Sunday 12 July 2020

राजनीति




अमेरिका चीन द्वंद्व
गरीब देशों की करड़ाई

(आने वाले समय में जैसे-जैसे अमेेरिका और चीन के बीच वर्चस्व की लड़ाई तेज होगी वैसे-वैसे दुनिया को नए-नए संकटों से जूझना पड़ेगा। असल में पूंजीवाद का अंत ही इन समस्याओं का स्थायी समाधन है।)




एक हरियाणवी कहावत है कि "झोटों की लड़ाई में नुकसान घास का ही होता है।"  वर्तमान अंतर-राष्ट्रीय परिस्थितियों में यह कहावत बिल्कुल सही चरितार्थ होती है। पिछले एक दशक से अमरीका और चीन के बीच जो खिंचतान चल रही है, वह दुनिया को न केवल एक नए आर्थिक-राजनीतिक संकट की ओर धकेल रही है बल्कि नए सामरिक द्वंद्वों की ओर भी धकेल रही है।
20वीं सदी का उत्तरार्द्ध शीत युद्ध के रूप में इतिहास में दर्ज है। अमेरीका और सोवियत संघ के बीच पिस रही दुनिया कई बार विश्व युद्ध के मुहाने पर खड़ी नजर आयी। सोवियत संघ के पतन के बाद अमरीका दुनिया की एकमात्र महाशक्ति रह गया। तब अमरीका में 'इतिहास का अंत' जैसे अवैज्ञानिक सिद्धांत सामने आए। उत्तर आधुनिकतावाद के रूप में दुनिया को नया दर्शन देने का प्रयास हुआ और दावा किया गया कि मार्क्सवाद की मौत हो गयी है।
लेकिन तीस साल से भी कम समय में पुनः मार्क्सवाद सही साबित हो रहा है। पूंजीवाद का विकास असमान तरीके से होता है। कोई एक देश कभी भी हमेशा के लिए दुनिया में एकछत्र राज नहीं चला सकता। चीन ने जल्दी ही अमरीका को चुनौती देनी शुरु कर दी। वर्तमान में चीन अमेरीका का सबसे बड़ा कर्जदाता है और उसके विदेशी बांड सबसे ज्यादा चीन के पास हैं। अमेरीका का चीन के साथ व्यापार घाटा 300 अरब डॉलर से ज्यादा का हो चुका है। चीन के पास दुनिया की सबसे बड़ी सेना है। इनके साथ चीन ने अमेरीका के एकमात्र महाशक्ति के सिंहासन को हिला दिया है।
मार्क्सवाद कहता है कि पूंजीवाद का अर्थ है युद्ध। ये युद्ध व्यापार युद्धों से शुरु होते हैं और अंतिम निर्णय सामरिक युद्धों से तय होता है। पूंजीवाद के लिए दुनिया की हर चीज माल होती है। उसके लिए दया-धर्म, मानवता, परस्पर सहयोग, पर्यावरण रक्षा जैसी बातों के कोई मायने नहीं होते। मुनाफा उसके लिए सबसे बड़ा धर्म होता है। अमेरीका और चीन दोनों के लिए यह बात सच है।
अमरीका और चीन के बीच बेहद तीखा व्यापार युद्ध चल रहा है। इसमें दोनों ही अपने अपने पैंतरें चल रहे हैं और एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। इस व्यापार युद्ध की जडें पूंजीवादी व्यवस्था के निहित चरित्र में ही छिपी हैं। प्रत्येक पूंजीपति दुनिया के बाजारों के बड़े से बड़े हिस्से पर अपना कब्जा कायम करना चाहता है। और इसके लिए साम-दाम-दण्ड-भेद हर नीति का सहारा लेता है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब पुरानी साम्राज्यवादी शक्तियां जैसे इंग्लैंड, जर्मनी, पुर्तगाल और स्पेन धूल चाट रही थी और अमेरीका दुनिया के नक्शे पर नयी शक्ति बनकर उभर रहा था, तो अमेरीका अपने हिसाब से एक नई दुनिया का निर्माण करने लगा। उस वक्त उसने मुक्त अर्थव्यवस्था का सिद्धांत दिया जो उसके अनुकूल था। स्वाभाविक है कि एक कार सवार और साइकल सवार के बीच दौड़ करवाई जाए तो जीत कार सवार की ही होगी। उसने इस गैर-बराबरी की दौड़ को मुक्त अर्थव्यवस्था का नाम दिया जो 90 के दशक में विश्व व्यापार संगठन के रूप में सामने आया।
