Thursday, 20 August 2020

हरियाणा में कला साहित्य

 हरियाणवी एवं हरियाणा में कला साहित्य और जनवादी लेखन के समक्ष चुनौतियाँ 

- एडवोकेट राजेश कापड़ो


(प्रस्तुत शोध-पत्र एडवोकेट राजेश कापड़ो ने अभियान पत्रिका द्वारा 16-17 मार्च, 2002 में आयोजित गोष्ठी में पेश किया था। जिसकी प्रासंगिकता इतने सालों बाद भी बनी हुयी है। इस शोध को अभियान पत्रिका पुनः इस उम्मीद के साथ अपने ब्लॉग पर तमाम जागरूक नागरिकों के साथ सांझा कर रही है कि कला पर पुनः एक बहस शुरू हो। जिसमें कला के सामाजिक सरोकार और मां बोली को किस तरह से भाषाओं के रूप में विकसित किया जा सकता है इस पर सभी साथियों की प्रतिक्रियाएं आमंत्रित हैं। धन्यवाद। - संंपादक मंडल अभियान)



हरियाणा में कला-साहित्य और हरियाणवी में कला साहित्य, दो अलग-अलग विषय हैं। हरियाणा में कला-साहित्य की रचना हिन्दी में हो सकती है, उर्दू या पंजाबी में हो सकती है; अंग्रेजी या कोई और भारतीय भाषा, इस प्रकार के कला-साहित्य का माध्यम हो सकती है। लेकिन जब हम हरियाणवी में कला-साहित्य की बात करते हैं तो इसका संबंध सिर्फ हरियाणवी भाषा में रचित कला-साहित्य से है। मैं इन दोनों विषयों पर बातचीत करने का इच्छुक हूँ। क्योंकि हरियाणा में बहुसंख्यक लोग हरियाणवी समझते एवं व्यवहार में लाते हैं इसलिए पहले हरियाणवी में कला-साहित्य पर ही ध्यान केन्द्रित किया जाए तो अच्छा रहेगा। यहाँ आए तमाम कवि, लेखक एवं कलाकारों के समक्ष कुछ प्रश्न उठाना चाहूँगा जो पिछले काफी दिनों से व्यक्तिगत रूप से मुझे परेशान कर रहे हैं, ताकि हम आपसी विचार-विमर्श द्वारा हरियाणवी कला-साहित्य के विकास एवं जनवादी लेखन के समक्ष आ रही चुनौतियों का सामना कर सकें।
किसी भी भाषा का लोक साहित्य ही है, जो मनुष्य के प्रकृति के साथ संघर्ष, उसके उत्पादन के लिए संघर्ष और सदियों के वर्ग-संघर्ष से पैदा हुआ है, उसके आधुनिक स्वरूप का जनक है। किसी भी वर्ग-समाज में कला-साहित्य वर्गों से परे नहीं हो सकता। शासक-वर्ग शोषित-वर्ग के कला साहित्य को दबाकर रखता है या मिटाना चाहता है। शोषित, शासक वर्ग के कला-साहित्य को आत्मसात कर लेता है, लेकिन साथ-साथ उसका अपना कला-साहित्य भी, जिसमें उसकी अपनी सामुहिक अभिव्यक्ति, हर्ष-विषाद एवं संघर्ष रहता है, विकसित होता रहता है, जो लोक कला-साहित्य के रूप में जाना जाता है। इस प्रकार के लोक कला-साहित्य के बारे में महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने कहा है कि, वह उतना ही स्वाभाविक होता है, जितना कि जंगल में खिलने वाला फूल, उतना ही स्वच्छंद होता है, जितना आकाश में उड़ने वाली चिड़िया, उतना ही सरल तथा पवित्र होता है जितनी गंगा की निर्मल धरा। लोक कला-साहित्य की अभिव्यक्ति सामूहिक तथा लय सहज रूप में होती है।
