Monday 10 August 2020

शहादतनामा

 खुदीराम बोस

(आज के हालातों में हमें अपने वीर शहीदों से देशभक्ति के मूल्यों को सिखने की जरूरत है। खुदीराम बोस व साथियों को सच्ची श्रदांजलि तभी अर्पित की जा सकती है जब हम उनके दिखाए रास्तों पर चलते हुए इस शोषणकारी व्यवस्था का प्रतिरोध कर सकेंगे।)

खुदीराम बोस मात्र 19 वर्ष की उम्र में हिंदुस्तान की आजादी के लिए फांसी पर चढ़ गये। छात्र जीवन से ही इनके मन में हिंदुस्तान पर अत्याचारी सत्ता चलाने वाले ब्रिटिश राज को नेस्तनाबूद करने की ज्वाला धधक रही थी। अपने संकल्प को पूरा करने हेतु अद्वितीय धैर्य का परिचय देते हुए इन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य पर पहला बम फेंका और हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर चढ़कर इतिहास रच दिया। कुछ इतिहासकारों की धारणा है कि वे देश के लिए फांसी पर चढ़ने वाले सबसे कम उम्र के क्रांतिकारी थे। लेकिन खुदीराम से पूर्व 17 जनवरी, 1872 को 68 कूकाओं के सार्वजनिक नरसंहार के समय 13 वर्ष का बालक भी शहीद हुआ था। उपलब्ध तथ्यों के अनुसार, बालक को जैसे ही तोप के सामने लाया गया, उसने लुधियाना के डिप्टी कमिश्नर कावन की दाढ़ी कसकर पकड़ ली और तब तक नहीं छोड़ी जब तक उसके दोनों हाथ तलवार से काट नहीं दिए गए। बाद में उसी तलवार से उसे मौत के घाट उतार दिया गया था।
खुदीराम का जन्म 3 दिसंबर, 1889 को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले के बहुवैनी नामक गांव में बाबू त्रिलोकी नाथ बोस के यहां हुआ था। उनके माता का नाम लक्ष्मी प्रिया देवी था। बाल्यावस्था में ही खुदीराम के मन में देश को आजाद कराने की ऐसी ज्वाला जली कि उन्होंने नौवीं कक्षा के बाद ही पढ़ाई छोड़ दी और भारतीय मुक्ति संग्राम में कूद पड़े। स्कूल छोड़ने के बाद वे रिवॉल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और वंदेमातरम गीत के पैंफलेट वितरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सन् 1905 में बंगाल विभाजन(बंग-भंग) के विरोध में चलाए गए आंदोलन में भी उन्होंने बढ़-चढ़कर भाग लिया।
फरवरी, 1906 में मिदनापुर में एक औद्योगिक तथा कृषि प्रदर्शनी लगी हुई थी। प्रदर्शनी देखने के लिए आसपास के प्रांतों से हजारों लोग आए थे। बंगाल के एक क्रांतिकारी सत्येंद्रनाथ द्वारा लिखे "सोनार बांग्ला" नामक ज्वलंत पत्रक की कॉफी प्रतियां खुदीराम ने इस प्रदर्शनी में बांटी। एक पुलिस वाला उन्हें पकड़ने के लिए भागा। खुदीराम ने सिपाही के मुंह पर घूंसा मारा और शेष पत्रक बगल में दबाकर भाग गए। इतिहासवेत्ता मालती मलिक के अनुसार, 28 फरवरी 1906 को वे गिरफ्तार कर लिए गये, लेकिन वे किसी तरह कैद से भाग निकले। दो माह बाद अप्रैल में वे फिर से पकड़े गए और उन पर राजद्रोह के आरोप में अभियोग चलाया गया, पर कोई गवाह नहीं मिलने के कारण 16 मई, 1986 को उन्हें रिहा कर दिया गया। दिसंबर, 1907 में खुदीराम ने नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर की ट्रेन पर हमला किया, पर गवर्नर बच गया। सन् 1906 में उन्होंने दो अंग्रेज अधिकारियों - वाट्सन और पैम्फायल्ट फुल्लर पर बम से हमला किया, लेकिन वे भी बच गये।


न्यायाधीश किंग्स फोर्ड को मारने की योजना


मिदनापुर में "युगांतर" नाम की क्रांतिकारियों की गुप्त संस्था के माध्यम से खुदीराम पहले ही क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़ चुके थे। सन् 1905 में लार्ड कर्जन ने जब बंगाल का विभाजन किया तो उसके विरोध में सड़कों पर उतरे अनेकों भारतीयों को कोलकाता के मैजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड ने क्रूर दंड दिया। अन्य मामलों में भी वह क्रांतिकारियों से बेहद क्रूरता से पेश आता था। इसके परिणामस्वरूप, सरकार ने किंग्स फोर्ड को पदोन्नति देकर मुजफ्फरपुर में सत्र न्यायाधीश बनाकर भेज दिया। "युगांतर" की एक बैठक में किंग्सफोर्ड को मारने का निश्चय हुआ। इस कार्य हेतु खुदीराम तथा प्रफुल्ल कुमार चाक्की का चयन किया गया। खुदीराम को एक बम और पिस्तौल दी गई। प्रफुल्ल कुमार को भी एक पिस्तौल दी गई। दोनों ने मुजफ्फरपुर आकर सबसे पहले किंग्सफोर्ड के बंगले की टोह ली। उन्होंने उसकी बग्गी तथा उसकी घोड़े का रंग अपने दिमाग में बिठा लिया। खुदीराम तो किंग्सफोर्ड के कार्यालय में जाकर उसे ठीक से देख भी आए।

