Tuesday 7 July 2020

शहादतनामा


     
(पीर अली ने अपनी जिस्मानी पीड़ा को पीते हुए हंस कर कहा, "जीवन में कुछ अवसर ऐसे भी आते हैं, जब जीवन का मोह त्याग देना ज्यादा बेहतर होता है । आज वही सुनहरा अवसर मेरे सामने भी आ खड़ा हुआ है । आज यदि मैं अपनी मातृभूमि पर कुर्बान हो जाता हूं तो केवल एक नहीं, हजारों पीर अली उठ खड़े होंगे, उस खाली जगह को भरने के लिये !")

  पीर अली खान

पीर अली खान भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के गुमनाम नायकों में से एक हैं । उन्होंने सन् 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन के शुरूआती दौर में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद किया । ब्रिटिश राज के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजाने के लिए उन्हें मौत की सजा दी गई । पीर अली के साहस और उनके द्वारा अपनाए गए रास्ते ने लाखों लोगों को प्रेरित किया । वे एक बहादुर स्वतंत्रता सेनानी थे । लेकिन उनका नाम समय की धारा में कहीं छूट गया । यहां तक कि इतिहास की पुस्तकों में भी उनके बारे में कहीं कुछ दर्ज नहीं है ।
पीर अली खान का जन्म सन 1820 में उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के मुहम्मदपुर गांव में हुआ था । बचपन से ही उनके दिल में अंग्रेजो के खिलाफ लड़ने और उन्हें अपने देश से बाहर फेंकने की धुन बसी थी । इसलिए वह बचपन में ही अपने घर से भाग गया था । घर से भागने के बाद बालक अली एक दिन पटना जा पहुंचे, जहां मीर अब्दुल्ला नामक एक जमींदार ने उन्हें गले लगाया और पढ़ाया लिखाया । मीर अब्दुला के ऊपर से तो अंग्रेजों के साथ बहुत ही अच्छे संबंध थे, लेकिन वास्तव में वे अंग्रेजों से बेहद नफरत करते थे । धीरे-धीरे अब्दुल्ला ने इन्हीं भावनाओं को अली के दिमाग में भी भरना शुरू कर दिया ।
शिक्षा समाप्त होने पर, पीर अली ने मीर अब्दुल्ला की मदद से पटना में एक किताबों की दुकान खोली । वहां वे हाथ से लिखी गई पुस्तकें और अन्य साहित्य बेचने का काम करने लगे । धीरे-धीरे उनकी दुकान हस्तलिखित पुस्तकों के लिए लोकप्रिय हो गई । लेकिन ब्रिटिश नियम कायदों के कारण दूसरे कारोबारियों की तरह ही उन्हें भी बेहद मुश्किलें आ रही थी । अंग्रेज अधिकारी छोटी-छोटी बातों को लेकर व्यापारियों को कड़े ढंग से प्रताड़ित करते थे । तन से मजबूत, पर ह्रदय से बेहद कोमल व चिंतनशील अली का मन इस आए दिन की प्रताड़ना को सहन नहीं कर पाया । पहले से ही दिल में सुलग रही देशभक्ति की चिंगारी धीरे-धीरे शोले का रूप धारण करने लगी और एक दिन उन्होंने खुद को पूर्णतया आजादी के आंदोलन को समर्पित कर दिया । जल्दी ही उनकी दुकान स्वतंत्रता सेनानियों के मिलने और अंग्रेजो के खिलाफ योजनाएं बनाने का केंद्र बिंदु बन गई । कुछ समय बाद किताबों की दुकान का प्रयोग ब्रिटिश सेना में कार्यरत भारतीय सैनिकों के साथ संपर्क रखने के लिए किया जाने लगा ।
कुछ ही समय में पटना के पास दानापुर छावनी में, जो एक बहुत बड़ी छावनी थी, एक खुफिया क्रांतिकारी यूनिट की स्थापना कर दी गई । छावनी में भारतीय सैनिकों को स्थानीय जनता के साथ तालमेल बिठाते हुए ठीक समय पर विद्रोह करना था । पीर अली के साथी सैनिकों की छावनी की भारतीय फौजों में कई खुफिया समूह गठित हो चुके थे । ये ग्रुप बेहद गोपनीय तरीकों से भारतीय सैनिकों में देशभक्ति की भावना का संचार कर रहे थे ।
दूसरी तरफ, पीर अली व उनका साथी वारिस अली जो कि एक पुलिस अफसर भी था तथा उनके दूसरे साथी, स्थानीय लोगों के बीच अंग्रेजों के प्रति नफरत फैला रहे थे । उन्होंने जनता में उन शहरों में हो चुके सफल जन विद्रोहों की घटनाओं का प्रचार किया, जहां दानापुर से पहले ही सन 1857 के ग्रेट इंडियन विद्रोह का दावानल, अंग्रेजों की सत्ता को ध्वस्त कर चुका था । पीर अली दिन-रात लोगों के दिलों में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की ज्वालाओं के शोले भर रहे थे । लेकिन इस बीच एक बड़ी गड़बड़ हो गई । दानापुर छावनी से दो गुप्त पत्र ब्रिटिश पुलिस के हाथ लग गए । एक पत्र पीर अली के नाम था और दूसरा वारिस अली के नाम था ।
