Friday 14 August 2020

रजिया की डायरी

 रजिया की डायरी

(बलबीर सिंह बिहरोड़)


(आज देश में जिस तरह से सांप्रदायिक ताकतें आपसी भाईचारे को खत्म करने पर तुली हैं, वह हम सभी के लिए गहन चिन्ता का विषय है। जगह-जगह धर्म-जाति के नाम पर दंगे हो रहे हैं। उन स्थानों पर भी दंगे हो रहे हैं जहां 1947 में भी लोगों ने आपसी सौहार्द को कायम रखा था। ऐसे में ‘अभियान’ जैसी हर पत्रिका का यह अहम व फौरी कर्त्तव्य बन जाता है कि वह आपसी भाईचारे की आवाज को बुलंद करे। श्री बलबीर सिंह बिरोहड़ की रचना - ‘‘रजिया की डायरी’’ भी वैसी ही एक आवाज है। रचना बहुत पहले लिखी गई थी। जिसे 1991-92 में जतन नाटक मंच ने प्रकाशित किया था। इस पर एक बड़ा नाटक भी बना जो हरियाणा में अनेक जगहों पर खेला गया। मेहनतकश जनता के भाईचारे को मजबूती प्रदान करती इस उत्कृष्ट रचना को ‘अभियान’ के माध्यम से जनता को समर्पित कर रहे हैं। -- संपादक मंडल)



रावलपिण्डी, चेक नं. 17
मकान नं. --42
तारीख 15 अगस्त, 1987
अजीज अजय,
उम्र दराज हो।

आज से ठीक 40 वर्ष बाद अपनी बचपन की साथन रजिया बहन का सलाम कबूल कीजिए।

शुरू की लाइन पढ़कर घबराना मत, ‘‘यह कौन रजिया है खत लिखने वाली?’’ खत को पढ़ते जाइये, सब राज खुल जाएगा। मैं अपने जीवन के, जो 18 वर्ष तक तुम्हारे साथ भी बीता, उससे लेकर आज तक जब मेरी उम्र 59 वर्ष हो चुकी है, सब तुम्हारे पास डायरी के रूप में भेज रही हूँ। जिन्दगी के वे अहम वाकयात जो प्यार लेकर आए, फिर बैर लेकर आए और अन्त में फिर जोड़ गए प्यार को। इसी दोबारा जुडे प्यार ने मुझे मजबूर किया जीवन की डायरी तुम्हारे पास भेजने को। मैं तुम्हें याद न करने का उल्हाणा नहीं दे सकती, क्योंकि पिछले 40 वर्षों से मैं कहां हूँ? हूँ भी या नहीं? तुम्हें क्या मालूम था?

1928 से 1934

1928 से 1931 तक का मुझे कुछ याद नहीं है। शायद तुम्हें भी ना हो? क्योंकि हम बहुत छोटे थे। 1931 से 1934, कुछ याद आता है। मेरे बाबा और तुम्हारे बाबा अमूमन उस चबूतरे पर, जो हमारे घरों की दीवार से सटा हुआ था, बैठकर बातें किया करते थे। दोनों अपना-अपना हुक्का लेकर बैठते, कभी एक चिलम से दोनों हुक्कों पर बारी-बारी बदल कर भी काम चला लेते। कुछ दूसरे लोग भी उनके पास आकर हुक्का पीने लगते, कुछ एक हुक्के पर, कुछ दूसरे पर। फिर भी हमें पता नहीं चला कि हम मुसलमान हैं और तुम हिन्दू। हम सब भी तो अपने साथ के बच्चों के साथ उसी चबूतरे के पास खेला करते थे।

1935 से 1940

तुम गांव के मदरसे में दाखिल करा दिए गए। उस मदरसे में मेरा भाई उमरउल्दीन भी तुम से दो साल पहले दाखिल हुआ था। कृष्णा, तुम्हारी बहन जो हमसे दो वर्ष छोटी थी, का साथ अब हमारे मां बाप ने मेरे साथ जोड़ दिया, भैंस चराने के लिए। उस दिन के ताई सरतो (तुम्हारी मां) के प्यार भरे शब्द मुझे अच्छी तरह याद हैं, ‘‘बेटी रजिया, हमारी भैंसों को भी ले जाया कर मेरी लाडो, कृष्णा को साथ ले जाना, यह भैंस तो क्या सम्भालेगी, लेकिन साथ रखना, तुम दोनों का जी लगा रहेगा।’’ 
‘‘हमारे भाई तो स्कूल जाते हैं, भैंसें तो हम दोनों को ही चरानी होंगीं।’’
उस समय हमें यह बात मालूम हो गई थी। तुम रात को जब उमरू भैया से सवाल पूछने आया करते थे, मेरी शरारत तुम्हें बहुत तंग करती। तुम लाड में कितनी बार कहा करते, ‘‘रज्जो मान जा, अगर ज्यादा शरारत करेगी तो तेरे लिए काणा बनड़ा टोह देंगे।’’ ‘‘क्यों रे, तुम्हारी आएं काली और काणी बहुएं,’’ मैं कह देती थी।

1941 से 1945

तुम दोनों भाई पढ़ते रहे, हम भैंसें चराती रहीं। इस दौरान, मैं और कृष्णा तुम दोनों के बारे में बातें करती रहतीं तो प्रायः चर्चा इस बात पर होती थी, ‘‘बेबे छोरे तै पढ़ण जा सैं और भैंस हमने चराणी पड़ैं।’’ एक दिन मैंने कहा, ‘‘भाण छोरियां नै पढ़ा कै के करैं? वो तो थोड़े से दिन म्हं ब्याह तै पाछै चाली जांगी दूसरां के घर। छोरे पढ़ कर नौकरी करेंगे और फेर कमाई करेंगे, कोई मास्टर बनैगा, कोई पटवारी।’’
उमरूदीन के विवाह की बात है। उस दिन जब मैं मिठाई की थाली लेकर तुम्हारे घर पहुंची, विष्णु दादा वहां बैठे थे, उन्होंने टोका, ‘‘जजमान, यह मुसलमान के घर की मिठाई खाओगे तुम?’’ तुम्हें याद है ताई सरतो ने क्या जवाब दिया? ‘‘नहीं दादसरे, हमारे घर में पशु और कुत्ते-बिल्ली भी तो हैं।’’ मैं यह सुनकर सन्न रह गई। ना वापिस मुड़ने को जी चाहा, न बैठ ही सकी। इतनी देर में तुम बाहर से आ गए थे और ताई ने थाली तुम्हारे आगे रख दी।  तब मुझे कुछ बोलने का साहस हुआ, ‘‘ताई, अजय को तुमने कुत्ते-बिल्ली की जगह लगा रखा है?’’ 
‘‘नहीं बेटी, यह तो उस निपूते के आगे कहने की बात थी, वो निगोड़ा पता नहीं कहां-2, क्या-2 कहता फिरता।’’
काश! मैं उस वक्त यह समझने योग्य होती कि तिलकधारी धर्म के नाम पर केवल पड़ोसियों और गांव-बस्ती के लोगों के प्यार में ही पाड़ नहीं लगा सकते, बल्कि बड़े-बड़े राष्ट्रों के भी टुकड़े-टुकड़े कर सकते हैं, जैसा कि इन्होंने आगे चल कर करके दिखाया भी। खैर, यह तो अब समझ में आई है जब सबकुछ खो बैठे हैं। इससे पहले और क्या-क्या न हुआ? जो हुआ, वो तुम्हारे सामने था लेकिन चर्चा सारी करूंगी, नहीं तो डायरी अधूरी रह जाएगी। दादी की मृत्यु हो गई। बाबा ने तुम्हारे बाबा के सामने एक जिक्र किया, ‘‘भाई साहब, मैं आपसी भाईचारा बढ़ाने के लिए अपनी मां का काज करना चाहता हूँ।’’ 
सुनकर ताऊ जी अचम्भे में पड़ गए, ‘‘तुम काज करोगे, मुसलमान होकर? क्या ये हिन्दू तुम्हारे काज में खा लेंगे?’’
‘‘क्या हर्ज है?’’ बाबा ने कहा, ‘‘हम सूखा सीधा दे देंगे। और ब्राह्मणों से खाना बनवा लेंगे। हिन्दुओं के घर हिन्दू ही परोसने वाले होंगे।’’ 
‘‘लेकिन काज में गऊ भी तो त्यागनी होगी, तुम मुसलमान होकर ऐसा  कर सकोगे?’’
‘‘क्यों नहीं, हम गाय का दूध पीते हैं। उसी गाय की बड़ी छैली बछिया है हमारे घर में, उसे दाग लगाकर छोड़ देंगे?’’
‘‘तो भाई फिर गांव के लोगों की सलाह ले लो, मैं तो समझता हूंँ इससे तुम्हारा मान बढ़ेगा ही।’’
अगले दिन गांव की पंचायत में सबने हां कर दी। काज पूरी तरह सफल हो गया।
उसमें 12 गांवों के सरदार, नम्बरदार, ठोलेदार और हाली-मुहाली, सबने शिरकत की और सभी ने खूब खाया-पीया।









