(साथियों, यह एक लंबा लेख है, जिसे हर उस इंसान को पढ़ना चाहिए जो बेहतर दुनिया बनाने के सपने देखता है। यह लेख इसलिये महत्वपूर्ण बन जाता है कि हम पढ़ते हुए पाएंगे जिस दुनिया को हम बेहतर बनाना चाहते हैं, उस दुनिया को हम कितना जानते हैं। हमें उस क्षेत्र विशेष में रह रहे लोगों की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक समझ कितनी है और वह समझ होना क्यों जरूरी है?)
एकता और संघर्ष
(नवंबर 1969 में कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण शिविर में दिया गया भाषण ।)
हमारी पार्टी और हमारे संघर्ष का पहला सिद्धांत है, जिसे हम सभी जानते हैं "एकता और संघर्ष"। जाहिर सी बात है कि इस अत्यंत साधारण सिद्धांत के बुनियादी अर्थ का अध्ययन करने के लिए हमें यह अच्छी तरह समझना होगा कि एकता क्या है और संघर्ष क्या है? इसके साथ ही हमें एकता के सवाल को और संघर्ष के सवाल को एक खास संदर्भ में देखना होगा। खास संदर्भ का अर्थ यह है कि इसके लिए हमें उस भौगोलिक परिदृश्य को देखना होगा और उस समाज के सामाजिक और आर्थिक जीवन तथा पर्यावरण को देखना होगा, जिसमें हम एकता और संघर्ष के इस सिद्धांत को लागू करना चाहते हैं।
एकता है क्या? हम बहुत स्पष्ट तौर पर इस अर्थ में एकता को ले सकते हैं, जिसे कोई स्थिर या एक जगह रूकी हुयी अवस्था माने या इसे कुछ संख्या तक सीमित रखे। मिसाल के तौर पर अगर हम सारी दुनिया में उपलब्ध बोतलों को समग्र रूप में देखें तो एक बोतल एक इकाई है। अगर हम इस हॉल में बैठे हुए सभी लोगों को समग्रता में देखें तो इसमें कामरेड डेनियल बरेतो एक इकाई है। तो क्या जब हम पार्टी सिद्धांत के बारे में किसी इकाई अथवा एकता की बात करते हैं तो हमारी दिलचस्पी बस इसी में होती है? ऐसा है भी और नहीं भी है। यह उस सीमा तक है, जब तक हमारी यह चाह होती है कि विभिन्न तरह के व्यक्तियों के इस समूह का रूपांतरण सुपरिभाषित इकाई में कर दें, जो एक ही रास्ते पर बढ़ने के लिए तैयार हों। यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि समग्रता में अलग-अलग तत्व शामिल हैं। इसे यूं भी कह सकते हैं कि अपने सिद्धांतों के अंतर्गत एकता का जो अर्थ हम लेते हैं, वह इस प्रकार है: मौजूदा भेदभाव चाहे कैसे भी क्यों न हो, लेकिन निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हमें एक होना होगा, समग्रता में रहना होगा। इसका अर्थ हमारा सिद्धांत यह है कि एकता को एक गतिशील अर्थ में ही रखा जा सकता है।
हम कुछ मिसाल देखें- मसलन एक फुटबॉल की टीम को ही ले लीजिए। इसमें 11 लोग होते हैं, जिनसे टीम का निर्माण होता है। खेलते समय हर व्यक्ति की अलग-अलग जिम्मेदारी तय होती है। हर व्यक्ति एक दूसरे से भिन्न है। सबका अलग अलग मिजाज है, अलग अलग शिक्षा-दीक्षा है। कुछ ऐसे भी हैं, जो लिख पढ़ नहीं सकते। टीम में कोई डॉक्टर के और कोई इंजीनियर के पेशे से जुड़ा हुआ है। सब के अलग-अलग धर्म भी हो सकते हैं- कोई मुसलमान हो सकता है, तो कोई इसाई। इतना ही नहीं राजनीतिक धरातल पर भी वे अलग-अलग सोच के हो सकते हैं। हो सकता है पुर्तगाल की राजनीतिक व्यवस्था में कुछ लोग यथास्थिति बनाए रखने के समर्थक हों और कुछ इस विचार के विरोधी हों। मतलब यह कि जो भी लोग हैं, वे एक दूसरे से भिन्न हैं और उनकी भावनाएं भी एक दूसरे से अलग हैं, लेकिन यह सभी लोग एक ही टीम के सदस्य हैं। अगर खेलते समय इन सभी तत्वों के बीच एकता का प्रदर्शन न हो तो उन्हें सफलता नहीं मिलेगी और वह फुटबॉल टीम नहीं रह जाएगी। जितने भी लोग हैं, वे अपने व्यक्तित्व, अपने विचार, अपने धर्म, अपनी निजी समस्याएं यहां तक कि खेलने की अपनी खास शैली को बनाए रख सकते हैं, लेकिन इन सबको समान रूप से एक बात का ध्यान रखना ही होगा कि प्रतिद्वंदी के मुकाबले उन्हें हर हाल में गोल करना है। इसके लिए उन्हें एक तरह की एकजुटता बनाकर रखनी होगी। अगर वैसा नहीं कर पाते हैं तो वे सफल नहीं हो सकते। एकता का यह एक शानदार उदाहरण है।
एक दूसरे उदाहरण पर भी गौर करें। एक औरत है, जो फलों से लदी हुई एक टोकरी अपने सिर पर लेकर बेचने जा रही है। आपको यह नहीं पता कि इस टोकरी में कौन-से फल हैं। असमें आम भी हो सकते हैं और केले, अमरुद या पपीता इत्यादि। लेकिन हमारी सोच में वह एक समग्रता के साथ आ रही है, जिसमें एक तरह की एकता का प्रतिनिधित्व है-- सिर पर एक टोकरी जो फलों से भरी है। संख्या की दृष्टि से भी अगर देखें तो इसमें एक एकता दिखाई देती है। अंदर से भले ही उस टोकरी में अलग-अलग तरह के फल क्यों न हों, लेकिन बाहर से देखने पर अर्थात वस्तुगत तौर पर, वह एक एकता का प्रदर्शन है।
इससे आपको यह आभास मिल गया होगा कि एकता का मतलब क्या है और यह भी पता चल गया होगा कि एकता का सिद्धांत मूलत: अलग-अलग चीजों की विभिन्नता में है। अगर यह भी विभिन्नता न होती तो जरूरी नहीं कि एकता संभव हो पाती। इसलिए हमारे खयाल में एकता दरअसल है क्या? वह कौन सा मकसद है, जिसके इर्द-गिर्द हमें अपने देश के अंदर एकता की जरूरत है? जाहिर सी बात है कि हम न तो कोई फुटबॉल टीम हैं और न फलों से लदी हुई टोकरी। हम जनता हैं, जनता के सदस्य हैं, जो इतिहास की एक खास अवस्था में अपने रास्ते के लिए एक ख़ास दिशा चुनते हैं, लोगों के जीवन से संबंधित कुछ मुद्दों को उठाते हैं, लोगों के कार्य की एक दिशा निर्धारित करते हैं, कुछ सवाल उठाते हैं और कुछ के जवाब तलाशते हैं। हो सकता है यह सारा काम अकेले कोई एक व्यक्ति संभाल रहा हो या इसे संभालने वाले 2-3-6 व्यक्ति हों। काम के दौरान एक खास चरण में हमारे दिमाग में एकता की बात पैदा हुई। हमारी पार्टी ने इतनी दूर तक देखा और सारी समस्या को इतनी अच्छी तरह समझा कि इसने एकता और संघर्ष को अपने कार्य की मुख्य बुनियाद मान लिया।
अब एक दूसरा सवाल पैदा होता है-- क्या यह एकता जो आवश्यकता की वजह से हमारे बीच पैदा हुई और इस वजह से भी, क्योंकि हमारे विचार राजनीतिक दृष्टिकोण से भिन्न थे। ऐसा नहीं है। हम अपने देश में राजनीति के साथ उछल कूद करने के अभ्यस्त नहीं हैं। हमारे यहां कोई पार्टी नहीं थी। चूंकि हमारे यहां विदेशी प्रभुत्व था, इसलिए हमारा समाज भी बड़े निर्धन तरीके से विकसित हुआ था। अब आप गिनी और केप वर्डे को ही देख लें, जहां व्यक्तियों की हैसियत के बीच बहुत बड़ा फर्क नहीं है। (हालांकि हमने यह भी देखा है कि कुछ फर्क है) और इसलिए उनके बीच राजनीतिक मकसद को लेकर बहुत अलग तरह के विचार नहीं हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि एकता का मसला इस अर्थ में नहीं है की विभिन्न व्यक्तियों और राजनीतिक मकसद तथा राजनीतिक कार्यक्रम को लेकर उनके विचारों के बीच फिर से कोई एकता स्थापित की जाए। दरअसल हमारे समाज का जो ढांचा है और हमारे देश का जो यथार्थ है, उसमें आपसी अंतर इतना बड़ा नहीं है, जिसकी वजह से राजनीतिक मकसद में कोई बड़ी भिन्नता पैदा हो। दूसरी बात यह है कि चूंकि हमारे देश पर विदेशी प्रभुत्व है और किसी भी राजनीतिक पार्टी के गठन का पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा हुआ है। लिहाजा यहां अलग-अलग पार्टियों का अस्तित्व नहीं है, जिनके बीच कोई एकता स्थापित करने की जरूरत महसूस हो। यहां अलग-अलग किस्म की राजनीतिक लाइन भी नहीं है, जिन्हें किसी एक रास्ते पर चलने के लिए कहा जाए या जीन से कहा जाए कि एकता स्थापित करने के लिए वे सभी साथ आ जाएं।
इसलिए हमारे देश के अंदर जो एकता का सवाल है सवाल है, उसे हम कैसे देखें? बुनियादी तौर पर सारा मामला कुछ इस प्रकार है : जैसा कि सभी जानते हैं, एकता की जरूरत ताकत के लिए होती है। इस देश के कुछ धरती पुत्रों के मस्तिष्क में जब पहली बार यह बात आई कि विदेशी औपनिवेशिक प्रभुत्व से छुटकारा पाया जाए तो उसी समय ताकत का सवाल पैदा हुआ है। ऐसी ताकत का जो औपनिवेशिक ताकत का मुकाबला करने के लिए जरूरी हो। फिर जैसे-जैसे लोग इस विचार के इर्द गिर्द इकट्ठे होते गये, लोगों ने महसूस किया कि हमारे बीच जितनी ही एकजुटता होगी उतनी ही ताकत हमें मिलेगी। अगर हम माचिस की एक तिल्ली लें तो इसे आसानी से तोड़ सकते हैं। अगर दो तिल्लियां एक साथ लें तो इसे तोड़ना उतना आसान नहीं होगा और अगर तीन, चार, पांच या छह तिल्लियां एक साथ उठा लें तो इन्हें तोड़ना नामुमकिन हो जाएगा। यह एक सामान्य और बहुत प्रचलित उदाहरण है, जिससे पता चलता है कि एकता में ताकत होती है। (हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि महज यूनियन का अर्थ ताकत नहीं है। ऐसी भी यूनियन का अस्तित्व है जो कमजोरी पैदा करती हैं और यह बात एक अजूबे जैसी है। दरअसल हर चीज के दो पहलू होते हैं-- एक सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक) जो लोग यह सोचते हैं कि यूनियन बनाने से हम एकजुट हो जाएंगे और हमारे अंदर ताकत आ जाएगी वे इस सवाल को हमारे संघर्ष की भावना के साथ रख कर देखें, क्योंकि उन्हें यह भी पता है कि हमारे बीच कई तरह के भेदभाव हैं।
गिनी और केप वर्डे में एक तरह की भिन्नता है। क्रेओल भाषा में भिन्नता का अर्थ अंतर्विरोध होता है। मिसाल के तौर पर हम अपने समाज को लें। जो व्यक्ति हमारे संघर्ष के बारे में गंभीरता से विचार करेगा, उसे यह भी पता चलेगा कि अगर सभी लोग मुस्लिम हों या सभी लोग कैथोलिक हों अथवा इराम देवता में विश्वास करने वाले सभी जीववादी(एनीमिस्ट) हों तो यह काम बहुत आसान हो जाएगा। वैसी हालत में जनता के हित के विरुद्ध काम करने वाली किसी भी ताकत के लिए धर्म के आधार पर हमारे बीच फूट डालना बहुत मुश्किल होगा। अब थोड़ा केप वर्डे के मामले पर विचार करें। यहां धर्म को लेकर कोई बड़ी दिक्कत नहीं है। बेशक प्रोटेस्टेंट और कैथोलिक के सवाल पर छोटे-मोटे को मतभेद हैं, लेकिन ये मतभेद ऐसे नहीं हैं जिनकी वजह से लोगों के बीच फूट पैदा हो। जरूर कुछ ऐसे परिवार हैं, जिनके पास जमीने हैं और कुछ ऐसे हैं जिनके पास बिल्कुल जमीन नहीं है। अगर सब लोग जमीन वाले होते या सभी भूमिहीन होते तो यह मामला थोड़ा और आसान हो जाता। वैसी हालत में दुश्मन उन लोगों को अपने साथ ले लेता जिनके पास जमीन है और यह प्रचारित करता कि दूसरे लोगों उनकी जमीनें छीनना चाहते हैं। इसी तरह गिनी में वह यह प्रचारित करता कि कुछ लोगों के अधिकारों को छीनने के लिए दूसरे लोग आमादा हैं। अगर सभी लोग अधिकारविहीन होते तो हमारा काम ज्यादा आसान होता, लेकिन ऐसा है नहीं। इसलिये एकता का सवाल हमारे यहां पैदा हो जाता है-- महज इसलिए नहीं कि हम विभिन्न राजनीतिक विचारों के लोगों को एक साथ लाना चाहते हैं, बल्कि इसलिये भी कि हम विभिन्न राजनीतिक विचारों के लोगों को एक साथ लाना चाहते हैं, बल्कि इसलिए भी कि विभिन्न आर्थिक हितों के लोगों को अलग-अलग संस्कृतियों और धर्मों के बावजूद ऐसी जगह खड़ा करना चाहते हैं, जहां उनके आपसी मतभेद समाप्त हो जाएं। हमने अपने देश के अंदर जब एकता का सवाल खड़ा किया तो उसका मकसद दुश्मन की उस क्षमता को नष्ट करना था, जिसके जरिए वह हमारी जनता के बीच के अंतर्विरोधों का इस तरह फायदा उठाता है ताकि वह हमारी ताकत को कमजोर कर सके और हम दुश्मन के खिलाफ कोई मोर्चाबंदी न कर सकें।
