Wednesday 29 July 2020

राजनीति



इस देश से जब तक जाति-प्रथा खत्म नहीं होती, 
तब तक क्रान्ति असम्भव है
और जब तक क्रान्ति नहीं होती, 
तब तक जाति-प्रथा का उन्मूलन असम्भव है........

                        -डाॅ० आनंद तेलतुंबड़े

(प्रस्तुत लेख डाॅ. आनंद तेलतुंबड़े द्वारा 17 सितंबर, 2017 को नरवाना में 100 अंकों का सफर पूरा करने पर 'अभियान पत्रिका’ द्वारा आयोजित अभियान गोष्ठी में जाति-प्रथा का उन्मूलन विषय पर दिए गए भाषण के संपादित अंश हैं। - संंपादक मंडल)


2014 से, जब से हिंदुत्व ताकतें पाॅवर में आयी हैं, उन्होंने फासीवाद का प्रोटोटाईप दिया है। आज के विषय को इसी संदर्भ में समझना होगा। जब भी जाति का जिक्र आता है, एकेडेमिक लोग तो एकेडेमिक लाईन लेते हैं तथा बाकी बातें वे दलितों पर छोड़ देते हैं कि तुम सोचो, तुम्हारा सवाल है! लेकिन यह सवाल सिर्फ उनका नहीं है। यह इस देश की क्रांति का सवाल है। जब तक जातिप्रथा खत्म नहीं होगी, तब तक क्रांति नामुमकिन है। इसलिए यह सबका प्रश्न है।
कुछ सवालों का हल ढूंढ़ने के लिए उनकी जड़ में जाने की जरूरत होती है लेकिन जातिप्रथा की जड़ में जाने की जरूरत नहीं है। क्योंकि जातिप्रथा जन्मी जैसे भी हो, असल में यह विकसित हुई है। इसका इवोल्यूशन हुआ है। इस इवोल्यूशन का इसके जड़मूल से कोई संबंध नहीं है। भौतिकवादी दृष्टि से देखें तो जाति की जड़ें देश की प्राकृतिक सम्पन्नता में गड़ी हुई हैं। जो नोमेडिक ट्राईब्स (घुमक्कड़ जनजातियां) थी सारी दुनिया में, वे जब खेती के लिए बसने लगीं, तो उन्हें एक ढाँचागत बदलाव से गुजरना पड़ा। पर भारत में खूब सारी जमीन थी, इतना सूर्यप्रकाश था, खूब पानी था। खेती के लिए एकदम अनुकूल वातावरण था। अतः उन्हें यहां वैसे ढाँचागत बदलावों से गुजरने की जरूरत नहीं पड़ी। भारत में नोमेडिक ट्राईब्स जैसी थीं, वैसी ही, वहीं की वहीं खेती के लिए बस गई। उनमें ऊँच-नीच थी। लेकिन ऊँच-नीच का सैंस नहीं था। वह एक प्रकार की ट्राइब्ल आईडेंटिटी थी, जैसी दक्षिण अफ्रीका में देखने को मिलती है।
फिर बाहरी लोग यहां आए। उनके पास अपना वर्णव्यवस्था का विकसित ढाँचा था; जिसमें पहले तीन वर्ण थे, फिर चार, फिर पाँच आदि-आदि। उन वर्णों में ऊँच-नीच का सैंस था। पदसोपान का सैंस था। उन्होंने यहां प्रचलित जाति-व्यवस्था पर उसे लादा। धीरे-धीरे जातियां बनती चली गईं। बाद में यहां बहुत विरोध हुआ। एक किस्म का विचारधरात्मक विरोध हुआ। ब्राह्मणवाद के विरोध में जो था, वह श्रमणवाद था। श्रमणों ने विरोध तो किया पर आगे चलकर उन्होंने इसे आत्मसात कर लिया। इतिहास में सिर्फ दो ही श्रमण बचे रहे। जैन और बौद्ध धर्म। उसमें भी बदलाव आते रहे। बौद्ध धर्म ने जातिप्रथा का बहुत विरोध किया। लेकिन यह केवल विचारधरात्मक स्तर पर ही रहा। जाति की सामाजिक प्रथा ने समाज को जकड़ लिया था। जातियां एक जीवंत सच्चाई बन गई थीं।
इसका अर्थ यह है कि जातियां सिर्फ सामाजिक नहीं थीं, जातियां सिर्फ धर्मिक नहीं थीं, जातियां सिर्फ आर्थिक नहीं थीं, वे मात्र राजनीतिक नहीं थीं; जातियां सबकुछ थीं। लोग जातियों को जीने लगे थे। निचली जातियों ने भी मान लिया कि वे निम्न हैं। यही कारण है कि जातियां यहां तीन हजार वर्ष तक टिकी रहीं। आपको किसी भी देश में ऐसी सामाजिक पद्धति नहीं मिलेगी। यह दुनिया की सामाजिक व्यवस्थाओं में सबसे पुरानी मानव-निर्मित व्यवस्था है। जातिप्रथा में काफी सालों तक कोई बदलाव नहीं आया। लोग इसी में जीते रहे।
जब तक यहां 12वीं-13वीं सदी में, मुस्लिम आकर नहीं बसने लगे, जब तक उन्होंने एक वैकल्पिक सामाजिक सभ्यता का निर्माण नहीं कर लिया; तब तक जातिप्रथा का कोई भी काउंटर पोल नहीं था। उन्होंने भी ज्यादा नहीं किया, क्योंकि उन्हें भी राज करना था। उन्होंने उच्च जातियों से मेलमिलाप किया। उसके तहत थोड़े-बहुत काॅस्मेटिक बदलाव आए। एक डेमोग्राफिक बदलाव आया। निचली जातियों कोे एक वैकल्पिक सभ्यता का नमूना देखने को मिला। इस कारण बहुत सारी जातियां मुसलमान बनीं। विवेकानंद कहते हैं कि हिंदुओं का 20% इस्लाम में चला गया, जो कि तलवार के बल पर नहीं था। संघ कहता है कि मुसलमानों ने तलवार के दम पर धर्मांतरण किया। यह झूठ है। लोगों को इस्लाम में समता का दर्शन मिला। एक ऐसी सभ्यता, एक ऐसा भगवान मिला जो इस भगवान से निराला था। इसलिए उन्होंने इस्लाम ग्रहण किया।
भारत में औपनिवेशिक शासन के तहत बहुत बदलाव आए। पूंजीवाद आया, पश्चिमी सभ्यता और मूल्य आए। जब अंग्रेज यहां बसने लगे तो पश्चिमी जीवनशैली का माॅडल आया। पूंजीवाद का विकास होने से आधरभूत ढाँचा आने लगा। हालांकि ऐसा कुछ सोच समझकर नहीं किया गया था, पर दलितों को इससे काफी अवसर मिले। यहां तक कि दलित आंदोलन का जन्म भी औपनिवेशिक काल में ही हुआ। दलित चेतना, दलित संघर्ष, ये सब उसी काल में देखने को मिला।
जो बदलाव 1947 के बाद में आये, ऐसे बदलाव पिछली कई सदियों में भी नहीं आए थे। पर ये कोई सकारात्मक बदलाव नहीं थे। लोगों को बड़ी गलतफहमियां हैं क्योंकि हमारे विद्वानों ने इन्हें ठीक से परखा नहीं। जब संविधन सभा का सत्र चल रहा था तब गांधीजी की जय-जयकार के बीच छुआछूत का उन्मूलन किया गया। कानून बनाया गया कि आज से देश में छुआछूत नहीं होगी। लेकिन जाति को गैरकानूनी नहीं बनाया गया। लोग मानते हैं कि जातियां संविधन से निकाल दी गईं या स्वतंत्र भारत में जातियां नहीं हैं। यह गलतफहमी है। जातियों का उन्मूलन क्यों नहीं किया गया? यह कहकर कि हम निचले लोगों को सामाजिक न्याय देना चाहते हैं! कौन सा ‘सामाजिक-न्याय’ देना चाहते हैं? आरक्षण देना चाहते हैं, जोकि पहले से ही था। बहुतों को मालूम नहीं कि आरक्षण शाहू महाराज ने 1902 में लागू किया था। ब्रिटिश भारत में आरक्षण 1946 में लागू किया गया। इसके लिए बाबासाहब लड़े थे। गोलमेज सम्मेलन में उन्होंने दलितों के लिए पृथक निर्वाचक मंडलों की मांग की और जीत गए। गांधीजी ने विरोध में अनशन किया और दबाव बनाकर