जमीन
(अल्लम राज्जया)
अनुवाद: सा. मोहनराव
(यदि मुझे जेल ले जायेंगे तो मेरी बहु जमीन जोतेगी। बूढ़ा हरामी बड़ा ही ढीठ है! मैंने सोचा। तुम्हारी बहु और उसके बच्चों को भी यदि जेल भेज दें तो?
तो फिर मेरी बूढ़ी हल पकड़ेगी।
यदि तुम्हारी बूढ़ी को भी ले जायें तो?
मेरे और लोग जोतेंगे!
यदि उन्हें भी सलाखों के पीछे ठेल दें तो!
तो फिर भैंसे ही हल जोतेंगे!
यदि उन्हें भी पशुबाड़े में बंद कर दिया जाए तो?
हल अपने आप ही खेत जोतेगा।
हलों के लिए भी यदि नये जेल बना दिए जाएं तो?
तब जमीन खुद चर्र... चर्र... की आवाज के साथ फट जाएगी! सुन रहे हो! और तब तक हम हाथ पर हाथ रखे बैठे नहीं रहेंगे।)
दिसंबर का पहला सप्ताह। मकई तैयार हो गई है, भिगोई न गई तो डंठल टूट जायेंगे। एक ओर धान काटने का मौसम। मिर्चे भी जम गये हैं, यदि दवाई न छिड़की तो मुंह में मिट्टी! जिधर देखो, काम ही काम! ठीक इसी मुहूर्त में बिजली जैसी खबर पहुंची- मेरे साले को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया!
जो भी कारण हो, एक बार देखने जाने के लिए गौरम्मा पागल-सी हो गयी थी। मुझसे पहले ही वह तैयार हो गई थी। दोनों के जाने से धान कटाई और बाकी काम कैसे होंगे? बाद में रोने से क्या फायदा! किसी तरह उसे समझाकर मैं चला।
ससुराल मेरे गाँव से 30 मील दूर है। पहले हम पैदल ही जाते थे। आर्थिक स्थिति थोड़ी सुधरी तो बैलगाड़ी पर जाने लगे। पर बैलगाड़ी में हड्डी-पसली एक होने के साथ-साथ पूरा दिन लग जाता था। इधर बसें आ गयी हैं। बैलगाड़ी से पिंड छूटने पर भी, बस की अपनी दिक्कतें हैं। पहले पाँच मील पैदल चल कर बसस्टाॅप पहुंचना, फिर बस की प्रतीक्षा! भगवान जाने कब दर्शन दे! इंतजार के बाद आती भी है तो इतनी भीड़ कि उसमें मकई के डंठल जैसा घुसने का काम बड़े जोखिम का है। उतरने के बाद फिर पैदल चलना पड़ेगा! यह सब सोचते हुए, ‘कब तक पहुंचेंगे’ की चिंता में खोये मैं गाँव के रास्ते पर चलने लगा।
हवा के झोंकों से रास्ते के दोनों ओर धान की बालियाँ झूमते हुए एक कर्णप्रिय संगीत का सृजन कर रही थीं। दूर दोरा (जमींदार) के खेत में मजदूर धान ढो रहे थे। कटे हुए धान के खेतों में मवेशी धान के बचे मुट्ठे खा रहे थे। उनकी रखवाली करने वाला बहरा पोरडू कोई गीत गुनगुना रहा था। मेरे ऊपर एक तीतर आवाज करते हुए कलाबाजियां खा रहा था।
महाजन के खेत में बोब्बिली के वीर ताण्ड्र पापाराव की वीरगाथा, जिसे तीन लोग मिलकर गाते हैं, गायी जा रही थी।
महाजन के दोनों ओर दो स्त्रियाँ, जो उसकी पत्नियाँ थीं, बुर्रलू (एक प्रकार का वाद्य यंत्र) बजाये जा रही थीं और उनसे एक लयात्मक आवाज निकल रही थी। दूर जमींदार के धन के अम्बार के बीच एक बछडा रम्भा रहा था।
एक खेत में लंगोट पहने एक व्यक्ति चूहे के बिल खोद रहा था। साथ ही एक गीत हल्के सुर में गुनगुना रहा था।
खेतों को साफ कर
ईंट-पत्थर चुनकर
बंजर को जोतकर
मकई का खेत कर
फसल को पैदा किया तो
वह कौन है, वह कौन है?
