Thursday 30 July 2020

शहादतनामा

शहीद उधमसिंह

 
यूं तो प्रत्येक शहादत पहाड़ से भी भारी होती है लेकिन कुछ शहीदों के नाम ध्रुव तारे की तरह चमकते हैं। भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, करतार सिंह सराबा, बिरसा मुण्डा इसी तरह के नाम हैं । इन्हीं शहीदों की कतार में एक और नाम है और वह नाम है -- उधमसिंह का, जिसने देशप्रेम की भावना की एक नई मिसाल कायम की। कुछ लोग वक्त के साथ-साथ देश की जनता पर हुए शोषण व अन्याय को भूल जाते हैं या शोषण व अन्याय करने वालों के प्रति उनकी नफरत कम हो जाती है, लेकिन उधमसिंह वो महान शहीद था जिसने पूरे 21 वर्ष तक साम्राज्यवादी लुटेरों के प्रति नफरत की आग को जलाए रखा और फिर जैसे ही मौका मिला, वो काम कर डाला कि ब्रिटिश साम्राज्य काँप कर रह गया।
उधमसिंह का जन्म 28 दिसम्बर, 1899 को पंजाब के संगरूर जिले में सुनाम नाम के कस्बे में हुआ था। उधमसिंह के पिता श्री टहल सिंह उप्पली गांव की रेलवे क्रॉसिंग पर गेट कीपर का काम करते थे। परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी न थी, बस किसी प्रकार गुजर बसर हो जाती थी। उधमसिंह जब दो वर्ष के थे, उनकी मां चल बसीं। 5 वर्ष की उम्र में पिता का साया भी सिर से उठ गया। आगे के कई वर्ष उधमसिंह ने अमृतसर के अनाथालय में बिताए, जहां उन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण की। जब वे 19 वर्ष के हुए तो उनके भाई साधू सिंह का भी देहान्त हो गया। इन सब घटनाओं के चलते उधमसिंह एक भावुक नौजवान बन गया था जो किसी का भी दुख बर्दाश्त नहीं कर पाता था।
13 अप्रैल, 1919 को हुए जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड ने उधमसिंह की जिन्दगी को एक नया मोड़ दे दिया। हजारों लोगों की मौत और हजारों घायल लोगों की कराहों ने उधमसिंह को बेचैन कर डाला। इस घटना में उधमसिंह भी घायल हुआ था, जब वह कर्फ्यू तोड़ कर रतन देवी नामक महिला के मृत पति का शव लेने के लिए निकला था।
इस हत्याकाण्ड से उनका दिल ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध असीम नफरत से भर उठा और उन्होंने मन ही मन इस हत्याकाण्ड के प्रमुख अभियुक्त पंजाब के लैफ्टीनैंट गवर्नर माइकल-ओ-डायर को मारने का फैसला कर लिया। इसके बाद वे अफ्रीका होते हुए अमरीका चले गये और वहां जाकर क्रान्तिकारी गतिविधियों में शामिल होने लगे।
भगतसिंह के बुलाने पर उधमसिंह अपने 25 सहयोगियों के साथ भारत वापिस आ गए ताकि क्रान्ति में अपना योगदान दे सकें। वे भगतसिंह को अपना दोस्त और गुरू मानते थे। अगर जलियांवाला बाग उधमसिंह की जिंदगी में एक निर्णायक मोड़ था जिसने उनके मन में बदला लेने की भावना को पैदा किया तो यह भगतसिंह था जिसने उन्हें क्रांतिकारी रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित किया था। लेकिन 1927 में उधमसिंह को हथियार रखने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें 4 वर्ष के कठोर कारावास की सजा हुई। उन पर 1917 की रूसी समाजवादी क्रान्ति का प्रभाव भी पड़ा जिसका अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि गिरफ्तारी के वक्त अन्य चीजों के साथ-साथ उनसे ‘रूसी गदर ज्ञान समाचार’ की प्रतियां भी प्राप्त हुईं थीं। जेल से उन्हें 1932 में रिहा किया गया। इस बीच भगतसिंह को फांसी हो चुकी थी। हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातान्त्रिक सेना के मुख्य कार्यकर्त्ता शहादत पा चुके थे। क्रान्तिकारी आन्दोलन को काफी नुकसान हो चुका था। अतः उधमसिंह ने इंग्लैंड जाने का मन बनाया ताकि वहां जाकर जलियांवाला बाग के हत्यारे को सबक सिखाया जा सके।
अगले ही वर्ष पुलिस की आँखों में धूल झोंक कर उधमसिंह जर्मनी जा पहुंचे और वहां से इंग्लैंड। लंदन पहुँच कर उधमसिंह ने इन्जीनियरिंग कोर्स में दाखिला ले लिया और धनी व प्रभावशाली लोगों से सम्पर्क बढ़ाने शुरू कर दिए ताकि माइकल-ओ-डायर तक पहुँचा जा सके। इसी बीच वे एक रिवाल्वर का इन्तजाम भी कर चुके थे। उन्हें अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए कई वर्षों तक इन्तजार करना पड़ा और इन वर्षों के दौरान उनके दिल में साम्राज्यवाद के विरुद्ध जल रही आग और बेकरारी का अन्दाजा लगाया जा सकता है। लेकिन इस बात का किसी दूसरे को पता लगने का मतलब था -- पूरी योजना का चौपट हो जाना। सुख-सुविधाओं और ऐश्वर्य के लालच उधमसिंह को अपने उद्देश्य से नहीं भटका सके । वे धैर्यपूर्वक सही वक्त का इन्तजार करने लगे।
आखिरकार जलियांवाला हत्याकाण्ड के 21 वर्ष बाद 13 मार्च, 1940 को सांय 4.30 बजे उन्हें यह मौका मिल ही गया। लंदन में वेस्टमिनिस्टर में किसी वेक्सटन हाल में एक पार्टी में माइकल-ओ-डायर शामिल हुआ। उसी पार्टी में उधमसिंह भी मौजूद थे। डायर को देखते ही उन्होंने अपने रिवाल्वर का चैम्बर खाली कर दिया। डायर वहीं पर ढेर हो गया। इस घटना में दो अन्य व्यक्तियों सहित लार्ड जैटलैंड, राज्य सचिव (भारत) भी घायल हो गया। उधमसिंह को घटना स्थल पर ही गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तार होने पर उन्होंने अपना नाम राम मोहम्मदसिंह ‘आजाद’ बताया जो उनकी हिन्दू-मुस्लिम और सिक्खों की एकता से ब्रिटिश साम्राज्यवाद के चंगुल से आजाद होने की तीव्र इच्छा को जाहिर करता है।
माइकल-ओ-डायर की हत्या के बाद उधमसिंह द्वारा कहे गए शब्दों से उनकी जिन्दगी पर करतार सिंह सराबा और भगतसिंह द्वारा छोटी सी उम्र में ही दी गई शहादत का प्रभाव स्पष्ट नजर आता है। ‘मैं परवाह नहीं करता। मैं मरने से नहीं घबराता। बूढ़े होने तक मौत का इन्तजार करने की क्या तुक है? कोई तुक नहीं है। आपको उस वक्त मरना चाहिए, जब आप नौजवान हों। यही ठीक है और मैं यही कर रहा हूँ।’
थोड़ा रुककर उधम सिंह ने पुनः कहा, ‘‘मैं अपने देश के लिए मर रहा हूँ।’’
