मान लो
अगर मैं लिखूँ तुम्हारी अनुपस्थिति से
मेरा हृदय फटता है
शायद वे कहें कि
संसद को उड़ा देने के लिए षड्यंत्र है और
मुझे आतंक वाले कानून में गिरफ्तार कर लेंगे।
(प्रो. वरवरा राव द्वारा लिखीत प्रस्तुत कविताएं अभियान पत्रिका ने अपने अलग-अलग अंकों में प्रकाशित की थी। हम ये कविताएं एकसाथ ब्लॉग पर अपने पाठकों के साथ इस उम्मीद के साथ सांझा कर रहे हैं कि हम समझ सकें कि प्रो. वरवरा राव की रिहाई के लिए समस्त साहित्यकारों को आवाज उठाना क्यों जरूरी है? -- संपादक मंडल अभियान)
1. धरती से भय
लोगों को धमकी पर धमकी देता हुआ
भयभीत करता हुआ
अब वह स्वयं भयभीत हो गया है।
अब वह गाँवों को देखकर भयभीत हो रहा है
पाठशालाओं को देखकर भयभीत हो रहा है
पानी को देखकर भयभीत हो रहा है।
काँप रहा है परछाई देखकर
भयग्रस्त है बंजर भूमि से
खेतों में उगते अँखुओं से
हवा में हिलते पौधों से
उनके हिलने के अधिकार से
भयभीत हो रहा है वह।
वह हो रहा है युवाओं से भयभीत
उनकी कल्पनाओं से, सपनों से
कलम की नोक से हो रहा है भयभीत।
स्वतंत्रता को यद्यपि उसने
जकड़ रखा है बेड़ियों में, किंतु -
स्वतंत्रता से खनकती हुई हथकड़ियों की आवाज़ से
वह भयभीत हो रहा है।
वह जंगल से भयग्रस्त है
और जंगल के दावेदारों से भी
अब बांसुरी के सुरीले गीत
रक्तवमन में सन चुके हैं
उसने भयग्रस्त होकर
गोदावरी की धारा पर
बिठा दिया है पहरा।
नेत्रों में अग्नि
और अग्नि में शब्दों को झोंक दिया है
हृदय में शोक
और शोक में भर लिया है मौन को।
उसने मार दिया है उन्हें
जो भयग्रस्त नहीं थे मृत्यु से
शहीदों से भयग्रस्त होकर
उड़ा दी हैं बारूद से प्रतिमाएँ।
गिरा दो प्रतिमाओं को
बुझा दो दीपकों को
उनके प्रकाश-चिन्हों को मिटा दो
लेकिन उस चेतना का क्या करोगे ?
जिससे उत्पन्न होते हैं
बार-बार शहीद
बनती हैं उनकी प्रतिमाएँ
जलाए जाते हैं दीप
दीपों के बुझने से धरती डूबी है अँधेरे में
गाँवों के जलने से सुलग रही है धरती
प्रतिमाएँ ध्वस्त करने पर
फुंफकार रही है ज़मीन।
कल वहाँ आदमी खड़े थे
वे शहीद हुए हैं
जहाँ कल प्रतिमाएँ खड़ी थीं
आज शोक में डूबी उस धरती पर
वह स्वयं खड़ा है अपनी सेना के साथ
किंतु भयग्रस्त
वहाँ धरती तो अब भी है
उस धरती का क्या करोगे।
2. पोस्ट मार्टम
1.
प्रिये !
मैं उड़ रहा था इक्कीसवीं सदी के
उधार लिये पंखों पर
जब अठारह सौ अट्ठानवे का
तुम्हारा लिखा ख़त मुझे मिला।
विचित्र है बहुरंगी हमारी संस्कृति
वंशानुगत है हमारा गणतंत्र
जहाँ साथ-साथ रहते हैं
बैलगाड़ी और इनसैट
धोबी घाट और सुपर सोनिक जेट
अहिंसा वाली खादी और बुलेट-प्रूफ जैकेट।
कुछ समय से
मैं खिला रहा हूँ अपने विचार
एक सुपर कंप्यूटर को
इसी जिज्ञासावश
कि अब संदेशवाहक भी
संदेश के डकैत हो जाएँगे।
मान लो कि ठीक अर्थ जानकर
चकराया होता वानर
कि लंका में सीता को अँगूठी भेजने के पीछे
राम की क्या मंशा थी और अगर अँगूठी को
वह चुरा लेता
मान लो कि हंस ने दबा लिया होता
हमारे प्यार भरे झगड़ों के संदेश को
स्वयं अपने हक में।
मान लो कि
इंटेलिजेंस ब्यूरो के लोग
अपनी अक्ल की धार तेज़ करने पर तुले रहकर
हमारे बार-बार पढ़े गये ख़तों में
खोज लेते नये अर्थ
और छिपा देते उन ख़तों को
तो लगता ठीक ही कहा था ज़फर ने
‘‘उम्रेदराज़ माँग के लाये थे चार दिन...