1946

बाबा ने मेरे निकाह की बात चलानी शुरू कर दी। ताऊ से कहा, ‘‘भाई आपकी बाहर गांव में बड़ी जानकारी है, किसी शरीफ से मुस्लिम घराने में रजिया के योग्य कोई लड़का निगाह में करना।’’ तुम्हारे बाबा ने तुरन्त ही उत्तर दे डाला, ‘‘अरे निगाह में क्या करना है? मुझे याद आ गया, मेरा एक दोस्त रमजान कालूवाले में है, उसका लड़का आठवीं में पढ़ता है। लड़का बहुत सयाना है। मैं तो तुमसे कहने ही वाला था।’’
‘‘उस परिवार की चाल ढाल क्या है?’’
‘‘भाई, बहुत शरीफ खानदान है, मेरी तो गाड़ी हांकते समय उससे मुलाकात हो गई थी। बात यूं हुई कि कालूवाले में पहुँचने को थे कि गाड़ी का धुरा टूट गया। मुसलमानों का गांव है, मेरी कौन मदद करेगा? मैं बैलों को पड़ाव में बांधकर गांव में जाकर पूछने लगा कि क्या गांव में कोई हिन्दुओं का घर है? जिससे पूछा वह पहला आदमी रमजान ही था।’’ वह मेरी बोलचाल से अन्दाजा लगाकर कहने लगा, ‘‘क्यों चौधरी, क्या करोगे? यहां तो एक पंडित का घर है और चार बनिये हैं।  आपको किसलिए चाहिए हिन्दू घर?’’
‘‘भाई बात यह है कि मेरी गाड़ी का धुरा टूट गया है और ऊपर से रात आ रही है, कोई हिन्दू भाई मदद कर दे।’’ 
यह सुनकर रमजान हंसा और मुस्कुराकर बोला, ‘‘यदि कोई मुसलमान भाई मदद कर दे तो क्या नुकसान है?’’ 
मैं बहुत शर्मिन्दा हुआ, चुप खड़ा हो गया और रजमान बोला, ‘‘आओ मेरे घर चलो।’’
वह मुझे अपने घर ले गया। घर ले जाकर एक हुक्का ताजा करके चिलम उतारी और झट से भर लाया और मेरे सामने रख दिया। मैं कुछ संकुचित सा बैठा रहा। इस पर रमजान फिर बोला, ‘‘पीओ चौधरी, यह आप लोगों की बिरादरी के लिए रखा हुआ है, हमारा हुक्का तो दूसरा है।’’ यह कह कर वो मुझे दूसरी बार शर्मिन्दा कर गया। उसने अपने छोटे भाई को दीनू कह कर आवाज लगाई। अन्दर से उसका लड़का आया, उससे रमजान ने कहा, ‘‘अरे तुम्हारे चाचा दीनू को बुलाकर ला और तू भी साथ ही आना, कभी कहीं खेल शुरू कर, दे।
लड़के को भेजकर वह एक दूसरा हुक्का ले आया और मेरे वाले हुक्के से चिलम उतारकर पीने लगा।
मुझे अपनी झेंप मिटाने का सही मौका मिला और मैंने बगैर चिलम उतारे रमजान वाले हुक्के को ही गुड़गुड़ाना शुरू कर दिया। इतनी देर में लड़का दीनू को साथ लेकर आ गया। रमजान ने दीनू को कहा, ‘‘दीनू, हमीद के साथ जाकर चौधरी के बैलों को यहां ले आओ।’’ अपनी गाड़ी जोड़कर उस गाड़ी का बोझ अपनी गाड़ी में डालकर यहां ले आओ।’’ फिर मेरी तरफ मुड़कर बोला, ‘‘कल आप दिन में इस बोझ को डाल आना, हम आपकी गाड़ी को ठीक कराए मिलेंगे।’’ इसके बाद वह उठा और थोड़ी देर बाद एक थाली में आटा, कटोरी में घी और कुछ सब्जी लेकर बाहर चला। मेरे पूछने पर उसने कहा, ‘‘पंडित जी के घर यह सूखा सीधा देकर आता हूँ, तुम्हारे खाने के लिए।’’
मैंने कहा, ‘‘नहीं, मेरा खाना आपके ही घर बनेगा।’’ दीनू ने गाड़ी लाकर छोड़ दी, बैलों को नान्द पर बांध दिया और खाना खाने से लेकर सोने तक लड़का हमीद कभी रोटी, कभी पानी, कभी सब्जी, फिर खाने के बाद हुक्के की चिलम उठाए आगे-पीछे ही घूमता रहा। भाई सुलतान बेग, मैं सच कहता हूं मुझे देर रात तक नींद नहीं आई। मैं सोचता रहा कि दुनिया के लोग हिन्दू कब बने, मुसलमान कब बने और सिख व ईसाई कब? यह मानव ही क्यों न रहे? वे बदमाश कौन थे, जिन्होंने इन्हें मानव से कुछ और बना दिया? यदि रमजान उस दिन ना मिलता तो भी शायद उस गांव का कोई और किसान ही मेरी मदद करता, परन्तु उन हिन्दू सेठों और पंडितों के घर से जो यहां के किसानों को लूटकर ऊंचे-ऊंचे महल बनाए बैठे थे, उनसे तो शायद मुझे रोटी भी नहीं मिलती। मैं तुम्हें दिल की गहराइयों से बता रहा हूँ सुलतान बेग, यदि हम मुसलमान और हिन्दू न होते तो मैंने अपनी कृष्णा के लिए अवश्य उस लड़के को अपना लेना था। अब भी क्या अन्तर है, मुझे तो रजिया और कृष्णा, दोनों एक सी लगती हैं। मुझे पूरा भरोसा है कि रमजान इंकार नहीं करेगा। भैया अजय, तुम क्या जानोगे? बाबा और ताऊ की बातें मैं किस तरह चोरी छिपे सुन रही थी। क्या खुशी थी दिल में! विवाह के नाम से नहीं, बल्कि ताऊ के उन शब्दों से जो उनके दिल की गहराइयों से निकले थे, ‘‘मुझे तो कृष्णा और रजिया में कोई अन्तर नहीं दिखता’’ आखिर एक दिन बाबा और ताऊ ने यह पैगाम सुना ही दिया आकर, ‘‘रज्जो का रिश्ता कर आए हैं। मुझे याद है, तुमने मां के सामने मुझे सुनाते हुए कहा था, ‘‘चाची, वो लड़का तो बड़ा बदसूरत बताते हैं।’’
‘‘हट रे, तेरी बला से जो भी हो, तुझे क्या?’’ मैंने कहा। 
‘‘ऊहं, अब कहां गई तेरी शरारतें?’’ तुम बोले। खैर, जैसे तैसे दिन गुजरते गये। लेकिन आह! आ गया सन सैन्तालीस।