अंबेडकर के हस्ताक्षर ‘पूना पैक्ट’ पर करवा लिए। बाबासाहब को उस समय ध्यान नहीं आया कि क्या गलती हो रही थी। उन्होंने कहा कि मैं बहुत खुश हूं, अगर गांधी का रवैया ऐसा ही होता तो मुझे गोलमेज सम्मेलन में झगड़ा करने की जरूरत ही नहीं थी। पर बाद में उन्हें गलती का अहसास हुआ। पहली बार यह कहा गया कि राज्य दलितों के उत्थान के लिए प्रयत्न करेगा। बाबासाहब की लड़ाई राजनीतिक आरक्षण हासिल करने की लड़ाई थी। लेकिन शैक्षणिक संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में जो आरक्षण पाया जाता है, उसे पूना पैक्ट में इंगित किया गया। उसे ‘भारत सरकार कानून-1935’ में शामिल किया गया। वह उसकी जड़ है। तब आरक्षण लागू नहीं किया गया क्योंकि उस समय दलितों में पढ़ेलिखे लोग नहीं थे। सोचा गया कि अगर कोई दलित पढ़ालिखा मिलता है, और कोई नौकरी है तो उसे तुरंत भर्ती कर लिया जाएगा। इस तरह यह प्रीफ्रेंसियल पाॅलिसी अपनाई गई। अंबेडकर ने 1943 में वायसराॅय को नोट लिखा, "यह जो प्रीफ्रेंसियल पाॅलिसी है, मुझे नहीं लगता कि यह काम कर रही है। इसके बदले दलितों की संख्या के अनुपात में उनका हिस्सा कोटे के रूप में दिया जाए।" वायसराॅय ने अनुमोदन कर दिया। वह नोट आज की कोटा-व्यवस्था का जनक है। 1943 में ही आरक्षण की व्यवस्था पूरे देश में आ चुकी थी।
1947 में जब सत्ता-हस्तातंरण हुआ और 1950 में संविधन लागू किया गया, उससे कई वर्ष पहले ही आरक्षण मौजूद था। ये कौन-सा नया आरक्षण देने वाले थे? अगर इनकी नीयत साफ होती तो छुआछूत के साथ-साथ जातिप्रथा का उन्मूलन भी उसी दिन कर दिया होता। परिस्थितियां ऐसी थीं। क्योंकि 1936 में जिन्हें आरक्षण मिलना था उनको एक प्रशासनिक श्रेणी में सम्मिलित किया गया था। उसका नाम था- अनुसूचित जाति। इस श्रेणी का हिंदू धर्म की जातियों से कोई संबंध नहीं था। जातियों को उसी समय जड़ से उखाड़कर फेंका जा सकता था। लेकिन उनका यह इरादा ही नहीं था क्योंकि उन्हें जाति और धर्म को किसी भी कीमत पर जिंदा रखना था! क्योंकि धर्म और जाति, ये दो ऐसे हथियार हैं जो जनता की एकता को खंड-खंड कर सकते हैं। इसलिए उन्होंने जातियों को मरने नहीं दिया।
बाद में जनजातियों के लिए एक अनुसूची बनाई गई- अनुसूचित जनजाति। यहां एक समस्या थी कि उनके लिए कोई तय मापदंड नहीं था, जैसे कि अनुसूचित जाति के लिए तय था कि जो लोग अछूत हैं वही आएंगे। कोई अपने आप नहीं बोलता कि मैं अछूत हूं। यह एक निश्चित मापदंड था। लेकिन जनजाति के लिए कोई परिभाषा नहीं थी। जो जनजातियां जंगलों में बसी थीं, वो तो ठीक है, लेकिन जनजातियां शहरों और मैदानी भूभागों में भी बसने लगी थीं। अब कोई भी दावा कर सकता था कि वो भी जनजाति है। अगर इस आरक्षण का उन तक भी विस्तार करना था तो पहले से अस्तित्व में आ चुकी सूची में ही उन्हें भी शामिल कर लिया जाता। पर वह नहीं किया, क्योंकि जनजातियां अछूत नहीं थीं। उनमें जातियां नहीं थीं। अगर सबको एक ही अनुसूची में शामिल कर लेते तो उस अनुसूची का कलंक कम से कम कुछ धुंधला तो होता। पर ऐसा नहीं हुआ। जाति की जगह जनजाति लिखकर अलग अनुसूची बनाई गई।
आगे चलकर एक और प्रावधन संविधान में रखा कि देश में जो वर्ग शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़े हैं, उन्हें राज्य दीया लेकर ढूंढ़ेगा और उनके लिए भीे प्रावधन करेगा। ये थे अन्य पिछड़े वर्ग। आरक्षण पिछड़ेपन के लिए नहीं था, लोगों में यह बड़ी गलतफहमी है। औपनिवेशिक शासन में आरक्षण अपवादस्वरूप सामाजिक श्रेणियों के लिए अपनाई गई, एक अपवादस्वरूप नीति थी। अंग्रेजों को हम गाली देते नहीं थकते कि वे ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के जनक हैं। मेरे हिसाब से यह नीति उन्होंने यहां के ब्राह्मणों से सीखी है। वे खुद इस नीति को यहां नहीं लाये थे। पहली बार, संविधान में जो आरक्षण साफ-साफ, सैद्धांतिक एवं विशुद्ध रूप से लागू किया गया था, उसे पिछड़ेपन से जोड़ा गया।
आज देखते हैं कि ऐसी कोई जाति ही नहीं है जो आरक्षण न मांगती हो, क्योंकि भारत एक पिछड़ा देश है। आज 70 वर्ष बाद भी भारत दुनिया के देशों में निचले पायदानों पर आता है। बहुत से छोटे-छोटे देश हैं, लेकिन बड़े देशों में भारत अकेला देश है, जो निचले पायदान पर है। इस तरह के देश में पिछड़ेपन को आधर बनाकर आरक्षण की नीति बनाना कितनी बड़ी चालबाजी थी! यह बात आज तक कोई नहीं बोला। इस तरह उन्होंने जाति को जिंदा रखा।
जाति इस देश की प्रगति के लिए अड़चन है, ऐसा कहने वाला प्रथम आदमी कौन था? भगतसिंह, गांधी, पेरीयार, अंबेडकर या ज्योतिबा फूले? नहीं। वह था- कार्ल मार्क्स। मार्क्स ने 1852 में लिखा कि भारत में रेलवे के कारण उद्योग आएगा। उद्योग की बदौलत जातिप्रथा ढीली होकर धीरे-धीरे नष्ट हो जाएगी। लोग कहते हैं कि मार्क्स भारत के बारे में नहीं जानते थे या भारत तथा जातिप्रथा के बारे में उनका ज्ञान सतही था। और लोगों का तो ठीक है, पर जब कम्युनिस्ट भी यही कहते हैं और वह भी क्षमायाचना भरे अंदाज में कि क्या करें मार्क्स को भारत के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी, तो हैरानी होती है। मैं कहता हूं कि मार्क्स एकदम सही थे। जब यहां पूंजीवाद आया और जिन जातियों का पूंजीवाद के साथ संबंध बना, उनके जातिवादी संस्कार ढीले हो गये। वे वैश्य जातियां थीं। पूंजीवाद पहले शहरों में आया था। यहां जिन जातियों का सामना पूंजीवाद से हुआ, उनके जातीय बंधन करीब-करीब नष्ट हो गये। कारण है जब ऐसे सामाजिक संबंध बनते हैं उसमें ट्रांजेक्शन काॅस्ट बहुत कम हो जाती है। आप जानते होंगे कि मारवाड़ी लोगों का अपना एकाउंटिंग सिस्टम था। उनकी अपनी विकसित की हुई व्यवस्था थी। क्योंकि सबकुछ विश्वास पर आधरित था कि किसने-कितना रुपया लिया है या कितना-किसको बेचा, उसकी एक ही एंट्री होती थी। दोहरी एंट्री वाली आधुनिक लेखा-व्यवस्था उनके पास नहीं थी। भारत के पूंजीवाद में मारवाड़ी, गुजराती तथा पारसी समुदायों का बड़ा हाथ रहा है। इन सामाजिक संबंधों के कारण उनकी जातियां जाती रहीं। हर वर्ण में जातियां थी, यहां तक कि द्विज जातियों में भी जातियां थी। स्वतंत्रता के बाद ऐसी कुछ पाॅलिसी आई, जिसकी बाद में व्याख्या करूंगा। यह शूद्र जातियों का मध्यक्रम था, जिससे एक वर्ग निर्मित किया गया। ये जातियां भी पूंजीवाद के साथ रूबरू हुईं। इन जातियों का बैंडावेगन उपरोक्त जातियों के साथ जुड़ गया। आज आपको देखने को मिलेगा कि ये जो शूद्र जातियां हैं, उनमें से भी द्विज जातियों में शादी संबंध बनते हैं। अमीर लोगों में सबकुछ बराबर चलता है।