दो आरजू में कट गये, दो इंतेज़ार में...’’
2.
प्रिये !
कितने हाथ मसल देंगे
इस ‘प्यार’ के संबोधन-शब्द वाले हिस्से को
कितनी आँखें इर्ष्या से दहकेंगी
इससे पहले कि मेरे रक्त की भाषा
और मेरे स्नेह की श्वाँस
आवेग के पार तुम्हारे मन को छू पाये
अथवा
मैंने लिखा है प्रकृति की मृदु मैत्री का रहस्य
क्या यह जब्त कर लिया जाएगा
शासन की सुरक्षा के हित में।
मैं ख़त लिखने बैठता हूँ
किन्तु आरपार खिंचे हुए संविधान के नियम
राष्ट्रपति भवन,
संसद, सुप्रीम कोर्ट
चाणक्यपुरी से राजघाट तक सब
हमारे बीच आ जाते हैं
मंगल-सूत्र की तरह।
हमारे भले बुजुर्ग कालोजी कहते हैं
क्या ज़रूरत है किसी तीसरे गवाह की
दो दिलों और तीन गाँठों के विवाह में
लेकिन पता है
कि दूसरे हस्तक्षेप कर सकते हैं और
तमाशा खड़ा कर सकते हैं कि क्या
मेरे सपनों के स्वर्ग में
झरता रहा है सारी रात जूही के फूलों पर
वे दावा करते हैं कि तोड़ लेंगे
प्रेम की पोशीदा तिजोरी।
मैं क्या कहूँ ?
चाहे जो भी हो किन्तु मैं नहीं मान सकता
प्यार का स्वयं में एक झूठा संदेश होना।
मान लो किसी कालिदास की तरह मुझे कहना पड़े
मैं कहूँगा
जब मैंने खींचना चाहा
तुम्हारी स्मृतियों की मानिन्द गोली सी मुझे जो चीर गई
और तुम्हारी आँखों को आग की लपट की तरह
वही मुझे जलाती है।
‘‘तुम्हारा हृदय प्यार के मंदिर-सा’’
अब स्पेशल ब्रांच पढ़ेगी
इस प्यार के मंदिर का अर्थ
‘स्वर्ण मंदिर’ लगाया जाएगा और
उसे कागज पर उतार दिया जाएगा।
एक आँसू के मेरी आँख से गिरने
और तस्वीर पर दाग़ पड़ जाने से
वे चौंकेंगे कि किस देश का निशान
मैंने यहाँ छिपाया है
और भेज देंगे रक्षा-प्रयोगशाला में पढ़ने के लिए।
मान लो
अगर मैं लिखूँ तुम्हारी अनुपस्थिति से
मेरा हृदय फटता है
शायद वे कहें कि
संसद को उड़ा देने के लिए षड्यंत्र है और
मुझे आतंक वाले कानून में गिरफ्तार कर लेंगे।
मेरा ख़त तुम तक पहुँचने के पूर्व ही
राजद्रोह के अपराध और षड्यंत्र के अभियोग में
शायद गोली मार देंगे।
प्यार की सीमा को पार करने के अपराध में
प्रेम कविता तब बन जाएगी शोक-गीत।
3
क्या यह कोई नयी बात है
कि हमारे ख़त कोई गैर पढ़ता है ?