हमारा है कहने वाला?
वह कौन है, वह कौन है?
हमारी जमीं कहने वाला?
मेरा मन उचट गया। ये गाने ही तो जनता को भरमा रहे हैं। नहीं तो जानते-बूझते ये गड्ढ़े में क्यों गिरते हैं? जब पूरी तरह फंस जाते हैं तो बड़े लोगों की याद आती है? हवा से भी ज्यादा तेजी से ये गाने फैल रहे हैं। सिर झुकाकर काम करने वाला मजदूर सिर उठाने लगा है। ये संघ-वंघ गाँवों में कुकुरमुत्तों की तरह बढ़ने लगे हैं। कई सदियों से जो परिपाटी चली आ रही है, उसे एक चोट में बदलने की बात कहना! किसके बाप की हिम्मत? अरे बेवकूफो! थोड़ी-सी पढाई-लिखाई की गंध लग गयी तो तुम पंडित थोड़े ही हो गये। तुम गंगाजल छू लिए हो तो खुद गंगा थोड़े ही बन गये हो!
तुम पढ़े-लिखे हो, बुद्धिमता से सोच सकते हो, पर हमेशा हमें उस हरामी के पैरों तले रौंदे जाते रहने के लिए कह रहे हो? बस! अब बंद करो ये! आजकल गाँव के हरिजनों के मुंह से निकलने लगा है। ‘जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा’ सोचकर मैं अपने कामों में मशगूल हो गया था। लेकिन उनका कहना है कि ‘ये वर्ग क्यों? जमीन जो जोतता है, उसी की होनी चाहिए।’ मजदूरी बढ़ाने की बात भी उठा रहे हैं वे! यदि इनकी सब मांगों को पूरा किया जाये तो जमींदार के पास क्या बचेगा? यदि वह देगा नहीं तो सभी काम बंद! यदि मुकरा और झगड़ा किया तो जमींदार के घर पर हमले! अब तो पंचायत के नाम पर लगाये गये एवं जमींदार द्वारा वसूले दंड के पैसे, वसूले गये भेड़ के बच्चे भी वापिस मांगे जा रहे हैं।
अपनी आन-बान-शान, धन और अधिकार के मद में लीन ये जमींदार भला क्या पागल हैं कि ये जो चाहेंगे, दे देंगे?
मेरा साला इन्हीं संघों में भर्ती हुआ। अब ये जमींदार क्या भला हाथ पर हाथ रखे बैठे रहेंगे? उन्हें जो करना था, उन्होंने किया। अदालत क्या कोई छोटी चीज है? अदालत में पड़ना, आधी जिंदगी खत्म होना। मामला समाप्त होने तक घर तक बिक जाएगा। यह बात जब मैंने अपनी पत्नी गौरम्मा से कही, वह ताड़ के पेड़ जैसी तन उठी। उसे क्या पता इन बातों के बारे में, चावल सूप पर हिलाने जैसा काम तो है नहीं ये बातें, जो उसकी समझ में आ जाएँ!
