(18 नवंबर,1910-20 जुलाई, 1965)
(आज शहीद चंद्रशेखर आजाद का कोई क्रांतिकारी साथी जीवित नहीं है। "स्वतंत्र भारत" में एक-एक करके गुमनामी में ही उनके सारे साथियों की मृत्यु हो गई। किसी ने नहीं जाना और वे सब ऐसे ही चले गए! उनके न रहने पर किसी ने कोई आंसू नहीं बहाये, न ही कोई मातमी धुनें बजी! किसी के लिए कहीं कोई श्रद्धांजलि समागम आयोजित नहीं किए गए, न ही कहीं कोई मेले लगे! किसी को कुछ पता ही नहीं लगा कि जमीन उन आसमानों को कब, कहां निगलल गयी! -- सुधीर विद्यार्थी )
महान क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत को देश ने सबसे पहले 8 अप्रैल, 1929 को तब जाना, जब वे भगत सिंह के साथ केंद्रीय विधानसभा में बम विस्फोट के बाद गिरफ्तार किए गए।
बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नंवबर, 1910 को ग्राम औरी, जिला नानी बर्दवान बंगाल में हुआ था। इनकी स्नातक स्तरीय शिक्षा कानपुर में संपन्न हुई। सन् 1924 में, कानपुर में इनकी भेंट भगतसिंह से हुई। इसके बाद इन्होंने "हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन" के लिए कानपुर में काम करना प्रारंभ कर दिया। इसी क्रम में इन्होंने बम बनाना भी सीखा।
8 अप्रैल, 1929 को इन्होंने भगत सिंह के साथ दिल्ली की केंद्रीय विधानसभा (वर्तमान संसद भवन) में बम विस्फोट कर भारत में ब्रिटिश राज्य की नींव हिला डाली। यह बम विस्फोट बिना किसी को नुकसान पहुंचाए सिर्फ पर्चों के माध्यम से अपनी बात को बहरे कानों तक पहुंचाने के लिए किया गया था। उस दिन स्वतंत्रता सेनानियों को कुचलने के लिए तथा भारतीय जनता का और अधिक क्रूरता पूर्वक शोषण करने के लिए ब्रिटिश सरकार की ओर से पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल नाम से दो बिल विधानसभा में पारित करने हेतु लाए गए थे, जो इस क्रांतिकारी कार्यवाही के कारण पारित नहीं हो पाये।
इस घटना के बाद बटुकेश्वर दत्त और भगतसिंह ने स्वयं ही खुद को पुलिस के हवाले कर दिया। वे चाहते तो बम विस्फोट के बाद चारों ओर मची भगदड़ का लाभ उठाकर भाग सकते थे। परंतु उन्होंने ऐसा न करके गिरफ्तार हो ना ज्यादा श्रेयस्कर समझा। 12 जून, 1929 को दोनों को इस जुर्म में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। सजा सुनाने के बाद, दोनों साथियों को लाहौर फोर्ट जेल में बंद कर दिया गया। यहां पर भगत सिंह के साथ साथ बटुकेश्वर दत्त पर भी लाहौर षड्यंत्र केस में मुकदमा चला गया। (समरण रहे कि लाहौर में साइमन कमीशन को लेकर जोरदार विरोध प्रदर्शन कर रहे लाला लाजपत राय को अंग्रेजी राज के सिपाहियों द्वारा इतना पीटा गया था कि उनकी मृत्यु हो गई थी। क्रांतिकारियों ने उनकी मृत्यु का बदला इसके लिए जिम्मेदार पुलिस अधिकारी सांडर्स को मारकर चुकाया। इस कार्यवाही के परिणाम स्वरूप लाहौर षड्यंत्र केस चला, जिसमें भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा दी गई थी।) बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। सजा काटने के लिए उन्हें काला पानी (अंडेमान-निकोबार द्वीपसमूह पर स्थित सेल्यूलर जेल) भेज दिया गया। जेल में ही उन्होंने 1933 और 1937 में ऐतिहासिक भूख हड़ताल की। सन् 1937 में उन्हें सेल्यूलर जेल से बांकीपुर केंद्रीय कारागार, पटना में लाया गया। सन् 1938 में उन्हें रिहा कर दिया गया। तब तक या तो सभी साथी शहीद हो चुके थे या अभी जेलों में थे। लेकिन दत्त चुप नहीं बैठे। काले पानी से टी.बी. जैसी गंभीर बीमारी लेकर लौटने के बाद भी वे फिर से आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्हें अंग्रेज सरकार ने फिर से गिरफ्तार कर लिया और 4 वर्षों बाद के बाद 1945 में रिहा किया गया।
