Friday, 31 July 2020

राजनीति

महाजनी सभ्यता
 
मुंशी प्रेमचंद
 
 
(जहां धन की कमी व बाहुल्य के आधर पर असमानता है! वहां ईर्ष्या, जोर-जबरदस्ती, बेईमानी, झूठ, मिथ्या अभियोग-आरोप,  वेश्यावृत्ति, व्यभिचार और सारी दुनिया की बुराइयां अनिवार्य रूप से मौजूद हैं। जहाँ धन का आधिक्य नहीं, अधिकांश मनुष्य एक ही स्थिति में हैं, वहां जलन क्यों हो?, जबर क्यों हो?, सतीत्व- विक्रय क्यों हो?, झूठे मुकद्दमे क्यों चलें? और चोरी-डाके की वारदातें क्यों हों? यह सारी बुराइयां तो दौलत की देन हैं, पैसे के प्रसाद हैं, महाजनी सभ्यता ने इनकी सृष्टि की है। वही इनको पालती है और वही यह भी चाहती है कि जो दलित, पीड़ित और विजित हैं, वे इसे ईश्वरीय विधान समझकर अपनी स्थिति पर सन्तुष्ट रहें। उनकी ओर से तनिक भी विरोध-विद्रोह का भाव दिखाया गया, तो उनका सिर कुचलने के लिए पुलिस है, अदालत है, कालापानी है।)

जागीरदारी सभ्यता में बलवान भुजाएं और मजबूत कलेजा जीवन की आवश्यकताओं में शामिल थे, और 'साम्राज्यवाद’ (यहां साम्राज्यवाद से लेखक का तात्पर्य एकतन्त्रवाद से है।) में बुद्ध के गुण तथा मूक आज्ञा-पालन उसके आवश्यक साधन थे, पर उन दोनों स्थितियों में दोषों के साथ कुछ गुण भी थे। मनुष्य के अच्छे भाव लुप्त नहीं हुए थे। जागीरदार अगर दुश्मन के खून से अपनी प्यास बुझाता था, तो अक्सर अपने किसी मित्र या उपकारक के लिए जान की बाजी भी लगा देता था। बादशाह अगर अपने हुक्म को कानून समझता था और उसकी अवज्ञा को कदापि सहन नहीं कर सकता था, तो प्रजापालन भी करता था, न्यायशील भी होता था। दूसरे देश पर चढ़ाई या तो किसी अपमान-अपकार का बदला लेने के लिए करता था या अपनी आन-बान, रोब-दाब कायम रखने के लिए या फिर देश विजय और राज्य-विस्तार की वीरोचित महत्त्वाकांक्षा से प्रेरित होता था। उसकी विजय का उद्देश्य प्रजा का खून चूसना कदापि न होता था। कारण यह कि राजा और सम्राट जनसाधारण को स्वार्थसाधन और धन-शोषण की भट्ठी का ईंधन न समझते थे, किन्तु उनके दुख-सुख में शरीक होते थे और उनके गुणों की कद्र करते थे।
मगर इस महाजनी सभ्यता (पूँजीवादी सभ्यता) में सारे कामों की गरज महज पैसा होती है। किसी देश पर राज्य किया जाता है, तो इसलिए कि महाजनों-पूँजीपतियों को ज्यादा से ज्यादा नफा हो। इस दृष्टि से मानो आज दुनिया में महाजनों का ही राज्य है। मनुष्य समाज दो भागों में बंट गया है -- बड़ा हिस्सा तो मरने और खपने वालों का है, और बहुत ही छोटा हिस्सा उन लोगों का, जो अपनी शक्ति और प्रभाव से बड़े समुदाय को बस में किये हुए है। इन्हें इस बड़े भाग के साथ किसी तरह की हमदर्दी नहीं, जरा भी रू-रियायत नहीं। उसका अस्तित्व केवल इसलिए है कि अपने मालिकों के लिए पसीना बहाये, खून गिराये और चुपचाप इस दुनिया से विदा हो जाये। अधिक दुःख की बात तो यह है कि शासक वर्ग के विचार और सिद्धांत शासित वर्ग के भीतर भी समा गये हैं, जिसका फल यह हुआ है कि हर आदमी अपने को शिकारी समझता है और उसका शिकार है समाज। वह खुद समाज से बिल्कुल अलग है, अगर कोई संबन्ध है, तो यह कि किसी चाल या युक्ति से बस समाज को उल्लू बनाये और उससे जितना लाभ उठाया जा सकता हो, उठा ले।
धन लोभ ने मानव भावों को पूर्णरूप से अपने अधीन कर लिया है। कुलीनता, शराफत, गुण और कमाल की कसौटी पैसा और केवल पैसा है। जिसके पास पैसा है, वह देवता स्वरूप है, उसका अन्तःकरण कितना ही काला क्यों न हो, साहित्य, संगीत और कला सभी धन की दहलीज पर माथा टेकने वालों में हैं। यह हवा इतनी जहरीली हो गयी है कि इसमें जीवित रहना कठिन होता जा रहा है। डॉक्टर और हकीम हैं कि वे बिना लम्बी फीस लिए बात नहीं करते। वकील और बैरिस्टर हैं कि वे मिनटों को अशर्फियों से तौलते हैं। गुण और योग्यता की सफलता उसके आर्थिक मूल्य के हिसाब से मानी जा रही है। मौलवी साहब और पंडित जी भी पैसे वालों के, बिना पैसों के गुलाम हैं। अखबार भी उन्हीं का राग अलापते हैं। इस पैसे ने आदमी के दिलोदिमाग पर इतना कब्जा जमा लिया है कि उसके राज्य पर किसी ओर से भी आक्रमण करना कठिन दिखाई देता है। दया, स्नेह, सच्चाई और सौजन्य का पुतला मनुष्य, मात्र ममताशून्य, जड़-यन्त्र बनकर रह गया है। इस महाजनी सभ्यता ने नये-नये नीति-नियम गढ़ लिए हैं जिन पर आज समाज की व्यवस्था चल रही है। उनमें से एक यह है कि समय ही धन है। पहले समय जीवन था, उसका सर्वोत्तम उपयोग विद्या-कला का अर्जन अथवा दीन-दुखी जनों की सहायता करना था। अब उसका सबसे बड़ा सदुपयोग पैसा कमाना है। डॉक्टर साहब हाथ मरीज की नब्ज पर रखते हैं और निगाह घड़ी की सुई पर, उनका एक-एक मिनट एक-एक अशर्फी है। रोगी ने अगर केवल एक अशर्फी नजर की है, तो वे उसे मिनट से ज्यादा वक्त नहीं दे सकते। रोगी अपनी दुखगाथा सुनाने के लिए बेचैन है, पर डॉक्टर साहब का उधर बिल्कुल ध्यान नहीं। उन्हें उसमें जरा भी दिलचस्पी नहीं। उनकी निगाह में उस व्यक्ति का अर्थ केवल इतना ही है, कि वह उन्हें फीस देता है। वह जल्द से जल्द नुस्खा लिखेंगे और दूसरे रोगी को देखने लग जायेंगे। मास्टर साहब पढ़ाने आते हैं, उनका एक घंटा वक्त बँधा है। वे घड़ी सामने रख लेते हैं। जैसे ही घंटा पूरा हुआ, उठ खड़े हुए। लड़के का सबक अधूरा रह गया है तो रह जाये, उनकी बला से, वे घंटे से अधिक समय कैसे दे सकते हैं, क्योंकि समय रुपया है। इस धन-लोभ ने मनुष्यता और मित्रता का नाम खत्म कर डाला है। पति को पत्नी या बच्चों से बात करने की फुर्सत नहीं, मित्र और सम्बन्धी किस गिनती में हैं। जितनी देर वह बात करेगा, उतनी देर में तो कुछ कमा लेगा, कुछ कमा लेना ही जीवन की सार्थकता है, शेष सब कुछ तो समय नष्ट करना है। बिना खाये-सोये काम नहीं चलता, बेचारा इससे लाचार है और इतना समय नष्ट करना ही पड़ता है।
आपका कोई मित्र या सम्बन्धी अपने नगर में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है, तो समझ लीजिए, उसके यहां आपकी रसाई मुमकिन नहीं। आपको उसके दरे-दौलत पर जाकर कार्ड भेजना होगा। उन महाशय को बहुत से काम होंगे। मुश्किल से आप से एक-दो बातें करेंगे या साफ जवाब दे देंगे कि आज फुर्सत नहीं है। अब वे पैसे के पुजारी हैं, मित्रता और शील-संकोच को तो वे कब की तिलांजलि दे चुके हैं।
आपका कोई दोस्त वकील है और आप किसी मुकद्दमे में फँस गये हैं, तो उससे किसी तरह की सहायता की आशा न रखिए, अगर वह मुरौव्वत को गंगा में नहीं डुबो चुका है, तो आपसे लेन-देन की बात शायद न करेगा, पर आपके मुकद्दमे की ओर तनिक भी ध्यान न देगा। इससे तो कहीं अच्छा है कि आप किसी अपरिचित के पास जायें और उसकी पूरी फीस अदा करें। ईश्वर न करे कि आज किसी को किसी चीज में कमाल हासिल हो जाये, फिर उसमें मनुष्यता नाम को न रह जायेगी, उसका एक-एक मिनट कीमती हो जायेगा।
इसका अर्थ यह नहीं कि व्यर्थ की गपशप में समय नष्ट किया जाये, पर वह अर्थ अवश्य है कि धन-लिप्सा को इतना बढ़ने न दिया जाये कि वह मनुष्यता-मित्रता-स्नेह व सहानुभूति सबको निकाल बाहर करे।
पर आप उस पैसे के गुलाम को बुरा नहीं कह सकते। सारी दुनिया जिस प्रवाह में बह रही है, वह भी उसी में बह रहा है, मान-प्रतिष्ठा सदा से मानवीय आकाँक्षाओं का लक्ष्य रहा है। जब विद्या, कला मान-प्रतिष्ठा का साधन थी, उस समय लोग इन्हीं का अभ्यास-अर्जन करते थे। आज धन उसका एकमात्र उपाय है, अतः मनुष्य मजबूर है कि एकनिष्ठ भाव से उसी की उपासना करे। वह कोई साधु-महात्मा-सन्यासी-उदासी नहीं, वह देख रहा है कि उसके पेशे में जो सौभाग्यशाली सफलता की कठिन यात्रा तय कर सके हैं, वे उसी राजमार्ग के पथिक थे, जिस पर वह खुद चल रहा है। समय धन है एक सबल व्यक्ति का, वह इस सिद्धांत का अनुसरण करते देखता है, फिर वह भी उसी के पदचिन्हों का अनुसरण करता है, तो उसका क्या दोष? मान-प्रतिष्ठा की लालसा तो दिल से गिरायी नहीं जा सकती। वह देख रहा है कि जिनके पास दौलत नहीं, और इसलिए कि जिन्होंने वक्त को दौलत नहीं समझा, उनको कोई पूछने वाला नहीं। वे अपने पेशे में उस्ताद हैं फिर भी उनकी कहीं पूछ नहीं। जिस आदमी में तनिक भी जीवन की आकांक्षा है, वह तो इस उपेक्षा की स्थिति को सहन नहीं कर सकता। उसे तो मुरौव्वत, दोस्ती और सौजन्य को धता बतला कर लक्ष्मी की आराधना में अपने को लीन कर देना होगा, तभी इस देवी का वरदान उसे मिलेगा, और यह कोई इच्छाकृत कार्य नहीं, किन्तु सर्वथा बाध्यकारी है। मनुष्य के मन की अवस्था अपने आप कुछ इस तरह की हो गयी है कि उसे धनार्जन के सिवा और किसी कार्य से लगाव नहीं रहा। अगर उसे किसी सभा या व्याख्यान में आध घंटा बैठना पडे़, तो समझ लो, वह कैद की घड़ी काट रहा है। उसकी सारी मानसिक, भावगत और सांस्कृतिक दिलचस्पियाँ इसी केन्द्र-बिन्दु पर आकर एकत्र हो गयी हैं, और क्यों न हों? वह देख रहा है, कि पैसे के सिवा उसका कोई अपना नहीं। स्नेही मित्र भी अपनी गरज लेकर ही उसके पास आते हैं, स्वजन-सम्बन्धी भी उसके पैसे के ही पुजारी हैं। वह जानता है कि अगर यह निर्धन होता तो यह जो दोस्तों का जमघट लग रहा है, उसमें एक के भी दर्शन न होते, इन स्वजन-सम्बन्धियों में से एक भी पास न फटकता। उसे समाज में अपनी एक हैसियत बनानी है, बुढ़ापे के लिए कुछ बचाना है, बच्चों के लिए कुछ कर जाना है, जिससे उन्हें दर-दर ठोकरें न खानी पड़ें। इस निष्ठुर, सहानुभूति-शून्य स्थिति का उसे पूरा अनुभव है। अपने बच्चों को वह उन कठिन अवस्थाओं में पड़ने नहीं देना चाहता, जो सारी आशाओं-उमंगों पर पाला गिरा देती हैं, हिम्मत-हौंसले को तोड़कर रख देती हैं। उसे वे सारी मंजिलें जो एक साथ जीवन की आवश्यक अंग हैं, खुद तय करनी होंगी और जीवन को व्यापार के सिद्धांतों पर चलाये बिना वह इनमें से एक भी मंजिल पार नहीं कर सकता।
इस सभ्यता का दूसरा सिद्धांत है -- Business is Business अर्थात् व्यवसाय, व्यवसाय है उसमें भावुकता के लिए कोई गुंजाइश नहीं। पुराने जीवन सिद्धांत में वह लट्ठमार साफगोई नहीं है, जो निर्लज्जता कही जा सकती है और जो इस नवीन सिद्धांत की आत्मा है। जहां लेन-देन का सवाल है, रुपये-पैसे का मामला है! वहां न दोस्ती की गुजर है, न मुरौव्वत की, न इन्सानियत की! बिजनेस में दोस्ती कैसी । जहाँ किसी ने इस सिद्धांत की आड़ ली, आप लाजवाब हुए। फिर आपकी जुबान नहीं खुल सकती। एक सज्जन जरूरत से लाचार होकर अपने किसी महाजन मित्र के पास जाते हैं, और चाहते हैं कि वह कुछ मदद करे। यह भी आशा रखते हैं कि शायद दर में वे कुछ रियायत दें, पर जब देखते हैं कि वे महानुभाव उनके साथ भी वही कारोबारी बर्ताव कर रहे हैं, तो कुछ रियायत की प्रार्थना करते हैं, मित्रता और घनिष्ठता कज आधर पर आँखों में आँसू भर कर बड़े करुण स्वर में कहते हैं -- ‘‘महाराज, मैं इस समय बड़ा परेशान हूँ, नहीं तो आपको कष्ट न देता, ईश्वर के लिये मेरे हाल पर रहम कीजिए। समझ लीजिए कि एक पुराने दोस्त.....,’’ वहीं बात काट कर आज्ञा के स्वर में फरमाया जाता है -- ‘‘लेकिन जनाब, आप ‘बिजनेस इज बिजनेस,’ इसे भूल जाते हैं। कातर प्रार्थी पर मानों बम का गोला गिरा। अब उसके पास कोई तर्क नहीं, कोई दलील नहीं। चुपके से उठकर अपनी राह लेता है या फिर अपने ‘व्यवसाय सिद्धांत’ के भक्त मित्र की सारी शर्तें कबूल कर लेता है।
महाजनी सभ्यता ने दुनिया में जो नयी रीति-नीतियाँ चलायी हैं, उनमें सबसे अधिक और रक्त-पिपासु यही व्यवसाय वाला सिद्धांत है। मियाँ-बीवी में बिजनेस, बाप-बेटे में बिजनेस, गुरू-शिष्य में बिजनेस। सारे मानवीय और सामाजिक नेह-नाते समाप्त। आदमी-आदमी के बीच बस कोई रिश्ता है तो बिजनेस का, लानत है इस बिजनेस पर! लड़की अगर दुर्भाग्यवश कुंवारी रह गयी और अपनी जीविका का कोई उपाय न निकाल सकी तो बाप के घर में ही लौंडी बन जाना पड़ता है। यों लड़के-लड़कियां सभी घरों में काम-काज करते ही हैं, पर उन्हें कोई टहलुआ नहीं समझता, पर इस महाजनी सभ्यता में लड़की एक खास उम्र के बाद लौंडी और अपने भाइयों की मजदूरनी हो जाती है। पूज्य पिताजी भी अपने ‘पितृ-भक्त’ बेटे के टहलुए बन जाते हैं और मां अपने ‘सपूत’ की टहलुई। स्वजन-संबंधी तो किसी गिनती में ही नहीं। भाई भी भाई के घर आये, तो मेहमान है। अक्सर तो उसे मेहमानी का बिल भी चुकाना पड़ता है। इस सभ्यता की आत्मा है व्यक्तिवाद, आप स्वार्थी बनें, सब कुछ अपने लिये करें!
पर यहां भी हम किसी को दोषी नहीं ठहरा सकते। वही मान-प्रतिष्ठा, वही भविष्य की चिन्ता, वही अपने बाद बीवी-बच्चों की गुजर का सवाल, वही नुमाइश और दिखावे की आवश्यकता, हर एक की गर्दन पर सवार है, और वह हिल नहीं सकता। वह इस सभ्यता के नीति-नियमों का पालन न करे तो उसका भविष्य अंधकारमय है।
अब तक दुनिया के लिए इस सभ्यता की रीति-नीति का अनुसरण करने के सिवा और कोई उपाय न था, उसे झकमार कर उसके आदेशों के सामने सिर झुकाना पड़ता था। महाजन अपने जोश में फूला फिरता था। सारी दुनिया उसके चरणों पर नाक रगड़ रही थी। बादशाह उसका बन्दा, वजीर उसके गुलाम, सन्धि-विग्रह की कुंजी उसके हाथ में, दुनिया उसकी महत्त्वाकांक्षाओं के सामने सिर झुकाये हुए, हर मुलक में उसका बोलबाला।
परन्तु अब नई सभ्यता का सूर्य सुदूर पश्चिम में (रूस में) उदय हो रहा है, जिसने इस नारकीय महाजनवाद या पूँजीवाद की जड़े खोदकर फेंक दी हैं, जिसका मूल सिद्धांत यह है कि प्रत्येक व्यक्ति, जो अपने शरीर या दिमाग से मेहनत करके कुछ पैदा कर सकता है, राज्य और समाज का परम सम्मानित सदस्य हो सकता है और जो केवल दूसरों की मेहनत या बाप-दादों के जोड़े हुए धन  पर रईस बना फिरता है, वह पतिततम प्राणी है। उसे राज्य-प्रबन्ध में राय देने का हक नहीं और वह नागरिकता के अधिकारों का भी पात्र नहीं। महाजन इस नई लहर से अति उद्विग्न होकर बौखलाया हुआ फिर रहा है और सारी दुनिया के महाजनों की शामिल आवाज इस नई सभ्यता को कोस रही है, उसे शाप दे रही है । व्यक्ति-स्वातन्त्रय, धर्म-विश्वास की स्वाधीनता, अपनी अन्तरात्मा के आदेश पर चलने की आजादी -- वह इन सबकी घातक, गला घोंट देने वाली बताई जा रही है। उन सभी साधनों से जो पैसे वालों के लिए सुलभ हैं, काम लेकर उसके विरूद्ध प्रचार किया जा रहा है! वह सच्चाई इस सारे अंधकार को चीर कर दुनिया में अपनी ज्योति का उजाला फैला रही है।
निस्सन्देह इस नई सभ्यता ने व्यक्ति-स्वातंत्रय के पंजे, नाखून और दाँत तोड़ दिये हैं। उसके राज्य में अब एक पूँजीपति लाखों मजदूरों का खून पीकर मोटा नहीं हो सकता। उसे अब यह आजादी नहीं कि अपने नफे के लिए साधरण आवश्यकता की वस्तुओं के दाम बढ़ा सके, या फिर अपने माल की खपत कराने के लिए युद्ध करा दे, गोला-बारूद और युद्ध-सामग्री बना कर दुर्बल राष्ट्रों का दमन कराये। अगर इस सबकी स्वाधीनता ही स्वाधीनता है तो निस्सन्देह नई सभ्यता में स्वाधीनता नहीं, पर यदि स्वाधीनता का अर्थ यह है कि जनसाधरण को हवादार मकान, पौष्टिक भोजन, साफ-सुथरे गांव, मनोरंजन और व्यायाम की सुविधायें, बिजली के पंखे और रोशनी, सस्ते और सद्यः सुलभ न्याय की प्राप्ति हो, तो इस समाज व्यवस्था में जो स्वाधीनता और आजादी है, वह दुनिया की किसी सभ्यतम कहलाने वाली जाति को भी सुलभ नहीं है। धर्म की स्वतन्त्रता का अर्थ अगर पुरोहितों, पादरियों और मुल्लाओं की मुफ्तखोर जमात के दंभमय उपदेशों और अन्धविश्वास-जनित रूढ़ियों का अनुसरण है तो निस्सन्देह वहाँ पर इस स्वतन्त्रता का अभाव है! पर धर्म स्वातंत्रय का अर्थ यदि लोकसेवा, सहिष्णुता, समाज के लिए व्यक्ति का बलिदान, नेकनीयती, शरीर और मन की पवित्रता है तो इस सभ्यता में धर्माचरण की जो स्वाधीनता है, और देशों को उसके दर्शन भी नहीं हो सकते।
जहां धन की कमी व बाहुल्य के आधर पर असमानता है! वहां ईर्ष्या, जोर-जबरदस्ती, बेईमानी, झूठ, मिथ्या अभियोग-आरोप,  वेश्यावृत्ति, व्यभिचार और सारी दुनिया की बुराइयां अनिवार्य रूप से मौजूद हैं। जहाँ धन का आधिक्य नहीं, अधिकांश मनुष्य एक ही स्थिति में हैं, वहां जलन क्यों हो?, जबर क्यों हो?, सतीत्व- विक्रय क्यों हो?, झूठे मुकद्दमे क्यों चलें? और चोरी-डाके की वारदातें क्यों हों? यह सारी बुराइयां तो दौलत की देन हैं, पैसे के प्रसाद हैं, महाजनी सभ्यता ने इनकी सृष्टि की है। वही इनको पालती है और वही यह भी चाहती है कि जो दलित, पीड़ित और विजित हैं, वे इसे ईश्वरीय विधान समझकर अपनी स्थिति पर सन्तुष्ट रहें। उनकी ओर से तनिक भी विरोध-विद्रोह का भाव दिखाया गया, तो उनका सिर कुचलने के लिए पुलिस है, अदालत है, कालापानी है। आप शराब पीकर उसके नशे से बच नहीं सकते। आग लगाकर चाहें कि लपटें न उठें, यह असम्भव है। पैसा अपने साथ ये सारी बुराइयां लाता है, जिन्होंने दुनिया को नरक बना दिया है। इस पैसा-पूजा को मिटा दीजिए, सारी बुराइयाँ अपने आप मिट जायेंगी जड़ न खोदकर केवल फुनगी की पत्तियां तोड़ना बेकार है। यह नयी सभ्यता धनाड्यता को हेय और लज्जाजनक तथा घातक विष समझती है। वहां कोई आदमी अमीरी ढंग से रहे तो वह लोगों की ईर्ष्या का पात्र नहीं होता, बल्कि तुच्छ और हेय समझा जाता है। गहनों से लदकर कोई स्त्री सुन्दरी नहीं बनती, घृणा की पात्र बनती है। साधारण जनसमाज से ऊँचा रहन-सहन रखना वहां बेहूदगी समझी जाती है। शराब पीकर वहाँ बहका नहीं जा सकता, अधिक मद्यपान वहां दोष समझा जाता है, धर्मिक दृष्टि से नहीं, किन्तु शुद्ध सामाजिक दृष्टि से, क्योंकि शराबखोरी से आदमी में धैर्य और कष्ट-सहन, अधयवसाय और श्रमशीलता का अंत हो जाता है।
हां, इस समाज-व्यवस्था ने व्यक्ति को यह स्वाधीनता नहीं दी है कि वह जनसाधरण को अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की तृप्ति का साधन बनाये और तरह-तरह के बहानों से उसकी मेहनत का फायदा उठाये या सरकारी पद प्राप्त करके मोटी-मोटी रकमें उड़ाये और मूँछों पर ताव देता फिरे। वहां ऊँचे से ऊँचे अधिकारी की तनख्वाह भी उतनी ही है, जितनी एक कुशल कारीगर की। वह गगनचुम्बी प्रासादों में नहीं रहता, तीन-चार कमरों में ही उसे गुजर करना पड़ता है। उसकी श्रीमतीजी रानी साहिबा या बेगम बनी हुई स्कूलों में इनाम बांटती नहीं फिरतीं, बल्कि अक्सर मेहनत-मजदूरी या किसी अखबार के दफ्तर में काम करती हैं। सरकारी पद पाकर वह अपने को लाटसाहब नहीं, बल्कि जनता का सेवक समझता है। महाजनी सभ्यता का प्रेमी इस समाज व्यवस्था को क्यों पसन्द करने लगा, जिसमें उसे दूसरों पर हुकूमत जताने के लिए सोने-चाँदी के ढेर लगाने की सुविधएँ नहीं? पूँजीपति और जमींदार तो इस सभ्यता की कल्पना से ही काँप उठते है। उनकी जूड़ी का कारण हम समझ सकते हैं, पर जब आम लोग भी इस नई सभ्यता की खिल्ली उड़ाने और उस पर फबतियाँ कसने लगते हैं तो अनजाने में ही वे महाजनी सभ्यता का उल्लू सीधा कर रहे होते हैं, तो हमें उनकी दास-मनोवृत्ति पर हँसी आती है। जिसमें मनुष्यता, आध्यात्मिकता, उच्चता और सौंदर्य-बोध है, वह कभी ऐसी समाज-व्यवस्था की सराहना नहीं कर सकता, जिसकी नींव लोभ, स्वार्थपरता और दुर्बल मनोवृत्ति पर खड़ी हो। ईश्वर ने तुम्हें विद्या और कला की संपत्ति दी है तो उसका सर्वश्रेष्ठ उपयोग यही है कि उसे जन-समाज की सेवा में लगाओ, यह नहीं कि उससे जन समाज पर हुकूमत चलाओ, उसका खून चूसो और उसे उल्लू बनाओ ।
धन्य है वह सभ्यता, जो मालदारी और व्यक्तिगत सम्पत्ति का अंत कर रही है और जल्दी या देर से दुनिया उसका पदानुसरण अवश्य करेगी। वह सभ्यता अमुक देश की समाज रचना अथवा धर्म-मजहब से मेल नहीं खाती या उस वातावरण के अनुकूल नहीं है, ये तर्क नितांत असंगत हैं। ईसाई मजहब का पौध येरूसलम में उगा और सारी दुनिया उसके सौरभ से रच गयी, बौद्ध धर्म ने उत्तर भारत में जन्म लिया और आधी दुनिया ने उसे गुरू दक्षिणा दी। मानव समाज अखिल विश्व में एक ही है। छोटी-मोटी बातों में अन्तर हो सकता है, पर मूल स्वरूप की दृष्टि से मानवजाति में कोई भेद नहीं। जो शासन विधान और समाज व्यवस्था एक देश के लिए कल्याणकारी है, वह दूसरे देश के लिए भी हितकारी होगी। हाँ, महाजनी सभ्यता और उसके गुर्गे अपनी शक्ति भर उसका विरोध जरूर करेंगे, उसके बारे में भ्रान्तिपूर्ण प्रचार करेंगे, जनसाधरण को बहकायेंगे, उनकी आँखों में धूल झोंकेंगे, पर जो सत्य है, एक न एक दिन उसकी विजय होगी और अवश्य होगी । 