इस प्रकार हम देखते हैं कि एकता वह चीज है, जिसे कुछ और करने के लिए हमें हासिल करनी होती है। मिसाल के तौर पर अगर हम पानी के नल के नीचे अपना कपड़ा धोना चाहते हैं या नदी में नहाना चाहते हैं तो अगर हम बहुत नासमझ नहीं हैं तो तभी पानी के अंदर जाएंगे जब अपने कपड़े उतार लें। यह एक ऐसी कार्यवाही है, जिसकी हमें नहाने से पहले तैयारी करनी होती है। इसी तरह अगर हम इस हॉल में कोई मीटिंग करना चाहते हैं तो हॉल में बैठने की व्यवस्था करनी होगी, लिखने पढ़ने का इंतजाम करना होगा और तब फिर हम मीटिंग के लिए लोगों को बुलाएंगे। कहने का मतलब यह है कि हमें पूरी तैयारी करनी होगी। इसी प्रकार एकता का जो सवाल है वह साधन से जुड़ा है, न कि लक्ष्य से। हो सकता है कि एकता स्थापित करने के लिए हमें कुछ संघर्ष करना पड़े, लेकिन अगर हम एकता स्थापित कर लेते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि संघर्ष समाप्त हो गया। उपनिवेशवाद के खिलाफ विभिन्न उपनिवेशों में संघर्ष में लोग लगे हैं, जो महज अभी भी एकता स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। चूंकि वे संघर्ष शुरू करने में समर्थ नहीं है लिहाजा वे एकता और संघर्ष के बीच में घालमेल कर देते हैं। एकता संघर्ष की दिशा में संपन्न होने वाला एक साधन है और जैसा कि सभी साधनों के साथ होता है, इसे काफी दूर तक बनाए रखने की जरूरत होती है। किसी देश में संघर्ष के लिए जरूरी नहीं कि समूची आबादी को एक एकताबद्ध कर लिया जाए। क्या हम कभी यह निश्चित कर सकते हैं कि सभी लोग एकताबद्ध हो जाएंगे? नहीं, यह संभव नहीं है। एक हद तक एकता ही इसके लिए पर्याप्त होगी। एक बार यह संभव हो जाने के बाद हम संघर्ष की शुरुआत कर सकते हैं, क्योंकि जिन लोगों को आपने एकताबद्ध किया है, उनके दिमाग में नए-नए विचार पैदा होंगे और निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में वे आगे बढ़ेंगे। इस प्रकार आपने कमोबेश अब यह समझ लिया होगा कि एकता के सिद्धांत के पीछे बुनियादी विचार क्या होता है।
अब संघर्ष के पहलू पर आएं। संघर्ष क्या है? संघर्ष दुनिया के सभी जीवित प्राणियों के लिए एक सामान्य अवस्था है। सभी लोग संघर्ष में हैं। मिसाल के तौर पर आप यहां कुर्सी पर बैठे हैं और मैं अपनी कुर्सी पर बैठा हूं। मेरा शरीर इस कुर्सी के जरिए फर्श पर अपनी शक्ति का इस्तेमाल कर रहा है। अगर फर्श के पास हमें सहारा देने के लिए पर्याप्त शक्ति नहीं होगी तो हम नीचे चले जाएंगे ओर चोट खा जाएंगे। अगर फर्श के नीचे भी कोई शक्ति नहीं होगी तो हम नीचे की तरफ लुढकते ही चले जाएंगे। इसलिए फर्श पर हम जो शक्ति लगा रहे हैं और फर्श की जो शक्ति हमें रोके हुए है, उन दोनों के बीच एक खामोश संघर्ष चल रहा है। लेकिन आप यह भी जानते हैं कि पृथ्वी निरंतर गतिशील है। शायद आपमें से कुछ को इस बात का आभास न हो कि पृथ्वी लगातार चक्कर लगा रही है। अगर आप किसी प्लेट को चक्करदार तरीके से घुमा दें और इस पर किसी सिक्के को रखना चाहें तो आप देखेंगे कि उस सिक्के को प्लेट उछालकर बाहर फेंक देगी। आपने अपने रोजमर्रा के जीवन में देखा होगा कि अगर किसी रस्सी के छोर पर पत्थर का टुकड़ा बांध कर देर तक घूमायें तो थोड़ी सी मेहनत से ही वह पत्थर बड़ी दूर तक चला जाता है। इसके लिए जरूरी है यह है कि आप जहां निशाना लगाना चाहते हैं, उसके बारे में आपकी सही समझ हो और आपको यह पता हो कि वह कौन-सा क्षण है, जब पत्थर को रस्सी से बाहर फैंकना होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि एक खास स्पेस में अगर हम किसी किसी चीज को घुमा रहे हैं तो वहां एक ऐसी शक्ति पैदा होती है जो चीजों को बाहर की ओर ठेलती है। इसी प्रकार इस घूमती हुई पृथ्वी पर हम सभी लोग लगातार एक ऐसी शक्ति से चालित होते हैं जो हमें पृथ्वी से अलग दिशा में फैंकती है और इसी को सेंट्रीफ्यूगल फोर्स कहा जाता है, यानी केंद्र से बाहर की ओर धकेलने जाने वाली शक्ति। लेकिन इसी के साथ एक और शक्ति है जो पृथ्वी की तरफ हमें खिंचती है और इसे हम गुरूत्वाकर्षण शक्ति कहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि एक चुम्बकीय शक्ति की तरह पृथ्वी दूरी और वजन के अनुसार अपने आसपास की सभी वस्तुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है। इसी की वजह से हम पृथ्वी पर बने रहे हैं और बाहर की ओर नहीं जाते, क्योंकि सेंट्रीफ्यूगल के मुकाबले गुरूत्वाकर्षण वाली शक्ति ज्यादा क्षमतावान होती है। जब किसी चीज को चांद की ओर भेजते हैं तो वैज्ञानिकों के सामने बुनियादी सवाल यह होता है कि किस तरह वे गुरूत्वाकर्षण शक्ति पर काबू पाएं। इस काबू पाने के बाद वे पृथ्वी से बाहर की कक्षा में कुछ भी भेजने में सफल हो जाते हैं। विज्ञान के मदद से हम यह जानते हैं कि पृथ्वी से बाहर की कक्षा में किसी चीज को भेजने के लिए जब हम गुरुत्वाकर्षण पर काबू पा लेते हैं तो वह वस्तु 11 किलोमीटर प्रति सेकंड की अपनी यात्रा शुरू कर देती है। तो इससे यह भी पता चलता है कि 11 किलोमीटर प्रति सैंकेंड़ का अर्थ यह हुआ कि इसने गुरूत्वाकर्षण शक्ति पर काबू पा लिया है। लेकिन कोई भी बल जो किसी वस्तु पर प्रयोग किया जाता है, वह तभी कारगर हो सकता है जब उसके मुकाबले कोई विपरीत बल भी हो। इप अपने हाथ को अपने चेहरे पर रखते हैं, लेकिन चेहरा पीछे की तरफ नहीं जाता, क्योंकि चेहरे में भी प्रतिरोध का बल होता है। आपको महसूस भले ही न हो, लेकिन चेहरा भी आपके हाथ पर दबाव डाल रहा होता है।
हमारे इस खास मामले में संघर्ष को इस तरह समझा जा सकता है: पुर्तगाली उपनिवेशवादियो ने हमारी जमीन पर कब्जा कर लिया है और वे एक विदेशी के रूप में अपना कब्जा जमाए हुए हैं और उन्होंने हमारे समाज और हमारी जनता पर बल का प्रयोग किया है। इस बल का इसलिए प्रयोग किया है ताकि वे हमारे भाग्य का फैसला अपने हाथों में ले लें और उन्होंने अपने कार्यों को इस तरह संयोजित किया है कि वे हमारे इतिहास के प्रभाव को रोक दें और उसे पुर्तगाल के इतिहास के साथ उसी तरह नत्थी कर दें जैसे ट्रेन में किसी डिब्बे को जोड़ दिया जाता है। इसके लिए उन्होंने हमारे देश के अंदर कई तरह की स्थितियां पैदा की हैं--आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि। इसके लिए उन्हें एक 'बल' पर काबू पाना पड़ा है। लगभग 50 वर्षों से उन्होंने हमारी जनता के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है और यह युद्ध मनजाको, पेपेल, फुला, मनडिंगा, बिफादा, बलांता, फेलुपे, यानी यहाँ के सभी जातिय समूहों के खिलाफ है। केप वर्डे में पुर्तगाली उपनिवेशवादियों को एक वीरान द्वीप मिला। जिस दौर में अफ्रीकी पुरुषों को सारी दुनिया में गुलाम बनाकर उनका शोषण किया जाता था, उसी दौर में इन उपनिवेशवादियों ने देखा कि अटलांटिक सागर में के केप वर्डे नाम का एक द्वीप समूह है जो सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है और इन्होंने तय किया कि इस द्वीप समूह को गुलामों को रखने के लिए एक गोदाम की तरह इस्तेमाल किया जाए। अफ्रीका के अन्य हिस्सों से, मसलन गिनी से अगर किसी को पकड़ा गया तो उसे गुलाम बनाने के लिए केप वर्डे में कैद करके रख दिया जाता था। लेकिन धीरे-धीरे जैसे-जैसे इन गुलामों की संख्या बढ़ती गई और दुनिया में नए नए कानून बनते गए, उन्हें गुलामों के व्यापार की प्रथा छोड़नी पड़ी। इसके बाद इन लोगों ने पकड़े गए लोगों पर दबाव डालना शुरू किया-- वैसा ही दबाव जैसा वे गिनी पर डाल रहे थे और जिसे हम औपनिवेशिक सत्ता का दबाव कह सकते हैं। अगर औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा डाला गया दबाव किसी खास दिशा में था तो गुलाम बनाये लोगों का दबाव इसके विपरीत दिशा में होता था। विपरीत दिशा में होने वाले इस दबाव ने अनेक रूप लिए: अहिंसात्मक प्रतिरोध, झूठ और धोखाधड़ी, पुर्तगाली उपनिवेशवादियों को बेवकूफ बनाने के लिए उनकी जी हजूरी करना और लगातार दबाव बनाये रखने के लिए 'यस सर्' का सहारा लेना। चूंकि हम आमने-सामने उन्हें चुनौती नहीं दे सकते थे, इसलिए उन्हें बेवकूफ बनाने की कोशिश करते रहे और इस कोशिश में हमें दुख, पीड़ा, मौत, बिमारी, तरह-तरह की विपत्तियां आदि झेलनी पड़ी। इतना ही नहीं, सामाजिक तौर पर भी अनेक दुष्परिणामों का सामना करना पड़ा। हम दुनिया के अन्य लोगों के मुकाबले पिछड़ेपन की चपेट में आते गए। आज हमारा संघर्ष उस दौर में पहुंच गया है, जब हमने एक पार्टी का निर्माण कर लिया है और एक नई शक्ति का उदय हो चुका है जो औपनिवेशक सत्ता का कारगर तरीक़े से विरोध कर सके। अब सवाल यह जानने का है कि क्या व्यवहार में हमारी यह संयुक्त शक्ति औपनिवेशिक शक्ति पर विजय पा सकेगी? और यही हमारे संघर्ष की खास बात है।
अब अगर सभी चीजों को मिलाकर देखें तो एकता और संघर्ष का अर्थ यह है कि संघर्ष के लिए क्या जरूरी है, लेकिन एकता के लिए यह भी जरूरी है कि हम संघर्ष में लगे रहें। इसका अर्थ यह हुआ कि खुद अपने बीच भी हम संघर्ष कर रहे हैं। शायद इस बात को आप भली-भांति नहीं समझ पा रहे होंगे। हमारे संघर्ष का महत्व है महज उपनिवेशवादियों के संदर्भ में नहीं है, बल्कि यह खुद हमारे संदर्भ में भी है। एकता और संघर्ष। हमारे लिए एकता का अर्थ उपनिवेशवादियों के खिलाफ संघर्ष है और संघर्ष का अर्थ हमें अपनी एकता बनाए रखने के लिए है। यह इसलिए है ताकि हम अपने देश को वैसा बना सकें जैसा हम चाहते हैं।
बाकी बातें इस बुनियादी सिद्धांत को लागू करने से संबंधित हैं। अगर कोई इस बुनियादी सिद्धांत को नहीं समझता है तो उसे इसको समझना ही होगा, क्योंकि इसे समझ कर ही हम अपने संघर्ष को आगे बढ़ा सकते हैं। इस बुनियादी सिद्धांत को हमें तीन दिशा में ले जाना है: गिनी की दिशा में, केप वर्डे की दिशा में और गिनी तथा केप वर्डे दोनों की दिशा में। जिसने भी पार्टी कार्यक्रम को पढ़ा होगा, उसे इसकी अच्छी तरह जानकारी होगी।
इस बातचीत से आपने यह समझ लिया होगा कि कौन से अंतर्विरोध हैं जिन पर हमें स्थाई तौर पर काबू पाना है ताकि हम यह सुनिश्चित कर सकें कि संघर्ष के लिए जरूरी एकता हमारे बीच बनी रहेगी। आपको यह पता है कि पुर्तगाली उपनिवेशवादियों ने गिनी और केप वर्डे के लोगों के बीच फूट डाल रखी है और हमने खुद भी उसमें योगदान किया है।
आप गिनी का उदाहरण लें। इसमें एक तरफ शहर में बसने वाले हैं और दूसरी तरफ जंगलों और झाड़ियों में रहने वाले लोग हैं। और शहर में है क्या? वहां कुछ गोरे और काले हैं। अफ्रीकी लोगों में कुछ सीनियर स्टाफ के लोग हैं और कुछ मिडल स्टाफ के लोग, जिन्हें यह निश्चिंचतता है कि महीने के अंत में उन्हें एक निश्चित राशि वेतन के रूप में मिल जाएगी। वे जानते हैं कि इस पैसे से अपने लिए छोटी सी गाड़ी खरीद सकते हैं, जैसा कि आप देख सकते हैं कि मेरे पास अपनी खुद की गाड़ी है। उनके पास घर में फ्रीज है, एक खूबसूरत बीवी है और बच्चे हैं जो निश्चित तौर पर माध्यमिक शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं और अगर उन्होंने पढ़ाई में मेहनत की तो लिजबन भी जा सकते हैं। इसके बाद कुछ छोटे स्तर के कर्मचारी हैं, जिनके पास इतने पैसे होते हैं कि शनिवार की शाम को मछली के साथ रेड वाइन का आनंद ले सकें, एक ट्रांजिस्टर रेडियो खरीद सकें और सुख-सुविधाओं की छोटी मोटी चीजें भी रख सकें। इसके बाद उनका नंबर आता है जो गोदी कर्मचारी हैं या गाड़ी के मैकेनिक हैं और इनमें आप ड्राइवरों को शामिल कर सकते हैं जो ठीक-ठाक ढंग से जिंदगी गुजार ले रहे हैं। ये सभी ऐसे लोग हैं, जिनको वेतन के रूप में कम या ज्यादा कोई न कोई राशि मिलती है। इसके बाद उन लोगों का नंबर आता है जिनके पास करने को कुछ नहीं है और जो यहां-वहां आवारर्गी करते हुए समय बिता देते हैं। उन्हें यह पता नहीं है कि एक खास तरह की जीवन शैली के लिए वे क्या करें? फिर उन लोगों का नंबर आता जिनके पास कुछ भी नहीं है, मसलन वेश्याएं, भिखारी, जेबकतरे, चोर आदि। शहर का समाज इन्हीं सारे लोगों से बना हुआ है।