1947

राजगद्दी के भूखे नेताओं की नजरें सत्ता की तरफ उठने लगीं। राज का बंटवारा कैसे हो, जब तक लोग आपस में न लडें? आवाजें उठीं, ‘‘पाकिस्तान लेकर रहेंगे !’’ दूसरी ओर से हुंकार उठी, ‘‘हिन्दुस्तान हिन्दुआें का है !’’
नवाखली में दंगे शुरू हो गये। पंजाब के मुसलमानों ने हिन्दुओं को मार डाला। आग की लपटें हमारे जिले में भी उठने लगीं। शहरों के बाद देहात में भी लोगों की जान पर आ बनी थी। मुल्लाओं और पंडितों का प्रचार नेताओं के कलेजे ठण्डे कर रहा था। तुम भी हिन्दू भाइयों के भय से दूर रहने की कोशिश करने लगे। आखिर एक दिन हमारे चार-पाँच मुस्लिम परिवारों ने रात को गांव से कूच करके थाने में शरण लेने की बात सोची। थानेदार मुसलमान था, शायद शान्ति होने तक जान बचा सके। मुसलाधार बारिश शुरू हो गई। बारिश थमने का इन्तजार भी किया, लेकिन ज्यादा देर हुई तो दिन रास्ते में निकलेगा, इस आशंका ने बरसते में ही बाध्य कर दिया। अगले गांव के खेतों को पार करने को ही थे कि पीछे से आवाजें आनी शुरू हुईं, ‘‘पकड़ लो, मार दो, बचने न पायें !’’ फिर वह सबकुछ हुआ, जिसकी मानवता कभी इजाजत नहीं देती। यह तो अपना पड़ोसी गांव था। इस गांव के लोग तो रोजाना बाबा से मिलते थे। ये तो बहुत सारे जाने-पहचाने चेहरे थे। वही तो थे सब, जिन्हें हम चाचा, ताऊ, भाई कहकर बुलाते थे। नहीं, ये नहीं मारेंगे, छोड़ देंगे जब इनको पता लगेगा कि यह सुलतान बेग का परिवार है। क्या ये नहीं जानते कि इन्होंने मेरी दादी के काज में खाया था। परन्तु सब सोचना व्यर्थ हुआ। जिस औरत की गर्दन पर पहला फरसा पड़ा, वह मेरी मां थी। उसके बाद चाचा-ताऊ के परिवारों की मेरी भाभियां और बहनें। मुझ अभागिन को न मालूम एक झाड़ की आड़ ने क्यों बचा लिया जो एक बाजरे के खेत में ऊंचा और गहरा बढ़ा हुआ था। आह! जालिम लाशों के पांव काट कर जेवर निकाल ले गए। बारिश थम गई, धूप खिलने लगी। लोग कहते हैं कि अकेले आदमी को रात के अंधेरे में डर लगता है। परन्तु सन् 47 की तो माया ही उल्टी थी। यहां तो दिन की रोशनी में डर लग रहा था। पता नहीं? अब क्यों जीना चाह रही थी, जबकि सब कुछ लुट चुका था। मैंने सोचा, ‘‘शायद, आज अंधेरा बचा ले, एक बार फिर उस घर तक पहुंचने के लिए जिसमें एक दिन ताऊ के ये वाक्य सुने थे कि रजिया और कृष्णा में क्या अन्तर है? जैसी बेटी कृष्णा, वैसी रजिया।’’ इन शब्दों ने ही मुझ में जिन्दा रहने की चाह पैदा कर दी थी। नहीं तो तुम सोचो जरा, सारे कुटुम्ब को अपनी आंखों के सामने कटा पड़ा देखकर कोई जिन्दा रहना चाहेगा क्या? आखिर रात तो होनी ही थी। मैं किसी तरह छुपते-छिपाते फिर उसी घर में आ गई जो अब सुनसान था। हिम्मत नहीं हो रही थी तुम्हारे घर की तरफ कदम बढ़ाने की, परन्तु अब मौत से डरने की बात भी क्या थी? वह जीवन भी तो मौत से कम भयंकर नहीं था। मैं तुम्हारे घर की तरफ बढ़ी और दबे पांव घर में दाखिल हो गई। कृष्णा गले लगाकर रोई, ताई ने छाती से लगा ली। जब सुबह गांव के लोगों को पता चला कि रजिया जिन्दा है तो आकर कहने लगे, ‘‘बहुत बुरा हुआ, इनको निकल कर नहीं जाना चाहिए था, यहां कौन क्या कहता था?’’
दूसरा बोला, ‘‘तुम पागल हो, निकल कर न जाते तो क्या बच जाते? तुम्हें पता है कालू वाला गांव जो पूरा मुसलमानों का था, पड़ोस के लोगों ने चढ़ कर तहस-नहस कर दिया। एक पुराना कुआं लाशों से भर गया। अचानक पुलिस आई दो ट्रक लेकर और बचे हुए आदमियों को ट्रकों में डालकर ले गई।’’ यह सुनकर ताऊ के मुंह से एक चीख सी निकली, ‘‘ओह, रमजान..........।’’ आगे न बोल सके थे।
मेरी निगाह ताऊ के चेहरे पर पड़ी, ताऊ ने अपनी पगड़ी का पल्ला आंखों पर डालकर मुंह फेर लिया। परन्तु मेरे दिल का गुब्बार जो दो दिन से दबा पड़ा था, फूट पड़ा और मैं दहाड़ मार उठी। अब ताऊ से भी न रहा गया, उन्होंने रोते हुए मुझे छाती से लगा लिया। वे रोते-रोते कह रहे थे, ‘‘अब मत रो बेटी, मेरे मरने से पहले तुझे खुद भगवान भी हाथ नहीं लगा सकता। लेकिन आह! सुलतान बेग!’’ मैं बीच में ही बोल उठी, ‘‘शायद जिन्दा हों ताऊ क्योंकि वे और उमरदीन बारिश शुरू होने से पहले ही रवाना हुए थे, थाने में अगाऊ खबर देने के लिए, ताकि यदि हम सूरज निकलने से पहले न पहुंच सकें तो रास्ते में हिफाजती दस्ता पहुंच जाए। हमें वे चाचा इमामुदीन के साथ छोड़ गए थे ताकि हम उनके साथ चल पड़ें, परन्तु बारिश उनके जाने के साथ ही शुरू हो गई थी और हम समय पर न  निकल पाए।’’ बुरी खबर फैलती बहुत जल्दी है। यह बात उसी दिन थाने तक पहुँच गई कि हमारे गांव का एक औरतों का टोल, जिसके साथ एक बूढ़ा मर्द भी था, रात को घर से चला था। वो रास्ते में सारा खत्म हो चुका है। बाबा और उमरदीन को पुलिस जिले के अफसरों की निगरानी में छोड़ आई थी, जहां और भी ऐसे लोग जो मरने से बच गए थे, इकट्ठे कर रखे थे। लेकिन मैं इस बात से बेखबर थी और बाबा के हिसाब से मैं भी लाशों में शुमार हो चुकी थी। पूरे दस दिन तक मैं तुम्हारे घर में रही। लोग तुम्हें लेकर मेरे बारे में जो चर्चायें करते थे, उन्हें मैं छाती पर पत्थर रखकर झेल रही थी और जानती थी कि तुम कितने साफ हो। परन्तु मैं वास्तव में दिल से साफ नहीं थी। तुम चाहे इसे मेरी मजबूरी ही समझो, मैं तो यही दुआ करती थी कि खुदा लोगों की चर्चा को सच कर दे, क्योंकि मुझे तो तुम्हारे घर से अलग दुनिया में कोई जगह नजर नहीं आ रही थी। परन्तु मेरी यह दुआ कैसे पूरी हो सकती थीं? कितनी रुकावटें थी मेरी राह में? पहला तुम्हारा भगवान और हमारा खुदा, दोनों आपस में टकरम-टकरा हो रहे थे, लेकिन मेरी जिन्दगी को तबाह करने में दोनों एक मत हो गए थे। दूसरे, गांव की परम्परा के अनुसार मैं गांव की बेटी थी, इसलिए यह सब न हो सकता था। तीसरे,  यह कि ताऊ व ताई ने मुझे अपने दिलों में कृष्णा के बराबर जगह दी थी। मैंने बार-बार सोचा ताऊ से ये कहने के लिए , ‘‘ताऊ आपका प्यार मेरे बाबा के साथ जितना था उनसे कहीं ज्यादा तो रमजान के साथ था, फिर जब आप मेरे लिए सुल्तान बेग बन सकते हैं तो रमजान क्यों नहीं बन सकते?’’ परन्तु हिम्मत नहीं जुटा सकी। कई बार सोचा कि ताई की मारफत कह दूं, परन्तु यह भी हिम्मत न हुई। हां, एक दिन ताई के आगे यह जरूर कहा, ‘‘ताई, अब मेरे लिए जिन्दगी भर इस घर के सिवा कोई और भी जगह है?’’ सोचा था, ताई मेरे जज्बात को समझ लेंगी, लेकिन वे इतना कहकर रह गई, ‘‘पगली, भगवान ने जिसको जन्म दिया है वह जब तक जीएगा, जमीन तो उसके पैरों तले रहेगी।’’ ताई का यह जवाब ऐसा था जिसमें एक निर्भीक दार्शनिक का दर्शन भी छुपा हुआ था और एक भले आदमी का भोलापन भी।
वैसे मेरी मुराद पूरी होने से कोई बड़ा लांछन तो नहीं लगता तुम्हारे ऊपर क्योंकि उस वक्त तो न मालूम कितने हिन्दुओं ने मुसलमानों की सुन्दर लड़कियों को जबरदस्ती अपने घरों में रख लिया था। फिर मैं तो खुशी से आत्मसमर्पण कर रही थी। खैर, इन बातों में अब क्या रखा है? अगर बात बन जाती तो मैं यह कहकर बदला लेती कि मेरा बनड़ा कितना बदसूरत है? तुम कहोगे कि बचपन की शरारतें बुढ़ापे में भी नहीं भूली। हां, नहीं भूली हूँ क्योंकि मैंने खुश रहना सीख लिया है। मेरी जिन्दगी उन सब मुसीबतों के बीच से, जो एक औरत पर ज्यादा से ज्यादा पड़ सकती हैं, गुजर कर इतनी पुख्ता हो चुकी है कि दुःखों का अहसास करना ही भूल गई। हां, यदि नहीं भूली तो केवल दो बातें नहीं भूली, एक तुम्हारी इन्सानियत और दूसरी मेरी शरारत। ओह! मैं तो डायरी लिख रही थी, कहां बुढ़ापे में जा घुसी। पहले तो बखान उन मुसीबतों का होना चाहिए था जिन्होंने मुझे बरबाद करना चाहा लेकिन मैं उनके साथ जितना संघर्ष करती गई, उतनी मजबूत होती गई। चलिए फिर पीछे आ जाइए। ग्यारहवें दिन पुलिस गाड़ी लेकर आई और कहने लगी कि सरकार का हुक्म है कि जिन मुसलमान लड़कियों को हिन्दुओं ने जबरदस्ती अपने घरों में रख लिया है उन्हें तलाश करके कैंपों में भेज दो। ‘‘लेकिन मुझे जबरदस्ती नहीं रखा गया’’ मैंने कहा, ‘‘नहीं,’’ वे बोले, ‘‘इस साल में जो भी जैसे भी रही, जबरन ही मानी जाएगी।’’ ‘‘हां, यह ठीक है,’’ मैंने ढीठ होकर कहा, ‘‘जबरदस्ती हुई है लड़कियों के साथ, परन्तु मैं तो इनके साथ जबरदस्ती कर रही हूँ। वहां पाकिस्तान में मेरा कौन है?’’ लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता  है। मुझे जबरदस्ती एक कैम्प में भेज दिया गया।
यहां तक के वाक्यात तो तुम्हारी याददाश्त में भी होंगे। इसके बाद जो कुछ हुआ, उसने मेरे जीवन को सूना कर दिया। यह सूनापन उस सूनेपन से भी बढ़कर था जो मैंने उस रात को महसूस किया था जिस रात अपने परिवार को खोकर, रात के अन्धेरे में आकर तुम्हारी शरण ली थी। यहां कैम्प में गुमसुम बैठी यही सोचा करती कि भूतकाल ने जो कूछ कर दिखाया है क्या भविष्य उससे भी क्रूर होगा? कैम्प आए सब शरणार्थी क्योंकि मुसलमान थे, उनकी जुबान पर आमतौर पर यही चर्चा होती थी, ‘‘खुदा का शुक्र है हम मर कटकर, लुट-पिट कर यहां जीवित तो पहुंच गए। वहां हिन्दुस्तान में तो हम सबको खत्म होना था। हिन्दू काफिर होते हैं। हम काफिरों के देश से बचकर आ गए हैं। अब कोई खतरा नहीं है। हमारा देश पाकिस्तान अब जन्नत होगा। यहां मुसलमानों का राज होगा। मुसलमानों का राज्य, यानि खुदा का राज्य।’’
एक सप्ताह कैम्प में बीता। एक दिन कैम्प  कमाण्डर की नजर मुझ पर पड़ गई, बड़ी सहानुभूति दिखाई मुझसे बात करने में। मैंने समझा, बड़ा नेक आदमी है, अवश्य कुछ मदद करेगा। चलते वक्त कह गया, ‘‘जो कुछ हुआ है, भूल जाओ। भविष्य की तरफ देखो, हम तुम्हारे वास्ते सब इन्तजाम कर देंगे।’’ अगले दिन अपना एक कर्मचारी भेजकर उसने मुझे बुलाया। रात के आठ बजे का समय था, मुझे जाने में संकोच हुआ। परन्तु उस कर्मचारी ने मुझे दिलासा दिया, ‘‘घबराओ मत बी रजिया, कैम्प कमाण्डर बड़े नेक आदमी हैं। वे तुमसे बात करके तुम्हारा कोई अच्छा प्रबन्ध करेंगे। घबराने की कोई बात नहीं। अब तुम उन काफिरों के देश में नहीं हो, यहां मुस्लिम ईमान (पक्के ईमान) का राज है।’’ मैं उसकी बातों में आ गई और साथ हो ली।
कमाण्डर ने जाते ही सामने पड़ी कुर्सी पर बैठने को कहा। मैं देहात की गलियों में पली हुई लड़की कुर्सी पर कमाण्डर के सामने बैठने का हौंसला भला क्या करती? ‘‘डरो मत बी रजिया,’’ उसने कहा यह कैम्प तुम लोगों के लिए खुला है, जो काफिरों की बर्बरता से बचकर सही सलामत आ गए। हम ईमान का वास्ता देकर कहते हैं, तुम्हारी पूरी मदद की जाएगी। बैठो और मुझे सारी बातें बताओ, तुम्हारे साथ क्या बीती?, तुम्हारा हिन्दुस्तान में कौन-सा जिला, तहसील व गांव थे, पूरा बताओ। परिवार के सभी सदस्यों के नाम बताओ? यदि उनमें से कुछ बच कर पाकिस्तान पहुंचे होंगे तो दूसरे कैम्पों से खबर मंगाकर तुम्हें उनसे मिलवाया जाएगा।’’ मैं आशाओं के जाल में बन्ध गई। मैं तमाम कहानी शुरू से आखिर तक कहती गई। बीच में आशाओं को झटके भी लग रहे थे, जब कभी सांस के साथ उसके मुंह से शराब की बू आती थी। ‘‘मुसलमान और शराब’’ यह सोच कर मैं बीच में कांप भी जाती थी।