Thursday, 30 July 2020

शहादतनामा

शहीद उधमसिंह

 
यूं तो प्रत्येक शहादत पहाड़ से भी भारी होती है लेकिन कुछ शहीदों के नाम ध्रुव तारे की तरह चमकते हैं। भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, करतार सिंह सराबा, बिरसा मुण्डा इसी तरह के नाम हैं । इन्हीं शहीदों की कतार में एक और नाम है और वह नाम है -- उधमसिंह का, जिसने देशप्रेम की भावना की एक नई मिसाल कायम की। कुछ लोग वक्त के साथ-साथ देश की जनता पर हुए शोषण व अन्याय को भूल जाते हैं या शोषण व अन्याय करने वालों के प्रति उनकी नफरत कम हो जाती है, लेकिन उधमसिंह वो महान शहीद था जिसने पूरे 21 वर्ष तक साम्राज्यवादी लुटेरों के प्रति नफरत की आग को जलाए रखा और फिर जैसे ही मौका मिला, वो काम कर डाला कि ब्रिटिश साम्राज्य काँप कर रह गया।
उधमसिंह का जन्म 28 दिसम्बर, 1899 को पंजाब के संगरूर जिले में सुनाम नाम के कस्बे में हुआ था। उधमसिंह के पिता श्री टहल सिंह उप्पली गांव की रेलवे क्रॉसिंग पर गेट कीपर का काम करते थे। परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी न थी, बस किसी प्रकार गुजर बसर हो जाती थी। उधमसिंह जब दो वर्ष के थे, उनकी मां चल बसीं। 5 वर्ष की उम्र में पिता का साया भी सिर से उठ गया। आगे के कई वर्ष उधमसिंह ने अमृतसर के अनाथालय में बिताए, जहां उन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण की। जब वे 19 वर्ष के हुए तो उनके भाई साधू सिंह का भी देहान्त हो गया। इन सब घटनाओं के चलते उधमसिंह एक भावुक नौजवान बन गया था जो किसी का भी दुख बर्दाश्त नहीं कर पाता था।
13 अप्रैल, 1919 को हुए जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड ने उधमसिंह की जिन्दगी को एक नया मोड़ दे दिया। हजारों लोगों की मौत और हजारों घायल लोगों की कराहों ने उधमसिंह को बेचैन कर डाला। इस घटना में उधमसिंह भी घायल हुआ था, जब वह कर्फ्यू तोड़ कर रतन देवी नामक महिला के मृत पति का शव लेने के लिए निकला था।
इस हत्याकाण्ड से उनका दिल ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध असीम नफरत से भर उठा और उन्होंने मन ही मन इस हत्याकाण्ड के प्रमुख अभियुक्त पंजाब के लैफ्टीनैंट गवर्नर माइकल-ओ-डायर को मारने का फैसला कर लिया। इसके बाद वे अफ्रीका होते हुए अमरीका चले गये और वहां जाकर क्रान्तिकारी गतिविधियों में शामिल होने लगे।
भगतसिंह के बुलाने पर उधमसिंह अपने 25 सहयोगियों के साथ भारत वापिस आ गए ताकि क्रान्ति में अपना योगदान दे सकें। वे भगतसिंह को अपना दोस्त और गुरू मानते थे। अगर जलियांवाला बाग उधमसिंह की जिंदगी में एक निर्णायक मोड़ था जिसने उनके मन में बदला लेने की भावना को पैदा किया तो यह भगतसिंह था जिसने उन्हें क्रांतिकारी रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित किया था। लेकिन 1927 में उधमसिंह को हथियार रखने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें 4 वर्ष के कठोर कारावास की सजा हुई। उन पर 1917 की रूसी समाजवादी क्रान्ति का प्रभाव भी पड़ा जिसका अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि गिरफ्तारी के वक्त अन्य चीजों के साथ-साथ उनसे ‘रूसी गदर ज्ञान समाचार’ की प्रतियां भी प्राप्त हुईं थीं। जेल से उन्हें 1932 में रिहा किया गया। इस बीच भगतसिंह को फांसी हो चुकी थी। हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातान्त्रिक सेना के मुख्य कार्यकर्त्ता शहादत पा चुके थे। क्रान्तिकारी आन्दोलन को काफी नुकसान हो चुका था। अतः उधमसिंह ने इंग्लैंड जाने का मन बनाया ताकि वहां जाकर जलियांवाला बाग के हत्यारे को सबक सिखाया जा सके।
अगले ही वर्ष पुलिस की आँखों में धूल झोंक कर उधमसिंह जर्मनी जा पहुंचे और वहां से इंग्लैंड। लंदन पहुँच कर उधमसिंह ने इन्जीनियरिंग कोर्स में दाखिला ले लिया और धनी व प्रभावशाली लोगों से सम्पर्क बढ़ाने शुरू कर दिए ताकि माइकल-ओ-डायर तक पहुँचा जा सके। इसी बीच वे एक रिवाल्वर का इन्तजाम भी कर चुके थे। उन्हें अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए कई वर्षों तक इन्तजार करना पड़ा और इन वर्षों के दौरान उनके दिल में साम्राज्यवाद के विरुद्ध जल रही आग और बेकरारी का अन्दाजा लगाया जा सकता है। लेकिन इस बात का किसी दूसरे को पता लगने का मतलब था -- पूरी योजना का चौपट हो जाना। सुख-सुविधाओं और ऐश्वर्य के लालच उधमसिंह को अपने उद्देश्य से नहीं भटका सके । वे धैर्यपूर्वक सही वक्त का इन्तजार करने लगे।
आखिरकार जलियांवाला हत्याकाण्ड के 21 वर्ष बाद 13 मार्च, 1940 को सांय 4.30 बजे उन्हें यह मौका मिल ही गया। लंदन में वेस्टमिनिस्टर में किसी वेक्सटन हाल में एक पार्टी में माइकल-ओ-डायर शामिल हुआ। उसी पार्टी में उधमसिंह भी मौजूद थे। डायर को देखते ही उन्होंने अपने रिवाल्वर का चैम्बर खाली कर दिया। डायर वहीं पर ढेर हो गया। इस घटना में दो अन्य व्यक्तियों सहित लार्ड जैटलैंड, राज्य सचिव (भारत) भी घायल हो गया। उधमसिंह को घटना स्थल पर ही गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तार होने पर उन्होंने अपना नाम राम मोहम्मदसिंह ‘आजाद’ बताया जो उनकी हिन्दू-मुस्लिम और सिक्खों की एकता से ब्रिटिश साम्राज्यवाद के चंगुल से आजाद होने की तीव्र इच्छा को जाहिर करता है।
माइकल-ओ-डायर की हत्या के बाद उधमसिंह द्वारा कहे गए शब्दों से उनकी जिन्दगी पर करतार सिंह सराबा और भगतसिंह द्वारा छोटी सी उम्र में ही दी गई शहादत का प्रभाव स्पष्ट नजर आता है। ‘मैं परवाह नहीं करता। मैं मरने से नहीं घबराता। बूढ़े होने तक मौत का इन्तजार करने की क्या तुक है? कोई तुक नहीं है। आपको उस वक्त मरना चाहिए, जब आप नौजवान हों। यही ठीक है और मैं यही कर रहा हूँ।’
थोड़ा रुककर उधम सिंह ने पुनः कहा, ‘‘मैं अपने देश के लिए मर रहा हूँ।’’
13 मार्च, 1940 को दिए एक वक्तव्य में उधमसिंह ने कहा, ‘‘मैंने अपना विरोध प्रकट करने के लिए गोली चलाई। मैंने भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अधीन लोगों को भूखों मरते देखा है ।...... विरोध प्रकट करने का मुझे कोई अफसोस नहीं है। बल्कि ऐसा करना मेरा कर्त्तव्य था ।....... मुझे परवाह नहीं है कि मुझे क्या सजा दी जाती है --10 वर्ष, 20 वर्ष या 50 वर्ष कैद या फिर फांसी। मैंने अपना कर्त्तव्य निभा दिया है।’’ ब्रिक्सटन जेल से लिखे एक पत्र में उधमसिंह ने भगतसिंह का जिक्र करते हुए लिखा, ‘‘मुझे मौत से कभी डर नहीं लगा। शीघ्र ही फांसी के तख्ते से मेरी शादी होने वाली है। मुझे कोई अफसोस नहीं है क्योंकि मैं अपने देश का सिपाही हूँ। 10 वर्ष पहले मेरा दोस्त मुझे यहां छोड़ कर चला गया था। मुझे विश्वास है मृत्यु के बाद मैं उससे मिल सकूंगा, क्योंकि वह मेरा इन्तजार कर रहा होगा। (यह 23 तारीख थी) और मुझे उम्मीद है वे मुझे भी उसी तारीख को फांसी देंगे जिस तारीख को उन्होंने भगतसिंह को फांसी दी थी।’’
उध्म सिंह द्वारा डायर की हत्या के इस वीरतापूर्ण कारनामे से ब्रिटिशराज बुरी तरह काँप कर रह गया था और पूरी भारतीय जनता खुशी से झूम उठी थी, लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सर्वोच्च नेता महात्मा गांधी को ब्रिटिश अधिकारियों की चिन्ता ज्यादा हो रही थी । गांधी की प्रतिक्रिया थी, ‘‘मेरी तरह हर भारतीय को इस हत्या पर लज्जा अनुभव करनी चाहिए और उसे इस बात की खुशी होनी चाहिए कि अन्य तीन प्रतिष्ठित अंग्रेजों की जानें बच गईं।’’ (सम्पूर्ण गांधी वाङमय, खण्ड 71, पृष्ठ 391 से उद्धरत)
4 जून, 1940 को सैन्ट्रल क्रिमिनल कोर्ट में न्यायाधीश अटकिंसन की अदालत में मुकद्दमा शुरू हुआ। यह मुकद्दमा केवल दो दिन चला और उधमसिंह को फांसी की सजा सुना दी गई। 15 जुलाई, 1940 को उधमसिंह की फांसी की सजा वेफ विरुद्ध की गई अपील को खारिज कर दिया गया। 31 जुलाई, 1940 को लंदन की पैंटनविले जेल में देश के इस महान सपूत को फांसी दे दी गई।
सजा देने से पूर्व अटकिंसन ने उधमसिंह से पूछा कि क्या वह कुछ कहना चाहता है। इस पर उधमसिंह पहले से लिखे नोटस से पढ़ने लगे। जज ने बार-बार उधमसिंह को टोका और प्रैस को आदेश दिया कि वह इसे प्रकाशित नहीं करे। ब्रिटिश और भारत सरकार दोनों ने भरसक प्रयत्न किए कि इस मुकद्दमे को कम से कम प्रचार मिले। उधम सिंह के इन आखिरी शब्दों को लम्बे समय तक छुपाकर रखा गया परन्तु आखिरकार ब्रिटिश पब्लिक रिकार्डस ऑफिस से उधमसिंह के अन्तिम भाषण को सार्वजनिक करवा ही लिया गया, जोकि इस प्रकार है --

शहीद उधमसिंह के आखिरी शब्द


जज की ओर देखते हुए उधमसिंह चिल्लाया, ‘‘मैं कहता हूँ ब्रिटिश साम्राज्यवाद का नाश हो। आज भारत गुलाम है। इस तथाकथित सभ्यता की कई पीढ़ियां हमारे लिए वो प्रत्येक घिनौनी वस्तु और विकृति लाई हैं जिनसे मानवता परिचित है। आप अपना इतिहास पढ़िए। अगर आपके अन्दर थोड़ी सी भी मर्यादा है तो आपको शर्म से डूब मरना चाहिए। तथाकथित बुद्धिजीवी जो स्वयं को विश्व की सभ्यता के शासक कहते हैं, उनके क्रूर और रक्त पिपासु तरीके घटिया और दोगलेपन के सूचक......।"
जज अटकिंसन : मैं राजनीतिक भाषण सुनना नहीं चाहता। अगर इस मामले से सम्बन्धित कुछ बात है तो कहो ।
उधमसिंह : मुझे यह कहना है । मैं विरोध प्रकट करना चाहता हूँ । (उधमसिंह ने कागज का टुकड़ा हवा में फहराया, जिसमें से वे पढ़ रहे थे।)
जज : क्या यह अंग्रेजी में है ?
उधमसिंह : मैं इसे पढ़ रहा हूँ, आप इसे समझ सकते हैं।
जज : अगर तुम इसे मुझे पढ़ने को दो तो मैं ज्यादा अच्छे तरीके से समझ लूंगा ।
उधमसिंह : मैं चाहता हूँ कि ज्यूरी और अन्य लोग भी इसे सुन लें। (सरकारी वकील श्री जी. बी. मैक्कलोयर ने जज को याद दिलाया कि आपातकालीन शक्तियां अधिनियम की धारा 6 के तहत वे उधम सिंह को आदेश दे सकते हैं कि उस का भाषण नोट नहीं किया जाएगा या उसे बन्द कमरे में सुना जा सकता है।)
जज : तुम जो कहोगे उसे प्रकाशित नहीं किया जाएगा। तुम्हें उपयुक्त बात ही कहनी होगी। अब बोलो । तुम्हें केवल इतना कहना है कि कानून के मुताबिक तुम्हें सजा क्यों न दी जाए?
उधमसिंह : (चिल्लाते हुए) मैं मौत की सजा की परवाह नहीं करता। इसका कोई महत्त्व नहीं है। मैं मरने से नहीं घबराता। मुझे इसकी कोई चिन्ता नहीं है । मैं एक मकसद के लिए मर रहा हूँ। (कटघरे पर मुक्का मारते हुए) हम ब्रिटिश साम्राज्य में पिस रहे हैं। मैं मरने से नहीं डरता। मुझे इस मौत पर गर्व है, मुझे पूरी उम्मीद है कि मेरे जाने के बाद अपनी मातृभूमि को आजाद करवाने के लिए मेरे हजारों देशवासी आएंगे ताकि ब्रिटिश कुत्तों को बाहर निकाला जा सके और देश को आजाद करवाया जा सके।
मैं ब्रिटिश ज्यूरी के सामने खड़ा हूँ। मैं अंग्रेजों की अदालत में हूँ। आप लोग भारत जाते हैं और जब वापिस आते हैं तो इनाम मिलते हैं और हाउस ऑफ कॉमन्स में जगह मिलती है। हम इंग्लैंड आते हैं और हमें मौत की सजा सुनाई जाती है। एक समय आएगा जब भारत को ब्रिटिश कुत्तों से मुक्त करा दिया जाएगा। तुम्हारा ब्रिटिश साम्राज्यवाद धवस्त हो जाएगा।
जहां-जहां भी तुम्हारा तथाकथित जनवाद और ईसाइयत का झण्डा फहराता है, वहां-वहां भारत की गलियों में मशीनगनें हजारों बेकसूर औरतों और बच्चों को भून डालती हैं।
मैं ब्रिटिश सरकार की बात कर रहा हूँ। मुझे ब्रिटिश लोगों से कोई शिकायत नहीं है। यहाँ इंग्लैंड में मेरे ब्रिटिश मित्रों की संख्या मेरे भारत के दोस्तों से कहीं ज्यादा है। मुझे इंग्लैंड के मजदूरों से पूरी सहानुभूति है। मैं साम्राज्यवादी सरकार के खिलाफ हूँ।
आप लोगों के कारण मजदूरों को दुख झेलने पड़ते हैं। इन पागल जानवरों, घटिया कुत्तों के कारण प्रत्येक व्यक्ति दुखी है। भारत गुलाम है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद लोगों को मार रहा है, तबाह कर रहा है। लोगों को यह सब अखबारों में पढ़ने तक को नहीं मिलता। हम जानते हैं भारत में क्या हो रहा है?
जज : मैं और कुछ नहीं सुनना चाहता।
उधमसिंह : तुम और कुछ नहीं सुनना चाहते क्योंकि तुम मेरी बात सुनकर घबरा गए हो। अभी मुझे बहुत कुछ कहना है।
जज : मैं इस बयान को और नहीं सुनूंगा।
उधमसिंह : आपने मुझसे पूछा कि मैं क्या कहना चाहता हूँ। मैं अब कह रहा हूँ। क्योंकि आप लोग घटिया हैं। तुम वह सब सुनना नहीं चाहते जो तुम भारत में कर रहे हो।
अपना चश्मा जेब में डालते हुए उधम सिंह चिल्लाया, ‘‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद का नाश हो। ब्रिटिश कुत्तों का नाश हो।’’ कटघरे से मुड़ते हुए उसने जज की मेज की ओर थूका।
जब उधमसिंह चला गया तो जज प्रैस की ओर मुड़ा और कहा, ‘‘मैं प्रैस को निर्देश देता हूँ कि कटघरे में अपराधी द्वारा दिए गए बयान को जारी न किया जाए।’’

Wednesday, 29 July 2020

राजनीति



इस देश से जब तक जाति-प्रथा खत्म नहीं होती, 
तब तक क्रान्ति असम्भव है
और जब तक क्रान्ति नहीं होती, 
तब तक जाति-प्रथा का उन्मूलन असम्भव है........