यह एक प्रक्रिया थी जिसमें जातिवाद पर पूंजीवादी आधुनिकता के प्रहार हो रहे थे। जातिवाद के समाप्त होने की संभावना पैदा हो रही थी। सदियों पुरानी बीमारी इतनी आसानी से नहीं जाती! ऊपर से संविधन में जातियों को जिंदा रख लिया गया। हिंदू जातियों का आधुनिकतम संवैधनिक धरातल पर पुनर्रोपण किया गया। हिंदू धर्म की परंपरागत पुरानी जातियां तो समाप्त हो सकती थीं लेकिन आधुनिकता के आधर पर जिनका पुनर्रोपण किया गया हो, उन्हें कैसे उखाड़ेंगे? जिस आधुनिकता में हम आज जी रहे हैं, उसमें इन जातियों की जड़ है। आज की जातियां मनुस्मृति से नहीं, आधुनिक संविधन से आती हैं।
जब 1915 में गांधी दक्षिण-अफ्रीका से वापस आये उन्होंने जान लिया कि इस देश में जब तक जनांदोलन नहीं बनेगा तब तक कोई भी आंदोलन सफल नहीं हो सकता। उन्होंने पूरे देश का भ्रमण किया, जानकारी हासिल की। कांग्रेस पहले शिक्षित जमींदारों का क्लब था। गांधी ने उसे एक व्यापक जनांदोलन का रूप दिया। कांग्रेस को ऐसे चरित्र में पेश किया कि वह जनता का प्रतिनिध्त्वि करने वाला कोई संगठन है। यह गलतपफहमी लोगों में आज भी कायम है कि कांग्रेस देश की जनता का प्रतिनिधित्व कर रही थी, जबकि कांग्रेस नए उभरते पूंजीपति वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रही थी। एकदम शुरू से ही उसे मालूम था कि इस देश की प्रगति पूंजीवाद से ही होनी है और उसका समर्थन करना है। जब सत्ता का हस्तातंरण हुआ, तो उन्होंने इसी दिशा में अपनी सारी हरकतें शुरू कीं। लोगों के नाम पर संविधन को अपनाया गया। ‘हम, भारत के लोग... वगैरह-वगैरह!’ हर नीति जनता के नाम पर बेची गई। लेकिन अंदरूनी रूप से सारी नीतियां पूंजीवाद को लाभ पंहुचाने वाली थीं। उदाहरण के तौर पर जब संविधन-सभा का स्तर चल रहा था, नेहरू ने ऐलान किया कि हमने बाॅम्बे-प्लान को स्वीकार नहीं किया है। 1942 में 8 बड़े पूंजीपतियों ने मिलकर यह प्लान बनाया था कि यदि भारत स्वतंत्र हुआ तो 15 वर्ष के लिए ऐसी योजना होनी चाहिए कि देश का जीडीपी 3 गुणा तथा प्रति व्यक्ति आय दोगुणा बढ़ जाए। कैसी ‘खूबसूरत’ योजना थी! जब प्लान नेहरू के सामने पेश किया गया तो उन्होंने सार्वजनिक ऐलान किया कि प्लान स्वीकार नहीं किया है। जब पहली पंचवर्षीय योजना की घोषणा हुई, उन दिनों पंचवर्षीय योजना सोवियत व्यवस्था में हुआ करती थी, तब दुनिया को लगा कि भारत सोवियत मार्ग पर जाएगा। इसने सभी को आश्चर्य में डाल दिया। पर पहली पंचवर्षीय योजना की पड़ताल करें तो पता चलेगा कि उसके और बाॅम्बे प्लान के आंकड़े एक समान थे। उन्होंने हूबहू बाॅम्बे प्लान को ही लागू किया, लेकिन सार्वजनिक रूप से कहते रहे कि उसे स्वीकार नहीं किया गया। सरकार ने पहली पंचवर्षीय योजना में बाॅम्बे प्लान के आंकड़े स्वीकृत किए। ऐसा ही दूसरी-तीसरी पंचवर्षीय योजना के आंकड़ों के बारे में भी कहा जा सकता है। इस तरह धेखा चलता रहा।
फिर भूमि सुधर लाये गए। जनता में जमीन की भूख थी। उसने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था। उसे लगा कि स्वतंत्रता के बाद जमीन मिलेगी। इसलिए भूमिसुधर कार्यक्रम बनाया गया। जमीन को राज्यों का विषय बना दिया। इनकी नीयत यदि साफ होती तो भूमि को केंद्रीय विषय बनाते। एक केंद्रीय कानून बनाने के बाद, उसे राज्यों द्वारा लागू किया जाता। भू-हदबंदी आदि नाम देकर कई वर्षों तक अलग-2 राज्यों में भू-सुधारों के लिए बहुत से कानून बनाये गए। आज तक पता नहीं चला है कि किस किस्म का भूमिसुधार इस देश में हुआ? आज 9.5% लोगों के पास 56.4% कृषि भूमि है। 41% लोग भूमिहीन हैं। ऐसी विषमता शायद ही किसी देश में मिले।
भूमिसुधार इसलिए किए क्योंकि कांग्रेस में इतना आत्मविश्वास ही नहीं था कि ग्रामीण भारत पर शासन कर सके? उसे ग्रामीण क्षेत्रों में अपने एजेंट पैदा करने थे। धनी किसानों का एक वर्ग तैयार किया गया। किसी के ध्यान में ये बात नहीं आई कि जो जातियां पहले से जमीन पर काबिज थीं, उन्हें ही जमीन मिली, दलितों को नहीं। दलित वास्तव में जमीन से जुड़े थे, भूमि उन्हें मिलनी चाहिए थी। थोड़ी-बहुत जमीन के अलावा उन्हें कुछ नहीं मिला। क्योंकि रिकाॅर्ड आदि में उनके नाम ही नहीं थे। भू-लेखों पर काश्तकारों के नाम थे, ये मध्यम जातियां थी। उन जातियों को जमीनें मिलीं। ये जमींदार बन गए। हमारे क्षेत्रों में जो ब्राह्मण जमींदार होते थे, वे शहरों में बस गए। मध्यम जातियों के हाथ में ब्राह्मणवाद का डंडा आ गया। दलितों में यह प्रचलित है और वे इसे एक गाने की तरह रटते रहते हैं कि ब्राह्मणों ने ये किया, वो किया आदि। लेकिन अब वह डंडा इन मध्यम जातियों के हाथ में है, यह समझ में नहीं आता।
बाद में हरित क्रांति आई। पूंजीवादी रणनीति के तहत कृषि-उत्पादन बढ़ाना था। कहा गया कि भारत में भूख है? उसे मिटाने के लिए इसकी जरूरत है। इससे जिस वर्ग का निर्माण हुआ, उसे समृद्ध किया गया। एक गणना के अनुसार 50-60 के दशकों में इस वर्ग की आय में 25 से 55 गुणा तक वृद्धि हुई। यह एक पूंजीवादी रणनीति थी। इससे गांवों में इनपुट मार्केट बढ़ा। उच्च उत्पादकता वाले बीज लाने थे। बीज का बाजार खड़ा हुआ। कृषि उत्पाद बेचने हेतु मंडियां बनीं। कृषि का मशीनीकरण हुआ। कीट व खरपतवारनाशक आदि का बाजार खड़ा हुआ। क्रेडिट मार्केट बना, क्योंकि पैसा भी चाहिए था। बाजार ग्रामीण भारत में आ जुटा। कृषि में एक किस्म के पूंजीवादी संबंध पैदा हो गये।
