Monday, 13 July 2020

कहानी

झूठे 
 (तारा पांचाल) 


 ऐसा नहीं है कि मुरली पंडित की जेब में पहली बार इस तरह पैसे डले हों। उसका काम ही ऐसा है कि ऊपर से कुछ ना कुछ बनता ही रहता है। लेकिन जब से ये पाँच सौ रुपये उसकी जेब में डले हैं तब से वह कभी खुश हो रहा है तो कभी उलझ रहा है। रात पैसे देखते ही पत्नी ने अपना निर्णय सुना दिया था कि इन पैसों की मिक्सी आनी चाहिए। सुबह उसने फिरर याद दिला दिया था। मुरली ने हाँ-नाँ कुछ भी कहने की बजाय देखेंगे कहा और पैसे जेब में डाल लाया।
कचहरी का माहौल मुरली को अभी पूरी तरह नहीं उबा पाया है। वह करीने से बाल संवारकर आता है। माथे पर हमेशा कभी सिंदूर का, कभी धूप-बत्ती की भभूत का और कभी चन्दन का छोटा-सा गोल टीका लगाये रहता है। खाकी वर्दी की कमीज में एक डायरी और पैन वह जरूर रखता है। इससे उसका रौब भी बढ़ जाता है। वह बीड़ी पीता है लेकिन अगर कोई वकील या मुवक्किल उसकी ओर सिगरेट बढ़ाता है तो वह झट से एक की बजाय दो निकालने को हो जाता है।
उसकी आवाज अर्दली लगने के बाद ऊँची हुई है या आवाज की इस विशेषता के कारण ही वह यहाँ इस जगह लगाया गया है, यह वह खुद भी नहीं जानता। वह केवल इतना जानता है कि अब उसकी आवाज से कचहरी का पत्ता-पत्ता वाकिफ है। अधेड़ उम्र तक आते-आते उसे काफी कायदे-कानून भी याद हो गये हैं। बदलकर आये नये जज के साथ दो-तीन महीने काम करने के बाद वह मुकद्दमे और वकील की जानकारी के आधर पर बता देता है कि फैंसला किस पार्टी के हक में जाने की उम्मीद है। मुकद्दमों की तफसील तक जाने की उसकी आदत बेशक पहले से घट गयी है लेकिन क्लाइन्ट के कंधे पर थपकी देते आ रहे वकील और घबराहट में थूक निगलते, खँखारते, साथ-साथ चल रहे क्लाइन्ट की आँखों में वह झाँक लेता है जो कि वकील के सिखाये अनुसार अपने आपको झूठ बोलने के लिए तैयार कर रहा होता है।
वह हमेशा एक पैर बैंच पर और दूसरा नीचे लटकाकर बैठता है। उसके सिर पर लटके नोटिस बोर्ड पर रोज के मुकद्दमों की तरतीब का कागज चिपका होता है जिसे वह पढ़ नहीं सकता। भीतर साहब का रीडर जो भी कुछ कह देता है वह बाहर आकर यूँ का यूँ खूब ऊँची आवाज में दोहरा देता है, ‘फलाँ वल्द फलाँ बनाम फलाँ वल्द हाजिर हो!’ अभी तक वह तीन आवाजें लगा चुका है। दो को अगली तारीख मिल चुकी है। एक की भीतर जिरह चल रही है। पहले मुकद्दमे के बचाव पक्ष वाला आगे की तारीख चाहता था इसलिए वह उसे बीस रुपये दे गया जो कि वह निचली जेब में सरका चुका है। अब जो जिरह चल रही है इससे उसे और भी ज्यादा की उम्मीद है। इनमें से एक आसामी काफी जानदार है। अगर फैंसला उसके हक में चला गया तो सौ का नोट भी बन सकता है। सलीम आ गया है। मुरली को अच्छा नहीं लगा। इसके होते जो भी बनेगा, बाँटना पड़ेगा। फिर भी वह थोड़ा एक ओर सरक गया है। अपना थैला एक ओर रखकर सलीम बैठ गया है। सलीम कारिन्दा है। वह सम्मन बाँटने जाता है। उसे भी अच्छे बन जाते हैं। एक-दूसरे के पूछने पर कि आज कितने बने, दोनों झूठ बोल जाते है। आमतौर पर दोनों का एक ही बना-बनाया वाक्य होता है, ‘पता नहीं आज किसका मूँह देखा था, कोई आसामी नहीं फँसी।’ यूँ भी उनकी कोशिश रहती है कि इस तरह की पूछताछ की नौबत ही ना आये। इसलिए वे दोनों एक-दूसरे से वाहियात मजाक करने लगते हैं। लेकिन आज मजाक का सिलसिला नहीं चल सका क्योंकि सलीम को देखते ही मुरली गम्भीर हो गया है। वह सलीम के चेहरे पर देखे जा रहा है जैसे कुछ पढ़ रहा हो। उसने जेब से वकील की दी हुई सिगरेट निकाली और सलीम की ओर बढ़ा दी। सिगरेट देखकर वह हमेशा खुश होता है। सिगरेट सुलगाते सलीम के चेहरे पर नजरें गड़ाये-गड़ाये ही पूछा, ‘कोई प्लाट देखा या बना-बनाया लेने की सलाह बन गयी है ?’
