उस आदमी के खिलाफ कानूनी कार्यवाही  करना उचित बतलाओगे, जिसका पालन-पोषण दूषित रीति से हुआ है और जिसे बचपन से ही खोटे काम करने की आदत लगाई गई है, जिसने अपनी तमाम उम्र में सहानुभूति का एक शब्द भी नहीं सुना और अन्त में जिसने कुल जमा सौ रुपए के लालच से अपनी पड़ौसी की हत्या कर डाली? क्या तुम कहोगे कि उसको फांसी दे दी जाये अथवा, इससे भी बढ़कर बीस वर्ष के लिए कैद की सजा दी जाये? क्योंकि तुम अच्छी तरह जानते हो कि वह अपराधी होने के बजाय एक पागल आदमी है, और हर हालत में उसके कसूर के लिए हमारा सारा समाज दोषी है।
क्या तुम यह दावा करोगे कि ये कपड़े बुनने वाले मजदूर, जिन्होंने घोर निराशा के वश होकर मिल में आग लगा दी, कैदखाने में डाल दिए जायें? अथवा यह शख्स, जिसने एक छत्रधारी हत्यारे पर गोली चला दी, उम्र कैद की सजा पाये? अथवा ये बागी, जिन्होंने मोर्चे के ऊपर स्वाधीनता का झंडा खड़ा किया, गोली से मार दिये जायें? नहीं, हजार बार नहीं। अगर तुम उन बातों को दोहराने की बजाय, जो तुमको स्कूलों और कालेजों में पढ़ाई गई हैं, अपनी अक्ल से काम लोगे, अगर तुम कानून का विश्लेषण और जांच-पड़ताल करोगे और उन दुरूह भ्रमपूर्ण कथाओं को अलग फेंक दोगे, जो कानून की असलियत को ढंकने के लिए गढ़ी गई हैं, तो तुम्हें मालूम हो जायेगा कि कानून की असलियत यही है कि बलवान के अधिकार का समर्थन किया जाये। और कानून का मूल-स्वरूप है उन सब अत्याचारों को पवित्र बतलाना, जिनका वर्णन मनुष्य-जाति के प्राचीन और रक्त-प्लावित इतिहास में पाया जाता है। जब तुम इस रहस्य को समझ जाओगे, तो तुम्हें कानून के प्रति भारी घृणा हो जायेगी। तुम समझ जाओगे कि पुस्तकों में लिखे कानून का सेवक बने रहने से तुम्हें हर रोज अपनी अन्तरात्मा से कानून का विरोध करना पड़ेगा। पर इस प्रकार की दुविधाजनक परिस्थिति सदा कायम नहीं रह सकती। अन्त में या तो तुम अपनी अन्तरात्मा को मारकर पूरे धूर्त्त और मक्कार बन जाओगे; अथवा तुम परम्परा की लकीर पर चलना छोड़ दोगे और सब प्रकार के - आर्थिक और राजनैतिक - अन्यायों का पूरी तरह से नाश करने के लिए हम लोगों के साथ मिलकर काम करने लगोगे। पर तब तुम कम्युनिस्ट कहे जाओगे और तुम्हारी गणना क्रांतिकारियों में होगी।


