Sunday, 5 July 2020

राजनीति


(इस बीमारी का अपना राजनीतिक अर्थशास्त्र है। पूंजीवाद हर अवसर को मुनाफा कमाने के अवसर में बदलने में माहिर होता है। मौजूदा कोरोना का दौर भी इसका अपवाद नहीं है। जहां पूरी मानवता एक भयानक संकट से गुजर रही है, वहीं मुनाफा कमाने वाली शार्क अवसर भुनाने में लगी हैं। विभिन्न दवा कंपनियां कोरोना के खिलाफ दवाई बनाने और वैक्सिन बनाने का दावा पेश कर रही हैं। केवल इतना ही नहीं, इसके लिए वे झूठे शोध भी पेश कर रही हैं।)


कोरोना बीमारी, बचाव ही इलाज है
(डॉक्टर प्रदीप)


कोरोना वायरस से फैल रही यह बीमारी कोविड-19 के नाम से जानी जाती है। कोविड-19 यानि कोरोना वायरल डिज़ीज जो साल 2019 में पहली बार इंसानों में नजर आई। अन्य वायरल बीमारियों की तरह इस बीमारी का भी हमारे पास कोई इलाज नहीं है। जब कोई व्यक्ति संक्रमित होता है तो उसका शरीर इसके खिलाफ प्रतिरोध ताकत पैदा करने लगता है और कुछ समय बाद व्यक्ति ठीक हो जाता है।
इसलिए कहा जाता है कि बचाव ही इस बीमारी को हराने का सर्वाधिक प्रभावी तरीका है। बचाव के लिए जरूरी है कि यह समझा जाए कि यह बीमारी फैलती कैसे है ? जब कोई कोरोना संक्रमित व्यक्ति बोलता, खांसता या छींकता है तो उसके मुंह और नाक से निकलने वाली बूंदों में यह वायरस मौजूद रहता है जिससे दूसरे व्यक्ति मेें यह रोग फैल सकता है।
इसके दो तरीके हैं। पहला, प्रत्यक्ष निकट संपर्क जब मुंह और नाक से निकली ये बूंदे सीधे सामने वाले व्यक्ति के नाक, आंख या मुंह पर पड़ती हैं तो वायरस उस व्यक्ति के शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। इसकी संभावना तब बहुत अधिक होती है जब बीमार और स्वस्थ व्यक्ति एक मीटर से कम दूरी पर मौजूद हों और इसकी संभावना बहुत कम हो जाती है जब दूरी दो मीटर से ज्यादा होती है।
दूसरा तरीका अप्रत्यक्ष संपर्क का है जब कोरोना संक्रमित व्यक्ति के मुंह और नाक से निकली बूंदे किसी सतह पर, जैसे कपड़े, दरवाजे का हैंडल, मेज, कुर्सी, कोई धातु की वस्तु, प्लास्टिक की वस्तु आदि पर गिरती हैं । तो वे कुछ घंटों से लेकर कुछ दिनों तक संक्रमण फैलाने में सक्षम होती हैं। जब कोई स्वस्थ व्यक्ति संक्रमित जगह को छू लेता है तो उसके हाथों से यह वायरस उसके मुंह, नाक और आंख से शरीर में प्रवेश कर उसे भी संक्रमित कर देता है। इस बीमारी के पनपने का समय 1-14 दिन का है।
करोना के लक्षण -:
कोरोना के सामान्य लक्षण बुखार, सूखी खांसी, सांस लेने में कठिनाई, स्वाद और सुगंध का अहसास खत्म होना, नाक बहना, गले में खराश होना आदि हैं। ये सभी लक्षण सामान्य फ्लू में भी मिलते हैं । लेकिन कोरोना के मरीज में इन लक्षणों के साथ किसी ऐसे इलाके में जाने का प्रमाण भी मिलेगा जहां कोरोना के मरीज हैं। बहुत से मरीज ऐसे भी हैं जिनमें कोई लक्षण नहीं होता। लेकिन ऐसे मरीज भी बीमारी फैलाने में सक्षम होते है।
हमें क्या सावधानियां बरतने की जरूरत है ?