13 मार्च, 1940 को दिए एक वक्तव्य में उधमसिंह ने कहा, ‘‘मैंने अपना विरोध प्रकट करने के लिए गोली चलाई। मैंने भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अधीन लोगों को भूखों मरते देखा है ।...... विरोध प्रकट करने का मुझे कोई अफसोस नहीं है। बल्कि ऐसा करना मेरा कर्त्तव्य था ।....... मुझे परवाह नहीं है कि मुझे क्या सजा दी जाती है --10 वर्ष, 20 वर्ष या 50 वर्ष कैद या फिर फांसी। मैंने अपना कर्त्तव्य निभा दिया है।’’ ब्रिक्सटन जेल से लिखे एक पत्र में उधमसिंह ने भगतसिंह का जिक्र करते हुए लिखा, ‘‘मुझे मौत से कभी डर नहीं लगा। शीघ्र ही फांसी के तख्ते से मेरी शादी होने वाली है। मुझे कोई अफसोस नहीं है क्योंकि मैं अपने देश का सिपाही हूँ। 10 वर्ष पहले मेरा दोस्त मुझे यहां छोड़ कर चला गया था। मुझे विश्वास है मृत्यु के बाद मैं उससे मिल सकूंगा, क्योंकि वह मेरा इन्तजार कर रहा होगा। (यह 23 तारीख थी) और मुझे उम्मीद है वे मुझे भी उसी तारीख को फांसी देंगे जिस तारीख को उन्होंने भगतसिंह को फांसी दी थी।’’
उध्म सिंह द्वारा डायर की हत्या के इस वीरतापूर्ण कारनामे से ब्रिटिशराज बुरी तरह काँप कर रह गया था और पूरी भारतीय जनता खुशी से झूम उठी थी, लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सर्वोच्च नेता महात्मा गांधी को ब्रिटिश अधिकारियों की चिन्ता ज्यादा हो रही थी । गांधी की प्रतिक्रिया थी, ‘‘मेरी तरह हर भारतीय को इस हत्या पर लज्जा अनुभव करनी चाहिए और उसे इस बात की खुशी होनी चाहिए कि अन्य तीन प्रतिष्ठित अंग्रेजों की जानें बच गईं।’’ (सम्पूर्ण गांधी वाङमय, खण्ड 71, पृष्ठ 391 से उद्धरत)
4 जून, 1940 को सैन्ट्रल क्रिमिनल कोर्ट में न्यायाधीश अटकिंसन की अदालत में मुकद्दमा शुरू हुआ। यह मुकद्दमा केवल दो दिन चला और उधमसिंह को फांसी की सजा सुना दी गई। 15 जुलाई, 1940 को उधमसिंह की फांसी की सजा वेफ विरुद्ध की गई अपील को खारिज कर दिया गया। 31 जुलाई, 1940 को लंदन की पैंटनविले जेल में देश के इस महान सपूत को फांसी दे दी गई।
सजा देने से पूर्व अटकिंसन ने उधमसिंह से पूछा कि क्या वह कुछ कहना चाहता है। इस पर उधमसिंह पहले से लिखे नोटस से पढ़ने लगे। जज ने बार-बार उधमसिंह को टोका और प्रैस को आदेश दिया कि वह इसे प्रकाशित नहीं करे। ब्रिटिश और भारत सरकार दोनों ने भरसक प्रयत्न किए कि इस मुकद्दमे को कम से कम प्रचार मिले। उधम सिंह के इन आखिरी शब्दों को लम्बे समय तक छुपाकर रखा गया परन्तु आखिरकार ब्रिटिश पब्लिक रिकार्डस ऑफिस से उधमसिंह के अन्तिम भाषण को सार्वजनिक करवा ही लिया गया, जोकि इस प्रकार है --

शहीद उधमसिंह के आखिरी शब्द


जज की ओर देखते हुए उधमसिंह चिल्लाया, ‘‘मैं कहता हूँ ब्रिटिश साम्राज्यवाद का नाश हो। आज भारत गुलाम है। इस तथाकथित सभ्यता की कई पीढ़ियां हमारे लिए वो प्रत्येक घिनौनी वस्तु और विकृति लाई हैं जिनसे मानवता परिचित है। आप अपना इतिहास पढ़िए। अगर आपके अन्दर थोड़ी सी भी मर्यादा है तो आपको शर्म से डूब मरना चाहिए। तथाकथित बुद्धिजीवी जो स्वयं को विश्व की सभ्यता के शासक कहते हैं, उनके क्रूर और रक्त पिपासु तरीके घटिया और दोगलेपन के सूचक......।"
जज अटकिंसन : मैं राजनीतिक भाषण सुनना नहीं चाहता। अगर इस मामले से सम्बन्धित कुछ बात है तो कहो ।
उधमसिंह : मुझे यह कहना है । मैं विरोध प्रकट करना चाहता हूँ । (उधमसिंह ने कागज का टुकड़ा हवा में फहराया, जिसमें से वे पढ़ रहे थे।)
जज : क्या यह अंग्रेजी में है ?