आजादी के बाद, नवंबर 1947 में अंजली दत्त से शादी करने के बाद वे पटना में रहने लगे। माली हालत बेहद कमजोर थी। उन्होंने सिगरेट बेचने, बिस्किट-डबल रोटी बनाने और टूरिस्ट एजेंट जैसे कई काम किए, पर हर बार असफलता ही हाथ लगी। बस का परमिट लेने गए दत्त को यातायात कमिश्नर ने उनके स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र लेकर आने को कहा। बिहार विधान परिषद ने 1963 में बटुकेश्वर दत्त को अपना सदस्य बनाने का गौरव प्राप्त किया। पर उनके आर्थिक हालात जर्जर ही रहे। 1964 में वे अचानक गंभीर रूप से बीमार हो गए और उन्हें पटना के सरकारी अस्पताल में भर्ती करा दिया गया। इस पर उनके मित्र चमनलाल आजाद ने एक लेख में लिखा, "क्या दत्त जैसे क्रांतिकारियों को भारत में जन्म लेना चाहिए? इतने महान शूरवीर ने देश में जन्म लेकर भारी भूल की है! कितने दुख में लज्जा की बात है कि जिस व्यक्ति ने इस देश को स्वतंत्र कराने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दी, जीवन के अनेक सुनहरे साल जेलों की कालकोठरी में गुजार दिये, वह आज नितांत दयनीय हालत में अस्पताल में पड़ा एड़ियां रगड़ रहा है और उसे कोई पूछने वाला नहीं है!"
श्री दत्त की मृत्यु 20 जुलाई, 1965 को नई दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में हुई। इनका दाह संस्कार क्रांतिकारी साथियों-- भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव के समाधि स्थल, पंजाब के हुसैनीवाला, जिला फिरोजपुर में किया गया।
राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं से दूर, शांतचित एवं देश की खुशहाली के लिए हमेशा चिंतित रहने वाले क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त भारतीय जनता के दिलों में हमेशा अमर रहेंगे।
बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नंवबर, 1910 को ग्राम औरी, जिला नानी बर्दवान बंगाल में हुआ था। इनकी स्नातक स्तरीय शिक्षा कानपुर में संपन्न हुई। सन् 1924 में, कानपुर में इनकी भेंट भगतसिंह से हुई। इसके बाद इन्होंने "हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन" के लिए कानपुर में काम करना प्रारंभ कर दिया। इसी क्रम में इन्होंने बम बनाना भी सीखा।
8 अप्रैल, 1929 को इन्होंने भगत सिंह के साथ दिल्ली की केंद्रीय विधानसभा (वर्तमान संसद भवन) में बम विस्फोट कर भारत में ब्रिटिश राज्य की नींव हिला डाली। यह बम विस्फोट बिना किसी को नुकसान पहुंचाए सिर्फ पर्चों के माध्यम से अपनी बात को बहरे कानों तक पहुंचाने के लिए किया गया था। उस दिन स्वतंत्रता सेनानियों को कुचलने के लिए तथा भारतीय जनता का और अधिक क्रूरता पूर्वक शोषण करने के लिए ब्रिटिश सरकार की ओर से पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल नाम से दो बिल विधानसभा में पारित करने हेतु लाए गए थे, जो इस क्रांतिकारी कार्यवाही के कारण पारित नहीं हो पाये।