इस बीच चीन समाजवादी रास्ते को छोड़ कर पूंजीवादी मार्ग पर आगे बढ़ने लगा। चीन के विशालकाय बाजार को नियंत्रित करने का सपना लेकर बहुत सी अमेरीकी और यूरोपीय कंपनियों ने चीन में पूंजी निवेश किया। चीन की सरकार ने विशेष आर्थिक क्षेत्र बना कर अपने मजदूरों का भयंकर शोषण शुरु कर दिया। नाममात्र की मजदूरी पर आटोमेटिक मशीनों पर 12 से 16 घंटे काम करते हुए इन मजदूरों ने बेहद सस्ता सामान पैदा किया जिसे बाजारों में उतार कर चीनी और दूसरे पूंजीपतियों ने खूब मुनाफा कमाया।
साल 2001 में चीन विश्व व्यापार संगठन का हिस्सेदार देश बन गया। चीन ने इसका फायदा उठाया और उत्पादन में आशातीत वृद्धि शुरु कर दी। और देखते ही देखते चीन अमेरीका का ताकतवर प्रतिभागी बन गया। पहले चीन ने अफ्रीकी देशों के बाजारों पर कब्जा किया और फिर धीरे-धीरे अमेरीकी बाजार में भी घुसपैठ कर गया। वर्तमान में स्थिति यह है कि अमेरीकी बाजार चीनी सामान से भरे पड़े हैं। द्विपक्षीय व्यापार चीन के पक्ष में जाने से अमेरीका में साल 2001 से 2011 के बीच 27 लाख नौकरियां खत्म हो गयीं। यही स्थिति कमोबेश अन्य देशों के साथ भी है। इस प्रकार पिछले दो दशकों के दौरान चीन ने अमेरीका को अंतर-राष्ट्रीय बाजार में पटखनी दे दी है।
अमेरीका ने सदैव 'अमेरीका प्रथम' की नीति पर काम किया है। जो नीति अमेरीकी हितों की सेवा नहीं करती, अमेरीका ने उसे गैर जनवादी और जन विरोधी नीति के रूप में चिन्हित किया है। अंतर-राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक अमेरीका के हितों के अनुरूप चलते रहे हैं इसलिए अमेरिका का सरंक्षण पाते रहे है। लेकिन जब से चीन ने अपने पंख पसारे हैं उसने अमरीका की नाक के नीचे एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इनवेस्टमेंट बैंक (AIIB) और ब्रिक्स का न्यू डवलपमेंट बैंक शुरु कर दिया। इसने विकासशील देशों में चीनी प्रभुत्व को बढ़ाने का रास्ता खोल दिया। यह अमरीका को मंजूर नहीं था।
जब अमेरीका के पास चीन को पटखनी देने का कोई और रास्ता नहीं मिला तो उसने उन्हीं तौर तरीकों को अपनाया जिनका वह आज तक विरोध करता आया था। मुक्त बाजार के नाम पर आज तक तो वह देशों की सीमाएं वस्तुओं और सेवाओं के लिए खोलने, आयात शुल्क कम करने, मालों के निर्बाध प्रवाह की बात करता था। लेकिन साल 2018 में उसने चीन से आने वाले एल्युमीनियम और स्टील के मालों पर अतिरिक्त शुल्क लगा दिया। इसकी प्रतिक्रिया में चीन ने भी 128 अमेरीकी मालों पर अतिरिक्त टैक्स लगा दिया। कुल जमा परिणाम यह हुआ कि इससे अमरीकी निर्यात में 11 अरब डॉलर की जबकि चीनी निर्यातों में 4 अरब डॉलर की कमी आ गयी। सितंबर 2018 तक अमेरीका ने 250 अरब डॉलर के चीनी सामान पर आयात शुल्क बढ़ा दिया। अगर अमेरीकी-चीनी व्यापार युद्ध और तेज हो गया तो इस बात की संभावना व्यक्त की जा रही है कि वैश्विक निर्यातों में 674 अरब डॉलर की कमी आ जाएगी और वैश्विक आय में 1400 अरब डॉलर की। इस कमी का आधे से ज्यादा प्रभाव विकसित देशों में होगा जिसका सीधा असर गरीब देशों की गरीब जनता पर पड़ने वाला है। अमेरीकी-चीनी व्यापार युद्ध का अर्थ है कि गरीब देशों की हजारों फैक्ट्रियों को ताला लग जाएगा। करोड़ों लोग भुखमरी की कगार पर पंहुच जाएंगे।
