सांप्रदायिकता पर विशेष
मिथक बनाम असलियत
(‘‘हम बच्चे पैदा करने के लिए राहत-शिविर नहीं चला सकते........, वे बच्चे पैदा कर करके लंबी लाइनें लगा रहे हैं जो यहां-वहां साइकिलों के पंचर लगाते फिरते हैं..........., हम परिवार नियोजन की तरफ बढ़ रहे हैं, जबकि उनका मकसद है : हम पांच, हमारे पच्चीस......, जो लोग इस तरह फैलते जा रहे हैं, हमें उन्हें सबक सिखाना होगा........।’’ प्रस्तुत लेख संघ परिवार द्वारा मुसलमानों पर लगाए जा रहे ऐसे ही आरोपों को तथ्यों की कसौटी पर जांचने का प्रयास करता है । इस लेख में दिया गया कोई तथ्य यदि आपको गलत लगे तो कृपया हमें जरूर सूचित करें, ताकि जनता में सिर्फ सच ही जाए। -संपादक मंडल)
भारत में हिन्दू-मुसलमानों को एक साथ रहते लगभग 1200 वर्ष हो चुके हैं । इन 1200 वर्षों में ज्यादातर समय हिन्दू और मुसलमान आपसी सद्भाव और भाईचारे की भावना के साथ ही रहे हैं । हिन्दू और मुस्लिम दंगों का इतिहास लगभग 1920 के दशक से शुरू होता है । परिणामस्वरूप पिछले 80 वर्षों में हिन्दू और मुसलमान दो अलग-अलग समुदायों, दो अलग-अलग द्वीपों की तरह बन गए जो एक ही क्षेत्र में रहते हुए भी एक दूसरे की संस्कृति, मानसिकता और विचारों से हजारों मील के फासले पर बैठे नजर आते हैं । हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबल्स का सिद्धांत था कि एक झूठ को अगर सौ बार बोल दिया जाए तो वह सच बन जाता है । भारत में भी ऐसे अनेक झूठ विभिन्न धर्मों के ठेकेदारों द्वारा जोर-शोर से प्रचारित किये जाते हैं । आम हिन्दुओं में मुसलमानों के बारे में अनेक भ्रान्तियां मौजूद हैं, जिनका फायदा हिन्दू कट्टरपंथी ताकतें उन्हें बरगलाने के लिए उठाती हैं । इस लेख में ऐसी ही कुछ भ्रान्तियों के बारे में बात की गई है । हम आशा करते हैं कि पाठकगण अपने पूर्वाग्रहों को छोड़कर इन तथ्यों पर एक बार अवश्य चिन्तन करेंगे और ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ के आदर्श सूत्र के साथ मानवता की सेवा के लिए आगे बढ़ेंगे ।
1. मिथक :-
मुसलमानों की जनसंख्या ज्यादा रफ्तार से बढ़ रही है और वे शीघ्र ही हिन्दुओं से ज्यादा हो जायेंगे ।
असलियत :-
यह एक ऐसा मिथक है जिस पर लगभग हर हिन्दू यकीन करता है । संघ परिवार इस मिथक का इस्तेमाल हिन्दुओं के मन में एक डर पैदा करने के लिए खूब करता है कि इस रफ्तार से बढ़ते हुए मुसलमान जल्दी ही हिन्दुओं से ज्यादा हो जायेंगे और वे भारत को एक मुस्लिम देश बना देंगे।
सबसे पहले देखें कि इस बारे में जनगणना के आंकड़े क्या बोलते हैं-:
वर्ष - 1961
कुल जनसंख्या - 43.9 करोड़
कुल हिन्दू आबादी - 83.4%
कुल मुस्लिम आबादी - 10.5%
वर्ष - 1971
कुल जनसंख्या - 54.8 करोड़
कुल हिन्दू आबादी - 82.7%
कुल मुस्लिम आबादी - 11.2%
वर्ष - 1981
कुल जनसंख्या - 68.5 करोड़
कुल हिन्दू आबादी - 82.4%
कुल मुस्लिम आबादी - 11.7%
वर्ष - 1991
कुल जनसंख्या - 85.6 करोड़
कुल हिन्दू आबादी - 82.0%
कुल मुस्लिम आबादी - 12.2%
वर्ष - 2001
कुल जनसंख्या - 107.5करोड़
कुल हिन्दू आबादी - 80.5%
कुल मुस्लिम आबादी - 13.4%
वर्ष - 2011
कुल जनसंख्या - 125.3 करोड़
कुल हिन्दू आबादी - 79.8%
कुल मुस्लिम आबादी - 14.23%
(स्त्रोत : आंकड़े सरकारी जनगणना से लिए गए हैं।)
उपरोक्त आंकड़े बोल रहे हैं कि पिछले 50 वर्षों में हिन्दुओं की आबादी के प्रतिशत में थोड़ी ही कमी आई है और मुसलमानों की आबादी में थोड़ी ही वृद्धि। अगर यही रफ्तार रही तो मुसलमानों की आबादी को हिन्दुओं की आबादी के बराबर पहुंचने में 3626 साल लग जायेंगे। लेकिन समाज शास्त्रियों के अनुसार उससे कहीं पहले (शायद अगले 100 वर्षों में ही) जनसंख्या वृद्धि रुक जायेगी।