                        -डाॅ० आनंद तेलतुंबड़े

(प्रस्तुत लेख डाॅ. आनंद तेलतुंबड़े द्वारा 17 सितंबर, 2017 को नरवाना में 100 अंकों का सफर पूरा करने पर 'अभियान पत्रिका’ द्वारा आयोजित अभियान गोष्ठी में जाति-प्रथा का उन्मूलन विषय पर दिए गए भाषण के संपादित अंश हैं। - संंपादक मंडल)


2014 से, जब से हिंदुत्व ताकतें पाॅवर में आयी हैं, उन्होंने फासीवाद का प्रोटोटाईप दिया है। आज के विषय को इसी संदर्भ में समझना होगा। जब भी जाति का जिक्र आता है, एकेडेमिक लोग तो एकेडेमिक लाईन लेते हैं तथा बाकी बातें वे दलितों पर छोड़ देते हैं कि तुम सोचो, तुम्हारा सवाल है! लेकिन यह सवाल सिर्फ उनका नहीं है। यह इस देश की क्रांति का सवाल है। जब तक जातिप्रथा खत्म नहीं होगी, तब तक क्रांति नामुमकिन है। इसलिए यह सबका प्रश्न है।
कुछ सवालों का हल ढूंढ़ने के लिए उनकी जड़ में जाने की जरूरत होती है लेकिन जातिप्रथा की जड़ में जाने की जरूरत नहीं है। क्योंकि जातिप्रथा जन्मी जैसे भी हो, असल में यह विकसित हुई है। इसका इवोल्यूशन हुआ है। इस इवोल्यूशन का इसके जड़मूल से कोई संबंध नहीं है। भौतिकवादी दृष्टि से देखें तो जाति की जड़ें देश की प्राकृतिक सम्पन्नता में गड़ी हुई हैं। जो नोमेडिक ट्राईब्स (घुमक्कड़ जनजातियां) थी सारी दुनिया में, वे जब खेती के लिए बसने लगीं, तो उन्हें एक ढाँचागत बदलाव से गुजरना पड़ा। पर भारत में खूब सारी जमीन थी, इतना सूर्यप्रकाश था, खूब पानी था। खेती के लिए एकदम अनुकूल वातावरण था। अतः उन्हें यहां वैसे ढाँचागत बदलावों से गुजरने की जरूरत नहीं पड़ी। भारत में नोमेडिक ट्राईब्स जैसी थीं, वैसी ही, वहीं की वहीं खेती के लिए बस गई। उनमें ऊँच-नीच थी। लेकिन ऊँच-नीच का सैंस नहीं था। वह एक प्रकार की ट्राइब्ल आईडेंटिटी थी, जैसी दक्षिण अफ्रीका में देखने को मिलती है।
फिर बाहरी लोग यहां आए। उनके पास अपना वर्णव्यवस्था का विकसित ढाँचा था; जिसमें पहले तीन वर्ण थे, फिर चार, फिर पाँच आदि-आदि। उन वर्णों में ऊँच-नीच का सैंस था। पदसोपान का सैंस था। उन्होंने यहां प्रचलित जाति-व्यवस्था पर उसे लादा। धीरे-धीरे जातियां बनती चली गईं। बाद में यहां बहुत विरोध हुआ। एक किस्म का विचारधरात्मक विरोध हुआ। ब्राह्मणवाद के विरोध में जो था, वह श्रमणवाद था। श्रमणों ने विरोध तो किया पर आगे चलकर उन्होंने इसे आत्मसात कर लिया। इतिहास में सिर्फ दो ही श्रमण बचे रहे। जैन और बौद्ध धर्म। उसमें भी बदलाव आते रहे। बौद्ध धर्म ने जातिप्रथा का बहुत विरोध किया। लेकिन यह केवल विचारधरात्मक स्तर पर ही रहा। जाति की सामाजिक प्रथा ने समाज को जकड़ लिया था। जातियां एक जीवंत सच्चाई बन गई थीं।
इसका अर्थ यह है कि जातियां सिर्फ सामाजिक नहीं थीं, जातियां सिर्फ धर्मिक नहीं थीं, जातियां सिर्फ आर्थिक नहीं थीं, वे मात्र राजनीतिक नहीं थीं; जातियां सबकुछ थीं। लोग जातियों को जीने लगे थे। निचली जातियों ने भी मान लिया कि वे निम्न हैं। यही कारण है कि जातियां यहां तीन हजार वर्ष तक टिकी रहीं। आपको किसी भी देश में ऐसी सामाजिक पद्धति नहीं मिलेगी। यह दुनिया की सामाजिक व्यवस्थाओं में सबसे पुरानी मानव-निर्मित व्यवस्था है। जातिप्रथा में काफी सालों तक कोई बदलाव नहीं आया। लोग इसी में जीते रहे।
जब तक यहां 12वीं-13वीं सदी में, मुस्लिम आकर नहीं बसने लगे, जब तक उन्होंने एक वैकल्पिक सामाजिक सभ्यता का निर्माण नहीं कर लिया; तब तक जातिप्रथा का कोई भी काउंटर पोल नहीं था। उन्होंने भी ज्यादा नहीं किया, क्योंकि उन्हें भी राज करना था। उन्होंने उच्च जातियों से मेलमिलाप किया। उसके तहत थोड़े-बहुत काॅस्मेटिक बदलाव आए। एक डेमोग्राफिक बदलाव आया। निचली जातियों कोे एक वैकल्पिक सभ्यता का नमूना देखने को मिला। इस कारण बहुत सारी जातियां मुसलमान बनीं। विवेकानंद कहते हैं कि हिंदुओं का 20% इस्लाम में चला गया, जो कि तलवार के बल पर नहीं था। संघ कहता है कि मुसलमानों ने तलवार के दम पर धर्मांतरण किया। यह झूठ है। लोगों को इस्लाम में समता का दर्शन मिला। एक ऐसी सभ्यता, एक ऐसा भगवान मिला जो इस भगवान से निराला था। इसलिए उन्होंने इस्लाम ग्रहण किया।
भारत में औपनिवेशिक शासन के तहत बहुत बदलाव आए। पूंजीवाद आया, पश्चिमी सभ्यता और मूल्य आए। जब अंग्रेज यहां बसने लगे तो पश्चिमी जीवनशैली का माॅडल आया। पूंजीवाद का विकास होने से आधरभूत ढाँचा आने लगा। हालांकि ऐसा कुछ सोच समझकर नहीं किया गया था, पर दलितों को इससे काफी अवसर मिले। यहां तक कि दलित आंदोलन का जन्म भी औपनिवेशिक काल में ही हुआ। दलित चेतना, दलित संघर्ष, ये सब उसी काल में देखने को मिला।
जो बदलाव 1947 के बाद में आये, ऐसे बदलाव पिछली कई सदियों में भी नहीं आए थे। पर ये कोई सकारात्मक बदलाव नहीं थे। लोगों को बड़ी गलतफहमियां हैं क्योंकि हमारे विद्वानों ने इन्हें ठीक से परखा नहीं। जब संविधन सभा का सत्र चल रहा था तब गांधीजी की जय-जयकार के बीच छुआछूत का उन्मूलन किया गया। कानून बनाया गया कि आज से देश में छुआछूत नहीं होगी। लेकिन जाति को गैरकानूनी नहीं बनाया गया। लोग मानते हैं कि जातियां संविधन से निकाल दी गईं या स्वतंत्र भारत में जातियां नहीं हैं। यह गलतफहमी है। जातियों का उन्मूलन क्यों नहीं किया गया? यह कहकर कि हम निचले लोगों को सामाजिक न्याय देना चाहते हैं! कौन सा ‘सामाजिक-न्याय’ देना चाहते हैं? आरक्षण देना चाहते हैं, जोकि पहले से ही था। बहुतों को मालूम नहीं कि आरक्षण शाहू महाराज ने 1902 में लागू किया था। ब्रिटिश भारत में आरक्षण 1946 में लागू किया गया। इसके लिए बाबासाहब लड़े थे। गोलमेज सम्मेलन में उन्होंने दलितों के लिए पृथक निर्वाचक मंडलों की मांग की और जीत गए। गांधीजी ने विरोध में अनशन किया और दबाव बनाकर अंबेडकर के हस्ताक्षर ‘पूना पैक्ट’ पर करवा लिए। बाबासाहब को उस समय ध्यान नहीं आया कि क्या गलती हो रही थी। उन्होंने कहा कि मैं बहुत खुश हूं, अगर गांधी का रवैया ऐसा ही होता तो मुझे गोलमेज सम्मेलन में झगड़ा करने की जरूरत ही नहीं थी। पर बाद में उन्हें गलती का अहसास हुआ। पहली बार यह कहा गया कि राज्य दलितों के उत्थान के लिए प्रयत्न करेगा। बाबासाहब की लड़ाई राजनीतिक आरक्षण हासिल करने की लड़ाई थी। लेकिन शैक्षणिक संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में जो आरक्षण पाया जाता है, उसे पूना पैक्ट में इंगित किया गया। उसे ‘भारत सरकार कानून-1935’ में शामिल किया गया। वह उसकी जड़ है। तब आरक्षण लागू नहीं किया गया क्योंकि उस समय दलितों में पढ़ेलिखे लोग नहीं थे। सोचा गया कि अगर कोई दलित पढ़ालिखा मिलता है, और कोई नौकरी है तो उसे तुरंत भर्ती कर लिया जाएगा। इस तरह यह प्रीफ्रेंसियल पाॅलिसी अपनाई गई। अंबेडकर ने 1943 में वायसराॅय को नोट लिखा, "यह जो प्रीफ्रेंसियल पाॅलिसी है, मुझे नहीं लगता कि यह काम कर रही है। इसके बदले दलितों की संख्या के अनुपात में उनका हिस्सा कोटे के रूप में दिया जाए।" वायसराॅय ने अनुमोदन कर दिया। वह नोट आज की कोटा-व्यवस्था का जनक है। 1943 में ही आरक्षण की व्यवस्था पूरे देश में आ चुकी थी।
1947 में जब सत्ता-हस्तातंरण हुआ और 1950 में संविधन लागू किया गया, उससे कई वर्ष पहले ही आरक्षण मौजूद था। ये कौन-सा नया आरक्षण देने वाले थे? अगर इनकी नीयत साफ होती तो छुआछूत के साथ-साथ जातिप्रथा का उन्मूलन भी उसी दिन कर दिया होता। परिस्थितियां ऐसी थीं। क्योंकि 1936 में जिन्हें आरक्षण मिलना था उनको एक प्रशासनिक श्रेणी में सम्मिलित किया गया था। उसका नाम था- अनुसूचित जाति। इस श्रेणी का हिंदू धर्म की जातियों से कोई संबंध नहीं था। जातियों को उसी समय जड़ से उखाड़कर फेंका जा सकता था। लेकिन उनका यह इरादा ही नहीं था क्योंकि उन्हें जाति और धर्म को किसी भी कीमत पर जिंदा रखना था! क्योंकि धर्म और जाति, ये दो ऐसे हथियार हैं जो जनता की एकता को खंड-खंड कर सकते हैं। इसलिए उन्होंने जातियों को मरने नहीं दिया।
बाद में जनजातियों के लिए एक अनुसूची बनाई गई- अनुसूचित जनजाति। यहां एक समस्या थी कि उनके लिए कोई तय मापदंड नहीं था, जैसे कि अनुसूचित जाति के लिए तय था कि जो लोग अछूत हैं वही आएंगे। कोई अपने आप नहीं बोलता कि मैं अछूत हूं। यह एक निश्चित मापदंड था। लेकिन जनजाति के लिए कोई परिभाषा नहीं थी। जो जनजातियां जंगलों में बसी थीं, वो तो ठीक है, लेकिन जनजातियां शहरों और मैदानी भूभागों में भी बसने लगी थीं। अब कोई भी दावा कर सकता था कि वो भी जनजाति है। अगर इस आरक्षण का उन तक भी विस्तार करना था तो पहले से अस्तित्व में आ चुकी सूची में ही उन्हें भी शामिल कर लिया जाता। पर वह नहीं किया, क्योंकि जनजातियां अछूत नहीं थीं। उनमें जातियां नहीं थीं। अगर सबको एक ही अनुसूची में शामिल कर लेते तो उस अनुसूची का कलंक कम से कम कुछ धुंधला तो होता। पर ऐसा नहीं हुआ। जाति की जगह जनजाति लिखकर अलग अनुसूची बनाई गई।
आगे चलकर एक और प्रावधन संविधान में रखा कि देश में जो वर्ग शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़े हैं, उन्हें राज्य दीया लेकर ढूंढ़ेगा और उनके लिए भीे प्रावधन करेगा। ये थे अन्य पिछड़े वर्ग। आरक्षण पिछड़ेपन के लिए नहीं था, लोगों में यह बड़ी गलतफहमी है। औपनिवेशिक शासन में आरक्षण अपवादस्वरूप सामाजिक श्रेणियों के लिए अपनाई गई, एक अपवादस्वरूप नीति थी। अंग्रेजों को हम गाली देते नहीं थकते कि वे ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के जनक हैं। मेरे हिसाब से यह नीति उन्होंने यहां के ब्राह्मणों से सीखी है। वे खुद इस नीति को यहां नहीं लाये थे। पहली बार, संविधान में जो आरक्षण साफ-साफ, सैद्धांतिक एवं विशुद्ध रूप से लागू किया गया था, उसे पिछड़ेपन से जोड़ा गया।
आज देखते हैं कि ऐसी कोई जाति ही नहीं है जो आरक्षण न मांगती हो, क्योंकि भारत एक पिछड़ा देश है। आज 70 वर्ष बाद भी भारत दुनिया के देशों में निचले पायदानों पर आता है। बहुत से छोटे-छोटे देश हैं, लेकिन बड़े देशों में भारत अकेला देश है, जो निचले पायदान पर है। इस तरह के देश में पिछड़ेपन को आधर बनाकर आरक्षण की नीति बनाना कितनी बड़ी चालबाजी थी! यह बात आज तक कोई नहीं बोला। इस तरह उन्होंने जाति को जिंदा रखा।
जाति इस देश की प्रगति के लिए अड़चन है, ऐसा कहने वाला प्रथम आदमी कौन था? भगतसिंह, गांधी, पेरीयार, अंबेडकर या ज्योतिबा फूले? नहीं। वह था- कार्ल मार्क्स। मार्क्स ने 1852 में लिखा कि भारत में रेलवे के कारण उद्योग आएगा। उद्योग की बदौलत जातिप्रथा ढीली होकर धीरे-धीरे नष्ट हो जाएगी। लोग कहते हैं कि मार्क्स भारत के बारे में नहीं जानते थे या भारत तथा जातिप्रथा के बारे में उनका ज्ञान सतही था। और लोगों का तो ठीक है, पर जब कम्युनिस्ट भी यही कहते हैं और वह भी क्षमायाचना भरे अंदाज में कि क्या करें मार्क्स को भारत के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी, तो हैरानी होती है। मैं कहता हूं कि मार्क्स एकदम सही थे। जब यहां पूंजीवाद आया और जिन जातियों का पूंजीवाद के साथ संबंध बना, उनके जातिवादी संस्कार ढीले हो गये। वे वैश्य जातियां थीं। पूंजीवाद पहले शहरों में आया था। यहां जिन जातियों का सामना पूंजीवाद से हुआ, उनके जातीय बंधन करीब-करीब नष्ट हो गये। कारण है जब ऐसे सामाजिक संबंध बनते हैं उसमें ट्रांजेक्शन काॅस्ट बहुत कम हो जाती है। आप जानते होंगे कि मारवाड़ी लोगों का अपना एकाउंटिंग सिस्टम था। उनकी अपनी विकसित की हुई व्यवस्था थी। क्योंकि सबकुछ विश्वास पर आधरित था कि किसने-कितना रुपया लिया है या कितना-किसको बेचा, उसकी एक ही एंट्री होती थी। दोहरी एंट्री वाली आधुनिक लेखा-व्यवस्था उनके पास नहीं थी। भारत के पूंजीवाद में मारवाड़ी, गुजराती तथा पारसी समुदायों का बड़ा हाथ रहा है। इन सामाजिक संबंधों के कारण उनकी जातियां जाती रहीं। हर वर्ण में जातियां थी, यहां तक कि द्विज जातियों में भी जातियां थी। स्वतंत्रता के बाद ऐसी कुछ पाॅलिसी आई, जिसकी बाद में व्याख्या करूंगा। यह शूद्र जातियों का मध्यक्रम था, जिससे एक वर्ग निर्मित किया गया। ये जातियां भी पूंजीवाद के साथ रूबरू हुईं। इन जातियों का बैंडावेगन उपरोक्त जातियों के साथ जुड़ गया। आज आपको देखने को मिलेगा कि ये जो शूद्र जातियां हैं, उनमें से भी द्विज जातियों में शादी संबंध बनते हैं। अमीर लोगों में सबकुछ बराबर चलता है।
यह एक प्रक्रिया थी जिसमें जातिवाद पर पूंजीवादी आधुनिकता के प्रहार हो रहे थे। जातिवाद के समाप्त होने की संभावना पैदा हो रही थी। सदियों पुरानी बीमारी इतनी आसानी से नहीं जाती! ऊपर से संविधन में जातियों को जिंदा रख लिया गया। हिंदू जातियों का आधुनिकतम संवैधनिक धरातल पर पुनर्रोपण किया गया। हिंदू धर्म की परंपरागत पुरानी जातियां तो समाप्त हो सकती थीं लेकिन आधुनिकता के आधर पर जिनका पुनर्रोपण किया गया हो, उन्हें कैसे उखाड़ेंगे? जिस आधुनिकता में हम आज जी रहे हैं, उसमें इन जातियों की जड़ है। आज की जातियां मनुस्मृति से नहीं, आधुनिक संविधन से आती हैं।
जब 1915 में गांधी दक्षिण-अफ्रीका से वापस आये उन्होंने जान लिया कि इस देश में जब तक जनांदोलन नहीं बनेगा तब तक कोई भी आंदोलन सफल नहीं हो सकता। उन्होंने पूरे देश का भ्रमण किया, जानकारी हासिल की। कांग्रेस पहले शिक्षित जमींदारों का क्लब था। गांधी ने उसे एक व्यापक जनांदोलन का रूप दिया। कांग्रेस को ऐसे चरित्र में पेश किया कि वह जनता का प्रतिनिध्त्वि करने वाला कोई संगठन है। यह गलतपफहमी लोगों में आज भी कायम है कि कांग्रेस देश की जनता का प्रतिनिधित्व कर रही थी, जबकि कांग्रेस नए उभरते पूंजीपति वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रही थी। एकदम शुरू से ही उसे मालूम था कि इस देश की प्रगति पूंजीवाद से ही होनी है और उसका समर्थन करना है। जब सत्ता का हस्तातंरण हुआ, तो उन्होंने इसी दिशा में अपनी सारी हरकतें शुरू कीं। लोगों के नाम पर संविधन को अपनाया गया। ‘हम, भारत के लोग... वगैरह-वगैरह!’ हर नीति जनता के नाम पर बेची गई। लेकिन अंदरूनी रूप से सारी नीतियां पूंजीवाद को लाभ पंहुचाने वाली थीं। उदाहरण के तौर पर जब संविधन-सभा का स्तर चल रहा था, नेहरू ने ऐलान किया कि हमने बाॅम्बे-प्लान को स्वीकार नहीं किया है। 1942 में 8 बड़े पूंजीपतियों ने मिलकर यह प्लान बनाया था कि यदि भारत स्वतंत्र हुआ तो 15 वर्ष के लिए ऐसी योजना होनी चाहिए कि देश का जीडीपी 3 गुणा तथा प्रति व्यक्ति आय दोगुणा बढ़ जाए। कैसी ‘खूबसूरत’ योजना थी! जब प्लान नेहरू के सामने पेश किया गया तो उन्होंने सार्वजनिक ऐलान किया कि प्लान स्वीकार नहीं किया है। जब पहली पंचवर्षीय योजना की घोषणा हुई, उन दिनों पंचवर्षीय योजना सोवियत व्यवस्था में हुआ करती थी, तब दुनिया को लगा कि भारत सोवियत मार्ग पर जाएगा। इसने सभी को आश्चर्य में डाल दिया। पर पहली पंचवर्षीय योजना की पड़ताल करें तो पता चलेगा कि उसके और बाॅम्बे प्लान के आंकड़े एक समान थे। उन्होंने हूबहू बाॅम्बे प्लान को ही लागू किया, लेकिन सार्वजनिक रूप से कहते रहे कि उसे स्वीकार नहीं किया गया। सरकार ने पहली पंचवर्षीय योजना में बाॅम्बे प्लान के आंकड़े स्वीकृत किए। ऐसा ही दूसरी-तीसरी पंचवर्षीय योजना के आंकड़ों के बारे में भी कहा जा सकता है। इस तरह धेखा चलता रहा।
फिर भूमि सुधर लाये गए। जनता में जमीन की भूख थी। उसने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था। उसे लगा कि स्वतंत्रता के बाद जमीन मिलेगी। इसलिए भूमिसुधर कार्यक्रम बनाया गया। जमीन को राज्यों का विषय बना दिया। इनकी नीयत यदि साफ होती तो भूमि को केंद्रीय विषय बनाते। एक केंद्रीय कानून बनाने के बाद, उसे राज्यों द्वारा लागू किया जाता। भू-हदबंदी आदि नाम देकर कई वर्षों तक अलग-2 राज्यों में भू-सुधारों के लिए बहुत से कानून बनाये गए। आज तक पता नहीं चला है कि किस किस्म का भूमिसुधार इस देश में हुआ? आज 9.5% लोगों के पास 56.4% कृषि भूमि है। 41% लोग भूमिहीन हैं। ऐसी विषमता शायद ही किसी देश में मिले।
भूमिसुधार इसलिए किए क्योंकि कांग्रेस में इतना आत्मविश्वास ही नहीं था कि ग्रामीण भारत पर शासन कर सके? उसे ग्रामीण क्षेत्रों में अपने एजेंट पैदा करने थे। धनी किसानों का एक वर्ग तैयार किया गया। किसी के ध्यान में ये बात नहीं आई कि जो जातियां पहले से जमीन पर काबिज थीं, उन्हें ही जमीन मिली, दलितों को नहीं। दलित वास्तव में जमीन से जुड़े थे, भूमि उन्हें मिलनी चाहिए थी। थोड़ी-बहुत जमीन के अलावा उन्हें कुछ नहीं मिला। क्योंकि रिकाॅर्ड आदि में उनके नाम ही नहीं थे। भू-लेखों पर काश्तकारों के नाम थे, ये मध्यम जातियां थी। उन जातियों को जमीनें मिलीं। ये जमींदार बन गए। हमारे क्षेत्रों में जो ब्राह्मण जमींदार होते थे, वे शहरों में बस गए। मध्यम जातियों के हाथ में ब्राह्मणवाद का डंडा आ गया। दलितों में यह प्रचलित है और वे इसे एक गाने की तरह रटते रहते हैं कि ब्राह्मणों ने ये किया, वो किया आदि। लेकिन अब वह डंडा इन मध्यम जातियों के हाथ में है, यह समझ में नहीं आता।
बाद में हरित क्रांति आई। पूंजीवादी रणनीति के तहत कृषि-उत्पादन बढ़ाना था। कहा गया कि भारत में भूख है? उसे मिटाने के लिए इसकी जरूरत है। इससे जिस वर्ग का निर्माण हुआ, उसे समृद्ध किया गया। एक गणना के अनुसार 50-60 के दशकों में इस वर्ग की आय में 25 से 55 गुणा तक वृद्धि हुई। यह एक पूंजीवादी रणनीति थी। इससे गांवों में इनपुट मार्केट बढ़ा। उच्च उत्पादकता वाले बीज लाने थे। बीज का बाजार खड़ा हुआ। कृषि उत्पाद बेचने हेतु मंडियां बनीं। कृषि का मशीनीकरण हुआ। कीट व खरपतवारनाशक आदि का बाजार खड़ा हुआ। क्रेडिट मार्केट बना, क्योंकि पैसा भी चाहिए था। बाजार ग्रामीण भारत में आ जुटा। कृषि में एक किस्म के पूंजीवादी संबंध पैदा हो गये।
जब कपड़ा उद्योग बाॅम्बे में आया, तब अंबेडकर ने कम्युनिस्टों से कहा कि यहां दलित मजदूरों के लिए अलग पानी के मटके रखे हैं व विभिन्न सेक्सनों में दलितों का प्रवेश वर्जित है। पर कम्युनिस्ट इस विषय को तव्वजो नहीं देते थे। यह दूसरी बात है कि कम्युनिस्टों ने ऐसा क्यों नहीं किया। आज जिस तरह से कम्युनिस्ट वोटों के पीछे पड़े रहते हैं, तब उनका यह कन्सर्न था कि यदि हमने जाति का सवाल उठाया तो मजदूरों में फूट पड़ जाएगी। वैसे भी वे जाति के सवाल को बाह्य ढांचे के सवाल के रूप में देखते थे। इन सारे बदलावों, भूमिसुधार और हरित क्रांति आदि का दलितों पर क्या असर हुआ? हम जातिप्रथा को कितनी भी गालियां दे सकते हैं। पर यह एक परस्पर निर्भरता की व्यवस्था थी। गांव में जो दलित रहते थे, सभी ने मान लिया था कि जाति सामाजिक जीवन का भाग है, इसी में जीना है। गांव में हरेक को अपनी जाति के अनुसार काम करना है। गांव में चाहे दलितों को दूर से फेंककर ही दिया जाता था, लेकिन उन्हें मरने के लिए नहीं छोड़ दिया जाता था। लेकिन पूंजीवादी संबंध आने की वजह से जजमानी-व्यवस्था जैसी परंपरागत प्रथाएं नष्ट हो गईं। दलित ग्रामीण सर्वहारा बन गए। वे खेतों में काम करने पर मिलने वाली मजदूरी पर निर्भर हो गए। किन पर? जो धनी किसानों का नया वर्ग बना, उस पर। एक तरफ ग्रामीण सर्वहारा के रूप में दलित, दूसरी तरफ पूंजीवादी किसान के रूप में धनी किसान। वर्ग अंतर्विरोध, अपनी जानी-पहचानी जातिवादी लाईन पर जातीय उत्पीड़न के रूप में अभिव्यक्त होने लगा।
अपनी किस्म की पहली एवं  शास्त्राीय घटना तमिलनाडू के किल्वनवेरी में घटित हुई। वहां दिसंबर 1968 में 44 लोगों को जिंदा जलाया गया, जिनमें ज्यादातर दलित महिलाएं और उनके बच्चे थे। इस घटना ने जातीय-उत्पीड़न के नए अवतार का अनावरण कर दिया। दलितों में बहुत ज्यादा और आमतौर पर सभी लोगों में यह गलतफहमी है कि ऐसे अत्याचार 3000 सालों से होते आए हैं। परन्तु नहीं! 1968 या 1950 से पहले ऐसे अत्याचार नहीं हुए। अगर तुम खुद ही मानते हो कि तुम नीच हो और उसका कोई विरोध भी नहीं है तो कौन आपको मारेगा। अगर एकाध आदमी विरोध करने वाला भी है, तो उसे एकाध झापड़ मार दिया, बस! परन्तु इस तरह के अत्याचार जो एक जाति विशेष पर होते हैं और बड़े ही क्रूर होते हैं, इतिहास में नहीं थे। ये भारत की स्वतंत्रता के बाद की चालबाजियों की पैदाइश है। और यह बात हमें पता ही नहीं है।
अभी हम नवउदारवाद के दौर में जी रहे हैं। जब भारत का संविधान बना, एक रणनीति के तहत डाॅ. अंबेडकर को संविधान सभा में लाया गया। यह गांधी की रणनीति थी कि अंबेडकर को संविधान सभा में लाया जाए और प्रारूप समिति जैसी महत्त्वपूर्ण समिति का अध्यक्ष बनाया जाए। गांधी जानते थे कि समाज का निम्न तबका अगर इस संविधान को स्वीकार कर लेता है तो यह कभी नहीं मर सकता। क्योंकि वे जानते थे कि थोड़े दिनों बाद इसका असली चरित्र जनता के सामने आ जाएगा। जैसाकि अंबेडकर ने चेतावनी दी थी कि इस राजनीतिक लोकतंत्र के साथ-साथ यदि सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र नहीं आया, तो इसके भुगतभोगी इस ढांचे को तहस-नहस कर देंगे। ऐसा कुछ न हो, इसलिये अंबेडकर को इसका मुख्य शिल्पकार बनाया गया। जिन्हें यह गलतफहमी है कि संविधान बाबासाहब ने लिखा है, वे इसके शिल्पकार हैं, उन्हें ये समझना होगा कि यह एक रणनीतिक किलेबंदी थी। दलित इसके बावजूद नहीं मानते, जबकि 2 सितंबर, 1953 को डाॅ. अंबेडकर ने राज्य सभा में खुद कहा था, ‘मुझे इस्तेमाल किया गया। इन लोगों ने जो मुझसे लिखवाया, मुझे लिखना पड़ा। ये संविधान किसी के भी काम का नहीं है। अगर कोई कहे कि इसे जला दो! इसे आग के हवाले करने वाला मैं पहला आदमी हूंगा!’ ये डाॅ.अंबेडकर के शब्द हैं, जिसे दलित सुनना नहीं चाहते।
संविधान निर्माण की प्रक्रिया बताने वाले सारे तथ्य इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। पता चलेगा कि एक आदमी संविधान नहीं लिख सकता। जब संविधान सभा बनी, तब संविधान का ढांचा वास्तव में तैयार था। सभा में उसके मुख्य-मुख्य अनुच्छेदों पर चर्चा होनी थी। इसके लिए सदस्यों की एक उपसमिति बनाई गई। उपसमिति ने विषयों पर चर्चा की और निर्णय लिये। उसके ऊपर 14-15 एडवाइजरी कमेटियां थीं। हर कमेटी का अध्यक्ष कोई न कोई कांग्रेसी था, पटेल या नेहरू! उपसमिति के निर्णयों पर मुहर लगाने का अध्किार एडवाइजरी कमेटियों के पास था। वहीं अंतिम निर्णय संविधान सभा के खुले सदन में रखा जाता। उस पर चर्चा होने के बाद प्रारूप समिति का काम था, उसे ड्राफ्रट करना। यह कार्य बाबासाहब ने किया। उन्होंने अच्छी भाषा में संविधान लिखा। अंबेडकर ने इतना ही काम किया था, जिसके लिए उन्होंने-मुझे इस्तेमाल किया -कहकर ऐलान किया। यदि अंबेडकर ही संविधान लिखते तो संविधान सभा का क्या काम था? यह जानने की जरूरत है। इससे भी ज्यादा हमें यह देखना होगा कि इस संविधान ने किया क्या है? संविधन का तीनचौथाई भाग तो ‘भारत-सरकार कानून 1935’ से लिया गया है। दूसरे देशों के संविधानों में जो कुछ ‘अच्छा’ था, वो लिया गया है। ऐसे यह संविधान बना है। इसमें कुछ भी नया नहीं है। जो औपनिवेशिक शासन का सार था, वही संविधान में लाया गया है। औपनिवेशिक राज्य तो शोषण के लिए बना था। नया संविधान भी नये दौर में वैसे ही शोषण करने का हथियार बनने वाला था। अंबेडकर संविधन सभा में सिर्फ एक मकसद से गए थे कि उन्हें दलित हितों का संरक्षण करना था। उनका इतना ही सरोकार था। बाकी बातों से उन्हें ज्यादा वास्ता नहीं था। आजादी के बाद का जो शासकीय ढांचा है, वह औपनिवेशिक काल का ही है। वही आईपीएस, वही आईएएस, वही सबकुछ, कोई पद नहीं बदले! जो आईपीसी एक सामान्य नागरिक से राफ्ता रखता है, वह भी वही है! वही काले कानून हैं! वही देशद्रोह की धाराएं हैं! शोषकों के सभी प्रावधान संविधान में हूबहू रख लिये गये हैं! और हम उसे सिर-आँखों पर उठाते हैं!
मैंने जिक्र किया था कि जाति के साथ-साथ धर्म को भी उन्होंने मरने नहीं देना था। आज जिस संकट की मैं बात कर रहा हूं, वह भी इसी कारण है। यदि मैं कहता हूं कि यह देश एक धर्म-निरपेक्ष देश नहीं है, बहुत से लोगों को आश्चर्य हो सकता है। धर्म-निरपेक्ष शब्द संविधान में है ही नहीं। इस पर जो उपसमिति बनी थी, उसने निर्णय लिया कि भारत को एक धर्मनिरपेक्ष देश होना चाहिए। उसके ऊपर की एडवाइजरी कमेटी के अध्यक्ष नेहरू थे। नेहरू ने उन्हें फटकार लगाई कि जो लोग धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं, उन्हें मालूम ही नहीं है कि धर्मनिपरेक्षता का क्या अर्थ होता है। केंब्रिज से पढ़े नेहरू अच्छी तरह जानते थे कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ क्या होता है। ‘तुम धर्म को अपने घर तक रखो! उसे बाजार में मत लाओ! राजनीति में मत लाओ!’ धर्मनिरपेक्षता का यही अर्थ है, जिसकी वजह से उस समय इसे नकारा गया था। इसलिए धर्म-निरपेक्षता नाम का शब्द संविधान में कहीं नहीं है।
आपातकाल के बाद इंदिरागांधी ने यह शब्द संविधान की प्रस्तावना में घुसाया था। प्रस्तावना संविधान का अंग नहीं होती। वैसे तो प्रस्तावना का हर शब्द - भारत एक धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी, गणतंत्र, संप्रभु, लोकतांत्रिक और स्वतंत्र देश है, एक बड़ा चुटकुला है। 01% लोगों के पास देश की 58.4% दौलत है, फिर भी यह स्वतंत्र देश है और किसी को आपति नहीं है। यह कहकर कि धर्म के अंदर सुधार लाना है, धर्मिक मामलों में राज्य हस्तक्षेप करेगा। 70वर्षों में कौन-सा सुधार लाया गया है? केवल एक सुधार रिकाॅर्ड पर है। जब 1987 में राजस्थान में रूपकंवर को पति की चिता पर जलाया गया, तब एक सती विरोधी कानून इन लोगों ने पास किया था। सुधार के नाम पर सिर्फ यही कानून 70 सालों के रिकाॅर्ड पर है। और कुछ नहीं किया। बाकी सब राजनीति ही की। उसी राजनीति का नतीजा है कि वे लोग, जिनके लिए भारत में कोई जगह नहीं होनी चाहिए, वे आज एक फासीवादी संकट बनकर खड़े हैं।
मैंने कहा कि दलितों पर अत्याचारों का नया दौर 60 के दशक में, विशेष रूप से 1968 में शुरू हुआ था। तब बहुत से बदलाव आए थे। मैंने विशेष रूप से हरित क्रांति की बात की थी। इन नीतियों की बदौलत निचले स्तरों पर इन वर्गों को शक्तिशाली बनाया गया। इस वर्ग ने शुरू में कांग्रेस पार्टी का समर्थन किया, उसके एजेंट के रूप में काम करता रहा। फिर उसके अंदर महत्त्वाकांक्षाएं पनपने लगीं। राजनीति में इसकी अभिव्यक्ति क्षेत्रीय पार्टियों के रूप में हुई। उन्होंने नयी क्षेत्रीय पार्टियां बनाईं। कांग्रेस सबको संभाल कर नहीं रख पायी। चुनावी प्रतिस्पर्धा बढ़ गई। पहले वोट बैंक का इतना महत्त्व नहीं था क्योंकि सारी ही जनता कांग्रेस के साथ थी। दलित और पिछड़ी जातियां परंपरागत रूप से कांग्रेस के साथ थीं। प्रतियोगिता बढ़ने से वोट-बैंक का महत्त्व बढ़ गया। वोट-बैंक का महत्त्व बढ़ते-बढ़ते बाबासाहब का महत्त्व बढ़ गया। 1956 में बाबासाहब का देहांत हुआ। 1965 तक उनके नाम पर कोई सड़क, बुत या संस्थान इस देश में नहीं था। मैं ये सारी बातें दलितों की आँखें खोलने के लिए बोल रहा हूं। उसके बाद जब वोट-बैंक की राजनीति गहरी होने लगी तब उनके बुत-स्मारक बनने लगे।