हरियाणा में लोक कला-साहित्य की समृद्ध विरासत रही है। एक ऐसा कला-साहित्य जो मेहनतकश जनता ने सदियों से मेहनत करते-करते विकसित किया है। मुख्य रूप से महिलाओं द्वारा गाए जाने वाले गीतों में इसके साक्षात दर्शन किए जा सकते हैं। इन लोकगीतों में महिला की सामाजिक स्थिति व उसके प्रति विद्रोह का स्वर साफ-साफ दिखाई देता है। महिलाओं द्वारा विभिन्न अवसरों पर गाए जाने वाले गीतों में समाज की तस्वीर भी स्वाभाविक रूप से नजर आती है। अभिप्राय यह कि लोग जिस प्रकार के सामाजिक एवं आर्थिक परिवेश में रहेंगे उसी परिवेश से अपने लिए कला-साहित्य भी रचेंगे। अपने गीतों में महिला विभिन्न प्रकार के क्रिया-कलापों में दिखाई देती है, तथा उसका सुख-दुख उसकी मनोभावना लोकगीतों में झलकती है। पुरुषों का भी ऐसा ही लोक-साहित्य होना चाहिए जो आपके सामने शोध का विषय है।
लोक-साहित्य के मौलिक धरातल पर खड़े होकर ही आधुनिक कला-साहित्य की रचना की गई है। इसमें साँग एवं रागणी साहित्य को लिया जा सकता है, क्योंकि साँग और रागणी व्यापक स्तर पर प्रचलित हैं, इसलिए इनके विकास के इतिहास को जानना आवश्यक है। मामूली जानकारी के आधर पर ही बात करना चाहूँगा हालांकि ठोस अध्ययन की जरूरत है। सन् 1730 के आसपास साँग का आर्विभाव माना जाता है। किशन लाल भाट द्वारा रचित साँगों के कथानक वीरगाथा (जैसे -- आल्हा ऊदल), नीति-प्रधान एवं प्रेम-प्रधान थे। जिनकी रचना ‘चमौला’ एवं ‘काफिया’ आदि कला विधाओं में की जाती थी। 1854 से 1889 के बीच दक्षिण हरियाणा के साँगी अली बख्श ने भी ‘चमौला’, ‘बहर-तबिल’, ‘गजल’, ‘भजन’ एवं ‘जिकारी’ आदि कला विधाओं के माध्यम से साँगों की रचना की, जो कि स्वभाव से शास्त्राय थे। 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक इन्हीं विधाओं का प्रचलन रहा। इसी समय साँगी पं॰ दीपचंद अपने साँगों के माध्यम से पहले विश्वयुद्ध में अंग्रेजों की मदद के लिए नौजवानों को सेना में भर्ती होने की प्रेरणा दे रहे थे। दीपचंद के बाद और लखमीचंद से पहले रचनाकार हरदेवा ने हरियाणा वासियों को आधुनिक रागणी से परिचित करवाया।
इसी परम्परा को लखमीचंद, माँगेराम, बाजे भगत, जमुआ मीर के शिष्य धनपत व अन्य साँगियों ने आगे बढ़ाया। वाद्य यंत्रों के रूप में सारंगी, नगाड़ा, खड़ताल, हारमोनियम आदि प्रयोग में लाए गए। बैन्जो द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अंग्रेजों की तरफ से जर्मनों के खिलाफ लड़ते हुए बंदी बनाए गए हरियाणवी सैनिक लेकर आये जो कि साँग में नहीं बजाया जाता। इस पूरे काल में कला-साहित्य का कथानक राजभक्ति, वीरगाथा और प्रेम-प्रसंग ही रहा। और मैं महसूस करता हूँ कि यह कला-साहित्य अपने कथानक के साथ-साथ, कुछ अपवादों को छोड़कर, रूप में भी मौलिकता से बहुत दूर चला गया है।
