नई शिक्षा नीति
(शिखर)
अगर नीति और नियम में फर्क देखना हो तो देश की नई शिक्षा नीति का मसौदा देख लेना काफी होगा। बहुत तामझाम के साथ सरकार ने नई शिक्षा नीति का मसौदा तैयार किया है। और देश के बहुत से शिक्षाविदों ने इसकी खूब तारीफ भी की है। अगर कोई व्यक्ति नई शिक्षा नीति को सरसरी निगाह से पढ़ेगा तो ऐसा लगेगा कि एक क्रांतिकारी शिक्षा नीति का प्रारूप तैयार किया गया है और इससे देश की शिक्षा व्यवस्था में जबर्दस्त सुधार देखने को मिल सकता है। बहुत से वे बुद्धिजीवी जो नई शिक्षा नीति के कायल हुए हैं, वे भी इसमें दी गयी नीतिगत बातों से प्रभावित होकर भ्रमित हुए हैं। लेकिन जब मसला इस शिक्षा नीति को लागू करने का आता है तो यही शिक्षा नीति एकदम विपरीत ध्रुव पर जाकर खड़ी हो जाती है। इसलिए नीति में क्रांतिकारी लेकिन व्यवहार में घोर जनविरोधी- ये है नई शिक्षा नीति का सार।
इस बात को कुछ उदाहरणों से समझने का प्रयास करते हैं।
जो लोग स्कूली शिक्षा से जुड़े हुए हैं वे अच्छी प्रकार समझते हैं कि कैसे स्कूल अध्यापकों से अध्ययन कार्य के अलावा सभी काम करवाए जाते हैं। प्राथमिक शिक्षा जो किसी बच्चे के जीवन में नींव का काम करती है, एक बेहद संवेदनशील मसला होता है और एक-एक बच्चे पर पूरा ध्यान देने की जरूरत होती है ताकि प्रत्येक बच्चे को उसकी विशेषता के अनुसार आगे बढ़ने में मदद दी जा सके। यह काम तभी हो सकता है जब अध्यापक अपना पूरा समय बच्चे को दे। लेकिन स्कूलों में अध्यापकों से बीसियों किस्म के सर्वे, चुनावी डयूटी, मिड-डे-मील कार्यक्रम, जनगणना डयूटी और सरकारी नीतियों के प्रचार-प्रसार के नाना प्रकार के काम करवाए जाते हैं। इससे अध्यापक बच्चों पर समुचित ध्यान नहीं दे पाते।
इस शिक्षा नीति के पेज 65 पर लिखा है कि अध्यापकों से शैक्षणिक गतिविधियों के अलावा कोई और काम नहीं करवाए जाएंगे। कितनी अच्छी बात है। लगता है कि सरकार को समझ में आ गया है कि गुणवत्तापूर्ण स्कूली शिक्षा के लिए अध्यापकों की मौजूदगी स्कूलों में और बच्चों के बीच कितनी जरूरी है। लेकिन इस पर हम खुश हों इससे पहले ही मात्र 10 पेज आगे लिखा है कि चुनावी डयूटी और ‘कुछ सर्वे’ छोड़ कर अध्यापकों से और कोई गैर शैक्षणिक काम नहीं करवाए जाएंगे। मिड-डे-मील कार्यक्रम तो शैक्षणिक काम का ही हिस्सा मान लिया जाता है। ‘कुछ सर्वे’ में किसे छोड़ा जाएगा? जिस प्रकार सरकार का काम करने का तरीका है और न्यूनतम कार्यशक्ति के साथ सारे के सारे काम निपटाने की कार्यशैली रहती है उसमें अभी तक जितने भी गैर अध्यापन गतिविधियां अध्यापकों के द्वारा की जाती हैं सभी ‘कुछ सर्वे’ में शामिल रहेंगी, इसमें किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए।
निष्कर्ष यह, कि एक बढ़िया नीति कागजों में बनकर तैयार है लेकिन व्यवहार में कोई बदलाव आने वाला नहीं है।
पेज 181 पर एक और बात लिखी गई है कि सरकार समान काम के लिए समान वेतन देगी। कितनी अच्छी बात है। यह देश की जनता का मौलिक अधिकार होना चाहिए कि समान काम के लिए समान वेतन मिले। लेकिन व्यवहार में यह बात एकदम उल्ट है। बिहार के अध्यापकों ने समान काम के लिए समान वेतन की मांग की और इस मांग को लेकर उन्होंने उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। उच्च न्यायालय ने उनकी मांग को स्वीकार कर लिया। इस जायज मांग को लागू करने की बजाय बिहार सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में इसके खिलाफ अपील की और वहां वह केस जीत गयी। बिहार में एनडीए की ही सरकार है। और उसका रवैया उसकी नियत के बारे में स्पष्ट कर देता है।
एक और महत्वपूर्ण बात नीति के प्रारूप में लिखा है कि सरकार गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने के लिए कृत संकल्प है। बहुत बढ़िया, शिक्षा गुणवत्ता पूर्ण ही होनी चाहिए। लेकिन कैसे?