सामन्य तौर पर यह बीमारी घातक नहीं होती। लगभग 85% मामलों में साधरण लक्षणों के साथ ही यह बीमारी खत्म हो जाती है। मात्र 5% मामलों में मरीज की हालत ज्यादा खराब हो जाती है और उसे सघन चिकित्सा कक्ष की जरूरत पड़ती है। बुजुर्ग लोग जिन्हें फेफड़ों, दिल, गुर्दे की बीमारी होती है या कोई और लंबी बीमारी के शिकार होते हैं, उनके गंभीर बीमार होने की संभावना ज्यादा होती है। मृत्यु दर भी इन्हीं लोगों में ज्यादा होती है।
जिन तरीकों से यह बीमारी फैलती है, उन्हीं से हमें इससे बचाव के रास्ते भी मिलते हैं। जैसे कि दूरी बना कर रखना- अगर संक्रमित व्यक्ति से उचित दूरी, कम से कम 1 मीटर बना कर रखी हुई है तो संक्रमण का खतरा कम हो जाता है। इसलिए जितना हो सके, घर पर रहना चाहिए। केवल जरूरी होने पर ही घर से बाहर निकलें। भीड़ वाले इलाकों में जाने से बचना चाहिए। साथ ही हाथ मिलाने, हाथ पकड़ने और गले लगने से बचना चाहिए।
मास्क पहन कर रखना- जब भी हम घर से बाहर हैं तो मास्क पहन कर रखना बचाव का बहुत प्रभावी तरीका है। छींकने या खांसने से नाक-मुंह से निकली पानी की बूंदे दो मीटर दूर तक जाती हैं। लेकिन अगर मास्क पहन रखा है तो संक्रमण नहीं फैल पाएगा। इसी प्रकार स्वस्थ व्यक्ति के सामने अगर कोई खांसता है तो मास्क की वजह से पानी की बूंदे उसके अपने शरीर पर नहीं पड़ेंगी और संक्रमण नहीं फैल पाएगा। मास्क घर में किसी भी सूती कपड़े से आसानी से बनाया जा सकता है। इसके लिए बाजार से मंहगा मास्क खरीदना जरूरी नहीं है। सर्जिकल मास्क को 6-8 घंटे बाद फैंकना पड़ता है और उसे धो नहीं सकते। लेकिन घर पर बने सूती कपड़े के मास्क को प्रतिदिन धो कर दुबारा पहनने के लायक बनाया जा सकता है।
अगर किसी स्वस्थ व्यक्ति ने मास्क पहन रखा है और संक्रमित व्यक्ति ने नहीं तो बीमारी फैलने का खतरा 70% होता है। लेकिन अगर संक्रमित व्यक्ति ने मास्क पहन रखा है और स्वस्थ व्यक्ति ने नहीं तो बीमारी फैलने का खतरा केवल 5% होता है। अगर दोनों ने मास्क पहन रखा है तो यह खतरा मात्र 1.5% रह जाता है। हाथ धोना- साबुन के साथ कम से कम 30 सैंकड तक हाथ धोने चाहिए।
खांसने और छींकने के सही तौर तरीकों का प्रयोग- खांसते या छींकते समय अपनी मुड़ी हुई कोहनी का प्रयोग करें। हाथों में छींकने से संक्रमण फैलने का खतरा रहता है । सार्वजनिक स्थानों पर थूकने से बचें। अपने चेहरे को छूने से बचें।
बचाव के उपरोक्त तरीकों का पालन कर कोरोना से संक्रमित होने के खतरे को बेहद कम किया जा सकता है। एक बात जो बहुत महत्वपूर्ण है कि नौजवान लोगों के लिए यह बीमारी घातक नहीं है। यह जान कर नौजवान लोग अगर लापरवाही करेंगे और संक्रमित हो जाएंगे तो उन्हें स्वयं को हालांकि कोई खतरा नहीं होगा लेकिन उनके अपने घर में अगर कोई बुजुर्ग है या कोई लंबी बीमारी के लिए इलाज करवा रहा है तो वह इतना खुशकिस्मत नहीं होगा और ऐसे व्यक्तियों के लिए यह बीमारी घातक हो सकती है। इसलिए नौजवानों के लिए अपने परिवार के बुजुर्गों और बच्चों के लिए सावधानी रखना जरूरी है।