पिछली बार जब वह मायके से लौटी तो उससे बात तक करना मुश्किल हो गया था। हर बात के पीछे कारण दिखा रही थी। बाल की खाल खींच रही थी। वह भी धीरे-धीरे वह सब गुनगुनाने लगी थी। अच्छा ही हुआ कि वह जल्दी आ गयी, एक-आध महीना और वहां रहती तो वह भी अपने भाई के संघ में भर्ती हो जाती। एक गन्दी मछली पूरे तालाब को गन्दा करने वाली बात है यह! साला यदि अपनी हद में रहता तो आज यह नौबत नहीं आती! यही बात मैंने कही थी। रह न पाया था।
इतना सुनते ही गौरम्मा उछलकर खड़ी हो गयी, तुम बड़े ज्ञानी हो जी, हमें मालूम है कि तुम्हारे पास दो एकड़ तर जमीन और तीन एकड़ ऊँची जमीन है। इसीलिए तुम्हें कुछ पता नहीं चल रहा। ...... जिसका पेट जल रहा है, उसे मालूम है, भूख क्या चीज होती है? ....... पढ़े-लिखे हो, इसलिए पुराण बाँचते हो! मैं जो कह रही हूँ, वह अब की सच्चाई है, पुराण नहीं है। पुरानी बातों से कुछ होने का नहीं है।यदि मेरे पास जमीन है तो क्या यह मेरी गलती है? मैंने क्या किसी से छीनी है? जब कुछ ‘अच्छी’ बातें मैं सुनाता तो वह मुस्कुराते हुए मेरे गालों पर चपत लगाती, ‘कौवे को क्या मालूम, बैल के घाव का दर्द? वह तो चोंच मारेगा ही!’ इस बार वह मुस्कुराने की बजाय मेरी ओर टकटकी लगाये देख रही थी।
हमने किसी की जमीन हजम नहीं की है। मेरे पिताजी का परिश्रम क्या तुमने कभी देखा है? मैंने......
हाँ-हाँ! बहुत ज्यादा परिश्रम किये हो तुम और तुम्हारे पिताजी! हमारे घरवाले यदि मदद न करते उस समय! और कितने दिन......, कुछ दिन बाद हमारे बच्चों का भी बुरा हाल होगा। बुरे दिन किस तरह मंडरा रहे हैं, तुम्हें अंदाजा नहीं है। वह हाथों को नचाते-घुमाते हुए बोली। उससे बहस करके कोई लाभ नही है। मैं यदि कुछ बोलना चाहूँ तो वह पूरा बड़ा भाषण झाड़ देती है।
पटेल, कौन गाँव के हो? मैं अपने विचारों में खोया था कि ये शब्द सुनकर चौंक गया।
मेरे बगल में एक कमर से झुका बूढ़ा हाथ में एक पगहा के साथ दिखाई पड़ा, जिसके दूसरे छोर एक भैंसा था। बूढ़े के चमड़े की झुर्रियां काफी बढ़ गयी थीं। घनी मूंछें, माथे पर पुरानी पगड़ी, हाथों की उभरी हुई नसें रस्सियों जैसी लग रही थीं। तन पर एक मैला-कुचैला, जगह-2 से फटा कपड़ा लपेटे था। पतले सींखचों जैसे पैर कपडे़ से बाहर झाँक रहे थे। पीठ पीछे एक पोटली बंधी थी। शायद उसमें रोटियां थीं। पोपला मुंह, मुंह में दो-तीन दाँत..., जो काफी गंदे थे। बहुत दिनों से गरीबी और गर्दिश से लड़ने के लक्षण साफ झलक रहे थे। रोगी भी रहा होगा.....। लेकिन भीतर धंसी उन आँखों में पहाड़-सी आशा विद्यमान थी....! मैंने उसके पैरों की ओर नजर दौड़ाई। तलुवे घिसे चमड़े के चप्पल थे पैरों में। उन पर स्ट्राइप्स कपड़े से अस्थाई रूप से बंधे थे। पैरों पर इंचों जमी धूल का मतलब था कि वह बहुत दूर से चला आ रहा था।
हम दोनों अगल-बगल चल रहे थे। सिर पर धूप तन को जला रही थी। हवा बह रही थी लेकिन हलकी सी। बूढ़ा बाएं पैर से थोडा लंगड़ा रहा था। मेरे साथ ठीक से कदम नहीं मिला पा रहा था। अकेले यात्रा करने के बदले किसी के साथ चलना अच्छा है, यह सोच मैंने अपनी चाल धीमी कर दी।
हमारा कौन गाँव है पटेल? लगता है बूढ़ा मेरे सफेद कपड़े, बालों के तेल और अच्छे से कंघी किये बालों को देखकर मेरे प्रति उत्सुक हो गया था। असल में मैं न तो पटेल था, न पटवारी! केवल एक साधरण-सा किसान था।
बूढ़े ने फिर गाँव का नाम पूछा। इस बार मैंने बताया।
आपका नाम क्या है?य बूढ़ा।
आशन्ना!