जब कपड़ा उद्योग बाॅम्बे में आया, तब अंबेडकर ने कम्युनिस्टों से कहा कि यहां दलित मजदूरों के लिए अलग पानी के मटके रखे हैं व विभिन्न सेक्सनों में दलितों का प्रवेश वर्जित है। पर कम्युनिस्ट इस विषय को तव्वजो नहीं देते थे। यह दूसरी बात है कि कम्युनिस्टों ने ऐसा क्यों नहीं किया। आज जिस तरह से कम्युनिस्ट वोटों के पीछे पड़े रहते हैं, तब उनका यह कन्सर्न था कि यदि हमने जाति का सवाल उठाया तो मजदूरों में फूट पड़ जाएगी। वैसे भी वे जाति के सवाल को बाह्य ढांचे के सवाल के रूप में देखते थे। इन सारे बदलावों, भूमिसुधार और हरित क्रांति आदि का दलितों पर क्या असर हुआ? हम जातिप्रथा को कितनी भी गालियां दे सकते हैं। पर यह एक परस्पर निर्भरता की व्यवस्था थी। गांव में जो दलित रहते थे, सभी ने मान लिया था कि जाति सामाजिक जीवन का भाग है, इसी में जीना है। गांव में हरेक को अपनी जाति के अनुसार काम करना है। गांव में चाहे दलितों को दूर से फेंककर ही दिया जाता था, लेकिन उन्हें मरने के लिए नहीं छोड़ दिया जाता था। लेकिन पूंजीवादी संबंध आने की वजह से जजमानी-व्यवस्था जैसी परंपरागत प्रथाएं नष्ट हो गईं। दलित ग्रामीण सर्वहारा बन गए। वे खेतों में काम करने पर मिलने वाली मजदूरी पर निर्भर हो गए। किन पर? जो धनी किसानों का नया वर्ग बना, उस पर। एक तरफ ग्रामीण सर्वहारा के रूप में दलित, दूसरी तरफ पूंजीवादी किसान के रूप में धनी किसान। वर्ग अंतर्विरोध, अपनी जानी-पहचानी जातिवादी लाईन पर जातीय उत्पीड़न के रूप में अभिव्यक्त होने लगा।
अपनी किस्म की पहली एवं  शास्त्राीय घटना तमिलनाडू के किल्वनवेरी में घटित हुई। वहां दिसंबर 1968 में 44 लोगों को जिंदा जलाया गया, जिनमें ज्यादातर दलित महिलाएं और उनके बच्चे थे। इस घटना ने जातीय-उत्पीड़न के नए अवतार का अनावरण कर दिया। दलितों में बहुत ज्यादा और आमतौर पर सभी लोगों में यह गलतफहमी है कि ऐसे अत्याचार 3000 सालों से होते आए हैं। परन्तु नहीं! 1968 या 1950 से पहले ऐसे अत्याचार नहीं हुए। अगर तुम खुद ही मानते हो कि तुम नीच हो और उसका कोई विरोध भी नहीं है तो कौन आपको मारेगा। अगर एकाध आदमी विरोध करने वाला भी है, तो उसे एकाध झापड़ मार दिया, बस! परन्तु इस तरह के अत्याचार जो एक जाति विशेष पर होते हैं और बड़े ही क्रूर होते हैं, इतिहास में नहीं थे। ये भारत की स्वतंत्रता के बाद की चालबाजियों की पैदाइश है। और यह बात हमें पता ही नहीं है।
अभी हम नवउदारवाद के दौर में जी रहे हैं। जब भारत का संविधान बना, एक रणनीति के तहत डाॅ. अंबेडकर को संविधान सभा में लाया गया। यह गांधी की रणनीति थी कि अंबेडकर को संविधान सभा में लाया जाए और प्रारूप समिति जैसी महत्त्वपूर्ण समिति का अध्यक्ष बनाया जाए। गांधी जानते थे कि समाज का निम्न तबका अगर इस संविधान को स्वीकार कर लेता है तो यह कभी नहीं मर सकता। क्योंकि वे जानते थे कि थोड़े दिनों बाद इसका असली चरित्र जनता के सामने आ जाएगा। जैसाकि अंबेडकर ने चेतावनी दी थी कि इस राजनीतिक लोकतंत्र के साथ-साथ यदि सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र नहीं आया, तो इसके भुगतभोगी इस ढांचे को तहस-नहस कर देंगे। ऐसा कुछ न हो, इसलिये अंबेडकर को इसका मुख्य शिल्पकार बनाया गया। जिन्हें यह गलतफहमी है कि संविधान बाबासाहब ने लिखा है, वे इसके शिल्पकार हैं, उन्हें ये समझना होगा कि यह एक रणनीतिक किलेबंदी थी। दलित इसके बावजूद नहीं मानते, जबकि 2 सितंबर, 1953 को डाॅ. अंबेडकर ने राज्य सभा में खुद कहा था, ‘मुझे इस्तेमाल किया गया। इन लोगों ने जो मुझसे लिखवाया, मुझे लिखना पड़ा। ये संविधान किसी के भी काम का नहीं है। अगर कोई कहे कि इसे जला दो! इसे आग के हवाले करने वाला मैं पहला आदमी हूंगा!’ ये डाॅ.अंबेडकर के शब्द हैं, जिसे दलित सुनना नहीं चाहते।
संविधान निर्माण की प्रक्रिया बताने वाले सारे तथ्य इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। पता चलेगा कि एक आदमी संविधान नहीं लिख सकता। जब संविधान सभा बनी, तब संविधान का ढांचा वास्तव में तैयार था। सभा में उसके मुख्य-मुख्य अनुच्छेदों पर चर्चा होनी थी। इसके लिए सदस्यों की एक उपसमिति बनाई गई। उपसमिति ने विषयों पर चर्चा की और निर्णय लिये। उसके ऊपर 14-15 एडवाइजरी कमेटियां थीं। हर कमेटी का अध्यक्ष कोई न कोई कांग्रेसी था, पटेल या नेहरू! उपसमिति के निर्णयों पर मुहर लगाने का अध्किार एडवाइजरी कमेटियों के पास था। वहीं अंतिम निर्णय संविधान सभा के खुले सदन में रखा जाता। उस पर चर्चा होने के बाद प्रारूप समिति का काम था, उसे ड्राफ्रट करना। यह कार्य बाबासाहब ने किया। उन्होंने अच्छी भाषा में संविधान लिखा। अंबेडकर ने इतना ही काम किया था, जिसके लिए उन्होंने-मुझे इस्तेमाल किया -कहकर ऐलान किया। यदि अंबेडकर ही संविधान लिखते तो संविधान सभा का क्या काम था? यह जानने की जरूरत है। इससे भी ज्यादा हमें यह देखना होगा कि इस संविधान ने किया क्या है? संविधन का तीनचौथाई भाग तो ‘भारत-सरकार कानून 1935’ से लिया गया है। दूसरे देशों के संविधानों में जो कुछ ‘अच्छा’ था, वो लिया गया है। ऐसे यह संविधान बना है। इसमें कुछ भी नया नहीं है। जो औपनिवेशिक शासन का सार था, वही संविधान में लाया गया है। औपनिवेशिक राज्य तो शोषण के लिए बना था। नया संविधान भी नये दौर में वैसे ही शोषण करने का हथियार बनने वाला था। अंबेडकर संविधन सभा में सिर्फ एक मकसद से गए थे कि उन्हें दलित हितों का संरक्षण करना था। उनका इतना ही सरोकार था। बाकी बातों से उन्हें ज्यादा वास्ता नहीं था। आजादी के बाद का जो शासकीय ढांचा है, वह औपनिवेशिक काल का ही है। वही आईपीएस, वही आईएएस, वही सबकुछ, कोई पद नहीं बदले! जो आईपीसी एक सामान्य नागरिक से राफ्ता रखता है, वह भी वही है! वही काले कानून हैं! वही देशद्रोह की धाराएं हैं! शोषकों के सभी प्रावधान संविधान में हूबहू रख लिये गये हैं! और हम उसे सिर-आँखों पर उठाते हैं!