जब भी बाहर से आए हैं या किसी ऐसी सतह को छूआ है जहां से संक्रमण का खतरा है, तुरंत हाथ धोने चाहिए। साबुन वायरस को नष्ट कर देती है। घर से बाहर चीजों को कम से कम छूना चाहिए।

कोरोना महामारी और देश का स्वास्थ्य

चीन के वुहान शहर से शुरु हुई महामारी कोरोना ने धीरे धीरे पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है। दुनिया का कोई देश इससे अछूता नहीं रहा। हालांकि कुछ देशों में इसका प्रकोप तुलनात्मक तौर पर कम दिखाई दिया तो कुछ देशोें में इसका प्रभाव बहुत ज्यादा हुआ है। भारत के बारे में पहले कहा जा रहा था कि इसका प्रभाव उतना अधिक नहीं होगा जितना यूरोप के देशों में हुआ है लेकिन नवीनतम आंकड़े इस तथ्य को झुठलाते नजर आ रहे हैं। इस लेख के लिखे जाने तक भारत कोरोना पीड़ितों की संख्या के मामले में दुनिया में चौथे नंबर पर आ गया है । और प्रतिदिन दस हजार से ज्यादा की संख्या में मामले सामने आ रहे हैं। अगर टेस्टों की संख्या में वृद्धि की जाए तो कोई हैरानी नहीं होगी कि यह संख्या इसका कई गुणा हो जाए।
वायरस से होने वाली यह बीमारी हालांकि उतनी घातक नहीं है जितनी शुरु में समझी जाती थी। प्रत्येक 100 संक्रमित होने वाले मरीजों में से 85 से ज्यादा में या तो बीमारी के कोई लक्षण ही नहीं मिलते या नाममात्र के लक्षण होते हैं जिसके लिए सर्दी बुखार की साधरण दवाइयां काफी होती हैं। लगभग 10 मरीजों को लगातार निगरानी में रखने की जरूरत पड़ती है। ज्यादा से ज्यादा थोड़़ी-बहुत देर के लिए आक्सीजन देने की जरूरत हो सकती है लेकिन इससे ज्यादा इलाज की उन्हें जरूरत नहीं होती। इसका अर्थ है कि प्रत्येक 100 में से 95 मरीजों के लिए कोई बड़े हस्पतालों की जरूरत नहीं होती। इन्हें या तो केवल एक बेड की जरूरत होती है या मात्र आक्सीजन का सिलेंडर रख देने से और निरंतर निगरानी से इनका इलाज संभव है। बाकी के बचे 5 मामलों में गहन चिकित्सा कक्ष की जरूरत रहती है। और चंद लोगों को कृत्रिम तरीके से सांस देने की जरूरत भी पड़ती है। मृत्यु अधिकांश मामलों में उम्रदराज लोगों में होती है जिन्हें साथ में फेफड़ों, दिल या गुर्दे की कोई तकलीपफ होती है।
अगर इस बीमारी का संक्रमण इतनी तेजी से न हो रहा होता तो इस पर किसी ने ध्यान भी नहीं देना था। क्योंकि जितनी मौतें कोरोना से हो रही हैं, उससे कई गुणा अधिक मौतें भारत में तपेदिक, मलेरिया, दस्त, न्यूमोनिया, कैंसर, दिल का दौरा, और सड़क दुर्घटनाओं आदि में हो जाती हैं। लेकिन कोरोना की संक्रमण दर बहुत ज्यादा है जिसकी वजह से बहुत थोड़े समय में लाखों लोगों को प्रभावित करने की क्षमता इस वायरस में है। यह पहलू इसे खतरनाक बना देता है।