आशन्ना ऊशन्ना भी तो दोनों भाई थे-
आशन्ना, अरे ऊशन्ना!
धान कूटने में तुम्हें लगाया बेटा
आशन्ना, अरे ऊशन्ना ......! बूढ़े ने अपनी भारी आवाज में गाना शुरू कर दिया।
यह व्यक्ति अब तक कैसे गा सकता है? मैंने सोचा। जो भी हो, बूढ़ा बड़ा मिलनसार आदमी लगा।
अपना कौन सा गाँव है दादा? मैंने बिना सोचे ही पूछ डाला।
बूढ़े ने गाना रोका, मुझे ऊपर से नीचे तक गौर से देखा और फिर गाँव का नाम बताया। अब चौंकने की बारी मेरी थी। साले साहब की घटना को एक ओर रख भी दें तो इधर उसके गाँव में जो घटनाएं घटी थीं, उनके बारे में जो भी जानता हो, वह सच में बिना चौंके नहीं रह सकता था।
तुम्हारा नाम क्या है?य मैं।
गंगन्ना!
हम दोनों कुछ दूर और साथ चले। धूप से परेशान भैंसा मुख से झाग उगल रहा था। उसकी चाल में भी शिथिलता आ गयी थी। दोनों के बीच दो-तीन इधर-उधर की बातें हुईं। गंगन्ना ने मुझे ‘आप’ व ‘पटेल’ कहना छोड़ दिया था। मैं पटेल नहीं हूँ, यह उसकी समझ में आ गया था। वह खुश भी था।
गंगन्ना दादा! इस तरह जमींदार के घर पर सबका मिलकर जाना गलत नहीं है क्या? गलत सही पर सोचना तो चाहिए? पहले ये संघ नहीं थे। तब क्या हम जी नहीं रहे थे?
गंगन्ना का चेहरा लाल हो गया। होंठ हल्के-हल्के कांपने लगे। उत्तेजित अवस्था में वह कुछ बोल नहीं पा रहा था।
उसके पास बंदूक है, जमींदार बंदूक क्यों खरीदते हैं? ऐसे समय की सोचकर ही तो! मैं तुमसे पूछता हूँ, वह आग है, यह जानकर भी उसे छूना क्यों? छूने से तो जलेंगे ही?
बकवास बंद करो! बूढ़ा चीखा। आवाज से भैंसा भी डर गया। अरे ज्ञानी आदमी! ऊपर-नीचे, हर जगह गरीब की ही गलती मानी जाती है। वे रात के अंधेरे में हमारे गाँवों को जला देते हैं! बिना कोई प्रतिवाद किये गरीब मरते हैं! पिण्ड छूटा...! गरीब यदि जिंदा रहे तो उसका एक पेट भी होता है! पेट है तो भूख है....! भूख है तो प्रतिवाद होगा ही! हमने क्या किया? किसके घर में घुसे? तालुका में हमारे संघ ने सभा बुलाई। हम सभा में गये थे। संघ हमने इसलिए बनाया, ताकि सुख-दुख की दो बातें कर सकें! संघ की बात करें तो क्या जमींदारों के संघ नहीं हैं? मैं बताता हूँ, गिनो! आबकारों का संघ, थोकदारों का संघ, छोटी-मोटी कंपनियों का संघ, मोटरों का संघ, वतनदारों का संघ, स्पांज संघ और शहर में तो ‘शेर के मुंह का संघ’! हमने भी गरीबों का संघ ‘किसान-मजदूर संघ’ बनाया। अब इन पैसे के रखवालों का पेट फूलने लगा। धोतियां ढीली होने लगीं। जमींदार और महाजन, सबने मिलकर षड्यंत्र शुरू कर दिया। अब क्या कहे भैया! हमारे गाँव में घर-घर में घुसकर बच्चे-बूढ़े, जवान, मवेशी, औरतों को बिना भेदभाव के, पागलों की तरह ऐसे मारा कि शरीरों पर सुई की नोंक रखने की भी जगह नहीं बची। फिर हमारे चार आदमियों को बाँधकर, जमींदार की गद्दी पर ले गये। वहां जमींदार ने फिर उनकी पिटाई की! अब तुम ही बताओ, हमारी क्या गलती थी?
