नवयुवकों से दो बातें - 1
प्रिंस क्रॉपाटकिन
(प्रस्तावना - आज मैं युवकों से कुछ बातें करना चाहता हूं। बूढ़े लोगों को - दरअसल मेरा मतलब दिल और दिमाग से बूढ़े लोगों से है - इसको पढ़ने का कष्ट न उठाना चाहिए; क्योंकि इसको पढ़ने से सिर्फ उनकी आँखें थकेंगी और फायदा कुछ भी न होगा।
मैं कल्पना करता हूं कि तुम्हारी उम्र अठारह-बीस वर्ष की है, तुम अपने शिक्षाकाल या विद्यार्थी-जीवन को समाप्त कर चुके हो और अब सांसारिक जीवन में प्रवेश कर रहे हो। मैं यह भी मान लेता हूं कि तुम्हारा दिमाग अंधविश्वास से, जिसे तुम्हारे शिक्षकों ने तुम्हारे भीतर भरने की कोशिश की थी, से मुक्त है! तुम नरक-स्वर्ग की बातों से नहीं डरते और तुम मुल्लाओं तथा पुजारियों की थोथी बातों को सुनने नहीं जाते। साथ ही तुम उन दिखावटी लोगों में से भी नहीं हो जो पतनशील जातियों में प्रायः पैदा हुआ करते हैं, जो अपने चमकीले कपड़ों और बंदर की सी शक्ल को मेले-तमाशों में दिखलाया करते हैं और जो छोटी उम्र किसी भी तरह सुख भोगने की बेहद लालसा रखते हैं; बल्कि मैं तो यह मानता हूं कि तुम एक सहृदय व्यक्ति हो और इसी कारण मैं तुमसे बातें करता हूं।
मैं जानता हूं कि तुम्हारे सामने अक्सर एक प्रश्न आया करता है -‘‘हमें आगे चलकर क्या बनना है?’’ वास्तव में प्रत्येक मनुष्य अपनी युवावस्था में यही समझता है कि उसने बहुत वर्षों तक समाज की सहायता के आधर पर जिस किसी विद्या या कला का अध्ययन किया है, उसका उद्देश्य यह नहीं है कि अपने ज्ञान को दूसरों को लूटने तथा अपने स्वार्थ-साधन करने का जरिया बनाया जाये। ऐसा व्यक्ति तो अवश्य ही महाभ्रष्ट है और दुर्गुणों से पूर्ण है, जिसके मन में यह कल्पना नहीं उठती कि समय आने पर मैं अपनी बुद्धिमत्ता, योग्यता और ज्ञान को उन लोगों को अधिकार दिलाने में लगाऊंगा जो आज दुर्दशा और अज्ञान में फंसे हुए हैं।
मैं मान लेता हूं कि तुम उन्हीं में से एक हो, जिनको इस प्रकार के सपने आया करते हैं। क्या वास्तव में ऐसा नहीं है? अच्छा, तो अब हमको देखना चाहिए कि अपने स्वप्न को सत्य बनाने के लिए तुमको क्या करना है!
मैं यह नहीं जानता कि तुम कैसे घर में पैदा हुए हो। संभव है, तुम किसी संपत्तिशाली घर के हो और तुमने विज्ञान के अध्ययन का विचार किया हो, तुम डाक्टर बनना चाहते हो, अथवा बैरिस्टर, लेखक या वैज्ञानिक, तुम्हारे सामने एक विशाल कार्यक्षेत्र मौजूद है और तुम विस्तीर्ण ज्ञान और सुशिक्षित बुद्धि को लेकर कार्यक्षेत्र में प्रवेश कर रहे हो अथवा इसके विपरीत, तुम एक मेहनती कारीगर हो और तुम्हारी विज्ञान-संबंधी शिक्षा स्कूल की साधरण पढ़ाई तक ही सीमित है, पर साथ ही तुमको इस बात का स्वयं अनुभव प्राप्त करने का मौका मिला है कि वर्तमान समय में श्रमजीवियों, मजदूरों को कैसी कठिन मेहनत करके गुजारा करना पड़ता है।)
1. डॉक्टर
अभी मैं पहली कल्पना पर विचार करता हूं। इसलिए मैं यह मान लेता हूं कि तुमको अच्छी वैज्ञानिक शिक्षा मिली है। मान लो कि तुम डॉक्टर बनना चाहते हो।
