Thursday 23 July 2020

शहादतनामा


चंद्रशेखर आजाद

चंद्रशेखर का जन्म भाबरा गांव (अब चंद्रशेखर आजाद नगर) अलीराजपुर जिले में 23 जुलाई, 1906 को हुआ था।  उनकी मां का नाम जगरानी देवी था। उनके पिता पंडित सीताराम मध्य प्रदेश के अलीराजपुर रियासत में नौकरी करते थे और भाबरा में जाकर बस गए थे। वहीं चंद्रशेखर का बचपन बीता। आदिवासी बहुल क्षेत्र होने के चलते चन्द्रशेखर भील बच्चों के साथ खूब धनुषबाण चलाते थे और बचपन में ही निशानेबाजी में माहिर हो गए थे। धीरे धीरे बालक चंद्र का मन देश को आजाद कराने के अहिंसात्मक उपायों से हटकर सशस्त्र क्रांति की ओर मुड़ गया। उस समय बनारस क्रांतिकारियों का गढ़ था। वहां वे मन्मथनाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी के संपर्क में आए और क्रांतिकारी दल के सदस्य बन गए। क्रांतिकारियों का यह दल हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ के नाम से जाना जाता था।

पहली घटना

1919 में हुए अमृतसर के जलियांवाला बाग नरसंहार ने पूरे देश के नवयुवकों को उद्वेलित कर दिया। सन् 1921 में जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन का फरमान जारी किया तो यह आग ज्वालामुखी बनकर फूट पड़ी और तमाम अन्य छात्रों की भांति चंद्रशेखर भी सड़कों पर उतर आये। अपने स्कूल के छात्रों के साथ इस आंदोलन के दौरान पिकेटिंग करते समय वे पहली बार गिरफ्तार हुए और उन्हें 15 बेंतों की सजा मिली। इस घटना का उल्लेख पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कायदा तोड़ने वाले एक लड़के की कहानी के रूप में किया है, "ऐसे ही जेल के कायदे (कानून) तोड़ने के लिए एक छोटे से लड़के को, जिसकी उम्र 15-16 साल थी और जो अपने को आजाद कहता था, बेंत की सजा दी गयी। वह नंगा किया गया और बेंत की टिकटी से बांध दिया गया। जैसे-जैसे बेंत उस पर पड़ते थे और उसकी चमड़ी उधेड़ डालते थे, वह "भारत माता की जय!" चिल्लाता था। हर बेंत के साथ वह लड़का तब तक यही नारा लगाता रहा, जब तक वह बेहोश न हो गया। बाद में वह लड़का उत्तर भारत के आतंककारी कार्यों के दल का एक बड़ा नेता बना।" चन्द्रशेखर के साथी व जाने-माने लेखक मन्मथनाथ गुप्त के अनुसार, "पंडित नेहरू द्वारा चंद्रशेखर के बारे में आंतकवादी तथा कानून तोड़ने वाला लिखना तथ्यों को तोड़ना मरोड़ना तथा बेहद गलत ब्यानी है। चंद्रशेखर तथा उनके साथियों का आतंकवाद में कभी विश्वास नहीं रहा। उनकी तो पार्टी के नाम में भी समाजवादी शब्द जुड़ा हुआ था-- "हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ" उनका निशाना समाजवाद था, जिसे नेहरू तथा उनकी मंडली ने बहुत बाद में अपने घोषणापत्र में डाला था। दूसरे, जहां तक जेल के कानून तोड़ने की बात है तो आजाद कभी जेल में रहे ही नहीं। सिवाय उस एक आध दिन की हिरासत के, जब असहयोग आंदोलन के दौरान विदेशी वस्तुओं के खिलाफ पिकेटिंग करते समय उन्हें बेंत की सजा मिली थी।