अगर आप ध्यान पूर्वक इनकी जीवन शैली पर गौर करें तो आप देखेंगे कि बेशक वे गिनी वासियों और केप वर्डे वासियों की संताने तो हैं और जिंदगी में ठीक ढंग से खा-कमा भी रहे हैं, लेकिन उनके बीच समान रूप से एक प्रवृत्ति है-- वे सभी पुर्तगालियों की जीवन शैली की नकल करना चाहते हैं। यहां तक कि वे अपने बच्चों को भी समझाते हैं कि पुर्तगाली भाषा के अलावा वे स्थानीय भाषा में बात न करें। अगर आप दूसरे समूह पर निगाह दौड़ाएं तो आप पाएंगे कि उनकी रूचियां भी कमोबेश वही हैं। आप में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो घरेलू नौकर का काम करते हैं, लेकिन आपके अंदर एक राष्ट्रवादी भावना है। लेकिन मैं अभी जिनकी बात कर रहा था, वे हमेशा एक दुसरी ही दुनिया में विचरण करते रहते हैं।
इसी तरह गोदी कर्मचारियों, जहाज कर्मचारियों आदि को लें जो पहले से ही इस समूह का हिस्सा हैं। आप इनसे मिल सकते हैं, बातचीत कर सकते हैं, लेकिन खाना खाते समय इनके साथ मेज पर नहीं बैठ सकते, ठीक वैसे ही जैसे पुर्तगालियों के बीच एक भेदभाव देखा जा सकता है। गवर्नर का परिवार हो, बैंक के डायरेक्टर का परिवार हो या किसी उच्च वर्ग के अन्य अधिकारी का परिवार हो, वहां हम कभी भी पुर्तगाल के किसी मजदूर की पत्नी को नहीं पाएंगे। बेशक, अगर किसी पुर्तगाली मजदूर की कोई खूबसूरत बेटी है, जिसकी सब तारीफ कर रहे हों तो हो सकता है उस अभिजात वर्ग के बीच वह आये और नृत्य करे। लेकिन वहां भी उसकी मां, जो लिखना पढ़ना नहीं जानती है, आने से परहेज करेगी। वह अपनी बेटी के साथ दरवाजे तक जाएगी और उसे अंदर छोड़कर बाहर चली आएगी। बिसाऊ में ऐसी घटना आपको याद होगी
एकता है क्या? हम बहुत स्पष्ट तौर पर इस अर्थ में एकता को ले सकते हैं, जिसे कोई स्थिर या एक जगह रूकी हुयी अवस्था माने या इसे कुछ संख्या तक सीमित रखे। मिसाल के तौर पर अगर हम सारी दुनिया में उपलब्ध बोतलों को समग्र रूप में देखें तो एक बोतल एक इकाई है। अगर हम इस हॉल में बैठे हुए सभी लोगों को समग्रता में देखें तो इसमें कामरेड डेनियल बरेतो एक इकाई है। तो क्या जब हम पार्टी सिद्धांत के बारे में किसी इकाई अथवा एकता की बात करते हैं तो हमारी दिलचस्पी बस इसी में होती है? ऐसा है भी और नहीं भी है। यह उस सीमा तक है, जब तक हमारी यह चाह होती है कि विभिन्न तरह के व्यक्तियों के इस समूह का रूपांतरण सुपरिभाषित इकाई में कर दें, जो एक ही रास्ते पर बढ़ने के लिए तैयार हों। यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि समग्रता में अलग-अलग तत्व शामिल हैं। इसे यूं भी कह सकते हैं कि अपने सिद्धांतों के अंतर्गत एकता का जो अर्थ हम लेते हैं, वह इस प्रकार है: मौजूदा भेदभाव चाहे कैसे भी क्यों न हो, लेकिन निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हमें एक होना होगा, समग्रता में रहना होगा। इसका अर्थ हमारा सिद्धांत यह है कि एकता को एक गतिशील अर्थ में ही रखा जा सकता है।
हम कुछ मिसाल देखें- मसलन एक फुटबॉल की टीम को ही ले लीजिए। इसमें 11 लोग होते हैं, जिनसे टीम का निर्माण होता है। खेलते समय हर व्यक्ति की अलग-अलग जिम्मेदारी तय होती है। हर व्यक्ति एक दूसरे से भिन्न है। सबका अलग अलग मिजाज है, अलग अलग शिक्षा-दीक्षा है। कुछ ऐसे भी हैं, जो लिख पढ़ नहीं सकते। टीम में कोई डॉक्टर के और कोई इंजीनियर के पेशे से जुड़ा हुआ है। सब के अलग-अलग धर्म भी हो सकते हैं- कोई मुसलमान हो सकता है, तो कोई इसाई। इतना ही नहीं राजनीतिक धरातल पर भी वे अलग-अलग सोच के हो सकते हैं। हो सकता है पुर्तगाल की राजनीतिक व्यवस्था में कुछ लोग यथास्थिति बनाए रखने के समर्थक हों और कुछ इस विचार के विरोधी हों। मतलब यह कि जो भी लोग हैं, वे एक दूसरे से भिन्न हैं और उनकी भावनाएं भी एक दूसरे से अलग हैं, लेकिन यह सभी लोग एक ही टीम के सदस्य हैं। अगर खेलते समय इन सभी तत्वों के बीच एकता का प्रदर्शन न हो तो उन्हें सफलता नहीं मिलेगी और वह फुटबॉल टीम नहीं रह जाएगी। जितने भी लोग हैं, वे अपने व्यक्तित्व, अपने विचार, अपने धर्म, अपनी निजी समस्याएं यहां तक कि खेलने की अपनी खास शैली को बनाए रख सकते हैं, लेकिन इन सबको समान रूप से एक बात का ध्यान रखना ही होगा कि प्रतिद्वंदी के मुकाबले उन्हें हर हाल में गोल करना है। इसके लिए उन्हें एक तरह की एकजुटता बनाकर रखनी होगी। अगर वैसा नहीं कर पाते हैं तो वे सफल नहीं हो सकते। एकता का यह एक शानदार उदाहरण है।
एक दूसरे उदाहरण पर भी गौर करें। एक औरत है, जो फलों से लदी हुई एक टोकरी अपने सिर पर लेकर बेचने जा रही है। आपको यह नहीं पता कि इस टोकरी में कौन-से फल हैं। असमें आम भी हो सकते हैं और केले, अमरुद या पपीता इत्यादि। लेकिन हमारी सोच में वह एक समग्रता के साथ आ रही है, जिसमें एक तरह की एकता का प्रतिनिधित्व है-- सिर पर एक टोकरी जो फलों से भरी है। संख्या की दृष्टि से भी अगर देखें तो इसमें एक एकता दिखाई देती है। अंदर से भले ही उस टोकरी में अलग-अलग तरह के फल क्यों न हों, लेकिन बाहर से देखने पर अर्थात वस्तुगत तौर पर, वह एक एकता का प्रदर्शन है।
इससे आपको यह आभास मिल गया होगा कि एकता का मतलब क्या है और यह भी पता चल गया होगा कि एकता का सिद्धांत मूलत: अलग-अलग चीजों की विभिन्नता में है। अगर यह भी विभिन्नता न होती तो जरूरी नहीं कि एकता संभव हो पाती। इसलिए हमारे खयाल में एकता दरअसल है क्या? वह कौन सा मकसद है, जिसके इर्द-गिर्द हमें अपने देश के अंदर एकता की जरूरत है? जाहिर सी बात है कि हम न तो कोई फुटबॉल टीम हैं और न फलों से लदी हुई टोकरी। हम जनता हैं, जनता के सदस्य हैं, जो इतिहास की एक खास अवस्था में अपने रास्ते के लिए एक ख़ास दिशा चुनते हैं, लोगों के जीवन से संबंधित कुछ मुद्दों को उठाते हैं, लोगों के कार्य की एक दिशा निर्धारित करते हैं, कुछ सवाल उठाते हैं और कुछ के जवाब तलाशते हैं। हो सकता है यह सारा काम अकेले कोई एक व्यक्ति संभाल रहा हो या इसे संभालने वाले 2-3-6 व्यक्ति हों। काम के दौरान एक खास चरण में हमारे दिमाग में एकता की बात पैदा हुई। हमारी पार्टी ने इतनी दूर तक देखा और सारी समस्या को इतनी अच्छी तरह समझा कि इसने एकता और संघर्ष को अपने कार्य की मुख्य बुनियाद मान लिया।
अब एक दूसरा सवाल पैदा होता है-- क्या यह एकता जो आवश्यकता की वजह से हमारे बीच पैदा हुई और इस वजह से भी, क्योंकि हमारे विचार राजनीतिक दृष्टिकोण से भिन्न थे। ऐसा नहीं है। हम अपने देश में राजनीति के साथ उछल कूद करने के अभ्यस्त नहीं हैं। हमारे यहां कोई पार्टी नहीं थी। चूंकि हमारे यहां विदेशी प्रभुत्व था, इसलिए हमारा समाज भी बड़े निर्धन तरीके से विकसित हुआ था। अब आप गिनी और केप वर्डे को ही देख लें, जहां व्यक्तियों की हैसियत के बीच बहुत बड़ा फर्क नहीं है। (हालांकि हमने यह भी देखा है कि कुछ फर्क है) और इसलिए उनके बीच राजनीतिक मकसद को लेकर बहुत अलग तरह के विचार नहीं हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि एकता का मसला इस अर्थ में नहीं है की विभिन्न व्यक्तियों और राजनीतिक मकसद तथा राजनीतिक कार्यक्रम को लेकर उनके विचारों के बीच फिर से कोई एकता स्थापित की जाए। दरअसल हमारे समाज का जो ढांचा है और हमारे देश का जो यथार्थ है, उसमें आपसी अंतर इतना बड़ा नहीं है, जिसकी वजह से राजनीतिक मकसद में कोई बड़ी भिन्नता पैदा हो। दूसरी बात यह है कि चूंकि हमारे देश पर विदेशी प्रभुत्व है और किसी भी राजनीतिक पार्टी के गठन का पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा हुआ है। लिहाजा यहां अलग-अलग पार्टियों का अस्तित्व नहीं है, जिनके बीच कोई एकता स्थापित करने की जरूरत महसूस हो। यहां अलग-अलग किस्म की राजनीतिक लाइन भी नहीं है, जिन्हें किसी एक रास्ते पर चलने के लिए कहा जाए या जीन से कहा जाए कि एकता स्थापित करने के लिए वे सभी साथ आ जाएं।
इसलिए हमारे देश के अंदर जो एकता का सवाल है सवाल है, उसे हम कैसे देखें? बुनियादी तौर पर सारा मामला कुछ इस प्रकार है : जैसा कि सभी जानते हैं, एकता की जरूरत ताकत के लिए होती है। इस देश के कुछ धरती पुत्रों के मस्तिष्क में जब पहली बार यह बात आई कि विदेशी औपनिवेशिक प्रभुत्व से छुटकारा पाया जाए तो उसी समय ताकत का सवाल पैदा हुआ है। ऐसी ताकत का जो औपनिवेशिक ताकत का मुकाबला करने के लिए जरूरी हो। फिर जैसे-जैसे लोग इस विचार के इर्द गिर्द इकट्ठे होते गये, लोगों ने महसूस किया कि हमारे बीच जितनी ही एकजुटता होगी उतनी ही ताकत हमें मिलेगी। अगर हम माचिस की एक तिल्ली लें तो इसे आसानी से तोड़ सकते हैं। अगर दो तिल्लियां एक साथ लें तो इसे तोड़ना उतना आसान नहीं होगा और अगर तीन, चार, पांच या छह तिल्लियां एक साथ उठा लें तो इन्हें तोड़ना नामुमकिन हो जाएगा। यह एक सामान्य और बहुत प्रचलित उदाहरण है, जिससे पता चलता है कि एकता में ताकत होती है। (हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि महज यूनियन का अर्थ ताकत नहीं है। ऐसी भी यूनियन का अस्तित्व है जो कमजोरी पैदा करती हैं और यह बात एक अजूबे जैसी है। दरअसल हर चीज के दो पहलू होते हैं-- एक सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक) जो लोग यह सोचते हैं कि यूनियन बनाने से हम एकजुट हो जाएंगे और हमारे अंदर ताकत आ जाएगी वे इस सवाल को हमारे संघर्ष की भावना के साथ रख कर देखें, क्योंकि उन्हें यह भी पता है कि हमारे बीच कई तरह के भेदभाव हैं।
गिनी और केप वर्डे में एक तरह की भिन्नता है। क्रेओल भाषा में भिन्नता का अर्थ अंतर्विरोध होता है। मिसाल के तौर पर हम अपने समाज को लें। जो व्यक्ति हमारे संघर्ष के बारे में गंभीरता से विचार करेगा, उसे यह भी पता चलेगा कि अगर सभी लोग मुस्लिम हों या सभी लोग कैथोलिक हों अथवा इराम देवता में विश्वास करने वाले सभी जीववादी(एनीमिस्ट) हों तो यह काम बहुत आसान हो जाएगा। वैसी हालत में जनता के हित के विरुद्ध काम करने वाली किसी भी ताकत के लिए धर्म के आधार पर हमारे बीच फूट डालना बहुत मुश्किल होगा। अब थोड़ा केप वर्डे के मामले पर विचार करें। यहां धर्म को लेकर कोई बड़ी दिक्कत नहीं है। बेशक प्रोटेस्टेंट और कैथोलिक के सवाल पर छोटे-मोटे को मतभेद हैं, लेकिन ये मतभेद ऐसे नहीं हैं जिनकी वजह से लोगों के बीच फूट पैदा हो। जरूर कुछ ऐसे परिवार हैं, जिनके पास जमीने हैं और कुछ ऐसे हैं जिनके पास बिल्कुल जमीन नहीं है। अगर सब लोग जमीन वाले होते या सभी भूमिहीन होते तो यह मामला थोड़ा और आसान हो जाता। वैसी हालत में दुश्मन उन लोगों को अपने साथ ले लेता जिनके पास जमीन है और यह प्रचारित करता कि दूसरे लोगों उनकी जमीनें छीनना चाहते हैं। इसी तरह गिनी में वह यह प्रचारित करता कि कुछ लोगों के अधिकारों को छीनने के लिए दूसरे लोग आमादा हैं। अगर सभी लोग अधिकारविहीन होते तो हमारा काम ज्यादा आसान होता, लेकिन ऐसा है नहीं। इसलिये एकता का सवाल हमारे यहां पैदा हो जाता है-- महज इसलिए नहीं कि हम विभिन्न राजनीतिक विचारों के लोगों को एक साथ लाना चाहते हैं, बल्कि इसलिये भी कि हम विभिन्न राजनीतिक विचारों के लोगों को एक साथ लाना चाहते हैं, बल्कि इसलिए भी कि विभिन्न आर्थिक हितों के लोगों को अलग-अलग संस्कृतियों और धर्मों के बावजूद ऐसी जगह खड़ा करना चाहते हैं, जहां उनके आपसी मतभेद समाप्त हो जाएं। हमने अपने देश के अंदर जब एकता का सवाल खड़ा किया तो उसका मकसद दुश्मन की उस क्षमता को नष्ट करना था, जिसके जरिए वह हमारी जनता के बीच के अंतर्विरोधों का इस तरह फायदा उठाता है ताकि वह हमारी ताकत को कमजोर कर सके और हम दुश्मन के खिलाफ कोई मोर्चाबंदी न कर सकें।