नव-उदारवाद का दौर

क्या है ये नवउदारवाद? सभी दलित बुद्धिजीवियों व विद्वानों ने इसका समर्थन किया था। उनका कहना था कि ये बड़ी अच्छी नीतियां हैं। जो ज्यादा बड़े विद्वान थे, उन्होंने तो अंबेडकर को नवउदारवादी बना डाला। कहा कि वे अगर जिंदा होते तो वे भी भूमंडलीकरण का समर्थन करते। भूमंडलीकरण की नीतियों के मामले में बड़े-बड़े दलित चिंतक या तो चुप रहे या समर्थन किया। अकेला मैं था, जो 1990 से ही  लिख रहा था कि भूमंडलीकरण दलितों व सभी निम्न तबकों के विरोध में है। कैसे? एक अनुभव आधारित उदाहरण है। जातीय अत्याचार के आँकडे़ हैरान करने वाले हैं। ये जातिवाद का प्रतिबिंबन हैं। अत्याचारों के आंकड़े पुलिस इकट्ठे करती है। वहां से NCRB को जाते हैं जो इनका सार-संकलन करके रिपोर्ट तैयार करती है। कहते हैं कि जितने मामले पुलिस में दर्ज होते हैं, असल में उससे दस गुणा ज्यादा अत्याचार होते हैं, जो रिपोर्ट ही नहीं किए जाते। अगर इन आँकड़ों को ही सही मानकर चलें तो ये भी हमें बता सकते हैं कि नवउदारवाद के युग में, 1991 से आज तक, दलितों पर अत्याचारों में कितनी बढ़ोतरी दर्ज की गई है।
दूसरी बात, नवउदारवाद कहता है कि खुली प्रतियोगिता और खुले बाजार में जिसके पास ताकत है, वह स्पर्धा में जीतेगा और उसकी जीत जायज है। यह सामाजिक न्याय की अवधरणा को नकारता है। आप देखेंगे कि पहले IMF और विश्वबैंक आदि के साहित्य में ये सारी बातें खुलकर कही जाती थीं, बाद में उन्होंने महसूस किया कि ये बातें इस प्रकार खुलकर नहीं कह सकते। आजकल इन्हें पैचअप करके सामाजिक न्याय की बातें भी उसमें सहयोजित कर ली गई हैं। CSR (काॅरपोरेट सामाजिक जिम्मेवारी) का ‘नया’ सिद्धांत भी ले आए हैं। हम देखते हैं कि नवउदारवाद के युग में भारत अकेला देश नहीं है जहां मूल-तत्ववादी ताकतों को प्रोत्साहन मिला है। नवउदारवाद की छाया में और भी कई देशों में ये ताकतें पनपी हैं। भारत में भाजपा के उभार को यदि नवउदारवाद के संदर्भ में देखते हैं तो पता चलेगा कि 90 के दशक से इसका लगातार उभार होता गया है। और आज ये हमारे सामने संकट बनकर खड़े हैं।
आज दलितों की क्या हालत है। दलितों की हालत का जायजा इसलिए लेना होगा क्योंकि जाति व्यवस्था का सबसे ज्यादा दलित ही शिकार बनते हैं। जैसा कि मैंने कहा यदि जातिप्रथा को नष्ट करना है तो यह केवल दलितों की जिम्मेदारी नहीं है। यहां जो भी प्रगतिशील लोग हैं और जो ये समझते हैं कि इस देश की गंदगी को समाप्त करने के लिए क्रांति की जरूरत है, यह उन सबका कार्यभार है।
ये सब कौन हैं? ये सब हैं - दलितों के अलावा यहां का लेफ्ट। लेफ्ट की चर्चा संक्षिप्त में नहीं हो सकती। क्योंकि बाबा साहब के जमाने से भारत का लेफ्ट जाति के सवाल को बाहरी ढांचे का सवाल कहकर नजरअंदाज करता रहा है। बाॅम्बे के कम्युनिस्ट अंबेडकर का मजाक उड़ाते रहे कि इस बाहरी ढांचागत सवाल पर संघर्ष का निर्माण कैसे किया जा सकता है? ये फालतू की लड़ाई है। वे हंसते रहे और लेफ्ट व बाबा साहब के बीच दूरी बढ़ती गई। दलित आज वामपंथ के साथ नहीं हैं तो यह केवल बाबा साहब के ही कारण है, क्योंकि दलितों में जो अपनी दुकानदारी चलाने वाले हैं, वे अंबेडकर को इस तरह पेश करते रहे कि वे मार्क्सवाद विरोधी थे। आज भी यदि कोई दलितों में वर्ग की बात करता है तो उन्हें इसमें वामपंथ की गंध आने लगती है। वे ऐसी बात करने वालों को -हमारा नहीं है- बोलकर दूर फेंकते हैं। वे नहीं जानते कि अंबेडकर की खुद की लड़ाई एक वर्गसंघर्ष थी। उन्होंने कोलंबिया में एक छात्र के रूप में अपने पहले निबंध में जाति को एक वर्ग के रूप में ही परिभाषित किया था। इसमें कहा था कि जाति कुछ नहीं, Enclosed क्लास है। अगर वे मार्क्सवाद विरोधी होते तो अपना अतिंम भाषण -बुद्ध और कार्ल मार्क्स- पर न देते। मार्क्स से ऐसे तुलना करने की उनको क्या जरूरत थी? उन्होंने कहा कि बुद्ध और मार्क्स का अंतिम ध्येय एक ही है, सिर्फ मार्ग अलग हैं। मार्क्स हिंसा व तानाशाही में विश्वास रखता है, पर बुद्ध ऐसा नहीं करता। इसलिए बुद्धवाद, मार्क्सवाद से बेहतर है।
मार्क्सवाद पर उनकी समझ सही थी या गलत, ये दूसरी बात है; लेकिन उनके अंदर मार्क्सवाद के प्रति आकर्षण था, इसमें कतई शक नहीं है।
1953 में नेहरू केबिनेट से त्यागपत्र देने के बाद अंबेडकर ने एक रीमाॅर्सफुल जीवन गुजारा। वे पीछे मुड़कर देखते रहे कि मैंने जो कुछ किया, उसका क्या हुआ? उन्होंने दादासाहब गायकवाड़ को मराठी में दो वाक्यों का एक पत्र लिखा, "मुझे नहीं लगता कि मेरे तरीकों ने असल में काम किया है। यदि मेरी जनता को तुरंत राहत चाहिए तो वे कम्युनिस्ट बन जाएं।" मिलने वाले बताते हैं कि वे बुढ़ापे में फूट-फूटकर रोते थे। एक बार औरंगाबाद से एससीएफ के लोग उनसे मिलने दिल्ली आए। उनमें बीएस वाघमारे भी थे। उन्होंने देखा कि बाबासाहब रो रहे थे। उन्हें बड़ा दुख हुआ। फिर अंबेडकर ने खुद को संभालते हुए कहा कि उन्होंने जो कुछ भी किया, वह मुट्ठीभर शहरी दलितों के हितों के लिए हुआ है, मेरे दलित भाई जो गांवों में रहते हैं, उनके लिए मैं कुछ भी नहीं कर पाया। बाबा साहब ने उनसे पूछा कि क्या वे जमीन के सवाल पर कुछ कर सकते हैं? वाघमारे औरंगाबाद वापस गए और गायकवाड़ की मदद से एक भूमि-सत्याग्रह खड़ा किया। जमीन की मांग के लिए यह सत्याग्रह 1953 में हुआ था। इसमें 1700 लोग जेल गए थे। इसकी पुनरावृति दादासाहब गायकवाड़ ने रिपब्लिकन पार्टी का गठन करने के बाद 1959 में बड़े पैमाने पर की। अंतिम सत्याग्रह 1964-65 में हुआ। इसके बाद दलित नेताओं के सहयोजन की नीति की शुरू हुई। यह स्वतंत्र दलित राजनीति को ध्वंस करने की शुरुआत थी।
 युवावस्था में हम लिखते थे, ‘चुनाव का बहिष्कार करो! ये धेखा है!’ कल तक हम चुनाव की बात नहीं करते थे। पर सोचने की बात है कि इसी चुनाव के तहत मात्र 31% वोट हासिल करने वाला मोदी 120 करोड़ जनता की बात करता है। चुनाव-प्रणाली शासकवर्गों के शासन को स्थायीत्व प्रदान करती है। इसका विकल्प है- अनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली। चुनाव-प्रणाली को हम अपनी जरूरत के अनुसार ढाल सकते हैं। लेकिन वर्तमान चुनाव-प्रणाली में ऐसी बात नहीं है। हमने पश्चिमी माॅडल अपनाया था, जबकि हमें जरूरत नहीं थी कि हम भी उसे ही अपनाएं।

जातिप्रथा से कैसे लड़ा जा सकता है?