मैंने जिक्र किया था कि जाति के साथ-साथ धर्म को भी उन्होंने मरने नहीं देना था। आज जिस संकट की मैं बात कर रहा हूं, वह भी इसी कारण है। यदि मैं कहता हूं कि यह देश एक धर्म-निरपेक्ष देश नहीं है, बहुत से लोगों को आश्चर्य हो सकता है। धर्म-निरपेक्ष शब्द संविधान में है ही नहीं। इस पर जो उपसमिति बनी थी, उसने निर्णय लिया कि भारत को एक धर्मनिरपेक्ष देश होना चाहिए। उसके ऊपर की एडवाइजरी कमेटी के अध्यक्ष नेहरू थे। नेहरू ने उन्हें फटकार लगाई कि जो लोग धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं, उन्हें मालूम ही नहीं है कि धर्मनिपरेक्षता का क्या अर्थ होता है। केंब्रिज से पढ़े नेहरू अच्छी तरह जानते थे कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ क्या होता है। ‘तुम धर्म को अपने घर तक रखो! उसे बाजार में मत लाओ! राजनीति में मत लाओ!’ धर्मनिरपेक्षता का यही अर्थ है, जिसकी वजह से उस समय इसे नकारा गया था। इसलिए धर्म-निरपेक्षता नाम का शब्द संविधान में कहीं नहीं है।
आपातकाल के बाद इंदिरागांधी ने यह शब्द संविधान की प्रस्तावना में घुसाया था। प्रस्तावना संविधान का अंग नहीं होती। वैसे तो प्रस्तावना का हर शब्द - भारत एक धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी, गणतंत्र, संप्रभु, लोकतांत्रिक और स्वतंत्र देश है, एक बड़ा चुटकुला है। 01% लोगों के पास देश की 58.4% दौलत है, फिर भी यह स्वतंत्र देश है और किसी को आपति नहीं है। यह कहकर कि धर्म के अंदर सुधार लाना है, धर्मिक मामलों में राज्य हस्तक्षेप करेगा। 70वर्षों में कौन-सा सुधार लाया गया है? केवल एक सुधार रिकाॅर्ड पर है। जब 1987 में राजस्थान में रूपकंवर को पति की चिता पर जलाया गया, तब एक सती विरोधी कानून इन लोगों ने पास किया था। सुधार के नाम पर सिर्फ यही कानून 70 सालों के रिकाॅर्ड पर है। और कुछ नहीं किया। बाकी सब राजनीति ही की। उसी राजनीति का नतीजा है कि वे लोग, जिनके लिए भारत में कोई जगह नहीं होनी चाहिए, वे आज एक फासीवादी संकट बनकर खड़े हैं।
मैंने कहा कि दलितों पर अत्याचारों का नया दौर 60 के दशक में, विशेष रूप से 1968 में शुरू हुआ था। तब बहुत से बदलाव आए थे। मैंने विशेष रूप से हरित क्रांति की बात की थी। इन नीतियों की बदौलत निचले स्तरों पर इन वर्गों को शक्तिशाली बनाया गया। इस वर्ग ने शुरू में कांग्रेस पार्टी का समर्थन किया, उसके एजेंट के रूप में काम करता रहा। फिर उसके अंदर महत्त्वाकांक्षाएं पनपने लगीं। राजनीति में इसकी अभिव्यक्ति क्षेत्रीय पार्टियों के रूप में हुई। उन्होंने नयी क्षेत्रीय पार्टियां बनाईं। कांग्रेस सबको संभाल कर नहीं रख पायी। चुनावी प्रतिस्पर्धा बढ़ गई। पहले वोट बैंक का इतना महत्त्व नहीं था क्योंकि सारी ही जनता कांग्रेस के साथ थी। दलित और पिछड़ी जातियां परंपरागत रूप से कांग्रेस के साथ थीं। प्रतियोगिता बढ़ने से वोट-बैंक का महत्त्व बढ़ गया। वोट-बैंक का महत्त्व बढ़ते-बढ़ते बाबासाहब का महत्त्व बढ़ गया। 1956 में बाबासाहब का देहांत हुआ। 1965 तक उनके नाम पर कोई सड़क, बुत या संस्थान इस देश में नहीं था। मैं ये सारी बातें दलितों की आँखें खोलने के लिए बोल रहा हूं। उसके बाद जब वोट-बैंक की राजनीति गहरी होने लगी तब उनके बुत-स्मारक बनने लगे।

नव-उदारवाद का दौर

क्या है ये नवउदारवाद? सभी दलित बुद्धिजीवियों व विद्वानों ने इसका समर्थन किया था। उनका कहना था कि ये बड़ी अच्छी नीतियां हैं। जो ज्यादा बड़े विद्वान थे, उन्होंने तो अंबेडकर को नवउदारवादी बना डाला। कहा कि वे अगर जिंदा होते तो वे भी भूमंडलीकरण का समर्थन करते। भूमंडलीकरण की नीतियों के मामले में बड़े-बड़े दलित चिंतक या तो चुप रहे या समर्थन किया। अकेला मैं था, जो 1990 से ही  लिख रहा था कि भूमंडलीकरण दलितों व सभी निम्न तबकों के विरोध में है। कैसे? एक अनुभव आधारित उदाहरण है। जातीय अत्याचार के आँकडे़ हैरान करने वाले हैं। ये जातिवाद का प्रतिबिंबन हैं। अत्याचारों के आंकड़े पुलिस इकट्ठे करती है। वहां से NCRB को जाते हैं जो इनका सार-संकलन करके रिपोर्ट तैयार करती है। कहते हैं कि जितने मामले पुलिस में दर्ज होते हैं, असल में उससे दस गुणा ज्यादा अत्याचार होते हैं, जो रिपोर्ट ही नहीं किए जाते। अगर इन आँकड़ों को ही सही मानकर चलें तो ये भी हमें बता सकते हैं कि नवउदारवाद के युग में, 1991 से आज तक, दलितों पर अत्याचारों में कितनी बढ़ोतरी दर्ज की गई है।
दूसरी बात, नवउदारवाद कहता है कि खुली प्रतियोगिता और खुले बाजार में जिसके पास ताकत है, वह स्पर्धा में जीतेगा और उसकी जीत जायज है। यह सामाजिक न्याय की अवधरणा को नकारता है। आप देखेंगे कि पहले IMF और विश्वबैंक आदि के साहित्य में ये सारी बातें खुलकर कही जाती थीं, बाद में उन्होंने महसूस किया कि ये बातें इस प्रकार खुलकर नहीं कह सकते। आजकल इन्हें पैचअप करके सामाजिक न्याय की बातें भी उसमें सहयोजित कर ली गई हैं। CSR (काॅरपोरेट सामाजिक जिम्मेवारी) का ‘नया’ सिद्धांत भी ले आए हैं। हम देखते हैं कि नवउदारवाद के युग में भारत अकेला देश नहीं है जहां मूल-तत्ववादी ताकतों को प्रोत्साहन मिला है। नवउदारवाद की छाया में और भी कई देशों में ये ताकतें पनपी हैं। भारत में भाजपा के उभार को यदि नवउदारवाद के संदर्भ में देखते हैं तो पता चलेगा कि 90 के दशक से इसका लगातार उभार होता गया है। और आज ये हमारे सामने संकट बनकर खड़े हैं।
आज दलितों की क्या हालत है। दलितों की हालत का जायजा इसलिए लेना होगा क्योंकि जाति व्यवस्था का सबसे ज्यादा दलित ही शिकार बनते हैं। जैसा कि मैंने कहा यदि जातिप्रथा को नष्ट करना है तो यह केवल दलितों की जिम्मेदारी नहीं है। यहां जो भी प्रगतिशील लोग हैं और जो ये समझते हैं कि इस देश की गंदगी को समाप्त करने के लिए क्रांति की जरूरत है, यह उन सबका कार्यभार है।