लेकिन अखबारों में तो वैसा नहीं लिखा है? मैं।
क्या लिखा है? लिखने वाले कौन हैं?
अखबारों में जो खबरें छपी थी, मैंने जो पढ़ा था, जहाँ तक याद था, उसे सुनाया। वृद्ध ने दाँत पीसना शुरू किया।
उन हरामियों को किसने कहा यह लिखने के लिए? वे किसी के कहने से क्यों लिखेंगे? यदि वे किसी के कहने पर भी लिखें तो हमारा सिर नहीं कटेगा! अखबार वाले भी जमींदार के चमचे हो सकते हैं।
तुमने बताया कि जमींदार की गद्दी पर तुम्हारे लोगों को बाँधकर मारा गया था। फर क्या हुआ?
जो होना था, वही हुआ? यह जो भैंसा देख रहे हो, ऐसे मवेशियों को अपने मवेशीखाने में बंधवा लिया जमींदार ने। तब गाँव के सभी आदमी मिलकर इस अन्याय के बारे में पूछने के लिए जमींदार की गद्दी की ओर बढ़े। अब ‘चोर की दाढ़ी में तिनका’! उसने सोचा कि हम गद्दी पर हमला करने आ रहे हैं। अब यदि हम ऐसा ही सोच लें तो क्या वह बचा रह सकता है? पर मैं तुमसे पूछता हूँ कि जब तक उसके पाप का घड़ा नहीं भरता, तब तक खम्बे से नरसिंह का जन्म नहीं होगा और उसकी हिरन्यकश्यप जैसी अंतडियाँ उसके गले का हार नहीं बनेंगीं। हम जैसे ही उसकी गद्दी के पास पहुंचे, उसकी बंदूक गरज उठी! अब क्या बताऊं बेटा! गरम-गरम खून जमीन पर गिरने लगा। हम अनाथ पक्षियों की तरह इधर-उधर भागे। क्या बताएं......, बंदूक की गोली से बचने के लिए हमारे तनों पर एक धागा सूत तक नहीं था। बंगले के ऊपर से एक नहीं, बल्कि दो-दो नालियां आग बरसा रही थीं। जो जिधर राह पाया, दौड़ा! भगदड़ मच गई! खून से लथपथ शरीर...., रोने-कराहने की आवाजों का मिलाजुला सुर....! खून देखकर आँखों में खून उतरने लगा। तब तक पुलिस की गाड़ियां......!
नहीं तो कापफी लोग मरते! मैंने बीच में ही कहा।
हमने भी यही सोचा था कि पुलिस न्याय करेगी! आँखों के सामने जब इतना बड़ा अन्याय हो रहा हो तो उनके हाथों की बंदूकें जरूर जवाबी फायर करेंगी! ऐसा हमने सोचा था। पर आशन्ना बेटा! बन्दूकों की एक ही जात होती है! मुझे तो लगता है कि बंदूक का जन्म ही हमारे जैसे गरीबों को गोली मारने के लिए हुआ है। गधे जैसा मुटाया उनका मुखिया गाड़ी में बैठा ही फोन पर बातचीत में मशगूल था। उसके पेट में तो चूहे तो कभी कूदे नहीं, उसे भूख ने कभी सताया नहीं न! वह माइक लगाकर कहने लगा, ‘गांव वालो! शान्ति रखो!’