सलीम शुरू-शुरू में मुरली से प्लाटों का भाव पूछा करता था। अर्बन एस्टेट से शुरू कर हाउसिंग बोर्ड स्कीम या शहर के भीतर से होता हुआ वह जल्दी ही गैरकानूनी ढंग से विकसित की जा रही बस्तियों के किसी छोटे-मोटे, तिकोने या बदगुनिया, थोड़े से पैसों में मिल सकने वाले प्लाट पर आ गया था। वह भी केवल पड़ताल तक, ले नहीं पाया था। और अब तो वह स्वप्न में भी प्लाट लेने की नहीं सोच सकता। इसलिए उसने उदासीन भाव से कहा, ‘कहाँ के महल लेने थे पंडितजी! बापू की बीमारी में ही सब खर्च हो जाता है।’
मुरली को पता है उसका बापू काफी दिनों से बीमार है। वह उसके पास कुछ ना कुछ भेजता ही रहता है। आज सलीम ने यह भी बताया कि उनके घर में अब किस तरह  का झगड़ा रहने लगा है। घरवाली कहती है कि सारी की सारी तनखा अपने माँ-बाप के धड़ में उतार देता है, हम रूखी-सूखी खाते हैं। उधर बापू कहते हैं कि बेटा जोरू को ऐश करवाता है, हमें टाइम पर दवा भी नहीं मिलती। उसने लम्बी सांस भरी और कहा, ‘अब आप ही बताओ पंडितजी, बच्चे भी तो पढ़ाने ही हैं। ना पढ़ायें तो ससुरों को कोई सम्मन बाँटने वाला भी नहीं लगायेगा।
मुरली कुछ गम्भीर हुआ और बोला, ‘पढ़ाने के बाद ही कौन-सा जज लगेंगे। हमारा बड़ा बी.ए. करके यूँ ही घूम रहा है। हारकर एक ट्रैक्टर वर्कशॉप में छोड़ा है। फिर भी तेरी बात सही है भाई, पढ़ाने तो चाहिएं ही।’ इसके साथ ही मुरली को लगा जैसे बात कहीं और जा रही है। उसने बात को फिर सलीम पर ला टिकाया, ‘बैंक में तो कुछ जोड़ रखे होंगे ?’ पूछने के साथ ही उसने सच-झूठ को तोलने के लिए उसके चेहरे पर नजरें गड़ा दीं। उसे अपने बाप की बात हमेशा याद रहती है, "इन मुसलमानों को झूठ खपती है। ये हजार कसमें भी खायें तो विश्वास नहीं करना।"
‘अजी, यही तो हमारी घरवाली भी कहती है कि धेला तेरे पास नहीं, ना तू बच्चों के नाम से ही बैंक में कुछ करवाता, यूं काम कैसे चलेगा। भला पंडितजी, मुलाजम आदमी कहाँ जोड़ पाता है ? ऊपर से ससुरी ये महँगाई।’ सलीम के चेहरे की सादगी पर खीझ हावी होने लगी है। लेकिन मुरली की आँखों में अविश्वास अभी भी बना हुआ है। उसने कुछ और कुरेदने के लिए पूछा, ‘तेरी बहू के पास तो काफी जेवर होंगे? कुछ बेचकर प्लाट तो लिया ही जा सकता है।’
सलीम के चेहरे पर लाचारी उभरने लगी है। ‘सभी घरों में माटी के चूल्हे....आपस में क्या चोरी’ के साथ ही उसने बता दिया। उसके पास एक सोने की चेन थी। छोटे भाई को सरकारी महकमे में चपरासी की कच्ची नौकरी मिल रही थी, सो वह भेंट चढ़ानी पड़ी। घरवाली के पास एक जोड़ी कानों के झुमके थे, लड़का होने पर बहन को देने पड़े। अब तो उसके पास दो-चार छोटे-मोटे चाँदी के ही गहने पड़े हैं।’
सुबह से मुरली के दिमाग में मिक्सी भी घूम रही है। थोड़ी चुप्पी के बाद उसने पूछ ही लिया, ‘मिक्सी कौन-सी ले रखी है ?’