इस बीमारी का अपना राजनीतिक अर्थशास्त्र है। पूंजीवाद हर अवसर को मुनाफा कमाने के अवसर में बदलने में माहिर होता है। मौजूदा कोरोना का दौर भी इसका अपवाद नहीं है। जहां पूरी मानवता एक भयानक संकट से गुजर रही है, वहीं मुनाफा कमाने वाली शार्क अवसर भुनाने में लगी हैं। विभिन्न दवा कंपनियां कोरोना के खिलाफ दवाई बनाने और वैक्सिन बनाने का दावा पेश कर रही हैं। केवल इतना ही नहीं, इसके लिए वे झूठे शोध भी पेश कर रही हैं। भारत में इस बीमारी से बचाव और इलाज के लिए हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वीन नाम की दवा का इस्तेमाल किया जा रहा है। इस पर शोध का काम भी चल रहा है। लेकिन यह दवा बहुत सस्ती है और भारत की बहुत सी कंपनियां इस दवा का निर्माण कर रही हैं यानि इस दवा पर किसी कंपनी का एकाधिकार नहीं है। यही वजह है कि इस दवा के खिलापफ एक अंतर-राष्ट्रीय षड्यंत्र किया गया और मेडिकल विज्ञान की एक प्रतिष्ठित पत्रिका लेंसेट में इसके खिलाफ लेख लिखा गया। इस लेख में दावा किया गया कि यह दवा मरीजों को कोई फायदा नहीं पहुंचाती। उल्टे इससे मरीज को नुकसान होने का खतरा ज्यादा रहता है। एक दूसरी कंपनी ने इस लेख को लिखने वाले व्यक्ति को 25000 डाॅलर का इनाम दे दिया। बाद में पता चला कि किसी फर्जी शोध के आधर पर यह लेख लिखा गया था। चूंकि मामले का भंडाफोड़ हो गया इसलिए लेंसेट को इस लेख में किए गए दावों का खण्डन करना पड़  गया। यह अकेला उदाहरण नहीं है। विभिन्न कंपनियां विभिन्न दवाइयों पर शोध कर रही हैं और सभी का मकसद कोरोना के अंतर-राष्ट्रीय बाजार पर कब्जा करना है। अब बात वैक्सिन की करते हैं। वैक्सिन और दवा में बुनियादी अंतर यह होता है कि दवा किसी बीमार को दी जाती है जो उसकी बीमारी को ठीक करने में सहायक होती है। लेकिन वैक्सिन स्वस्थ व्यक्ति को दी जाती है जो उसके शरीर में बीमारी से लड़ने की ताकत विकसित करती है। और उसे बीमार नहीं होने देती।
हम लोग प्रत्येक दिन समाचार पत्रों में पढ़ रहे हैं कि फलां देश ने वैक्सिन विकसित कर ली है या फलां कंपनी वैक्सिन बनाने के अंतिम चरण में है। सच्चाई यह है कि हम अभी वैक्सिन को विकसित करने के शुरुआती चरण में हैं और अभी एक लंबा समय लगेगा कि कोई वैक्सिन व्यापक तौर पर इस्तेमाल के लिए उपलब्ध हो सके। क्योंकि किसी वैक्सिन को विकसित करने के कई चरण होते हैं। एक बार वैक्सिन बना लेने के बाद इसके कई ट्रायल होते हैं जो इसके दीर्घकालीन दुष्प्रभावों का आकलन भी करते हैं। यानि वैक्सिन विकसित करना हफ्तों या महीनों का काम नहीं बल्कि सालों का काम होता है। यह भी हो सकता है कि सालों की मेहनत के बाद भी वैक्सिन तैयार न हो सके जैसा कि एचआईवी के साथ हुआ है। जब दुनिया को एडस की बीमारी का पता चला था तो उस वक्त भी दावा किया जा रहा था कि जल्दी ही इसकी वैक्सिन बना ली जाएगी लेकिन तीन दशक बीत जाने के बावजूद वैक्सिन अभी तक नहीं बन पायी है लेकिन यहां भी मुनाफा कमाने की जबर्दस्त होड़ है। जिस कंपनी ने सबसे पहले वैक्सिन बाजार में उतार दिया, उसके लिए अरबों डाॅलर कमाने का रास्ता खुल जाएगा। इसलिए ये कंपनियां एक माहौल बना रही हैं जहां दीर्घकालीन दुष्प्रभावों का आकलन किए बिना वैक्सिन को बाजार में उतारा जा सके।