अरे बदमाश! ‘चोर-चोर मौसेरे भाई’ अब जनता को सचमुच गुस्सा आने लगा। तब एक हरिजन महिला सम्मक्का उसकी मोटर के सामने कूद पड़ी!’
‘अरे साहब! तुम्हें सलाम! बंगले का साहब ही बन्दूक से गरीबों पर गोली चला रहा है। हम तो अब तक शान्ति से ही थे। उसे समझाओ! ओ पुलिस के कप्तान जी!’
एक तरफ गोलियां चल रही थीं, दूसरी ओर वह शान्ति का राग अलाप रहा था, जैसे कि उसके कान भी जमींदार के पास बंधक रखें हों! सम्मक्का उसकी बगल में कूदकर पहुंची! ‘क्या साहब! आप हाथ में बंदूक लेकर भी चुप हैं...’ जमींदार बंदूकें चला रहा था। क्या बताऊं तुम्हें आशन्ना! सम्मक्का पर जैसे कोई देवी सवार हो गयी हो! उसकी आँखें बड़ी-बड़ी हो गयी! बाल बिखर गये! दाँत पीसने की आवाज पट-पट सुनाई पड़ने लगी!
‘मैं औरत हूँ, मेरी आँखों में भी खून उतर आया है..... तू .... तुम तो मरद होके जन्म लिए हो, यदि कुछ नहीं कर सकते तो यह बंदूक ही मुझे दे दो! मैं देखती हूँ क्या करना है?’
पर वह क्यों देने लगा! वह किसका दलाल है? यदि उसमें इतनी ही हिम्मत होती तो जमींदार अब तक गोलियाँ चलाना जारी रखता क्या?
मेरा मन जैसे जड़ हो गया। यह घटना हो गयी। इसके बाद सफेद लिबास वाले गाड़ियों में आने लगे। चमचागिरी की बातें! दुःख प्रकट किया। दर्द जाहिर किया, ‘अरे! ये क्या हो गया!’ कलम से कागज पर पुताइयां होने लगीं। पर हमें बातों से काम नहीं! गाँव में जितनी भी जमीन है, जमींदार ने छीनकर अपने नाम कर ली है। हमारे लिए दिशा मैदान के लिए भी जगह नहीं बची। हमें खेतिहर मजदूर बनाया, हमारा खून चूसना शुरू किया। वो हमारी जमीनों पर कब्जा कर बड़ा बन गया है, मान-सम्मान पा रहा है, हमें कुछ नहीं है! क्यों? क्या हम परिश्रम नहीं करते? मालूम हुआ आने वाले हितैषी, जो बड़े आदमी थे, किसी ने जमीन की बात को उठाया ही नहीं। लेने-देने की बातें ही करते रहे। पर कुछ मिला भी नहीं! तीसरे दिन पुलिस फिर पहुंची! क्यों? जानते हो! हम जमींदार की गद्दी पर उसे मारने गये थे! इस मामले के साथ! उसने हमारे लोगों को मारा, भून दिया गोलियों से! यह बात तो गंगा में मिल गयी! फिर सभी नौजवानों को मारते-पीटते....., जिन्हें जमींदार ने उंगली उठाकर दिखाया, उठाकर ले गये! वे फिर गाँव का मुंह ही न देख सकें, इसलिए उन्हें जेलों में ठूंस दिया गया। बदमाश! जब चुनाव होते हैं तो पागल कुत्तों-से घूम-घूमकर वोट डलवाकर अब वे हमारे आका हो गये हैं। हमारे वोट ही हमारे खिलाफ काम कर रहे हैं। कचहरियाँ, अदालतें सब उनके हैं। गंगन्ना दादा अब काँप रहा था। उसकी धमनियों में बचा खून लावे जैसा खौल रहा था।
यह तो अन्याय है?य
अन्याय है, यह तो सभी कहते हैं, बेटा! पर इससे हमारी दुख-तकलीफें तो नहीं मिटती। हाँ, बाद में पूरा गाँव ही एक तरह से उजड़ गया। शमशान सी शांति! कोई भी बात नहीं करता। सभी हंसना भूल गये। बूढ़ा-बूढ़ी जो बचे हैं, वे क्या काम करेंगे! फसलें जल गयीं! पर मजदूरी के लिए मरने के शर्त पर भी जमींदार के यहां काम करने को हम तैयार नहीं हुए! उसके मवेशी फार्म में गोबर उठाने वाला भी नहीं रहा। उसकी फसल काटने वाले भी नहीं थे! भाई, उस शमशान जैसे गाँव में अब और क्या बचा है कि सरकार ने पुलिस भेजकर एक पुलिस कैंप डलवा दिया! जमींदार के गोदामघरों में मुकाम डाला। अब उनके अत्याचारों के बारे में क्या वर्णन करूं! गंगन्ना के चेहरे की पीड़ा अवर्णनीय थी।
अच्छा दादा! तुम्हारे घर से भी कोई पकड़ा गया था क्या?