कहना आसान है कि दलित व लेफ्ट एक वर्ग के रूप में एक हो जाएं। इसकी जरूरत भी है क्योंकि आज जाति पहले वाली जाति नहीं रह गई है। इसमें वर्गों का निर्माण हो गया है। जाति प्रमाणपत्र के आधर पर कोई क्रांतिकारी आंदोलन खड़ा करना असंभव है। यह एक गंभीर समस्या है। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि यदि सभी शोषित लोग एक वर्ग के आधर पर साथ आएं तो एक सफल क्रांतिकारी आंदोलन खड़ा किया जा सकता है। जब हम जाति के उन्मूलन की बात करते हैं तो वह क्रांति के साथ ही जुड़ी हुई है। ‘क्रांति के बिना यहां से जाति जाएगी नहीं और बिना जाति व्यवस्था को समाप्त किए यहां क्रांति आएगी नहीं।’ इस तरह का समीकरण बनेगा।
ये बात Rhetorically बोल तो सकते हैं, लेकिन इसे करेंगे किस तरह? क्योंकि इस देश में लेफ्ट, लेफ्ट नहीं है। जो आशादायी लेफ्ट था, आज उसकी हालत खस्ता है। दलितों के अंदर भी बहुत विखंडन है! बिना किसी नुकसान के यदि एक मांग पर जनता को जागृत करें! ये बहुत अहानिकर मांग है। इस पर लोगों का एक साथ आना संभव है। यह कि देश की मौजूदा चुनाव-प्रणाली को बदलने की जरूरत है और Proportional Representation System लाने की जरूरत है। इससे शासकवर्ग भी चौकन्ने नहीं होंगे। एक रणनीति के रूप में ऐसी अहानिकर मांग लेकर संघर्ष खड़ा करें। इस पर काफी चर्चा भी होती है और संभावना भी है कि लोग मान लेंगे। Proportional System छोटी जातियों के खुद को प्रतिनिधित्व हेतु रेग्यूलेट करके आने की संभावना बढ़ जाती है। वे अपने हितों के लिए एकजुट हो जाएं तो माहौल बन सकता है। कालांतर में, हम यह चेतना भी जगा सकते हैं कि आज तक जो दलित आंदोलन हुए, वे सफल नहीं हुए हैं। डाॅ. अंबेडकर ने अपने जीवनकाल में ही अनुभव कर लिया था कि उन्होंने जो भी लड़ाइयां लड़ीं, वे असफल रही हैं। राजनीतिक प्रतिनिधित्व की लड़ाई उनकी मुख्य लड़ाई थी। वे शुरू में पूना पेक्ट से खुश थे, लेकिन बाद में निराश हो गए। क्योंकि वे खुद ही अपना चुनाव नहीं लड़ सके। दलितों के लिए जो तथाकथित आरक्षित सीट है, वह वास्तव में बहुमत पर ही निर्भर करती है। जो पार्टी उनको खड़ा करती है, वह उसका गुलाम होता है। बाबासाहब ने खुद ये महसूस किया। जब संविधन में यह बात आयी थी, तब वे चुप रहे, क्योंकि उनसे ज्यादा दूसरे लोग बोल रहे थे कि ये तो होना है। उन्होंने बस इतना ही कहा कि दस वर्षों बाद इसकी समीक्षा होनी चाहिए। उन्हें राजनीतिक आरक्षण नहीं चाहिए था।
जैसा कि आगे चलकर कांशीराम ने कहा कि ये दलितों के अंदर से चमचे बनाने की मशीन है। इसमें कोई शक नहीं है कि भाजपा विचारधारात्मक रूप से ही दलितों की दुश्मन है। लेकिन आज आरक्षित सीटों से चुनकर आने वाले ज्यादातर सांसद भाजपा के पास हैं और राज्यों में भी आरक्षित सीटों से चुनकर आए ज्यादातर MLA इसी के पास हैं। हमें अपने दिमाग की गंदगी साफ करनी होगी और स्पष्टता से देखना होगा कि हमें किस तरह आज तक उल्लू बनाया गया है। ऊना जैसे बहुत से संघर्ष देशभर में फैलाने होंगे। इससे लोगों में जागृति आएगी। एक वर्ग-चेतना जागेगी। उससे हम यह लड़ाई जीत पाएंगे। मैं एक बार फिर दोहराऊंगा कि देश से जब तक जातिप्रथा का उन्मूलन नहीं होता, तब तक क्रांति असंभव है और जब तक क्रांति नहीं होती, तब तक जाति का उन्मूलन असंभव है।
जाति, बाकी सबसे भिन्न, वह श्रेणी है जो केवल विभाजित करना जानती है। अंबेडकर ने दलितों को इकट्ठा करने की कोशिश की। वे सारे अछूत थे। वह एक किस्म का वर्ग था। अगर वे जाति की लड़ाई लड़ने वाले होते तो केवल महार जाति का झंडा उठाये रहते। उन्होंने ऐसा नहीं किया। अब यह कोई नहीं समझता तो क्या करें? आप जानते होंगे कि दलितों के अंदर से सब-कैटेगरी की मांग आती रहती है। सब-कटैगरी की मांग पर 1995 में माला-मादिगा का विवाद पैदा हुआ था। हमारी सारी राजनीति आरक्षण के सवाल के इर्द-गिर्द चलती रहती है। कहा गया कि माला जाति ने सारा आरक्षण हड़प लिया है, मादिगा को कुछ नहीं मिला है। ये बात उस जाति के गरीब लोगों को अपील करती है।
नवउदारवाद की नीतियों ने दूसरी जातियों को भी संकट में धकेल दिया है। कृषि में संकट है। सब जगह संकट है। उनको क्या दिखता है कि इन्हीं लोगों की वजह से हम संकट में हैं। देहातों में क्या होता है? उच्च जाति के गरीब लोगों को यह लगता है कि उनकी इस हालत के जिम्मेदार दलित हैं। राज्य इनको सहायता प्रदान करता है। क्योंकि दलितों के इक्का-दुक्का घर होते हैं, ऊपरी तौर पर यह दिखने में आ जाता है कि कोई लड़का पढ़ा-लिखा है या बड़ी नौकरी पर लग गया है या शहर में जा रहा है आदि। एकदम दर्शनीय हो जाता है। लोगों को जलन होती है। वे बोलते हैं कि हमारी दयनीय दशा के लिए ये जिम्मेदार हैं। जब कोई नौबत आती है या कोई अनहोनी होनी होती है तो इनको आसानी से उकसाया जा सकता है। उकसाने वाला कोई और होता है। ब्राह्मण नहीं, बल्कि कोई और होता है। अमीर आदमी उकसाता है। उकसाने वाले लोग दूसरे होते हैं। भोले-भाले लोगों के मन में द्वेष की भावना पैदा की जाती है। मैंने खैरलांजी की घटना पर एक पुस्तक लिखी थी जिसमें दलितों पर हो रहे अत्याचारों का जायजा और पूरे ही दलित सवाल का जायजा प्रस्तुत किया गया है। इसमें विस्तार से समीक्षा की गयी है कि ये घटनाऐं कैसे होती हैं या इनके पीछे कौन-सी ताकतें काम करती है या जैसा कि जो बाबा साहब ने कहा था कि दलितों में जो लोग ऊपर आएंगे और वे दलितों के हितों का संरक्षण करेंगे - कैसे वह गलत साबित हुआ है। इस पुस्तक में मैंने यह भी विस्तार से बताया है कि ऐसा आगे भी नहीं हो सकता है। जो लोग आरक्षण को बहुत ज्यादा महत्त्व देते हैं, उनके बारे में यहां एक बात बोलना मैं भूल गया था।  अगर आरक्षण चला गया तो दलितों के लिए बचेगा क्या? देखिए। जब तक सारे लोगों को कुछ मौलिक-तत्व ना दिए जाएं, तब तक आरक्षण की बात फालतू है। वे मौलिक-तत्व कौन से हैं? आदमी का शरीर है, इसे जिंदा रखना है। इसके लिए आरोग्य सुविधा की जरूरत है। आदमी का एक दिमाग है, वह एक जानवर नहीं है, उसके संवर्धन के लिए शिक्षा। सबको एक समान शिक्षा, आप बोलेंगे कि हां शिक्षण तो है। देहातों में जाकर देखिये। वहां अध्यापक नहीं है, ब्लैकबोर्ड भी नहीं है, कुछ भी नहीं है। स्कूल जरूर है। वहां पर मिड-डे मील मिलता है। उसका बजट पास होता है। लेकिन शिक्षण बिल्कुल भी नहीं है। ऐसे माहौल में एक बच्चा कैसे शिक्षा प्राप्त कर सकता है? आज सारा ग्रामीण भारत गुणवत्तापरक शिक्षा से पूर्णरूप से कटा हुआ है। ऊपरी तौर से, यहां पर अंग्रेजी माध्यम वाली पाठशालाएं आ गयी हैं। शिक्षा की दुकानें खुल गई हैं।
 एक वाक्य में कहा जाए तो इस देश में जो मल्टी-लेयर्ड शिक्षा व्यवस्था लागू की गयी है, ऐसा सिस्टम किसी देश में नहीं है। यह सारी विषमता की जड़ है। आपका लड़का अगर वहां तक पहुंच ही नहीं पाता है, तो उसे जितना मर्जी आरक्षण दे दो। मैं आईआईटी में प्रोफेसर था। साढ़े पाँच साल तक मैनेजमैंट स्कूल में पढ़ाता रहा। आरक्षण के बावजूद मुझे वहां केवल दो दलित लड़के मिले। हम उसे सेलीब्रेट कर रहे थे कि कोई तो मिला। यह क्या है? इसका दलितों में जिक्र करें तो बोलेंगे कि उपर बैठे लोगों में जातिवादी पूर्वाग्रह होते हैं, इसलिए वे हमारे बच्चों को नहीं लेते। IIT में क्या होता है? एक JEE MAINS का पेपर होता है। मान लो अगर 98% जनरल के लिए कटआॅफ है कि 98 के नीचे हम कन्सीडर ही नहीं करते। उसके नीचे दो तिहाई पर दलितों का कटआॅफ है। उतने अंक यदि पेपर में मिलते हैं तो उसे कन्सिडर किया जाता है। उस कटआॅफ में ही नहीं आते बच्चे! किसी ने विचार ही नहीं किया कि IIT या IIM में दलित बच्चे किस तरह जाएंगे?  कैसे ये सीटें भरेंगी। पिछले बीस वर्षों से IIT की सीटें भरती ही नहीं हैं। क्यों नहीं भरती? क्योंकि यह आरक्षण-व्यवस्था एक बार जिसे फायदा देती है, उसी को फायदा देती रहती है। एक छोटा-सा पिरामिड बना देती है। ये ऊपर उठने वाले लोग इतने कम हैं कि वे इतने सारे बच्चे पैदा ही नहीं कर पाते कि वे IIT की सीटें भर दें। सिर्फ इन्हीं के बच्चे IIT के सपने देख सकते हैं बाकी के बच्चे तो जैसे बच्चे ही नहीं हैं। कोचिंग कक्षाएं हैं, शिक्षा का स्तर है और बहुत कुछ तामझाम है, ये सबकुछ होने के बाद IIT होता है। लोगों के लिए आरक्षण एक भूलभुलैया बना दिया है कि चलो इसके पीछे भागते रहो। ये सारी बातें हमें गौर से सोचने की जरूरत है।
जब संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया, उसे बहुत चालाकी से पिछड़ेपन से जोड़ा गया। आरक्षण और पिछड़ेपन का कोई संबंध नहीं है। औपनिवेशिक काल में जो आरक्षण दिया गया था, उसे सहज भाव से स्वीकार भी किया गया। किसी ने इसका विरोध नहीं किया। क्योंकि जो दलित या अछूत थे, वो बेचारे इतने बेचारे थे कि और लोगों को लगा कि ये ठीक है। आखिर उनकी जनसंख्या के अनुपात के अनुसार ही तो हिस्सा दे रहे हैं तो इसमें क्या बुरा है? दलित कितना भी काबिल हो, ये समाज-व्यवस्था उसे उसका हिस्सा नहीं देगी, ये तय था। समाज पर दबाव बनाने के लिए कि उसे उसका हिस्सा मिलना चाहिए, यह आरक्षण था। लेकिन संविधान में चालबाजियां करके पिछड़ापन लाया गया। यह भी कहा गया कि यदि कोई और भी पिछड़ापन है तो उसे भी ढूंढ़ेंगे। सब कुछ जातिमय करने की योजना थी। मैं कह सकता हूं कि भारत का समाज आज जितना जातिवादी है, उतना कभी नही रहा। जो कुछ था, लोग उसे मानते थे। लेकिन आज जैसी जातिवादी भावना नहीं थी। वह अमूर्त थी। आज जातिवाद एक मूर्त रूप में हमें सताता है। आरक्षण व्यवस्था कैसी होनी चाहिए?
आरक्षण की अवधारणा को ना तो औपनिवेशिक काल में ठीक से परिभाषित किया गया और न ही संविधान में इसे ढंग से लिखा गया। आरक्षण जैसा कि मैंने कहा - एक अपवादस्वरूप व्यवस्था है। उसके समाप्त होने की बात उसी के अंदर निहित होनी चाहिए। आज ऐसा है कि उसका कोई अंत ही नहीं है, अंतहीन है। कैसे होना चाहिए था? आरक्षण किस लिए दिया गया? यह कि दलित बेचारे है, वे निर्बल हैं, दलितों में अनुवांशिक दोष है! क्या आरक्षण इसलिए दिया गया था? नहीं! इस समाज में अपंगता है, इस समाज में रोग है। ये समाज जब तक अपने आप को दुरुस्त नहीं करेगा, तब तक आरक्षण चलेगा! खुद खत्म हो जाने का प्रावधन अगर इसमें शामिल हो जाता तो यह अपने आप समाप्त हो जाता। उन्होंने यह नहीं किया। किसी ने इसे परिभाषित करने की कोशिश नहीं की। ऐसा अगर करते तो व्यापक समाज के अंदर एक आत्मग्लानि की भावना आती। एक अपराधबोध होता कि नहीं, यह ठीक नहीं है। यह समाज का दोष है। इसका निवारण हो जाए, तभी ये बंद होगा। दलितों में भी एक हीन-भावना आती है। जब टीचर छोटे बच्चों की क्लास में कहता है कि एससी-एसटी के लड़के खड़े हो जाओ, जब आप ऐसा बोलते हैं तो पाँच-छह वर्ष की उम्र में ही उसका सारे का सारा व्यक्तित्व ध्वंस कर डालते हैं। वह तभी समझ जाता है कि यह आरक्षण की कीमत है। दलितों ने यह समझ लिया है कि आरक्षण में ही उनका लाभ है। कभी यह नहीं सोचा कि कोई भी चीज बिना कीमत चुकाये नहीं मिलती। कौन-सी कीमत दी आपने? बहुत ज्यादा कीमत दी है। वह बच्चा कभी उपर नहीं आता है। यह कीमत दी है आपने! वह बच्चा आरक्षण के दम पर सार्वजनिक क्षेत्र में भर्ती तो हो जाता है। पर जब वह देखता है कि उसके साथ वाले लोग लगातार ऊपर जा रहे हैं, लेकिन वह वहीं का वहीं है। दो-तीन प्रोबेशन के बाद उसका सारा व्यक्तित्व मिट जाता है और वह एक डेड-वुड के समान बच जाता है। यह कीमत दी है आपने! ऐसी कितनी जिंदगियां हैं, जो बर्बाद की गई हैं। ऊपरी रूप से देखने में लगता है कि ओह यह तो बड़ा अवसर मिल गया है। दलित भी सिस्टम की लाईन पर चलने लगते हैं। जब आप लाईन पर चलने लगते हैं तो सिस्टम और बढ़ावा देने लगता है। इसी तरह यह गतिक्रम चलता रहता है। यह दुश्चक्र कैसे तोड़ा जाए? मैंने थोड़ा-सा तो जिक्र किया है। कई साल पहले मैंने कहा था कि जिस दिन दलित छत पर खड़े होकर कहेंगे कि हमें आरक्षण नहीं चाहिए, वह भारतीय क्रांति की शुरुआत होगी। आपके चाहने से भी आरक्षण को खत्म नहीं किया जाएगा। आरक्षण का फायदा उनके लिए है, दलितों के लिए नहीं! अगर दलितों में जागृति आ जाए और वे यह कहें कि हमें आरक्षण नहीं चाहिए, इससे हमें नुकसान हो रहा है तो भी शासक-वर्ग इसे समाप्त नहीं करेंगे। वे आरक्षण को जिंदा रखेंगे जैसे उन्हें कश्मीर का मुद्दा जिंदा रखना है। इसी प्रकार आरक्षण को भी समाप्त नहीं होने दिया जाएगा।
आप देख सकते हैं कि नवउदारवाद के बाद सार्वजनिक क्षेत्र का दायरा, जहां आरक्षण लागू होता है, लगातार संकुचित होता गया है। सन् 1997 में सार्वजनिक क्षेत्र में 197.82 लाख नौकरियां  थी जो 2007 में घटकर 180.02 लाख रह गयी हैं। इसका मतलब है कि नेट टर्म में आरक्षण कभी का समाप्त हो चुका है। अभी किसी विभाग की तरफ नजर करेंगे और बोलेंगे कि 15% पद अनुसूचित जाति के लिए रखे हैं या किसी विभाग के आंकड़े दिखाकर कहेंगे कि इतने पद भरे नहीं गए हैं या किसी विश्वविद्यालय में जाकर कहेंगे कि यहां अध्यापकों के इतने पद खाली हैं, ऐसी बातें हो सकती हैं लेकिन एक बृहद दृष्टिकोण से पूरा देखेंगे तो ये बातें सामने आएंगी।
बाबासाहब के हवाले से ही मैंने कहा है कि सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। अंबेडकर ने 1956 के अपने आगरा भाषण में सार्वजनिक रूप से कह दिया था कि पढ़े-लिखे लोगों ने मुझे धोखा दिया है। उन्होंने सारी जिम्मेदारी पढ़े-लिखे लोगों पर डाली थी। एक ही लाइन में उन्होंने साफ कर दिया था।  

Sunday, 26 July 2020

राजनीति



(साथियों, यह एक लंबा लेख है, जिसे हर उस इंसान को पढ़ना चाहिए जो बेहतर दुनिया बनाने के सपने देखता है। यह लेख इसलिये महत्वपूर्ण बन जाता है कि हम पढ़ते हुए पाएंगे जिस दुनिया को हम बेहतर बनाना चाहते हैं, उस दुनिया को हम कितना जानते हैं। हमें उस क्षेत्र विशेष में रह रहे लोगों की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक समझ कितनी है और वह समझ होना क्यों जरूरी है?)