कल फटे-पुराने कपड़े पहने एक आदमी किसी रोगी स्त्री को देखने के लिए तुम्हें बुला ले जाता है। तुम्हें ऐसे तंग गली-कूचों में से ले जाता है, जिनमें दो आदमियों का साथ-साथ चल सकना भी कठिन है। तुम्हें एक बदबूदार जगह में टिमटिमाते दीपक की रोशनी में ऊपर चढ़ना पड़ता है। तुम दो, तीन, चार या पांच गंदे जीने चढ़कर एक अंधेरी सीलनवाली कोठरी में पहुंचते हो और वहां रोगी स्त्री को टूटी-सी चारपाई पर मैले चीथड़ों से ढ़की हुई पाते हो। पीले चेहरों वाले मैले-कुचैले बच्चे पतले कपड़ों के भीतर ठंड से कांपते हुए आँखें फाड़-फाड़ कर देख रहे हैं। स्त्री का पति उम्रभर किसी कारखाने में बारह-तेरह घंटे रोज काम करता रहा। अब वह तीन महीने से बेकार बैठा है। नौकरी छूट जाना उसके लिए कोई नई बात नहीं है। प्रायः हर साल या समय-समय पर ऐसी घटना हुआ ही करती है। पर पहले जब वह बेकार रहता था तो उसकी स्त्री कुछ मेहनत-मजूरी कर लेती थी, शायद वह तुम्हारे ही घर चौका-बर्तन करती रही हो, और पांच-सात रुपया महीना कमा लेती थी, पर अब वह भी दो महीने से बीमार है और सारा परिवार दुर्दशा के भीषण पंजे में फंसा हुआ है।
डॉक्टर साहब, आपने यह तो आते ही समझ लिया होगा कि इस स्त्री की सारी बीमारी सिर्फ शारीरिक दुर्बलता है, जिसका कारण है पौष्टिक भोजन का अभाव और स्वच्छ हवा की कमी। आप इसके लिए क्या नुस्खा तजबीजेंगे? प्रतिदिन एक सेर दूध? शहर के बाहर स्वास्थ्यकर स्थान में घूमना-फिरना? अच्छे हवादार कमरे में सोना? कैसी विडम्बना है! अगर उसके पास इतनी ही हैसियत होती, तो ये उपाय बिना आपकी सलाह के बहुत पहले कर लिये गये होते।
अगर तुममें कुछ सहृदयता का भाव है, अगर तुम खुलकर बातचीत करते हो और अगर तुम्हारे चेहरे से ईमानदारी टपकती है, तो उन लोगों से तुमको बहुत-सी बातें मालूम हो सकती हैं। वे तुमको बतलायेंगे कि बगल की कोठरी में जो औरत बुरी तरह से खाँस रही है कि जिसे सुनकर तुम्हारा कलेजा फटा जाता है, वह कपड़े साफ करनेवाली एक गरीब स्त्री है। नीचे की मंजिल में रहनेवाले सब बच्चे बुखार से पीड़ित हैं। सबसे नीचे की मंजिल में रहनेवाली धोबिन इस जाड़े के अंत तक जिंदा नहीं बचेगी। और बगल के मकान में रहनेवाले लोगों की दशा इससे भी बुरी है। इन सब बीमार लोगों से तुम क्या कहोगे? क्या उनके लिए पौष्टिक भोजन, आबोहवा की तबदीली, हलका श्रम आदि तजबीज करोगे? तुम चाहोगे अवश्य कि तुम ऐसा कर सको, पर तुम कहने का साहस नहीं कर सकते और तुम दुःखी हृदय से भाग्य को कोसते हुए वापस आते हो।
दूसरे दिन, जब अभी तुम उस नरक-कुंड में रहनेवालों के भाग्य पर विचार ही कर रहे हो, तुम्हारा साथी तुमको बतलाता है कि कल एक दरबान उसको बुलाने आया था और साथ में गाड़ी भी लाया था। वह उसे सुन्दर महल में रहनेवाली एक श्रीमती को देखने को ले गया। उस रमणी को रात में नींद न आने की बीमारी है। उसने अपना सारा जीवन बनाव-सिंगार, दावतों, तमाशों और अपने बेवकूफ पति के साथ दांता-किलकिल करने में बिताया है। तुम्हारे मित्र ने उसके लिए तजबीज किया - यथासंभव कृत्रिम आदतों का त्याग करना, सादा भोजन, स्वच्छ हवा में टहलना, शांत स्वभाव रखना और कोई शारीरिक काम न करने की कमी को किसी अंश में पूरा करने के लिए अपने कमरे के भीतर हलकी कसरत कर लेना।
एक इसलिए मर रही है कि उसे तमाम उम्र न कभी काफी खाना मिला, न काफी आराम, दूसरी इसलिए तकलीफ पा रही है कि उसे अपने जीवन में आज तक यही मालूम नहीं हुआ कि मेहनत करना किसे कहते हैं!