स्पष्ट है कि न तो मुसलमानों की आबादी 60 वर्षों में बढ़कर 40 प्रतिशत हो गयी है (जैसा कि संघ के प्रचारक दावा करते हैं) और न ही कभी भारत में उसकी सम्भावना है।
समाज शास्त्री बताते हैं कि जनसंख्या वृद्धि का कारण सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियां होती हैं । 50 और 60 के दशक में भारत में ईसाइयों की जनसंख्या अपेक्षाकृत ज्यादा रफ्तार से बढ़ी थी क्योंकि बेहतर स्वास्थ्य व शिक्षा सुविधाओं के चलते उनकी मृत्युदर कम हो गयी लेकिन जन्मदर उतनी ही रही। 70 के दशक में ईसाइयों की जनसंख्या की वृद्धि दर न के बराबर थी, क्योंकि तब तक परिवार नियोजन के तरीके अपनाने से उनकी जन्म दर भी नियन्त्रण में आ गई। यह प्रक्रिया हिन्दुओं में ईसाइयों की तुलना में थोड़ा देर से शुरू हुई और मुसलमानों में तो और भी देर से, क्योंकि सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से मुसलमान समाज बेहद गरीब और पिछड़ा हुआ है।
2. मिथक :-
मुसलमान चार-चार शादियां करके बच्चे चार गुणा रफ्तार से बढ़ाते हैं ।
असलियत :-
यह सर्वाधिक कुप्रचलित मिथक है। पढ़े-लिखे समझदार कहे जाने वाले लोग भी यही मानते हैं कि ज्यादा शादियां करने से जनसंख्या ज्यादा तेजी से बढ़ती है जबकि यह निष्कर्ष एकदम गलत है ।
किसी भी समाज में महिला और पुरुषों की संख्या लगभग आधी-आधी होती है । यद्यपि हिन्दू समाज में महिलाओं की संख्या पुरुषों से कम है। मुसलमानों में भी प्रति हजार पुरुषों के पिछे 930 महिलाएं हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि बच्चा पैदा कर सकने की क्षमता वाली महिलाओं (15 वर्ष से 40 वर्ष)की संख्या भी सीमित है। इन सभी महिलाओं की शादी उतने ही पुरुषों से हो, या अपनी संख्या के आधे पुरुषों से या फिर एक चौथाई से, बच्चे पैदा करने वाली औरतों की संख्या तो उतनी ही रहेगी। अगर एक व्यक्ति चार औरतों से शादी करता है तो इसका स्वाभाविक अर्थ यह निकलता है कि तीन व्यक्तियों को कुंवारा रहना पड़ेगा। इसलिए यह सच नहीं है कि एक से ज्यादा शादियां करने से जनसंख्या में ज्यादा वृद्धि होती है ।
आइये देखते हैं -:
मुसलमान पुरुष * * * * * * * * * *
मुसलमान महिलाएं ∆ ∆ ∆ ∆ ∆ ∆ ∆ ∆ ∆ ∆
अगर प्रत्येक मुसलमान चार शादियां करना चाहे तो?
[ * ] [ * ] [ * ] [*******]
[ ∆∆∆∆ ] [ ∆∆∆∆ ] [ ∆∆ ]
केवल दो पुरुष चार-चार शादियां कर पाएंगे, एक पुरुष दो शादियां कर पाएगा और सात मुस्लिम पुरुष कुंवारे रह जाएंगे।
दूसरे, आंकड़े बोलते हैं कि हिन्दुओं में एक से ज्यादा पत्नियां रखने वाले पुरुषों की संख्या का प्रतिशत मुसलमानों से ज्यादा है। सच तो यह है कि मुसलमान पुरुषों को चार शादियाँ करने का अधिकार तो है, लेकिन गरीबी के कारण एक शादी को ही चला पाना उनके लिए मुश्किल होता है। जबकि हिन्दुओं में भी बड़े-बड़े जमींदार, अमीरजादे एक से ज्यादा शादियां कर लेते हैं और पत्नी को मजबूरन सब कुछ सहते रहना पड़ता है।
आइये विभिन्न धर्मों में एक से ज्यादा शादियां करने वालों का प्रतिशत देखते हैं -:
धर्म - हिन्दू
वर्ष - 1961 - 5.8%
वर्ष - 1989 - 5.06%
धर्म - मुसलमान
वर्ष - 1961 -5.7%
वर्ष - 1989 - 4.3%
(स्त्रोतः रिपोर्ट ऑफ रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इण्डिया, 1989)
3. मिथक :-
समान आचार संहिता लागू न करके मुसलमानों का तुष्टिकरण किया जा रहा है ।
असलियत :-
