श्रम कानूनों का इतिहास व वर्तमान दौर में मजदूरों की स्थिति
( यह इंटरव्यू हरियाणा से स्वतंत्र पत्रकार राजकुमार तर्कशील ने झारखंड क्रांतिकारी मजदूर यूनियन के केन्द्रीय अध्यक्ष बच्चा सिंह से ऐसे दौर में लिया है जब सरकार चौतरफा श्रम कानूनों को पूंजीपतियों के मुनाफे के अनुरूप बदल रही है और मजदूर अनिश्चितता की जिंदगी जीते हुए भूखे मरने की स्थिति में पहुंचा हुआ है । इस इंटरव्यू में बच्चा सिंह ने श्रम कानूनों के इतिहास से लेकर वर्तमान दौर में मजदूरों की स्थिति व एक खुशहाल जिंदगी जीने के लिए मजदूरों की क्या-क्या मांगे पूरी की जानी चाहिएं इन सभी पर बेहद ही संवेदनशील व तर्कपूर्ण अपनी बातें कही हैं । )
राजकुमार तर्कशील - श्रम कानूनों में बदलाव कर उन्हें लचीला बनाना, यह सरकारों के एजेंडे में प्रमुखता से रहा है! भाजपा-नीत सरकार इस होड़ में सबसे आगे निकल गयी। कोरोना पूर्व भी श्रम कानूनों में बदलाव हुए हैं, कोरोनाबंदी में सबसे बड़ी मार हासिया के लोगों, श्रमिकों पर पड़ी है, ऐसे में श्रम कानून विहीन भारत किस मुहाने पर खड़ा है? क्या हम आजादी से पूर्व श्रम कानून विहीन के दौर में पहुंच गये हैं? जबकि फैक्ट्री एक्ट होने के बाद भी हमसे मजदूरों की भयावह स्थिति छुपी नहीं हैं। फैक्ट्री एक्ट का संक्षिप्त इतिहास क्या है?
बच्चा सिंह - जी, आपने सही कहा । श्रम कानूनों में बदलाव कर उन्हें लचीला करना, सभी सरकारों के एजेंडे में प्रमुखता से रहा है और भाजपा-नीत सरकार इस होड़ में सबसे आगे निकल गयी है। कोरोना से पहले भी श्रम कानूनों में बदलाव हुए हैं और कोरोनाबंदी में सबसे बड़ी मार हाशिया के लोगों, श्रमिकों पर पड़ी है, कोरोना से पहले ही श्रमिक भूखे मरने को अभिशप्त हैं। ऐसे में अगर मैं सच में कहूं, तो श्रम कानून विहीन भारत बंधुआ मजदूरी के दौर में फिर से प्रवेश कर रहा है। यह सिर्फ अंग्रेजों के हाथों भारतीयों को हुए सत्ता हस्तांतरण से पूर्व श्रम कानून विहीन दौर में ही नहीं बल्कि उससे भी बहुत पीछे जा रहा है। आप जानते हैं कि 19वीं सदी में यूरोप और अमेरिका में कार्यदिवस 12 से 16 घंटों तक विस्तारित होते थे। औद्योगिक क्रांति तक सुबह उजाला होने से शाम अंधेरा होने तक काम होता था। मजदूर अपने बच्चों को हमेशा सोते ही देखते थे। कार्यदिवस लम्बा होने के कारण मजदूरों की जिंदगी बहुत कठिन थी और प्रतिवर्ष हजारों मजदूर मारे जाते थे। कार्ल मार्क्स के साथी एंगेल्स ने अपने निबंध ‘इंग्लैंड में मजदूर वर्ग की दशा’ में मजदूरों की स्थिति का बहुत ही विस्तार से वर्णन किया है।
1886 में मई दिवस आंदोलन के बाद दुनिया भर में कार्यदिवस 8 घंटे करने के आंदोलन तेज हुए। 20वीं सदी की शुरूआत तक अनेक देशों में 8 घंटे कार्यदिवस लागू हो गया था। भारत में उद्योगों का विकास अंग्रेजी शासन के अंर्तगत हुआ था।