अगर तुम उन निर्बल चरित्र के व्यक्तियों में से हो, जो हर तरह की परिस्थिति से दब जाते हैं, जो अत्यंत वीभत्स दृश्य को देखकर भी एक शोक-सूचक निःश्वास तथा शर्बत के एक गिलास से चित्त को शांत कर लेते हैं, तो धीरे-धीरे तुमको इन परस्पर विरोधी दृश्यों को देखने की आदत हो जायेगी। तुम्हारे भीतर पशुभाव उदय होने लगेगा। तुम्हारा एकमात्र उद्देश्य सुख-लोलुप लोगों के बीच में रहना बन जायेगा, जिससे तुमको कभी दुर्दशाग्रस्त लोगों के बीच में जाने का काम ही न पड़े। पर अगर तुम ‘आदमी’ हो, अगर तुम अपने मनोभावों को कार्य में परिणत करने की इच्छाशक्ति रखते हो, अगर तुम्हारे पशुभाव ने तुम्हारे विवेक को नष्ट-भ्रष्ट नहीं कर दिया है, तो एक दिन तुम अपने मन में यह कहते हुए घर लौटोगे - ‘‘नहीं, यह अन्याय है, यह अधिक समय तक कायम नहीं रहना चाहिए। केवल रोगों का इलाज करने से काम नहीं चलेगा, उनके पैदा होने के कारणों को ही रोकना चाहिए।’’ अगर मनुष्यों को भोजन-वस्त्र की कुछ सुविधा हो जाये और वे कुछ शिक्षित हो जायें तो हमारे रोगियों की संख्या आधी रह जाये और बीमारियां भी लुप्त हो जायें। चिकित्सा-शास्त्र चूल्हे में जाये! स्वच्छ हवा, पौष्टिक भोजन और साधारण परिश्रम - यही सबसे पहली बातें हैं। इनके बिना सब बातें चालबाजी और धेखेबाजी के सिवा और कुछ नहीं हैं।
बस, जिस दिन ये बातें तुम्हारी समझ में आ जायेंगी, उसी दिन तुम साम्यवाद को समझ जाओगे। फिर तुम इसको पूरी तरह से जानना चाहोगे। और अगर तुम परोपकार के सिद्धांत के महत्त्व को कुछ भी समझते हो, अगर तुम एक स्वाभाविक दार्शनिक की भांति प्रमाणों के साथ सामाजिक प्रश्नों पर विचार करोगे तो अंत में एक दिन तुमको साम्यवादियों के दल में मिल जाना पड़ेगा और तुम सामाजिक क्रांति के लिए उद्योग करने लगोगे।
2. वैज्ञानिक
अब हम दूसरी कल्पना पर विचार करते हैं । मान लो तुम डॉक्टर न बनकर एक वैज्ञानिक बनना चाहते हो, और खगोल विद्या, प्राणीशास्त्र या रसायन शास्त्र में लगकर विज्ञान की उन्नति करना चाहते हो। ऐसे काम का फल सदा अच्छा निकलेगा, भले ही वह हमें न मिलकर आनेवाली पीढ़ियों को मिले।
सबसे पहले हमें यह जानने का उद्योग करना चाहिए कि विज्ञान की उन्नति करने से तुम्हारा उद्देश्य क्या है? क्या यह उद्देश्य केवल आनन्द, उत्कृष्ट आनन्द प्राप्त करना है, जो प्रकृति के निरीक्षण और अपनी मानसिक शक्तियों को किसी काम में लगाकर विकसित करने से मिलता है। उस दशा में मैं तुमसे पूछूंगा कि जो दार्शनिक अपना जीवन आनन्द के साथ व्यतीत करने के लिए विज्ञान का अध्ययन करता है, उसमें और एक शराबी में, जो शराब के नशे में थोड़ी देर के लिए दिल की खुशी हासिल करता है, क्या फर्क है? इसमें सन्देह नहीं कि दार्शनिक ने अपने आनन्द का विषय अधिक बुद्धिमानी से चुना है, क्योंकि उससे शराब की अपेक्षा बहुत गहरा और बहुत स्थायी आनन्द मिलता है, पर इससे ज्यादा कुछ नहीं। दोनों ही व्यक्ति स्वार्थ पर निगाह रखते हैं और दोनों का उद्देश्य एक ही है, यानि व्यक्तिगत सुख प्राप्त करना।
पर नहीं, तुम कहोगे कि मैं अपने स्वार्थ के लिए यह काम नहीं करता, विज्ञान की उन्नति के लिए, मनुष्य जाति के हित के लिए करता हूं। मेरे अन्वेषण का यही लक्ष्य रहेगा।