इस प्रकार हम देखते हैं कि एकता वह चीज है, जिसे कुछ और करने के लिए हमें हासिल करनी होती है। मिसाल के तौर पर अगर हम पानी के नल के नीचे अपना कपड़ा धोना चाहते हैं या नदी में नहाना चाहते हैं तो अगर हम बहुत नासमझ नहीं हैं तो तभी पानी के अंदर जाएंगे जब अपने कपड़े उतार लें। यह एक ऐसी कार्यवाही है, जिसकी हमें नहाने से पहले तैयारी करनी होती है। इसी तरह अगर हम इस हॉल में कोई मीटिंग करना चाहते हैं तो हॉल में बैठने की व्यवस्था करनी होगी, लिखने पढ़ने का इंतजाम करना होगा और तब फिर हम मीटिंग के लिए लोगों को बुलाएंगे। कहने का मतलब यह है कि हमें पूरी तैयारी करनी होगी। इसी प्रकार एकता का जो सवाल है वह साधन से जुड़ा है, न कि लक्ष्य से। हो सकता है कि एकता स्थापित करने के लिए हमें कुछ संघर्ष करना पड़े, लेकिन अगर हम एकता स्थापित कर लेते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि संघर्ष समाप्त हो गया। उपनिवेशवाद के खिलाफ विभिन्न उपनिवेशों में संघर्ष में लोग लगे हैं, जो महज अभी भी एकता स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। चूंकि वे संघर्ष शुरू करने में समर्थ नहीं है लिहाजा वे एकता और संघर्ष के बीच में घालमेल कर देते हैं। एकता संघर्ष की दिशा में संपन्न होने वाला एक साधन है और जैसा कि सभी साधनों के साथ होता है, इसे काफी दूर तक बनाए रखने की जरूरत होती है। किसी देश में संघर्ष के लिए जरूरी नहीं कि समूची आबादी को एक एकताबद्ध कर लिया जाए। क्या हम कभी यह निश्चित कर सकते हैं कि सभी लोग एकताबद्ध हो जाएंगे? नहीं, यह संभव नहीं है। एक हद तक एकता ही इसके लिए पर्याप्त होगी। एक बार यह संभव हो जाने के बाद हम संघर्ष की शुरुआत कर सकते हैं, क्योंकि जिन लोगों को आपने एकताबद्ध किया है, उनके दिमाग में नए-नए विचार पैदा होंगे और निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में वे आगे बढ़ेंगे। इस प्रकार आपने कमोबेश अब यह समझ लिया होगा कि एकता के सिद्धांत के पीछे बुनियादी विचार क्या होता है।
अब संघर्ष के पहलू पर आएं। संघर्ष क्या है? संघर्ष दुनिया के सभी जीवित प्राणियों के लिए एक सामान्य अवस्था है। सभी लोग संघर्ष में हैं। मिसाल के तौर पर आप यहां कुर्सी पर बैठे हैं और मैं अपनी कुर्सी पर बैठा हूं। मेरा शरीर इस कुर्सी के जरिए फर्श पर अपनी शक्ति का इस्तेमाल कर रहा है। अगर फर्श के पास हमें सहारा देने के लिए पर्याप्त शक्ति नहीं होगी तो हम नीचे चले जाएंगे ओर चोट खा जाएंगे। अगर फर्श के नीचे भी कोई शक्ति नहीं होगी तो हम नीचे की तरफ लुढकते ही चले जाएंगे। इसलिए फर्श पर हम जो शक्ति लगा रहे हैं और फर्श की जो शक्ति हमें रोके हुए है, उन दोनों के बीच एक खामोश संघर्ष चल रहा है। लेकिन आप यह भी जानते हैं कि पृथ्वी निरंतर गतिशील है। शायद आपमें से कुछ को इस बात का आभास न हो कि पृथ्वी लगातार चक्कर लगा रही है। अगर आप किसी प्लेट को चक्करदार तरीके से घुमा दें और इस पर किसी सिक्के को रखना चाहें तो आप देखेंगे कि उस सिक्के को प्लेट उछालकर बाहर फेंक देगी। आपने अपने रोजमर्रा के जीवन में देखा होगा कि अगर किसी रस्सी के छोर पर पत्थर का टुकड़ा बांध कर देर तक घूमायें तो थोड़ी सी मेहनत से ही वह पत्थर बड़ी दूर तक चला जाता है। इसके लिए जरूरी है यह है कि आप जहां निशाना लगाना चाहते हैं, उसके बारे में आपकी सही समझ हो और आपको यह पता हो कि वह कौन-सा क्षण है, जब पत्थर को रस्सी से बाहर फैंकना होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि एक खास स्पेस में अगर हम किसी किसी चीज को घुमा रहे हैं तो वहां एक ऐसी शक्ति पैदा होती है जो चीजों को बाहर की ओर ठेलती है। इसी प्रकार इस घूमती हुई पृथ्वी पर हम सभी लोग लगातार एक ऐसी शक्ति से चालित होते हैं जो हमें पृथ्वी से अलग दिशा में फैंकती है और इसी को सेंट्रीफ्यूगल फोर्स कहा जाता है, यानी केंद्र से बाहर की ओर धकेलने जाने वाली शक्ति। लेकिन इसी के साथ एक और शक्ति है जो पृथ्वी की तरफ हमें खिंचती है और इसे हम गुरूत्वाकर्षण शक्ति कहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि एक चुम्बकीय शक्ति की तरह पृथ्वी दूरी और वजन के अनुसार अपने आसपास की सभी वस्तुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है। इसी की वजह से हम पृथ्वी पर बने रहे हैं और बाहर की ओर नहीं जाते, क्योंकि सेंट्रीफ्यूगल के मुकाबले गुरूत्वाकर्षण वाली शक्ति ज्यादा क्षमतावान होती है। जब किसी चीज को चांद की ओर भेजते हैं तो वैज्ञानिकों के सामने बुनियादी सवाल यह होता है कि किस तरह वे गुरूत्वाकर्षण शक्ति पर काबू पाएं। इस काबू पाने के बाद वे पृथ्वी से बाहर की कक्षा में कुछ भी भेजने में सफल हो जाते हैं। विज्ञान के मदद से हम यह जानते हैं कि पृथ्वी से बाहर की कक्षा में किसी चीज को भेजने के लिए जब हम गुरुत्वाकर्षण पर काबू पा लेते हैं तो वह वस्तु 11 किलोमीटर प्रति सेकंड की अपनी यात्रा शुरू कर देती है। तो इससे यह भी पता चलता है कि 11 किलोमीटर प्रति सैंकेंड़ का अर्थ यह हुआ कि इसने गुरूत्वाकर्षण शक्ति पर काबू पा लिया है। लेकिन कोई भी बल जो किसी वस्तु पर प्रयोग किया जाता है, वह तभी कारगर हो सकता है जब उसके मुकाबले कोई विपरीत बल भी हो। इप अपने हाथ को अपने चेहरे पर रखते हैं, लेकिन चेहरा पीछे की तरफ नहीं जाता, क्योंकि चेहरे में भी प्रतिरोध का बल होता है। आपको महसूस भले ही न हो, लेकिन चेहरा भी आपके हाथ पर दबाव डाल रहा होता है।
हमारे इस खास मामले में संघर्ष को इस तरह समझा जा सकता है: पुर्तगाली उपनिवेशवादियो ने हमारी जमीन पर कब्जा कर लिया है और वे एक विदेशी के रूप में अपना कब्जा जमाए हुए हैं और उन्होंने हमारे समाज और हमारी जनता पर बल का प्रयोग किया है। इस बल का इसलिए प्रयोग किया है ताकि वे हमारे भाग्य का फैसला अपने हाथों में ले लें और उन्होंने अपने कार्यों को इस तरह संयोजित किया है कि वे हमारे इतिहास के प्रभाव को रोक दें और उसे पुर्तगाल के इतिहास के साथ उसी तरह नत्थी कर दें जैसे ट्रेन में किसी डिब्बे को जोड़ दिया जाता है। इसके लिए उन्होंने हमारे देश के अंदर कई तरह की स्थितियां पैदा की हैं--आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि। इसके लिए उन्हें एक 'बल' पर काबू पाना पड़ा है। लगभग 50 वर्षों से उन्होंने हमारी जनता के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है और यह युद्ध मनजाको, पेपेल, फुला, मनडिंगा, बिफादा, बलांता, फेलुपे, यानी यहाँ के सभी जातिय समूहों के खिलाफ है। केप वर्डे में पुर्तगाली उपनिवेशवादियों को एक वीरान द्वीप मिला। जिस दौर में अफ्रीकी पुरुषों को सारी दुनिया में गुलाम बनाकर उनका शोषण किया जाता था, उसी दौर में इन उपनिवेशवादियों ने देखा कि अटलांटिक सागर में के केप वर्डे नाम का एक द्वीप समूह है जो सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है और इन्होंने तय किया कि इस द्वीप समूह को गुलामों को रखने के लिए एक गोदाम की तरह इस्तेमाल किया जाए। अफ्रीका के अन्य हिस्सों से, मसलन गिनी से अगर किसी को पकड़ा गया तो उसे गुलाम बनाने के लिए केप वर्डे में कैद करके रख दिया जाता था। लेकिन धीरे-धीरे जैसे-जैसे इन गुलामों की संख्या बढ़ती गई और दुनिया में नए नए कानून बनते गए, उन्हें गुलामों के व्यापार की प्रथा छोड़नी पड़ी। इसके बाद इन लोगों ने पकड़े गए लोगों पर दबाव डालना शुरू किया-- वैसा ही दबाव जैसा वे गिनी पर डाल रहे थे और जिसे हम औपनिवेशिक सत्ता का दबाव कह सकते हैं। अगर औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा डाला गया दबाव किसी खास दिशा में था तो गुलाम बनाये लोगों का दबाव इसके विपरीत दिशा में होता था। विपरीत दिशा में होने वाले इस दबाव ने अनेक रूप लिए: अहिंसात्मक प्रतिरोध, झूठ और धोखाधड़ी, पुर्तगाली उपनिवेशवादियों को बेवकूफ बनाने के लिए उनकी जी हजूरी करना और लगातार दबाव बनाये रखने के लिए 'यस सर्' का सहारा लेना। चूंकि हम आमने-सामने उन्हें चुनौती नहीं दे सकते थे, इसलिए उन्हें बेवकूफ बनाने की कोशिश करते रहे और इस कोशिश में हमें दुख, पीड़ा, मौत, बिमारी, तरह-तरह की विपत्तियां आदि झेलनी पड़ी। इतना ही नहीं, सामाजिक तौर पर भी अनेक दुष्परिणामों का सामना करना पड़ा। हम दुनिया के अन्य लोगों के मुकाबले पिछड़ेपन की चपेट में आते गए। आज हमारा संघर्ष उस दौर में पहुंच गया है, जब हमने एक पार्टी का निर्माण कर लिया है और एक नई शक्ति का उदय हो चुका है जो औपनिवेशक सत्ता का कारगर तरीक़े से विरोध कर सके। अब सवाल यह जानने का है कि क्या व्यवहार में हमारी यह संयुक्त शक्ति औपनिवेशिक शक्ति पर विजय पा सकेगी? और यही हमारे संघर्ष की खास बात है।
अब अगर सभी चीजों को मिलाकर देखें तो एकता और संघर्ष का अर्थ यह है कि संघर्ष के लिए क्या जरूरी है, लेकिन एकता के लिए यह भी जरूरी है कि हम संघर्ष में लगे रहें। इसका अर्थ यह हुआ कि खुद अपने बीच भी हम संघर्ष कर रहे हैं। शायद इस बात को आप भली-भांति नहीं समझ पा रहे होंगे। हमारे संघर्ष का महत्व है महज उपनिवेशवादियों के संदर्भ में नहीं है, बल्कि यह खुद हमारे संदर्भ में भी है। एकता और संघर्ष। हमारे लिए एकता का अर्थ उपनिवेशवादियों के खिलाफ संघर्ष है और संघर्ष का अर्थ हमें अपनी एकता बनाए रखने के लिए है। यह इसलिए है ताकि हम अपने देश को वैसा बना सकें जैसा हम चाहते हैं।
बाकी बातें इस बुनियादी सिद्धांत को लागू करने से संबंधित हैं। अगर कोई इस बुनियादी सिद्धांत को नहीं समझता है तो उसे इसको समझना ही होगा, क्योंकि इसे समझ कर ही हम अपने संघर्ष को आगे बढ़ा सकते हैं। इस बुनियादी सिद्धांत को हमें तीन दिशा में ले जाना है: गिनी की दिशा में, केप वर्डे की दिशा में और गिनी तथा केप वर्डे दोनों की दिशा में। जिसने भी पार्टी कार्यक्रम को पढ़ा होगा, उसे इसकी अच्छी तरह जानकारी होगी।
इस बातचीत से आपने यह समझ लिया होगा कि कौन से अंतर्विरोध हैं जिन पर हमें स्थाई तौर पर काबू पाना है ताकि हम यह सुनिश्चित कर सकें कि संघर्ष के लिए जरूरी एकता हमारे बीच बनी रहेगी। आपको यह पता है कि पुर्तगाली उपनिवेशवादियों ने गिनी और केप वर्डे के लोगों के बीच फूट डाल रखी है और हमने खुद भी उसमें योगदान किया है।
आप गिनी का उदाहरण लें। इसमें एक तरफ शहर में बसने वाले हैं और दूसरी तरफ जंगलों और झाड़ियों में रहने वाले लोग हैं। और शहर में है क्या? वहां कुछ गोरे और काले हैं। अफ्रीकी लोगों में कुछ सीनियर स्टाफ के लोग हैं और कुछ मिडल स्टाफ के लोग, जिन्हें यह निश्चिंचतता है कि महीने के अंत में उन्हें एक निश्चित राशि वेतन के रूप में मिल जाएगी। वे जानते हैं कि इस पैसे से अपने लिए छोटी सी गाड़ी खरीद सकते हैं, जैसा कि आप देख सकते हैं कि मेरे पास अपनी खुद की गाड़ी है। उनके पास घर में फ्रीज है, एक खूबसूरत बीवी है और बच्चे हैं जो निश्चित तौर पर माध्यमिक शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं और अगर उन्होंने पढ़ाई में मेहनत की तो लिजबन भी जा सकते हैं। इसके बाद कुछ छोटे स्तर के कर्मचारी हैं, जिनके पास इतने पैसे होते हैं कि शनिवार की शाम को मछली के साथ रेड वाइन का आनंद ले सकें, एक ट्रांजिस्टर रेडियो खरीद सकें और सुख-सुविधाओं की छोटी मोटी चीजें भी रख सकें। इसके बाद उनका नंबर आता है जो गोदी कर्मचारी हैं या गाड़ी के मैकेनिक हैं और इनमें आप ड्राइवरों को शामिल कर सकते हैं जो ठीक-ठाक ढंग से जिंदगी गुजार ले रहे हैं। ये सभी ऐसे लोग हैं, जिनको वेतन के रूप में कम या ज्यादा कोई न कोई राशि मिलती है। इसके बाद उन लोगों का नंबर आता है जिनके पास करने को कुछ नहीं है और जो यहां-वहां आवारर्गी करते हुए समय बिता देते हैं। उन्हें यह पता नहीं है कि एक खास तरह की जीवन शैली के लिए वे क्या करें? फिर उन लोगों का नंबर आता जिनके पास कुछ भी नहीं है, मसलन वेश्याएं, भिखारी, जेबकतरे, चोर आदि। शहर का समाज इन्हीं सारे लोगों से बना हुआ है।