पत्र मिलते ही चारों ओर हड़कंप मच गया । अली के दोस्त पुलिस अफसर वारिस अली को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया । इस बात का पता चलते ही पीर अली ने तुरंत हमला करने का फैसला किया । हालांकि उन्हें हमले की कामयाबी पर पूरा विश्वास था, पर फिर भी वे अंतिम क्षण तक हमले की सफलता के लिए जरूरी हर संसाधन जुटाने के जीतोड़ प्रयत्न कर रहे थे । तय तारीख तथा समय पर पीर अली ने अपना पीला-नीला झंडा बुलंद किया और अपने साथियों को एकत्रित किया । क्रांतिकारियों में लगभग 50 बंदूकें बांट दी गई । ये हथियार उन्होंने अपने सहयोगी मौलवी मेहंदी की मदद से प्राप्त किए थे ।
20 जून, 1857 को अंग्रेजों को किसी तरह हथियारों की सप्लाई चैन का सुराग लग गया । उन्होंने मौलवी मेहंदी को पकड़ा और बिना किसी सुनवाई की फांसी पर लटका दिया । मौलवी मेंहदी की शहादत के बाद पीर अली तथा उनके साथियों का संघर्ष और ज्यादा उग्र हो गया । 3 जुलाई, 1857 को पीर अली तथा उनके 200 से भी अधिक समर्थक फिर से क्रांति का झंडा बुलंद करते हुए राज्य के प्रशासनिक मुख्यालय गुलजारबाग पर कब्जा करने के लिए पूरे जोश के साथ आगे बढ़े । साथी गुलाम अब्बास झंडा थामे हुए थे । नंदू खार की जिम्मेदारी भीतरघात करने वालों पर नजर रखने की थी । नेता पीर अली अंग्रेजों के खिलाफ नारे लगा रहे थे । जब वे मुख्यालय की ओर बढ़ रहे थे, दूसरी तरफ से ब्रिटिश अफसर एम लॉयल, भारतीय सैनिकों की एक पूर्णतया हथियारबंद टुकड़ी के साथ आगे बढ़ रहा था । क्रांतिकारियों से सामना होते ही लॉयल ने अपने सैनिकों को गोली चलाने का आदेश दिया । आमने सामने की लड़ाई में लॉयल मारा गया । यह खबर पटना तथा उसके आसपास के इलाकों में चारों तरफ आग की तरह फैल गई । जनता बेहद आंदोलित हो उठी ।
हालात हाथ से बाहर निकलते देख पटना के जालिम कमिश्नर डब्ल्यू टेलर ने अपने सैनिकों को निहत्थे लोगों पर गोलीबारी करने का आदेश दिया । पीर अली के बहुत से साथी मारे गए तथा अनेकों गंभीर रूप से घायल हो गए । इसके बाद ब्रिटिश सेना ने पटना में आतंक मार्च किया । हर घर की तलाशी ली गई और असंख्य लोगों को बिना किसी सबूत के गिरफ्तार कर लिया गया । उनमें से बहुतों को बिना किसी सुनवाई के बड़ी ही बेरहमी के साथ सड़कों के किनारे पेड़ों पर फांसी पर लटका दिया गया ।
इसके बाद, पीर अली की किताबों की दुकान पर छापा मारा गया । वहां से अनेक दस्तावेज जप्त किए गए और दुकान को आग के हवाले कर दिया गया । अगले ही दिन, 4 जुलाई, 1857 को पीर अली खान को भी उनके 33 साथियों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया । उनमें से ज्यादातर को बिना किसी सुनवाई के अगले ही दिन फांसी पर लटका दिया गया । लेकिन पीर अली को उनके दूसरे साथियों का अता-पता उगलवाने हेतु जिंदा रखा गया । तीन दिन तक अंग्रेज जल्लाद उन पर नृशंसतापूर्वक अत्याचार करते रहे, पर भारत माता की उस सच्चे लाल के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला ।
जब पीर अली किसी भी तरह से नहीं टूटे तो कमिश्नर टेलर ने अपनी अंतिम चाल चली, "देखो पीर अली, यदि तुम अपने दूसरे साथियों के नाम-पते बता देते हो तो मैं तुम्हें माफ करके आजाद कर दूंगा !"
पीर अली ने अपनी जिस्मानी पीड़ा को पीते हुए हंस कर कहा, "जीवन में कुछ अवसर ऐसे भी आते हैं, जब जीवन का मोह त्याग देना ज्यादा बेहतर होता है । आज वही सुनहरा अवसर मेरे सामने भी आ खड़ा हुआ है । आज यदि मैं अपनी मातृभूमि पर कुर्बान हो जाता हूं तो केवल एक नहीं, हजारों पीर अली उठ खड़े होंगे, उस खाली जगह को भरने के लिये !"
7 जुलाई, 1857 को इस महान योद्धा को एम. लॉयल की हत्या के आरोप में ब्रिटिश शासकों द्वारा फांसी पर लटका दिया गया । बाद में, क्रूर ब्रिटिश शासकों ने पीर अली के सभी अनुयायियों और सह कार्यकर्ताओं को मारने का आदेश दिया । परन्तु वे उनके द्वारा जलाई गई मशाल को बुझा नहीं पाए । आने वाली पीढ़ियों में उस मशाल को थामने हेतु, मशाल में बत्ती की जगह अपनी हड्डियां गलाने हेतु, तेल की जगह अपना खून जलाने हेतु हजारों-लाखों पीर अली पैदा हो जो हो गए थे!
संदर्भ -: यह लेख अभियान प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक जरा याद करो कुर्बानी से लिया गया है ।
   

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