भारत में 19वीं शताब्दी के आखिरी दशकों में उद्योगों में कार्यदिवस छोटा करने की मांग उठने लगी। देश का औद्योगिक मजदूर जागा और संघर्ष करते हुए अपने कानूनी अधिकार भी हासिल करता गया। इस कड़ी में 1881 में देश का पहला फैक्ट्री कानून बना। इसकी मुख्य बात यह थी कि कानूनी रूप से 7 साल से कम उम्र के बच्चों से काम लेना प्रतिबंधित घोषित हुआ। 7 से 12 साल तक के बाल मजदूरों से मात्र 9 घंटे काम लेने, सुरक्षा की दृष्टि से मशीनों को जाली से घेरने आदि का प्रावधान बना, लेकिन बिनौला निकालने, रूई दबाने जैसे मशीनों को मौसमी उद्योगों की श्रेणी में डालकर 1881 के इस कानून की परिधि से उस प्रकृति के कामों को बाहर रखा गया। यह गौरतलब है कि यह कानून भारतीय पूंजीपतियों के अधिनस्थ कारखानों के लिए ही थे, अंग्रेज पूंजीपतियों के कारखानों के लिए नहीं। फिर भी यह कानून भी वास्तव में कहीं लागू नहीं हुए।
1880 का दशक मजदूर संघर्षों के लगातार आगे बढ़ने का दौर था। इनमें 1884 में मुंबई कपड़ा मजदूरों के आंदोलन प्रमुख हैं ।परिणामस्वप 1890 में पहला श्रम आयोग और 1891 में दूसरा फैक्ट्री एक्ट अस्तित्व में आया। इसमें बाल श्रमिकों की न्यूनतम आयु 9 साल और काम के घंटे 9, महिलाओं के रात्रि पाली काम पर प्रतिबंध के साथ उनके काम के घंटे 11 निर्धारित हुए। नारायण मेघाजी लोखंडे के नेतृत्व में आठ साल लम्बे संघर्ष के बाद सन् 1890 में रविवार अवकाश का अधिकार मिला। इसके अतिरिक्त सबके लिए आधा घंटा भोजन अवकाश का भी अधिकार मिला।
19वीं शताब्दी का पहला दशक मजदूर आंदोलनों के बड़े उभार का दौर था, जब मजदूर न केवल आर्थिक मांगों के संघर्षों को आगे बढ़ा रहे थे, अपितु लोकमान्य तिलक की गिरफ्तारी पर राजनीतिक हड़ताल करके अपने तेवर भी दिखा चुके थे। इन्हीं दबावों में आयोग और कमेटियां बनी, जिनके सुधार संबंधित कई सिफारिशें आयी और 1911 में फैक्ट्री एक्ट में संशोधन हुआ। इसमें कपड़ा मिल के पुरूष मजदूरों के लिए 12 घंटे व बाल मजदूरों के लिए 6 घंटे का कार्य दिवस घोषित हुआ।
बच्चा सिंह - जी, आपने सही कहा । श्रम कानूनों में बदलाव कर उन्हें लचीला करना, सभी सरकारों के एजेंडे में प्रमुखता से रहा है और भाजपा-नीत सरकार इस होड़ में सबसे आगे निकल गयी है। कोरोना से पहले भी श्रम कानूनों में बदलाव हुए हैं और कोरोनाबंदी में सबसे बड़ी मार हाशिया के लोगों, श्रमिकों पर पड़ी है, कोरोना से पहले ही श्रमिक भूखे मरने को अभिशप्त हैं। ऐसे में अगर मैं सच में कहूं, तो श्रम कानून विहीन भारत बंधुआ मजदूरी के दौर में फिर से प्रवेश कर रहा है। यह सिर्फ अंग्रेजों के हाथों भारतीयों को हुए सत्ता हस्तांतरण से पूर्व श्रम कानून विहीन दौर में ही नहीं बल्कि उससे भी बहुत पीछे जा रहा है। आप जानते हैं कि 19वीं सदी में यूरोप और अमेरिका में कार्यदिवस 12 से 16 घंटों तक विस्तारित होते थे। औद्योगिक क्रांति तक सुबह उजाला होने से शाम अंधेरा होने तक काम होता था। मजदूर अपने बच्चों को हमेशा सोते ही देखते थे। कार्यदिवस लम्बा होने के कारण मजदूरों की जिंदगी बहुत कठिन थी और प्रतिवर्ष हजारों मजदूर मारे जाते थे। कार्ल मार्क्स के साथी एंगेल्स ने अपने निबंध ‘इंग्लैंड में मजदूर वर्ग की दशा’ में मजदूरों की स्थिति का बहुत ही विस्तार से वर्णन किया है।