अगर आप ध्यान पूर्वक इनकी जीवन शैली पर गौर करें तो आप देखेंगे कि बेशक वे गिनी वासियों और केप वर्डे वासियों की संताने तो हैं और जिंदगी में ठीक ढंग से खा-कमा भी रहे हैं, लेकिन उनके बीच समान रूप से एक प्रवृत्ति है-- वे सभी पुर्तगालियों की जीवन शैली की नकल करना चाहते हैं। यहां तक कि वे अपने बच्चों को भी समझाते हैं कि पुर्तगाली भाषा के अलावा वे स्थानीय भाषा में बात न करें। अगर आप दूसरे समूह पर निगाह दौड़ाएं तो आप पाएंगे कि उनकी रूचियां भी कमोबेश वही हैं। आप में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो घरेलू नौकर का काम करते हैं, लेकिन आपके अंदर एक राष्ट्रवादी भावना है। लेकिन मैं अभी जिनकी बात कर रहा था, वे हमेशा एक दुसरी ही दुनिया में विचरण करते रहते हैं।
इसी तरह गोदी कर्मचारियों, जहाज कर्मचारियों आदि को लें जो पहले से ही इस समूह का हिस्सा हैं। आप इनसे मिल सकते हैं, बातचीत कर सकते हैं, लेकिन खाना खाते समय इनके साथ मेज पर नहीं बैठ सकते, ठीक वैसे ही जैसे पुर्तगालियों के बीच एक भेदभाव देखा जा सकता है। गवर्नर का परिवार हो, बैंक के डायरेक्टर का परिवार हो या किसी उच्च वर्ग के अन्य अधिकारी का परिवार हो, वहां हम कभी भी पुर्तगाल के किसी मजदूर की पत्नी को नहीं पाएंगे। बेशक, अगर किसी पुर्तगाली मजदूर की कोई खूबसूरत बेटी है, जिसकी सब तारीफ कर रहे हों तो हो सकता है उस अभिजात वर्ग के बीच वह आये और नृत्य करे। लेकिन वहां भी उसकी मां, जो लिखना पढ़ना नहीं जानती है, आने से परहेज करेगी। वह अपनी बेटी के साथ दरवाजे तक जाएगी और उसे अंदर छोड़कर बाहर चली आएगी। बिसाऊ में ऐसी घटना आपको याद होगी
केप वर्डे का समाज इसी तरह का है-- शहर जैसा समाज। यहां कुछ सरकारी अधिकारी हैं, कुछ उद्योगों के मालिक और कुछ जमीनों के मालिक। हालांकि इनकी जमीनें दूरदराज के इलाकों में हैं, लेकिन वे खुद शहरों में रहते हैं। शहरों में स्थिति यह है कि यहां कुछ सरकारी कर्मचारी हैं और छोटे-मोटे अफसर हैं, कुछ मजदूर भी रहते हैं जिन्हें किसी भी समय नौकरी से हटाया जा सकता है।गिनी और केप वर्डे दोनों जगहों में इस मामले में हालात एक जैसी हैं। इन दोनों स्थानों में गोरों की संख्या कम है। गिनी में यह संख्या कभी 3000 से ज्यादा नहीं और केप वर्डे में बमुश्किल 1000 गोरे रहते हैं। ये लोग सरकारी दफ्तरों के नौकरी-पेशा लोग हैं या कुछ टेक्निशियन और व्यापारी हैं।
जाहिर सी बात है कि जब हमें एकता की बात करते हैं तो हमें शहर के इस समाज को अपने संघर्ष के संदर्भ में देखना चाहिए। पुर्तगाली उपनिवेशवादियों के खिलाफ लोगों को एकजुट करने में हम उन गोरों को भी शामिल कर सकते हैं जो उपनिवेशवाद समर्थक हैं लेकिन कुछ उपनिवेशवाद विरोधी भी हैं। अगर उपनिवेशवाद विरोधी गोरे हमारे साथ आते हैं तो अच्छी बात है। इससे हमें अतिरिक्त ताकत मिलती है। अब मैं आपको एक मिसाल दूं: कामरेड लुई कबराल यहां से भागने में इसलिये सफल हो गए, क्योंकि राजधानी बिसाऊ से बाहर पहुंचाने में उनको कुछ गोरों ने मदद की। इन दो गोरे लोगों में एक महिला थी जो पुर्तगाली नागरिक थी, लेकिन वह उपनिवेशवाद का विरोध करती थी। इस बात को पार्टी से बाहर के लोग नहीं जानते। इस महिला ने ही ओसवाल्डो को संघर्ष की शिक्षा दी ना कि मैंने मुझे तो ओसवाल्डो को संघर्ष के बारे में शिक्षा दी--न कि मैंने। मुझे तो ओसवाल्डो के बारे में कोई जानकारी भी नहीं थी
इसका अर्थ यह हुआ कि उपनिवेशवादी दुश्मन के खिलाफ संघर्ष में हम उन सभी साथियों को साथ लेना चाहिए, जो हमारे साथ आ सकते हैं। लेकिन ऐसा करते समय हमें अपनी आंखें बंद नहीं रखनी चाहिए। हमें यह जानना चाहिए कि उपनिवेशवाद के संदर्भ में उसका रवैया क्या है? शहरों में हम देखते हैं कि बहुत कम ऐसे गोरे हैं जोउपनिवेशवाद के खिलाफ कोई कदम उठाते हों। इसकी मुख्य वजह यह है कि वे उसी वर्ग से आते हैं, जो यहां शासन कर रहे हैं। दूसरी वजह यह है कि उनकी अपनी जिंदगी है और इस बात में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं है कि किसके शासन से किसको कौन सी तकलीफ हो रही है। इसके अलावा एक बात और है कि जो गोरे हमारे यहां काम कर रहे हैं या रह रहे हैं, उनके पास आमतौर पर इस तरह का कोई राजनीतिक प्रशिक्षण नहीं है कि वे किसी सत्ता के बारे में कोई स्पष्ट नजरिया बना सकें।
लेकिन एक अफ्रीकी के रूप में हमारी क्या स्थिति है? उस समूह में जिन्हें हम निम्न पूंजीपति वर्ग कह सकते हैं और जिनकी आजीविका सुनिश्चित है, वे चाहे गिनी के हों अथवा केप वर्डे के, उनमें तीन तरह के लोग हैं। एक छोटा लेकिन शक्तिशाली समूह ऐसा है जो उपनिवेशवादियों के पक्ष में खड़ा होता है। ये लोग न तो उनके खिलाफ सुनना चाहते हैं और न उनके विरूद्ध किसी तरह के संघर्ष में दिलचस्पी लेते हैं। इनमें से कुछ लोग, खाते-पीते परिवारों के थे, मेरे घर में आये। उन्होंने आकर मुझसे कहा कि हम आपसे कुछ बात करना चाहते हैं। हम लोग आपके पिताजी के बारे में जानते हैं और आपसे भी अच्छी तरह परिचित हैं। आप कुछ ऐसे काम कर रहे हैं, जिससे एक इंजीनियर के रूप में आपका समूचा कैरियर खत्म हो सकता है। इसलिए हम आपको कुछ सलाह देना चाहते हैं। पुर्तगालियों के खिलाफ हमारे मन में कुछ नहीं है, क्योंकि हम भी तो पुर्तगाली नागरिक ही हैं।
अब ऐसे लोगों का तो कोई भी लाज नहीं है। निम्न पूंजीपति वर्ग का एक बहुत बड़ा हिस्सा है, जो कुछ नहीं कर पाता है। और जाहिर सी बात है कि आज भी वह इसी हालत में है-- कुछ तय न कर पाने की हालत में। इन लोगों का मानना है कि कबराल तो अपने कुछ साथियों के साथ अपनी किसी योजना पर काम कर रहा है। और अगर हम पुर्तगालियों को खदेड़ सकें तो यह अच्छी बात तो होगी, लेकिन.....। पुर्तगालियों से अगर किसी को नुकसान है तो इन शहरी लोगों को ही है। हालत यह है कि अगर नियुक्तियों में प्रतियोगिता का सहारा लिया जाए तो गोरे निश्चय ही आगे निकल जाएंगे। मिसाल के तौर पर आप क्रूज पिंटो के पिता को देखें। उन्हें पीछे छोड़ते हुए बहुत सारे लोग आगे निकल गए। ऐसे ही लोग हर रोज उपनिवेशवाद की वजह से नुकसान उठाते हैं। दूरदराज के जंगलों में बहुत सारे ऐसे लोग होंगे, जो किसी गोरे पुर्तगाली का दर्शन किए बैगर ही मर जाएंगे। मुझे याद है एक बार पुर्तगाल का कृषि वैज्ञानिक ओयो के इलाके में मेरे साथ गया। उसे देखकर कुछ बच्चे दौड़ते हुए वहां आ गए और उस पुर्तगाली का हाथ रगड़ कर देखने लगे क उसका रंग गोरा क्यों है? कुछ ने तो उससे पूछ ही लिया कि आप देखने में ऐसे क्यों लगते हैं। उन लोगों ने अपने जीवन में किसी गोरे व्यक्ति को देखा ही नहीं था, जबकि शहर में रहने वाले हर रोज गोरों को देखते रहते हैं। तो मैं बता रहा था कि मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग का एक ग्रुप ऐसा है, जिसे महीने के अंत में पैसे मिल जाते हैं, लेकिन उसकी कोई और इच्छा नहीं है। उनमें से कुछ यह चाहते हैं कि पुर्तगाली यहां से चले जाएं, लेकिन उन्हें खुद पर या हम पर भरोसा नहीं है कि हम उन्हें खदेड़ सकते हैं। वे भी यही सोचते हैं कि कबराल अपने मित्रों के साथ किसी योजना पर काम कर रहा है, लेकिन अगर उसकी योजना सफल नहीं हुई और हम हार गए तब क्या होगा? वैसी हालत में हमारा फ्रीज, हमारा रेडियो, महीने के अंत में मिलने वाली हमारी तनख्वाह........ यह सब चली जाएंगी और छुट्टियों में कभी पुर्तगाल जाने का हमारा सपना भी धरा का धरा रह जाएगा। उनके मन में एक आकांक्षा पलती है कि पुर्तगाल में जाकर छुट्टियां बिताएं और लौटने के बाद वहां के किस्से बढ़ा-चढ़ाकर लोगों को सुनाएं। अब ये सारी बातें ऐसी हैं, जो उन्हें हमेशा अनिश्चय की स्थिति में रखती हैं। लेकिन इन्हीं के बीच एक छोटा समूह भी है, जो शुरू से ही पूर्तगाली उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष का विचार लेकर चल रहा है और इस विचार को पूरा करने के लिए जरूरत पड़ने पर वह जान देने को भी तैयार है। इसी समूह से ऐसे लोग आए, जिन्होंने पार्टी के साथ अपने को जोड़ा। आप गौर करेंगे तो पाएंगे कि पार्टी की स्थापना से जो लोग जुड़े रहे, उनमें से अधिकांश ऐसे थे जिनके पास अच्छी खासी नौकरी थी और जिनका जीवन स्तर भी काफी हद तक ठीक ठाक था। गिनी हो अथवा केप वर्डे, इन दोनों जगहों में हमारा जो निम्न पूंजीपति वर्ग है, उसका संघर्ष के बारे में यही नजरिया है।
जो वेतन भोगी कर्मचारी हैं, वे क्या सोचते हैं? इनमें से अधिकांश संघर्ष के प्रति हमदर्दी रखते हैं। कम से कम शुरुआती दिनों में तो ऐसा ही देखने को मिलता है। वेतन या नियमित मजदूरी पाने वालों में से अधिकांश बढ़ाईगिरी, मैकेनिक, ड्राइवर या इमारतों में काम करने वाले मजदूर के रुप में जिंदगी गुजारते हैं और उन्हें शोषण का बड़ी शिद्दत से सामना करना पड़ता है, काम के बदले जो पैसे मिलते हैं वे भी बहुत कम होते हैं। एक ही काम के लिए जब इन्हें 10 स्क्यूडो मिलता है और किसी गोरे व्यक्ति को 80 तो उन्हें एहसास होता है कि अपने ही देश में उनको कैसे पराया बना दिया गया है। लेकिन ऐसे लोगों में भी कुछ मिल जाएंगे, जो संघर्ष नहीं करना चाहते हैं और उनकी सहानुभूति उपनिवेशवाद के प्रति है। जो लोग बिल्कुल कोई काम नहीं कर रहे हैं, उनके अंदर भी संघर्ष को लेकर कोई आरक्षण नहीं है। आमतौर पर इनमें से बहुत सारे ऐसे हैं जो पुर्तगाल की खुफिया पुलिस के एजेंट हैं।
खास तौर से गिनी के मामले में ध्यान देने वाली बात यह है कि एक ऐसा समूह भी है, जिसे न तो हम वेतन भोगी कर्मचारी कहेंगे और न उसे हम निम्न पूंजिपति वर्ग का मानेंगे। मैं नहीं समझ पाता कि इनको क्या नाम दिया जाए। बहुत सारे नौजवान ऐसे हैं जो लिखना-पढ़ना तो जानते हैं और कभी कभार काम पर भी लग जाते हैं, लेकिन आमतौर पर शहर का उनका खर्च कोई चाचा या मामा ही संभालता है। लेकिन उपनिवेशवादियों के साथ उनका एक स्थाई संपर्क बना रहता है। हमारे फुटबॉल के कुछ ऐसे खिलाड़ी हैं जो पुर्तगालियों से बेहद प्रभावित रहते हैं, लेकिन उन्हें आए दिन अपमान भी झेलना पड़ता है, क्योंकि अच्छे खिलाड़ी होने के बावजूद बिसाऊ इंटरनेशनल स्पोर्ट्स यूनियन के क्लब में वे नहीं जा सकते। इस तरह के लोगों को बहुत आसानी से संघर्ष में जोड़ा जा सकता है। इन लोगों ने हमारे संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई भी है, क्योंकि एक तो वे शहर में रहते हैं और दूसरे उनका अपने गांव से भी जीवंत संबंध बना हुआ है। उनके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। उन्हें पता है कि बहुत कोशिश करने पर उनको दर्जी या बढ़ई का काम तो मिल सकता है, लेकिन इससे उनकी आर्थिक स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। ये ऐसे लोग हैं जो पुर्तगाल के प्रति आकर्षित तो होते हैं, लेकिन वे अफ्रीका की धरती भी नहीं छोड़ना चाहते हैं। इनकी पढ़ाई-लिखाई शहर में हुई है और उन्हें पता है कि शहर में रह कर ही वे अपने लिए आय का इंतजाम कर सकते हैं, लेकिन उन्हें वह अपमान भी नहीं भूलता, जिनका उन्हें हर समय सामना करना पड़ता है। इन हालात के अंदर से जो चेतना पैदा होती है, उसे और मजबूत करने में पार्टी अपनी भूमिका निभाती है।