क्रांतिकारी संगठन

असहयोग आंदोलन के दौरान जब फरवरी 1922 में चौरी-चौरा की घटना के पश्चात बिना किसी से पूछे गांधी जी ने आंदोलन वापस ले लिया तो देश के तमाम नवयुवकों की तरह आजाद का भी कांग्रेसी मोह बंग हो गया। ऐसे में रामप्रसाद बिस्मिल, सचिंद्रनाथ सान्याल तथा जोगेशचंद्र चटर्जी आदि ने 1924 में उत्तर भारतीय क्रांतिकारियों को लेकर हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ-- एचआरए का गठन किया। आजाद भी इस दल में शामिल हो गये। इस संगठन ने जब क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए धन की व्यवस्था करने हेतु गांव के अमीर घरों में डकैतियां डाली, तो तय किया गया कि किसी भी औरत के ऊपर हाथ नहीं उठाया जाएगा। एक गांव में बिस्मिल के नेतृत्व में डाली गई डकैती में जब एक औरत ने आजाद का पिस्तौल छीन लिया तो अपने बलशाली शरीर के बावजूद आजाद ने उस पर हाथ नहीं उठाया। बात इतनी बढ़ गई कि गांव वालों ने क्रांतिकारियों को चोर-लुटेरे समझकर उन पर हमला कर दिया। इसके बाद दल ने केवल सरकारी प्रतिष्ठानों को ही लूटने का फैसला किया। 1 जनवरी, 1925 को दल ने पूरे देश में अपना पर्चा द रिवोल्यूशनरी बांटा, जिसमें दल की नीतियों का खुलासा किया गया था। इस पर्चे में सशस्त्र क्रांति की चर्चा की गई थी। इश्तहार के लेखक के रूप में विजय सिंह का छद्म नाम दिया गया था।
9 अगस्त, 1925 को काकोरी कांड को अंजाम दिया गया। इसके बाद सरकार दल को जड़ से उखाड़ने पर तुल गई। अंग्रेजो ने पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां एवं ठाकुर रोशन सिंह को 19 दिसंबर, 1927 तथा उससे दो दिन पूर्व राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को फांसी दे दी। परंतु अंग्रेज हर संभव प्रयास करने के बावजूद चंद्रशेखर आजाद को नहीं पकड़ सके। आजाद ने भगत सिंह के साथ मिलकर क्रांतिकारियों को छुड़ाने की योजना भी बनाई, लेकिन किसी कारणवश वह योजना पूरी नहीं हो सकी।
8 सिंतबर, 1928 को चंद्रशेखर आजाद ने दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में उत्तर भारत के सभी क्रांतिकारियों को एकत्र किया। सभा में तय किया गया कि सभी क्रांतिकारी दलों को अपने अपने उद्देश्य इस नयी पार्टी में विलय कर लेने चाहियें। पर्याप्त विचार-विमर्श के बाद एकमत से समाजवाद को दल के प्रमुख उद्देश्यों में शामिल करते हुए हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का नाम बदलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन रखा गया। चन्द्रशेखर आजाद को सेना प्रमुख (कमांडर इन चीफ) का दायित्व सौंपा गया। भगत सिंह को दल का प्रचार प्रमुख बनाया गया। दल के गठन के पश्चात एक नया लक्ष्य निर्धारित किया गया, "हमारी लड़ाई आखरी फैसला होने तक जारी रहेगी, और वह फैसला था-- जीत या मृत्यु!"
जब भगत सिंह असेंबली में बम फेंकने के बाद गिरफ्तार हो गए तो दल की पूरी की पूरी जिम्मेदारी आजाद पर आ गयी। आजाद की सलाह के खिलाफ जाकर यशपाल ने 23 दिसंबर, 1929 को दिल्ली के नजदीक वायसराय की गाड़ी पर बम फेंका। इससे आजाद क्षुब्ध थे, क्योंकि इसमें वायसराय तो बच गया, पर कुछ और कर्मचारी मारे गए थे। आजाद को 28 मई, 1930 को भगवती चरण वोहरा की बम परीक्षण में हुई शहादत से भी गहरा आघात लगा था। इसके कारण भगतसिंह को जेल से छुड़ाने की योजना खटाई में पड़ गई थी। भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु की फांसी रुकवाने के लिए आजाद ने दुर्गा भाभी को गांधी जी के पास भेजा, जहां से उन्हें कोरा जवाब दे दिया गया। इसी दौरान आजाद ने झांसी और कानपुर में नए केंद्र तैयार कर लिये थे। झांसी में मास्टर रूद्र नारायण, सदाशिव मलकापुरकर, भगवानदास माहौर तथा विश्वनाथ वैशम्पायन थे, जबकि कानपुर में शालिग्राम शुक्ल सक्रिय थे। शालिग्राम शुक्ल 1 दिसंबर, 1930 को कानपुर में एक पार्क में आजाद से मिलने जाते वक्त पुलिस मुठभेड़ में शहीद हो गए थे।