अंग्रेज अत्याचारीयों पर पहला बम

30 अप्रैल, 1908 को दोनों किंग्सफोर्ड के बंगले के बाहर घोड़ा गाड़ी से उसके आने की राह देखने लगे। बंगले की निगरानी हेतु वहां मौजूद पुलिस के गुप्तचरों ने उन्हें हटना भी चाहा, पर वे दोनों एक अच्छा सा बहाना गढ़कर वहीं डटे रहे। रात के 8:30 बजे के आसपास किंग्सफोर्ड की बग्गी के समान दिखने वाली गाड़ी आते देखकर खुदीराम गाड़ी के पीछे भागने लगे। रास्ते में बहुत अंधेरा था। जैसे ही गाड़ी किंग्सफोर्ड के बंगले के सामने पहुंची, खुदीराम ने निशाना लगाकर जोर से बम फेंका। हिंदुस्तान के इस बम विस्फोट की आवाज उस रात कई मील दूर तक सुनाई दी और कुछ दिनों बाद तो उसकी आवाज इंग्लैंड तथा यूरोप में भी सुनी गई। पर किंग्सफोर्ड फिर भी बच गया। उस दिन वह क्लब से थोड़ी देर बाद बाहर निकला था। संयोग से गाड़ियां एक जैसी होने के कारण दो यूरोपियन स्त्रियों को अपने प्राण गंवाने पड़े। खुदीराम तथा प्रफुल्ल, दोनों रातों रात वहां से भाग निकले। खुदीराम रात को ही 36 किलोमीटर दूर बने रेलवे स्टेशन पर जा पहुंचे। लेकिन पुलिस उनके पीछे लग गई थी और स्टेशन पर उन्हें घेर लिया। इस कार्य में अज्ञानतावश लोग भी पुलिस के साथ मिल गए थे। ऐसे में खुदीराम अपने देशवासियों पर गोली भी नहीं चला सकते थे। अंत में वे गिरफ्तार कर लिए गये। दूसरी ओर, प्रफुल्ल चाकी ट्रेन से समस्तीपुर जा पहुंचे। पर जिस डिब्बे में बैठे थे, उसमें नंदलाल बनर्जी नामक एक घाघ दरोगा भी बैठा था। बातों ही बातों में वह ताड़ गया और तार द्वारा मुजफ्फरपुर सूचना भेजकर उसे गिरफ्तार करने की योजना बना डाली। जैसे ही बनर्जी, चाकी को पकड़ने के लिए उसकी और बढ़ा, चाकी ने खुद को घिरा देख उस पर गोली चला दी, पर वार खाली गया। पर वीर योद्धा क्षण भर के लिए भी घबराया नहीं और फिर से घोड़ा दबा दिया, पर अबकी बार नली का मुंह अपनी खुद की कनपटी की ओर था। नंदलाल हाथ मलता रह गया और प्रफुल्ल भारत माता की आजादी की बलिवेदी पर अपने प्राण न्यौछावर कर सदा के लिए अमर हो गये।
खुदीराम की गिरफ्तारी का अंत भी तय था। 11 अगस्त, 1908 को ये महान सेनानी ने खुशी-खुशी फांसी के फंदे पर झूल गया। किंग्सफोर्ड ने डरकर नौकरी छोड़ दी और जिन क्रांतिकारियों पर उसने जुलम किए थे, उनके भय से शीघ्र ही उसकी मौत भी हो गयी। इतिहासवेत्ता शिरोल के अनुसार, खुदीराम की शहादत के शौक में कई दिनों तक स्कूल-कॉलेज सभी बंद रहे। वे बंगाल के क्रांतिकारियों के आदर्श बन गए थे। वे इतने लोकप्रिय हो गए थे कि बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे थे, जिसकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था और विद्यार्थी द्वारा नौजवान ऐसी धोती पहनने लगे थे।
मुजफ्फरपुर जेल में जिस मजिस्ट्रेट ने फांसी पर लटकाने का आदेश सुनाया था, उसके अनुसार खुदीराम एक शेर के बच्चे की तरह निर्भीकता के साथ फांसी के तख्ते की ओर बढ़ा था। उनकी शहादत से समूचे देश में देशभक्ति की लहर उमड़ पड़ी थी। उनके साहसिक बलिदान की स्मृति में गीत रचे गए, जिन्हें बंगाल के लोकगायक आज भी गाते हैं।

संदर्भ - जरा याद करें कुर्बानी, अभियान प्रकाशन
संपर्क - डॉ. सुरेन्द्र कुमार भारती (9466366060)


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