ये सब कौन हैं? ये सब हैं - दलितों के अलावा यहां का लेफ्ट। लेफ्ट की चर्चा संक्षिप्त में नहीं हो सकती। क्योंकि बाबा साहब के जमाने से भारत का लेफ्ट जाति के सवाल को बाहरी ढांचे का सवाल कहकर नजरअंदाज करता रहा है। बाॅम्बे के कम्युनिस्ट अंबेडकर का मजाक उड़ाते रहे कि इस बाहरी ढांचागत सवाल पर संघर्ष का निर्माण कैसे किया जा सकता है? ये फालतू की लड़ाई है। वे हंसते रहे और लेफ्ट व बाबा साहब के बीच दूरी बढ़ती गई। दलित आज वामपंथ के साथ नहीं हैं तो यह केवल बाबा साहब के ही कारण है, क्योंकि दलितों में जो अपनी दुकानदारी चलाने वाले हैं, वे अंबेडकर को इस तरह पेश करते रहे कि वे मार्क्सवाद विरोधी थे। आज भी यदि कोई दलितों में वर्ग की बात करता है तो उन्हें इसमें वामपंथ की गंध आने लगती है। वे ऐसी बात करने वालों को -हमारा नहीं है- बोलकर दूर फेंकते हैं। वे नहीं जानते कि अंबेडकर की खुद की लड़ाई एक वर्गसंघर्ष थी। उन्होंने कोलंबिया में एक छात्र के रूप में अपने पहले निबंध में जाति को एक वर्ग के रूप में ही परिभाषित किया था। इसमें कहा था कि जाति कुछ नहीं, Enclosed क्लास है। अगर वे मार्क्सवाद विरोधी होते तो अपना अतिंम भाषण -बुद्ध और कार्ल मार्क्स- पर न देते। मार्क्स से ऐसे तुलना करने की उनको क्या जरूरत थी? उन्होंने कहा कि बुद्ध और मार्क्स का अंतिम ध्येय एक ही है, सिर्फ मार्ग अलग हैं। मार्क्स हिंसा व तानाशाही में विश्वास रखता है, पर बुद्ध ऐसा नहीं करता। इसलिए बुद्धवाद, मार्क्सवाद से बेहतर है।
मार्क्सवाद पर उनकी समझ सही थी या गलत, ये दूसरी बात है; लेकिन उनके अंदर मार्क्सवाद के प्रति आकर्षण था, इसमें कतई शक नहीं है।
1953 में नेहरू केबिनेट से त्यागपत्र देने के बाद अंबेडकर ने एक रीमाॅर्सफुल जीवन गुजारा। वे पीछे मुड़कर देखते रहे कि मैंने जो कुछ किया, उसका क्या हुआ? उन्होंने दादासाहब गायकवाड़ को मराठी में दो वाक्यों का एक पत्र लिखा, "मुझे नहीं लगता कि मेरे तरीकों ने असल में काम किया है। यदि मेरी जनता को तुरंत राहत चाहिए तो वे कम्युनिस्ट बन जाएं।" मिलने वाले बताते हैं कि वे बुढ़ापे में फूट-फूटकर रोते थे। एक बार औरंगाबाद से एससीएफ के लोग उनसे मिलने दिल्ली आए। उनमें बीएस वाघमारे भी थे। उन्होंने देखा कि बाबासाहब रो रहे थे। उन्हें बड़ा दुख हुआ। फिर अंबेडकर ने खुद को संभालते हुए कहा कि उन्होंने जो कुछ भी किया, वह मुट्ठीभर शहरी दलितों के हितों के लिए हुआ है, मेरे दलित भाई जो गांवों में रहते हैं, उनके लिए मैं कुछ भी नहीं कर पाया। बाबा साहब ने उनसे पूछा कि क्या वे जमीन के सवाल पर कुछ कर सकते हैं? वाघमारे औरंगाबाद वापस गए और गायकवाड़ की मदद से एक भूमि-सत्याग्रह खड़ा किया। जमीन की मांग के लिए यह सत्याग्रह 1953 में हुआ था। इसमें 1700 लोग जेल गए थे। इसकी पुनरावृति दादासाहब गायकवाड़ ने रिपब्लिकन पार्टी का गठन करने के बाद 1959 में बड़े पैमाने पर की। अंतिम सत्याग्रह 1964-65 में हुआ। इसके बाद दलित नेताओं के सहयोजन की नीति की शुरू हुई। यह स्वतंत्र दलित राजनीति को ध्वंस करने की शुरुआत थी।
 युवावस्था में हम लिखते थे, ‘चुनाव का बहिष्कार करो! ये धेखा है!’ कल तक हम चुनाव की बात नहीं करते थे। पर सोचने की बात है कि इसी चुनाव के तहत मात्र 31% वोट हासिल करने वाला मोदी 120 करोड़ जनता की बात करता है। चुनाव-प्रणाली शासकवर्गों के शासन को स्थायीत्व प्रदान करती है। इसका विकल्प है- अनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली। चुनाव-प्रणाली को हम अपनी जरूरत के अनुसार ढाल सकते हैं। लेकिन वर्तमान चुनाव-प्रणाली में ऐसी बात नहीं है। हमने पश्चिमी माॅडल अपनाया था, जबकि हमें जरूरत नहीं थी कि हम भी उसे ही अपनाएं।

जातिप्रथा से कैसे लड़ा जा सकता है?

कहना आसान है कि दलित व लेफ्ट एक वर्ग के रूप में एक हो जाएं। इसकी जरूरत भी है क्योंकि आज जाति पहले वाली जाति नहीं रह गई है। इसमें वर्गों का निर्माण हो गया है। जाति प्रमाणपत्र के आधर पर कोई क्रांतिकारी आंदोलन खड़ा करना असंभव है। यह एक गंभीर समस्या है। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि यदि सभी शोषित लोग एक वर्ग के आधर पर साथ आएं तो एक सफल क्रांतिकारी आंदोलन खड़ा किया जा सकता है। जब हम जाति के उन्मूलन की बात करते हैं तो वह क्रांति के साथ ही जुड़ी हुई है। ‘क्रांति के बिना यहां से जाति जाएगी नहीं और बिना जाति व्यवस्था को समाप्त किए यहां क्रांति आएगी नहीं।’ इस तरह का समीकरण बनेगा।
ये बात Rhetorically बोल तो सकते हैं, लेकिन इसे करेंगे किस तरह? क्योंकि इस देश में लेफ्ट, लेफ्ट नहीं है। जो आशादायी लेफ्ट था, आज उसकी हालत खस्ता है। दलितों के अंदर भी बहुत विखंडन है! बिना किसी नुकसान के यदि एक मांग पर जनता को जागृत करें! ये बहुत अहानिकर मांग है। इस पर लोगों का एक साथ आना संभव है। यह कि देश की मौजूदा चुनाव-प्रणाली को बदलने की जरूरत है और Proportional Representation System लाने की जरूरत है। इससे शासकवर्ग भी चौकन्ने नहीं होंगे। एक रणनीति के रूप में ऐसी अहानिकर मांग लेकर संघर्ष खड़ा करें। इस पर काफी चर्चा भी होती है और संभावना भी है कि लोग मान लेंगे। Proportional System छोटी जातियों के खुद को प्रतिनिधित्व हेतु रेग्यूलेट करके आने की संभावना बढ़ जाती है। वे अपने हितों के लिए एकजुट हो जाएं तो माहौल बन सकता है। कालांतर में, हम यह चेतना भी जगा सकते हैं कि आज तक जो दलित आंदोलन हुए, वे सफल नहीं हुए हैं। डाॅ. अंबेडकर ने अपने जीवनकाल में ही अनुभव कर लिया था कि उन्होंने जो भी लड़ाइयां लड़ीं, वे असफल रही हैं। राजनीतिक प्रतिनिधित्व की लड़ाई उनकी मुख्य लड़ाई थी। वे शुरू में पूना पेक्ट से खुश थे, लेकिन बाद में निराश हो गए। क्योंकि वे खुद ही अपना चुनाव नहीं लड़ सके। दलितों के लिए जो तथाकथित आरक्षित सीट है, वह वास्तव में बहुमत पर ही निर्भर करती है। जो पार्टी उनको खड़ा करती है, वह उसका गुलाम होता है। बाबासाहब ने खुद ये महसूस किया। जब संविधन में यह बात आयी थी, तब वे चुप रहे, क्योंकि उनसे ज्यादा दूसरे लोग बोल रहे थे कि ये तो होना है। उन्होंने बस इतना ही कहा कि दस वर्षों बाद इसकी समीक्षा होनी चाहिए। उन्हें राजनीतिक आरक्षण नहीं चाहिए था।
जैसा कि आगे चलकर कांशीराम ने कहा कि ये दलितों के अंदर से चमचे बनाने की मशीन है। इसमें कोई शक नहीं है कि भाजपा विचारधारात्मक रूप से ही दलितों की दुश्मन है। लेकिन आज आरक्षित सीटों से चुनकर आने वाले ज्यादातर सांसद भाजपा के पास हैं और राज्यों में भी आरक्षित सीटों से चुनकर आए ज्यादातर MLA इसी के पास हैं। हमें अपने दिमाग की गंदगी साफ करनी होगी और स्पष्टता से देखना होगा कि हमें किस तरह आज तक उल्लू बनाया गया है। ऊना जैसे बहुत से संघर्ष देशभर में फैलाने होंगे। इससे लोगों में जागृति आएगी। एक वर्ग-चेतना जागेगी। उससे हम यह लड़ाई जीत पाएंगे। मैं एक बार फिर दोहराऊंगा कि देश से जब तक जातिप्रथा का उन्मूलन नहीं होता, तब तक क्रांति असंभव है और जब तक क्रांति नहीं होती, तब तक जाति का उन्मूलन असंभव है।