कोरोना के खिलापफ चल रही जंग में बचाव एक महत्वपूर्ण चीज है। इसमें पीपीई किट्स और सेनेटाइजर की बड़ी भूमिका है। लेकिन बाजार इस वक्त नकली और बेहद खराब गुणवत्ता वाले पीपीई किट्स से भरा हुआ है। ऐसे ही बहुत सी कंपनियां वैंटीलेटर्स बना रही हैं जिनकी गुणवत्ता बिल्कुल भी प्रमाणित नहीं है। मुनाफे के इस खेल में सबसे बड़ा नुकसान उन कोरोना वारियर्स का हो रहा है जिनके लिए देश में कुछ समय पहले थाली और ताली पीटने का ड्रामा किया गया था। विभिन्न राजनीतिक दल और पूंजीपति जनता में अपनी छवि बनाने के लिए हस्पतालों को पीपीई किट्स और वैंटीलेटर्स अनुदान में दे रहे हैं और मीडिया में बड़ी-बड़ी फोटो खिंचवा कर अपना प्रचार कर रहे हैं। लेकिन जब इनकी खराब गुणवत्ता को देखा जाए तो अधिकांश मामलों में यह स्वास्थ्य कर्मियों और मरीजों के जीवन के साथ खिलवाड़ से कम नहीं होता।
इस महामारी ने एक बात को बहुत साफ तौर पर स्थापित कर दिया है कि जिस सार्वजनिक क्षेत्र को आगे पीछे लोग-बाग गालियां निकालते नहीं थकते थे, असल में ऐसी महामारी के समय स्वास्थ्य का यही सार्वजनिक क्षेत्र काम करता दिखाई पड़ रहा है। निजी क्षेत्र की भूमिका बेहद सीमित है। किसी बीमारी से लड़ने के कई फ्रंट होते हैं। बीमारी से बचाव और रोकथाम सबसे महत्वपूर्ण फ्रंट है। इस मोर्चे पर केवल और केवल सार्वजनिक क्षेत्र ही काम करता है। निजी क्षेत्र चंद पर्चे निकलवा कर और कुछ सेमिनार करवा कर अपनी जिम्मेवारी से इतिश्री समझ लेता है। लेकिन हर गली मुहल्ले में जाकर जमीनी स्तर पर आम लोगों से रू-ब-रू होकर सीधा संवाद स्थापित करते हैं, वे लोग कौन हैं? सार्वजनिक क्षेत्र में काम कर रही फ्रंट लाइन वर्कर के रूप में आशा वर्कर और एएनएम वे स्वास्थ्य कर्मी हैं जो न केवल घर-घर जाकर संभावित कोरोना के मरीजों को ढूंढ रही हैं बल्कि विदेशोें से या देश के अन्य इलाकों से आए लोगों को घरों में रहने की हिदायत दे रही हैं । कोरोना का केस मिलने पर कंटेनमेंट जोन में सर्वे का काम कर रही हैं और इस कोरोना के समय में तमाम अन्य स्वास्थ्य सेवाएं भी जनता को दे रही हैं। इसके बाद नंबर आता है, सैंपलिंग करने वाले और कोरोना संक्रमित मरीजों का इलाज करने वाले डाक्टरों का। वर्तमान समय में इस काम का 90% से ज्यादा सरकारी संस्थानों के द्वारा किया जा रहा है। देश में अधिकांश मरीज सरकारी हस्पतालों में दाखिल हैं। निजी क्षेत्र के अधिकांश हस्पताल कोरोना मरीजों का इलाज नहीं कर रहे और जो इलाज कर रहे हैं, उनका इलाज इतना ज्यादा मंहगा है कि देश के 95% नागरिक वहां जाने की सोच भी नहीं सकते, इलाज करवाना तो बहुत दूर की बात है ।