मुरली के इस सवाल से सलीम को हैरानी हुई। वह उखड़ने लगा और बोला, ‘क्या बात पंडितजी, आज ये कैसा मजाक उड़ा रहे हो मेरा ?’ सलीम को वाकई इससे ठेस पहुँची है, यह मुरली भी समझ गया। उसने सफाई दी, ‘नहीं सलीम भाई, बुरा मानने की बात नहीं। मैंने आज मिक्सी खरीदनी है इसलिए पूछा है कि कौन-सी अच्छी रहती है।’ मुरली अपनी सफाई से सलीम को सन्तुष्ट नहीं कर सका, क्योंकि वह खुद भी इससे सन्तुष्ट नहीं हुआ है। उसने कौन-सा आज मिक्सी खरीदनी है। सलीम ने उसी उखड़े लहजे में कहा, ‘तो फिर भीतर से कुरान शरीफ लाकर, उस पर हाथ रखकर अल्ला ताला को हाजिर नाजिर मानकर ब्यान दूँ या यूँ ही बता दूँ कि घर में कोई मिक्सी नहीं है। सिल-बट्टा जिन्दाबाद। अरे पंडितजी, कौन-सा रोज मसाला घोटना है। नूण-मिर्च ही तो बारीक करना होता है, सो ऊ अब पिसा-पिसाया ले आते हैं।’ कहकर सलीम हँसा। मुरली भी मुलाजम है। वह इस हँसी के मर्म को पहचानता है। सलीम को कटघरे में खड़ा करके जज की तरह ब्यान लेने के अपने ढ़ंग पर उसे शर्मिन्दगी महसूस हुई। लेकिन इसके बावजूद वह आश्वस्त होने की बजाय और उलझ गया। उसने अपना दूसरा पैर भी बैंच पर रख लिया। सलीम ने जेब से एक और सिगरेट निकालकर होठों में दबाई और पहले वाली सिगरेट के टोटके से उसे सुलगाने लगा। तभी घंटी बज गयी। इससे पहले कि मुरली नीचे पैर करे और चप्पल पहने, उसने टोटका फेंका, सिगरेट बैंच पर रखी और भीतर चला गया। मुरली को यह अच्छा लगा। सलीम काम के लिए कभी भी ना-नुकर या टालमटोल नहीं करता।
उसके अन्दर जाने के बाद मुरली सोचने लगा कि सलीम कहीं भी तो गलत नहीं लग रहा। खुद उसका ही कौन-सा ठीक से गुजारा हो पा रहा है। लेकिन सलीम का काम तो अच्छा होना चाहिए था। शुरू-शुरू में यह बताया करता था कि इसका बाप किसी नवाब का हज्जाम था। ‘‘नवाब अपनी ससुराल में भी अब्बा हजूर को साथ लेकर जाते थे। क्या सफाई और नजाकत थी जनाब उनके हाथों में! एक बार दाढ़ी ठीक करवाते-करवाते नवाब साहब की आंख लग गयी। काफी देर बाद जब उनकी आंख खुली तो अब्बा हजूर को याद किया। गुस्से में बोले कि वह अभी तक पहुंचे क्यों नहीं ? वहाँ खड़े कारिन्दों ने बताया कि हजूर, वो तो दाढ़ी बनाकर कब के जा चुके। नवाब ने दाढ़ी पर हाथ फिराया, आईना देखा तो हैरान। इतनी नजाकत। नींद में रत्तीभर भी खलल नहीं पड़ा ? बस जी, फिर क्या था! तभी बुला भेजा अब्बा हजूर को, शाही सवारी भेजी थी जी, लिवा लाने के लिए। अब्बा हजूर परेशान। जरूर कहीं कोई गुस्ताखी हुई है। डरते-डरते जाकर आदाब बजाया तो नवाब ने हीरों जड़ी अपनी माला उनकी ओर फेंक दी। बस जनाब, तब से नवाब साहब को और किसी का हाथ भाया ही नहीं। एक अंग्रेज अफसर ने तो नवाब साहब से अब्बा हजूर को माँग ही लिया था, कहा कि हम इन्हें बरतानिया लेकर जायेगा। लेकिन नवाब ने भी साफ इन्कार कर दिया, तुम हमारी रियासत ले लो लेकिन हमारे हज्जाम को मत छीनो।’’ सोचते-सोचते ही मुरली की हँसी छूटने को हो गयी। उसका दिल किया कि क्यों ना मजाक-मजाक में सलीम से नवाब की दी हुई हीरों की माला के बारे में पूछा जाये कि वो कहाँ गयी ? लेकिन उसे अपना यह विचार त्यागना पड़ा, क्योंकि कभी सलीम भी उससे इसी तरह का कोई सवाल कर सकता है। मुरली कई बार चाय वाले राजपूत के हाथों भी खिसियाना बन चुका है। वह हरेक बात ठठ्ठे में लेता है। जब भी वह अपने कुल, खानदान, बाप-दादा की बातें कर रहा होता है तो राजपूत आँखों ही आँखों से व्यंग्य करता रहता है। खुद साला पता नहीं किस जात का है। कोई भी ऐरा-गैरा लम्बी-लम्बी मूँछें बढ़ाता है और कहने लगता है अपने आपको.....! मुरली को अपने बाप पर गुस्सा आता है कि वो सच्ची-मुच्ची का सिद्ध पुरुष क्यों नहीं रहा।
मुरली का बाप गंगा के किनारे एक घाट पर अंगोछा बिछाकर बैठता था। अर्पण, तर्पण, पिण्ड, मुण्डन जो भी फँसा करवा देता था। साँझ तक मुश्किल से परिवार के गुजारे लायक आटा-चावल ही जुटा पाता था। वह बेहद सुस्त लेकिन जीभ का चटोरा था। माँ का झगड़ा ज्यादा तो उसके चटोरेपन को लेकर ही होता था। एक दिन गरीबी और झगड़े से तंग आकर उसने गंगा में छलाँग लगा दी। अब मुरली यह सब कैसे बताये। वह तो बात चली पर हमेशा बैंच पर पालथी मारकर गर्व से सुनाने लगता है, ‘पिताजी गंगा मैया के भक्त थे। बहुत से लोगों ने खुद गंगा मैया को उनके मुँह से बोलते सुना था। उनकी इस सिद्धि की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी थी। एक बार महाराजा पटियाला तीर्थ करने आये तो सीधे घाट पर पिताजी के पास पहुँचे। पिताजी ने उनके पितरों की सुध-बुध गंगा मैया के मुँह से सुनवायी थी। महाराजा बहुत खुश हुए। उन्होंने पिताजी के चरण पकड़ लिए। बोले, पंडितजी चलो हमारे साथ। आपकी जगह यहाँ नहीं, हमारे दरबार में है। लेकिन उन्होंने कहाँ मानना था जी। उल्टी ब्रह्म खोपड़ी। बोले, मैं गंगा मैया को नहीं छोड़ सकता। और एक दिन इसी मोह के कारण गंगा मैया ने उन्हें अपनी गोद में ले लिया। घाट की सीढ़ी पर बैठे गंगा मैया-गंगा मैया पुकारने लगे कि एक लहर-सी उठी और अपने साथ ले गयी। सब हैरान हो गये जी। कुछ लोग ढूँढने भी लगे, मैं भी काफी दूर तक देखने गया, लेकिन वो कहीं दिखायी नहीं दिये। एक वृद्ध पंडे ने कहा कि बावलो! किसे ढूँढ रहे हो ? खुद गंगा मैया को गंगा मैया में ढूँढ रहे हो। वो इसी का अंश था, सो इसी में मिल गया। वो अपनी मर्जी से समाया है इसमें। ऐसी गति कहाँ मिलती है जी आजकल किसी को ? शिवोम्-शिवोम्। जय गंगा मैया।’
मुरली इस सबको भूलना चाहता था। लेकिन अब तो उल्टे उसे सन्तुष्टी मिलने लगी है। वह कई बार सोचता है कि शुक्र है एक पंडे ने माँ की काफी मिन्नतों के बाद यहाँ लगवा दिया, वर्ना तो आज वहीं घाट पर अंगोछा बिछाकर बैठना पड़ता। उसका हाल कहीं भी तो सलीम से बेहतर नहीं। फिर सलीम कहाँ झूठ बोल रहा है ? उसके पास भी तो बैंक में कुछ नहीं है। घर में जेवर भी नहीं बचा है। एक छोटा-सा घर भी वह अब बना पाया है। वह भी कुछ कर्जा चढ़ाकर। एक तो कर्जे की फिक्र, गुजारा वैसे ही नहीं हो पा रहा और ऊपर से बच्चों की फरमाइशें। आज पाँच सौ दिख गये तो मिक्सी की फरमाइश कर दी। जबकि ये पाँच सौ रुपये बख्शीश नहीं है। सीधे-सीधे रिश्वत है, जिसको लेकर वह सुबह से उलझन में है।