पारिवारिक मामलों को छोड़कर इस देश में प्रत्येक नागरिक के ऊपर इस देश के संविधान व कानून के अनुसार ही नियम लागू होते हैं। जहां तक पारिवारिक मामलों की बात है, (जिसमें शादी, तलाक व सम्पति अधिकार मुख्य रूप से आते हैं) मुसलमानों में शरियत कानून लागू है जिसके सन्दर्भ में कहा जाता है कि इसकी जगह समान आचार-संहिता लागू न करके विभिन्न सरकारों ने मुसलमानों का तुष्टिकरण किया है । पहली बात तो यह है कि यह मुस्लिमों का तुष्टिकरण नहीं, बल्कि मुस्लिम महिलाओं वेफ साथ (आधी मुस्लिम आबादी के साथ) अन्याय है । यह कुप्रथा खत्म होनी चाहिए, जो मुस्लिम समाज की महिलाओं को जागरूक बनाकर ही सम्भव है और मुस्लिम महिलाओं की थोड़ी-बहुत जागरूकता के परिणाम भी आने लगे हैं कि अब तलाक लेना मुस्लिम पुरुष के लिए पहले जैसा आसान नहीं रहा । दूसरे, हिन्दुओं में भी समान आचार संहिता लागू नहीं है। दक्षिणी भारत में भानजी पर पहला हक मामा का होता है, जो उत्तरी भारत में सोचा भी नहीं जा सकता। पाकिस्तान से आए हिन्दुओं में बुआ, मासी, मामा की लड़की से शादी आम बात रही है। जो इधर के हिन्दुओं में नहीं थी । हरियाणा, उत्तरप्रदेश के ग्रामीण समाज में अन्तर्जातीय विवाहों के मामलों और वर्जित गोत्रों में विवाह करने पर (चाहे कानून की निगाह में ये विवाह वैध ही क्यों न हों) सामाजिक बहिष्कार व मौत का फतवा तक जारी कर दिया जाता है। बहन द्वारा पिता की सम्पति पर हक जताना घोर कलयुग करार दिया जाता है। हिन्दू पुरुष विवाहेतर सम्बंधों के मामले में पीछे नहीं रहता तो ऐसे में उसके मुसलमानों में बहुपत्नी प्रथा के विरोध का अर्थ क्या यह लिया जाए कि उसे भी यह अधिकार मिले, क्योंकि हिन्दू कट्टरपंथी इसका विरोध इसलिए तो निश्चित ही नहीं करते कि उन्हें मुस्लिम महिलाओं की चिंता है।
4. मिथक :-
शाहबानो केस - मुसलमानों का तुष्टिकरण ।
असलियत :-
शाहबानो प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने एक निर्णय सुनाकर तलाक के बाद हर्जाना प्राप्त करने का अधिकार एक मुस्लिम महिला शाहबानो को दिया था जो अब तक जारी शरियत कानून के खिलाफ था । इस पर राजीव गांधी सरकार ने संसद के अधिनियम द्वारा सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को रद्द कर दिया था। इसे मुसलमानों के तुष्टीकरण का नाम देकर संघ परिवार खूब प्रचारित करता है। वास्तव में यह मुसलमानों का नहीं, मुसलमानों के धर्मिक नेताओं का तुष्टिकरण था ताकि मुसलमानों के वोट कांग्रेस हथिया सके। चूंकि मुस्लिम समाज पिछड़ा व ज्यादा संकीर्ण है, अतः उस पर उनके धर्मिक नेताओं की पकड़ भी ज्यादा है, शाहबानो केस में राजीव सरकार की भूमिका एकदम गलत रही है। मुसलमानों की 75 प्रतिशत आबादी (महिलाएं व बच्चे) के लिए तो यह केस उनके जनवादी अधिकारों पर भयंकर चोट साबित हुआ क्योंकि तलाक की स्थिति में महिला और उसके बच्चों के लिए कोर्ट द्वारा दिया गया एक कमजोर सहारा भी राजीव सरकार ने छीन लिया । फिर मुसलमानों का तुष्टिकरण कहां से हुआ? मुसलमानों के धर्मिक नेताओं के तुष्टिकरण व आम मुस्लिम समाज के उत्पीड़न के इस भेद को समझने की आवश्यकता है ।
5. मिथक :-
मुसलमान नसबन्दी का विरोध करते हैं।
असलियत :-
मुसलमान केवल भारत में ही नहीं रहते, दुनिया के बहुत से देशों में मुसलमान रहते हैं और ऐसे अनेक देश हैं जहां का मुसलमान परिवार नियोजन व नसबंदी में यकीन करता है जैसे कि इन्डोनेशिया, इराक, टर्की, पूर्वी यूरोप आदि। भारत में अगर कुछ हिस्सों में इसका विरोध है तो इसके पीछे धर्म नहीं बल्कि अज्ञानता व अशिक्षा जिम्मेदार है। ठीक वैसे ही जैसे हिन्दू पुरुष भी नसबंदी से बचता है ।