उधमसिंह : मैं इसे पढ़ रहा हूँ, आप इसे समझ सकते हैं।
जज : अगर तुम इसे मुझे पढ़ने को दो तो मैं ज्यादा अच्छे तरीके से समझ लूंगा ।
उधमसिंह : मैं चाहता हूँ कि ज्यूरी और अन्य लोग भी इसे सुन लें। (सरकारी वकील श्री जी. बी. मैक्कलोयर ने जज को याद दिलाया कि आपातकालीन शक्तियां अधिनियम की धारा 6 के तहत वे उधम सिंह को आदेश दे सकते हैं कि उस का भाषण नोट नहीं किया जाएगा या उसे बन्द कमरे में सुना जा सकता है।)
जज : तुम जो कहोगे उसे प्रकाशित नहीं किया जाएगा। तुम्हें उपयुक्त बात ही कहनी होगी। अब बोलो । तुम्हें केवल इतना कहना है कि कानून के मुताबिक तुम्हें सजा क्यों न दी जाए?
उधमसिंह : (चिल्लाते हुए) मैं मौत की सजा की परवाह नहीं करता। इसका कोई महत्त्व नहीं है। मैं मरने से नहीं घबराता। मुझे इसकी कोई चिन्ता नहीं है । मैं एक मकसद के लिए मर रहा हूँ। (कटघरे पर मुक्का मारते हुए) हम ब्रिटिश साम्राज्य में पिस रहे हैं। मैं मरने से नहीं डरता। मुझे इस मौत पर गर्व है, मुझे पूरी उम्मीद है कि मेरे जाने के बाद अपनी मातृभूमि को आजाद करवाने के लिए मेरे हजारों देशवासी आएंगे ताकि ब्रिटिश कुत्तों को बाहर निकाला जा सके और देश को आजाद करवाया जा सके।
मैं ब्रिटिश ज्यूरी के सामने खड़ा हूँ। मैं अंग्रेजों की अदालत में हूँ। आप लोग भारत जाते हैं और जब वापिस आते हैं तो इनाम मिलते हैं और हाउस ऑफ कॉमन्स में जगह मिलती है। हम इंग्लैंड आते हैं और हमें मौत की सजा सुनाई जाती है। एक समय आएगा जब भारत को ब्रिटिश कुत्तों से मुक्त करा दिया जाएगा। तुम्हारा ब्रिटिश साम्राज्यवाद धवस्त हो जाएगा।
जहां-जहां भी तुम्हारा तथाकथित जनवाद और ईसाइयत का झण्डा फहराता है, वहां-वहां भारत की गलियों में मशीनगनें हजारों बेकसूर औरतों और बच्चों को भून डालती हैं।
मैं ब्रिटिश सरकार की बात कर रहा हूँ। मुझे ब्रिटिश लोगों से कोई शिकायत नहीं है। यहाँ इंग्लैंड में मेरे ब्रिटिश मित्रों की संख्या मेरे भारत के दोस्तों से कहीं ज्यादा है। मुझे इंग्लैंड के मजदूरों से पूरी सहानुभूति है। मैं साम्राज्यवादी सरकार के खिलाफ हूँ।
आप लोगों के कारण मजदूरों को दुख झेलने पड़ते हैं। इन पागल जानवरों, घटिया कुत्तों के कारण प्रत्येक व्यक्ति दुखी है। भारत गुलाम है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद लोगों को मार रहा है, तबाह कर रहा है। लोगों को यह सब अखबारों में पढ़ने तक को नहीं मिलता। हम जानते हैं भारत में क्या हो रहा है?
जज : मैं और कुछ नहीं सुनना चाहता।
उधमसिंह : तुम और कुछ नहीं सुनना चाहते क्योंकि तुम मेरी बात सुनकर घबरा गए हो। अभी मुझे बहुत कुछ कहना है।
जज : मैं इस बयान को और नहीं सुनूंगा।
उधमसिंह : आपने मुझसे पूछा कि मैं क्या कहना चाहता हूँ। मैं अब कह रहा हूँ। क्योंकि आप लोग घटिया हैं। तुम वह सब सुनना नहीं चाहते जो तुम भारत में कर रहे हो।
अपना चश्मा जेब में डालते हुए उधम सिंह चिल्लाया, ‘‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद का नाश हो। ब्रिटिश कुत्तों का नाश हो।’’ कटघरे से मुड़ते हुए उसने जज की मेज की ओर थूका।
जब उधमसिंह चला गया तो जज प्रैस की ओर मुड़ा और कहा, ‘‘मैं प्रैस को निर्देश देता हूँ कि कटघरे में अपराधी द्वारा दिए गए बयान को जारी न किया जाए।’’

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