उसने मुझे बातों में उलझाए हुए दो घण्टे गुजार दिए। फीर अचानक बत्ती बुझ गई, कमरे का दरवाजा बाहर से बन्द हो गया और मैं उसकी गिरफ्त में थी। मुझे छोड़ दे गुण्डे, तू मुसलमान का बीज नहीं, तू काफिर है!’’ मैं जोर से चिल्लाती रही। वह आदमी जो मुझे बुलाकर ले गया था, बाहर ही खड़ा था और दरवाजा भी उसी ने बन्द किया था बाहर से। जब मेरी दुनिया लुट चुकी तो उस गुण्डे ने उस्मान नाम पुकारा और दरवाजा खुल गया। मैंने कमरे से बाहर निकल कर अपने आप को मौत की गोद में सुलाने की ठान ली। कैम्प के लोगों को तो मेरे जाते ही पता चल गया था कि मेरे साथ क्या बीतेगी, क्योंकि मेरे आने से पहले भी इस प्रकार की कई घटनाएं हो चुकी थीं। मैं एक कम्बल में, जो मुझे वैफम्प की ओर से मिला था, मुंह छुपाकर पड़ी रही। सुबह उठकर खुद को मौत के हवाले करने के लिए चल पड़ी। कैम्प से बाहर निकलकर सौ कदम ही चली थी कि पीछे से आवाज आई, ‘‘ठहरो रजिया।’’ मैंने मुड़कर देखा, मैं विस्मय से खड़ी हो गई। यह कौन है? मेरा नाम कैसे जानता है? जरूर कोई रात वाले उस्मान जैसा होगा। वह मेरे पास पहुँच कर बोला, ‘‘क्या मैं पूछ सकता हूं कि तुम सुबह-सुबह दबे पांव कैम्प से बाहर निकलकर कहां जा रही हो?’’
‘‘यह पूछकर तुम क्या करोगे ? तुम्हारा मुझसे क्या वास्ता है?’’ मैंने कहा।
‘‘वास्ता इन्सान का हर इन्सान के साथ होता है यदि वह वास्तव में इन्सान हो’’ वह बोला। 
नहीं, मुझे अपनी राह जाने दो, मैंने अब तक दुनिया में हिन्दू को देखा है, मुसलमान को देखा है, परन्तु इन्सान कभी नहीं देखा, तुम कहां से आ गए?’’ मैं बोली।
‘‘सभी इन्सान पैदा होते हैं रजिया, हिन्दू या मुसलमान तो उन्हें बाद में बनाया जाता है । कुदरत ने मनुष्य को दिमाग दिया है ताकि बड़ा होकर वह समझ सके कि उसे इन्सान से कुछ और क्यों बना दिया गया, किसने बना दिया? फिर इन्सान तो इन्सान ही रहता है।’’ वह बोलता ही जा रहा था कि मैंने उसे बीच में टोका, ‘‘मुझे तुम्हारी बातें बड़ी अजीब लग रही हैं। मैं इन्हें समझ नहीं पा रही। मुझे अपनी राह जाने दो।’’
‘‘नहीं, मैं तुम्हारा रास्ता रोकूंगा और उस वक्त तक रोकूंगा जब तक तुम खुद न समझ लो कि तुम्हारा रास्ता यह नहीं, दूसरा है। और वह रास्ता है, दुःखी लोगां का रास्ता, गरीबों का रास्ता, मजलूमों का रास्ता !’’
क्या मैं पूछ सकती हूं कि तुम मुझे ही क्यों दिखाना चाहते हो वो रास्ता? क्या अब तक मेरे सिवा तुम्हें और कोई दुःखी, गरीब और मजलूम नहीं मिला रास्ता दिखाने के लिए?’’ 
वह बोला, ‘‘मिले हैं, कुछ रास्ता पकड़ भी चुके हैं, कुछ दोबारा भटक गए हैं। अब तुम्हारी यह शंका कि तुम्हें ही क्यों चुना? तो इसका जवाब यह है कि इस कैम्प में आए मुझे दस दिन हो गये हैं। यहां हर रोज एक लड़की के साथ यह घटना होती है। परन्तु किसी ने मुकाबले की हिम्मत नहीं की। आह तक नहीं की। आकर मिल गई भेड़ों में भेड़ और चर्चा यही चली, ‘‘क्या करें? जब जान पर बन आए तो इज्जत भी दांव पर लगानी पड़ती है ।’’ यह उनका आत्मसर्मपण था। तुमने आत्मसर्मपण नहीं किया बल्कि संघर्ष किया और तुम्हें इस घटना से आत्मग्लानि हुई। वह तुम्हारे रात भर अनबोल पड़े रहने और सवेरे-सवेरे चुपचाप गलत राह पर चल पड़ने से प्रतीत होती है।’’ 
‘‘तुम्हें क्या पता मैं किस रास्ते पर जा रही हूँ और वह गलत है? मैंने कहा।
‘‘हां मुझे मालूम है। जो आदमी समाज में हो रहे इन जुल्मों को सहन नहीं कर सकता, उसके सामने तीन रास्ते होते हैं। पहला, परिस्थितियों से समझौता, यानि आत्मसमर्पण। इस रास्ते को कमजोर और कमीनी वृत्ति के आदमी ही अपना सकते हैं। दूसरा रास्ता है-- आत्महत्या, जिसे मैं समझता हूँ तुमने अपनाया है। इसे हम कायरता कह सकते हैं।’’ इन दोनों रास्तों को हिन्दू अपना सकता है, सिख अपना सकता है, मुसलमान अपना सकता है, परन्तु इन्सान नहीं अपना सकता।’’ वह तीसरा रास्ता है, जिसे इन्सान अपना सकता है। वो रास्ता है--जीना और इन जुल्मों के खिलाफ संघर्ष करना। एक ऐसा समाज बनाने के लिए, जिसमें कोई शोषक न हो, कोई शोषित न हो। यह रास्ता इन्सानों का है, बहादुरों का है, सपूतों का है।’’ 
क्या तुम कोई संघर्ष कर रहे हो ऐसा? मैंने पूछा। 
‘‘हां, जितनी शक्ति है वह लग रहा हूँ, बढे़गी और लगाऊंगा। यदि तुम भी साथ दोगी तो दोगुनी हो जाएगी।’’ 
‘‘मैं तुम्हारा साथ कैसे दूं?’’ मेरी क्या औकात है तुम्हारा साथ देने की?’’
‘‘मैं परख चुका हूँ तुम्हारी औकात को, जो कमी है उसे मैं पूरा करूंगा’’ उसने जवाब दिया। 
‘‘क्या कमी है? कैसे पूरी करोगे? क्या मैं जान सकती हूँ?’’
‘‘हां, तुम में साहस नजर आता है, कमी केवल शिक्षा की हैं। वह मैं दूंगा तुम्हें, जीवन साथी बना कर।’’ 
‘‘हैरानी है मुझे, मुझ पतिता को अपनाने की बात कर रहे हो, यह जानते हुए भी कि मेरा पतन तुम्हारी आंखों के सामने हुआ है।’’
‘‘मैं यह भी तो जानता हूं कि तुमने खुद को बचाने के लिए कितना संघर्ष किया। ऐसे संघर्षकारी व्यक्ति का जीवन समाप्त होना मानव समाज का भारी नुकसान होता है। पतिता होने का दोष तो तब था यदि तुमने आत्मसमर्पण कर दिया होता। मुसीबतों के बीच से तपकर निकली हुई तुम्हारी जवानी न मालूम मानव समाज का कितना कल्याण कर सकती है?’’ 