आज से बीस साल पहले के निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र और आज के निजी स्वास्थ्य क्षेत्र में बहुत फर्क आ गया है। निजी क्षेत्र पर कारपोरेट जगत कब्जा करता जा रहा है और इन हस्पतालों पर डाक्टरों का नियंत्रण समाप्त हो गया है। धीरे-धीरे एकल या दंपति डाक्टर वाले क्लीनिक या हस्पताल संकट के दौर से गुजरने लगे हैं। बड़े कारपोरेट हस्पताल इनके मरीजों में सेंधमारी कर चुके हैं। पूंजीपति वर्ग इनका मालिक है और उसका एकमात्र मकसद मुनाफा कमाना है, जनता की दुख तकलीफों से उसे कोई लेना देना नहीं है। वहां काम कर रहे डाक्टर उनके लिए मजदूरों की तरह होते हैं जिन्हें कपंनी द्वारा दिए गए टारगेट पूरे करने होते हैं और टारगेट पूरे न करने पर उन्हें बाहर का रास्ता भी दिखा दिया जाता है। लेकिन जनता समझती है कि यह सब डाक्टर कर रहे हैं। महानगरों में स्थित कारपोरेट पंचतारा हस्पतालों के मालिकों के नाम जान लेने से ही यह स्थिति समझ में आ जाती है।
यह स्थिति केवल कोरोना की नहीं है, सभी महामारियों और देश की मुख्य स्वास्थ्य समस्याओं के बारे में ऐसा कहा जा सकता है। चाहे दस्त और न्यूमोनिया के लिए इलाज और रोकथाम का विषय हो, या तपेदिक और कुष्ठ रोग जैसी बीमारियों को नियंत्रित करने का व्यापक टीकाकरण अभियान हो या उच्च रक्तचाप, शुगर और कैंसर जैसी बीमारियों को नियंत्रित करने का । जब सामाजिक स्तर पर स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करवाने की बात आती है तो इसकी जिम्मेवारी सिर्फ और सिर्फ सरकारी क्षेत्र की बन जाती है और निजी सेवा क्षेत्र इससे पूरी तरह कन्नी काट जाता है। इन्हीं बीमारियों के मरीज जब सामने आते हैं तो मामला उलट जाता है।
पिछले तीन दशकों के दौरान देश में स्वास्थ्य सुविधाओं ढांचा इस प्रकार का बन गया है कि रोजमर्रा में निजी क्षेत्र स्वास्थ्य सेवाओं का 60-70% उपलब्ध करवाते हैं और सरकारी हस्पताल 30-40%। पिछले बहुत लंबे समय से स्वास्थ्य सेवाओं के लिए आवंटित बजट में कोई वृद्धि नहीं की गयी है। देश का स्वास्थ्य पर बजट कुल जीडीपी का महज 1.3% है जो दुनिया के सर्वाधिक गरीब देशों से भी कम है। शिक्षा और स्वास्थ्य किसी भी सरकार के लिए कभी भी प्राथमिकता के क्षेत्र नहीं रहे बल्कि पिछले दो दशकों के दौरान तो प्रत्येक सरकार का रूझान सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की कीमत पर निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने का रहा है। अधिकांश हस्पताल स्वयं बीमार पड़े हैं। वहां डाक्टरों व अन्य स्वास्थ्य कर्मियों की भारी कमी है। दवाइयां, उपकरण बहुत कम हैं। नए सरकारी हस्पताल खोलने और पुराने हस्पतालों का विस्तार करने का महत्वपूर्ण कार्यभार नजरअंदाज किया गया है। इससे पहले से ही बहुत सी कमियां झेल रहे हस्पतालों पर और ज्यादा बोझ पड़ा है। और स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा गई है।