4. इंजीनियर


अब हम चैथी कल्पना पर विचार करते हैं। मान लो, तुम एक नवयुवक इंजीनियर हो और वैज्ञानिक आविष्कारों का उपयोग व्यापार और कारीगरी में करके मजदूरों की दशा सुधारने का स्वप्न देख रहे हो। अभी तुम्हें बहुत धोखे खाने पड़ेंगे, पर वह दिन दूर नहीं, जब तुम्हारा यह भ्रम दूर हो जायेगा। तुम अपनी तरुण बुद्धि और शक्ति को लगाकर एक नई रेलवे की योजना तैयार करते हो, जो ऊंचे स्थानों का चक्कर लगाकर, बड़े पहाड़ों के हृदय को छेदकर, दो अलग-अलग देशों को, जिन्हें प्रकृति ने भिन्न बना रक्खा था, मिला देती है। जब काम शुरू होता है, तो तुम देखोगे कि मजदूरों के दल-के-दल अंधेरी सुरंगों के भीतर भूख-प्यास और बीमारी से मर रहे हैं। दूसरे बहुत-से मजदूर, थोड़े-से पैसे और टी.बी. की बीमारी के बीज लेकर घर लौट रहे हैं। तुच्छ लालच के कारण एक-एक गज रेलवे लाइन मनुष्यों की बलि देकर बनाई जा रही है, अन्त में जब लाइन तैयार हो जाती है, तो तुम देखते हो कि तुम्हारी यह रेलवे लाइन दूसरे देश पर हमला करने के लिए तोपें और सेनाएं भेजने के काम में लाई जा रही है।
दूसरा उदाहरण देखो -- तुम अपनी तरुण अवस्था को एक ऐसा आविष्कार करने में लगाते हो, जिससे माल सहज में बनाया जा सके। बहुत कोशिशों के बाद, बहुत रातों की नींद हराम कर, अंत में तुम अपने आविष्कार में सफल होते हो। तुम उसको व्यवहार में लाते हो और उसका नतीजा तुम्हारे अनुमान से कही बढ़कर निकलता है। दस-बीस हजार प्राणी नौकरी से अलग कर दिये जाते हैं, केवल थोड़े-से बच्चों को नौकर रक्खा जाता है और उनकी हालत भी निर्जीव मशीनों की-सी बना दी जाती है। दो-चार या दस-बीस मालदार कारखानों वाले करोड़ों रुपया पैदा कर लेते हैं और राजसी ठाठ से भोग-विलास में रहने लगते हैं। क्या यही तुम्हारा लक्ष्य था?
इस प्रकार जब तुम आजकल की अन्य प्रकार की यंत्र-विद्या-संबंधी उन्नति पर विचार करोगे, तो तुम्हें मालूम होगा कि कपड़ा सीने की मशीन के आविष्कार से सिलाई का काम करने वाली गरीब औरतों को जरा भी लाभ नहीं हुआ। नई तरह की बरमा मशीन बन जाने पर भी खान में काम करने वाले मजदूरों को गठिया की बीमारी के कारण मरना पड़ता है। अगर तुम सामाजिक प्रश्नों पर उसी स्वाधीन भाव से विचार करोगे, जिससे यंत्र-विद्या संबंधी जांच-पड़ताल करते हो, तो तुम अवश्य इस निर्णय पर पहुँचोगे कि जब तक दुनिया में निजी जायदाद और मजदूरी की प्रथा कायम है, तब तक हरेक नया आविष्कार मजदूरों का अधिक भला करने की अपेक्षा उनकी गुलामी को और मजबूत करता है, उनके काम को और भी नीचा बनाता है, व्यापार-संकट के अवसर को बार-बार लाता है और उसके द्वारा केवल वही आदमी फायदा उठा सकता है, जिसको अब भी सब तरह का बड़े-से-बड़ा सुख प्राप्त है।
जब तुम एक बार निर्णय पर पहुंच गये, तब क्या करोगे? या तो मिथ्या तर्क से अपनी अंतरात्मा को चुप कराओगे और अंत में एक दिन अपनी तरुणावस्था के सच्चे विचारों को सदा के लिए विदा करके केवल अपने लिए ऐशोआराम के साधन प्राप्त करने की कोशिश करने लगोगे व गरीबों को लूटकर खाने वालों के दल में मिल जाओगे। पर, यदि तुम्हारे भीतर सहृदयता का भाव है, तो तुम अपने मन में कहोगे, ‘‘नहीं, यह समय आविष्कार करने का नहीं है। पहले हमें उत्पत्ति तथा संपत्ति के वर्तमान अधिकार को बदलने का उद्योग करना चाहिए। जब निजी जायदाद के नियमों का अंत हो जायेगा, तब यंत्र-विद्या की उन्नति होने से मनुष्यमात्र फायदा उठा सकेंगे और ये असंख्य मजदूर, जो आजकल केवल मशीनों के पुर्जों के समान बने हुए हैं, तब विचारशील प्राणी बन जायेंगे और अध्ययन द्वारा विकसित तथा शारीरिक परिश्रम द्वारा तीव्र बनी हुई अपनी बुद्धि का उपयोग कला-कौशल की उन्नति में करेंगे। इससे आने वाले समय में कला-कौशल की ऐसी आश्चर्यजनक उन्नति हो जायेगी, जिसकी इस समय हम कल्पना भी नहीं कर सकते।