यह भी मजेदार भ्रम है । हमारे में से जिस किसी ने भी जब पहले-पहल विज्ञान का कार्य आरम्भ किया था तो अवश्य ही एक बार इसका सहारा लिया था। पहले हम भी ऐसा ही करते थे।
पर यदि दरअसल तुम मानव-जाति का विचार करते हो और तुम्हारा उद्देश्य मानव-समाज का हित-साधन करना है, तो तुम्हारे सामने एक विकट प्रश्न उपस्थित होता है। तुम्हारे भीतर समालोचना करने का भाव कितना ही कम क्यों न हो, तो भी तुम तुरंत जान सकते हो कि आजकल हमारे समाज में विज्ञान सुखोपभोग का एक साधन-मात्र बन गया है, जिससे थोड़े से लोग अपने जीवन को अधिक सुखी बनाते हैं, पर मानव-समाज का अधिकांश भाग उस तक पहुंच भी नहीं पाता।
सौ साल से ज्यादा समय व्यतीत हो गया, जब विज्ञान ने विश्व ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का निश्चयात्मक रूप से निर्णय कर दिया था; पर कितने लोगों ने उन सिद्धांतों का अध्ययन किया है, या उस संबंध में कुछ वैज्ञानिक और आलोचनात्मक ज्ञान रखते हैं? ऐसे लोगों की संख्या शायद कुछ हजार होगी, पर उन करोड़ों मनुष्यों के सामने, जो अभी तक दुराग्रह और अंधविश्वासों में फंसे हैं और इस कारण धर्मिक ठगों के हाथों में कठपुतली बन जाते हैं, ऐसे लोगों की संख्या दाल में नमक के बराबर भी नहीं है।
अगर हम इससे कुछ और आगे बढ़कर देखें तो हमें विचार करना चाहिए कि विज्ञान ने शारीरिक और चरित्र संबंधी स्वास्थ्य के ज्ञान को फैलाने के लिए क्या किया है? विज्ञान हमें बतलाता है कि अपने शरीर का स्वास्थ्य कायम रखने के लिए हमें किस तरह रहना चाहिए और किस तरह देश में बसने वाली असंख्य जनता अच्छी दशा में रखी जा सकती है। पर क्या इन दोनों बातों के लिए किया गया परिश्रम केवल किताबों में बन्द रहकर बेकार नहीं पड़ा है? सब लोग जानते हैं कि यह परिश्रम बेकार पड़ा है। इसका कारण क्या है? यही कि विज्ञान का अस्तित्व आजकल केवल थोड़े से विशेष अधिकार-प्राप्त लोगों के वास्ते है। सामाजिक असमानता के कारण आजकल मानव-जाति दो भागों में बंटी हुई है - एक मजदूरी करने वाले गुलाम और दूसरे धन-सम्पत्ति के स्वामी, पूंजीपति। इस भेद के कारण विवेकयुक्त जीवन व्यतीत करने की सब शिक्षाएं सौ में से नब्बे मनुष्यों के लिए एक दिल दुखाने वाले मजाक के सिवा और कुछ अर्थ नहीं रखतीं।
मैं तुम्हें और भी बहुत से उदाहरण बता सकता हूं, पर बात को ज्यादा बढ़ाना ठीक नहीं। अगर तुम अपनी तंग कोठरी से, जिसकी खिड़कियों पर धूल जमी हुई है और जिसमें रखी हुई पुस्तकों की अलमारियों पर सूर्य का प्रकाश भी नहीं पड़ता, बाहर निकलकर चारों तरफ आँखें खोलकर देखोगे, तो तुम्हें कदम-2 पर नये प्रमाण मिलेंगे, जिनसे इस मत का समर्थन होगा।
इस समय हमें विज्ञान-संबंधी ज्ञान और अविष्कारों की वृद्धि करने की जरूरत नहीं है। सबसे जरूरी बात यह है कि जो ज्ञान अभी तक प्राप्त हो चुका है, वह प्रतिदिन के जीवन में काम में लाया जाये और सर्वसाधारण तक पहुंचाया जाये। हमें ऐसा बन्दोबस्त करना चाहिए कि सभी मनुष्य विज्ञान के सच्चे सिद्धांतों को जान सकें और काम में ला सकें। ऐसा होने से विज्ञान एक शौक की चीज न रहेगा, बल्कि मनुष्य के जीवन का आधार बन जायेगा। यही न्यायानुकूल बात है, इन्साफ का यही तकाजा है ।