इसके दुष्परिणाम कोरोना महामारी के दौरान हमें साफ तौर पर नजर आ रहे है। वर्तमान में निजी क्षेत्र स्वाभाविक है, नीतिगत तौर पर कुछ नहीं कर रहा। उसके लिए यह चिंता की बात नहीं है कि इस बीमारी से बचाव के लिए क्या-क्या कदम उठाए जाने चाहिएं ? न ही उसके लिए यह चिंता की बात है कि देश के लाखों-करोड़ों मजदूर, खेत मजदूर, छोटा मोटा काम कर गुजारा चलाने वाले लोग बीमार होने पर कहां जाएंगे? उनके लिए यह मुनाफा कमाने का वक्त है। कोरोना के इलाज के लिए इन कारपोरेट हस्पतालों में लाखों रुपए प्रतिदिन के हिसाब से वसूल किए जा रहे हैं।
आज इन स्वास्थ्य सेवाओं की कई गुणा अधिक मात्रा में जरूरत है। लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र के हस्पताल तो रूटीन में ही जनता की आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पा रहे थे, तो स्वाभाविक है कि अब की बढ़ी हुई आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाना लगभग असंभव है। इसके लिए अगर कोई दोषी है तो वह देश के नीति निर्धारक हैं जिन्होंने सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को आइसीयू में पंहुचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसके परिणाम हमें दिल्ली, मुम्बई, गुरुग्राम जैसे महानगरों में दिखाई दे रहे हैं। हस्पतालों में स्वास्थ्य कर्मियों का जबर्दस्त अभाव है। जो हैं, उनमें संक्रमण की दर बहुत ज्यादा है जिसका एक कारण खराब पीपीई किट बताया जा रहा है। सरकारी हस्पतालों में बैड खाली नहीं हैं। लोग अपने मरीजों को लेकर सड़कों पर एक हस्पताल से दूसरे हस्पताल मारे -मारे भटक रहे हैं। यहां तक कि मृत व्यक्तियों को बैड से हटाने के लिए भी कर्मी नहीं हैं और जिंदा मरीजों को लाशों के बीच घंटों तक रहना पड़ रहा है।
अगर हम इस बात का आकलन करें कि इस परिस्थति से निपटने में प्रशासन और सरकार  क्या प्रयास कर रहे हैं ? तो हमें निराशा ही हाथ लगेगी। देश में जितनी लंबी तालाबंदी रही है, उतनी दुनिया के बहुत कम देशों में लगाई गई। भारत जैसे देश में जहां एक तिहाई आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहती है, तीन चैथाई आबादी ‘रोज कमाने और रोज खाने’ की नीति पर चलती है, वहां 70 दिनों की तालाबंदी ने क्या असर डाला होगा, कोई भी व्यक्ति सोच सकता है। जिस प्रकार करोड़ों मजदूरों को सैंकड़ों-हजारों किलोमीटर का सफर तपती लू में अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ भूखे-प्यासे रह कर करना पड़ा है, वह अकल्पनीय है। इतनी लंबी तालाबंदी में अगर बीमारी से निपटने की तैयारियां पूरी कर ली होती तो भी अफसोस नहीं होता। लेकिन तालाबंदी भी कर दी गयी और हम सोते रह गए। न नए