जाति, बाकी सबसे भिन्न, वह श्रेणी है जो केवल विभाजित करना जानती है। अंबेडकर ने दलितों को इकट्ठा करने की कोशिश की। वे सारे अछूत थे। वह एक किस्म का वर्ग था। अगर वे जाति की लड़ाई लड़ने वाले होते तो केवल महार जाति का झंडा उठाये रहते। उन्होंने ऐसा नहीं किया। अब यह कोई नहीं समझता तो क्या करें? आप जानते होंगे कि दलितों के अंदर से सब-कैटेगरी की मांग आती रहती है। सब-कटैगरी की मांग पर 1995 में माला-मादिगा का विवाद पैदा हुआ था। हमारी सारी राजनीति आरक्षण के सवाल के इर्द-गिर्द चलती रहती है। कहा गया कि माला जाति ने सारा आरक्षण हड़प लिया है, मादिगा को कुछ नहीं मिला है। ये बात उस जाति के गरीब लोगों को अपील करती है।
नवउदारवाद की नीतियों ने दूसरी जातियों को भी संकट में धकेल दिया है। कृषि में संकट है। सब जगह संकट है। उनको क्या दिखता है कि इन्हीं लोगों की वजह से हम संकट में हैं। देहातों में क्या होता है? उच्च जाति के गरीब लोगों को यह लगता है कि उनकी इस हालत के जिम्मेदार दलित हैं। राज्य इनको सहायता प्रदान करता है। क्योंकि दलितों के इक्का-दुक्का घर होते हैं, ऊपरी तौर पर यह दिखने में आ जाता है कि कोई लड़का पढ़ा-लिखा है या बड़ी नौकरी पर लग गया है या शहर में जा रहा है आदि। एकदम दर्शनीय हो जाता है। लोगों को जलन होती है। वे बोलते हैं कि हमारी दयनीय दशा के लिए ये जिम्मेदार हैं। जब कोई नौबत आती है या कोई अनहोनी होनी होती है तो इनको आसानी से उकसाया जा सकता है। उकसाने वाला कोई और होता है। ब्राह्मण नहीं, बल्कि कोई और होता है। अमीर आदमी उकसाता है। उकसाने वाले लोग दूसरे होते हैं। भोले-भाले लोगों के मन में द्वेष की भावना पैदा की जाती है। मैंने खैरलांजी की घटना पर एक पुस्तक लिखी थी जिसमें दलितों पर हो रहे अत्याचारों का जायजा और पूरे ही दलित सवाल का जायजा प्रस्तुत किया गया है। इसमें विस्तार से समीक्षा की गयी है कि ये घटनाऐं कैसे होती हैं या इनके पीछे कौन-सी ताकतें काम करती है या जैसा कि जो बाबा साहब ने कहा था कि दलितों में जो लोग ऊपर आएंगे और वे दलितों के हितों का संरक्षण करेंगे - कैसे वह गलत साबित हुआ है। इस पुस्तक में मैंने यह भी विस्तार से बताया है कि ऐसा आगे भी नहीं हो सकता है। जो लोग आरक्षण को बहुत ज्यादा महत्त्व देते हैं, उनके बारे में यहां एक बात बोलना मैं भूल गया था।  अगर आरक्षण चला गया तो दलितों के लिए बचेगा क्या? देखिए। जब तक सारे लोगों को कुछ मौलिक-तत्व ना दिए जाएं, तब तक आरक्षण की बात फालतू है। वे मौलिक-तत्व कौन से हैं? आदमी का शरीर है, इसे जिंदा रखना है। इसके लिए आरोग्य सुविधा की जरूरत है। आदमी का एक दिमाग है, वह एक जानवर नहीं है, उसके संवर्धन के लिए शिक्षा। सबको एक समान शिक्षा, आप बोलेंगे कि हां शिक्षण तो है। देहातों में जाकर देखिये। वहां अध्यापक नहीं है, ब्लैकबोर्ड भी नहीं है, कुछ भी नहीं है। स्कूल जरूर है। वहां पर मिड-डे मील मिलता है। उसका बजट पास होता है। लेकिन शिक्षण बिल्कुल भी नहीं है। ऐसे माहौल में एक बच्चा कैसे शिक्षा प्राप्त कर सकता है? आज सारा ग्रामीण भारत गुणवत्तापरक शिक्षा से पूर्णरूप से कटा हुआ है। ऊपरी तौर से, यहां पर अंग्रेजी माध्यम वाली पाठशालाएं आ गयी हैं। शिक्षा की दुकानें खुल गई हैं।
 एक वाक्य में कहा जाए तो इस देश में जो मल्टी-लेयर्ड शिक्षा व्यवस्था लागू की गयी है, ऐसा सिस्टम किसी देश में नहीं है। यह सारी विषमता की जड़ है। आपका लड़का अगर वहां तक पहुंच ही नहीं पाता है, तो उसे जितना मर्जी आरक्षण दे दो। मैं आईआईटी में प्रोफेसर था। साढ़े पाँच साल तक मैनेजमैंट स्कूल में पढ़ाता रहा। आरक्षण के बावजूद मुझे वहां केवल दो दलित लड़के मिले। हम उसे सेलीब्रेट कर रहे थे कि कोई तो मिला। यह क्या है? इसका दलितों में जिक्र करें तो बोलेंगे कि उपर बैठे लोगों में जातिवादी पूर्वाग्रह होते हैं, इसलिए वे हमारे बच्चों को नहीं लेते। IIT में क्या होता है? एक JEE MAINS का पेपर होता है। मान लो अगर 98% जनरल के लिए कटआॅफ है कि 98 के नीचे हम कन्सीडर ही नहीं करते। उसके नीचे दो तिहाई पर दलितों का कटआॅफ है। उतने अंक यदि पेपर में मिलते हैं तो उसे कन्सिडर किया जाता है। उस कटआॅफ में ही नहीं आते बच्चे! किसी ने विचार ही नहीं किया कि IIT या IIM में दलित बच्चे किस तरह जाएंगे?  कैसे ये सीटें भरेंगी। पिछले बीस वर्षों से IIT की सीटें भरती ही नहीं हैं। क्यों नहीं भरती? क्योंकि यह आरक्षण-व्यवस्था एक बार जिसे फायदा देती है, उसी को फायदा देती रहती है। एक छोटा-सा पिरामिड बना देती है। ये ऊपर उठने वाले लोग इतने कम हैं कि वे इतने सारे बच्चे पैदा ही नहीं कर पाते कि वे IIT की सीटें भर दें। सिर्फ इन्हीं के बच्चे IIT के सपने देख सकते हैं बाकी के बच्चे तो जैसे बच्चे ही नहीं हैं। कोचिंग कक्षाएं हैं, शिक्षा का स्तर है और बहुत कुछ तामझाम है, ये सबकुछ होने के बाद IIT होता है। लोगों के लिए आरक्षण एक भूलभुलैया बना दिया है कि चलो इसके पीछे भागते रहो। ये सारी बातें हमें गौर से सोचने की जरूरत है।
जब संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया, उसे बहुत चालाकी से पिछड़ेपन से जोड़ा गया। आरक्षण और पिछड़ेपन का कोई संबंध नहीं है। औपनिवेशिक काल में जो आरक्षण दिया गया था, उसे सहज भाव से स्वीकार भी किया गया। किसी ने इसका विरोध नहीं किया। क्योंकि जो दलित या अछूत थे, वो बेचारे इतने बेचारे थे कि और लोगों को लगा कि ये ठीक है। आखिर उनकी जनसंख्या के अनुपात के अनुसार ही तो हिस्सा दे रहे हैं तो इसमें क्या बुरा है? दलित कितना भी काबिल हो, ये समाज-व्यवस्था उसे उसका हिस्सा नहीं देगी, ये तय था। समाज पर दबाव बनाने के लिए कि उसे उसका हिस्सा मिलना चाहिए, यह आरक्षण था। लेकिन संविधान में चालबाजियां करके पिछड़ापन लाया गया। यह भी कहा गया कि यदि कोई और भी पिछड़ापन है तो उसे भी ढूंढ़ेंगे। सब कुछ जातिमय करने की योजना थी। मैं कह सकता हूं कि भारत का समाज आज जितना जातिवादी है, उतना कभी नही रहा। जो कुछ था, लोग उसे मानते थे। लेकिन आज जैसी जातिवादी भावना नहीं थी। वह अमूर्त थी। आज जातिवाद एक मूर्त रूप में हमें सताता है। आरक्षण व्यवस्था कैसी होनी चाहिए?