इस घटना के बाद बटुकेश्वर दत्त और भगतसिंह ने स्वयं ही खुद को पुलिस के हवाले कर दिया। वे चाहते तो बम विस्फोट के बाद चारों ओर मची भगदड़ का लाभ उठाकर भाग सकते थे। परंतु उन्होंने ऐसा न करके गिरफ्तार हो ना ज्यादा श्रेयस्कर समझा। 12 जून, 1929 को दोनों को इस जुर्म में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। सजा सुनाने के बाद, दोनों साथियों को लाहौर फोर्ट जेल में बंद कर दिया गया। यहां पर भगत सिंह के साथ साथ बटुकेश्वर दत्त पर भी लाहौर षड्यंत्र केस में मुकदमा चला गया। (समरण रहे कि लाहौर में साइमन कमीशन को लेकर जोरदार विरोध प्रदर्शन कर रहे लाला लाजपत राय को अंग्रेजी राज के सिपाहियों द्वारा इतना पीटा गया था कि उनकी मृत्यु हो गई थी। क्रांतिकारियों ने उनकी मृत्यु का बदला इसके लिए जिम्मेदार पुलिस अधिकारी सांडर्स को मारकर चुकाया। इस कार्यवाही के परिणाम स्वरूप लाहौर षड्यंत्र केस चला, जिसमें भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा दी गई थी।) बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। सजा काटने के लिए उन्हें काला पानी (अंडेमान-निकोबार द्वीपसमूह पर स्थित सेल्यूलर जेल) भेज दिया गया। जेल में ही उन्होंने 1933 और 1937 में ऐतिहासिक भूख हड़ताल की। सन् 1937 में उन्हें सेल्यूलर जेल से बांकीपुर केंद्रीय कारागार, पटना में लाया गया। सन् 1938 में उन्हें रिहा कर दिया गया। तब तक या तो सभी साथी शहीद हो चुके थे या अभी जेलों में थे। लेकिन दत्त चुप नहीं बैठे। काले पानी से टी.बी. जैसी गंभीर बीमारी लेकर लौटने के बाद भी वे फिर से आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्हें अंग्रेज सरकार ने फिर से गिरफ्तार कर लिया और 4 वर्षों बाद के बाद 1945 में रिहा किया गया।
आजादी के बाद, नवंबर 1947 में अंजली दत्त से शादी करने के बाद वे पटना में रहने लगे। माली हालत बेहद कमजोर थी। उन्होंने सिगरेट बेचने, बिस्किट-डबल रोटी बनाने और टूरिस्ट एजेंट जैसे कई काम किए, पर हर बार असफलता ही हाथ लगी। बस का परमिट लेने गए दत्त को यातायात कमिश्नर ने उनके स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र लेकर आने को कहा। बिहार विधान परिषद ने 1963 में बटुकेश्वर दत्त को अपना सदस्य बनाने का गौरव प्राप्त किया। पर उनके आर्थिक हालात जर्जर ही रहे। 1964 में वे अचानक गंभीर रूप से बीमार हो गए और उन्हें पटना के सरकारी अस्पताल में भर्ती करा दिया गया। इस पर उनके मित्र चमनलाल आजाद ने एक लेख में लिखा, "क्या दत्त जैसे क्रांतिकारियों को भारत में जन्म लेना चाहिए? इतने महान शूरवीर ने देश में जन्म लेकर भारी भूल की है! कितने दुख में लज्जा की बात है कि जिस व्यक्ति ने इस देश को स्वतंत्र कराने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दी, जीवन के अनेक सुनहरे साल जेलों की कालकोठरी में गुजार दिये, वह आज नितांत दयनीय हालत में अस्पताल में पड़ा एड़ियां रगड़ रहा है और उसे कोई पूछने वाला नहीं है!"
श्री दत्त की मृत्यु 20 जुलाई, 1965 को नई दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में हुई। इनका दाह संस्कार क्रांतिकारी साथियों-- भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव के समाधि स्थल, पंजाब के हुसैनीवाला, जिला फिरोजपुर में किया गया।
राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं से दूर, शांतचित एवं देश की खुशहाली के लिए हमेशा चिंतित रहने वाले क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त भारतीय जनता के दिलों में हमेशा अमर रहेंगे।
संदर्भ -: यह जीवनी अभियान प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक जरा याद करो कुर्बानी से ली गई है।
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