धीरे क्यों बोल रहे हो? मेरे लड़के और दामाद को उठा ले गये।
तुम्हारे कितने लड़के हैं?
और कितने? केवल एक! एक ही लड़की थी, जिसका अपने गाँव में ही विवाह किया था।
एक मील और चलने पर मेरा बसस्टाॅप आ जाएगा। गंगन्ना ने जो बातें बताईं, उनमें कहीं कोई गलती नजर नहीं आ रही थी। फिर भी मैं लोगों के इन कार्यों का समर्थन नहीं कर पा रहा था। लगता है गंगन्ना को जेल में पड़े अपने बेटे और दामाद की याद सताने लगी थी। वह कुछ न कहकर चल रहा था। उसके पैर जमीन पर गुस्से के साथ पड़ रहे थे।
कुछ देर हम दोनों चुपचाप चलते रहे। भैंसा धूप से काफी परेशान था। अब यदि वह पानी के पोखर में नहीं नहायेगा तो अगले चंद मिनटों में चलने की स्थिति में नहीं रहा जाएगा। उसके मुंह से फेनिल झाग निकल रहा था।
दादा इसे थोड़ा पानी पिलाओ! बेचारा धूप से काफी परेशान है, थका-मांदा है।
चार आमडा (एक आमडा = साढ़े सात मील) की दूरी तय करनी है, एक बार यह पानी में घुस गया तो फिर इसे जल्दी से निकालना हमारे वश की बात नहीं रह जाएगी।
करीब तीस मील, यानि कि 45 किलोमीटर की दूरी होती है चार आमडा। यानि कि वृद्ध को अभी 45 किलोमीटर और चलना है! बड़ा कठोर जीव है!
हम दोनों ने मिलकर रास्ते के एक पोखर में भैंसे को पानी पिलाया। गंगन्ना ने पानी में उतरकर उसके सारे बदन को पानी से भिगोना शुरू किया। फिर हम चलने लगे।
गंगन्ना दादा, गाँव में तो पुलिस है, जैसा कि तुमने बताया, फसल नष्ट होने की बात भी तुमने बताई! तुम कह रहे हो कि सभी काम बंद पड़े हैं, फिर इस भैंसे का क्या करोगे?
तुम सोच रहे हो कि क्या हमेशा ऐसा रहेगा?
यदि वे सोचें तो हो सकता है!
पर हम ऐसा नहीं सोचेंगे! हमें जीना है तो हमें मुंह में भात की जरूरत है। भात के लिए हल जोतना ही पड़ेगा!
किसकी जमीन जोतोगे?
जमीन किसी की भी हो? किसी का नाम लिखा है क्या? सब जमीनों को मिलाकर प्रथम बारिश के बाद जोतेंगे।
अरे बाप रे! यह बूढ़ा कम नहीं है! इतना होने के बाद भी फिर से जमीन जोतने की बात कर रहा है! गंगन्ना के इस जिद्दीपन पर मुझे जलन हुई।
तुम बड़े जोतने चले, तुम्हें जोतने कौन देगा?