हस्पतालों का निर्माण हुआ, न नए स्वास्थ्य कर्मियों का चयन। न गुणवत्ता पूर्ण पीपीई किट की निर्बाध आपूर्ति की व्यवस्था बन पायी है और न ही टैस्टिंग सुविधाओं का विस्तार। हम इस मुगालते में रहे कि कुछ समय  के बाद बीमारी अपने आप चली जाएगी और हमें एक बार फिर से ताली और थाली पीट कर विजय पर्व मनाने का मौका मिल जाएगा। लेकिन कोरोना संक्रमित मरीजों का आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है। और अधिकांश विशेषज्ञों का मानना है कि अगर देश में टैस्ट की सुविधएं अधिक होती तो यह आंकड़ा वर्तमान आंकड़ों से कई गुणा अधिक हो सकता था। यूपी और बिहार के आंकड़ें देख कर कौन यकीन करेगा कि लाखों प्रवासी मजदूरों के आने के बावजूद वहां प्रतिदिन मात्र कुछ सौ केस ही बढ़ रहे हैं। जबकि जिन स्थानों से ये मजदूर गए हैं वहां केस मिलने की दर हजारों में है।
अगर कोई सरकार चाहे तो कोरोना महामारी से कई महत्वपूर्ण सबक सीख सकती है।
पहला सबक तो यह है कि प्रत्येक सरकार को यह बात समझनी होगी कि अगर देश को स्वस्थ रखना है तो सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार करना ही होगा। इसके लिए देश में स्वास्थ्य सेवाओं के लिए किए जा रहे खर्च में बढ़ौतरी करने की सख्त जरूरत है। वर्तमान में जीडीपी के 1.3% के स्थान पर यह कम से कम 6% होना चाहिए।
महामारी से निपटने में नौकरशाहों के स्थान पर स्वास्थ्य सेवाओं और महामारियों पर नियंत्रण करने के लिए विशेषज्ञों की राय पर ज्यादा विश्वास किया जाना चाहिए।
भारत के पास फरवरी और मार्च का महीना था जब हमें बीमारी से लड़ने के लिए अपनी तैयारियां पूरी कर लेनी चाहिएं थी लेकिन वह समय हमने बर्बाद कर दिया। परिणामतः देश भयंकर संकट का शिकार हो गया। इसलिए त्वरित रिसपोंस सिस्टम को चुस्त बनाने की जरूरत है।
प्रधनमंत्राी जी ने तालाबंदी के अपने संबोधन में देश को आत्मनिर्भर बनने का मंत्र दिया था। लेकिन हमें यह नहीं मालूम था कि यह आत्मनिर्भरता बीमारी के मामले में जनता को दिया जाने वाला संदेश भी था। ऐसा महसूस हो रहा है कि सरकार ने अपनी तमाम जिम्मेवारियों से मुंह मोड़ लिया है और जनता को उसके हालात पर छोड़ दिया है कि जो करना है वह खुद करे । सरकारों का जनता की समस्याओं से कुछ लेना देना नहीं है। 


4 comments:

  1. अच्छा लेख है हालांकि HCQ पर अन्य डॉक्टर अलग विचार रख रहे हैं। पर समाधान के लिए जो जरूरी है वह निजी स्वामित्व और मुनाफे आधारित पूंजीवादी व्यवस्था में मुमकिन नहीं, उसके लिए पूंजीवाद का उन्मूलन और सामाजिक स्वामित्व वाली समाजवादी व्यवस्था स्थापित करनी होगी जिसमें सामूहिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नियोजित उत्पादन की व्यवस्था हो।

    ReplyDelete
  2. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  3. 👍👍
    Good Sandeep! Keep it up!

    ReplyDelete