1886 में मई दिवस आंदोलन के बाद दुनिया भर में कार्यदिवस 8 घंटे करने के आंदोलन तेज हुए। 20वीं सदी की शुरूआत तक अनेक देशों में 8 घंटे कार्यदिवस लागू हो गया था। भारत में उद्योगों का विकास अंग्रेजी शासन के अंर्तगत हुआ था।
भारत में 19वीं शताब्दी के आखिरी दशकों में उद्योगों में कार्यदिवस छोटा करने की मांग उठने लगी। देश का औद्योगिक मजदूर जागा और संघर्ष करते हुए अपने कानूनी अधिकार भी हासिल करता गया। इस कड़ी में 1881 में देश का पहला फैक्ट्री कानून बना। इसकी मुख्य बात यह थी कि कानूनी रूप से 7 साल से कम उम्र के बच्चों से काम लेना प्रतिबंधित घोषित हुआ। 7 से 12 साल तक के बाल मजदूरों से मात्र 9 घंटे काम लेने, सुरक्षा की दृष्टि से मशीनों को जाली से घेरने आदि का प्रावधान बना, लेकिन बिनौला निकालने, रूई दबाने जैसे मशीनों को मौसमी उद्योगों की श्रेणी में डालकर 1881 के इस कानून की परिधि से उस प्रकृति के कामों को बाहर रखा गया। यह गौरतलब है कि यह कानून भारतीय पूंजीपतियों के अधिनस्थ कारखानों के लिए ही थे, अंग्रेज पूंजीपतियों के कारखानों के लिए नहीं। फिर भी यह कानून भी वास्तव में कहीं लागू नहीं हुए।
1880 का दशक मजदूर संघर्षों के लगातार आगे बढ़ने का दौर था। इनमें 1884 में मुंबई कपड़ा मजदूरों के आंदोलन प्रमुख हैं ।परिणामस्वप 1890 में पहला श्रम आयोग और 1891 में दूसरा फैक्ट्री एक्ट अस्तित्व में आया। इसमें बाल श्रमिकों की न्यूनतम आयु 9 साल और काम के घंटे 9, महिलाओं के रात्रि पाली काम पर प्रतिबंध के साथ उनके काम के घंटे 11 निर्धारित हुए। नारायण मेघाजी लोखंडे के नेतृत्व में आठ साल लम्बे संघर्ष के बाद सन् 1890 में रविवार अवकाश का अधिकार मिला। इसके अतिरिक्त सबके लिए आधा घंटा भोजन अवकाश का भी अधिकार मिला।
19वीं शताब्दी का पहला दशक मजदूर आंदोलनों के बड़े उभार का दौर था, जब मजदूर न केवल आर्थिक मांगों के संघर्षों को आगे बढ़ा रहे थे, अपितु लोकमान्य तिलक की गिरफ्तारी पर राजनीतिक हड़ताल करके अपने तेवर भी दिखा चुके थे। इन्हीं दबावों में आयोग और कमेटियां बनी, जिनके सुधार संबंधित कई सिफारिशें आयी और 1911 में फैक्ट्री एक्ट में संशोधन हुआ। इसमें कपड़ा मिल के पुरूष मजदूरों के लिए 12 घंटे व बाल मजदूरों के लिए 6 घंटे का कार्य दिवस घोषित हुआ।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद नयी परिस्थितियों व सोवियत रूस में मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी जनसत्ता कायम होने से पैदा उभार के नये माहौल में हमारे देश में भी मजदूर संघर्षों व संगठन निर्माण का शानदार दौर आया। इस परिस्थिति में सत्ताधारियों को नया फैक्ट्री एक्ट बनाना पड़ा। इसका लाभ बिजली से चलने वाले कारखाना मजदूरों को मिला। जहां काम के घंटे 11 होने के साथ ओवरटाइम सवा गुना निर्धारित हुआ। दूसरी तरफ कर्मचारी क्षतिपूर्ति अधिनियम, 1923 द्वारा कार्य के