6. मिथक :-
मुसलमान पाकिस्तान समर्थक होते हैं ।
असलियत :-
जब किसी से पूछते हैं कि कैसे मुसलमान पाकिस्तान समर्थक हैं तो एकमात्र उत्तर सुनने को मिलता है कि जब पाकिस्तान क्रिकेट मैच जीतता है तो भारत का मुसलमान खुशियां मनाता है । कितने मुसलमानों ने खुशियां मनाईं, कहां मनाईं, कब मनाईं, नहीं जानते, परन्तु इस बात पर सब यकीन करते हैं कि पाकिस्तान द्वारा मैच जीतने पर भारतीय मुसलमान चूंकि खुशियां मनाता है इसीलिए उसकी सद्भावना व सहानुभूति पाकिस्तान के साथ है। यह भी एक मिथक है। क्रिकेट देशभक्ति नापने का पैमाना नहीं हो सकता। भारत-पाकिस्तान में क्रिकेट एक युद्ध की तरह खेला जाता है। जहां खेल भावना पीछे छूट जाती है और जीत को युद्ध में हुई जीत की तरह महिमामण्डित किया जाता है। कभी किसी क्रिकेट के मैदान पर अगर कुछ मुसलमानों ने पाकिस्तान की जीत पर खुशी जाहिर की है तो इसका अर्थ यह नहीं कि तमाम मुसलमान गद्दार हैं। देश की गुप्त सूचनाएं पाकिस्तान के हाथों तक पहुंचाने वाले लगभग सभी गद्दार हिन्दू हैं। लेकिन यह कहना गलत होगा कि पूरा हिन्दू समाज गद्दार है। हवाला, तहलका, ताबूत, बोफोर्स घोटालों में संलिप्त गद्दारों को क्या हम धर्म के नाम से पहचानेंगे। आज कोई व्यक्ति पाकिस्तान का झण्डा अपने स्कूटर/मोटर साईकिल पर लगाकर घूमे यह सोचना भी सम्भव नहीं है। किन्तु इग्लैंड व अमरीका के झण्डे लगाकर घूमना ज्यादातर युवा शान की बात समझते हैं । इग्लैंड, जिसने हमें 200 साल तक गुलाम बनाया और अमरीका, जो आज दुनिया का सबसे बड़ा लुटेरा व आतंकवादी देश है। संघियों का ध्यान कभी इस ओर नहीं गया क्योंकि इस दुष्प्रचार के पीछे भी उनका मकसद मुसलमानों को बदनाम करना है, गद्दारों को ढूंढ़ना नहीं ।
7. मिथक :-
मुसलमान ज्यादा कट्टर होते हैं।
असलियत :-
कट्टर हिन्दू या मुसलमान नहीं होता, कट्टरता या जुनून इन्सान में कट्टरपंथी या दकियानूसी ताकतें भर देती हैं। पिछले 50 वर्षों में देश के किसी भी इलाके में आम मुसलमानों ने इकट्ठे होकर हिन्दुओं के धर्मस्थल नहीं गिराए किन्तु ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जहां मुसलमानों के धर्मस्थलों को हिन्दुओं ने नुकसान पहुंचाया है। 1984 में दंगाइयों ने निर्दोष सिक्खों को जलते टायर डालकर मार डाला था। तीन दिनों में देश में 5000 निर्दोष सिक्ख मारे गए थे और ये दंगाई हिन्दू थे। इसी प्रकार दहेज के लिए दुल्हन को जिन्दा जला देना या लिंग चयन करवाकर गर्भपात करना क्या कम क्रूरता है और इसे क्या हिन्दुओं की क्रूरता कहना उचित होगा? नहीं! दुनिया के इतिहास में धर्म के नाम पर जघन्य काण्ड हुए हैं। भारत में भी इतिहास में क्रूरता सिर्फ मुसलमान शासकों ने नहीं, सभी शासकों ने दिखाई है। सम्राट अशोक अपने भाइयों को मारकर गद्दी पर बैठा था । बौद्धों का कत्लेआम हिन्दू राजाओं ने किया था, वैष्णवों व शैवों के बीच खूनी युद्ध हुए हैं जिसके चलते भारत में अखाड़े बने थे। स्वर्ण हिन्दू समाज ने दलितों/शूद्रों को कभी इंसान नहीं समझा। लेकिन इससे हम इस निर्णय पर नहीं पहुंचेंगे कि हिन्दू कट्टर होता है। आम हिन्दू या मुसलमान शान्ति से रहना चाहता है, अपने बीबी बच्चों के साथ मिलकर दो वक्त की रोटी चैन से खाना चाहता है। वह कट्टर नहीं होता।
सबसे बढ़कर, पिछले 50 वर्षों में हुए दंगों में किसका जानमाल का नुकसान ज्यादा हुआ है इसके आंकड़े ही इस बात को झूठा साबित कर देते हैं कि मुसलमान ज्यादा कट्टर होते हैं।
1. अहमदाबाद (1969)