देश में हजारों की संख्या में स्कूल बंद करके। प्रत्येक राज्य में हजारों की संख्या में सरकारी स्कूल बंद किए जा रहे हैं। नीति में ही लिख दिया गया है कि जहां छात्रों की संख्या कम है या अध्यापकों की संख्या कम है ऐसे सभी सरकारी स्कूलों को बंद कर दिया जाए और वहां के अध्यापकों और छात्रों को आस पास के स्कूलों में भेज दिया जाए। अब इस नीति का सबसे बुरा असर दूर दराज के इलाकों के स्कूलों पर पड़ रहा है क्योंकि अकसर ही वहां बच्चों या अध्यापकों की संख्या पूरी नहीं हो पाती। हम भूल जाएं जापान द्वारा एक बच्ची के लिए स्पैशल चलाई जा रही ट्रेन के बारे में जिसमें सवार वह बच्ची स्कूल जाती थी और उस गाड़ी की एकमात्र सवारी थी। हम भूल जाएं सोवियत संघ द्वारा दुर्गम इलाकों में दो-दो, चार-चार बच्चों के लिए खोले गए स्कूलों के बारे में जिसने क्या सुखद परिणाम दिए थे। जिसकी एक तस्वीर हमें ‘पहला अध्यापक’ नाम की कालजयी रचना में मिलती है। यहां स्कूलों के बंद होने का परिणाम यह निकलने वाला है कि देश के लाखों बच्चे स्कूली व्यवस्था से ही बाहर हो जाएंगे।
नई शिक्षा नीति कह रही है कि आमतौर पर सरकारी स्कूलों के पास संसाधन निजी स्कूलों से बेहतर होते हैं। साथ ही नई शिक्षा नीति का मानना है कि निजी स्कूल बहुत बड़ा परोपकार का काम कर रहे हैं (पेज 262) और उन्हें किसी भी प्रकार से हतोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए और सरकारी स्कूलों को अपने संसाधन जैसे कि खेल का मैदान, प्रयोगशाला, पुस्तकालय, अध्यापकों के प्रोजेक्ट आदि निजी स्कूलों को भाड़े पर दे देने चाहिएं। इससे सरकारी स्कूलों को अपने खर्चे पूरे करने में सुविधा रहेगी और निजी स्कूल ‘परोपकार’ बेहतर तरीकों से कर पाएंगे।
अब इस भाड़े पर देने की रीत के क्या परिणाम निकलने वाले हैं, इस पर सहज ही सोचा जा सकता है- गरीब और दलित परिवारों से आने वाले बच्चे खेल के मैदान या प्रयोगशाला के लिए निजी स्कूलों के बच्चों से होड़ करेंगे तो क्या होगा? इस रेस में भी उनका पिछड़ना तय है।
नई शिक्षा नीति में एक बात पर बहुत जोर दिया गया है कि वैज्ञानिक शिक्षा पद्धति अपनाई जाएगी। बहुत सी जगहों पर जनवादी शिक्षा नीति शब्द का भी प्रयोग किया गया है। वैज्ञानिक और जनवादी शिक्षा नीति की बात आज तक वामपंथी लोग ही करते आए थे। अब भाजपा सरकार की नीति में इन शब्दों का मिलना अत्यंत सुखद लगता है। लेकिन इस पर ज्यादा इतराने की जरूरत नहीं है क्योंकि प्राचीन काल के युनान की तरह जनवादी शब्द का अर्थ वह नहीं है जो आम जनमानस समझता है। प्राचीन युनान में जनवादी समाज था । लेकिन उस वक्त के जनवाद में 90% गुलाम शामिल ही नहीं थे। जनवाद केवल भद्र जनों के लिए था।
पिछले छः सालों के दौरान वैज्ञानिक या जनवादी शिक्षा के नाम पर शिक्षा में जो हो रहा है, वह और कुछ भी हो, न तो वैज्ञानिक है और न ही जनवादी। प्लास्टिक सर्जरी के रूप में गणेश, इंजीनियरिंग के नमूने के रूप में राम सेतु, जन संचार के उदाहरण के रूप में नारद को पढ़ाया जाना और गाय के गोबर और मूत्र पर अनुसंधान के नाम पर करोड़ों खर्च करना और बेसिर-पैर के उदाहरण देकर आंइस्टीन और क्वांटम के सिद्धांतों को नकारना मात्र कुछ उदाहरण हैं। एक ओर जनवादी शिक्षा की बात की जा रही है, दूसरी ओर पुलिस और रोमियो ब्रिगेड युवाओं को परस्पर मिलने से रोक रही है। लव-जिहाद का डर दिखा कर अन्तर-धर्मिक विवाहों को रोका जा रहा है।
नई शिक्षा नीति का स्पष्ट मानना है कि युवाओं को किसी एक नौकरी से बंध कर नहीं सोचना चाहिए। उन्हें दूसरी, तीसरी, चौथी प्रकार का काम भी करना पड़ सकता है, इसके लिए तैयार करना होगा। इसका क्या अर्थ है? यही कि स्थायी नौकरियों का समय चला गया है। सरकार यह संदेश दे रही है कि युवा अब अगर किसी एक नौकरी से निकाल दिए जाएं तो उन्हें कोई और काम ढूंढने में संकोच नहीं करना चाहिए। सरकार नौजवानों को मानसिक रूप से तैयार कर रही है कि वे अब किसी एक नौकरी के सहारे जिंदगी नहीं चला पाएंगे।