दौरान दुर्घटनाओं के शिकार श्रमिकों के लिए मुआवजे आदि का अधिकार मिला। इसी प्रक्रिया में क्रमशः कई संशोंधनों से गुजरते हुए देश का नया कारखाना अधिनियम, 1948 अस्तित्व में आया। इस अधिनियम के अनुसार ‘कारखाने’ का अर्थ है ‘‘कोई परिसर, जिसमें वह क्षेत्र शामिल है, जहां बिजली से चलने वाले कारखाने में 10 मजदूर और बिना बिजली से चलने वाले कारखाने में 20 मजदूर काम करता है, तो वह कारखाना अधिनियम के अंर्तगत आता है।"
इस एक्ट के अनुच्छेद 56 में यह प्रावधान है कि किसी भी मजदूर को भोजनावकाश की अवधि को मिलाकर 8 घंटे ही काम लिया जा सकता है। इस कानून के अनुसार वयस्क आदमी के काम का घंटा सप्ताह में 48 घंटे से अधिक का नहीं होना चाहिए। इस एक्ट के तहत ही सुनिश्चित किया जाता है कि वर्कर से यदि कार्य अवधि के अलावा काम करवाया जाता है, तो उसे अतिरिक्त घंटों का भी भुगतान किया जाए। रात में सेवाएं देता है, तो यह रोटेशनल बेसिस पर होना चाहिए। सामान्यतः रात 10 बजे से सुबह 5 बजे के बीच महिला कर्मचारियों की सेवाएं नहीं ली जाती।
राजकुमार तर्कशील - सरकार को श्रम कानूनों में बदलाव व निरस्त करने की जरूरत क्यों पड़ी, इसके पीछे आप क्या देख रहे हैं?
बच्चा सिंह- सरकार को श्रम कानूनों में बदलाव व निरस्त करने की जरूरत को मैं इस प्रकार देखता हूं कि अब सरकार खुल्लम खुल्ला देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों की जी-हूजूरी में लग गई है। इसलिए सरकार के अपने मालिक को सस्ता श्रम उपलब्ध कराने में आड़े आ रहे श्रम कानूनों को खत्म कर देना ही एकमात्र विकल्प दिखा। श्रम कानूनों को लचीला कर मालिकों के हक में करने की प्रक्रिया में ब्राह्यणीय हिन्दुत्व फासीवादी मोदी सरकार ने 44 श्रम कानूनों को खत्म करने का फैसला लिया है। इन 44 श्रम कानूनों की जगह 4 श्रम संहिताएं (लेबर कोड) - मजदूरी संहिता, औद्योगिक सुरक्षा व कल्याण संहिता, सामाजिक सुरक्षा संहिता और औद्योगिक संबंध संहिता - लागू की जाएगी। इन संहिताओं में यह स्पष्ट है कि श्रम संहिताएं मालिकों के लिए इस हक को सुनिश्चित करेंगी कि मालिक अपनी मर्जी के मुताबिक मजदूरों को काम पर रख सके व जब चाहे उन्हें मशीन के पुर्जे की तरह काम से बाहर निकाल सके।
44 श्रम कानूनों को खत्म कर 4 लेबर कोड के निर्माण के बाद की स्थिति का अगर अनुमान लगाया जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि मजदूरों के सारे अधिकार छीनकर एकबार फिर से मालिकों केे हाथ की उन्हें कठपुतली बना दिया जाएगा। इसके पीछे एकमात्र कारण सरकार की कारपोरेट पक्षीय नीति ही है।