रात कोई खन्ना आया था। उसके साथ यहाँ का क्लर्क था। वही लेकर आया था। खन्ना पास के ही कस्बे का है। उसकी ड्राईक्लिनिंग की दुकान है। उसके पास युनुस नाम के एक मुसलमान ने अपना मकान गिरवी रखा हुआ है। युनुस का लड़का काफी सालों से खन्ना की दुकान पर काम कर रहा था। वह रफूगिरी में माहिर है। उसने पिछले साल बैंक से लोन लेकर अपनी खुद की दुकान कर ली। उसकी कारीगरी की वजह से दुकान जल्दी ही चल निकली। अपना घर छुड़वाने के लिए उसने दो-तीन किस्तें बैंक की रोकीं, कुछ और जोड़-घटा किया और पूरे पैसे लेकर खन्ना के पास पहुँचा। लेकिन खन्ना ने पैसे नहीं पकड़े। उल्टे उसने युनुस के लड़के को जल्दी ही घर खाली कर देने को कहा। उसने बताया कि उन्हें जल्दी ही वकील का नोटिस भी मिल जायेगा।
उसी केस की आज सुनवाई है। खन्ना ने काफी भाग-दौड़ की है। क्योंकि केस में कोई खास दम नहीं है और फैंसला युनुस के हक में जाने की ज्यादा संभावना है इसलिए उसने मुरली को पाँच सौ रुपये दिये। बदले में मुरली को केवल इतना करना है कि उसे खन्ना बनाम युनुस की आवाज ही नहीं लगानी। इससे फैंसला एकतरफा यानि युनुस को गैरहाजिर मानकर खन्ना के हक में हो जायेगा। खन्ना ने मुरली को यह भी बताया कि उसने युनुस के वकील से भी सब तय किया हुआ है। वह कोई भी पूछताछ या शिकायत नहीं करेगा। इस तरह सारा दारोमदार मुरली पर आ गया।
मुरली ने खन्ना और उसके नोटों के प्रति कोई उत्साह नहीं दिखाया था। लेकिन जब खन्ना ने कहा कि आप हमारे हिन्दू भाई हो पंडितजी। आप देखना अगर यही हाल रहा तो हमारे पास एक दिन घर बनाने को भी जगह नहीं बचेगी। हमारे लड़के बेकार घूमेंगे। जहाँ देखोगे मुसलमान होंगे। अफसर मुसलमान, कोठियाँ मुसलमानों की, फैक्ट्रियाँ व दुकानें मुसलमानों की। हम लोग पाप-पुण्य से डरते रहते हैं और ये लोग झूठ बोल-बोलकर हमसे आगे निकलते जा रहे हैं।
‘झूठा! मक्कार!’ मुरली के मुँह से निकला और उसने उठकर वकीलों-मुवक्किलों की भीड़ में दूर तक नजर दौड़ायी। उसे लगा कि दूर जो एक बूढ़ा-सा आदमी बैंच पर बैठा घबराया-2 इधर-उधर देख रहा है वह जरूर युनुस होगा। ‘कितनी मुश्किलों से बनायी होगी इसने एकाध कोठड़ी।’ यह सोचने के साथ ही उसका हाथ जेब में चला गया। जैसे कि वह ये पैसे अभी निकाल फेंकेगा। लेकिन उसका हाथ रुक गया। ‘पूरे पाँच सौ रुपये।’ उसे लालच भी आ रहा है। उसका दिमाग तेजी से काम करने लगा। विकल्प के बाद विकल्प उसके सामने आने लगे, जैसे ही खन्ना आवाज पर आये, ये पैसे यूँ के यूँ उसके हाथ में थमा दिये जायें। या, उसे दो सौ वापिस करदे और कहदे कि उसके दिल में जो आये सो कर ले। उसके हिस्से में इतने ही आये। बाकी वह बाँट चुका है। वह क्या बिगाड़ लेगा ? या, वह सलीम से आवाज लगवा दे और उसे सौ रुपये देकर कहीं खिसक जाये। खन्ना मिलेगा तो कहा जा सकता है कि साहब ने कोठी पर काम से भेज दिया था। यही ठीक रहेगा। सलीम कह भी रहा था कि उसने बापू को पैसे भेजने हैं लेकिन तंगी की वजह से वह भेज नहीं पा रहा।