नई शिक्षा नीति कह रही है कि साल 2032 तक कुल छात्रों की संख्या को बढ़ा कर दो गुना करना है। लेकिन यही नीति यह कह रही है कि इस दौरान शैक्षणिक संस्थानों की संख्या को तीन-चौथाई घटा दिया जाएगा। कुल विश्वविद्यालयों की संख्या 1000-1200 के बीच, कालेजों की संख्या 10000-12000 के बीच और शोध संस्थानों की संख्या को 300 तक सीमित कर दिया जाएगा। बाकी के सभी कालेज बंद कर दिए जाएंगे और उनकी परिसंपत्तियां बेच दी जाएंगी। वर्तमान में देश में कालेजों की संख्या लगभग 40,000 है।
अब इस नीति को क्यों लाया जा रहा है? संस्थान जितने कम होंगे, उन पर नियंत्रण रखना उतना ही आसान होगा। कालेज और विश्वविद्यालय न केवल अध्ययन केे केंद्र होते हैं, बल्कि नए विचारों, आलोचनाओं के केंद्र भी होते हैं। हजारों सालों से ऐसे केंद्रों से निकले छात्रों-बुद्धिजीवियों ने समाज को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन हमेशा ही सत्तासीनों ने इन केंद्रों की आवाज को दबाने की कोशिश की है। नई शिक्षा नीति कालेजों-विश्वविद्यालयों की संख्या को सीमित कर वही काम करने का प्रयास कर रही है। इसका एक समानान्तर उदाहरण न्यूज चैनल हैं। वर्तमान सरकार ने पिछले कुछ सालों में केवल दो नए चैनलों को एयर करने की इजाजत दी है ताकि विरोधी पक्ष के लोग अपनी बात लोगों तक न पंहुचा सकें। कुछ ऐसा ही शिक्षण संस्थानों के साथ करने की तैयारी है।
नई शिक्षा नीति की सबसे खतरनाक बात इसके पेज 507 पर लिखी है। आज तक आम मान्यता रही है कि शिक्षा और स्वास्थ्य- ये दो क्षेत्र ऐसे हैं जहां सरकार व्यवस्था देखती है और यह सुनिश्चित करती है कि सभी को शिक्षा और स्वास्थ्य मिल सके। लेकिन यह नीति सुस्पष्ट निर्देश देती है कि सरकार शिक्षा में निवेश करेगी, व्यय नहीं। निवेश और व्यय के इस फण्डे का अर्थ है कि सरकार अगर शिक्षा पर कोई रकम निवेश कर रही है तो वह सुनिश्चित करेगी कि उससे उसे मुनाफा प्राप्त हो। जहां उसे मुनाफा नहीं मिलेगा, उस जगह वह कोई निवेश नहीं करेगी। इसका साफ अर्थ यह निकलता है कि अब आने वाले समय में निजी और सरकारी शिक्षा में अंतर मिट जाएगा। सभी सरकारी संस्थान निजी संस्थानों की तरह मुनाफे के लिए काम करेंगे।
शिक्षा का पूरा नियंत्रण कैसे सरकार अपने हाथों में रखने वाली है, यह राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के गठन से समझ में आता है। इस आयोग के मुखिया प्रधानमंत्री स्वयं होंगे। इसमें नौकरशाहों की भरमार रहेगी। इसमें कुछ शिक्षाविद भी रखे जाएंगे लेेकिन इस प्रकार की मीटिंगों को जानने वाले लोग इस बात से बखूबी परिचित हैं कि जिस संस्थागत ढांचे में नेता और नौकरशाह आ जाते हैं वहां तकनीकी ज्ञान वाले लोग, अध्यापक, डाॅक्टर, वैज्ञानिक आदि सिवाय गर्दन हिलाने के और कोई काम नहीं कर सकते।
ये सभी नीतियां आने वाले समय में देश की शिक्षा की तस्वीर साफ कर देती हैं कि शिक्षा पर निजी नियंत्रण बढ़ने वाला है। सरकारी संस्थान निजी संस्थानों को प्रोत्साहित करने का काम करेंगे। सरकार का नियंत्रण शिक्षा पर बढ़ने वाला है और शिक्षा को सरकार के एजेण्डे को आगे बढ़ाने के टूल के तौर पर प्रयोग किया जाने वाला है। देश का युवा बड़े पूंजीपतियों के लिए मुनाफा कमाने का जरिया बनने वाला है। युवाओं का अपना भविष्य सुरक्षित नहीं रहेगा और हमेशा बेरोजगारी की तलवार उसके सिर पर लटकती रहने वाली है। और यह सब नई शिक्षा नीति के नाम पर हो रहा है जो जनवादी, उदार, वैज्ञानिक जैसे सुंदर शब्दों का जाल रच कर देश के युवाओं और बुद्धिजीवियों को भ्रमित कर रही है।
EXCILLENT OBSERVATION DEAR
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