एकता और संघर्ष
(अमिल्कर कबराल)

(नवंबर 1969 में कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण शिविर में दिया गया भाषण ।)


हमारी पार्टी और हमारे संघर्ष का पहला सिद्धांत है, जिसे हम सभी जानते हैं "एकता और संघर्ष"। जाहिर सी बात है कि इस अत्यंत साधारण सिद्धांत के बुनियादी अर्थ का अध्ययन करने के लिए हमें यह अच्छी तरह समझना होगा कि एकता क्या है और संघर्ष क्या है? इसके साथ ही हमें एकता के सवाल को और संघर्ष के सवाल को एक खास संदर्भ में देखना होगा। खास संदर्भ का अर्थ यह है कि इसके लिए हमें उस भौगोलिक परिदृश्य को देखना होगा और उस समाज के सामाजिक और आर्थिक जीवन तथा पर्यावरण को देखना होगा, जिसमें हम एकता और संघर्ष के इस सिद्धांत को लागू करना चाहते हैं।
एकता है क्या? हम बहुत स्पष्ट तौर पर इस अर्थ में एकता को ले सकते हैं, जिसे कोई स्थिर या एक जगह रूकी हुयी अवस्था माने या इसे कुछ संख्या तक सीमित रखे। मिसाल के तौर पर अगर हम सारी दुनिया में उपलब्ध बोतलों को समग्र रूप में देखें तो एक बोतल एक इकाई है। अगर हम इस हॉल में बैठे हुए सभी लोगों को समग्रता में देखें तो इसमें कामरेड डेनियल बरेतो एक इकाई है। तो क्या जब हम पार्टी सिद्धांत के बारे में किसी इकाई अथवा एकता की बात करते हैं तो हमारी दिलचस्पी बस इसी में होती है? ऐसा है भी और नहीं भी है। यह उस सीमा तक है, जब तक हमारी यह चाह होती है कि विभिन्न तरह के व्यक्तियों के इस समूह का रूपांतरण सुपरिभाषित इकाई में कर दें, जो एक ही रास्ते पर बढ़ने के लिए तैयार हों। यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि समग्रता में अलग-अलग तत्व शामिल हैं। इसे यूं भी कह सकते हैं कि अपने सिद्धांतों के अंतर्गत एकता का जो अर्थ हम लेते हैं, वह इस प्रकार है: मौजूदा भेदभाव चाहे कैसे भी क्यों न हो, लेकिन निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हमें एक होना होगा, समग्रता में रहना होगा। इसका अर्थ हमारा सिद्धांत यह है कि एकता को एक गतिशील अर्थ में ही रखा जा सकता है।
हम कुछ मिसाल देखें- मसलन एक फुटबॉल की टीम को ही ले लीजिए। इसमें 11 लोग होते हैं, जिनसे टीम का निर्माण होता है। खेलते समय हर व्यक्ति की अलग-अलग जिम्मेदारी तय होती है। हर व्यक्ति एक दूसरे से भिन्न है। सबका अलग अलग मिजाज है, अलग अलग शिक्षा-दीक्षा है। कुछ ऐसे भी हैं, जो लिख पढ़ नहीं सकते। टीम में कोई डॉक्टर के और कोई इंजीनियर के पेशे से जुड़ा हुआ है। सब के अलग-अलग धर्म भी हो सकते हैं- कोई मुसलमान हो सकता है, तो कोई इसाई। इतना ही नहीं राजनीतिक धरातल पर भी वे अलग-अलग सोच के हो सकते हैं। हो सकता है पुर्तगाल की राजनीतिक व्यवस्था में कुछ लोग यथास्थिति बनाए रखने के समर्थक हों और कुछ इस विचार के विरोधी हों। मतलब यह कि जो भी लोग हैं, वे एक दूसरे से भिन्न हैं और उनकी भावनाएं भी एक दूसरे से अलग हैं, लेकिन यह सभी लोग एक ही टीम के सदस्य हैं। अगर खेलते समय इन सभी तत्वों के बीच एकता का प्रदर्शन न हो तो उन्हें सफलता नहीं मिलेगी और वह फुटबॉल टीम नहीं रह जाएगी। जितने भी लोग हैं, वे अपने व्यक्तित्व, अपने विचार, अपने धर्म, अपनी निजी समस्याएं यहां तक कि खेलने की अपनी खास शैली को बनाए रख सकते हैं, लेकिन इन सबको समान रूप से एक बात का ध्यान रखना ही होगा कि प्रतिद्वंदी के मुकाबले उन्हें हर हाल में गोल करना है। इसके लिए उन्हें एक तरह की एकजुटता बनाकर रखनी होगी। अगर वैसा नहीं कर पाते हैं तो वे सफल नहीं हो सकते। एकता का यह एक शानदार उदाहरण है।
एक दूसरे उदाहरण पर भी गौर करें। एक औरत है, जो फलों से लदी हुई एक टोकरी अपने सिर पर लेकर बेचने जा रही है। आपको यह नहीं पता कि इस टोकरी में कौन-से फल हैं। असमें आम भी हो सकते हैं और केले, अमरुद या पपीता इत्यादि। लेकिन हमारी सोच में वह एक समग्रता के साथ आ रही है, जिसमें एक तरह की एकता का प्रतिनिधित्व है-- सिर पर एक टोकरी जो फलों से भरी है। संख्या की दृष्टि से भी अगर देखें तो इसमें एक एकता दिखाई देती है। अंदर से भले ही उस टोकरी में अलग-अलग तरह के फल क्यों न हों, लेकिन बाहर से देखने पर अर्थात वस्तुगत तौर पर, वह एक एकता का प्रदर्शन है।
इससे आपको यह आभास मिल गया होगा कि एकता का मतलब क्या है और यह भी पता चल गया होगा कि एकता का सिद्धांत मूलत: अलग-अलग चीजों की विभिन्नता में है। अगर यह भी विभिन्नता न होती तो जरूरी नहीं कि एकता संभव हो पाती। इसलिए हमारे खयाल में एकता दरअसल है क्या? वह कौन सा मकसद है, जिसके इर्द-गिर्द हमें अपने देश के अंदर एकता की जरूरत है? जाहिर सी बात है कि हम न तो कोई फुटबॉल टीम हैं और न फलों से लदी हुई टोकरी। हम जनता हैं, जनता के सदस्य हैं, जो इतिहास की एक खास अवस्था में अपने रास्ते के लिए एक ख़ास दिशा चुनते हैं, लोगों के जीवन से संबंधित कुछ मुद्दों को उठाते हैं, लोगों के कार्य की एक दिशा निर्धारित करते हैं, कुछ सवाल उठाते हैं और कुछ के जवाब तलाशते हैं। हो सकता है यह सारा काम अकेले कोई एक व्यक्ति संभाल रहा हो या इसे संभालने वाले 2-3-6 व्यक्ति हों। काम के दौरान एक खास चरण में हमारे दिमाग में एकता की बात पैदा हुई। हमारी पार्टी ने इतनी दूर तक देखा और सारी समस्या को इतनी अच्छी तरह समझा कि इसने एकता और संघर्ष को अपने कार्य की मुख्य बुनियाद मान लिया।
अब एक दूसरा सवाल पैदा होता है-- क्या यह एकता जो आवश्यकता की वजह से हमारे बीच पैदा हुई और इस वजह से भी, क्योंकि हमारे विचार राजनीतिक दृष्टिकोण से भिन्न थे। ऐसा नहीं है। हम अपने देश में राजनीति के साथ उछल कूद करने के अभ्यस्त नहीं हैं। हमारे यहां कोई पार्टी नहीं थी। चूंकि हमारे यहां विदेशी प्रभुत्व था, इसलिए हमारा समाज भी बड़े निर्धन तरीके से विकसित हुआ था। अब आप गिनी और केप वर्डे को ही देख लें, जहां व्यक्तियों की हैसियत के बीच बहुत बड़ा फर्क नहीं है। (हालांकि हमने यह भी देखा है कि कुछ फर्क है) और इसलिए उनके बीच राजनीतिक मकसद को लेकर बहुत अलग तरह के विचार नहीं हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि एकता का मसला इस अर्थ में नहीं है की विभिन्न व्यक्तियों और राजनीतिक मकसद तथा राजनीतिक कार्यक्रम को लेकर उनके विचारों के बीच फिर से कोई एकता स्थापित की जाए। दरअसल हमारे समाज का जो ढांचा है और हमारे देश का जो यथार्थ है, उसमें आपसी अंतर इतना बड़ा नहीं है, जिसकी वजह से राजनीतिक मकसद में कोई बड़ी भिन्नता पैदा हो। दूसरी बात यह है कि चूंकि हमारे देश पर विदेशी प्रभुत्व है और किसी भी राजनीतिक पार्टी के गठन का पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा हुआ है। लिहाजा यहां अलग-अलग पार्टियों का अस्तित्व नहीं है, जिनके बीच कोई एकता स्थापित करने की जरूरत महसूस हो। यहां अलग-अलग किस्म की राजनीतिक लाइन भी नहीं है, जिन्हें किसी एक रास्ते पर चलने के लिए कहा जाए या जीन से कहा जाए कि एकता स्थापित करने के लिए वे सभी साथ आ जाएं।
इसलिए हमारे देश के अंदर जो एकता का सवाल है सवाल है, उसे हम कैसे देखें? बुनियादी तौर पर सारा मामला कुछ इस प्रकार है : जैसा कि सभी जानते हैं, एकता की जरूरत ताकत के लिए होती है। इस देश के कुछ धरती पुत्रों के मस्तिष्क में जब पहली बार यह बात आई कि विदेशी औपनिवेशिक प्रभुत्व से छुटकारा पाया जाए तो उसी समय ताकत का सवाल पैदा हुआ है। ऐसी ताकत का जो औपनिवेशिक ताकत का मुकाबला करने के लिए जरूरी हो। फिर जैसे-जैसे लोग इस विचार के इर्द गिर्द इकट्ठे होते गये, लोगों ने महसूस किया कि हमारे बीच जितनी ही एकजुटता होगी उतनी ही ताकत हमें मिलेगी। अगर हम माचिस की एक तिल्ली लें तो इसे आसानी से तोड़ सकते हैं। अगर दो तिल्लियां एक साथ लें तो इसे तोड़ना उतना आसान नहीं होगा और अगर तीन, चार, पांच या छह तिल्लियां एक साथ उठा लें तो इन्हें तोड़ना नामुमकिन हो जाएगा। यह एक सामान्य और बहुत प्रचलित उदाहरण है, जिससे पता चलता है कि एकता में ताकत होती है। (हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि महज यूनियन का अर्थ ताकत नहीं है। ऐसी भी यूनियन का अस्तित्व है जो कमजोरी पैदा करती हैं और यह बात एक अजूबे जैसी है। दरअसल हर चीज के दो पहलू होते हैं-- एक सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक) जो लोग यह सोचते हैं कि यूनियन बनाने से हम एकजुट हो जाएंगे और हमारे अंदर ताकत आ जाएगी वे इस सवाल को हमारे संघर्ष की भावना के साथ रख कर देखें, क्योंकि उन्हें यह भी पता है कि हमारे बीच कई तरह के भेदभाव हैं।
गिनी और केप वर्डे में एक तरह की भिन्नता है। क्रेओल भाषा में भिन्नता का अर्थ अंतर्विरोध होता है। मिसाल के तौर पर हम अपने समाज को लें। जो व्यक्ति हमारे संघर्ष के बारे में गंभीरता से विचार करेगा, उसे यह भी पता चलेगा कि अगर सभी लोग मुस्लिम हों या सभी लोग कैथोलिक हों अथवा इराम देवता में विश्वास करने वाले सभी जीववादी(एनीमिस्ट) हों तो यह काम बहुत आसान हो जाएगा। वैसी हालत में जनता के हित के विरुद्ध काम करने वाली किसी भी ताकत के लिए धर्म के आधार पर हमारे बीच फूट डालना बहुत मुश्किल होगा। अब थोड़ा केप वर्डे के मामले पर विचार करें। यहां धर्म को लेकर कोई बड़ी दिक्कत नहीं है। बेशक प्रोटेस्टेंट और कैथोलिक के सवाल पर छोटे-मोटे को मतभेद हैं, लेकिन ये मतभेद ऐसे नहीं हैं जिनकी वजह से लोगों के बीच फूट पैदा हो। जरूर कुछ ऐसे परिवार हैं, जिनके पास जमीने हैं और कुछ ऐसे हैं जिनके पास बिल्कुल जमीन नहीं है। अगर सब लोग जमीन वाले होते या सभी भूमिहीन होते तो यह मामला थोड़ा और आसान हो जाता। वैसी हालत में दुश्मन उन लोगों को अपने साथ ले लेता जिनके पास जमीन है और यह प्रचारित करता कि दूसरे लोगों उनकी जमीनें छीनना चाहते हैं। इसी तरह गिनी में वह यह प्रचारित करता कि कुछ लोगों के अधिकारों को छीनने के लिए दूसरे लोग आमादा हैं। अगर सभी लोग अधिकारविहीन होते तो हमारा काम ज्यादा आसान होता, लेकिन ऐसा है नहीं। इसलिये एकता का सवाल हमारे यहां पैदा हो जाता है-- महज इसलिए नहीं कि हम विभिन्न राजनीतिक विचारों के लोगों को एक साथ लाना चाहते हैं, बल्कि इसलिये भी कि हम विभिन्न राजनीतिक विचारों के लोगों को एक साथ लाना चाहते हैं, बल्कि इसलिए भी कि विभिन्न आर्थिक हितों के लोगों को अलग-अलग संस्कृतियों और धर्मों के बावजूद ऐसी जगह खड़ा करना चाहते हैं, जहां उनके आपसी मतभेद समाप्त हो जाएं। हमने अपने देश के अंदर जब एकता का सवाल खड़ा किया तो उसका मकसद दुश्मन की उस क्षमता को नष्ट करना था, जिसके जरिए वह हमारी जनता के बीच के अंतर्विरोधों का इस तरह फायदा उठाता है ताकि वह हमारी ताकत को कमजोर कर सके और हम दुश्मन के खिलाफ कोई मोर्चाबंदी न कर सकें।
इस प्रकार हम देखते हैं कि एकता वह चीज है, जिसे कुछ और करने के लिए हमें हासिल करनी होती है। मिसाल के तौर पर अगर हम पानी के नल के नीचे अपना कपड़ा धोना चाहते हैं या नदी में नहाना चाहते हैं तो अगर हम बहुत नासमझ नहीं हैं तो तभी पानी के अंदर जाएंगे जब अपने कपड़े उतार लें। यह एक ऐसी कार्यवाही है, जिसकी हमें नहाने से पहले तैयारी करनी होती है। इसी तरह अगर हम इस हॉल में कोई मीटिंग करना चाहते हैं तो हॉल में बैठने की व्यवस्था करनी होगी, लिखने पढ़ने का इंतजाम करना होगा और तब फिर हम मीटिंग के लिए लोगों को बुलाएंगे। कहने का मतलब यह है कि हमें पूरी तैयारी करनी होगी। इसी प्रकार एकता का जो सवाल है वह साधन से जुड़ा है, न कि लक्ष्य से। हो सकता है कि एकता स्थापित करने के लिए हमें कुछ संघर्ष करना पड़े, लेकिन अगर हम एकता स्थापित कर लेते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि संघर्ष समाप्त हो गया। उपनिवेशवाद के खिलाफ विभिन्न उपनिवेशों में संघर्ष में लोग लगे हैं, जो महज अभी भी एकता स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। चूंकि वे संघर्ष शुरू करने में समर्थ नहीं है लिहाजा वे एकता और संघर्ष के बीच में घालमेल कर देते हैं। एकता संघर्ष की दिशा में संपन्न होने वाला एक साधन है और जैसा कि सभी साधनों के साथ होता है, इसे काफी दूर तक बनाए रखने की जरूरत होती है। किसी देश में संघर्ष के लिए जरूरी नहीं कि समूची आबादी को एक एकताबद्ध कर लिया जाए। क्या हम कभी यह निश्चित कर सकते हैं कि सभी लोग एकताबद्ध हो जाएंगे? नहीं, यह संभव नहीं है। एक हद तक एकता ही इसके लिए पर्याप्त होगी। एक बार यह संभव हो जाने के बाद हम संघर्ष की शुरुआत कर सकते हैं, क्योंकि जिन लोगों को आपने एकताबद्ध किया है, उनके दिमाग में नए-नए विचार पैदा होंगे और निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में वे आगे बढ़ेंगे। इस प्रकार आपने कमोबेश अब यह समझ लिया होगा कि एकता के सिद्धांत के पीछे बुनियादी विचार क्या होता है।
अब संघर्ष के पहलू पर आएं। संघर्ष क्या है? संघर्ष दुनिया के सभी जीवित प्राणियों के लिए एक सामान्य अवस्था है। सभी लोग संघर्ष में हैं। मिसाल के तौर पर आप यहां कुर्सी पर बैठे हैं और मैं अपनी कुर्सी पर बैठा हूं। मेरा शरीर इस कुर्सी के जरिए फर्श पर अपनी शक्ति का इस्तेमाल कर रहा है। अगर फर्श के पास हमें सहारा देने के लिए पर्याप्त शक्ति नहीं होगी तो हम नीचे चले जाएंगे ओर चोट खा जाएंगे। अगर फर्श के नीचे भी कोई शक्ति नहीं होगी तो हम नीचे की तरफ लुढकते ही चले जाएंगे। इसलिए फर्श पर हम जो शक्ति लगा रहे हैं और फर्श की जो शक्ति हमें रोके हुए है, उन दोनों के बीच एक खामोश संघर्ष चल रहा है। लेकिन आप यह भी जानते हैं कि पृथ्वी निरंतर गतिशील है। शायद आपमें से कुछ को इस बात का आभास न हो कि पृथ्वी लगातार चक्कर लगा रही है। अगर आप किसी प्लेट को चक्करदार तरीके से घुमा दें और इस पर किसी सिक्के को रखना चाहें तो आप देखेंगे कि उस सिक्के को प्लेट उछालकर बाहर फेंक देगी। आपने अपने रोजमर्रा के जीवन में देखा होगा कि अगर किसी रस्सी के छोर पर पत्थर का टुकड़ा बांध कर देर तक घूमायें तो थोड़ी सी मेहनत से ही वह पत्थर बड़ी दूर तक चला जाता है। इसके लिए जरूरी है यह है कि आप जहां निशाना लगाना चाहते हैं, उसके बारे में आपकी सही समझ हो और आपको यह पता हो कि वह कौन-सा क्षण है, जब पत्थर को रस्सी से बाहर फैंकना होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि एक खास स्पेस में अगर हम किसी किसी चीज को घुमा रहे हैं तो वहां एक ऐसी शक्ति पैदा होती है जो चीजों को बाहर की ओर ठेलती है। इसी प्रकार इस घूमती हुई पृथ्वी पर हम सभी लोग लगातार एक ऐसी शक्ति से चालित होते हैं जो हमें पृथ्वी से अलग दिशा में फैंकती है और इसी को सेंट्रीफ्यूगल फोर्स कहा जाता है, यानी केंद्र से बाहर की ओर धकेलने जाने वाली शक्ति। लेकिन इसी के साथ एक और शक्ति है जो पृथ्वी की तरफ हमें खिंचती है और इसे हम गुरूत्वाकर्षण शक्ति कहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि एक चुम्बकीय शक्ति की तरह पृथ्वी दूरी और वजन के अनुसार अपने आसपास की सभी वस्तुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है। इसी की वजह से हम पृथ्वी पर बने रहे हैं और बाहर की ओर नहीं जाते, क्योंकि सेंट्रीफ्यूगल के मुकाबले गुरूत्वाकर्षण वाली शक्ति ज्यादा क्षमतावान होती है। जब किसी चीज को चांद की ओर भेजते हैं तो वैज्ञानिकों के सामने बुनियादी सवाल यह होता है कि किस तरह वे गुरूत्वाकर्षण शक्ति पर काबू पाएं। इस काबू पाने के बाद वे पृथ्वी से बाहर की कक्षा में कुछ भी भेजने में सफल हो जाते हैं। विज्ञान के मदद से हम यह जानते हैं कि पृथ्वी से बाहर की कक्षा में किसी चीज को भेजने के लिए जब हम गुरुत्वाकर्षण पर काबू पा लेते हैं तो वह वस्तु 11 किलोमीटर प्रति सेकंड की अपनी यात्रा शुरू कर देती है। तो इससे यह भी पता चलता है कि 11 किलोमीटर प्रति सैंकेंड़ का अर्थ यह हुआ कि इसने गुरूत्वाकर्षण शक्ति पर काबू पा लिया है। लेकिन कोई भी बल जो किसी वस्तु पर प्रयोग किया जाता है, वह तभी कारगर हो सकता है जब उसके मुकाबले कोई विपरीत बल भी हो। इप अपने हाथ को अपने चेहरे पर रखते हैं, लेकिन चेहरा पीछे की तरफ नहीं जाता, क्योंकि चेहरे में भी प्रतिरोध का बल होता है। आपको महसूस भले ही न हो, लेकिन चेहरा भी आपके हाथ पर दबाव डाल रहा होता है।
हमारे इस खास मामले में संघर्ष को इस तरह समझा जा सकता है: पुर्तगाली उपनिवेशवादियो ने हमारी जमीन पर कब्जा कर लिया है और वे एक विदेशी के रूप में अपना कब्जा जमाए हुए हैं और उन्होंने हमारे समाज और हमारी जनता पर बल का प्रयोग किया है। इस बल का इसलिए प्रयोग किया है ताकि वे हमारे भाग्य का फैसला अपने हाथों में ले लें और उन्होंने अपने कार्यों को इस तरह संयोजित किया है कि वे हमारे इतिहास के प्रभाव को रोक दें और उसे पुर्तगाल के इतिहास के साथ उसी तरह नत्थी कर दें जैसे ट्रेन में किसी डिब्बे को जोड़ दिया जाता है। इसके लिए उन्होंने हमारे देश के अंदर कई तरह की स्थितियां पैदा की हैं--आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि। इसके लिए उन्हें एक 'बल' पर काबू पाना पड़ा है। लगभग 50 वर्षों से उन्होंने हमारी जनता के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है और यह युद्ध मनजाको, पेपेल, फुला, मनडिंगा, बिफादा, बलांता, फेलुपे, यानी यहाँ के सभी जातिय समूहों के खिलाफ है। केप वर्डे में पुर्तगाली उपनिवेशवादियों को एक वीरान द्वीप मिला। जिस दौर में अफ्रीकी पुरुषों को सारी दुनिया में गुलाम बनाकर उनका शोषण किया जाता था, उसी दौर में इन उपनिवेशवादियों ने देखा कि अटलांटिक सागर में के केप वर्डे नाम का एक द्वीप समूह है जो सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है और इन्होंने तय किया कि इस द्वीप समूह को गुलामों को रखने के लिए एक गोदाम की तरह इस्तेमाल किया जाए। अफ्रीका के अन्य हिस्सों से, मसलन गिनी से अगर किसी को पकड़ा गया तो उसे गुलाम बनाने के लिए केप वर्डे में कैद करके रख दिया जाता था। लेकिन धीरे-धीरे जैसे-जैसे इन गुलामों की संख्या बढ़ती गई और दुनिया में नए नए कानून बनते गए, उन्हें गुलामों के व्यापार की प्रथा छोड़नी पड़ी। इसके बाद इन लोगों ने पकड़े गए लोगों पर दबाव डालना शुरू किया-- वैसा ही दबाव जैसा वे गिनी पर डाल रहे थे और जिसे हम औपनिवेशिक सत्ता का दबाव कह सकते हैं। अगर औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा डाला गया दबाव किसी खास दिशा में था तो गुलाम बनाये लोगों का दबाव इसके विपरीत दिशा में होता था। विपरीत दिशा में होने वाले इस दबाव ने अनेक रूप लिए: अहिंसात्मक प्रतिरोध, झूठ और धोखाधड़ी, पुर्तगाली उपनिवेशवादियों को बेवकूफ बनाने के लिए उनकी जी हजूरी करना और लगातार दबाव बनाये रखने के लिए 'यस सर्' का सहारा लेना। चूंकि हम आमने-सामने उन्हें चुनौती नहीं दे सकते थे, इसलिए उन्हें बेवकूफ बनाने की कोशिश करते रहे और इस कोशिश में हमें दुख, पीड़ा, मौत, बिमारी, तरह-तरह की विपत्तियां आदि झेलनी पड़ी। इतना ही नहीं, सामाजिक तौर पर भी अनेक दुष्परिणामों का सामना करना पड़ा। हम दुनिया के अन्य लोगों के मुकाबले पिछड़ेपन की चपेट में आते गए। आज हमारा संघर्ष उस दौर में पहुंच गया है, जब हमने एक पार्टी का निर्माण कर लिया है और एक नई शक्ति का उदय हो चुका है जो औपनिवेशक सत्ता का कारगर तरीक़े से विरोध कर सके। अब सवाल यह जानने का है कि क्या व्यवहार में हमारी यह संयुक्त शक्ति औपनिवेशिक शक्ति पर विजय पा सकेगी? और यही हमारे संघर्ष की खास बात है।
अब अगर सभी चीजों को मिलाकर देखें तो एकता और संघर्ष का अर्थ यह है कि संघर्ष के लिए क्या जरूरी है, लेकिन एकता के लिए यह भी जरूरी है कि हम संघर्ष में लगे रहें। इसका अर्थ यह हुआ कि खुद अपने बीच भी हम संघर्ष कर रहे हैं। शायद इस बात को आप भली-भांति नहीं समझ पा रहे होंगे। हमारे संघर्ष का महत्व है महज उपनिवेशवादियों के संदर्भ में नहीं है, बल्कि यह खुद हमारे संदर्भ में भी है। एकता और संघर्ष। हमारे लिए एकता का अर्थ उपनिवेशवादियों के खिलाफ संघर्ष है और संघर्ष का अर्थ हमें अपनी एकता बनाए रखने के लिए है। यह इसलिए है ताकि हम अपने देश को वैसा बना सकें जैसा हम चाहते हैं।
बाकी बातें इस बुनियादी सिद्धांत को लागू करने से संबंधित हैं। अगर कोई इस बुनियादी सिद्धांत को नहीं समझता है तो उसे इसको समझना ही होगा, क्योंकि इसे समझ कर ही हम अपने संघर्ष को आगे बढ़ा सकते हैं। इस बुनियादी सिद्धांत को हमें तीन दिशा में ले जाना है: गिनी की दिशा में, केप वर्डे की दिशा में और गिनी तथा केप वर्डे दोनों की दिशा में। जिसने भी पार्टी कार्यक्रम को पढ़ा होगा, उसे इसकी अच्छी तरह जानकारी होगी।
इस बातचीत से आपने यह समझ लिया होगा कि कौन से अंतर्विरोध हैं जिन पर हमें स्थाई तौर पर काबू पाना है ताकि हम यह सुनिश्चित कर सकें कि संघर्ष के लिए जरूरी एकता हमारे बीच बनी रहेगी। आपको यह पता है कि पुर्तगाली उपनिवेशवादियों ने गिनी और केप वर्डे के लोगों के बीच फूट डाल रखी है और हमने खुद भी उसमें योगदान किया है।