दूर-दराज के जंगली इलाकों की क्या हालत है जहां लोग बसे हुए हैं?अगर वहां हमारा बलांता समाज है तो कोई कठिनाई नहीं होगी। बलांता लोगों का एक समतल समाज है, जिसका अर्थ यह हुआ कि इस समाज में ऐसे वर्ग नहीं हैं, जो एक दूसरे से बड़े या छोटे हों। बलांता लोगों के यहां कबीले का कोई बड़ा सरदार नहीं होता। यहां पुर्तगाली शासक अपनी मर्जी से सरदार नियुक्त करते हैं। प्रत्येक परिवार और प्रत्येक कुटुंब की अपनी स्वायत्तता है और अगर कोई कठिनाई पैदा होती है तो बुजुर्गों की पंचायत बैठ कर उसका समाधान ढूंढ लेती है। यहां कोई राज्य नहीं है और न कोई ऐसा प्राधिकरण है जो सब पर शासन करता हो। बलांता लोगों के सरदार के रूप में पुर्तगाली शासक उन पर मनडिंगा थोप देते हैं या किसी अवकाश प्राप्त अफ्रीकी पुलिसमैन को कबीले का सरदार बना देते हैं। इस प्रणाली का बलांता लोग विरोध नहीं कर सकते और वे स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन उनकी निगाह में सरदार के होने या ना होने का कोई अर्थ नहीं होता। हर व्यक्ति का अपने घर में खुद का शासन है और सबके बीच एक आपसी समझदारी बनी रहती है। वो सभी मिलकर खेतों में काम करने जाते हैं और इस सिलसिले में कोई बहुत ज्यादा चर्चा करने की भी जरूरत नहीं पड़ती। ऐसा भी देखा गया है कि बलांता लोगों के दो परिवारों के मकान एक दूसरे से सटे हुए हों, लेकिन उनके बीच इसलिए किसी तरह की बातचीत न हो क्योंकि किसी जमाने में जमीन के विवाद को लेकर दोनों परिवारों के बीच अनबन हो गई थी। ऐसी हालत में उन दोनों परिवारों को एक दूसरे से किसी तरह की अपेक्षा भी नहीं रहती। लेकिन ये सब बहुत पुरानी प्रथाएं हैं और यह कब और कैसे शुरू हुई, इनके बारे में समय रहने पर विचार किया जा सकता है, और तभी संबंधों की, शादी ब्याह की या अलग-अलग आस्थाओं की पुरानी कहानियों का पिटारा भी खोला जा सकता है। अब आप यह समझिए कि बलांता समाज का तौर तरीका कुछ इस तरह है: आपके पास जितनी ही ज्यादा जमीन है, आप उतने ही ज्यादा संपन्न माने जाते हैं। लेकिन आपकी जो संपन्नता है, उसकी जमाखोरी आप नहीं कर सकते हैं। उसे आपको खर्च करना ही होगा, क्योंकि कोई एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति से अधिक संपत्ति नहीं रख सकता। हमारे देश में अन्य समाजों की ही तरह बलांता समाज का यही सिद्धांत है। इसके विपरीत फुला और मंजाको जन जातियों के अपने सरदार होते हैं, लेकिन यहां पुर्तगाली शासक अपनी ओर से सरदारों को उन पर नहीं। वे खुद ब खुद इतिहास के क्रम में पैदा होते हैं। यहां यह बताना भी जरूरी है कि गिनी में फुला और मंदिगा के रूप में कम से कम दो जातीयां ऐसी हैं, जो दूसरे देशों से आकर यहां बसी हैं। यहां के विभिन्न पहलुओं को समझने के लिए इन बातों को जानना जरूरी है, क्योंकि अगर हम अपने देश के फुला लोगों की जीवन शैली की तुलना अफ्रीका के अन्य क्षेत्रों के फुला लोगों से करेंगे तो हमें थोड़ा फर्क दिखाई देगा। हमारे देश में बहुत सारी जातियां फुला में शामिल हो गई-- कई पुराने मंदिगा के लोग भी फुला में शामिल हुए। बलांता लोगों ने इसमें शामिल होने से मना कर दिया और कुछ लोगों का यह भी मानना है कि बलांता शब्द का अर्थ होता है "जिन्होंने इनकार किया"।
बलांता, पेपेल, मनकान्हा आदि जनजातियां अफ़्रीका के बहुत अंदरूनी इलाकों की हैं, जिन्हें मनदिंगा लोगों ने ठेलते हुए समुद्र के पास पहुंचा दिया था। मिसाल के तौर पर गिनी गणराज्य के सुस्सू लोग फुला जालोन से आते हैं। जहाँ मनदिंगा लोगों ने फुला लोगों को जबरन पहुंचा दिया था। जैसा कि मैंने पहले बताया था फुला समाज में नीचे से ऊपर तक वर्गों का अस्तित्व है जबकि बलांता में ऐसा नहीं है। यहाँ जो बहुत अकड़ कर रहता है, उसकी इज्जत नहीं की जाती। उसे यह माना जाता है कि यह भी पुर्तगालियों की तरह गोरा आदमी है। इस समुदाय में अगर किसी ने बहुत ज्यादा धन पैदा कर लिया है तो उससे यह अपेक्षा की जाती है, जिसे उसे करना भी पड़ता है कि वह गांव वालों को दावत देकर उस चावल को खत्म करे। यही वजह है कि मंजाको और फुला लोगों के बीच वर्गों का, यानिकी बड़े या छोटे का अस्तित्व है। इन समाजों में सबसे ऊपर कबिले का सरदार होता है, उसके नीचे धार्मिक समुदाय का सरदार होता है और फिर महत्वपूर्ण धार्मिक नेता होते हैं और इन्हें तथा सरदार को मिलाकर उच्च वर्ग का निर्माण होता है।इसके बाद विभिन्न पेशेवर लोगों की बारी आती है, जिनमें मोची, लौहार, सोनार आदि हैं, जिन्हें किसी भी समाज में उन लोगों की बराबरी नहीं हासिल है जो लोग इस पिरामिड में सबसे ऊपर बैठे हैं। परम्परागत तौर पर अगर कोई पेशे से सोनार है तो उसे शर्मिंदा होना पड़ता है, क्योंकि अलग-अलग पेशे में भी एक श्रेणीबद्धता है-- एक ऐसी सीढी बनी हुई है, जिसमें कुछ लोग निचले पायदान पर हैं और कुछ ऊपर के पायदान पर हैं। उदाहरण के लिए लोहार को वही हैसियत नहीं प्राप्त है जो किसी मोची को है और मौची को भी वह हैसियत नहीं है जो किसी सुनार को है। इन सबके अलग-अलग पेशे हैं। इसके बाद आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा वह है जो खेत जोतता है। वह इसलिए खेत जोतता है ताकि लोग जिंदा रहने के लिए खाना खा सकें। परंपरा के अनुसार वह कबीले के सरदारों के लिए खेत जोतता है। फुला और मंजाको समाज में ऊपर बताए गए सभी सिद्धांतों के लिए ईश्वर को जिम्मेदार ठहराया जाता है और यह माना जाता है कि कबिले के सरदार का सीधा संपर्क ईश्वर से है। मंजाको समाज में कोई किसान तब तक अपनी जमीन नहीं जोत सकता है, जब तक सरदार की अनुमति न मिल जाये। सरदार का यह कहना होता है कि उसे जब ईश्वर के पास से संदेश मिलता है तभी वह खेत जोतने का आदेश देता है। सरदार की जो इच्छा होती है, वही लोगों को माननी पड़ती है। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि यह सारा चक्कर इसलिए पैदा किया गया? यह इसलिए पैदा किया गया ताकि जो लोग सबसे ऊपर के पायदान पर बैठे हुए हैं उनकी हैसियत सुरक्षित रूप से बनी रहे और निचले पायदान पर बैठे लोग कभी भी उनके खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत न करें। लेकिन हमारे देश में कभी-कभी कुछ चमत्कारी घटनाएं हो गई। और ये घटनाएं फुला लोगों के बीच हुई। हुआ यह कि निचले पायदान पर बैठे कुछ लोग खड़े हो गए और उन्होंने ऊपरी पायदान पर बैठे लोगों के खिलाफ संघर्ष शुरू कर दिया। अतीत में बहुत बड़े-बड़े किसान विद्रोह देखने को मिले। हमारे पास इसके कई उदाहरण हैं, जैसे मुसा मोलो का ही मामला लें, जिसने राजा का तख्ता पलट दिया और सिंहासन पर कब्जा कर लिया। लेकिन जैसे ही सिंहासन पर बैठा, उसने भी उन्हीं प्राचीन नियमों का पालन शुरू किया, क्योंकि वही नियम उसके लिए ज्यादा मुफीद साबित हो रही थे। फिर धीरे धीरे वह भूलता चला गया कि उसका मूल स्रोत क्या है। और यही सबसे बड़ी समस्या है।
जंगल के इस समाज में बलांता जनजाति के बहुत सारे लोगों ने संघर्ष में हिस्सा लिया और ऐसा किसी दुर्घटनावश नहीं हुआ, न इस कारण हुआ कि बलांता लोग दूसरों के मुकाबले बेहतर है। इसकी ठोस वजह यह है कि बलांता समाज ही एक अद्भुत समाज है--एक समरूप समाज है, जिसमें ऐसे लोग रहते हैं जिनकी चाहत स्वतंत्रता है और जिस समाज में, पुर्तगाली उत्पीड़कों को अगर अलग कर दें तो,शीर्ष में कोई उत्पीड़क नहीं है। बलांता लोगों को पता है कि उनके कबिले का जो सरदार ममादु है, वह स्वाभाविक तौर पर सरदार नहीं है, बल्कि पुर्तगालियों की पैदाइश है। इसी वजह से उन लोगों में इस बात की ज्यादा दिलचस्पी है कि पुर्तगाल का शासन खत्म हो और वे पूरी तरह आजाद हवा में सांस ले सके। यही वजह है कि हमारी पार्टी के जब कुछ लोग बलांता लोगों के साथ काम करते समय छोटी सी भी गलती करते हैं तो वे बर्दाश्त नहीं कर पाते और बहुत जल्दी क्रोध में आ जाते हैं।
अन्य समूहों में यह बात नहीं देखने को मिलती है, मसलन फुला और मंजाको लोगों में आप यह नहीं पाएंगे। दरअसल जनता का एक बड़ा हिस्सा जो कष्ट उठा रहा है, वह समाज के बिल्कुल निचले स्तह पर है। वह जमीन होता है। वह किसान है। लेकिन इस वर्ग और पुर्तगालियों के बीच कुछ अन्य समूह भी हैं। वे लोग भी कष्ट उठा रहे हैं-- कभी अपने खुद के लोगों द्वारा और कभी बाहरी लोगों द्वारा। जो लोग जमीन जोत रहे हैं, उन्हें सरदारों और जिलाधिकारीयों के लिए काम करना पड़ता है जिनकी संख्या काफी है। इसलिए हमने कुछ तरीके निकाले। एक बार जब उनकी समझ में यह बात अच्छी तरह आ गई तो किसानों की एक बहुत बड़ा हिस्सा संघर्ष के साथ जुड़ गया। उनसे ऊपर का जो वर्ग था अर्थात पेशेवर लोग, उनमें से कुछ संघर्ष के साथ जुड़े और कुछ अलग ही पड़े रहे। लेकिन उन लोगों के बीच से, जो खुद अपना काम करते थे मसलन कोई कारीगर अथवा धार्मिक नेता अथवा कबीले का सरदार, इनमें से बहुत कम ऐसे लोग थे जो पार्टी के साथ जुड़ सके, क्योंकि उन्हें डर था कि अगर वे संघर्ष के साथ जुड़ेंगे तो उनका विशेषाधिकार समाप्त हो जाएगा। इस तरह के वर्ग विभाजित समाजों में कोई एक समूह ऐसा होता है जो अपने विशेष भूमिका निभाता है। ये वो लोग होते हैं जो खरीद फरोख्त के लिए समान एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजते हैं। यह क्रम देश के अंदर और बाहर दोनों जगह हो सकता है। वे सामान भेजने के साथ-साथ कबिले के सरदारों को सूद पर पैसे भी देते हैं। इन लोगों को हमारे यहां दयूला भी कहा जाता है। हमारे समाज का जो ढांचा है, उसमें दयूला लोग एक विशेष समूह के हैं।
जाहिर सी बात है कि जब हमें एकता की बात करते हैं तो हमें शहर के इस समाज को अपने संघर्ष के संदर्भ में देखना चाहिए। पुर्तगाली उपनिवेशवादियों के खिलाफ लोगों को एकजुट करने में हम उन गोरों को भी शामिल कर सकते हैं जो उपनिवेशवाद समर्थक हैं लेकिन कुछ उपनिवेशवाद विरोधी भी हैं। अगर उपनिवेशवाद विरोधी गोरे हमारे साथ आते हैं तो अच्छी बात है। इससे हमें अतिरिक्त ताकत मिलती है। अब मैं आपको एक मिसाल दूं: कामरेड लुई कबराल यहां से भागने में इसलिये सफल हो गए, क्योंकि राजधानी बिसाऊ से बाहर पहुंचाने में उनको कुछ गोरों ने मदद की। इन दो गोरे लोगों में एक महिला थी जो पुर्तगाली नागरिक थी, लेकिन वह उपनिवेशवाद का विरोध करती थी। इस बात को पार्टी से बाहर के लोग नहीं जानते। इस महिला ने ही ओसवाल्डो को संघर्ष की शिक्षा दी ना कि मैंने मुझे तो ओसवाल्डो को संघर्ष के बारे में शिक्षा दी--न कि मैंने। मुझे तो ओसवाल्डो के बारे में कोई जानकारी भी नहीं थी
इसका अर्थ यह हुआ कि उपनिवेशवादी दुश्मन के खिलाफ संघर्ष में हम उन सभी साथियों को साथ लेना चाहिए, जो हमारे साथ आ सकते हैं। लेकिन ऐसा करते समय हमें अपनी आंखें बंद नहीं रखनी चाहिए। हमें यह जानना चाहिए कि उपनिवेशवाद के संदर्भ में उसका रवैया क्या है? शहरों में हम देखते हैं कि बहुत कम ऐसे गोरे हैं जोउपनिवेशवाद के खिलाफ कोई कदम उठाते हों। इसकी मुख्य वजह यह है कि वे उसी वर्ग से आते हैं, जो यहां शासन कर रहे हैं। दूसरी वजह यह है कि उनकी अपनी जिंदगी है और इस बात में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं है कि किसके शासन से किसको कौन सी तकलीफ हो रही है। इसके अलावा एक बात और है कि जो गोरे हमारे यहां काम कर रहे हैं या रह रहे हैं, उनके पास आमतौर पर इस तरह का कोई राजनीतिक प्रशिक्षण नहीं है कि वे किसी सत्ता के बारे में कोई स्पष्ट नजरिया बना सकें।