अगर हमें गैरों के पढ़ने का खतरा हो
तो हम इन्हें छिपा भी देते
मगर दर्द इस बात का है
कि झपट ले जाएगी इन्हें
सादी वर्दी वाली पुलिस
हमारी इच्छा के विरुद्ध।
अगर चलम ने साहस कर सिखाया न होता
हमें प्रेम-पत्र लिखना, तो प्यार
किनारे वाली नालियों और
सँकरे अँधेरों में खो जाता।
अगर ब्राउनिंग ने नहीं किया किया होता प्रेरित
कि प्रेम के लिए विवाह कर लेने के बाद भी
हम न सिर्फ प्रेम करते हैं
बल्कि लिखते भी हैं अपना प्रेम
यदि मैंने तुमको ख़त न लिख़ा होता
और न बढ़ी होती डाक की कीमत
किन्तु मुझे लगता है
प्रेम को गोपनीयता की क्या ज़रूरत है।
हम जो चाहते हैं वह गोपनीयता नहीं
निजता है ।
कुछ भी हो खुफिया विभाग के लोग ही सही
उन्हें कम से कम सीख लेने दो मूल्य
प्यार और मित्रता का मूल्य
हमारे ख़तों से सीख लेने दो।
किन्तु यह सोचना मेरी मूर्खता है
वे पढ़ने के लिए नहीं हैं बल्कि
तैनात हैं लिखने पर
प्रतिबन्ध लगाने हेतु
अगर वे पढ़ पाते
तो क्या रोकने का प्रयास करते इतिहास को।
भगत सिंह को बम फेंकना पड़ा था
बहरी संसद पर
राष्ट्रीय मुक्ति प्रसंग पढ़ने के लिए देखो!
मैंने यहाँ फिर लिख दिया है ‘बम’।
वे सोचेंगे
इसका ज़रूर सरोकार होगा
राष्ट्रीय सुरक्षा से।
अगर संबंधित विधेयक पास न होता
इस बार के सत्र में
अब तक यह ख़त तुम्हें मिल चुका होता
और क्या हुआ होता देश को
प्यार के इस षड्यंत्र से
मैं काँप उठता हूँ सोचकर।
पुनश्चः यही कारण है कि
मैं डाक में नहीं डाल रहा हूँ यह खत
इसे मैंने अपनी जेब में रख लिया है
सुरक्षित
ताकि बाद में इसमें खोज ले वह प्रमाण
जो उसे चाहिए।
1. कालोजी: तेलुगु के प्रसिद्ध जनकवि।
2. चलम: तेलुगु के उपन्यासकार।
3. चुनरी
वह तो निहायत ही बच्ची है
क्या हम उससे पूछें?
नहीं, उसकी शादी पर हमें नहीं पूछना चाहिए
उसे एक शाही घराने में दिया गया है
कितनी शान-शौकत से शादी की
बूढ़े और युवा, मित्र और पड़ोसी
कितने सारे लोग आये थे।
ससुराल जाते वक्त वह रो रही थी
हम सब भी रोये थे
मगर वास्तव में क्या वह नापसन्दगी थी
या मात्र आदतन स्नेहवश ...................
उस दिन
जब हम उसे नहला रहे थे
उसने कहा था, उसे डर लग रहा है
वह केवल अज्ञात का भय था,
हमने समझाया।
उसने जिद्द की कि वह
मां या बहन के साथ सोयेगी
हमने उस नादान को समझाया
भयभीत हो उसने
अंदर जाने को मना किया।
उस मंद्धिम रोशनी वाले कमरे में
अगरबत्ती के धुएं और
कपूर की खुशबू के साथ
वह दरवाजे से नहीं सरकी
हमने उसे अंदर ढकेलकर कुंडी लगा दी।
यदि वह चिल्लाये या दरवाजा खटखटाये तो
क्या हम उसे बाहर निकलने दें?
हमने वहां सारी रात मजाक और
हंसी में गुजारी
लेकिन मुझे बताओ !
क्या यह जबरदस्ती है ?
हमने उस दिन भी वही बात कही
जब वह उसकी लाश पर रो रही थी
एक बार हमने फिर उसे दुल्हन सा सजाया
वह चन्दन की चिता पर चढ़ी
जिसमें जलते घी की बू थी ।
अपने हाथ में एक मर्तवान लिये
जैसे वह सुहागरात के कमरे में गयी थी
हाथों में दुध का गिलास लिये
अपने पति का सिर अपनी गोदी में रखते हुए
हम नहीं जानते वह रोई या हंसी
पर वह आवाज डूब गयी थी
हमारी ‘‘सती मैया की जय !’’
वाले नारों में।
उन दृश्यों के नशे में जिनकी कल्पना
उस सुहागरात को
सोने के कमरे के बाहर हमने की थी
अपने आपको को हमने
सशस्त्र पहरे के बीच खो दिया।
उस मुस्कुराती आकृति की
कसम खाओ
और कृपया मुझे बताओ
क्या वह एक हत्या थी?
यह सच है कि
उसने अपनी चिता पर उसे घसीटा
जैसे उसने उसे
अपने बिस्तर पर घसीटा था
उसी समान अधिकार से
सती वह उतनी ही आजादी से हो गई
जितनी आजादी से जी रही थी ।
No comments:
Post a Comment