न मालूम उस नौजवान की बातों में मुझे क्यों दिलचस्पी होने लगी थी? मैं उसका नाम पूछ बैठी। 
‘‘मेरा नाम हनीफ है’’ उसने कहा। 
‘‘क्या मैं पूछ सकती हूं कि तुम्हारा हिन्दुस्तान में कौन-सा गांव था? परिवार में कौन-कौन था?’’ 
‘‘पूछने में तो कोई हर्ज नहीं, परन्तु इस सवाल का और इसके जवाब का अब कोई मतलब नहीं रहा। रजिया, अब हमें नया देश मिल गया है, अब तो इसी में जीना होगा। फिर भी तुम्हें सब कुछ बता दूंगा समय आने पर।
अगले दिन कैम्प में एक नया काफिला आकर ठहरा, जिसमें जोहरा भी शामिल थी। जोहरा को तुम नहीं जानते, वह मेरी फूफीजाद बहन थी। जोहरा ने बताया कि इस्माईल, जिसके साथ उसकी शादी हुई थी, मारा गया और हिन्दू कातिलों ने उसे उठाकर अपने घर में डाल लिया था। परन्तु खोजबीन के बाद पुलिस ने उसे भी निकाल कर पाकिस्तान भिजवा दिया। जोहरा से मिलने के बाद बोलने से पहले ही  मेरी आँखें चश्मे की तरह फूट निकलीं। दोनों बहनें गले मिलकर खूब रोईं और इतनी रोईं कि मुसीबतों का सारा जहर आंखों के रास्ते समाप्त हो गया। दोनों बहनें शाम तक पिछले जीवन पर चर्चा करती रहीं। 5 बजे कैम्प कमाण्डर ने रोज की तरह नए आने वाले व्यक्तियों से मुलाकात की। आज उसकी हवस का शिकार जोहरा थी। जब मैंने अपनी आपबीती सुनाई तो जोहरा का चेहरा सफेद पड़ने लगा।
शाम को कमीना कर्मचारी जोहरा को बुलाने आया और कहने लगा, ‘‘बी जोहरा, साहब तुम्हारे ऊपर बड़े मेहरबान हैं, तुम्हें एक बार बुला रहे हैं ।’’ 
हनीफ ने बीच में आकर उसे झंझोड़ते हुए कहा, ‘‘कमीने कुत्ते चले जाओ यहां से, यह नहीं जाएगी और जाकर अपने उस जलील आका को बता दे कि उसके गुनाहों का हम सरेबाजार भण्डाफोड़ करेंगे और जब तक उसे जहन्नुम में न भेज दें, चैन से नहीं बैठेंगे।’’
शोर सुनकर कैम्प के सभी मर्द, औरत, बच्चे व बूढे उसके चारों ओर झूम गए। हनीफ ने और जोश के साथ बोलना शुरू किया, ‘‘मुहाजरीन बहनो व भाइयो! हम यहां इज्जत बचाकर लुटाने नहीं आए। यदि यही सब होना था तो हिन्दुस्तान में ही हो जाता। फिर इस्लाम के नाम पर क्यों बरबाद हुए? क्या हमेंं राज करना था? हम तो केवल जीना चाहते थे। क्या पाकिस्तान, क्या हिन्दुस्तान! जहां अस्मतें लूटी जायें, वह सब जहन्नुम है। मुझे तो ऐसा लग रहा है जैसे हिन्दुस्तान व पाकिस्तान कुछ नहीं, यह तो लुटेरों ने अपने क्षेत्र बांट लिए हैं, लोगों का शोषण करने के लिए। यह लड़ाई अपनी लड़ाई नहीं थी, अपनी लड़ाई तो तब शुरू होगी जब हम इन लुटेरों की चाल को समझ जाएंगे। यह लड़ाई न केवल हिन्दुस्तान व पाकिस्तान में, बल्कि सारी दुनिया में लड़नी पड़ेगी। और उस समय तक लड़नी पड़ेगी जब तक कैम्प कमाण्डर जैसे भेड़ियों, इस अरदली जैसे कुत्तों का और उस वर्ग के..... की कोशिश की। 
परन्तु सारी भीड़ का शोर उठ खड़ा हुआ, ‘‘छोड़ो इसे, कहां ले जा रहे हो? इस अकेले को हम नहीं जाने देंगे! चलो हम भी चलते हैं। कैम्प कमांडर गुण्डा है, यह नौजवान ठीक कह रहा है।’’ मामले को बढ़ता देखकर पुलिस वालों ने नरमी पकड़ी और थानेदार ने आगे बढ़कर सबको शान्ति से बैठने के लिए कहा। पूछताछ के दौरान थानेदार कैम्प कमांडर के सम्मान के लिए वकालत करने की कोशिश करता, लेकिन जब उसका एक भी शब्द कमाण्डर के हक में निकलता तो भीड़ चिल्लाना शुरू कर देती।
कुछ देर बाद एक बड़ा अफसर आया, जिसे लोग पुलिस कप्तान कह रहे थे। उसने कहा, ‘‘आप शान्त हो जाइए, आगे कोई ऐसी घटना नहीं होगी। कल से आपकी सब सुनाई होगी।’’ यह एक ऐसी जांच थी जिसमें पुलिस ने कैम्प कमाण्डर और उसके सम्मान को सुरक्षित रखने का जिम्मा अपने सिर पर ले रखा था। उस बेहूदे का काला मुंह दिखाने के लिए उसे भीड़ के सामने तक भी नहीं लाया गया। इतना जरूर हुआ कि अगले दिन उसकी जगह कोई दूसरा व्यक्ति बैठा हुआ था।
करीब एक माह बाद नए कैम्प कमाण्डर ने हनीफ को बुलाकर एक कागज उसके हाथ में थमाया और कहा कि वह रावलपिण्डी, चेक नं. 17, मकान न. 42 में चला जाए, उसे वह मकान अलाट हुआ है। जब हनीफ ने आकर बताया तो मुझे अपने पैरों के नीचे तले से जमीन खिसकती मालूम हुई। मैंने जोहरा की तरफ नजर घुमाई, वह उदास खड़ी थी। हनीफ ने हमें एक तरकीब सुझाई और हम कैम्प कमाण्डर के सामने जाकर पेश हो गईं। हमने कहा कि हमें हनीफ के साथ भेज दो। 
कमाण्डर ने कहा, ‘‘नहीं ऐसा नहीं हो सकता। जब तक तुम्हारे परिवारों का अता-पता नहीं मिलता तुम्हें कैम्प में रहना होगा। हम नौजवान लड़कियों को गैर मर्द के साथ कैसे भेज सकते हैं ।’’ मैंने कहा, ‘‘यहां भी तो हम गैर मर्दों के साये में बैठी हैं। अब हमारा परिवार वही होगा, जहां हम रहेंगीं। हनीफ से हमें वह खतरा कभी नहीं हो सकता जो इस कैम्प के लोगों से है।’’ उसकी बोलचाल और आंखें ऐसा संकेत दे रही थीं कि जितने दिन हो सके, कैम्प की शोभा बनी रहे। परन्तु उसकी पार न बसाई। उसने हनीफ को बुलाकर एक कागज पर दस्तखत कराए और साथ ही मेरे और जोहरा के भी। उसी दिन से मैं हनीफ के साथ रावलपिण्डी में रह रही हूं। यहां के लोकल बाशिन्दों के साथ हमारी भाषा व संस्कृति का कोई मेल नहीं है। जो रोष मेरे दिल में हिन्दुओं के प्रति था, वह आहिस्ता-2 कम होकर और मुसलमानों के प्रति बढ़कर अब समानान्तर चलने लगा है।