आप गिनी का उदाहरण लें। इसमें एक तरफ शहर में बसने वाले हैं और दूसरी तरफ जंगलों और झाड़ियों में रहने वाले लोग हैं। और शहर में है क्या? वहां कुछ गोरे और काले हैं। अफ्रीकी लोगों में कुछ सीनियर स्टाफ के लोग हैं और कुछ मिडल स्टाफ के लोग, जिन्हें यह निश्चिंचतता है कि महीने के अंत में उन्हें एक निश्चित राशि वेतन के रूप में मिल जाएगी। वे जानते हैं कि इस पैसे से अपने लिए छोटी सी गाड़ी खरीद सकते हैं, जैसा कि आप देख सकते हैं कि मेरे पास अपनी खुद की गाड़ी है। उनके पास घर में फ्रीज है, एक खूबसूरत बीवी है और बच्चे हैं जो निश्चित तौर पर माध्यमिक शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं और अगर उन्होंने पढ़ाई में मेहनत की तो लिजबन भी जा सकते हैं। इसके बाद कुछ छोटे स्तर के कर्मचारी हैं, जिनके पास इतने पैसे होते हैं कि शनिवार की शाम को मछली के साथ रेड वाइन का आनंद ले सकें, एक ट्रांजिस्टर रेडियो खरीद सकें और सुख-सुविधाओं की छोटी मोटी चीजें भी रख सकें। इसके बाद उनका नंबर आता है जो गोदी कर्मचारी हैं या गाड़ी के मैकेनिक हैं और इनमें आप ड्राइवरों को शामिल कर सकते हैं जो ठीक-ठाक ढंग से जिंदगी गुजार ले रहे हैं। ये सभी ऐसे लोग हैं, जिनको वेतन के रूप में कम या ज्यादा कोई न कोई राशि मिलती है। इसके बाद उन लोगों का नंबर आता है जिनके पास करने को कुछ नहीं है और जो यहां-वहां आवारर्गी करते हुए समय बिता देते हैं। उन्हें यह पता नहीं है कि एक खास तरह की जीवन शैली के लिए वे क्या करें? फिर उन लोगों का नंबर आता जिनके पास कुछ भी नहीं है, मसलन वेश्याएं, भिखारी, जेबकतरे, चोर आदि। शहर का समाज इन्हीं सारे लोगों से बना हुआ है।
अगर आप ध्यान पूर्वक इनकी जीवन शैली पर गौर करें तो आप देखेंगे कि बेशक वे गिनी वासियों और केप वर्डे वासियों की संताने तो हैं और जिंदगी में ठीक ढंग से खा-कमा भी रहे हैं, लेकिन उनके बीच समान रूप से एक प्रवृत्ति है-- वे सभी पुर्तगालियों की जीवन शैली की नकल करना चाहते हैं। यहां तक कि वे अपने बच्चों को भी समझाते हैं कि पुर्तगाली भाषा के अलावा वे स्थानीय भाषा में बात न करें। अगर आप दूसरे समूह पर निगाह दौड़ाएं तो आप पाएंगे कि उनकी रूचियां भी कमोबेश वही हैं। आप में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो घरेलू नौकर का काम करते हैं, लेकिन आपके अंदर एक राष्ट्रवादी भावना है। लेकिन मैं अभी जिनकी बात कर रहा था, वे हमेशा एक दुसरी ही दुनिया में विचरण करते रहते हैं।
इसी तरह गोदी कर्मचारियों, जहाज कर्मचारियों आदि को लें जो पहले से ही इस समूह का हिस्सा हैं। आप इनसे मिल सकते हैं, बातचीत कर सकते हैं, लेकिन खाना खाते समय इनके साथ मेज पर नहीं बैठ सकते, ठीक वैसे ही जैसे पुर्तगालियों के बीच एक भेदभाव देखा जा सकता है। गवर्नर का परिवार हो, बैंक के डायरेक्टर का परिवार हो या किसी उच्च वर्ग के अन्य अधिकारी का परिवार हो, वहां हम कभी भी पुर्तगाल के किसी मजदूर की पत्नी को नहीं पाएंगे। बेशक, अगर किसी पुर्तगाली मजदूर की कोई खूबसूरत बेटी है, जिसकी सब तारीफ कर रहे हों तो हो सकता है उस अभिजात वर्ग के बीच वह आये और नृत्य करे। लेकिन वहां भी उसकी मां, जो लिखना पढ़ना नहीं जानती है, आने से परहेज करेगी। वह अपनी बेटी के साथ दरवाजे तक जाएगी और उसे अंदर छोड़कर बाहर चली आएगी। बिसाऊ में ऐसी घटना आपको याद होगी
केप वर्डे का समाज इसी तरह का है-- शहर जैसा समाज। यहां कुछ सरकारी अधिकारी हैं, कुछ उद्योगों के मालिक और कुछ जमीनों के मालिक। हालांकि इनकी जमीनें दूरदराज के इलाकों में हैं, लेकिन वे खुद शहरों में रहते हैं। शहरों में स्थिति यह है कि यहां कुछ सरकारी कर्मचारी हैं और छोटे-मोटे अफसर हैं, कुछ मजदूर भी रहते हैं जिन्हें किसी भी समय नौकरी से हटाया जा सकता है।गिनी और केप वर्डे दोनों जगहों में इस मामले में हालात एक जैसी हैं। इन दोनों स्थानों में गोरों की संख्या कम है। गिनी में यह संख्या कभी 3000 से ज्यादा नहीं और केप वर्डे में बमुश्किल 1000 गोरे रहते हैं। ये लोग सरकारी दफ्तरों के नौकरी-पेशा लोग हैं या कुछ टेक्निशियन और व्यापारी हैं।
जाहिर सी बात है कि जब हमें एकता की बात करते हैं तो हमें शहर के इस समाज को अपने संघर्ष के संदर्भ में देखना चाहिए। पुर्तगाली उपनिवेशवादियों के खिलाफ लोगों को एकजुट करने में हम उन गोरों को भी शामिल कर सकते हैं जो उपनिवेशवाद समर्थक हैं लेकिन कुछ उपनिवेशवाद विरोधी भी हैं। अगर उपनिवेशवाद विरोधी गोरे हमारे साथ आते हैं तो अच्छी बात है। इससे हमें अतिरिक्त ताकत मिलती है। अब मैं आपको एक मिसाल दूं: कामरेड लुई कबराल यहां से भागने में इसलिये सफल हो गए, क्योंकि राजधानी बिसाऊ से बाहर पहुंचाने में उनको कुछ गोरों ने मदद की। इन दो गोरे लोगों में एक महिला थी जो पुर्तगाली नागरिक थी, लेकिन वह उपनिवेशवाद का विरोध करती थी। इस बात को पार्टी से बाहर के लोग नहीं जानते। इस महिला ने ही ओसवाल्डो को संघर्ष की शिक्षा दी ना कि मैंने मुझे तो ओसवाल्डो को संघर्ष के बारे में शिक्षा दी--न कि मैंने। मुझे तो ओसवाल्डो के बारे में कोई जानकारी भी नहीं थी
इसका अर्थ यह हुआ कि उपनिवेशवादी दुश्मन के खिलाफ संघर्ष में हम उन सभी साथियों को साथ लेना चाहिए, जो हमारे साथ आ सकते हैं। लेकिन ऐसा करते समय हमें अपनी आंखें बंद नहीं रखनी चाहिए। हमें यह जानना चाहिए कि उपनिवेशवाद के संदर्भ में उसका रवैया क्या है? शहरों में हम देखते हैं कि बहुत कम ऐसे गोरे हैं जोउपनिवेशवाद के खिलाफ कोई कदम उठाते हों। इसकी मुख्य वजह यह है कि वे उसी वर्ग से आते हैं, जो यहां शासन कर रहे हैं। दूसरी वजह यह है कि उनकी अपनी जिंदगी है और इस बात में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं है कि किसके शासन से किसको कौन सी तकलीफ हो रही है। इसके अलावा एक बात और है कि जो गोरे हमारे यहां काम कर रहे हैं या रह रहे हैं, उनके पास आमतौर पर इस तरह का कोई राजनीतिक प्रशिक्षण नहीं है कि वे किसी सत्ता के बारे में कोई स्पष्ट नजरिया बना सकें।
लेकिन एक अफ्रीकी के रूप में हमारी क्या स्थिति है? उस समूह में जिन्हें हम निम्न पूंजीपति वर्ग कह सकते हैं और जिनकी आजीविका सुनिश्चित है, वे चाहे गिनी के हों अथवा केप वर्डे के, उनमें तीन तरह के लोग हैं। एक छोटा लेकिन शक्तिशाली समूह ऐसा है जो उपनिवेशवादियों के पक्ष में खड़ा होता है। ये लोग न तो उनके खिलाफ सुनना चाहते हैं और न उनके विरूद्ध किसी तरह के संघर्ष में दिलचस्पी लेते हैं। इनमें से कुछ लोग, खाते-पीते परिवारों के थे, मेरे घर में आये। उन्होंने आकर मुझसे कहा कि हम आपसे कुछ बात करना चाहते हैं। हम लोग आपके पिताजी के बारे में जानते हैं और आपसे भी अच्छी तरह परिचित हैं। आप कुछ ऐसे काम कर रहे हैं, जिससे एक इंजीनियर के रूप में आपका समूचा कैरियर खत्म हो सकता है। इसलिए हम आपको कुछ सलाह देना चाहते हैं। पुर्तगालियों के खिलाफ हमारे मन में कुछ नहीं है, क्योंकि हम भी तो पुर्तगाली नागरिक ही हैं।
अब ऐसे लोगों का तो कोई भी लाज नहीं है। निम्न पूंजीपति वर्ग का एक बहुत बड़ा हिस्सा है, जो कुछ नहीं कर पाता है। और जाहिर सी बात है कि आज भी वह इसी हालत में है-- कुछ तय न कर पाने की हालत में। इन लोगों का मानना है कि कबराल तो अपने कुछ साथियों के साथ अपनी किसी योजना पर काम कर रहा है। और अगर हम पुर्तगालियों को खदेड़ सकें तो यह अच्छी बात तो होगी, लेकिन.....। पुर्तगालियों से अगर किसी को नुकसान है तो इन शहरी लोगों को ही है। हालत यह है कि अगर नियुक्तियों में प्रतियोगिता का सहारा लिया जाए तो गोरे निश्चय ही आगे निकल जाएंगे। मिसाल के तौर पर आप क्रूज पिंटो के पिता को देखें। उन्हें पीछे छोड़ते हुए बहुत सारे लोग आगे निकल गए। ऐसे ही लोग हर रोज उपनिवेशवाद की वजह से नुकसान उठाते हैं। दूरदराज के जंगलों में बहुत सारे ऐसे लोग होंगे, जो किसी गोरे पुर्तगाली का दर्शन किए बैगर ही मर जाएंगे। मुझे याद है एक बार पुर्तगाल का कृषि वैज्ञानिक ओयो के इलाके में मेरे साथ गया। उसे देखकर कुछ बच्चे दौड़ते हुए वहां आ गए और उस पुर्तगाली का हाथ रगड़ कर देखने लगे क उसका रंग गोरा क्यों है? कुछ ने तो उससे पूछ ही लिया कि आप देखने में ऐसे क्यों लगते हैं। उन लोगों ने अपने जीवन में किसी गोरे व्यक्ति को देखा ही नहीं था, जबकि शहर में रहने वाले हर रोज गोरों को देखते रहते हैं। तो मैं बता रहा था कि मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग का एक ग्रुप ऐसा है, जिसे महीने के अंत में पैसे मिल जाते हैं, लेकिन उसकी कोई और इच्छा नहीं है। उनमें से कुछ यह चाहते हैं कि पुर्तगाली यहां से चले जाएं, लेकिन उन्हें खुद पर या हम पर भरोसा नहीं है कि हम उन्हें खदेड़ सकते हैं। वे भी यही सोचते हैं कि कबराल अपने मित्रों के साथ किसी योजना पर काम कर रहा है, लेकिन अगर उसकी योजना सफल नहीं हुई और हम हार गए तब क्या होगा? वैसी हालत में हमारा फ्रीज, हमारा रेडियो, महीने के अंत में मिलने वाली हमारी तनख्वाह........ यह सब चली जाएंगी और छुट्टियों में कभी पुर्तगाल जाने का हमारा सपना भी धरा का धरा रह जाएगा। उनके मन में एक आकांक्षा पलती है कि पुर्तगाल में जाकर छुट्टियां बिताएं और लौटने के बाद वहां के किस्से बढ़ा-चढ़ाकर लोगों को सुनाएं। अब ये सारी बातें ऐसी हैं, जो उन्हें हमेशा अनिश्चय की स्थिति में रखती हैं। लेकिन इन्हीं के बीच एक छोटा समूह भी है, जो शुरू से ही पूर्तगाली उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष का विचार लेकर चल रहा है और इस विचार को पूरा करने के लिए जरूरत पड़ने पर वह जान देने को भी तैयार है। इसी समूह से ऐसे लोग आए, जिन्होंने पार्टी के साथ अपने को जोड़ा। आप गौर करेंगे तो पाएंगे कि पार्टी की स्थापना से जो लोग जुड़े रहे, उनमें से अधिकांश ऐसे थे जिनके पास अच्छी खासी नौकरी थी और जिनका जीवन स्तर भी काफी हद तक ठीक ठाक था। गिनी हो अथवा केप वर्डे, इन दोनों जगहों में हमारा जो निम्न पूंजीपति वर्ग है, उसका संघर्ष के बारे में यही नजरिया है।
जो वेतन भोगी कर्मचारी हैं, वे क्या सोचते हैं? इनमें से अधिकांश संघर्ष के प्रति हमदर्दी रखते हैं। कम से कम शुरुआती दिनों में तो ऐसा ही देखने को मिलता है। वेतन या नियमित मजदूरी पाने वालों में से अधिकांश बढ़ाईगिरी, मैकेनिक, ड्राइवर या इमारतों में काम करने वाले मजदूर के रुप में जिंदगी गुजारते हैं और उन्हें शोषण का बड़ी शिद्दत से सामना करना पड़ता है, काम के बदले जो पैसे मिलते हैं वे भी बहुत कम होते हैं। एक ही काम के लिए जब इन्हें 10 स्क्यूडो मिलता है और किसी गोरे व्यक्ति को 80 तो उन्हें एहसास होता है कि अपने ही देश में उनको कैसे पराया बना दिया गया है। लेकिन ऐसे लोगों में भी कुछ मिल जाएंगे, जो संघर्ष नहीं करना चाहते हैं और उनकी सहानुभूति उपनिवेशवाद के प्रति है। जो लोग बिल्कुल कोई काम नहीं कर रहे हैं, उनके अंदर भी संघर्ष को लेकर कोई आरक्षण नहीं है। आमतौर पर इनमें से बहुत सारे ऐसे हैं जो पुर्तगाल की खुफिया पुलिस के एजेंट हैं।
खास तौर से गिनी के मामले में ध्यान देने वाली बात यह है कि एक ऐसा समूह भी है, जिसे न तो हम वेतन भोगी कर्मचारी कहेंगे और न उसे हम निम्न पूंजिपति वर्ग का मानेंगे। मैं नहीं समझ पाता कि इनको क्या नाम दिया जाए।  बहुत सारे नौजवान ऐसे हैं जो लिखना-पढ़ना तो जानते हैं और कभी कभार काम पर भी लग जाते हैं, लेकिन आमतौर पर शहर का उनका खर्च कोई चाचा या मामा ही संभालता है। लेकिन उपनिवेशवादियों के साथ उनका एक स्थाई संपर्क बना रहता है। हमारे फुटबॉल के कुछ ऐसे खिलाड़ी हैं जो पुर्तगालियों से बेहद प्रभावित रहते हैं, लेकिन उन्हें आए दिन अपमान भी झेलना पड़ता है, क्योंकि अच्छे खिलाड़ी होने के बावजूद बिसाऊ इंटरनेशनल स्पोर्ट्स यूनियन के क्लब में वे नहीं जा सकते। इस तरह के लोगों को बहुत आसानी से संघर्ष में जोड़ा जा सकता है। इन लोगों ने हमारे संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई भी है, क्योंकि एक तो वे शहर में रहते हैं और दूसरे उनका अपने गांव से भी जीवंत संबंध बना हुआ है। उनके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। उन्हें पता है कि बहुत कोशिश करने पर उनको दर्जी या बढ़ई का काम तो मिल सकता है, लेकिन इससे उनकी आर्थिक स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। ये ऐसे लोग हैं जो पुर्तगाल के प्रति आकर्षित तो होते हैं, लेकिन वे अफ्रीका की धरती भी नहीं छोड़ना चाहते हैं। इनकी पढ़ाई-लिखाई शहर में हुई है और उन्हें पता है कि शहर में रह कर ही वे अपने लिए आय का इंतजाम कर सकते हैं, लेकिन उन्हें वह अपमान भी नहीं भूलता, जिनका उन्हें हर समय सामना करना पड़ता है। इन हालात के अंदर से जो चेतना पैदा होती है, उसे और मजबूत करने में पार्टी अपनी भूमिका निभाती है।
दूर-दराज के जंगली इलाकों की क्या हालत है जहां लोग बसे हुए हैं?अगर वहां हमारा बलांता समाज है तो कोई कठिनाई नहीं होगी। बलांता लोगों का एक समतल समाज है, जिसका अर्थ यह हुआ कि इस समाज में ऐसे वर्ग नहीं हैं, जो एक दूसरे से बड़े या छोटे हों।  बलांता लोगों के यहां कबीले का कोई बड़ा सरदार नहीं होता। यहां पुर्तगाली शासक अपनी मर्जी से सरदार नियुक्त करते हैं। प्रत्येक परिवार और प्रत्येक कुटुंब की अपनी स्वायत्तता है और अगर कोई कठिनाई पैदा होती है तो बुजुर्गों की पंचायत बैठ कर उसका समाधान ढूंढ लेती है। यहां कोई राज्य नहीं है और न कोई ऐसा प्राधिकरण है जो सब पर शासन करता हो। बलांता लोगों के सरदार के रूप में पुर्तगाली शासक उन पर मनडिंगा थोप देते हैं या किसी अवकाश प्राप्त अफ्रीकी पुलिसमैन को कबीले का सरदार बना देते हैं। इस प्रणाली का बलांता लोग विरोध नहीं कर सकते और वे स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन उनकी निगाह में सरदार के होने या ना होने का कोई अर्थ नहीं होता। हर व्यक्ति का अपने घर में खुद का शासन है और सबके बीच एक आपसी समझदारी बनी रहती है। वो सभी मिलकर खेतों में काम करने जाते हैं और इस सिलसिले में कोई बहुत ज्यादा चर्चा करने की भी जरूरत नहीं पड़ती। ऐसा भी देखा गया है कि बलांता लोगों के दो परिवारों के मकान एक दूसरे से सटे हुए हों, लेकिन उनके बीच इसलिए किसी तरह की बातचीत न हो क्योंकि किसी जमाने में जमीन के विवाद को लेकर दोनों परिवारों के बीच अनबन हो गई थी। ऐसी हालत में उन दोनों परिवारों को एक दूसरे से किसी तरह की अपेक्षा भी नहीं रहती। लेकिन ये सब बहुत पुरानी प्रथाएं हैं और यह कब और कैसे शुरू हुई, इनके बारे में समय रहने पर विचार किया जा सकता है, और तभी संबंधों की, शादी ब्याह की या अलग-अलग आस्थाओं की पुरानी कहानियों का पिटारा भी खोला जा सकता है। अब आप यह समझिए कि बलांता समाज का तौर तरीका कुछ इस तरह है: आपके पास जितनी ही ज्यादा जमीन है, आप उतने ही ज्यादा संपन्न माने जाते हैं। लेकिन आपकी जो संपन्नता है, उसकी जमाखोरी आप नहीं कर सकते हैं। उसे आपको खर्च करना ही होगा, क्योंकि कोई एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति से अधिक संपत्ति नहीं रख सकता। हमारे देश में अन्य समाजों की ही तरह बलांता समाज का यही सिद्धांत है। इसके विपरीत फुला और मंजाको जन जातियों के अपने सरदार होते हैं, लेकिन यहां पुर्तगाली शासक अपनी ओर से सरदारों को उन पर नहीं। वे खुद ब खुद इतिहास के क्रम में पैदा होते हैं। यहां यह बताना भी जरूरी है कि गिनी में फुला और मंदिगा के रूप में कम से कम दो जातीयां ऐसी  हैं, जो दूसरे देशों से आकर यहां बसी हैं। यहां के विभिन्न पहलुओं को समझने के लिए इन बातों को जानना जरूरी है, क्योंकि अगर हम अपने देश के फुला लोगों की जीवन शैली की तुलना अफ्रीका के अन्य क्षेत्रों के फुला लोगों से करेंगे तो हमें थोड़ा फर्क दिखाई देगा। हमारे देश में बहुत सारी जातियां फुला में शामिल हो गई-- कई पुराने मंदिगा के लोग भी फुला में शामिल हुए। बलांता लोगों ने इसमें शामिल होने से मना कर दिया और कुछ लोगों का यह भी मानना है कि बलांता शब्द का अर्थ होता है "जिन्होंने इनकार किया"।