आरक्षण की अवधारणा को ना तो औपनिवेशिक काल में ठीक से परिभाषित किया गया और न ही संविधान में इसे ढंग से लिखा गया। आरक्षण जैसा कि मैंने कहा - एक अपवादस्वरूप व्यवस्था है। उसके समाप्त होने की बात उसी के अंदर निहित होनी चाहिए। आज ऐसा है कि उसका कोई अंत ही नहीं है, अंतहीन है। कैसे होना चाहिए था? आरक्षण किस लिए दिया गया? यह कि दलित बेचारे है, वे निर्बल हैं, दलितों में अनुवांशिक दोष है! क्या आरक्षण इसलिए दिया गया था? नहीं! इस समाज में अपंगता है, इस समाज में रोग है। ये समाज जब तक अपने आप को दुरुस्त नहीं करेगा, तब तक आरक्षण चलेगा! खुद खत्म हो जाने का प्रावधन अगर इसमें शामिल हो जाता तो यह अपने आप समाप्त हो जाता। उन्होंने यह नहीं किया। किसी ने इसे परिभाषित करने की कोशिश नहीं की। ऐसा अगर करते तो व्यापक समाज के अंदर एक आत्मग्लानि की भावना आती। एक अपराधबोध होता कि नहीं, यह ठीक नहीं है। यह समाज का दोष है। इसका निवारण हो जाए, तभी ये बंद होगा। दलितों में भी एक हीन-भावना आती है। जब टीचर छोटे बच्चों की क्लास में कहता है कि एससी-एसटी के लड़के खड़े हो जाओ, जब आप ऐसा बोलते हैं तो पाँच-छह वर्ष की उम्र में ही उसका सारे का सारा व्यक्तित्व ध्वंस कर डालते हैं। वह तभी समझ जाता है कि यह आरक्षण की कीमत है। दलितों ने यह समझ लिया है कि आरक्षण में ही उनका लाभ है। कभी यह नहीं सोचा कि कोई भी चीज बिना कीमत चुकाये नहीं मिलती। कौन-सी कीमत दी आपने? बहुत ज्यादा कीमत दी है। वह बच्चा कभी उपर नहीं आता है। यह कीमत दी है आपने! वह बच्चा आरक्षण के दम पर सार्वजनिक क्षेत्र में भर्ती तो हो जाता है। पर जब वह देखता है कि उसके साथ वाले लोग लगातार ऊपर जा रहे हैं, लेकिन वह वहीं का वहीं है। दो-तीन प्रोबेशन के बाद उसका सारा व्यक्तित्व मिट जाता है और वह एक डेड-वुड के समान बच जाता है। यह कीमत दी है आपने! ऐसी कितनी जिंदगियां हैं, जो बर्बाद की गई हैं। ऊपरी रूप से देखने में लगता है कि ओह यह तो बड़ा अवसर मिल गया है। दलित भी सिस्टम की लाईन पर चलने लगते हैं। जब आप लाईन पर चलने लगते हैं तो सिस्टम और बढ़ावा देने लगता है। इसी तरह यह गतिक्रम चलता रहता है। यह दुश्चक्र कैसे तोड़ा जाए? मैंने थोड़ा-सा तो जिक्र किया है। कई साल पहले मैंने कहा था कि जिस दिन दलित छत पर खड़े होकर कहेंगे कि हमें आरक्षण नहीं चाहिए, वह भारतीय क्रांति की शुरुआत होगी। आपके चाहने से भी आरक्षण को खत्म नहीं किया जाएगा। आरक्षण का फायदा उनके लिए है, दलितों के लिए नहीं! अगर दलितों में जागृति आ जाए और वे यह कहें कि हमें आरक्षण नहीं चाहिए, इससे हमें नुकसान हो रहा है तो भी शासक-वर्ग इसे समाप्त नहीं करेंगे। वे आरक्षण को जिंदा रखेंगे जैसे उन्हें कश्मीर का मुद्दा जिंदा रखना है। इसी प्रकार आरक्षण को भी समाप्त नहीं होने दिया जाएगा।
आप देख सकते हैं कि नवउदारवाद के बाद सार्वजनिक क्षेत्र का दायरा, जहां आरक्षण लागू होता है, लगातार संकुचित होता गया है। सन् 1997 में सार्वजनिक क्षेत्र में 197.82 लाख नौकरियां  थी जो 2007 में घटकर 180.02 लाख रह गयी हैं। इसका मतलब है कि नेट टर्म में आरक्षण कभी का समाप्त हो चुका है। अभी किसी विभाग की तरफ नजर करेंगे और बोलेंगे कि 15% पद अनुसूचित जाति के लिए रखे हैं या किसी विभाग के आंकड़े दिखाकर कहेंगे कि इतने पद भरे नहीं गए हैं या किसी विश्वविद्यालय में जाकर कहेंगे कि यहां अध्यापकों के इतने पद खाली हैं, ऐसी बातें हो सकती हैं लेकिन एक बृहद दृष्टिकोण से पूरा देखेंगे तो ये बातें सामने आएंगी।
बाबासाहब के हवाले से ही मैंने कहा है कि सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। अंबेडकर ने 1956 के अपने आगरा भाषण में सार्वजनिक रूप से कह दिया था कि पढ़े-लिखे लोगों ने मुझे धोखा दिया है। उन्होंने सारी जिम्मेदारी पढ़े-लिखे लोगों पर डाली थी। एक ही लाइन में उन्होंने साफ कर दिया था।  

2 comments:

  1. गंभीर विवेचना

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  2. सही, सान्दर्भिक और विचारोत्तेजक लेख। जातिप्रथा मुक्ति आन्दोलन जरुरी हैं लेकिन जातिप्रथा मुक्ति होना ही समस्याऔं के समाधान नहीं है। अतः जातिप्रथा मुक्ति आन्दोलन को शोषण मुक्त वर्गसंघर्ष में परिवर्तित करता ही होगा।

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