मृतक - हिंदू - 24
मृतक - मुसलमान - 413
जलाई गई दुकानों की संख्या
हिंदू - 671
मुसलमान - 6071
संपत्ति का नुकसान
हिंदू - 75 लाख
मुसलमान - 340 लाख
2. भिवंडी (1970)
मृतक - हिंदू - 17
मृतक - मुसलमान - 59
संपत्ति का नुकसान
हिंदू - 83 हजार
मुसलमान - 33 लाख
3. जलगांव (1970)
मृतक - हिंदू - 1
मृतक - मुसलमान - 42
4. रांची हटिया (1967)
मृतक - हिंदू - 19
मृतक - मुसलमान - 164
5. बनारस (1977)
मृतक - हिंदू - 12
मृतक - मुसलमान - 24
6. जमशेदपुर (1979)
मृतक - हिंदू - 80
मृतक - मुसलमान - 150
7. दिल्ली व अन्य (1984)
5000 सिक्खों का कत्लेआम
8. महाराष्ट्र/गुजरात (1992-93)
कृष्णा आयोग रिपोर्ट के अनुसार अधिकतर मुसलमान मारे गए।
9. गुजरात (दिसंबर 2002)
मृतक - हिंदू - 254
मृतक - मुसलमान - 790
(स्त्रोत -: विभूति नारायण राय -- उच्च पुलिस अधिकारी द्वारा संकलित)
8. मिथक :-
आज तक की सरकारों ने मुसलमानों का तुष्टीकरण किया है ।
असलियत :-
तुष्टीकरण का अर्थ है अपने स्वार्थों के लिए किसी वर्ग विशेष को जरूरत से ज्यादा सुविधएं/रियायतें प्रदान करना। भारत में मुसलमानों की आबादी 14.2% है। जबकि विभिन्न नौकरियों/विभागों में उनकी संख्या इस प्रकार है -
आई.ए.एस. ऑफिसर = 2.86%
आई.पी.एस. ऑपिफसर = 2.0%
हाईकोर्ट न्यायाधीश = 4.5%
लेबर कोर्ट न्यायाधीश = 6.47%
ग्रेड वन की अन्य सेवाएं = 3.04%
बैंक सेवाएं = 2%
प्रथम श्रेणी कर्मचारी = 1.61%
तीन करोड़ से बीस करोड़ के उद्योगपति = 1.9%
एक्जीक्यूटिव वर्ग (सार्वजनिक क्षेत्र) = 3.19%
टैक्नीकल सुपरवाईजर = 4.3%
(इसी प्रकार संसद में भी कभी 12% मुस्लिम नहीं पहुंचे।)
तो कहां है मुसलमानों का तुष्टीकरण ?
उत्तर मिलता है - हजयात्रा में मुसलमानों को रियायत मिलती है । लेकिन भारत के अनेक मन्दिरों (उदाहरण के लिए जगन्नाथपुरी, सोमनाथ, बालाजी) व धर्मिक मेलों पर भी तो सरकार करोड़ों रुपया खर्च करती है। अतः तुष्टीकरण की बात एकदम निराधार है, उल्टे अभी तक उन्हें उनका वाजिब हिस्सा भी नहीं मिला है ।
9. मिथक :-
हिन्दू राष्ट्र बनने से भारत की सभी समस्याएं हल हो जायेंगी।
असलियत :-
दुनिया का एकमात्र हिन्दू राष्ट्र नेपाल दुनिया के सर्वाधिक गरीब लोगों का देश है। हर साल कई लाख हिन्दू नेपाली लड़कियां भारत की मण्डियों में बिकती हैं। नेपाल वेफ आधे नौजवानों को अपने देश के बाहर रोजगार की तलाश में भटकना पड़ता है । भारत हिन्दू राष्ट्र बन भी जाए तो भी यहां के दलितों, आदिवासियों, मजदूरों, किसानों का शोषण जारी रहेगा, क्योंकि उनका शोषण कोई मुसलमान नहीं कर रहा बल्कि यहां का शासक वर्ग, बड़े जमींदार, अफसरशाही तथा विदेशी कंपनियों के दलाल पूंजीपति कर रहे हैं। यहां की जनता की समस्याएं मुसलमानों के खिलाफ लड़ कर नहीं, बल्कि इन शोषक वर्गों के खिलाफ लड़कर दूर होंगी ।
10. मिथक :-
दुनिया के तमाम आतंकवादी मुसलमान हैं ।
असलियत :-
यह एक नया मिथक है। जिसे विश्व व्यापार केन्द्र पर हुए हमले के बाद ज्यादा प्रचार मिला है। आतंकवाद की परिभाषा विभिन्न वर्गों के लिए भिन्न-भिन्न है। अंग्रेजों के लिए भगतसिंह आतंकवादी थे, हमारे लिए देशभक्त नायक। अपने देश व अपने अधिकारों के लिए लड़ना अगर आतंकवाद है तो मानव स्वभाव से ही आतंकवादी है क्योंकि गुलामी के खिलाफ मानव ने हमेशा से जंग लड़ी हैं और यह लड़ाई सभी धर्मों के लोगों द्वारा लड़ी गई हैं। आज दुनिया जिसे मुस्लिम आतंकवाद के नाम से जानती है, वह वास्तव में मुस्लिम जनता का अमरीकी साम्राज्यवाद विरोध है। 60 व 70 के दशक में स्वयं अमरीका ने सोवियत संघ के फैलाव को रोकने के लिए मुस्लिम कट्टरता को बढ़ावा दिया और मुस्लिम जगत में अपना लूट का शासन कायम किया। अतः आज वहां अमरीकी विरोध भी उसी मुस्लिम कट्टरता के रूप में हो रहा है ।