मौलिकता से दूर जाने का जो अर्थ मैंने लिया है वह यह है कि लोक-साहित्य के धरातल से जो साहित्य विकसित किया गया है उसमें मौलिकता, यानि रूप की मौलिकता उस साहित्य में नहीं है। हम यह सब चर्चा क्यों करना चाहते हैं? क्योंकि हम जनवादी कवि-कलाकार, अपने लेखन में विभिन्न प्रकार की दिक्कतें महसूस करते हैं। मुख्य रूप से, एक तो लेखन में नीरसता, यानि एक ही प्रकार के फ्रेम में लिखते-लिखते ऊब चुके हैं। दूसरी, जो कला-साहित्य हम रचते हैं, क्या वह जनता द्वारा आत्मसात कर लिया जाता है? हम सब जनता के पक्ष के कवि-कलाकार हैं, हमारी रचना के केन्द्र में जनभावना तो होगी ही, इसलिए हमारी रचना जनता को अच्छी तो लगती है, लेकिन रचना का अच्छा लगना और आत्मसात करना, दो अलग-अलग बातें हैं। जब हम बदलाव की बात करते हैं! जनता के मुक्ति-युद्ध में कला-साहित्य को हथियार के रूप में भूमिका निभाने की बात करते हैं, तब तो उपरोक्त समस्याएँ और भी विचारणीय बन जाती हैं। इनके समुचित समाधन के बिना कला-साहित्य निश्चित रूप से उस हथियार की भूमिका नहीं निभा पाएगा। रचना और रचनाकार का व्यापक जनता के बीच जाना एक प्रकार की समस्या हो सकती है, लेकिन जितनी भी हम पहुँच बना पाए हैं, वहाँ यह आत्मसात करने वाली समस्या है। पिछले कुछ वर्षों के अनुभव के आधर पर, आंशिक रूप से समस्या की जड़ मेरी पकड़ में आती लग रही है। वह यह कि जब भी हमने लोकधुनों को आधार बनाकर रचनाएं तैयार की, उन्हें जनता के बीच लेकर गए, वे अपेक्षाकृत ज्यादा आत्मीयता से आत्मसात कर ली गई। कथानक और रूप, दोनों दृष्टिकोणों से उन रचनाओं में अपनापन नजर आया। ऐसी रचनाओं को व्यापक स्तर पर बच्चों और महिलाओं द्वारा गाया गया, लेकिन एक ढर्रे में रचित रचनाएँ सिर्फ मंच तक ही सीमित रहीं, मंच से उतरकर जनता के बीच नहीं जा पाई। कला-साहित्य में वहाँ के मानस का जो लोक-रस होता है उसे रचना के रूप एवं सार, दोनों स्तरों पर प्रयोग करके ही मौजूदा रुकावट का सामना किया जाना चाहिए। जनता से लेकर जनता को देने वेफ सिद्धांत को चेतन रूप में आत्मसात करके ही इस समस्या का समाधान ढूंढ़ा जा सकता है, क्योंकि जनता के पास एक कवि कलाकार के लिए समृद्ध कच्चे माल का अकूत भंडार मौजूद है, इसलिए जनता के लोक-कला रूपों का अध्ययन -- जिसमें उसकी भाषा, मुहावरे, कहावतें भी शामिल हैं -- करना इस समस्या के समाधान की दिशा में एक कदम होगा। उन्हें संग्रहित करके, उन्हें साफ-सुथरा करके दोबारा जनता के बीच ले जाना दूसरा कदम होगा।
हमारे लेखन में हमारा अध्ययन साफ तौर से दिखाई देता है। हमारी रचनाएँ एक सामान्य तस्वीर पेश करती हैं। पूरे जंगल का वर्णन किया जाता है लेकिन जंगल के विभिन्न पेड़ों का अध्ययन, उसके फूलों, पत्तों एवं शाखाओं के बारे में हमारा अध्ययन अभी कमजोर है जो कि जंगल की गहराइयों में जाने पर ही परिपक्व हो पायेगा। सामान्य के साथ विशेष का और मात्रा के साथ-साथ गुण का भी ध्यान रखना चाहिए। इस प्रकार लेखन की नीरसता खत्म होगी, रचनात्मकता आएगी और जनता द्वारा आत्मसात कर लिए जाने पर कला-साहित्य मुक्ति-युद्ध का हथियार भी बनेगा। अभी तक हमने सिर्फ एक कला-विधा के गीत के विषय में ही विचार किया है, क्योंकि गीत का क्षेत्र दूसरी कला-विधाओं की तुलना में कहीं ज्यादा विस्तृत है। हरियाणवी में दूसरी कला-विधाओं, कविता, कहानी, झलकी, एकांकी, नाटक, उपन्यास आदि का विकास भी उपरोक्त सिद्धांत को केन्द्र मानकर किया जाना चाहिए।