1948-49-50-51-52

हनीफ के साथ मैं और जोहरा भी एक कपास मिल में मजदूरी पर जाने लगीं। मिल का मालिक एक हिन्दू था। मजदूरों में हनीफ का एक साथी से परिचय बढ़ने लगा, जिसका नाम गुलजार था। गुलजार और हनीफ के विचार बहुत मिलते थे। वे दोनों जब हमारे सामने बैठकर एक-दूसरे के सवालों और जवाबों में लग जाते तो घण्टों लगे रहते। चर्चा का विषय ज्यादातर लोगों का आर्थिक व सामाजिक जीवन होता था। गुलजार भी हमारी तरह भारत से उजड़कर आया था। यहां पाकिस्तान के लोकल बाशिन्दों के दिल में हमारे प्रति बड़ी घृणा देखने को मिलती थी, फिर भी हनीफ और गुलजार यहां के बाशिन्दों से मेलजोल बढ़ाने में अपना रोल ईमानदारी से निभाते थे। थोड़े ही दिनों में उन्होंने यहां के लोकल मजदूरों में काफी लोकप्रियता हासिल कर ली थी। हमें वे फुरसत के समय पढ़ने की प्रेरणा देते और समय मिलने पर हनीफ खुद भी हमें पढ़ाते। हमने तीन साल में ही किताबें पढ़नी शुरू कर दी। एक दिन हम चारों इकट्ठे बैठे थे, हनीफ ने जोहरा को चाय बनाने को कहा। जोहरा उठकर रसोईघर में चली गई। हनीफ ने जोहरा के जाते ही गुलजार से चर्चा चला दी। यह चर्चा एक मुस्लिम विधवा औरत की थी, जिसे मुस्लिम कानून में दूसरी शादी करने का अधिकार नहीं, जबकि मर्द एक साथ चार-चार शादियां कर सकता है। हनीफ हमारे दोनों के बीते हुए जीवन के बारे में गुलजार को पहले ही बहुत कुछ बता चुका था। गुलजार अपने दिल में जोहरा के लिए असीम जगह होते हुए भी किसी निर्णायक स्थिति में नहीं था। दिन बीतते चले गए। हम मजदूरी करके जीवन की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे। मुझे और जोहरा को किताबें पढ़ने का शौक बढ़ने लगा। हनीफ ने ढेर सारी किताबें हमें पढ़ने को दीं, साथ में यह भी कहा कि इन किताबों को खुले आम पढ़ना ठीक नहीं, इनके पढ़ने पर पाबन्दी है। फिर भी हम मजूदरों के लिए इनका ज्ञान जरूरी है।
मिल का मालिक साल दर साल मुनाफा कमाता रहा। साल दर साल चीजों के दाम बढ़ते रहे और हमारी दिहाड़ी जीवन निर्वाह के लिये साल दर साल कमजोर पड़ती गई। घरेलू जरूरत की चीजों का खरीदना अत्यन्त कठिन हो गया। सब मजदूरों में इस समस्या से निपटने के लिए चर्चाएं शुरू होने लगीं और एक दिन सबने मिलकर हड़ताल करने का निर्णय ले लिया। मिल के गेट पर तालाबन्दी का नोटिस लग गया। मजदूरों में रोष पैदा हो गया। सब मजदूर तालाबन्दी के विरुद्ध प्रदर्शन करते हुए जलूस की शक्ल में मार्च कर रहे थे। पुलिस के एक दस्ते ने आगे आकर ऐलान किया, ‘‘खबरदार, यदि आगे बढ़े तो गोली मार दी जाएगी।’’ ‘‘हम अपना हक मांग रहे हैं, अपना हक लेकर रहेंगे, हमें कोई नहीं रोक सकता!’’ कहते हुए मजूदर आगे बढ़ने लगे। इसके बाद पुलिस ने अपने देश के कमेरों को अपना हक मांगने के बदले में लाठियों और गोलियों का इनाम देना शुरू कर दिया। गुलजार के पांव में गोली लगी, जोहरा की नजर गिरते हुए गुलजार पर पड़ी। पुलिस और प्रशासन को बुरी तरह कोसती हुई जोहरा भागकर गुलजार के पास पहुंची। उसने अपनी ओढ़णी को फाड़कर चलते खून को रोकने के लिए गुलजार के पांव पर पट्टी बांधी और उसे अपनी पीठ पर उठाकर हस्पताल की ओर भागी। और भी कई मजदूर घायल हुए। पुलिस जलूस को तितर-बितर करने में तो जरूर सफल हो गई, परन्तु हड़ताल को न तुड़वा सकी। मजदूरों की आर्थिक स्थिति दिन पर दिन बिगड़ती चली गई। एक दिन फिर सबकी मीटिंग बुलाई गई। गेट के सामने फरमान अली, जो यहां का लोकल बाशिन्दा और मजदूरों का नेता था, बोलने के लिए उठा। श्रोताओं में करीब सभी मजदूर थे, जिनमें से बहुत सारों को पट्टियां बंधी थीं। किसी के सिर पर, किसी के हाथ पर, किसी के पांव पर। फरमान अली ने बोलना शुरू किया, ‘‘साथियो , आपको मालूम है कि हमारे शरीरों पर बंधी पट्टियाँ किस देशभक्ति का इनाम हैं? हमने इस मिल में काम किया, कपास को रूई में बदला, रूई को धागे में हमारे दूसरे साथियों ने बदला, धागे को कपड़े में भी हमारे ही साथियों ने बदला। कपड़े की पोशाक भी हमारे ही साथियों ने बनाई! परन्तु जब पोशाक बन गई तो वह अमीरों के तन की शोभा बनकर रह गई! हम चाहते हैं कि हमने जो माल बनाया, वह ज्यादा नहीं तो कम से कम अपनी जरूरत के लिए तो मिले। सालों से हमारी मजूदरी की दर वहीं खड़ी है, जबकि वस्तुओं के दाम चौगुने हो गए हैं। यदि हम सारे मजदूर एक हो जाएं तो इन अमीरों की क्या औकात है जो हमें हमारा हक ना दें? इसलिए मेरी आप से अपील है कि उन सब साथियों को साथ लेकर आगे बढ़ें जो दूसरे कारखानों में काम करते हैं। हमारे संघर्षों ने दास प्रथा को तोड़ कर स्वामियों का बीज नाश किया। उसके बाद शहनशाहों व सामन्तों के तख्त उखाडे़ और ताजों को ठोकरें मारी हैं। फिर क्या कारण है कि हम इन लुटेरों से अपने हक प्राप्त न कर सकें? हम अपने हक जरूर लेकर रहेंगें !’’ जोरदार तालियां बजीं और नारे गूंजे, ‘‘मजदूर एकता जिन्दाबाद !’’