आज दुनिया के अनेक देश हैं जहां शासक वर्गों की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ जनता हथियार उठाकर लड़ रही है, जैसे; नेपाल, टर्की, पेरू, कोलम्बिया, उत्तरी आयरलैंड, भारत, फिलीपीन्स आदि। इस जनता को वहां की सरकारें आतंकवादी बोलती हैं, और वे मुसलमान नहीं है।
11. मिथक :-
हिन्दू धर्म को नीचा दिखाने के लिए मुसलमान शासकों ने मन्दिर तोड़े।
असलियत :-
इतिहास में जब भी मंदिर तोड़ने वाले मुसलमान शासकों का नाम आता है तो उसमें दो नाम बेहद कुख्यात हैं, महमूद गजनवी जिसने सोमनाथ का मंदिर तोड़ा था और औरंगजेब जिसने काशी व मथुरा के मंदिर तोड़े थे।
महमूद गजनवी अफगानिस्तान में गजनी नामक स्थान का शासक था जो गजनी से गुजरात पहुंचा था जहां सोमनाथ का मंदिर है। इसमें कोई शक नहीं कि गुजरात के सोमनाथ मंदिर तक पहुंचने के लिए उसने सैंकड़ों किलोमीटर का रास्ता तय किया था। सोचने का विषय है कि उसके रास्ते में पड़ने वाले मंदिरों का क्या हुआ? आम हिन्दूवादी समझ कहती है कि वे सभी मंदिर टूट जाने चाहिए थे। बामियान की विश्व प्रसिद्ध बुद्ध की मूर्तियां उसके रास्ते में पड़ती थीं लेकिन उसने उन्हें छुआ तक नहीं। सोमनाथ मंदिर की ओर बढ़ते हुए जब वह मुल्तान से गुजरा तो वहां के नवाब अब्दुल फतह दाऊद ने उसको आगे बढ़ने से रोक दिया। इस पर दोनों में लड़ाई हुई इस लड़ाई के दौरान मुल्तान की जामा मस्जिद गिरा दी गई। इसके बाद गजनवी एक अन्य शहर थानेश्वर से होकर गुजरा, जिसके राजा आनंदपाल ने उसे जाने का रास्ता दे दिया, अतः गजनवी ने उसे कुछ नहीं कहा।
उपरोक्त उदाहरण से साफ है कि अगर गजनवी इस्लाम के प्रचार के लिए निकला होता तो किसी भी सूरत में मस्जिद न गिराता और रास्ते के सभी मंदिरों को तोड़ता हुआ निकलता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उसने सिर्फ सोमनाथ के मन्दिर को ही क्यों गिराया। कहा जाता है कि सोमनाथ मन्दिर में उस वक्त 200 करोड़ रुपये का सोना, हीरे, जवाहरात आदि थे। जिन्हें लूटने के लिए वह इतनी दूर से आया था।
महमूद गजनवी की सेना में एक तिहाई हिन्दू थे और उसके 12 सिपहसालारों में से 5 हिन्दू थे। जिनके नाम थे, तिलक, हरजन, राज, सौन्धी और हिन्द। सोमनाथ जीतने के बाद उसने अपने प्रतिनिधि के तौर पर एक हिन्दू राजा को वहां नियुक्त कर दिया और अपनी मुद्रा जारी की जिस पर संस्कृत में शब्द अंकित थे।
अब एक दूसरा उदाहरण देखें। 11वीं शदी में कश्मीर में राजा हर्षदेव का शासन था। उसके दरबार में कल्हण नाम का कवि था, जिसने राजतरंगिणी नामक प्रसिद्ध किताब भी लिखी थी। इस पुस्तक में कल्हण ने लिखा है कि हर्षदेव ने एक पद पैदा किया, जिसका नाम था ‘देवो पदनायक’ । इसका अर्थ था, वह अधिकारी जो देवी-देवताओं की मूर्तियां तुड़वा रहा हो। इसमें खास बात यह है कि उसे उन मूर्तियों से कोई मतलब नहीं था जो पत्थर की बनी हुई थीं, उसकी रुचि केवल सोने, चांदी या कीमती पत्थरों से जड़ी मूर्तियों में ही थी।
एक मजेदार घटना मराठा-टीपू संघर्ष की भी है। एक बार मराठा सेना ने टीपू सुल्तान पर हमला किया लेकिन इसका कोई परिणाम नहीं निकला। वापिस जा रही मराठा सेना ने टीपू सुल्तान के इलाके में स्थित श्रीरंगपट्टनम नामक स्थान पर एक हिन्दू मंदिर गिरा दिया जिसे टीपू सुल्तान ने पुनः बनवाया। हिन्दू होने के बावजूद मराठों द्वारा मंदिर गिराने का मकसद टीपू सुल्तान को अपमानित करना था।