इसके सिवा विज्ञान के हित की दृष्टि से भी यही आवश्यक है। विज्ञान की सच्ची उन्नति तभी होती है जब जनसमूह उसके सिद्धांतों का स्वागत करने को तैयार हो। यंत्र द्वारा उष्णता की उत्पत्ति का सिद्धांत गत शताब्दी में स्थिर हो चुका था, पर अस्सी वर्ष तक किताबों में ही बंद पड़ा रहा और उसका उपयोग तभी हो सका, जब जनता में भौतिकशास्त्र का काफी ज्ञान फैल गया। डार्विन ने प्राणियों के विकास का जो सिद्धांत मालूम किया, वह तीन पुश्त के बाद विद्वानों द्वारा स्वीकार किया गया। और वह भी तब, जब उन पर सार्वजनिक मत का दबाव पड़ा। कवि और चित्राकार की तरह दार्शनिक के अस्तित्व का आधार भी वह समाज है, जिसमें वह रहता है और अपने उपदेशों का प्रचार करता है।
पर जब इस प्रकार के विचार तुम्हारे भीतर भर जायेंगे तो तुम समझ जाओगे कि सबसे अधिक महत्व की बात वर्तमान स्थिति में जड़मूल से परिवर्तन करना है। उस स्थिति में जिसके कारण थोड़े से दार्शनिकों के भीतर वैज्ञानिक सिद्धांत ठूंस-ठूंस कर भर दिये जाते हैं और शेष जनसमूह उसी दशा में पड़ा रहता है, जिसमें वह हजार-पांच सौ वर्ष पहले था, अर्थात वह गुलामों या निर्जीव मशीनों की भांति बना रहता है और सच्चे सिद्धांतों को समझने में असमर्थ रहता है। जिस दिन तुम इस विस्तृत, गंभीर, उदार और पूर्ण वैज्ञानिक सच्चाई को पूरी तरह से समझ जाओगे, उसी दिन से तुम्हें खाली विज्ञान में कुछ मजा न आयेगा। तुम उन उपायों को जानने के लिए उद्योग करने लगोगे, जिनसे ऐसा परिवर्तन हो सकें। और अगर तुम इस जांच को उसी निष्पक्षता के साथ करोगे, जिसकी सहायता से अब तक वैज्ञानिक अन्वेषणों को करते रहे हो, तो तुम अवश्य ही साम्यवाद के पक्ष को स्वीकार कर लोगे, दिखावे और भ्रमपूर्ण तर्कों को त्याग कर साम्यवादियों के साथी बन जाओगे। तब उन थोड़े से लोगों के लिए, जिनके पास अब भी ऐसे साधनों का बहुत बड़ा हिस्सा मौजूद है, आनन्द के साधन जुटाने का उद्योग करना व्यर्थ समझकर, तुम अपने ज्ञान और शक्ति को अत्याचार-पीड़ितों की सेवा में लगाओगे।
यह विश्वास रखो कि जब तुम्हारे अन्दर कर्त्तव्य-पालन का भाव पैदा हो जायेगा और तुम्हारे विचारों और कार्यों में सच्ची एकता कायम हो जायेगी, तो तुम्हें अपने भीतर ऐसी शक्तियां मालूम होने लगेंगी, जिनके अस्तित्व का तुम्हें पहले स्वप्न में भी पता न था। अन्त में एक दिन ऐसा आयेगा - और शीघ्र ही आयेगा, चाहे उस समय तक हमारे वर्तमान शिक्षक भले ही जीवित न रहें - जब कि वह परिवर्तन, जिसके लिए तुम उद्योग कर रहे हो, उत्पन्न हो जायेगा। उस समय जनसमूह के सम्मिलित विज्ञान-सम्बंधी कार्य से नई शक्ति प्राप्त के, श्रमजीवियों (मजदूरों) के बड़े-बड़े सेना दलों की, जो अपने उद्योग का फल संसार की ज्ञान-वृद्धि में लगाएंगे, शक्तिशाली सहायता से विज्ञान और कला-कौशल इतनी शीघ्रता से उन्नति करने लगेगा, जिसके मुकाबले में उसकी वर्तमान समय की मंद गति बच्चों के खेल के समान जान पड़ेगी। तब तुम्हें विज्ञान का मजा मालूम होगा, क्योंकि उस समय आनन्द का उपभोग तुम अकेले ही न करोगे, बल्कि तुम्हारे साथ साधारण जनता भी होगी।
संदर्भ -: नवयुवकों से दो बातें, अभियान प्रकाशन
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