क्या करेंगे? गंगन्ना के चेहरे पर जुनून..., बातों में ढिठाई थी!
क्या करेंगे? यह तो मैं क्या बता पाऊंगा! तुम तो खुद ही जानते हो! तुम्हारे लोगों का क्या हाल हुआ?
जेल भेज देंगे, यही न? कहकर गंगन्ना सोच में पड़ गया। सिर के कपड़े को झटककर कंधें पर डाल लिया। सिर को खुजलाया।
मैंने इत्मीनान की साँस ली और सोचा कि अब वृद्ध को नकेल पहना सका हूँ।
अरे आशन्ना! आदमियों के लिए तो जेल है पर जानवरों के लिए भी क्या जेलें हैं?
मेरी जानकारी में पशुओं के लिए ऐसे जेलें नहीं हैं, फिर अचानक याद आया, पशुबाड़े तो हैं! पशुबाड़े हैं?
धत्त तेरे की! वृद्ध ने कंधें पर के कपड़े को जोर से झाड़ा। ठीक है जानवरों के लिए बाड़े हैं, पर हलों के लिए कोई जेल मौजूद है क्या?
गंगन्ना की बातें और उसका मतलब मेरी समझ में नहीं आ रहा था। अरे गंगन्ना दादा! ऐसी बात नहीं है। यह ठीक है कि तुम भैंसा खरीदकर ले जा रहे हो। इसे हल में भी जोतोगे। यह भी सही है। क्या भाग्य है? इतने कष्टों के बावजूद जब तुम जोतने जाओगे तो वे तुम्हें जेल में ठूंस देंगे! मेरा सुर मुझे तल्खी का अहसास दे रहा था।
यदि मुझे जेल ले जायेंगे तो मेरी बहु जमीन जोतेगी। बूढ़ा हरामी बड़ा ही ढीठ है! मैंने सोचा। तुम्हारी बहु और उसके बच्चों को भी यदि जेल भेज दें तो?
तो फिर मेरी बूढ़ी हल पकड़ेगी।
यदि तुम्हारी बूढ़ी को भी ले जायें तो?
मेरे और लोग जोतेंगे!
यदि उन्हें भी सलाखों के पीछे ठेल दें तो!
तो फिर भैंसे ही हल जोतेंगे!
यदि उन्हें भी पशुबाड़े में बंद कर दिया जाए तो?
हल अपने आप ही खेत जोतेगा।
हलों के लिए भी यदि नये जेल बना दिए जाएं तो?
तब जमीन खुद चर्र... चर्र... की आवाज के साथ फट जाएगी! सुन रहे हो! और तब तक हम हाथ पर हाथ रखे बैठे नहीं रहेंगे।
मैंने बूढ़े के चेहरे की ओर देखा। उसकी आँखें आवेश से बाहर आने को थीं। माथे पर परेशानी की नसें रस्सियों की तरह उभर गयी थीं। आँखों में आग..., मुझे लगा उस स्थिति में वृद्ध गंगन्ना को जीतना किसी के वश में नहीं।
मेरा बसस्टाॅप आ चुका था। मैं रुक गया।
गंगन्ना दादा! तुम पर विजय पाना किसी के लिए साध्य नहीं! यह वाक्य मेरे अन्तरंग में प्रतिध्वनित होने लगा।
गंगन्ना जा रहा था। पीछे-पीछे भैंसा...! कई सौ लड़ाइयां लड़ चुके हमारे पुराण पुरुष गंगन्ना के नाखून के भी बराबर नहीं हो सकते! ऐसा सोचने पर मैं मजबूर हो गया था।
बसस्टाॅप पर बस के लिए मेरे जैसे ही अनेक पैसेंजर खड़े बस की राह देख रहे थे। लेकिन गंगन्ना किसी के लिए इंतजार नहीं करेगा!
हम भी यदि गंगन्ना की राह पर चलें तो??
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