लेकिन एक अफ्रीकी के रूप में हमारी क्या स्थिति है? उस समूह में जिन्हें हम निम्न पूंजीपति वर्ग कह सकते हैं और जिनकी आजीविका सुनिश्चित है, वे चाहे गिनी के हों अथवा केप वर्डे के, उनमें तीन तरह के लोग हैं। एक छोटा लेकिन शक्तिशाली समूह ऐसा है जो उपनिवेशवादियों के पक्ष में खड़ा होता है। ये लोग न तो उनके खिलाफ सुनना चाहते हैं और न उनके विरूद्ध किसी तरह के संघर्ष में दिलचस्पी लेते हैं। इनमें से कुछ लोग, खाते-पीते परिवारों के थे, मेरे घर में आये। उन्होंने आकर मुझसे कहा कि हम आपसे कुछ बात करना चाहते हैं। हम लोग आपके पिताजी के बारे में जानते हैं और आपसे भी अच्छी तरह परिचित हैं। आप कुछ ऐसे काम कर रहे हैं, जिससे एक इंजीनियर के रूप में आपका समूचा कैरियर खत्म हो सकता है। इसलिए हम आपको कुछ सलाह देना चाहते हैं। पुर्तगालियों के खिलाफ हमारे मन में कुछ नहीं है, क्योंकि हम भी तो पुर्तगाली नागरिक ही हैं।
अब ऐसे लोगों का तो कोई भी लाज नहीं है। निम्न पूंजीपति वर्ग का एक बहुत बड़ा हिस्सा है, जो कुछ नहीं कर पाता है। और जाहिर सी बात है कि आज भी वह इसी हालत में है-- कुछ तय न कर पाने की हालत में। इन लोगों का मानना है कि कबराल तो अपने कुछ साथियों के साथ अपनी किसी योजना पर काम कर रहा है। और अगर हम पुर्तगालियों को खदेड़ सकें तो यह अच्छी बात तो होगी, लेकिन.....। पुर्तगालियों से अगर किसी को नुकसान है तो इन शहरी लोगों को ही है। हालत यह है कि अगर नियुक्तियों में प्रतियोगिता का सहारा लिया जाए तो गोरे निश्चय ही आगे निकल जाएंगे। मिसाल के तौर पर आप क्रूज पिंटो के पिता को देखें। उन्हें पीछे छोड़ते हुए बहुत सारे लोग आगे निकल गए। ऐसे ही लोग हर रोज उपनिवेशवाद की वजह से नुकसान उठाते हैं। दूरदराज के जंगलों में बहुत सारे ऐसे लोग होंगे, जो किसी गोरे पुर्तगाली का दर्शन किए बैगर ही मर जाएंगे। मुझे याद है एक बार पुर्तगाल का कृषि वैज्ञानिक ओयो के इलाके में मेरे साथ गया। उसे देखकर कुछ बच्चे दौड़ते हुए वहां आ गए और उस पुर्तगाली का हाथ रगड़ कर देखने लगे क उसका रंग गोरा क्यों है? कुछ ने तो उससे पूछ ही लिया कि आप देखने में ऐसे क्यों लगते हैं। उन लोगों ने अपने जीवन में किसी गोरे व्यक्ति को देखा ही नहीं था, जबकि शहर में रहने वाले हर रोज गोरों को देखते रहते हैं। तो मैं बता रहा था कि मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग का एक ग्रुप ऐसा है, जिसे महीने के अंत में पैसे मिल जाते हैं, लेकिन उसकी कोई और इच्छा नहीं है। उनमें से कुछ यह चाहते हैं कि पुर्तगाली यहां से चले जाएं, लेकिन उन्हें खुद पर या हम पर भरोसा नहीं है कि हम उन्हें खदेड़ सकते हैं। वे भी यही सोचते हैं कि कबराल अपने मित्रों के साथ किसी योजना पर काम कर रहा है, लेकिन अगर उसकी योजना सफल नहीं हुई और हम हार गए तब क्या होगा? वैसी हालत में हमारा फ्रीज, हमारा रेडियो, महीने के अंत में मिलने वाली हमारी तनख्वाह........ यह सब चली जाएंगी और छुट्टियों में कभी पुर्तगाल जाने का हमारा सपना भी धरा का धरा रह जाएगा। उनके मन में एक आकांक्षा पलती है कि पुर्तगाल में जाकर छुट्टियां बिताएं और लौटने के बाद वहां के किस्से बढ़ा-चढ़ाकर लोगों को सुनाएं। अब ये सारी बातें ऐसी हैं, जो उन्हें हमेशा अनिश्चय की स्थिति में रखती हैं। लेकिन इन्हीं के बीच एक छोटा समूह भी है, जो शुरू से ही पूर्तगाली उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष का विचार लेकर चल रहा है और इस विचार को पूरा करने के लिए जरूरत पड़ने पर वह जान देने को भी तैयार है। इसी समूह से ऐसे लोग आए, जिन्होंने पार्टी के साथ अपने को जोड़ा। आप गौर करेंगे तो पाएंगे कि पार्टी की स्थापना से जो लोग जुड़े रहे, उनमें से अधिकांश ऐसे थे जिनके पास अच्छी खासी नौकरी थी और जिनका जीवन स्तर भी काफी हद तक ठीक ठाक था। गिनी हो अथवा केप वर्डे, इन दोनों जगहों में हमारा जो निम्न पूंजीपति वर्ग है, उसका संघर्ष के बारे में यही नजरिया है।
जो वेतन भोगी कर्मचारी हैं, वे क्या सोचते हैं? इनमें से अधिकांश संघर्ष के प्रति हमदर्दी रखते हैं। कम से कम शुरुआती दिनों में तो ऐसा ही देखने को मिलता है। वेतन या नियमित मजदूरी पाने वालों में से अधिकांश बढ़ाईगिरी, मैकेनिक, ड्राइवर या इमारतों में काम करने वाले मजदूर के रुप में जिंदगी गुजारते हैं और उन्हें शोषण का बड़ी शिद्दत से सामना करना पड़ता है, काम के बदले जो पैसे मिलते हैं वे भी बहुत कम होते हैं। एक ही काम के लिए जब इन्हें 10 स्क्यूडो मिलता है और किसी गोरे व्यक्ति को 80 तो उन्हें एहसास होता है कि अपने ही देश में उनको कैसे पराया बना दिया गया है। लेकिन ऐसे लोगों में भी कुछ मिल जाएंगे, जो संघर्ष नहीं करना चाहते हैं और उनकी सहानुभूति उपनिवेशवाद के प्रति है। जो लोग बिल्कुल कोई काम नहीं कर रहे हैं, उनके अंदर भी संघर्ष को लेकर कोई आरक्षण नहीं है। आमतौर पर इनमें से बहुत सारे ऐसे हैं जो पुर्तगाल की खुफिया पुलिस के एजेंट हैं।
खास तौर से गिनी के मामले में ध्यान देने वाली बात यह है कि एक ऐसा समूह भी है, जिसे न तो हम वेतन भोगी कर्मचारी कहेंगे और न उसे हम निम्न पूंजिपति वर्ग का मानेंगे। मैं नहीं समझ पाता कि इनको क्या नाम दिया जाए। बहुत सारे नौजवान ऐसे हैं जो लिखना-पढ़ना तो जानते हैं और कभी कभार काम पर भी लग जाते हैं, लेकिन आमतौर पर शहर का उनका खर्च कोई चाचा या मामा ही संभालता है। लेकिन उपनिवेशवादियों के साथ उनका एक स्थाई संपर्क बना रहता है। हमारे फुटबॉल के कुछ ऐसे खिलाड़ी हैं जो पुर्तगालियों से बेहद प्रभावित रहते हैं, लेकिन उन्हें आए दिन अपमान भी झेलना पड़ता है, क्योंकि अच्छे खिलाड़ी होने के बावजूद बिसाऊ इंटरनेशनल स्पोर्ट्स यूनियन के क्लब में वे नहीं जा सकते। इस तरह के लोगों को बहुत आसानी से संघर्ष में जोड़ा जा सकता है। इन लोगों ने हमारे संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई भी है, क्योंकि एक तो वे शहर में रहते हैं और दूसरे उनका अपने गांव से भी जीवंत संबंध बना हुआ है। उनके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। उन्हें पता है कि बहुत कोशिश करने पर उनको दर्जी या बढ़ई का काम तो मिल सकता है, लेकिन इससे उनकी आर्थिक स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। ये ऐसे लोग हैं जो पुर्तगाल के प्रति आकर्षित तो होते हैं, लेकिन वे अफ्रीका की धरती भी नहीं छोड़ना चाहते हैं। इनकी पढ़ाई-लिखाई शहर में हुई है और उन्हें पता है कि शहर में रह कर ही वे अपने लिए आय का इंतजाम कर सकते हैं, लेकिन उन्हें वह अपमान भी नहीं भूलता, जिनका उन्हें हर समय सामना करना पड़ता है। इन हालात के अंदर से जो चेतना पैदा होती है, उसे और मजबूत करने में पार्टी अपनी भूमिका निभाती है।
दूर-दराज के जंगली इलाकों की क्या हालत है जहां लोग बसे हुए हैं?अगर वहां हमारा बलांता समाज है तो कोई कठिनाई नहीं होगी। बलांता लोगों का एक समतल समाज है, जिसका अर्थ यह हुआ कि इस समाज में ऐसे वर्ग नहीं हैं, जो एक दूसरे से बड़े या छोटे हों। बलांता लोगों के यहां कबीले का कोई बड़ा सरदार नहीं होता। यहां पुर्तगाली शासक अपनी मर्जी से सरदार नियुक्त करते हैं। प्रत्येक परिवार और प्रत्येक कुटुंब की अपनी स्वायत्तता है और अगर कोई कठिनाई पैदा होती है तो बुजुर्गों की पंचायत बैठ कर उसका समाधान ढूंढ लेती है। यहां कोई राज्य नहीं है और न कोई ऐसा प्राधिकरण है जो सब पर शासन करता हो। बलांता लोगों के सरदार के रूप में पुर्तगाली शासक उन पर मनडिंगा थोप देते हैं या किसी अवकाश प्राप्त अफ्रीकी पुलिसमैन को कबीले का सरदार बना देते हैं। इस प्रणाली का बलांता लोग विरोध नहीं कर सकते और वे स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन उनकी निगाह में सरदार के होने या ना होने का कोई अर्थ नहीं होता। हर व्यक्ति का अपने घर में खुद का शासन है और सबके बीच एक आपसी समझदारी बनी रहती है। वो सभी मिलकर खेतों में काम करने जाते हैं और इस सिलसिले में कोई बहुत ज्यादा चर्चा करने की भी जरूरत नहीं पड़ती। ऐसा भी देखा गया है कि बलांता लोगों के दो परिवारों के मकान एक दूसरे से सटे हुए हों, लेकिन उनके बीच इसलिए किसी तरह की बातचीत न हो क्योंकि किसी जमाने में जमीन के विवाद को लेकर दोनों परिवारों के बीच अनबन हो गई थी। ऐसी हालत में उन दोनों परिवारों को एक दूसरे से किसी तरह की अपेक्षा भी नहीं रहती। लेकिन ये सब बहुत पुरानी प्रथाएं हैं और यह कब और कैसे शुरू हुई, इनके बारे में समय रहने पर विचार किया जा सकता है, और तभी संबंधों की, शादी ब्याह की या अलग-अलग आस्थाओं की पुरानी कहानियों का पिटारा भी खोला जा सकता है। अब आप यह समझिए कि बलांता समाज का तौर तरीका कुछ इस तरह है: आपके पास जितनी ही ज्यादा जमीन है, आप उतने ही ज्यादा संपन्न माने जाते हैं। लेकिन आपकी जो संपन्नता है, उसकी जमाखोरी आप नहीं कर सकते हैं। उसे आपको खर्च करना ही होगा, क्योंकि कोई एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति से अधिक संपत्ति नहीं रख सकता। हमारे देश में अन्य समाजों की ही तरह बलांता समाज का यही सिद्धांत है। इसके विपरीत फुला और मंजाको जन जातियों के अपने सरदार होते हैं, लेकिन यहां पुर्तगाली शासक अपनी ओर से सरदारों को उन पर नहीं। वे खुद ब खुद इतिहास के क्रम में पैदा होते हैं। यहां यह बताना भी जरूरी है कि गिनी में फुला और मंदिगा के रूप में कम से कम दो जातीयां ऐसी हैं, जो दूसरे देशों से आकर यहां बसी हैं। यहां के विभिन्न पहलुओं को समझने के लिए इन बातों को जानना जरूरी है, क्योंकि अगर हम अपने देश के फुला लोगों की जीवन शैली की तुलना अफ्रीका के अन्य क्षेत्रों के फुला लोगों से करेंगे तो हमें थोड़ा फर्क दिखाई देगा। हमारे देश में बहुत सारी जातियां फुला में शामिल हो गई-- कई पुराने मंदिगा के लोग भी फुला में शामिल हुए। बलांता लोगों ने इसमें शामिल होने से मना कर दिया और कुछ लोगों का यह भी मानना है कि बलांता शब्द का अर्थ होता है "जिन्होंने इनकार किया"।