सलीम अन्दर से आकर उसके पास बैंच पर बैठने लगा तो मुरली उसकी बाँह पकड़कर खड़ा हो गया और खम्बे की ओट में ले गया। हल्की-सी दुविधा के बाद उसने सौ की बजाय उसे दो सौ थमाये और पूरी बात समझाकर खुद तेजी से चाय की दुकान की ओर बढ़ गया।
दुकान के आगे पेड़ की छाँव के नीचे काफी ग्राहक बैठे हैं। वह भीतर अकेला ही जा बैठा और चाय के लिए बोल दिया। उसका सारा ध्यान युनुस के घर पर लगा है। उसके दिल से बार-बार एक ही दुआ निकल रही है कि सिर छुपाने लायक छत तो भगवान सबको दे। चाय आने पर इच्छा ना होते हुए भी वह पीने लगा है। उसने चाय का कप रखा और जेब से पैसे निकालकर गिनने लगा है, कहीं सलीम को दो सौ की बजाय तीन सौ ना दे दिये गये हों। एक-दो-तीन, ठीक है। दो सौ ही दिये हैं। राजपूत ने उसे नोट गिनते और जेब में डालते देखकर इशारे से ही पूछा है, आज कौन फँसा ? मुरली ने भी कप रखकर अपनी छाती की ओर इशारा करके बताया कि कोई नहीं फंसा। उसकी खुद की कमाई के हैं। इस पर राजपूत ने हँसकर कहा, ‘क्यों नहीं, सच बोलेगा तो बामण खायेगा क्या ?’
मुरली ने उसके मजाक का कोई जवाब नहीं दिया क्योंकि उसका ध्यान बँटा हुआ है। उसे चिन्ता हो रही है कि कहीं सलीम की आवाज यहाँ के शोर में दब ना जाये। खन्ना ने कहीं रीडर को भी पटा लिया हो और वह सलीम को इशारे से ही आवाज ना लगाने की हिदायत दे दे। उसे समझा तो खूब अच्छी तरह दिया था। चिन्ता वाली कोई बात होनी तो नहीं चाहिए। वैसे भी उसकी गैरहाजिरी में सलीम ही सब संभालता है।
चाय खत्म हो जाने के बाद से वह यूँ ही सोचते-सोचते बैंच पर दो बार पैर बदल चुका है। उसने चाय के पैसे दिये और बीड़ी सुलगा ली। तभी उसके कानों में खूब कड़ाकेदार आवाज गूँजी, "खन्ना बनाम युनुस खान हाजिर हो!"
मुरली के चेहरे पर सन्तुष्टी की मुस्कान उभरी। वह बड़बड़ाया, ‘ले युनुस बाबा, मैंने तो तेरा घर बचा दिया है, अब आगे तेरी लड़ने की हिम्मत।’ तभी वह हड़बड़ाकर इस तरह उठा जैसे कि उसे साहब ने ऊँघते हुए देख लिया हो। उसने झटपट चप्पल फँसाई और भागने की तरह दुकान से निकला। राजपूत हैरान-सा उसकी ओर देखता रह गया। ग्राहकों को चाय पकड़ाता लड़का, थोड़ी दूरी पर बैठे वकील, टाइप कर रहे मुंशी, उचक-उचककर देखने लगे कि यह मुरली पंडित को अचानक क्या हो गया है ? इस तरह भागा क्यों जा रहा है? मुरली बिना इधर-उधर देखे बिल्कुल दौड़ने की तरह चल रहा है। उसके दिमाग में एक ही बात आ रही है कि पहली पेशी वाला जिसकी जिरह चल रही थी, सलीम को काफी दे गया होगा। हो सकता है सौ का नोट ही दे गया हो। कहीं वह सारे के सारे अकेला ही गटक जाये और उससे झूठ बोल दे कि बस पाँच रुपये ही बने।
वह और भी तेज-तेज चलने लगा।

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