5. शिक्षक


अब हम पाँचवीं कल्पना पर विचार करते हैं । मान लो तुम एक शिक्षक हो। मैं उस शिक्षक की बात नहीं कर रहा जो अपने पेशे को बेगार की तरह समझता है, बल्कि मैं उससे संबोधित हूँ जो आमोद-प्रिय छोटे-छोटे बच्चों के दल के बीच बैठकर उनकी विनोदपूर्ण निगाहों और आनन्ददायक हंसी से प्रसन्न होता है। उस स्कूल-मास्टर से, जो उन छोटे बच्चों के हृदयों में मनुष्य के उन आदर्शों का बीज बोना चाहता है, जिनका अपनी किशोरावस्था में वह विचार किया करता था।
प्रायः मैं तुम्हें रंजीदा देखता हूँ, और मैं जानता हूँ कि तुम्हारी चिंता का कारण क्या है? उसी दिन तुम्हारे एक प्यारे विद्यार्थी ने, जो यद्यपि भाषा में बहुत होशियार नहीं, पर जिसका हृदय बड़ा विशाल है, महाराणा प्रताप की कहानी को बड़े जोश के साथ पढ़कर सुनाया। उसकी आँखें चमक रही थीं और ऐसा मालूम होता था कि वह उसी पल तमाम अत्याचारियों का नामोनिशान मिटा देना चाहता है।
पर जब वही विद्यार्थी घर लौटकर गया, तो उसके माता-पिता तथा चाचा ने, कस्बे के बड़े महंत या पुलिस थानेदार को सलाम न करने के लिए उसे बहुत डांटा-फटकारा। उन्होंने उसे दुनियादारी, अधिकारियों की इज्जत, अपने से ऊंचे दर्जे के लोगों के प्रति विनय के संबंध में बड़ा लंबा भाषण सुनाया, जिससे अंत में उसने महाराणा प्रताप की जीवनी को उठा कर अलग रख दिया और ‘सांसारिक उन्नति के उपाय’ नामक पुस्तक को पढ़ना शुरू किया।
कल ही तुम्हें किसी ने कहा कि तुम्हारे सब होनहार विद्यार्थी उलटे रास्ते पर चल रहे हैं। उनमें से एक सिवा अफसर बनने का स्वप्न देखने के और कुछ नहीं करता, दूसरा किसी बड़े आदमी का कृपापात्र बनकर गरीबों को लूटता है। तुमने इनसे न जाने कैसी-2 आशाएं लगा रखी थीं। अब अपने आदर्शों और दुनिया की असलियत को देखकर तुम चिंता में पड़े हुए हो।
तुम कुछ समय तक चिंता करते रहते हो। पर मैं समझता हूँ कि साल-दो-साल बाद ऐसा समय आएगा, जब बार-बार निराश होकर अंत में तुम अपने आदर्श-ग्रंथों को अलमारी में बंद कर दोगे और कहने लगोगे कि ‘‘महाराणा प्रताप आदमी तो बड़ा स्वाभिमानी और देशभक्त था, पर साथ ही कुछ सनकी भी था।’’ तुम विचार करने लगोगे कि कविता विश्राम के समय में बहुत अच्छी चीज है, खासकर उस हालत में जब एक आदमी दिन भर लड़कों से त्रौराशिक-पंचराशिक का हिसाब समझाते-समझाते थक गया हो, पर कवि लोग कल्पना के राज्य में विचरण करते हैं और उनके विचारों से जीवन-निर्वाह करने में कुछ मदद नहीं मिल सकती और न इंस्पेक्टर आॅफ स्कूल्स के दौरे के समय उनसे कुछ लाभ हो सकता है। अथवा, इसके विरुद्ध यह होगा कि तुम्हारे किशोरावस्था के स्वप्न बड़ी उम्र हो जाने पर दृढ़ विश्वास के रूप में परिणत हो जायेंगे। तुम चाहोगे कि मनुष्यमात्र को, चाहे वह स्कूल में पढ़ता हो या नहीं, विस्तृत और मनुष्योचित शिक्षा दी जाये; पर यह देखकर कि ऐसा हो पाना वर्तमान परिस्थिति में असंभव है, तुम वर्तमान सामाजिक व्यवस्था की जड़ पर ही कुठाराघात करने लगोगे। तब तुम शिक्षा विभाग द्वारा नौकरी से अलग कर दिये जाओगे। तुम्हें स्कूल छोड़कर हम लोगों के बीच में आना पड़ेगा और हमारे ही साथ काम करना पड़ेगा। तुम दूसरे लोगों को, जिनकी उम्र तुमसे ज्यादा होने पर भी जिनकी जानकारी तुमसे कम है, समझाओगे कि ज्ञान कैसी मनोहर वस्तु है, मनुष्य-समाज को कैसा होना चाहिए अथवा वह कैसा बन सकता है। तुम साम्यवादियों के साथ मिलकर वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को जड़-मूल से बदलने के लिए उद्योग करने लगोगे, और ऐसा प्रयत्न करोगे, जिससे संसार के लिए सच्ची एकता, सच्चा भ्रातृभाव और अनंत समय तक कायम रहने वाली स्वाधीनता प्राप्त की जा सके। 

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