इसके बाद हनीफ ने बोलना शुरू किया, ‘‘साथियो! एक दिन था जब हम हिन्दु-मुस्लिम एक ही देश के वासी थे और अंग्रेज हमारे ऊपर राज करते थे। तब भी हम पिस रहे थे और आज भी हम पिस रहे हैं। एक देश के दो देश बनाने के लिए, एक मार्केट के दो मार्केट बनाने के लिए अंग्रेजी साम्राज्य ने हमारे बीच जहर घोल कर हमें लड़ाया। इस जहर को फैलाने में राज के भूखे नेताओं ने अपना रोल खूब अच्छी तरह निभाया। हम लोग तो अपनी मेहनत की कमाई भी पूरी नहीं पाते थे, राज कहां मिलना था ? ठोकरें मिली, मौत मिली, परिवारों और दोस्तों के बिछोड़े मिले और बेइज्जती मिली। दूसरी ओर, इस धर्म-मजहब का जहर फैलाने वालों को राज मिला। उन्हें उनका मनचाहा हिन्दू राज्य व मुसलिम राज्य या यूं कहिए कि भगवान का राज और खुदा का राज मिला। ‘‘जो कठोर दिन हमने बिताये हैं उसके लिए किसी ऐतिहासिक प्रमाण की जरूरत नहीं है। हिन्दुस्तान में हमारे वे पड़ोसी जो हमारी मां, बहू, बेटियों को अपनी मां, बहू, बेटी समझते थे, धर्म की अफीम के नशे में उनकी हत्या ही नहीं, बेहुरमती भी कर रहे थे। यही कहानी यहां के हिन्दुओं के साथ दोहराई गई। खुदाई राज में भी हमने देखा कि एक पूंजीपति के लाभ की सुरक्षा के लिए मुस्लिम पुलिस, मुस्लिम मजदूरों पर मुस्लिम हाकिमों के हुक्म से गोलियां चला रही है, चाहे वह पूंजीपति किसी भी धर्म या जाति का हो। भारत में भी यही हो रहा है। वहां का भगवान भी हिन्दुओं को नहीं पहचानता। वहां भी पुलिस की गोलियां मजदूरों पर चलती हैं। हिन्दुओं की बन्दूक से निकली गोलियां भी हिन्दुओं को नहीं पहचानतीं।’’
इससे आगे की जीवन गाथा को बहुत छोटा करके लिख रही हूं। समय बीतता गया, चाहे दुःखों में ही सही। इस दौरान यहां कितने ही परिवर्तन हुए, लेकिन फौजी तानाशाहों की बन्दूकें हमेशा जनता पर तनी रही हैं। आज जब लुटेरों के पास यहां धर्म के आधार पर जनता में फूट डालने का मौका नहीं रहा तो उन्होंने लोगों को मुहाजरीन व स्थाई के नाम पर बांट दिया। हम यहां मुहाजरीन कहे जाते हैं, जिन्हे यहां के स्थाई बाशिन्दे अपनी आंख की किरकरी समझते हैं।
आखिर वह बुरा दिन भी आ गया, जिस दिन मुझे हनीफ से सदा के लिए बिछुड़ना पड़ा। हनीफ यहां के स्थाई व मुहाजिरों की भिड़न्त में यहां के स्थाई लोगों की गोली का शिकार हो गया। न मालूम खुदा ने क्यों नहीं सोचा कि हम भी मुसलमान हैं? आज जोहरा और गुलजार भी मेरे साथ ही रहते हैं। हम बिल्कुल एक परिवार की तरह रहते हैं। मेरे पास हनीफ की याद को ताजा रखने के लिए सलमा और असलम हैं जो अपनी उम्र की याद दिलाते हैं, जिस उम्र में तुम मेरे लिए काला कलोटा बनड़ा तलाश किया करते थे। आशा करती हूं कि तुम्हारे पास भी सलमा व असलम जैसे अनमोल मोती होंगे। जी चाहता है उन्हें अपनी आंखों से देखूं, उनके पास रहूं और उन्हें कह दूं अपने दिल के वे सब अरमान, जिन्हें हमारे मरने के बाद पूरा करने में वे भी अपनी जिंदगी लगा दें। क्या हैं वे अरमान? यह तुम जानते ही होगे। क्योंकि मुझे दुःखों ने जो रास्ता दिखाया है, वही रास्ता एकमात्र रास्ता है जो दुनिया भर के शोषित लोगों को मुक्त करवा सकता है। जो लोग दिन भर मेहनत करने के बाद भी आधा पेट खाते हैं, जो काम न मिलने के कारण भीख मांगकर पेट की आग बुझाते हैं, ऐसे लोगों की आवाज खुदा के कानों तक नहीं पहुँचती। न ही इनकी आवाज संसद भवन की ऊंची दीवारों को पार कर सकती है। ये आवाज तब तक खुदा के कानों तक नहीं पहुंचेगी जब तक हम सही रास्ते को जानकर एक साथ ऊंची आवाज में ‘‘इंकबाल जिन्दाबाद!’’ नहीं बोलेंगे।
काश ! तुम जिन्दा मिलो और मेरी डायरी तुम्हारे हाथों में पहुंचे, तुम्हारे पास भी असलम और सलमा जैसे हीरे हों , जिन्हें देखने के लिए मेरा दिल बार-बार मचल उठता है। अब मैं पत्र को खत्म कर रही हूंँ। मेरे पत्र का जवाब तुरन्त देना। पत्र के इन्तजार में।    

तुम्हारी बहन रजिया












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