स्थायी प्रकृति के रोजगार को खत्म कर ठेकेदारी प्रथा को और भी धड़ल्ले से लागू किया जाएगा। ओवरटाइम के घंटों पर कोई पाबंदी नहीं होगी। कार्यस्थल निरीक्षण की पूरी प्रणाली को खत्म किया जाएगा।बच्चा सिंह- सरकार को श्रम कानूनों में बदलाव व निरस्त करने की जरूरत को मैं इस प्रकार देखता हूं कि अब सरकार खुल्लम खुल्ला देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों की जी-हूजूरी में लग गई है। इसलिए सरकार के अपने मालिक को सस्ता श्रम उपलब्ध कराने में आड़े आ रहे श्रम कानूनों को खत्म कर देना ही एकमात्र विकल्प दिखा। श्रम कानूनों को लचीला कर मालिकों के हक में करने की प्रक्रिया में ब्राह्यणीय हिन्दुत्व फासीवादी मोदी सरकार ने 44 श्रम कानूनों को खत्म करने का फैसला लिया है। इन 44 श्रम कानूनों की जगह 4 श्रम संहिताएं (लेबर कोड) - मजदूरी संहिता, औद्योगिक सुरक्षा व कल्याण संहिता, सामाजिक सुरक्षा संहिता और औद्योगिक संबंध संहिता - लागू की जाएगी। इन संहिताओं में यह स्पष्ट है कि श्रम संहिताएं मालिकों के लिए इस हक को सुनिश्चित करेंगी कि मालिक अपनी मर्जी के मुताबिक मजदूरों को काम पर रख सके व जब चाहे उन्हें मशीन के पुर्जे की तरह काम से बाहर निकाल सके।
44 श्रम कानूनों को खत्म कर 4 लेबर कोड के निर्माण के बाद की स्थिति का अगर अनुमान लगाया जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि मजदूरों के सारे अधिकार छीनकर एकबार फिर से मालिकों केे हाथ की उन्हें कठपुतली बना दिया जाएगा। इसके पीछे एकमात्र कारण सरकार की कारपोरेट पक्षीय नीति ही है।
राजकुमार तर्कशील - श्रम कानूनों को लम्बे समय तक निरस्त करने से संगठित व असंगठित मजदूर आबादी पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
बच्चा सिंह- कोरोनाबंदी के पूर्व श्रम कानूनों में बदलाव और कोरोनाबंदी के दौरान कई राज्य सरकारों द्वारा श्रम कानून के निरस्तीकरण ने मजदूर वर्ग को बहुत ही ज्यादा प्रभावित किया है। इसने जहां एक तरफ संगठित मजदूरों से मजदूर होने का सारा हक छीन लिया है। वहीं दूसरी तरफ असंगठित मजदूरों, जिनकी एक बड़ी आबादी खेत मजदूर व निर्माण मजदूर है के लिए 8 घंटे कार्यदिवस एक सपना जैसा ही है। संगठित क्षेत्र में काम करने वाले ठेका व कैजुअल मजदूरों के लिए भी 8 घंटे कार्यदिवस गुजरे जमाने की बात हो गयी है। श्रम कानून पहले से ही असंगठित मजदूरों के लिए बेमानी हो चुके थे और अब तो खुल्लम-खुल्ला श्रम कानूनों में काॅरपोरेट हित में सरकार द्वारा किये गये बदलाव ने असंगठित मजदूरों के शोषण के और भी कई द्वार खोल दिए हैं। भवन एवं अन्य सन्निमार्ण कर्मकार अधिनियम, 1996 को निरस्त कर सामाजिक सुरक्षा बिल में जोड़ने का मतलब 4 करोड़ भवन निर्माण मजदूरों का पंजीकरण रद्द करना है। नये लेबर कोड लागू होने के बाद मजदूरों की सुरक्षा की गारंटी से भी मालिक मुक्त हो जाएगा। अंर्तराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार भारत में औसतन रोजाना 38 भवन निर्माण मजदूरों की मौत दुर्घटना में होती है, आने वाले दिनों में ये संख्या और बढ़ेगी।
अगर एक पंक्ति में कहें तो श्रम कानूनों में बदलाव व उनके लम्बे समय तक निरस्तीकरण से संगठित व असंगठित मजदूर आबादी चौतरफा प्रभावित होगी और उनके सामने जीवन-मरण का संकट खड़ा हो जाएगा।
राजकुमार तर्कशील - श्रमिक आंदोलन के सामने क्या चुनौतियां हैं व न्यायोचित मांग क्या हैं?