बलांता, पेपेल, मनकान्हा आदि जनजातियां अफ़्रीका के बहुत अंदरूनी इलाकों की हैं, जिन्हें मनदिंगा लोगों ने ठेलते हुए समुद्र के पास पहुंचा दिया था। मिसाल के तौर पर गिनी गणराज्य के सुस्सू लोग फुला जालोन से आते हैं। जहाँ मनदिंगा लोगों ने फुला लोगों को जबरन पहुंचा दिया था। जैसा कि मैंने पहले बताया था फुला समाज में नीचे से ऊपर तक वर्गों का अस्तित्व है जबकि बलांता में ऐसा नहीं है। यहाँ जो बहुत अकड़ कर रहता है, उसकी इज्जत नहीं की जाती। उसे यह माना जाता है कि यह भी पुर्तगालियों की तरह गोरा आदमी है। इस समुदाय में अगर किसी ने बहुत ज्यादा धन पैदा कर लिया है तो उससे यह अपेक्षा की जाती है, जिसे उसे करना भी पड़ता है कि वह गांव वालों को दावत देकर उस चावल को खत्म करे। यही वजह है कि मंजाको और फुला लोगों के बीच वर्गों का, यानिकी बड़े या छोटे का अस्तित्व है। इन समाजों में सबसे ऊपर कबिले का सरदार होता है, उसके नीचे धार्मिक समुदाय का सरदार होता है और फिर महत्वपूर्ण धार्मिक नेता होते हैं और इन्हें तथा सरदार को मिलाकर उच्च वर्ग का निर्माण होता है।इसके बाद विभिन्न पेशेवर लोगों की बारी आती है, जिनमें मोची, लौहार, सोनार आदि हैं, जिन्हें किसी भी समाज में उन लोगों की बराबरी नहीं हासिल है जो लोग इस पिरामिड में सबसे ऊपर बैठे हैं। परम्परागत तौर पर अगर कोई पेशे से सोनार है तो उसे शर्मिंदा होना पड़ता है, क्योंकि अलग-अलग पेशे में भी एक श्रेणीबद्धता है-- एक ऐसी सीढी बनी हुई है, जिसमें कुछ लोग निचले पायदान पर हैं और कुछ ऊपर के पायदान पर हैं। उदाहरण के लिए लोहार को वही हैसियत नहीं प्राप्त है जो किसी मोची को है और मौची को भी वह हैसियत नहीं है जो किसी सुनार को है। इन सबके अलग-अलग पेशे हैं। इसके बाद आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा वह है जो खेत जोतता है। वह इसलिए खेत जोतता है ताकि लोग जिंदा रहने के लिए खाना खा सकें। परंपरा के अनुसार वह कबीले के सरदारों के लिए खेत जोतता है। फुला और मंजाको समाज में ऊपर बताए गए सभी सिद्धांतों के लिए ईश्वर को जिम्मेदार ठहराया जाता है और यह माना जाता है कि कबिले के सरदार का सीधा संपर्क ईश्वर से है। मंजाको समाज में कोई किसान तब तक अपनी जमीन नहीं जोत सकता है, जब तक सरदार की अनुमति न मिल जाये। सरदार का यह कहना होता है कि उसे जब ईश्वर के पास से संदेश मिलता है तभी वह खेत जोतने का आदेश देता है। सरदार की जो इच्छा होती है, वही लोगों को माननी पड़ती है। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि यह सारा चक्कर इसलिए पैदा किया गया? यह इसलिए पैदा किया गया ताकि जो लोग सबसे ऊपर के पायदान पर बैठे हुए हैं उनकी हैसियत सुरक्षित रूप से बनी रहे और निचले पायदान पर बैठे लोग कभी भी उनके खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत न करें। लेकिन हमारे देश में कभी-कभी कुछ चमत्कारी घटनाएं हो गई। और ये घटनाएं फुला लोगों के बीच हुई। हुआ यह कि निचले पायदान पर बैठे कुछ लोग खड़े हो गए और उन्होंने ऊपरी पायदान पर बैठे लोगों के खिलाफ संघर्ष शुरू कर दिया। अतीत में बहुत बड़े-बड़े किसान विद्रोह देखने को मिले। हमारे पास इसके कई उदाहरण हैं, जैसे मुसा मोलो का ही मामला लें, जिसने राजा का तख्ता पलट दिया और सिंहासन पर कब्जा कर लिया। लेकिन जैसे ही सिंहासन पर बैठा, उसने भी उन्हीं प्राचीन नियमों का पालन शुरू किया, क्योंकि वही नियम उसके लिए ज्यादा मुफीद साबित हो रही थे। फिर धीरे धीरे वह भूलता चला गया कि उसका मूल स्रोत क्या है। और यही सबसे बड़ी समस्या है।
जंगल के इस समाज में बलांता जनजाति के बहुत सारे लोगों ने संघर्ष में हिस्सा लिया और ऐसा किसी दुर्घटनावश नहीं हुआ, न इस कारण हुआ कि बलांता लोग दूसरों के मुकाबले बेहतर है। इसकी ठोस वजह यह है कि बलांता समाज ही एक अद्भुत समाज है--एक समरूप समाज है, जिसमें ऐसे लोग रहते हैं जिनकी चाहत स्वतंत्रता है और जिस समाज में, पुर्तगाली उत्पीड़कों को अगर अलग कर दें तो,शीर्ष में कोई उत्पीड़क नहीं है। बलांता लोगों को पता है कि उनके कबिले का जो सरदार ममादु है, वह स्वाभाविक तौर पर सरदार नहीं है, बल्कि पुर्तगालियों की पैदाइश है। इसी वजह से उन लोगों में इस बात की ज्यादा दिलचस्पी है कि पुर्तगाल का शासन खत्म हो और वे पूरी तरह आजाद हवा में सांस ले सके। यही वजह है कि हमारी पार्टी के जब कुछ लोग बलांता लोगों के साथ काम करते समय छोटी सी भी गलती करते हैं तो वे बर्दाश्त नहीं कर पाते और बहुत जल्दी क्रोध में आ जाते हैं।
अन्य समूहों में यह बात नहीं देखने को मिलती है, मसलन फुला और मंजाको लोगों में आप यह नहीं पाएंगे। दरअसल जनता का एक बड़ा हिस्सा जो कष्ट उठा रहा है, वह समाज के बिल्कुल निचले स्तह पर है। वह जमीन होता है। वह किसान है। लेकिन इस वर्ग और पुर्तगालियों के बीच कुछ अन्य समूह भी हैं। वे लोग भी कष्ट उठा रहे हैं-- कभी अपने खुद के लोगों द्वारा और कभी बाहरी लोगों द्वारा। जो लोग जमीन जोत रहे हैं, उन्हें सरदारों और जिलाधिकारीयों के लिए काम करना पड़ता है जिनकी संख्या काफी है। इसलिए हमने कुछ तरीके निकाले। एक बार जब उनकी समझ में यह बात अच्छी तरह आ गई तो किसानों की एक बहुत बड़ा हिस्सा संघर्ष के साथ जुड़ गया। उनसे ऊपर का जो वर्ग था अर्थात पेशेवर लोग, उनमें से कुछ संघर्ष के साथ जुड़े और कुछ अलग ही पड़े रहे। लेकिन उन लोगों के बीच से, जो खुद अपना काम करते थे मसलन कोई कारीगर अथवा धार्मिक नेता अथवा कबीले का सरदार, इनमें से बहुत कम ऐसे लोग थे जो पार्टी के साथ जुड़ सके, क्योंकि उन्हें डर था कि अगर वे संघर्ष के साथ जुड़ेंगे तो उनका विशेषाधिकार समाप्त हो जाएगा। इस तरह के वर्ग विभाजित समाजों में कोई एक समूह ऐसा होता है जो अपने विशेष भूमिका निभाता है। ये वो लोग होते हैं जो खरीद फरोख्त के लिए समान एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजते हैं। यह क्रम देश के अंदर और बाहर दोनों जगह हो सकता है। वे सामान भेजने के साथ-साथ कबिले के सरदारों को सूद पर पैसे भी देते हैं। इन लोगों को हमारे यहां दयूला भी कहा जाता है। हमारे समाज का जो ढांचा है, उसमें दयूला लोग एक विशेष समूह के हैं।
इस तरह के समाज वर्गों में विभाजित होते हैं: सत्ताधारी वर्ग, शिल्पी वर्ग और किसान वर्ग। हमारे लिए यह बहुत जरूरी था कि समाज के विभिन्न वर्गों, विभिन्न तत्वों में सक्रिय शक्तियों के साथ जितना ज्यादा संभव हो सके, एकता स्थापित करें ताकि हम अपनी धरती पर व्यापक संघर्ष चला सकें। जैसा कि मैंने पहले ही कहा है, हर एक व्यक्ति को एकजुट करना जरूरी नहीं है। लेकिन यह तो जरूरी है ही कि एक खास सीमा तक हम एकता स्थापित कर लें। यह किसी समाज को व्यापक अर्थ में कहें तो महज उसकी सामाजिक संरचना की दृष्टि से देखना होगा, क्योंकि हमारे समाज में विभिन्न जातीय समूह के लोग रहते हैं। इनमें से कुछ लोगों की अलग संस्कृति है तो कुछ लोगों के रीति रिवाज एकदम अलग हैं। ये लोग विभिन्न ग्रुपों से आये हैं-- फुला, मनदिंगा, पेपेल बलांता, मंजाको, मनकान्हा आदि। इन्हीं समूहों के साथ वे लोग भी हैं, केप वर्डे द्वीप में बसे हुए गिनीवासी हैं।
केप वर्डे के ग्रामीण क्षेत्रों में मामला थोड़ा जटिल है। यहां कुछ छोटे बड़े जिम्मेदार हैं, उनसे जुड़े कुछ काश्तकार हैं और फिर बटाईदार हैं जो उन जमीनों को जोतते हैं, जिनका मालिक कोई और है और बाद में पैदावार का एक हिस्सा मालिक दे देते हैं। जो काश्तकार हैं, वे भी दूसरे की जमीन जोतते हैं, लेकिन वे इसके बदले में मालिक को लगान देते हैं। इसके बाद कुछ खेतिहर मजदूर हैं और उनसे एक वर्ग बनता है। ये लोग दूसरे की संपत्ति पर काम करते हैं। अब इसे खुशी की बात कहें या दुख की, लेकिन बड़े जमींदारों के साथ हालत यह हुई कि केप वर्डे में संकट आने के साथ ही उनके हाथ से जमीन का काफी हिस्सा निकल गया। इसका कारण सुखे से ज्यादा पुर्तगाली शासकों का कुशासन था। इस विपत्ति के बाद उन्हें बैंक के पास जमीन गिरवी रखनी पड़ी, ताकि वे कर्ज ले सकें, लेकिन वे कर्ज की राशि अदा नहीं कर सके और फिर अपनी जमीन से भी हाथ धो बैठे। इसलिए आज हालत यह हो गई है कि हमारे देश में सबसे बड़ी जमींदार के रूप में ये बैंक हैं। अभी भी कुछ छोटे भू-स्वामी बचे हुए हैं, लेकिन काश्तकारों ने बैंक से जमीन लेना बेहतर समझा और अब वे लगान की राशि भी बैंक को ही देते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि अभी एक ग्रुप ऐसा है, जिसके पास जमीन बिल्कुल नहीं है। इसके विपरीत गिनी में हम किसी से यह नहीं कह सकते कि आओ जमीन के लिए लड़ाई लड़े। जबकि केप वर्डे में हमारा मुख्य नारा ही यही है कि अगर लड़ोगे तभी तुम्हारे पास जमीन होगी। गिनी के ग्रामीण क्षेत्रों और केप वर्डे के ग्रामीण क्षेत्रों के संघर्ष में यह बुनियादी फर्क है। अगर हम ढंग से काम करें तो सभी समूह संघर्ष का समर्थन करेंगे। बेशक जो बड़े जमींदार हैं, वे तो इसका विरोध करेंगे ही। लेकिन जो छोटे भूस्वामी हैं उनमें से कुछ साथ आएंगे कुछ विरोध करेंगे, क्योंकि उनकी स्थिति निम्न पूंजिपति वर्ग की होती है। कुछ इसलिए हमारे खिलाफ होंगे, क्योंकि उन्हें लगता है कि हम सारी जमीन पर कब्जा कर लेंगे और निजी संपत्ति को समाप्त कर देंगे। कुछ इसलिये समर्थन में होंगे, कि उन्हें लगता है कि हम सारी जमीन लेकर एक बड़ी जोत का रूप देंगे, जिसमें लोगों का खुलकर काम कर सकेंगे। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो न पक्ष में है और न विपक्ष में, क्योंकि उन्हें यह बात अभी समझ में नहीं आ रही है कि वे कुछ पाएंगे या कुछ खोएंगे। पुर्तगाली शासन के अधीन उनकी स्थिति मोटे तौर पर ठीक-ठाक है और इसीलिए इस स्थिति को तोड़ने में उन्हें हिचकिचाहट हो रही है।
कुछ और अंतर्विरोध भी हैं। मिसाल के तौर पर गिनी में कुछ जातीय समूह भी हैं, जिन्हें हम कबिला कहते हैं। आपको पता है कि अतीत में इनके बीच कितना अंतर्विरोध रहा है। 1930 के दशक में बिसाऊ में बिसालांका में और मंजाकोस में हम यह अंतर्विरोध देख चुके हैं। हमें यह भी पता है कि 1954 में ओआयो में बलांता और ओइंका के बीच गंभीर अंतर्विरोध देखने को मिला था। ये सारी गड़बड़ियां पुराने विचारों की वजह से होती हैं, जो लोगों के दिमाग में जमकर बैठी हुई हैं। लेकिन व्यावहारिक स्वार्थ भी इसके पीछे छिपे होते हैं। अन्तर्विरोधों के पीछे हम बहुत सारे कारण देखते हैं। कभी किसी ने किसी के मवेशी चुरा लिए या किसी की पत्नी को लेकर भाग गया या कोई ऐसी जमीन जोत ली जो उसकी नहीं थी, लेकिन वह दावा करता था। पुर्तगाली शासक हमारे लोगों के बीच संघर्ष को बनाए रखने के लिए इन छोटी-छोटी बातों का इस्तेमाल करते रहते हैं और उन्हें एक दूसरे के खिलाफ उकसाते रहते हैं। इन अंतर्विरोधों को हमें गहराई से समझना होगा और इन पर सोचना होगा।
गिनी और केप वर्डे में हमारा उद्देश्य यह होना चाहिए कि कैसे हम अच्छे से अच्छे तरीके से इन अंतर्विरोधों को समाप्त करें और एक सांझा उद्देश्य के इर्द गिर्द एकजुट होने की चेतना लोगों के अंदर पैदा करें और वह सांझा उद्देश्य यही होना चाहिए कि हम पुर्तगाली उपनिवेशवादीयों को देश से बाहर निकालें।
गिनी और केप वर्डे के संदर्भ में हमें इन पहलुओं पर विचार करना चाहिए। क्या इन दोनों के बीच भी कोई अंतर्विरोध है। इस पहलू पर विचार करें तो स्तह पर हमें कुछ अंतर्विरोध दिखाई देते हैं। हमने देखा है कि गिनी में सरकारी सेवा में और गिन के कुछ जिलों में प्रमुख के पदों पर केप वर्ड़े के लोग हैं। इसके पिछे वजह यह है कि केप वर्डे में शिक्षा का स्तर ज्यादा उन्नत है और इस लिए गिनी वासियों के मुकाबले अच्छे पदों पर नियुक्त होने की संभावना ज्यादा होती है। अब होता यह है कि लोग महसूस करने लगते हैं गिनी की जनता के हित केप वर्डे के लोगों के हाथों में पहुंच गया है, केप वर्डे के लोग ही ज्यादा फायदा उठा रहे हैं। लेकिन हम अगर बारीकी से देखें तो शहरों में यह स्थिति नहीं है। शहरों में गिनी के लोग ज्यादा लाभकारी स्थिति में है। अगर और इसका विश्लेषण करें तो पाएंगे कि केप वर्डे और गिनी दोनों इलाकों के लोग समान रूप से शोषण के शिकार हैं। केप वर्डे की हालत तो और भी ज्यादा खराब है-- वहां भुखमरी भी है और वहां के लोग जानवरों की तरह अंगोला तथा साओ तोमे भेजे जाते हैं ताकि मजदूरी करें। इसलिए इन छोटे-छोटे अंतर्विरोधों को किनारे करते हुए अपनी सोच को थोड़ा उन्नत करना होगा।
अफ्रीकन पॉर्टी फॉर दि इंडिपेंडेंस ऑफ गिनी एंड केप वर्डे (PAIGC) में हमने महसूस किया है कि गिनी और केप वर्डे की एकता स्थापित करने में कोई बहुत ज्यादा कठिनाई नहीं होनी चाहिए। अलग-अलग ढंग से इन दोनों इलाकों को हम देखेंगे तो अंतर्विरोधों का स्वरूप बहुत बड़ा दिखाई देगा, लेकिन अगर दोनों को हम एक करके समझने की कोशिश करें तो पाएंगे कि ये अंतर्विरोध काफी कम हो गए हैं। हमें इन बातों को ध्यान में रखकर अपने काम को आगे बढ़ाना चाहिए।
साभार -:
अमिल्कर कबराल-- जीवन संघर्ष और विचार
अनुवाद व संपादन
आनंद स्वरूप वर्मा
गार्गी प्रकाशन
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