दुनिया अभी आर्थिक मंदी के दौर से निकली भी न थी कि कोरोना महामारी ने स्थिति को और ज्यादा विकराल बना दिया। पहले अर्थव्यवस्था का पहिया अगर धीमे चल रहा था तो कोरोना ने इस पर पूरी तरह ब्रेक लगा दिया। अमरीका और चीन का व्यापार युद्ध इस पर और कितना कहर ढा सकता है, ऊपर दिए आंकड़े इस बात को समझने के लिए काफी हैं।
कोरोना महामारी ने चीन और अमेरीका के बीच इस तनाव को और ज्यादा बढ़ा दिया है। अमेरीका आरोप लगा रहा है कि यह वायरस चीन की प्रयोगशाला में पैदा हुआ है जबकि चीन का कहना है कि यह अमरीका के जैविक युद्ध का एक हिस्सा है जिसे अमरीकी एजेंसियों ने चीन में छोड़ा है।
चीन ने इस महामारी के दौरान भी अपने रुतबे को बढ़ाया है। जब अमेरीका यूरोपीय देशों के लिए अपने दरवाजे बंद कर रहा था, उस वक्त चीनी सरकार ने घोषणा की कि वह इटली में अपने स्वास्थ्य कर्मियों की टीम और उपकरण भेज रहा है। उसने इरान और सर्बिया में भी मदद भेजी। चीन ऐसा किसी दरियादिली की वजह से नहीं कर रहा है। वह दुनिया में न केवल आर्थिक बल्कि राजनीतिक, सामरिक और सामाजिक स्तर पर भी अपना रूतबा कायम कर रहा है। इसलिए वैश्विक संस्थानों में उसकी दखलअंदाजी बढ़ती जा रही है। इसका नवीनतम उदाहरण विश्व स्वास्थ्य संगठन है। जब तक यह संस्था अमेरीकी नेतृत्व के अनुसार काम करती रही तब तक अमेरीका के लिए सब ठीक था लेकिन पिछले कुछ समय से चीन का नियंत्रण ज्यादा होने के बाद अमेरीका की बैचेनी बढ़ गयी और उसने विश्व स्वास्थ्य संगठन को हर प्रकार की वित्तीय सहायता देने से मना कर दिया।
इसका दुष्परिणाम सर्वाधिक गरीब देशों पर पड़ने वाला है। अगर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पैसा जुटाने के वैकल्पिक तरीके नहीं खोजे या अमेरीका ने अपना फैसला वापिस नहीं लिया तो दुनिया में बहुत से कार्यक्रम जैसे टीकाकरण, तपेदिक नियंत्राण कार्यक्रम आदि पर बुरा प्रभाव पड़ने वाला है।
अमेरीका-चीन द्वंद्व भारत के लिए किस प्रकार नुकसानदायक है, इसका उदाहरण 16 जून को सीमा पर हुआ विवाद है जिसमें 20 भारतीय सैनिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी। पिछले दो दशकों के दौरान भारत वैश्विक पटल पर अमेरीकी खेमें में शामिल माना जाता है। जबकि चीन भारत में अपने हितों के लिए ज्यादा हस्तक्षेप चाहता है। हालांकि ब्रिक्स जैसे संगठन मौजूद हैं लेकिन इसके बावजूद भारत अमेरीका पक्षीय रुख के लिए जाना जाता है। भारत-चीन सीमा पर जो हो रहा है, वह असल में चीन-अमरीकी द्वंद्व का नतीजा है जिसमें भारतीय फौजी बलिवेदी पर कुर्बान किए जा रहे हैं।
आने वाले समय में जैसे-जैसे अमेरीका और चीन के बीच वर्चस्व की लड़ाई तेज होगी वैसे-वैसे दुनिया को नए-नए संकटों से जूझना पड़ेगा। असल में पूंजीवाद का अंत ही इन समस्याओं का स्थायी समाधन है। 

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