दूसरा, हरियाणा में रहकर यहाँ समझी जाने वाली किसी भी भाषा में लिखे जाने वाले, प्रगतिशील एवं जनवादी कला-साहित्य का उद्देश्य भी निश्चित रूप से वही है जो कि हरियाणवी में लिखे जाने वाले कला-साहित्य का है, लेकिन इस प्रकार के कला-साहित्य में हरियाणा के जनमानस की अभिव्यक्ति कितनी हो पाती है? बेशक हम हरियाणा में रहकर लिख रहे हैं। क्या हमारी रचना किसी भी क्षेत्र के पाठक के सामने यह उद्घघाटित करने में सफल हो पाती है कि इस रचना का सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक परिवेश हरियाणा का है। इस प्रकार के कला-साहित्य के प्रखर रचनाकारों से मैं अपील करूँगा कि वे इस बारे में भी सोचें, क्योंकि वो लोग जो जनता के बीच रहकर कला-साहित्य का सृजन कर रहे हैं, इन प्रखर विशेषज्ञों से तकनीक का ज्ञान अर्जित कर सकते हैं, और विशेषज्ञों को साहित्य रचना के लिए वो मौलिक कच्चा माल मिल सकता है जिसका उत्पादन मेहनतकश जनता द्वारा दूर-दराज के खेतों में अपने पसीने से सींचकर किया जाता है। सामाजिक परिवेश की मौलिकता और पसीने की महक यदि विशेषज्ञता के साथ एकमत कर दी जाए तो साहित्य उच्च गुणवत्ता लेकर पैदा होगा।
आज जब शासक वर्गों द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्राता पर चारों ओर से हमला हो रहा है, जनवाद की सरेआम हत्या की जा रही है, पूँजीवादी लोकतंत्र बेनकाब होकर कभी बाबरी-मस्जिद, कभी कश्मीर तो कभी गुजरात में नाच रहा है, बढ़ते आर्थिक संकट के चलते फासीवादी ताकतें पगलाए कुत्ते की तरह सड़कों पर आ चुकी हैं, तब ऐसे में कला-साहित्य के सामने आई  इन चुनौतियों का समाधन करना और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है। अन्त में केवल यही कहना चाहूँगा कि जब भी वक्त आया लेखक, कवि, कलाकार हमेशा जनता के पक्ष में खड़े हुए, शोषित के साथ खड़े हुए। फासीवाद के विरुद्ध लड़ाई में विश्वस्तर पर लेखक, कवि, कलाकार जनता के कंधे से कंधा मिलाकर लड़े और पीछे यदि इतिहास में भी देखें तो आदिकवि वाल्मीकि ने बेशक रामायण की रचना राम की विचारधारा के पक्ष में की लेकिन समय आया तो उसी वाल्मीकि ने शोषित का पक्ष भी लिया। चाहे वह क्रोंच पक्षी की हत्या का प्रसंग हो या सीता को राम द्वारा घर से निकालने पर आश्रय देना। इसलिए तमाम जनता के पक्षधर कवि-कलाकारों से अपील है कि हरियाणा में जनवादी एवं प्रगतिशील साहित्यिक एवं सांस्कृतिक आंदोलन को मजबूत करने को अपना ऐतिहासिक कर्त्तव्य समझते हुए इस चर्चा को अपने बेशकीमती विचारों के माध्यम से समृद्ध बनाएं। क्रांतिकारी अभिनन्दन के साथ ।


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