बलांता, पेपेल, मनकान्हा आदि जनजातियां अफ़्रीका के बहुत अंदरूनी इलाकों की हैं, जिन्हें मनदिंगा लोगों ने ठेलते हुए समुद्र के पास पहुंचा दिया था। मिसाल के तौर पर गिनी गणराज्य के सुस्सू लोग फुला जालोन से आते हैं। जहाँ मनदिंगा लोगों ने फुला लोगों को जबरन पहुंचा दिया था। जैसा कि मैंने पहले बताया था फुला समाज में नीचे से ऊपर तक वर्गों का अस्तित्व है जबकि बलांता में ऐसा नहीं है। यहाँ जो बहुत अकड़ कर रहता है, उसकी इज्जत नहीं की जाती। उसे यह माना जाता है कि यह भी पुर्तगालियों की तरह गोरा आदमी है। इस समुदाय में अगर किसी ने बहुत ज्यादा धन पैदा कर लिया है तो उससे यह अपेक्षा की जाती है, जिसे उसे करना भी पड़ता है कि वह गांव वालों को दावत देकर उस चावल को खत्म करे। यही वजह है कि मंजाको और फुला लोगों के बीच वर्गों का, यानिकी बड़े या छोटे का अस्तित्व है। इन समाजों में सबसे ऊपर कबिले का सरदार होता है, उसके नीचे धार्मिक समुदाय का सरदार होता है और फिर महत्वपूर्ण धार्मिक नेता होते हैं और इन्हें तथा सरदार को मिलाकर उच्च वर्ग का निर्माण होता है।इसके बाद विभिन्न पेशेवर लोगों की बारी आती है, जिनमें मोची, लौहार, सोनार आदि हैं, जिन्हें किसी भी समाज में उन लोगों की बराबरी नहीं हासिल है जो लोग इस पिरामिड में सबसे ऊपर बैठे हैं। परम्परागत तौर पर अगर कोई पेशे से सोनार है तो उसे शर्मिंदा होना पड़ता है, क्योंकि अलग-अलग पेशे में भी एक श्रेणीबद्धता है-- एक ऐसी सीढी बनी हुई है, जिसमें कुछ लोग निचले पायदान पर हैं और कुछ ऊपर के पायदान पर हैं। उदाहरण के लिए लोहार को वही हैसियत नहीं प्राप्त है जो किसी मोची को है और मौची को भी वह हैसियत नहीं है जो किसी सुनार को है। इन सबके अलग-अलग पेशे हैं। इसके बाद आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा वह है जो खेत जोतता है। वह इसलिए खेत जोतता है ताकि लोग जिंदा रहने के लिए खाना खा सकें। परंपरा के अनुसार वह कबीले के सरदारों के लिए खेत जोतता है। फुला और मंजाको समाज में ऊपर बताए गए सभी सिद्धांतों के लिए ईश्वर को जिम्मेदार ठहराया जाता है और यह माना जाता है कि कबिले के सरदार का सीधा संपर्क ईश्वर से है। मंजाको समाज में कोई किसान तब तक अपनी जमीन नहीं जोत सकता है, जब तक सरदार की अनुमति न मिल जाये। सरदार का यह कहना होता है कि उसे जब ईश्वर के पास से संदेश मिलता है तभी वह खेत जोतने का आदेश देता है। सरदार की जो इच्छा होती है, वही लोगों को माननी पड़ती है। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि यह सारा चक्कर इसलिए पैदा किया गया? यह इसलिए पैदा किया गया ताकि जो लोग सबसे ऊपर के पायदान पर बैठे हुए हैं उनकी हैसियत सुरक्षित रूप से बनी रहे और निचले पायदान पर बैठे लोग कभी भी उनके खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत न करें। लेकिन हमारे देश में कभी-कभी कुछ चमत्कारी घटनाएं हो गई। और ये घटनाएं फुला लोगों के बीच हुई। हुआ यह कि निचले पायदान पर बैठे कुछ लोग खड़े हो गए और उन्होंने ऊपरी पायदान पर बैठे लोगों के खिलाफ संघर्ष शुरू कर दिया। अतीत में बहुत बड़े-बड़े किसान विद्रोह देखने को मिले। हमारे पास इसके कई उदाहरण हैं, जैसे मुसा मोलो का ही मामला लें, जिसने राजा का तख्ता पलट दिया और सिंहासन पर कब्जा कर लिया। लेकिन जैसे ही सिंहासन पर बैठा, उसने भी उन्हीं प्राचीन नियमों का पालन शुरू किया, क्योंकि वही नियम उसके लिए ज्यादा मुफीद साबित हो रही थे। फिर धीरे धीरे वह भूलता चला गया कि उसका मूल स्रोत क्या है। और यही सबसे बड़ी समस्या है।
जंगल के इस समाज में बलांता जनजाति के बहुत सारे लोगों ने संघर्ष में हिस्सा लिया और ऐसा किसी दुर्घटनावश नहीं हुआ, न इस कारण हुआ कि बलांता लोग दूसरों के मुकाबले बेहतर है। इसकी ठोस वजह यह है कि बलांता समाज ही एक अद्भुत समाज है--एक समरूप समाज है, जिसमें ऐसे लोग रहते हैं जिनकी चाहत स्वतंत्रता है और जिस समाज में, पुर्तगाली उत्पीड़कों को अगर अलग कर दें तो,शीर्ष में कोई उत्पीड़क नहीं है। बलांता लोगों को पता है कि उनके कबिले का जो सरदार ममादु है, वह स्वाभाविक तौर पर सरदार नहीं है, बल्कि पुर्तगालियों की पैदाइश है। इसी वजह से उन लोगों में इस बात की ज्यादा दिलचस्पी है कि पुर्तगाल का शासन खत्म हो और वे पूरी तरह आजाद हवा में सांस ले सके। यही वजह है कि हमारी पार्टी के जब कुछ लोग बलांता लोगों के साथ काम करते समय छोटी सी भी गलती करते हैं तो वे बर्दाश्त नहीं कर पाते और बहुत जल्दी क्रोध में आ जाते हैं।
अन्य समूहों में यह बात नहीं देखने को मिलती है, मसलन फुला और मंजाको लोगों में आप यह नहीं पाएंगे। दरअसल जनता का एक बड़ा हिस्सा जो कष्ट उठा रहा है, वह समाज के बिल्कुल निचले स्तह पर है। वह जमीन होता है। वह किसान है। लेकिन इस वर्ग और पुर्तगालियों के बीच कुछ अन्य समूह भी हैं। वे लोग भी कष्ट उठा रहे हैं-- कभी अपने खुद के लोगों द्वारा और कभी बाहरी लोगों द्वारा। जो लोग जमीन जोत रहे हैं, उन्हें सरदारों और जिलाधिकारीयों के लिए काम करना पड़ता है जिनकी संख्या काफी है। इसलिए हमने कुछ तरीके निकाले। एक बार जब उनकी समझ में यह बात अच्छी तरह आ गई तो किसानों की एक बहुत बड़ा हिस्सा संघर्ष के साथ जुड़ गया। उनसे ऊपर का जो वर्ग था अर्थात पेशेवर लोग, उनमें से कुछ संघर्ष के साथ जुड़े और कुछ अलग ही पड़े रहे। लेकिन उन लोगों के बीच से, जो खुद अपना काम करते थे मसलन कोई कारीगर अथवा धार्मिक नेता अथवा कबीले का सरदार, इनमें से बहुत कम ऐसे लोग थे जो पार्टी के साथ जुड़ सके, क्योंकि उन्हें डर था कि अगर वे संघर्ष के साथ जुड़ेंगे तो उनका विशेषाधिकार समाप्त हो जाएगा। इस तरह के वर्ग विभाजित समाजों में कोई एक समूह ऐसा होता है जो अपने विशेष भूमिका निभाता है। ये वो लोग होते हैं जो खरीद फरोख्त के लिए समान एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजते हैं। यह क्रम देश के अंदर और बाहर दोनों जगह हो सकता है। वे सामान भेजने के साथ-साथ कबिले के सरदारों को सूद पर पैसे भी देते हैं। इन लोगों को हमारे यहां दयूला भी कहा जाता है। हमारे समाज का जो ढांचा है, उसमें दयूला लोग एक विशेष समूह के हैं।
इस तरह के समाज वर्गों में विभाजित होते हैं: सत्ताधारी वर्ग, शिल्पी वर्ग और किसान वर्ग। हमारे लिए यह बहुत जरूरी था कि समाज के विभिन्न वर्गों, विभिन्न तत्वों में सक्रिय शक्तियों के साथ जितना ज्यादा संभव हो सके, एकता स्थापित करें ताकि हम अपनी धरती पर व्यापक संघर्ष चला सकें। जैसा कि मैंने पहले ही कहा है, हर एक व्यक्ति को एकजुट करना जरूरी नहीं है। लेकिन यह तो जरूरी है ही कि एक खास सीमा तक हम एकता स्थापित कर लें। यह किसी समाज को व्यापक अर्थ में कहें तो महज उसकी सामाजिक संरचना की दृष्टि से देखना होगा, क्योंकि हमारे समाज में विभिन्न जातीय समूह के लोग रहते हैं। इनमें से कुछ लोगों की अलग संस्कृति है तो कुछ लोगों के रीति रिवाज एकदम अलग हैं। ये लोग विभिन्न ग्रुपों से आये हैं-- फुला, मनदिंगा, पेपेल बलांता, मंजाको, मनकान्हा आदि। इन्हीं समूहों के साथ वे लोग भी हैं, केप वर्डे द्वीप में बसे हुए गिनीवासी हैं। 
केप वर्डे के ग्रामीण क्षेत्रों में मामला थोड़ा जटिल है। यहां कुछ छोटे बड़े जिम्मेदार हैं, उनसे जुड़े कुछ काश्तकार हैं और फिर बटाईदार हैं जो उन जमीनों को जोतते हैं, जिनका मालिक कोई और है और बाद में पैदावार का एक हिस्सा मालिक दे देते हैं। जो काश्तकार हैं, वे भी दूसरे की जमीन जोतते हैं, लेकिन वे इसके बदले में मालिक को लगान देते हैं। इसके बाद कुछ खेतिहर मजदूर हैं और उनसे एक वर्ग बनता है। ये लोग दूसरे की संपत्ति पर काम करते हैं। अब इसे खुशी की बात कहें या दुख की, लेकिन बड़े जमींदारों के साथ हालत यह हुई कि केप वर्डे में संकट आने के साथ ही उनके हाथ से जमीन का काफी हिस्सा निकल गया। इसका कारण सुखे से ज्यादा पुर्तगाली शासकों का कुशासन था। इस विपत्ति के बाद उन्हें बैंक के पास जमीन गिरवी रखनी पड़ी, ताकि वे कर्ज ले सकें,  लेकिन वे कर्ज की राशि अदा नहीं कर सके और फिर अपनी जमीन से भी हाथ धो बैठे। इसलिए आज हालत यह हो गई है कि हमारे देश में सबसे बड़ी जमींदार के रूप में ये बैंक हैं। अभी भी कुछ छोटे भू-स्वामी बचे हुए हैं, लेकिन काश्तकारों ने बैंक से जमीन लेना बेहतर समझा और अब वे लगान की राशि भी बैंक को ही देते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि अभी एक ग्रुप ऐसा है, जिसके पास जमीन बिल्कुल नहीं है। इसके विपरीत गिनी में हम किसी से यह नहीं कह सकते कि आओ जमीन के लिए लड़ाई लड़े। जबकि केप वर्डे में हमारा मुख्य नारा ही यही है कि अगर लड़ोगे तभी तुम्हारे पास जमीन होगी। गिनी के ग्रामीण क्षेत्रों और केप वर्डे के ग्रामीण क्षेत्रों के संघर्ष में यह बुनियादी फर्क है। अगर हम ढंग से काम करें तो सभी समूह संघर्ष का समर्थन करेंगे। बेशक जो बड़े जमींदार हैं, वे तो इसका विरोध करेंगे ही। लेकिन जो छोटे भूस्वामी हैं उनमें से कुछ साथ आएंगे कुछ विरोध करेंगे, क्योंकि उनकी स्थिति निम्न पूंजिपति वर्ग की होती है। कुछ इसलिए हमारे खिलाफ होंगे, क्योंकि उन्हें लगता है कि हम सारी जमीन पर कब्जा कर लेंगे और निजी संपत्ति को समाप्त कर देंगे। कुछ इसलिये समर्थन में होंगे, कि उन्हें लगता है कि हम सारी जमीन लेकर एक बड़ी जोत का रूप देंगे, जिसमें लोगों का खुलकर काम कर सकेंगे। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो न पक्ष में है और न विपक्ष में, क्योंकि उन्हें यह बात अभी समझ में नहीं आ रही है कि वे कुछ पाएंगे या कुछ खोएंगे। पुर्तगाली शासन के अधीन उनकी स्थिति मोटे तौर पर ठीक-ठाक है और इसीलिए इस स्थिति को तोड़ने में उन्हें हिचकिचाहट हो रही है।
कुछ और अंतर्विरोध भी हैं। मिसाल के तौर पर गिनी में कुछ जातीय समूह भी हैं, जिन्हें हम कबिला कहते हैं। आपको पता है कि अतीत में इनके बीच कितना अंतर्विरोध रहा है। 1930 के दशक में बिसाऊ में बिसालांका में और मंजाकोस में हम यह अंतर्विरोध देख चुके हैं। हमें यह भी पता है कि 1954 में ओआयो में बलांता और ओइंका के बीच गंभीर अंतर्विरोध देखने को मिला था। ये सारी गड़बड़ियां पुराने विचारों की वजह से होती हैं, जो लोगों के दिमाग में जमकर बैठी हुई हैं। लेकिन व्यावहारिक स्वार्थ भी इसके पीछे छिपे होते हैं। अन्तर्विरोधों के पीछे हम बहुत सारे कारण देखते हैं। कभी किसी ने किसी के मवेशी चुरा लिए या किसी की पत्नी को लेकर भाग गया या कोई ऐसी जमीन जोत ली जो उसकी नहीं थी, लेकिन वह दावा करता था। पुर्तगाली शासक हमारे लोगों के बीच संघर्ष को बनाए रखने के लिए इन छोटी-छोटी बातों का इस्तेमाल करते रहते हैं और उन्हें एक दूसरे के खिलाफ उकसाते रहते हैं। इन अंतर्विरोधों को  हमें गहराई से समझना होगा और इन पर सोचना होगा।
गिनी और केप वर्डे में हमारा उद्देश्य यह होना चाहिए कि कैसे हम अच्छे से अच्छे तरीके से इन अंतर्विरोधों को समाप्त करें और एक सांझा उद्देश्य के इर्द गिर्द एकजुट होने की चेतना लोगों के अंदर पैदा करें और वह सांझा उद्देश्य यही होना चाहिए कि हम पुर्तगाली उपनिवेशवादीयों को देश से बाहर निकालें।
गिनी और केप वर्डे के संदर्भ में हमें इन पहलुओं पर विचार करना चाहिए। क्या इन दोनों के बीच भी कोई अंतर्विरोध है। इस पहलू पर विचार करें तो स्तह पर हमें कुछ अंतर्विरोध दिखाई देते हैं। हमने देखा है कि गिनी में सरकारी सेवा में और गिन के कुछ जिलों में प्रमुख के पदों पर केप वर्ड़े के लोग हैं। इसके पिछे वजह यह है कि केप वर्डे में शिक्षा का स्तर ज्यादा उन्नत है और इस लिए गिनी वासियों के मुकाबले अच्छे पदों पर नियुक्त होने की संभावना ज्यादा होती है। अब होता यह है कि लोग महसूस करने लगते हैं गिनी की जनता के हित केप वर्डे के लोगों के हाथों में पहुंच गया है, केप वर्डे के लोग ही ज्यादा फायदा उठा रहे हैं। लेकिन हम अगर बारीकी से देखें तो शहरों में यह स्थिति नहीं है। शहरों में गिनी के लोग ज्यादा लाभकारी स्थिति में है। अगर और इसका विश्लेषण करें तो पाएंगे कि केप वर्डे और गिनी दोनों इलाकों के लोग समान रूप से शोषण के शिकार हैं। केप वर्डे की हालत तो और भी ज्यादा खराब है-- वहां भुखमरी भी है और वहां के लोग जानवरों की तरह अंगोला तथा साओ तोमे भेजे जाते हैं ताकि मजदूरी करें। इसलिए इन छोटे-छोटे अंतर्विरोधों को किनारे करते हुए अपनी सोच को थोड़ा उन्नत करना होगा।
अफ्रीकन पॉर्टी फॉर दि इंडिपेंडेंस ऑफ गिनी एंड केप वर्डे (PAIGC) में हमने महसूस किया है कि गिनी और केप वर्डे की एकता स्थापित करने में कोई बहुत ज्यादा कठिनाई नहीं होनी चाहिए। अलग-अलग ढंग से इन दोनों इलाकों को हम देखेंगे तो अंतर्विरोधों का स्वरूप बहुत बड़ा दिखाई देगा, लेकिन अगर दोनों को हम एक करके समझने की कोशिश करें तो पाएंगे कि ये अंतर्विरोध काफी कम हो गए हैं। हमें इन बातों को ध्यान में रखकर अपने काम को आगे बढ़ाना चाहिए।

 साभार -: 

अमिल्कर कबराल-- जीवन संघर्ष और विचार
अनुवाद व संपादन
आनंद स्वरूप वर्मा
गार्गी प्रकाशन