बच्चा सिंह- आज के समय में श्रमिक आंदोलन की चुनौतियां बहुत ज्यादा बढ़ी हैं, क्योंकि तथाकथित मुख्यधारा की तमाम श्रमिक यूनियनें मजदूरों के सामने बेनकाब हो चुकी हैं । और क्रांतिकारी श्रमिक यूनियनों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। आज हम कह सकते हैं कि तमाम बड़ी ट्रेड यूनियन संशोधनवाद व अर्थवाद के दलदल में फंस चुकी हैं। इन ट्रेड यूनियनों में भारतीय क्रांति का हीरावल दस्ता बनने का कोई लक्षण मौजूद नहीं है। इसलिए आज क्रांतिकारी ट्रेड यूनियनों के सामने चुनौती यह है कि कैसे मजदूर आंदोलन को संशोधनवाद व अर्थवाद के दलदल से बाहर निकालकर भारतीय क्रांति का हीरावल दस्ता बनायें।
आज यह स्पष्ट हो चुका है कि भारत की अर्थव्यवस्था नयी साम्राज्यवादी व्यवस्था के साथ चलने के लिए पुरानी सामंती व्यवस्था की ओर तेजी से लौट रही है, उससे यह लगने लगा है कि यह खात्मे की ओर बढ़ रही है। लेकिन इसका खात्मा अपने आप नहीं होगा। आज जो मजदूर शहरों से गांवों की ओर लौट रहे हैं, वे गांव के भूमिहीन किसान के साथ मिलकर इस काम को अंजाम देंगे। मजदूर व किसानों के बीच चट्टानी एकता लाकर इस व्यवस्था केे खिलाफ खड़ा करना भी आज श्रमिक आंदोलन की प्रमुख चुनौती है।
वर्तमान में मजदूर आंदोलन की न्यायोचित मांगों की बात करें, तो वह कुछ इस प्रकार हैः-
1. सार्वजनिक उपक्रमों को निजी हाथों में बेचना बंद करो ।
2. श्रम कानूनों में मजदूर विरोधी संशोधन और मालिकोें की गुलामी के चारों श्रम कोड रद्द करो ।
3. 21 हजार रूपये मासिक न्यूनतम मजदूरी और 10 हजार रूपये मासिक पेंशन दो ।
4. तय न्यूनतम मजदूरी लागू करो ।
5. नई पेंशन योजना वापस लो और पुरानी पेंशन बहाल करो।
6. सभी स्कीम कर्मियों (आशा, मिड-डे-मिल, आंगनबाड़ी समेत) को श्रमिक का दर्जा दो, इस स्कीमों के निजीकरण व एनजीओकरण पर रोक लगाओ ।
7. बीमार व बंद उद्योगों और बगानों को चालू करो ।
8. सभी ग्रामीण एवं शहरी परिवारों के लिए कारगर रोजगार गारंटी कानून बनाओ ।
9. मनरेगा को मजबूत बनाओ और रोजगार का स्थायीकरण, ठेका मजदूरों को नियमितिकरण करो, ठेका/ आउटसोर्सिंग खत्म करो ।
10. समान काम के लिए समान वेतन व लाभ दो ।
11. रेल, बैंक, बीमा, डिफेंस, कोयला, इस्पात समेत सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों और शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सेवाओं का निजीकरण बंद करो ।
12. 100 प्रतिशत एफडीआई वापस लो, राष्ट्रीय संपत्ति बेचना बंद करो ।
13. प्रवासी समेत असंगठित, मनरेगा व सभी मजदूरों को 10 हजार रूपये लाॅकडाउन भत्ता व प्रति व्यक्ति 10 किलो अनाज दो ।
14. प्रवासी समेत सभी मजदूरों को गृह जिले में स्थायी रोजगार दो तथा 500 दैनिक या 15 हजार मासिक न्यूनतम मजदूरी लागू करो आदि।
अभी के समय में यही न्यायोचित मांगेे हैं।
रविवार अवकाश की शुरुआत 1890 में हुई थीं,आपने 1989 किया हैं...
ReplyDeleteगलती की ओर ध्यान दिलाने के लिए धन्यवाद ।
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