अब चर्चा औरंगजेब की करें, अपने शासनकाल में औरंगजेब ने कई मंदिर और मस्जिद तुड़वाए तो कई बनवाए भी। उनके रखरखाव के लिए उन्हें जागीरें भी प्रदान कीं। काशी और वृन्दावन के कई मन्दिरों को जमीन देने के अनेक फरमान एक महान इतिहासकार डॉ. विशम्भर नाथ पाण्डेय ने अपनी पुस्तक ‘राजा औरंगजेब के फरमान’ में संकलित किए हैं। इलाहाबाद नगर पालिका में सोमेश्वर नाथ महादेव मंदिर, उज्जैन में महाकालेश्वर मंदिर, चित्राकूट में बालाजी मंदिर, गुवाहाटी में उमानंद मंदिर, शत्रांजय में जैन मंदिर आदि। ये कुछ अन्य मंदिरों के उदाहरण हैं जिन्हें औरंगजेब की तरफ से अनुदान/जागीरें आदि प्रदान की गई थीं।
एक वाक्या और, गोलकुंडा के नवाब ने औरंगजेब को नजराना भेजने से इन्कार कर दिया। औरंगजेब के जासूसों ने उसे खबर दी कि नवाब ने अपना खजाना मस्जिद में छुपाकर रखा है। औरंगजेब ने आदेश दिया कि मस्जिद को खोद दिया जाए और सारा खजाना दिल्ली लाया जाए। उसवेफ आदेश का पालन हुआ और मस्जिद गिरा दी गई।
अकबर के नवरत्नों में से 2 हिन्दू थे। शाहजहां के प्रशासकीय ढांचे में 24 प्रतिशत हिन्दू राजा थे जबकि औरंगजेब के प्रशासकीय ढांचे में 34 प्रतिशत हिन्दू राजा थे।
12. मिथकः-
राणाप्रताप ने अकबर के विरुद्ध व शिवाजी ने औरंगजेब के विरुद्ध हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए युद्ध लड़े थे।
असलियत :-
यह भी एक प्रसिद्ध मिथक है। आमतौर पर पोस्टरों व कैलेण्डरों में भगतसिंह व चन्द्रशेखर आजाद के साथ राणाप्रताप व शिवाजी के फोटो रहते हैं। ऐसा करके दिखाया जाता है कि भगतसिंह व आजाद की तरह वे भी स्वतंत्रता सेनानी थे। राणा प्रताप व शिवाजी को मुगल शासकों के विरुद्ध आजादी की लड़ाई लड़ने वालों के रूप में स्थापित किया गया है। सच्चाई यह नहीं है। राणा प्रताप-अकबर की लड़ाई में राजा मानसिंह अकबर के सेनापति के रूप में लड़ रहा था जबकि राणा प्रताप का प्रमुख सहयोगी हाकिम खान सूर था। दोनों ही सेनाओं में हिन्दू और मुस्लिम सिपाही थे। वास्तव में यह लड़ाई धर्म के लिए नहीं, पदवी के चलते हुई थी। अकबर अपने राज्य का विस्तार कर रहा था और इस प्रक्रिया में वह विभिन्न राजाओं को अपने राज्य में शामिल करने की एवज में विभिन्न पदवियां दे रहा था। उसने राणा प्रताप को पांच हजारी (वह राजा जो पांच हजार सिपाही अपने मातहत रख सकता था।) की पदवी दी। राणा प्रताप दस हजारी की पदवी चाहता था जिसके लिए अकबर तैयार नहीं हुआ। इसके चलते यह युद्ध हुआ। बाद में जहांगीर ने राणा के लड़के अमरसिंह को जब दस हजारी की पदवी दी तो वह खुशी-2 जहांगीर का सहयोगी बन गया।
शिवाजी को मुस्लिम विरोधी राजा के तौर पर पेश किया जाता है। सच्चाई इसके विपरीत है। शिवाजी की सेना में अनेक मुसलमान थे। शिवाजी का विश्वासपात्र सचिव मौलाना हैदर अली था। शिवाजी के मुख्य सेनापतियों के नाम दौलत खान और सिद्दमिसी थे और ये दोनों ही मुस्लिम थे। जिस व्यक्ति ने उन्हें आगरा जेल से भागने में मदद की, वह भी एक मुस्लिम मादरी-महतार नाम का व्यक्ति था। शिवाजी ने जगदीशपुर मंदिर में अपने महल के सामने स्वयं एक मस्जिद का निर्माण करवाया था। अतः शिवाजी तथा औरंगजेब का संघर्ष धर्म के लिए लड़ा जाने वाला युद्ध नहीं था। यह तो दो राजाओं के बीच होने वाली लड़ाई थी।
13. मिथक :-
हिन्दूओं का जबर्दस्ती धर्म परिवर्तन किया गया।
असलियत -:
यह भी एक अति प्रचारित किन्तु आधरहीन तथ्य है कि अतीत में हिन्दुओं का बड़ी संख्या में जोर जबरदस्ती करके धर्म परिवर्तन किया गया। इस एक मिथक के आधर पर संघ परिवार हिन्दू जनता में प्रतिशोध की भावना पैदा करने में कामयाब हुआ है। धर्म श्रद्धा व विश्वास का मामला है। किसी की श्रद्धा और आस्था राम से हटा कर अल्लाह में पैदा करना नामुमकिन है। जबर्दस्ती अल्लाह बुलवाया जा सकता है, जबर्दस्ती गाय का मांस खिलाया जा सकता है लेकिन जबर्दस्ती अल्लाह में श्रद्धा पैदा नहीं की जा सकती। ऐसा नहीं है कि इतिहास में धर्म परिवर्तन न हुए हों, लेकिन उसका कारण जोर जबर्दस्ती नहीं रहा। मसलन हिन्दुओं के उच्च सम्भ्रात वर्ग ने धर्म परिवर्तन लालच में किया क्योंकि मुसलमान होने से पदोन्नति या शासक का कृपापात्र बनना हिन्दु की बजाय आसान था, इसलिए हिन्दु शासकों ने अपना रुतबा बनाए रखने के लिए धर्म परिवर्तन किया। इस श्रेणी में जमींदार व कुलीन तन्त्र शामिल थे।
दूसरी श्रेणी में वे लोग थे जिन्हे तलवार के बल पर गाय का मांस खाने या अल्लाह बोलने के लिए मजबूर किया गया। जब उन्होंने वापिस अपने धर्म में आने की कोशिश की तो शुद्धिकरण के नाम पर कर्मकांड करने के लिए ब्राह्मणों पुरोहितों ने उनके सामने कठिन शर्तें रखीं जिन्हें पूरा करना उनके लिए सम्भव नहीं था और वे नए धर्म में ही बने रहे।
लेकिन सर्वाधिक बड़ी संख्या उन दलितों व गरीब जनता की थी जिसने अपनी मर्जी से धर्म परिवर्तन किया क्योंकि हिन्दू धर्म का जातिवाद उन्हें इंसान मानने से भी इंकार कर रहा था। अतः एक इंसान की गरिमामयी जिंदगी की चाहत में उन्होंने इस्लाम का रास्ता चुना। कई लोगों ने सूफी सन्तों के मानवतावादी दृष्टिकोणों से प्रभावित होकर भी धर्म परिवर्तन किया था।
14. मिथक :-
ईसाई मिशनरियां नौकरी और लड़की का लालच देकर नवयुवकों को इसाई बना रही हैं।
असलियत :-
‘लड़की’ का लालच देकर ईसाई बनाने वाला मिथक न केवल घटिया मानसिकता का प्रतीक है बल्कि इस मिथक को फैलाने वाले महिलाओं के बारे में कितनी निचले दर्जे की सोच रखते हैं, इससे यह भी स्पष्ट होता है। ये लड़कियां जो धर्म परिवर्तन करने वाले नवयुवकों को ‘उपहार-स्वरूप’ दी जाती हैं क्या किसी फैक्टरी में पैदा होती हैं कि टीवी या साईकिल की तरह धर्म परिवर्तन करने वाले को लड़की भी साथ में दे दी। ये लड़कियां भी किसी की बेटी, किसी की बहन होती होंगी। शादी से पहले क्या उनके मां-बाप जांच-पड़ताल नहीं करते होंगे कि जिस व्यक्ति से उनकी लड़की की शादी हो रही है, वह कैसा है? कोई भी मां-बाप अपनी लड़की किसी को ‘उपहार’ में नहीं देगा। धर्म परिवर्तन करने वाले नौजवानों के रिश्ते भी वैसे ही होते हैं, जैसे समाज में अन्य नवयुवकों के होते हैं।
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" शनिवार 08 अगस्त 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजितनी भ्रामक कट्टरपंथी हिंदुओं द्वारा उपरोक्त विषयक फैलायी गयी भ्रांतियाँ है उतना ही भ्रामक आपका लीपा पोती का किया गया प्रयास। हमें जायज और नाजायज़ ठहराने के चक्कर से द्दूर रहकर वस्तुओं को वस्तुनिष्ठ ढंग से सही संदर्भ में देखना चाहिए। आप कश्मीर की आबादी का उदाहरण क्यों छोड़ गए। आपके आँकड़े १९७१ के बाद से ही सिलेक्टिव क्यों हैं। आपने मुस्लिम नेताओं के तुष्टि करण को मुस्लिम तुष्टि कारण से अलग मानकर अपनी किस बौद्धिक क्षमता का परिचय दिया है। आपके सारे उदाहरण इसी तरह की त्रुटियों से ग्रसित हैं तथा पूरी तरह से ख़ारिज किए जाने लायक़ हैं। सही मामले में जो आपने लिखा है वह आपकी भावनाओं का सही प्रतिनिधित्व नहीं करते।
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