सर्वोच्च बलिदान

एचएसआरए द्वारा किए गए सांडर्स-वध और दिल्ली एसेंबली बम कांड में मिली फांसी की सजा के खिलाफ भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव ने अपील करने से साफ मना कर दिया था। अन्य सजायाफ्ता क्रांतिकारियों में से सिर्फ तीन ने ही अपील की। क्रांतिकारियों की ओर से एडवोकेट ने लंदन की प्रिवी काउंसिल में बहस की अनुमति मांगी थी, किंतु उन्हें अनुमति नहीं मिली और बहस सुने बिना ही अपील खारिज कर दी गई। चंद्रशेखर आजाद ने मृत्युदंड पाये तीनों प्रमुख क्रांतिकारियों की सजा कम कराने के लिए काफी प्रयास किए। वे उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले में जाकर गणेश शंकर विद्यार्थी से मिले। विद्यार्थी से परामर्श कर वे इलाहाबाद गये और 27 फरवरी, 1931 को जवाहरलाल नेहरू से उनके निवास आनंद भवन में भेंट की। आजाद ने पंडित नेहरू से आग्रह किया कि वे गांधीजी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फांसी को उम्रकैद में बदलवाने के लिए दबाव डालें। नेहरू ने जब आजाद की बात नहीं मानी तो आजाद ने काफी देर तक उनसे बहस भी की। इस पर नेहरू ने क्रोधित होकर आजाद को तत्काल वहां से चले जाने को कहा तो वे भुनभुनाते हुए बाहर आए और अपनी साइकिल पर बैठकर अल्फ्रेड पार्क की ओर चले गए। अल्फ्रेड पार्क में वे सुखदेवराज से मंत्रणा कर ही रहे थे कि तभी सीआईडी का एस.एस.पी. नॉट बाबर वहां आ पहुंचा। उसके पीछे-पीछे भारी संख्या में पुलिस भी आ गई। दोनों ओर से भयंकर गोलीबारी में आजाद को वीरगति प्राप्त हुई। यह दुखद घटना 27 फरवरी, 1931 के दिन घटित हुई और हमेशा के लिये लाल अक्षरों में इतिहास में दर्ज हो गई।
पुलिस ने बिना किसी को सूचना दिए चंद्रशेखर आजाद का अंतिम संस्कार कर दिया। जैसे ही उनकी शहादत की खबर जनता को लगी, सारा इलाहाबाद शहर अल्फ्रेड पार्क में उमड़ पड़ा। जिस वृक्ष के नीचे आजाद शहीद हुए थे, लोग उस वृक्ष की पूजा करने लगे। वृक्ष के तने के इर्द-गिर्द झंडियां बांधी दी गयी। लोग उस स्थान की मिट्टी को कपड़ों में, शिशियों में भरकर ले जाने लगे। पूरे शहर में आजाद के बलिदान की खबर से जबरदस्त तनाव हो गया। शाम होते-होते सरकारी प्रतिष्ठानों पर हमले होने लगे। लोग सड़कों पर आ गए। अगले दिन आजाद की अस्थियां चुनकर जुलूस निकाला गया। इस जुलूस में इतनी ज्यादा भीड़ थी कि इलाहाबाद की सड़कों पर जाम लग गया। ऐसा लग रहा था कि जैसे समूचा हिंदुस्तान अपने इस सपूत को अंतिम विदाई देने उमड़ पड़ा हो। जुलूस के बाद सभा हुई। सभा को चंद्रनाथ सान्याल की पत्नी प्रतिभा सान्याल ने संबोधित करते हुए कहा कि जैसे बंगाल में खुदीराम बोस के बलिदान के बाद उनकी राख को लोगों ने घर में रख कर सम्मानित किया, वैसे ही आजाद को भी सम्मान मिलेगा।
चन्द्रशेखर आजाद ने वीरता की नई परिभाषा लिखी थी। उनके बलिदान के बाद उनके द्वारा प्रारंभ किया गया आंदोलन और तेज हो गया, उनसे प्रेरणा लेकर हजारों की युवक-युवतियां आंदोलन में कूद पड़े।


संदर्भ - यह जीवनी अभियान प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक जरा याद करो कुर्बानी से ली गई है।
संपर्क -: डा. सुरेन्द्र भारती-- 9466366060


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